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Tuesday, January 23, 2018

ज्योतिष में फलकथन का आधार The basis of astrology in astrology

लग्न आदिक द्वादशभावोंमेंसे जो जो भाव अपने पूर्ण बली स्वामीवाला हो अथवा स्वामीसे युक्त वा देखा जात हो अथवा शुभग्रहोंकी दृष्टिसे युक्त हो तो क्रमसे उस भावकी वृद्धि कहना चाहिये ॥१॥

रुप, वर्ण, चिह्न, जाति अवस्थाका प्रमाण, सुख,ल दुःख और साहस इन सब पदार्थोंका विचार तनुभावसे करना चाहिये ॥२॥

स्वर्णादि धातु, क्रय, विक्रय रत्नादि, कोषका संग्रह ये सब दूसरे ( धन ) भावसे विचार करना चाहिये ॥३॥

सहोदरभाईका, नौकरका और पराक्रमका विचार तीसरे ( सहज ) भावसे करना चाहिये ॥४॥

चौथे ( सुह्यत् ) भावसे मित्र, मकान, ग्राम, चौपाये जीव, क्षेत्र भूमि इन सबका विचार करना चाहिये, जो शुभग्रह बैठे होय या देखते होंय तो इन सब पदार्थोकी वृद्धि कहना और जो चौथे स्थानमें पापग्रह बैठे होंय वा देखते होंय तो इन पदार्थोंकी हानि होती है ॥५॥

बुद्धिके प्रबंध, विद्या, सन्तान, मंत्राराधन, नीति, न्याय और गर्भकी स्थिति ये सब विचार पंचम ( सुत ) भावसे करना चाहिये ॥६॥

शत्रु, व्रण ( फोडा, फुंसी, तिल, मस्सा ), क्रूरकर्म, रोग, चिंता, शंका, मातुलका शुभाशुभ विचार, ये सब छठे ( शत्रु ) भावसे विचार करना चाहिये ॥७॥

युद्ध, स्त्री, व्यापार, परदेशसे आनेका विचार ये सब सप्तम ( जाया ) भावसे विचार करना चाहिये ॥८॥

नदीके पार उतरना, रास्ता, विषमस्थान, शस्त्रप्रहार, आयुषीय समस्त संकटोंका विचार अष्टम ( रन्ध्र ) भावसे करना चाहिये ॥९॥

धर्मक्रियामें मनकी प्रवृत्ति और निर्मल स्वभाव, तीर्थयात्रा, नीति, नम्रता ये सब नवम ( भाग्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥१०॥

व्यापार, मुद्रा, राजमान्य और राजसंबंधी प्रयोजन, पिताके सुखदुःखका विचार, महत् पदकी प्राप्ति ये सब दशम ( पुण्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥११॥

हाथी, घोडा, सोना, चांदी, वस्त्र, आभूषण, रत्नोंका लाभ, पालकी, मकान इन सब चीजोंका विचार ग्यारहवें ( लाभ ) भावसे करना चाहिये ॥१२॥

हानिका विचार व दानका व व्ययका व दंड और बंधन इन सबका विचार ( व्यय ) बारहवें भावसे करना चाहिये ॥१३॥

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 लग्न आदिक द्वादशभावोंमेंसे जो जो भाव अपने पूर्ण बली स्वामीवाला हो अथवा स्वामीसे युक्त वा देखा जात हो अथवा शुभग्रहोंकी दृष्टिसे युक्त हो तो क्रमसे उस भावकी वृद्धि कहना चाहिये ॥१॥

रुप, वर्ण, चिह्न, जाति अवस्थाका प्रमाण, सुख,ल दुःख और साहस इन सब पदार्थोंका विचार तनुभावसे करना चाहिये ॥२॥

स्वर्णादि धातु, क्रय, विक्रय रत्नादि, कोषका संग्रह ये सब दूसरे ( धन ) भावसे विचार करना चाहिये ॥३॥

सहोदरभाईका, नौकरका और पराक्रमका विचार तीसरे ( सहज ) भावसे करना चाहिये ॥४॥

चौथे ( सुह्यत् ) भावसे मित्र, मकान, ग्राम, चौपाये जीव, क्षेत्र भूमि इन सबका विचार करना चाहिये, जो शुभग्रह बैठे होय या देखते होंय तो इन सब पदार्थोकी वृद्धि कहना और जो चौथे स्थानमें पापग्रह बैठे होंय वा देखते होंय तो इन पदार्थोंकी हानि होती है ॥५॥

बुद्धिके प्रबंध, विद्या, सन्तान, मंत्राराधन, नीति, न्याय और गर्भकी स्थिति ये सब विचार पंचम ( सुत ) भावसे करना चाहिये ॥६॥

शत्रु, व्रण ( फोडा, फुंसी, तिल, मस्सा ), क्रूरकर्म, रोग, चिंता, शंका, मातुलका शुभाशुभ विचार, ये सब छठे ( शत्रु ) भावसे विचार करना चाहिये ॥७॥

युद्ध, स्त्री, व्यापार, परदेशसे आनेका विचार ये सब सप्तम ( जाया ) भावसे विचार करना चाहिये ॥८॥

नदीके पार उतरना, रास्ता, विषमस्थान, शस्त्रप्रहार, आयुषीय समस्त संकटोंका विचार अष्टम ( रन्ध्र ) भावसे करना चाहिये ॥९॥

धर्मक्रियामें मनकी प्रवृत्ति और निर्मल स्वभाव, तीर्थयात्रा, नीति, नम्रता ये सब नवम ( भाग्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥१०॥

व्यापार, मुद्रा, राजमान्य और राजसंबंधी प्रयोजन, पिताके सुखदुःखका विचार, महत् पदकी प्राप्ति ये सब दशम ( पुण्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥११॥

हाथी, घोडा, सोना, चांदी, वस्त्र, आभूषण, रत्नोंका लाभ, पालकी, मकान इन सब चीजोंका विचार ग्यारहवें ( लाभ ) भावसे करना चाहिये ॥१२॥

हानिका विचार व दानका व व्ययका व दंड और बंधन इन सबका विचार ( व्यय ) बारहवें भावसे करना चाहिये ॥१३॥



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(5)
ज्योतिष में फलकथन का आधार मुख्यतः ग्रहों, राशियों और भावों का स्वाभाव, कारकत्‍व एवं उनका आपसी संबध है।

ग्रहों को ज्योतिष में जीव की तरह माना जाता है - राशियों एवं भावों को वह क्षेत्र मान जाता है, जहाँ ग्रह विचरण करते हैं। ग्रहों का ग्रहों से संबध, राशियों से संबध, भावों से संबध आदि से फलकथन का निर्धारण होता है।

ज्योतिष में ग्रहों का एक जीव की तरह 'स्‍वभाव' होता है। इसके अलाव ग्रहों का 'कारकत्‍व' भी होता है। राशियों का केवल 'स्‍वभाव' एवं भावों का केवल 'कारकत्‍व' होता है। स्‍वभाव और कारकत्‍व में फर्क समझना बहुत जरूरी है।

सरल शब्‍दों में 'स्‍वभाव' 'कैसे' का जबाब देता है और 'कारकत्‍व' 'क्‍या' का जबाब देता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। माना की सूर्य ग्रह मंगल की मेष राशि में दशम भाव में स्थित है। ऐसी स्थिति में सूर्य क्‍या परिणाम देगा?

नीचे भाव के कारकत्‍व की तालिका दी है, जिससे पता चलता है कि दशम भाव व्यवसाय एवं व्यापार का कारक है। अत: सूर्य क्‍या देगा, इसका उत्‍तर मिला की सूर्य 'व्‍यवसाय' देगा। वह व्‍यापार या व्‍यवसाय कैसा होगा - सूर्य के स्‍वाभाव और मेष राशि के स्‍वाभाव जैसा। सूर्य एक आक्रामक ग्रह है और मंगल की मेष राशि भी आक्रामक राशि है अत: व्‍यवसाय आक्रामक हो सकता है। दूसरे शब्‍दों में जातक सेना या खेल के व्‍यवयाय में हो सकता है, जहां आक्रामकता की जरूरत होती है। इसी तरह ग्रह, राशि, एवं भावों के स्‍वाभाव एवं कारकत्‍व को मिलाकर फलकथन किया जाता है।

दुनिया की समस्त चल एवं अचल वस्तुएं ग्रह, राशि और भाव से निर्धारित होती है। चूँकि दुनिया की सभी चल एवं अचल वस्तुओं के बारे मैं तो चर्चा नहीं की जा सकती, इसलिए सिर्फ मुख्य मुख्य कारकत्‍व के बारे में चर्चा करेंगे।

सबसे पहले हम भाव के बारे में जानते हैं। भाव के कारकत्‍व इस प्रकार हैं -
प्रथम भाव : प्रथम भाव से विचारणीय विषय हैं - जन्म, सिर, शरीर, अंग, आयु, रंग-रूप, कद, जाति आदि।


द्वितीय भाव: दूसरे भाव से विचारणीय विषय हैं - रुपया पैसा, धन, नेत्र, मुख, वाणी, आर्थिक स्थिति, कुटुंब, भोजन, जिह्य, दांत, मृत्यु, नाक आदि।


तृतीय भाव : तृतीय भाव के अंतर्गत आने वाले विषय हैं - स्वयं से छोटे सहोदर, साहस, डर, कान, शक्ति, मानसिक संतुलन आदि।


चतुर्थ भाव : इस भाव के अंतर्गत प्रमुख विषय - सुख, विद्या, वाहन, ह्दय, संपत्ति, गृह, माता, संबंधी गण,पशुधन और इमारतें।


पंचव भाव : पंचम भाव के विचारणीय विषय हैं - संतान, संतान सुख, बुद्धि कुशाग्रता, प्रशंसा योग्य कार्य, दान, मनोरंजन, जुआ आदि।


षष्ठ भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - रोग, शारीरिक वक्रता, शत्रु कष्ट, चिंता, चोट, मुकदमेबाजी, मामा, अवसाद आदि।


सप्तम भाव : विवाह, पत्‍नी, यौन सुख, यात्रा, मृत्यु, पार्टनर आदि विचारणीय विषय सप्तम भाव से संबंधित हैं।


अष्टम भाव : आयु, दुर्भाग्य, पापकर्म, कर्ज, शत्रुता, अकाल मृत्यु, कठिनाइयां, सन्ताप और पिछले जन्म के कर्मों के मुताबिक सुख व दुख, परलोक गमन आदि विचारणीय विषय आठवें भाव से संबंधित हैं।


नवम भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - पिता, भाग्य, गुरु, प्रशंसा, योग्य कार्य, धर्म, दानशीलता, पूर्वजन्मों का संचि पुण्य।


दशम भाव : दशम भाव से विचारणीय विषय हैं - उदरपालन, व्यवसाय, व्यापार, प्रतिष्ठा, श्रेणी, पद, प्रसिद्धि, अधिकार, प्रभुत्व, पैतृक व्यवसाय।


एकादश भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - लाभ, ज्येष्ठ भ्राता, मुनाफा, आभूषण, अभिलाषा पूर्ति, धन संपत्ति की प्राप्ति, व्यापार में लाभ आदि।


द्वादश भाव : इस भाव से संबंधित विचारणीय विषय हैं - व्यय, यातना, मोक्ष, दरिद्रता, शत्रुता के कार्य, दान, चोरी से हानि, बंधन, चोरों से संबंध, बायीं आंख, शय्यासुख, पैर आदि।

इस बार इतना ही। ग्रहों का स्‍वभाव/ कारकत्‍व व राशियों के स्‍वाभाव की चर्चा हम अगले पाठ में करेंगे।

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 भावेश

भाव विशेष में स्थित राशि का स्वामी ग्रह ही उस भाव का स्वामी होता है, जिसे भावेश कहते हैं।

आमतौर से…

१. प्रथम भाव के स्वामी को लग्नेश;

२. द्वितीय भाव के स्वामी को धनेश/द्वितीयेश;

३. तृतीय भाव के स्वामी को सहजेश/तृतीयेश;

४. चतुर्थ भाव के स्वामी को सुखेश/चतुर्थेश;

५. पंचम भाव के स्वामी को सुतेश/पंचमेश;

६. षष्ठ भाव के स्वामी को रोगेश/षष्ठेश;

७. सप्तम भाव के स्वामी को जायेश/सप्तमेश;

८. अष्टम भाव के स्वामी को रन्ध्रेश/अष्टमेश;

९. नवम भाव के स्वामी को भाग्येश/नवमेश;

१०. दशम भाव के स्वामी को कर्मेश/दशमेश;

११. एकादश भाव के स्वामी को आयेश/एकादशेश;

१२. द्वादश भाव के स्वामी को व्ययेश/द्वादशेश; कहते हैं।

भावेश, लग्न या अपने भाव से किस स्थान पर है? इसका फलादेश में बहुत महत्त्व होता है। फिर यह देखा जाता है कि भावेश किस राशि में है? किस ग्रह से युक्त या दृष्ट है? उदय/अस्त; वक्री/मार्गी; संधि; चर; अतिचर इत्यादि विभिन्न स्थितियों पर आधारित भावेश का बलाबल और अपने भाव को भावेश कतना सहयोग दे रहा है, इस बात का विचार होता है।

tantrika-sadhanao-ya-tantrika-paddhati-se-sadhana-ka-mahatva तांत्रिक साधनाओ या तांत्रिक पद्धति से साधना का महत्व।

 तांत्रिक साधनाओ या तांत्रिक पद्धति से साधना का महत्व।

तंत्र अलौकिक शक्तियों से युक्त तथा सार्वभौमिक ज्ञान से सम्बद्ध, एक प्रकार विद्या प्राप्ति की पद्धति हैं, जो महान ज्ञान का भंडार हैं। आदि काल से ही समस्त हिन्दू शास्त्र महान ज्ञान तथा दर्शन का भंडार रहा हैं तथा पांडुलिपि के रूप में लिपि-बद्ध हैं एवं स्वतंत्र ज्ञान के श्रोत हैं। बहुत से ग्रंथों की पाण्डुलिपि प्रायः लुप्त हो चुकी हैं या जीर्ण अवस्था में हैं। बहुत से ग्रंथों में कुछ ऐसे ग्रंथों का नाम प्राप्त होता हैं, जो आज लुप्त हो चुके हैं।

       ।। तंत्र का शाब्दिक अर्थ ।।

तंत्र का सर्वप्रथम अर्थ ऋग्-वेद से प्राप्त होता हैं, जिसके अनुसार यह एक ऐसा करघा हैं जो ज्ञान को बढ़ता हैं। जिसके अंतर्गत, भिन्न-भिन्न प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर, बुद्धि तथा शक्ति दोनों को बढ़ाया जाता हैं। तंत्र के सिद्धांत आध्यात्मिक साधनाओं, रीति-रिवाजों के पालन, भैषज्य विज्ञान, अलौकिक तथा पारलौकिक शक्तिओं की प्राप्ति हेतु, काल जादू-इंद्र जाल, अपने विभिन्न कामनाओं के पूर्ति हेतु, योग द्वारा निरोग रहने, ब्रह्मत्व या मोक्ष प्राप्ति हेतु, वनस्पति विज्ञान, सौर्य-मण्डल, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष विज्ञान, शारीरिक संरचना विज्ञान इत्यादि से सम्बद्ध हैं या कहे तो ये सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्ति का भंडार हैं। हिन्दू धर्मों के अनुसार हजारों तंत्र ग्रन्थ हैं, परन्तु काल के दुष्प्रभाव के परिणामस्वरूप कुछ ग्रन्थ लुप्त हो गए हैं। तंत्र का एक अंधकार युक्त भाग भी हैं, जिसके अनुसार हानि से संबंधित क्रियाओं का प्रतिपादन होता हैं। परन्तु यह संपूर्ण रूप से साधक के ऊपर ही निर्भर हैं की वह तंत्र पद्धति से प्राप्त ज्ञान का किस प्रकार से उपयोग करता हैं।
कामिका तंत्र के अनुसार, तंत्र शब्द दो शब्दों के मेल से बना हैं पहला 'तन' तथा दूसरा 'त्र'। 'तन' शब्द बड़े पैमाने पर प्रचुर मात्रा में गहरे ज्ञान से हैं तथा 'त्र' शब्द का अर्थ सत्य से हैं। अर्थात प्रचुर मात्र में वह ज्ञान जिसका सम्बन्ध सत्य से है! वही तंत्र हैं। तंत्र संप्रदाय अनुसार वर्गीकृत हैं, भगवान विष्णु के अनुयायी! जो वैष्णव कहलाते हैं, इनका सम्बन्ध 'संहिताओं' से हैं तथा शैव तथा शक्ति के अनुयायी! जिन्हें शैव या शक्ति संप्रदाय के नाम से जाना जाता हैं, इनका सम्बन्ध क्रमशः आगम तथा तंत्र से हैं। आगम तथा तंत्र शास्त्र, भगवान शिव तथा पार्वती के परस्पर वार्तालाप से अस्तित्व में आये हैं तथा इनके गणो द्वारा लिपि-बद्ध किये गए हैं। ब्रह्मा जी से सम्बंधित तंत्रों को 'वैखानख' कहा जाता हैं।
तंत्र के प्रमुख विचार तथा विभाजन।
तंत्रो के अंतर्गत चार प्रकार के विचारों या उपयोगों को सम्मिलित किया गया हैं।
१. ज्ञान, तंत्र ज्ञान के अपार भंडार हैं।
२. योग, अपने स्थूल शारीरिक संरचना को स्वस्थ रखने हेतु।
३. क्रिया, भिन्न-भिन्न स्वरूप तथा गुणों वाले देवी-देवताओं से सम्बंधित पूजा विधान।
४. चर्या, व्रत तथा उत्सवों में किये जाने वाले कृत्यों का वर्णन।

इनके अतिरिक्त दार्शनिक दृष्टि से तंत्र तीन भागों में विभाजित हैं १. द्वैत २. अद्वैत तथा ३. द्वैता-द्वैत।


१. आगम २. यामल ३. डामर ४. तंत्र
वैचारिक मत से तंत्र शास्त्र चार भागों में विभक्त है

प्रथम तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ माने जाते हैं! आगम वे ग्रन्थ हैं जो भगवान शिव तथा पार्वती के परस्पर वार्तालाप के कारण अस्तित्व में आये हैं तथा भगवान विष्णु द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। भगवान शिव द्वारा कहा गया तथा पार्वती द्वारा सुना गया! आगम नाम से जाना जाता हैं; इसके विपरीत पार्वती द्वारा बोला गया तथा शिव जी के द्वारा सुना गया निगम के नाम से जाना जाता हैं। इन्हें सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा सुना गया हैं तथा उन्होंने ही आगम-निगमो को मान्यता प्रदान की हैं। भगवान विष्णु के द्वारा गणेश, गणेश द्वारा नंदी तथा नंदी द्वारा अन्य गणो को इन ग्रंथों का उपदेश दिया गया हैं।
आगम ग्रंथों के अनुसार शिव जी पंच-वक्त्र हैं, अर्थात इनके पाँच मस्तक हैं; १. ईशान २. तत्पुरुष ३. सद्योजात ४. वामदेव ५. अघोर। शिव जी के प्रत्येक मस्तक भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तिओं के प्रतीक हैं; क्रमशः सिद्धि, आनंद, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया हैं।

भगवान शिव मुख्यतः तीन अवतारों में अपने आपको प्रकट करते हैं १. शिव २. रुद्र तथा ३. भैरव, इन्हीं के अनुसार वे ३ श्रेणिओ के आगमों को प्रस्तुत करते हैं १. शैवागम २. रुद्रागम ३. भैरवागम। प्रत्येक आगम श्रेणी, स्वरूप तथा गुण के अनुसार हैं।

शैवागम : भगवान शिव ने अपने ज्ञान को १० भागों में विभक्त कर दिया तथा उन से सम्बंधित १० अगम शैवागम नाम से जाने जाते हैं।

१. प्रणव शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, कमिकागम नाम से जाना जाता है।

२. सुधा शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, योगजगाम नाम से जाना जाता है।

३. दीप्त शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, छन्त्यागम नाम से जाना जाता है।

४. कारण शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, करनागम नाम से जाना जाता है।

५. सुशिव शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, अजितागम नाम से जाना जाता है।

६. ईश शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सुदीप्तकागम नाम से जाना जाता है।

७. सूक्ष्म शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सूक्ष्मागम नाम से जाना जाता है।

८. काल शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सहस्त्रागम नाम से जाना जाता है।

९. धनेश शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सुप्रभेदागम नाम से जाना जाता है।

१०. अंशु शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, अंशुमानागम नाम से जाना जाता है।

   ।। रुद्रागम : १८ भागों में विभक्त हैं ।।

१. विजय रुद्रागम २. निश्वाश रुद्रागम ३. परमेश्वर रुद्रागम ४. प्रोद्गीत रुद्रागम ५. मुखबिम्ब रुद्रागम ६. सिद्ध रुद्रागम ७. संतान रुद्रागम ८. नरसिंह रुद्रागम ९. चंद्रान्शु रुद्रागम १०. वीरभद्र रुद्रागम ११. स्वयंभू रुद्रागम १२. विरक्त रुद्रागम १३. कौरव्य रुद्रागम १४. मुकुट और मकुट रुद्रागम १५. किरण रुद्रागम १६. गणित रुद्रागम १७. आग्नेय रुद्रागम १८. वतुल रुद्रागम

भैरवागम : भैरवागम के रूप में, यह ६४ भागों में विभाजित किया गया है।

१. स्वच्छ २. चंद ३. कोर्च ४. उन्मत्त ५. असितांग ६. महोच्छुष्मा ७. कंकलिश ८. ............ ९. ब्रह्मा १०. विष्णु ११. शक्ति १२. रुद्र १३. आथवर्ण १४. रुरु १५. बेताल १६. स्वछंद १७. रक्ताख्या १८. लम्पटाख्या १९. लक्ष्मी २०. मत २१. छलिका २२. पिंगल २३. उत्फुलक २४. विश्वधा २५. भैरवी २६. पिचू तंत्र २७. समुद्भव २८. ब्राह्मी कला २९. विजया ३०. चन्द्रख्या ३१. मंगला ३२. सर्व मंगला ३३. मंत्र ३४. वर्न ३५. शक्ति ३६. कला ३७. बिन्दू ३८. नाता ३९. शक्ति ४०. चक्र ४१. भैरवी ४२. बीन ४३. बीन मणि ४४. सम्मोह ४५. डामर ४६. अर्थवक्रा ४७. कबंध ४८. शिरच्छेद ४९. अंधक ५०. रुरुभेद ५१. आज ५२. मल ५३. वर्न कंठ ५४. त्रिदंग ५५. ज्वालालिन ५६. मातृरोदन ५७. भैरवी ५८. चित्रिका ५९. हंसा ६०. कदम्बिका ६१. हरिलेखा ६२. चंद्रलेखा ६३. विद्युलेखा ६४. विधुन्मन।

तंत्र में शाक्त शाखा के अनुसार ६४ तंत्र और ३२७ उप तंत्र, यमल, डामर और संहिताये हैं।

आगम ग्रंथों का सम्बन्ध वैष्णव संप्रदाय से भी हैं, वैष्णव आगम  दो भागों में विभक्त हैं  प्रथम बैखानक तथा दूसरा पंच-रात्र तथा संहिता। बैखानक एक ऋषि का नाम था तथा उसके नौ छात्र १. कश्यप २. अत्री ३. मरीचि ४. वशिष्ठ ५. अंगिरा ६. भृगु ७. पुलत्स्य ८. पुलह ९. क्रतु थें, यह नौ ऋषि बैखानक आगम के प्रवर्तक माने जाते हैं; वैष्णवों की पञ्च क्रियाओं के अनुसार पंच-रात्र आगम रचे गए हैं। वैष्णव संप्रदाय द्वारा भगवान विष्णु से सम्बंधित नाना प्रकार की धार्मिक क्रिया-कर्म! जो पाँच रात्रि या रात्रों में पूर्ण होते हैं, इनका वर्णन वैष्णव आगम ग्रंथों में समाहित हैं। १. ब्रह्मा-रात्र २. शिव-रात्र ३. इंद्र-रात्र ४. नाग-रात्र ५. ऋषि-रात्र! वैष्णव आगम के अंतर्गत आते हैं; सनत कुमार, नारद, मार्कण्डये, वसिष्ठ, विश्वामित्र, अनिरुध, ईश्वर तथा भारद्वाज मुनि! वैष्णव आगमो के प्रवर्तक थे।

यमला या यामल : साधारणतः यमल का अभिप्राय संधि से हैं तथा शास्त्रों के अनुसार दो देवताओं के वार्तालाप पर आधारित हैं। जैसे भैरव संग भैरवी, शिव संग ब्रह्मा, नारद संग महादेव इत्यादि के प्रश्न तथा उत्तर पर आधारित संवाद यामल कहलाता हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार शिव तथा शक्ति एक ही हैं, इनके एक दूसरे से प्रश्न करना तथा उत्तर देना भी यामलो की श्रेणी में आता हैं। वाराही तंत्र के अनुसार १. सृष्टी २. ज्योतिष ३. नित्य कृत वर्णन ४. क्रम ५. सूत्र ६. वर्ण भेद ७. जाती भेद ८. युग धर्मों का यामलो में व्यापक विवेचन हुआ हैं। भैरवागम में व्याप्त भैरवाष्टक के अनुसार यामल आठ हैं; ब्रह्म-यामल, विष्णु-यामल, शक्ति-यामल, रुद्र-यामल, आर्थवर्णा-यामल, रुरु-यामल, वेताल्य-यामल तथा स्वछंद-यामल।

यामिनी-विहितानी कर्माणि समाश्रीयन्ते तत् तन्त्रं नाम यामलम्।
इन संस्कृत पंक्तियों के अनुसार वे साधनायें या क्रियाएं जो रात के अंधेरे में गुप्त रूप से की जाती हैं उन्हें यामल कहा जाता हैं; जो अत्यंत डरावनी तथा विकट होती हैं। शिव और शक्ति से सम्बंधित समस्त रहस्य, गुप्त ज्ञान इन्हीं यामल तंत्रो के अंतर्गत प्रतिपादित होता हैं। मुख्य रूप से ६ यामल शास्त्र धाराएँ हैं १. ब्राह्म २. विष्णु ३. रुद्र ४. गणेश ५. रवि ६. आदित्य।

डामर : डामर ग्रन्थ केवल भगवान शिव द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं। डामरो की संख्या ६ हैं।
 १. योग २. शिव ३. दुर्गा ४. सरस्वती ५. ब्रह्मा ६. गंधर्व।

                         ।। तंत्र ।।

 तांत्रिक ग्रन्थ देवी पार्वती तथा भगवान शिव के परस्पर वार्तालाप के कारण प्रतिपादित हुए हैं। पार्वती द्वारा कहा गया तथा शिव जी द्वारा सुना गया! निगम ग्रन्थ नाम से जाना जाता हैं तथा शिव जी द्वारा बोला गया तथा देवी पार्वती द्वारा सुना गया! आगम ग्रंथ की श्रेणी में आता हैं; तथा यह सभी ग्रन्थ! तंत्र, रहस्य, अर्णव इत्यादि नाम से जाने जाते हैं। तंत्र मुख्यतः शिव तथा शक्ति से सम्बंधित हैं, इन्हीं से अधिकतर तंत्र ग्रंथों की उत्पत्ति हुई हैं। ऐसा नहीं है कि तंत्र ग्रंथों के अंतर्गत विभिन्न साधनाओं, पूजा पथ का ही वर्णन हैं। तंत्र अपने अंदर समस्त प्रकार का ज्ञान समाहित किया हुए हैं, इसी कारण ऋग्-वेद में तंत्र को ज्ञान का करघा कहा गया हैं, जो बुनने पर और बढ़ता ही जाता हैं।

तंत्र पद्धति में शैव, शाक्त, वैष्णव, पाशुपत, गणापत्य, लकुलीश, बौद्ध, जैन इत्यादि सम्प्रदायों का उल्लेख प्राप्त होता हैं, परन्तु शैव तथा शाक्त तंत्र ही जन सामान्य में प्रचलित हैं। यह दोनों तंत्र मूल रूप से या प्रकारांतर में एक ही हैं, केवल मात्र इनके नाम ही भिन्न हैं; ज्ञान भाव! शैव-तंत्र का मुख्य उद्देश्य हैं, वही क्रिया का वास्तविक निरूपण शाक्त तंत्रों में होता हैं। शैवागम या शैव तंत्र भेद, भेदा-भेद तथा अभेद्वाद के स्वरूप में तीन भागों में विभक्त हैं। भेद-वादी! शैवागम शैव सिद्धांत नाम जन सामान्य में विख्यात हैं, वीर-शैव को भेदा-भेद नाम से तथा अभेद्वाद को शिवाद्वयवाद नाम से जाने जाते हैं। माना जाता हैं कि समस्त प्रकार के शिव सूत्रों का उद्भव स्थल हिमालय कश्मीर में ही हैं।

मंत्र : देवता का विग्रह मंत्र के रूप में उपस्थित रहता हैं। देवताओं के तीन रूप होते हैं १. परा २. सूक्ष्म ३. स्थूल, सामान्यतः मनुष्य सर्वप्रथम स्थूल रूप की उपासना करते हैं तथा इसके सहारे वे सूक्ष्म रूप तक पहुँच जाते हैं। तंत्रों में अधिकतर कार्य मन्त्रों द्वारा ही होता हैं।

      ।।  शाक्त तंत्रों की संख्या ।।

महाकाल-तंत्र के अनुसार, शाक्त आगमों की संख्या ६४ हैं, उपतंत्र ३२१, संहिता ३०, चूड़ामणि १००, डामर चतुष्क, यामल अष्टक सूक्त २, पुराण ६, उपवेद १५, कक्ष पुती ३, कल्पाष्टक ८, कल्पलता २, चिंतामणी ३, अगस्त्य सूक्त, परशुराम सूक्त, दुर्वासा सूक्त, दत्त संहिता, प्रत्यभिज्ञा, शक्ति-सूत्र तथा श्री विद्यारत्न सूत्र हैं।
महाकाली प्राच्यविद्या शोध संस्थान
जय मॉ कामाख्या

maa saraswati ki puja upasana मां सरस्वती की पूजा-उपासना

मां सरस्वती को ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। देवी लक्ष्मी के साथ हमेशा ही सरस्वती की पूजा की जाती है, इसके पीछे का आधार यह है क्योंकि संपूर्ण जगत के प्राणी एक जीवन-चक्र से अवश्य जुड़े हैं किंतु बुद्धि केवल मनुष्य के पास ही है। इसी बुद्धि के आधार पर ज्ञान की प्राप्ति करते हुए इसने तरक्की की है।
शास्त्रों के अनुसार जिस भी मनुष्य के पास बुद्धि और ज्ञान है, इनकी मदद से वह अपने जीवन में सबकुछ पा सकता है, धन-संपत्ति और वैभव भी।
किंतु जिनके पास बुद्धि और ज्ञान नहीं है, अगर उसके पास संसार के सभी सुख और धन-संपत्ति हों तो वह स्वयं ही उसे गंवा बैठता है।
इसलिए वेदों और पुराणों में एक सुखी-संपन्न, खुशहाल जीवन के लिए बुद्धि तथा ज्ञान का होना मनुष्य के विकास हेतु अति आवश्यक माना गया है। प्रथम पूज्य गणपति की कृपा से जहां व्यक्ति संसार की बड़ी से बड़ी मुश्किल अपनी बुद्धि के बल पर पार कर सकता है, वहीं ज्ञानी मनुष्य हमेशा ही मनुष्यों में श्रेष्ठ और वंदनीय माने गये हैं।
शास्त्रानुसार जो भी स्त्री या पुरुष नित्य मां सरस्वती की पूजा-उपासना करता है, उसपर मां ज्ञान की कृपा बरसाती हैं। वह अपनी बुद्धि का सही जगह प्रयोग कर अपने ज्ञान के बल पर जगत में प्रसिद्धि और नाम कमाता है। उसके लिए सफलता की राहें हमेशा खुली रहती हैं और वह जो चाहे उसे पा सकता है।

यूं तो सभी देवों की तरह मां सरस्वती की पूजा-उपासना के भी कई नियम हैं, लेकिन मंत्रों का जाप करना इसमें सबसे आसान उपाय है। यहां हम आपको हर राशि के लिए एक सरस्वती मंत्र बता रहे हैं। अपनी राशि अनुसार नित्य प्रात:काल में स्नान-आदि से निवृत्त होकर 108 बार इसका जाप करें, धीरे-धीरे आप देखेंगे कि आपके ज्ञान का दायरा अपने आप ही बढ़ने लगा है और इसके दम पर आपके लिए लाभ की नई राहें भी खुलनी लगी हैं।

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।

हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥


भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूं

मेष राशि

ॐ वाग्देवी वागीश्वरी नम:

वृष राशि

ॐ कौमुदी ज्ञानदायनी नम:

मिथुन राशि

ॐ मां भुवनेश्वरी सरस्वत्यै नम:

कर्क राशि

ॐ मां चन्द्रिका दैव्यै नम:

सिंह राशि

ॐ मां कमलहास विकासिनी नम:

कन्या राशि

ॐ मां प्रणवनाद विकासिनी नम:

तुला राशि

ॐ मां हंससुवाहिनी नम:

वृश्चिक राशि

ॐ शारदै दैव्यै चंद्रकांति नम:

धनु राशि

ॐ जगती वीणावादिनी नम:

मकर राशि

ॐ बुद्धिदात्री सुधामूर्ति नम:

कुंभ राशि

ॐ ज्ञानप्रकाशिनि ब्रह्मचारिणी नम:

मीन राशि

ॐ वरदायिनी मां भारती नम:
🙏🏻जय 🙏🏻श्री 🙏🏻गुरवे नमः🙏🏻