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Monday, August 30, 2010

मुझे वे शिष्य अत्यंत प्रिय हैं, जो अपने स्तर के अनुसार सेवा कार्य में रत हैं




मुझे वे शिष्य अत्यंत प्रिय हैं, जो अपने स्तर के अनुसार सेवा कार्य में रत हैं और समाज के नवनिर्माण में अपना योगदान प्रस्तुत कर रहे हैं. जब मैं एक, पॉँच, दस, पचास, सौ, पॉँच सौ व्यक्तियों व् परिवारों में अध्यात्मिक चेतना की लहर फैलाकर, उन्हें पत्रिका सदस्य बनाकर आर्य संस्कृति से उनका पुनर्परिचय करने वाले शिष्यों के नामों को पड़ता हूँ, तो उन पर मुझे गर्व हो आता हैं, ऐसा लगता हैं, कि मेरा एक प्रयास कुछ सार्थक हुआ हैं और मानव कल्याण को समर्पित कुछ रत्नों का चुनाव हो पाया हैं. ऐसे गृहस्थ शिष्य मुझे सन्यासी शिष्यों से अधिक प्रिय हैं, क्योंकि सन्यासी शिष्यों द्वारा कि गयी सेवा से सिर्फ उनका ही कल्याण होता हैं, जबकि इन गृहस्थ शिष्यों द्वारा कि जाने वाली सेवा से पुरे समाज का भी कल्याण होता हैं. ऐसे शिष्यों के नाम स्वत: ही मेरे ह्रदय पटल पर अंकित हो जाते हैं और मैं अपनी करुणा और आशीर्वाद की अमृत वर्षा से उन्हें सराबोर कर देने के लिए व्यग्र हो उठता हूँ.” -Sadgurudev

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