सदगुरुदेव और पारद विज्ञान
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भारतीय शास्त्रों में पारद की दूसरी संज्ञा " रस" भी कही गयी है और इस अर्थ की विवेचना करते हुए कहा गया है:
"जो समस्त धातुओं को अपने में समाहित कर लेता है तथा बुढापा रोग व मृत्यु की समाप्ति के लिए रस पूर्वक ग्रहण किया जाता है वो "रस है"
इश्वर के लिए भी कहा गया है की " रसो वै सः "
वस्तुतः प्राचीन काल से ही ऋषियों के प्रयास से ही पारद का प्रयोग केवल, लोह सिद्धि और औषधियों के लिए ही नही अपितु कायाकल्प, विशिष्ट विद्याओं की प्राप्ति और सहज समाधि अवस्था को प्राप्त करने के लिए भी किया गया है.
यहाँ तक कहा गया है की बिना रस सिद्ध हुए व्यक्ति कैसे मुक्ति प्राप्त कर सकता है.
भारतीय रसायन सिद्धों ने स्वर्ण निर्माण के अलावा साधना जगत में पारद का प्रयोग कर वायु गमन सिद्धि, शून्य सिद्धि, अदृश्य सिद्धि, देह लुप्त क्रिया भी सिद्ध की.
और इन्ही रस सिद्धों के कारण भारतीय रसायन विद्या सुदूर देशों में पहुची.जिसे कीमियागिरी का नाम दिया गया.
पारद की महत्ता इतनी अधिक व्यापक रही की लगभग सभी सम्प्रदाय के साधकों ने इसका अपने अपने तरीके से प्रयोग कर सम्प्रदायों को समृद्ध व शक्ति सम्पन्न बनाया.
यद्यपि इन सभी की मूल रुचि तो स्वर्ण निर्माण में थी , किंतु इन्ह्ने यह भी अनुभव किया की कुछ विशेष क्रियाओं के द्वारा यदि पारद का भक्षण कर लिया जाए शरीर का कायाकल्प हो जाता है.
और यह क्रिया तभी हो पाती है जब की पारद के अन्दर के विष को ८ संस्कारों के द्वारा निकाल कर उसे अमृत में बदल दिया जाता है . तथा ऐसा पारद यदि विशेष विधियों के द्वारा किसी कुशल रस ज्ञाता की देख रेख में यदि उचित मात्र में ग्रहण किया जाए तो सारे शरीर का कायाकल्प हो जाता है, और यह क्रिया इतनी तीव्र होती है की जिसमे वर्षो या महीनो नही बल्कि कुछ हफ्तों का ही समय पर्याप्त होता है.
सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी का योगदान पारद जगत में कोई नही भूल सकता . विभिन्न शिविरों,ग्रंथो में उन्होंने पारद के ऐसे ऐसे सूत्र प्रकट किए हैं जिन्हें सुनकर और क्रिया रूप में करके आदमी दांतों तले अंगुली दबाने को विवश हो ही जाता है. पारद के १०८ संस्कारों से समाज का परिचय सबसे पहले उन्होंने ही करवाया . वे १०८ संस्कार जिनके विषय में लोगो ने कभी सुना भी नही , सदगुरुदेव ने इन संस्कारों को प्रत्यक्ष करके भी दिखाया.
" स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने हस्ते हुए कहा 'इतना ही क्यूँ ! अनंत शक्ति संपन इस पारद से , हम जो चाहे कर सकते हैं – हवा में उड़ सकते हैं, अदृश्य हो सकते हैं , सोने का ढेर लगा सकते हैं, अक्षय यौवन का वरदान प्राप्त कर सकते हैं, यौगिक शक्ति प्राप्त करके परकाया प्रवेश कर सकते हैं".
"मेरी बात सुनकर स्वामी जी गंभीर हो गए , कुछ सोचते रहे , फिर बोले की पारद को बुभुक्षित करने जो तांत्रिक क्रिया है , उससे तो इतना सोना बन सकता है की –सोने की लंका ही बन जाए.
'रावण शिव भक्त था . शिव का ही तत्व पारद है रावण ने मंत्रो के द्वारा पारद को बुभुक्षित कर पारस बनाकर स्वर्ण की लंका बनाई थी.'
निखिलेश्वरानंद जी ने बताया की 'शुद्ध किया हुआ पारद शरीर में दिव्य क्रियाओं से यदि प्रवेश करा दिया जाए तो हिमालय की बर्फीली चोटियों पर तुम नंगे शरीर घूम सकते हो, ठण्ड का कोई प्रभाव तुम पर नही पड़ेगा.उन्होंने वैसा करके मुझे दिखाया भी . उन्होंने पारद की गुटिका मुझे देकर कहा ,' इसे मुख में रख कर चाहे जितनी दूर की यात्रा करो ,थकान नही होगी, कोई छूत की बिमारी नही होगी, भूख प्यास नही लगेगी, यदि इसे गले में धारण करके परकाया प्रवेश किया जाए तो शरीर की दीर्घकाल तक रक्षा करती है, यदि कोई इसे निगल ले और कालांतर में उसकी मृत्यु हो जाए तो शव में लंबे समय तक कोई परिवर्तन नही होगा.
( उड़ते हुए संन्यासी से साभार)
चाहे सिद्ध सूत बनाना का तरीका हो या फिर पारद के गोपनीय सूत्रों का शिष्यों को ज्ञान कराना. कभी भी सदगुरुदेव ने कोई कमी नही की. उन्होंने सिद्ध सूत बनाने का सरलतम विधान भी बताया.
चाहे वो श्वित्र कुष्ठ से निदान हो या कुरूपता का सुन्दरता में परिवर्तन .
चंद्रोदय जल बनाने का विधान भी उन्होंने शिष्यों के सामने १९८९ में बताया .जिसके द्वारा पारद बंधन की क्रिया अत्यन्त सरलता से हो जाती है और यह जब सम्पूर्ण रोगों से देह को मुक्त रखता है.
पारद द्वारा गौरान्गना का निर्माण जिसके उपयोग से एक दिन में ही गोरापन प्राप्त किया जा सकता है. जबकि बाजार में उपलब्ध बड़े से बड़े उत्पाद भी ऐसा नही कर पाए हैं.
पूज्य गुरुदेव की कृपा से वाराणसी क एक साधक ने तेलिया कांड द्वरा पारद को सुद्ध स्वर्ण में परिवर्तित कर दिया था.
उन्होंने बताया की पारद ६ प्रकार से फलदायक है – दर्शन, स्पर्श,भक्षण,स्मरण,पूजन एवं दान . पारद को इतना पवित्र माना गया है की इसकी निंदा करने वाला भी परम पापी मन गया है.
अष्ट संस्कारित पारद की गुटिका या मुद्रिका का निर्माण कर धारण करने से शरीर वज्र तुल्य हो जाता है, यह गुटिका साधक को मानसिक या शारीरिक व्याधियों से भी मुक्त रखती हैं. और सम्मोहन की आभा देती है .यो भी पारद का सम्मोहन और वशीकरण की क्रियाओं में एक प्रमुख स्थान है और अत्यन्त उच्च कोटि की वशीकरण साधनाये पारद गुटिका को वशीकरण गुटिका के रूप में परिवर्तित कर के ही की जाती है .
रस सिद्ध साधक ८ संस्कारों से युक्त पारद देने में अत्यन्त हिचकिचाहट का अनुभव करते हैं . पर सदगुरुदेव ने इन संस्कारों से युक्त पारद की गुतिकाए और मुद्रिकाए उपलब्ध करवाईं.
इसके अतिरिक्त पारद के विग्रह बनाने का विधान और उनसे कैसे लाभ पाया जा सकता है कौन कौन सी क्रियायें करना चाहिए , यह सबन भी साधको को समझाया.
उन्होंने बताया की पारद के विग्रहो की इतनी महत्ता क्यूँ है, क्यूंकि धन मानव जीवन का अनिवार्य अंग है उसके बिना जीवन सुचारू रूप से नही चल सकता . और एक मात्र पारद ही वो धातु है अक्षय है . तथा अपनी चंचलता में लक्ष्मी की चंचलता को समाहित किए हुए है . इस लिए उसको बंधन करते ही स्वतः ही लक्ष्मी का बंधन होने लगता है और एनी धातुओ की भाति इसकी शक्ति समय के साथ कमजोर नही होती जैसे की अन्य यंत्रो की जो ताम्बे आदि से बने हो उनकी चैतन्यता कुछ वर्षो तक ही रह पाती है पर पारद आजीवन प्रभाव शाली रहता है.
पारद शिवलिंग का स्थापन वास्तु दोष दूर करता है और उसकी निर्माण विधि पर पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है. इनका स्थापन कर यदि नित्य जल चढाते हुए 'ॐ नमः शिवाय' का ११ बार जप कर वह जल थोड़ा पी लें तो कुछ ही दिनों में अपूर्व यौवन की प्राप्ति होती है. तथा ऐसे पारद शिवलिंग पर विशेष मन्त्र से सोमवार को कुबेर साधना करने से अक्षय सम्पत्ति की प्राप्ति होती है. त्राटक करते हुए यदि पारदेश्वर पर यदि पूर्व जन्म दर्शन साधना की जाए तो निश्चय ही ऐसा सम्भव होता है.वायु गमन और शून्य आसन की सिद्धि का तो पारद शिवलिंग आधार ही है .
पारद लक्ष्मी के विषय में भी बहुत कुछ बताया जा चुका है, यदि पारद लक्ष्मी का पूजन करके सौन्दर्य लक्ष्मी मन्त्र का जप किया जाए तो अपूर्व सुन्दरता प्राप्त होती है.
पारद श्रीयंत्र का निर्माण कर यदि भूगर्भीय मंत्रो से उसे सिद्ध कर के भवन बनाते समय यदि भूमि में दबा दिया जाए तो भवन सदैव लक्ष्मी के विविध रूपों से भरा रहता है.
शायद आप लोगो को याद होगा की आज से १२-१५ साल पहले बेरोजगारी हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या थी पर सद्ग्रुदेव द्वारा जबसे राष्ट्रपति भवन में पारदेश्वर की स्थापना करने के बाद आज हमारा देश कैसा प्रगति कर रहा है आप सभी देख सकते हैं, वैश्विक मंडी के इस दौर में बड़े बड़े विकसित देश कंगाली के कगार पर पहुच गए पर . हमारा देश आज भी सीना ताने खड़ा है .
पारद दुर्गा और पारद काली जैसे जटिल विग्रहों का निर्माण तभी सम्भव हो पाता है जब ललिता सहस्त्रनाम और नवार्ण मन्त्र का जप करते हुए इन्हे बनाया जाए बाद में कैसे उन्हें अभिसिक्त किया जाए यह विधान भी उन्होंने समझाया. ऐसे चैतन्य विग्रह के सामने 'दुर्गा द्वात्रिन्स्न्नाम माला' का पाठ करने पर कैसी भी व्याधि हो उससे आजीवन मुक्ति मिलती ही है.
पारद गणपति, तथा पारद अन्नपूर्णा के निर्माण की गोपनीय विधियां भी सदगुरुदेव ने शिविरों में बतायी जिससे साधक को समस्त सुखों की प्राप्ति होती ही है. और भी बहुत कुछ गुरूजी ने प्रदान किया शिष्यों को.
क्या क्या बताऊ …॥ इतना कुछ है मेरे सदगुरुदेव के बार में बोलने के लिए की शब्द मौन हो जाते हैं। आज हम जिस परम्परा से जुड़े हुए हैं , उस पर गर्व करने से बड़ा सुख और आनंद कुछ नही है. बस हमें इस परम्परा को आगे बढ़ाना है. यही संकल्प हम लें , यही हम सदगुरुदेव से प्रार्थना करे.
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भारतीय शास्त्रों में पारद की दूसरी संज्ञा " रस" भी कही गयी है और इस अर्थ की विवेचना करते हुए कहा गया है:
"जो समस्त धातुओं को अपने में समाहित कर लेता है तथा बुढापा रोग व मृत्यु की समाप्ति के लिए रस पूर्वक ग्रहण किया जाता है वो "रस है"
इश्वर के लिए भी कहा गया है की " रसो वै सः "
वस्तुतः प्राचीन काल से ही ऋषियों के प्रयास से ही पारद का प्रयोग केवल, लोह सिद्धि और औषधियों के लिए ही नही अपितु कायाकल्प, विशिष्ट विद्याओं की प्राप्ति और सहज समाधि अवस्था को प्राप्त करने के लिए भी किया गया है.
यहाँ तक कहा गया है की बिना रस सिद्ध हुए व्यक्ति कैसे मुक्ति प्राप्त कर सकता है.
भारतीय रसायन सिद्धों ने स्वर्ण निर्माण के अलावा साधना जगत में पारद का प्रयोग कर वायु गमन सिद्धि, शून्य सिद्धि, अदृश्य सिद्धि, देह लुप्त क्रिया भी सिद्ध की.
और इन्ही रस सिद्धों के कारण भारतीय रसायन विद्या सुदूर देशों में पहुची.जिसे कीमियागिरी का नाम दिया गया.
पारद की महत्ता इतनी अधिक व्यापक रही की लगभग सभी सम्प्रदाय के साधकों ने इसका अपने अपने तरीके से प्रयोग कर सम्प्रदायों को समृद्ध व शक्ति सम्पन्न बनाया.
यद्यपि इन सभी की मूल रुचि तो स्वर्ण निर्माण में थी , किंतु इन्ह्ने यह भी अनुभव किया की कुछ विशेष क्रियाओं के द्वारा यदि पारद का भक्षण कर लिया जाए शरीर का कायाकल्प हो जाता है.
और यह क्रिया तभी हो पाती है जब की पारद के अन्दर के विष को ८ संस्कारों के द्वारा निकाल कर उसे अमृत में बदल दिया जाता है . तथा ऐसा पारद यदि विशेष विधियों के द्वारा किसी कुशल रस ज्ञाता की देख रेख में यदि उचित मात्र में ग्रहण किया जाए तो सारे शरीर का कायाकल्प हो जाता है, और यह क्रिया इतनी तीव्र होती है की जिसमे वर्षो या महीनो नही बल्कि कुछ हफ्तों का ही समय पर्याप्त होता है.
सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी का योगदान पारद जगत में कोई नही भूल सकता . विभिन्न शिविरों,ग्रंथो में उन्होंने पारद के ऐसे ऐसे सूत्र प्रकट किए हैं जिन्हें सुनकर और क्रिया रूप में करके आदमी दांतों तले अंगुली दबाने को विवश हो ही जाता है. पारद के १०८ संस्कारों से समाज का परिचय सबसे पहले उन्होंने ही करवाया . वे १०८ संस्कार जिनके विषय में लोगो ने कभी सुना भी नही , सदगुरुदेव ने इन संस्कारों को प्रत्यक्ष करके भी दिखाया.
" स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने हस्ते हुए कहा 'इतना ही क्यूँ ! अनंत शक्ति संपन इस पारद से , हम जो चाहे कर सकते हैं – हवा में उड़ सकते हैं, अदृश्य हो सकते हैं , सोने का ढेर लगा सकते हैं, अक्षय यौवन का वरदान प्राप्त कर सकते हैं, यौगिक शक्ति प्राप्त करके परकाया प्रवेश कर सकते हैं".
"मेरी बात सुनकर स्वामी जी गंभीर हो गए , कुछ सोचते रहे , फिर बोले की पारद को बुभुक्षित करने जो तांत्रिक क्रिया है , उससे तो इतना सोना बन सकता है की –सोने की लंका ही बन जाए.
'रावण शिव भक्त था . शिव का ही तत्व पारद है रावण ने मंत्रो के द्वारा पारद को बुभुक्षित कर पारस बनाकर स्वर्ण की लंका बनाई थी.'
निखिलेश्वरानंद जी ने बताया की 'शुद्ध किया हुआ पारद शरीर में दिव्य क्रियाओं से यदि प्रवेश करा दिया जाए तो हिमालय की बर्फीली चोटियों पर तुम नंगे शरीर घूम सकते हो, ठण्ड का कोई प्रभाव तुम पर नही पड़ेगा.उन्होंने वैसा करके मुझे दिखाया भी . उन्होंने पारद की गुटिका मुझे देकर कहा ,' इसे मुख में रख कर चाहे जितनी दूर की यात्रा करो ,थकान नही होगी, कोई छूत की बिमारी नही होगी, भूख प्यास नही लगेगी, यदि इसे गले में धारण करके परकाया प्रवेश किया जाए तो शरीर की दीर्घकाल तक रक्षा करती है, यदि कोई इसे निगल ले और कालांतर में उसकी मृत्यु हो जाए तो शव में लंबे समय तक कोई परिवर्तन नही होगा.
( उड़ते हुए संन्यासी से साभार)
चाहे सिद्ध सूत बनाना का तरीका हो या फिर पारद के गोपनीय सूत्रों का शिष्यों को ज्ञान कराना. कभी भी सदगुरुदेव ने कोई कमी नही की. उन्होंने सिद्ध सूत बनाने का सरलतम विधान भी बताया.
चाहे वो श्वित्र कुष्ठ से निदान हो या कुरूपता का सुन्दरता में परिवर्तन .
चंद्रोदय जल बनाने का विधान भी उन्होंने शिष्यों के सामने १९८९ में बताया .जिसके द्वारा पारद बंधन की क्रिया अत्यन्त सरलता से हो जाती है और यह जब सम्पूर्ण रोगों से देह को मुक्त रखता है.
पारद द्वारा गौरान्गना का निर्माण जिसके उपयोग से एक दिन में ही गोरापन प्राप्त किया जा सकता है. जबकि बाजार में उपलब्ध बड़े से बड़े उत्पाद भी ऐसा नही कर पाए हैं.
पूज्य गुरुदेव की कृपा से वाराणसी क एक साधक ने तेलिया कांड द्वरा पारद को सुद्ध स्वर्ण में परिवर्तित कर दिया था.
उन्होंने बताया की पारद ६ प्रकार से फलदायक है – दर्शन, स्पर्श,भक्षण,स्मरण,पूजन एवं दान . पारद को इतना पवित्र माना गया है की इसकी निंदा करने वाला भी परम पापी मन गया है.
अष्ट संस्कारित पारद की गुटिका या मुद्रिका का निर्माण कर धारण करने से शरीर वज्र तुल्य हो जाता है, यह गुटिका साधक को मानसिक या शारीरिक व्याधियों से भी मुक्त रखती हैं. और सम्मोहन की आभा देती है .यो भी पारद का सम्मोहन और वशीकरण की क्रियाओं में एक प्रमुख स्थान है और अत्यन्त उच्च कोटि की वशीकरण साधनाये पारद गुटिका को वशीकरण गुटिका के रूप में परिवर्तित कर के ही की जाती है .
रस सिद्ध साधक ८ संस्कारों से युक्त पारद देने में अत्यन्त हिचकिचाहट का अनुभव करते हैं . पर सदगुरुदेव ने इन संस्कारों से युक्त पारद की गुतिकाए और मुद्रिकाए उपलब्ध करवाईं.
इसके अतिरिक्त पारद के विग्रह बनाने का विधान और उनसे कैसे लाभ पाया जा सकता है कौन कौन सी क्रियायें करना चाहिए , यह सबन भी साधको को समझाया.
उन्होंने बताया की पारद के विग्रहो की इतनी महत्ता क्यूँ है, क्यूंकि धन मानव जीवन का अनिवार्य अंग है उसके बिना जीवन सुचारू रूप से नही चल सकता . और एक मात्र पारद ही वो धातु है अक्षय है . तथा अपनी चंचलता में लक्ष्मी की चंचलता को समाहित किए हुए है . इस लिए उसको बंधन करते ही स्वतः ही लक्ष्मी का बंधन होने लगता है और एनी धातुओ की भाति इसकी शक्ति समय के साथ कमजोर नही होती जैसे की अन्य यंत्रो की जो ताम्बे आदि से बने हो उनकी चैतन्यता कुछ वर्षो तक ही रह पाती है पर पारद आजीवन प्रभाव शाली रहता है.
पारद शिवलिंग का स्थापन वास्तु दोष दूर करता है और उसकी निर्माण विधि पर पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है. इनका स्थापन कर यदि नित्य जल चढाते हुए 'ॐ नमः शिवाय' का ११ बार जप कर वह जल थोड़ा पी लें तो कुछ ही दिनों में अपूर्व यौवन की प्राप्ति होती है. तथा ऐसे पारद शिवलिंग पर विशेष मन्त्र से सोमवार को कुबेर साधना करने से अक्षय सम्पत्ति की प्राप्ति होती है. त्राटक करते हुए यदि पारदेश्वर पर यदि पूर्व जन्म दर्शन साधना की जाए तो निश्चय ही ऐसा सम्भव होता है.वायु गमन और शून्य आसन की सिद्धि का तो पारद शिवलिंग आधार ही है .
पारद लक्ष्मी के विषय में भी बहुत कुछ बताया जा चुका है, यदि पारद लक्ष्मी का पूजन करके सौन्दर्य लक्ष्मी मन्त्र का जप किया जाए तो अपूर्व सुन्दरता प्राप्त होती है.
पारद श्रीयंत्र का निर्माण कर यदि भूगर्भीय मंत्रो से उसे सिद्ध कर के भवन बनाते समय यदि भूमि में दबा दिया जाए तो भवन सदैव लक्ष्मी के विविध रूपों से भरा रहता है.
शायद आप लोगो को याद होगा की आज से १२-१५ साल पहले बेरोजगारी हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या थी पर सद्ग्रुदेव द्वारा जबसे राष्ट्रपति भवन में पारदेश्वर की स्थापना करने के बाद आज हमारा देश कैसा प्रगति कर रहा है आप सभी देख सकते हैं, वैश्विक मंडी के इस दौर में बड़े बड़े विकसित देश कंगाली के कगार पर पहुच गए पर . हमारा देश आज भी सीना ताने खड़ा है .
पारद दुर्गा और पारद काली जैसे जटिल विग्रहों का निर्माण तभी सम्भव हो पाता है जब ललिता सहस्त्रनाम और नवार्ण मन्त्र का जप करते हुए इन्हे बनाया जाए बाद में कैसे उन्हें अभिसिक्त किया जाए यह विधान भी उन्होंने समझाया. ऐसे चैतन्य विग्रह के सामने 'दुर्गा द्वात्रिन्स्न्नाम माला' का पाठ करने पर कैसी भी व्याधि हो उससे आजीवन मुक्ति मिलती ही है.
पारद गणपति, तथा पारद अन्नपूर्णा के निर्माण की गोपनीय विधियां भी सदगुरुदेव ने शिविरों में बतायी जिससे साधक को समस्त सुखों की प्राप्ति होती ही है. और भी बहुत कुछ गुरूजी ने प्रदान किया शिष्यों को.
क्या क्या बताऊ …॥ इतना कुछ है मेरे सदगुरुदेव के बार में बोलने के लिए की शब्द मौन हो जाते हैं। आज हम जिस परम्परा से जुड़े हुए हैं , उस पर गर्व करने से बड़ा सुख और आनंद कुछ नही है. बस हमें इस परम्परा को आगे बढ़ाना है. यही संकल्प हम लें , यही हम सदगुरुदेव से प्रार्थना करे.
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