शिष्य गुरु के इशारे को समझे तो समझदार है और ज्यादा समझ जाए तो होशियार है। शिष्य को समझदार बनना चाहिए, होशियार नहीं। जिस प्रकार चंद्रमा की किरण घोर अंधकार हर लेती है वैसे ही शिष्य के घोर अंधकार को गुरु हर लेते हैं। उक्त प्रेरक विचार आचार्य गुप्तीनंदिजी महाराज ने पुष्पगिरि पर आयोजित पंचकल्याणक महोत्सव में धर्मसभा में व्यक्त किए।
उन्होंने कहा कि अपने जीवन की डोर सद्गुरु के हाथों में सौंप दो तो भव से पार होने में वक्त नहीं लगेगा। जब इंसान को अहंकार आ जाता है तो वह अपने पथ से भटक जाता है और गुरु के चरणों से विमुख हो जाता है।
इस अवसर पर आचार्य पुष्पदंतसागरजी ने कहा कि श्रावक व श्रमण में एक ही अंतर है कि श्रावक बुद्घिगत जीते हैं और श्रमण साधनागत जीते हैं। साधना व संयम के रथ पर सवार होकर साधु मानव कल्याण की भावना चाहता है।
आकांक्षाओं के बादल जब छाते हैं तो अहंकार की बरसात होने लगती है। अहंकार पैदा होता है तो अधिकार की भाषा प्रकट हो जाती है। जहाँ अहंकार की भाषा है वहाँ समस्याएँ हैं।
महँगाई को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। सवाल तो यह है कि इतनी महँगाई के बाद भी महँगी वस्तुओं का त्याग नहीं किया गया। यदि इच्छाओं को वश में कर लिया तो जीवन सुखमय हो जाएगा।
आचार्यश्री ने कहा कि मन क्या चाहता है इन दोनों के बीच द्वंद्व क्यों है। मन चाहता है आवेश घृणा, कुटिलता, स्वार्थ जबकि अंतःकरण चाहता है, शांति, प्रेम सरलता, मित्रता और निःस्वार्थ। इन दोनों के बीच समानता नहीं हो रही है। क्योंकि समस्याएँ अनेक हैं।
प्रतीक सागरजी ने कहा कि जीवन में माता-पिता और गुरु का आशीर्वाद जरूरी है जिसकी जिंदगी में गुरु का नाम मिश्री की तरह घुल जाता है उसके प्रति समर्पण हो जाता है। उसका उद्घार हो जाता है।
मुनि तरुणसागरजी महाराज के आनंद यात्रा में लोगों को जीवन जीने के सूत्रों के साथ ही तनाव से मुक्ति के उपाय बताए गए।
उन्होंने कहा कि अपने जीवन की डोर सद्गुरु के हाथों में सौंप दो तो भव से पार होने में वक्त नहीं लगेगा। जब इंसान को अहंकार आ जाता है तो वह अपने पथ से भटक जाता है और गुरु के चरणों से विमुख हो जाता है।
इस अवसर पर आचार्य पुष्पदंतसागरजी ने कहा कि श्रावक व श्रमण में एक ही अंतर है कि श्रावक बुद्घिगत जीते हैं और श्रमण साधनागत जीते हैं। साधना व संयम के रथ पर सवार होकर साधु मानव कल्याण की भावना चाहता है।
आकांक्षाओं के बादल जब छाते हैं तो अहंकार की बरसात होने लगती है। अहंकार पैदा होता है तो अधिकार की भाषा प्रकट हो जाती है। जहाँ अहंकार की भाषा है वहाँ समस्याएँ हैं।
महँगाई को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। सवाल तो यह है कि इतनी महँगाई के बाद भी महँगी वस्तुओं का त्याग नहीं किया गया। यदि इच्छाओं को वश में कर लिया तो जीवन सुखमय हो जाएगा।
आचार्यश्री ने कहा कि मन क्या चाहता है इन दोनों के बीच द्वंद्व क्यों है। मन चाहता है आवेश घृणा, कुटिलता, स्वार्थ जबकि अंतःकरण चाहता है, शांति, प्रेम सरलता, मित्रता और निःस्वार्थ। इन दोनों के बीच समानता नहीं हो रही है। क्योंकि समस्याएँ अनेक हैं।
प्रतीक सागरजी ने कहा कि जीवन में माता-पिता और गुरु का आशीर्वाद जरूरी है जिसकी जिंदगी में गुरु का नाम मिश्री की तरह घुल जाता है उसके प्रति समर्पण हो जाता है। उसका उद्घार हो जाता है।
मुनि तरुणसागरजी महाराज के आनंद यात्रा में लोगों को जीवन जीने के सूत्रों के साथ ही तनाव से मुक्ति के उपाय बताए गए।
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