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Wednesday, August 25, 2010

गुरु सेवा

गुरु सेवा

 

 गंगा नदी के किनारे स्वामी जी का आश्रम था! स्वामी जी की दिनचर्या नियमित
थी, जो प्रातः काल स्नान से प्रारंभ होती थी! उनके सभी शिष्य भी जल्दी
उठकर अपने कार्यों से निवृत्त होते और फिर गुरु सेवा में लग जाते! उनके
स्नान-ध्यान से लेकर अध्यापन कक्ष की सफाई व आश्रम के छोटे-मोटे कार्य
शिष्यगण ही करते थे!
            एक सुबह स्वामी जी एक संत के साथ गंगा-स्नान कर रहे थे! तभी स्वामीजी
अपने शिष्य को गंगाजी में खड़े-खड़े ही आवाज लगायी!
शिष्य दौड़ा-दौड़ा चला गया!
स्वामीजी ने उससे कहा : "बेटा! मुझे गंगाजल पीना हैं!"
शिष्य आश्रम के भीतर से लोटा लेकर आया और उसे बालू से मांजकर चमकाया! फिर
गंगाजी में उतरकर पुनः लोटा धोकर गंगाजल भरकर गुरूजी को थमाया! स्वामी जी
ने अंजलि भरकर लोटे से जल पिया!
इसके बाद शिष्य खली लोटा लेकर लौट गया!
यह सब देखकर साथ नहा रहे संत ने हैरान होते हुए पूछा :
"स्वामी जी जब आपको गंगाजल हांथों से ही पीना था तो शिष्य से व्यर्थ
परिश्रम क्यों करवाया? आप यहीं से जल लेकर पी लेते!"

इस पर स्वामी जी बोले : "यह तो उस शिष्य को सेवा देने का बहाना भर था!
सेवा इसीलिए दी जाती हैं की व्यक्ति का अंत:करण शुद्ध हो जाये और वह
विद्या का सच्चा अधिकारी बन सके, क्योंकि बिना गुरु सेवा के शिक्षा
प्राप्त नहीं की जा सकती!

चाणक्य नीति में कहा गया हैं की जिस प्रकार कुदाल से मनुष्य जमीन को
खोदकर जल निकल लेता हैं उसी प्रकार गुरु की सेवा करने वाला शिष्य गुरु के
अंतर में दबी शिक्षा को प्राप्त कर सकता हैं!
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
पेज नं. 4 : अगस्त 2009

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शिष्य का यही कर्त्तव्य होता हैं, कि वह गुरु के द्वारा दीक्षा प्राप्त
करें, ज्ञान प्राप्त करे और उनकी सेवा में निरंतर लगा रहे.  
       -
सदगुरुदेव, दीक्षा संस्कार, पेज नं. 23.
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तुमने एक शरीर को गुरु मान लिया हैं, गुरु तो वह तत्व हैं, जिससे जुड़कर
तुम उन आयामों को स्पर्श कर सकते हो, जिनको शाश्त्रों ने पूर्णमिदः
पूर्णमिदं कहा हैं! उसके लिए गुरु के शरीर को बांहों में लेने की जरुरत
नहीं! आवश्यकता हैं की तुम अपना मन उनके चरण कमलों में समर्पित करो…. और वह हो पायेगा केवल और केवल मात्र गुरु सेवा से और गुरु मंत्र जप से!

-सदगुरुदेव, गुरु वाणी. पेज : 45, मई 2009.

 

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