जैसी रही भावना जिसकी
एक प्रसिद्द वेश्यालय था, जो किसी मंदिर के सामने ही स्थित था. वेश्यालय में नित्य प्रति गायन-वादन-नृत्य आदि होता रहता था, जो की वह वेश्या अपने ग्राहकों की प्रसन्नता के लिए प्रस्तुत करती थी और बदले में बहुत सारा धन व कीमती उपहार उनसे प्राप्त करती थी. इस प्रकार उसकी समस्त भौतिक इच्छाएं तो पूर्ण थी, लेकिन कठोर मनुवादी व्यवस्था के अंतर्गत उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित था और उसे वहां पूजा-पाठ आदि करने की अनुमति नहीं थी. वेश्यालय में तो उसे ग्राहकों से ही फुर्सत नहीं थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार मंदिर में स्थापित देव मूर्ति का दर्शन कर ले और धीरे-धीरे समय के साथ उसकी यह इच्छा एक प्रकार की व्याकुलता में बदल गयी. जब मंदिर में आरती के समय बजने वाली घंटियों की आवाज उसके कानों में पड़ती, तो वह अत्यंत व्यग्र हो उठती, उसका हृदय रूदन कर उठता और भगवान् दर्शन की उत्कंठा उसके नेत्रों से बरसने लगती.
वेश्या के गायन-नृत्य आदि की स्वर लहरिया मंदिर तक भी पहुंचती थी. मंदिर का पुजारी कभी तो अत्यंत क्रोधित होता, कि उस नीच कर्मों में रत स्त्री की आवाज़ से मंदिर के वातावरण की पवित्रता में विघ्न उपस्थित हो रहा हैं और कभी वासना के वशीभूत उसी वेश्या के आगोश में पहुँच कर उसके रूप-रस का पान करने की कल्पना में डूब जाता, लेकिन मनुवादी स्समजिक मर्यादा के कारन ऐसा संभव नहीं था.
संयोगवश उस वेश्या और पुजारी, दोनों की मृत्यु एक ही समय हुयी. यमराज उस पुजारी को नरक के द्वार पर छोड़ कर वेश्या को स्वर्ग की और ले जाने लगे.
पुजारी को इस पर बहुत क्रोध आया और उसने यमराज से पूछा – “मैं जीवन भर मंदिर में देव मूर्तियों का पूजन करता रहा, फिर भी मुझे नरक में जगह दी जा रही हैं और यह वेश्या जीवन भर पाप कर्मों में लिप्त रही, फिर भी इसे स्वर्ग ले जाया जा रहा हैं. ऐसा क्यों?”
यमराज ने उत्तर दिया – “देव मूर्तियों की पूजा करते हुए भी तुम्हारा चित्त सदा इस वेश्या में ही लगा रहा, जबकि पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए भी इसका चित्त देव मूर्ति में ही लगा रहा. यही वजह हैं, कि इसे स्वर्ग मिल रहा हैं और तुम्हें नरक.”
वस्तुतः कर्म के साथ विचारों का भी जीवन में अत्यधिक महत्त्व हैं. जब तक चित्त वेश्यागामी रहेगा (अर्थात भौतिक भोगों में लिप्त रहेगा), तब तक देव पूजन, जप, साधना आदि के उपरांत भी स्वर्ग (अर्थात देवत्व. श्रेष्ठता, सफलता, पूर्णता) की प्राप्ति संभव नहीं हैं.
किसी साधना आदि में असफलता प्राप्त होने के पीछे कारन ही यही होता हैं, कि कहीं न कहीं उसके विश्वास, श्रद्धा, समर्पण आदि में न्यूनता रहती हैं एवं चित्त साधनात्मक चिंतन से न्यून हो कर भोगेच्छाओं में लिप्त होता हैं.
अतः साधक का यह पहला कर्त्तव्य हैं, कि वह प्रतिक्षण गुरु या इष्ट चिंतन करता हुआ, मन को नियंत्रित करें, तभी श्रेष्ठता की और अग्रसर होने की क्रिया संभव हो पायेगी.
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