सिकंदर - गुरु के प्रति सच्ची भक्ति
विश्व विजयी सिकंदर अपने गुरु अरस्तु का बहुत सम्मान करता था! उनकी दी हुयी शिक्षाओं का सदैव अमल भी करता! अरस्तु के आदेश उसके लिए पत्थर की लकीर होते और कभी वह उनके विपरीत आचरण नहीं करता था! एक दिन वह अरस्तु के साथ कहीं से लौट रहा था! उस दिन गुरु-शिष्य पैदल ही थे! ऊंची-ऊंची पहाड़ियों व सघन वन के प्राकृतिक माहौल में दोनों वार्तालाप करते हुए चल रहे थे! सहसा सामने एक गहरा नाला आ गया! अरस्तु के मन में अपने प्रिय शिष्य के प्रति प्रेम उमड़ गया! वे बोले : “सिकंदर इस नाले को पहले मैं पार करूँगा, फिर तुम करना! पहले मैं इसकी गहराई देख लूँ!” किन्तु आज सिकंदर के मन में कुछ और ही था! उसने जीवन में प्रथम बार गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया और गुरु से पहले ही नाला पार कर लिया! सिकंदर के इस कृत्य पर अरस्तु ने नाराज होकर पूछा – “तुमने आज तक मेरी आगया को सिर-आँखों पर लिया हैं! फिर आज क्यों नहीं माना?" सिकंदर ने विनय पूर्वक कहा : “गुरुदेव! नाला पार करते समय यदि आपके साथ कोई अनहोनी घट जाती तो मैं आपके जैसा दूसरा गुरु कहाँ खोजता? और यदि मैं डूब जाता तो आप अपने ज्ञान से सैकड़ों सिकंदर बनाने में समर्थ हैं!" यही थी सिकंदर की गुरुभक्ति, जो सिखाती हैं कि अपने ज्ञान व अनुभव से जो हमारी आत्मा को समृद्ध बनता हैं, उस व्यक्तित्व के प्रति पूर्ण आदरभाव रखना चाहिए और अवसर आने पर उसके लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने से भी नहीं चूकना चाहिए! यही गुरु ऋण से मुक्त होने का तरीका हैं और हमारे आद्य भारतीय संस्कारों का अभिन्न अंग भी हैं! -मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पेज न. : 04. दिसम्बर : 2009 |
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