मंत्र शक्ति गूढ़ार्थ १
“शून्य” एक ऐसी सत्ता है जिसमें यदि पूरा ब्रह्मांड भी विलीन हो जाए तो उसे रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ेगा....पता है क्यों?? क्योकि ये एकमात्र ऐसी आधारभूत शक्ति है जिसके ना होने से पीछे कुछ बचेगा ही नहीं क्योकि अंत के लिए आरम्भ आवश्यक है. इसी तरह हमारे शास्त्रों में वर्णित मंत्रो का महत्व है....वो भी बिलकुल शून्य की तरह है. आप मंत्र को कैसे उपयोग कर रहे हो इससे मंत्र सत्ता को कोई फर्क नहीं पड़ता पर हाँ हमें इस बात से फर्क जरूर पड़ता है की वो मंत्र हमारे लिए कैसी स्थिति उत्पन्न कर रहे है या कर सकते है क्योकि हम जानते है की मंत्र शिव और शक्ति का मिलन है जो प्रतीक है उत्थान का और विध्वंस का भी .....
शिव और शक्ति की तरह मंत्र और सिद्धी भी एक साथ जुड़े हुए हैं....इसिलए यदि सिद्धी चाहिए तो इनसे जुड़े कुछ नियमों का पालन करना ही पड़ेगा क्योकि इनकी शक्ति अतुलनीय होती है. पिछले अंक में हमने जाना था कि मंत्र होते क्या है...इन्हें शक्ति कहाँ से प्राप्त होती है....उनका उच्चारण गोपन होना चाहिए या स्फुट. आज हम देखेंगे कि वेदोक्त और साबर मंत्रो को करने की विधि क्या होती है....और इनको करते समय किन तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है.
किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी भाव-भूमि का होना अति अनिवार्य है...क्योकि भाव से कल्पना जन्म लेती है और कल्पना से सच्चाई. ठीक इसी तरह किसी भी मंत्र को करने से पहले आपके भाव स्पष्ट होने चाहिए. श्मसान में यदि साधना के लिए बैठना है तो खुद मृत्यु बनना पड़ेगा तभी विजय हमारा वरण करेगी. ऐसी ही स्थिति होती है जब हम साबर मंत्रो को सिद्ध करने के लिए साधनारत होते है क्योकि इन मंत्रो को सिद्ध करना तलवार की धार पर चलने के समान है. जितनी सच्चाई इस बात में है कि ये मंत्र बहुत जल्दी सिद्ध होते है उतना ही बड़ा सच ये है कि किंचित मात्र भी यदि कहीं कोई त्रुटि रह गई तो.......तो खेल खत्म.
इसीलिए यदि आप पूरी तरह इनके प्रयोग के लिए सुनिश्चित नहीं हो तो इनका परीक्षण कभी ना करें और यदि कर रहे हो तो आपमें धैर्य होना अति आवश्य है.....तेज़ी आपके लिए हानिकारक हो सकती है. साबर मंत्रो में वाम मार्गी साधना का बहुत महत्व है पर वेदोक्त मंत्रो की तरह इनमें मांस और मदिरा का प्रयोग वर्जित है.....और एक और खास बात जहाँ साबर मंत्र सिद्ध किये जाए वहाँ वेदोक्त मंत्र कभी सिद्ध नहीं करने चाहिए. दोनों के लिए अलग अलग स्थान का चयन करना चाहिय क्योकि वेदोक्त मंत्रो के साथ साबर मंत्र कभी सिद्ध नहीं होते और कभी कभी तो विपरीत उर्जा के घर्षण से परिणाम विपरीत हो सकता है.
इसलिए इन मंत्रो को पुस्तकों से प्राप्त कर सिद्ध नहीं किया जा सकता.....इसके लिए आवश्कता होती है योग्य गुरु की क्योकि साधना का मार्ग कोई आसान मार्ग नहीं है.....इसमें बीच का कुछ नहीं होता ......या तो इस पार या उस पार.
मंत्र शक्ति गूढ़ार्थ
हमारे द्वारा बोले गये हर शब्द की अपनी एक सत्ता होती है क्योकि शब्द ब्रह्म होते है और ब्रह्म अटल होता है. जैसे एक एक वर्ण के सुमेल से एक निश्चित अर्थपूर्ण स्थति जन्म लेती है वैसे ही एक एक वर्ण के शिव और शक्ति के स्वरूप में मिलन से उत्पन होते हैं “ मंत्र “ जिनमें हमारे जीवन को बदलने की क्षमता होती है क्योकि मंत्र मात्र शब्दों की एक श्रंखला को नहीं कहते......इनमें प्राण ऊर्जा होती है क्योकि ये शिव,शक्ति और अणुओं के संयोजन से बनते हैं ,जो की आधार हैं सृजन और संहार का, इसी वजह से इनमें भोग और मोक्ष दोनों देने की क्षमता होती है.
अब प्रश्न आता है की मंत्रो का रूप कैसा होता है? ये आकारात्म्क होते हैं या निराकार? और कार्य को करने की शक्ति इन्हें कहाँ से प्राप्त होती है? तो सदगुरुदेव ने इन् प्रश्नों का उत्तर बहुत ही सरल भाषा में समझाया है की देह मलीनता युक्त होती है इसलिए दिव्यता इसमें वास नहीं कर सकती अब चूँकि मंत्र देव भूमि से संबंधित होते है तो ये आकार रहित होते हैं और इन्हें शक्ति मिलती है हमारे अन्तश्चेतन मन से क्योकि आसन पर बैठते ही साधक साधरण से खास और मनुष्य से देव और अंत में शव से शिव बन जाता है इसलिए जैसे ही साधक अपनी साधना प्रारम्भ करता है तो उसकी अन्तश्चेतना से एकाकार करके मंत्र प्राणमय हो जाता है.
पर इस बात को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए की हर किसी में अन्तश्चेतना एक जैसे जाग्रत नहीं होती. किसी में इसका स्तर कम होता है, किसी में ज्यादा तो किसी में ना के बराबर. तो क्या इसका अर्थ ये हुआ की जिसकी अन्तश्चेतना कम जाग्रत है वो मंत्र को प्राण ऊर्जा दे ही नहीं सकता?......नहीं, ऐसा नहीं है पर इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें मंत्रो की किस्मों और उच्चारण की विधि को समझना होगा. मंत्र आम तोर पर तीन किस्म के होते हैं –
वेदोक्त मंत्र, सर्वविदित मंत्र, और साबर मंत्र........पर इनमें से पहले और तीसरे क्रम को ज्यादा महत्व दिया जाता है. अब क्योकि साबर मंत्र “ मंत्र और तंत्र “ से मिलकर बनते है तो इन्हें सिद्ध करना आसान होता है पर इसके बिलकुल विपरीत वेदोक्त मंत्रो को सिद्ध करने के लिए साधक में धैर्य और विश्वास का होना अति आवश्यक है क्योकि इन मंत्रो का आधार ध्वनि होती है. उच्चारण ध्वनि में लेशमात्र भेदभाव इन्हें अर्थहीन बना देता है. इसीलिए इनमें ध्वनि के महत्व को समझते हुए हमारे ऋषिमुनियों ने ध्वनि के आधार पर इन मंत्रो को दो भागो में बांटा है- “गोपन मंत्र” अर्थात चित युक्त मंत्र और “स्फुट मंत्र” मतलब ध्वनि युक्त मंत्र. चित युक्त मंत्रो में साधक को मंत्र का उच्चारण मन ही मन में करना चाहिए पर ध्यान रखिये इसके लिए आपकी अन्तश्चेतना का पूरी तरह से जाग्रत होना अति आवश्यक है जिससे की आपकी आत्मा आपके मंत्र को सुन पाए. इसके उल्ट स्फुट मंत्रो में मंत्र का उच्चारण ध्वनि के साथ किया जाता है ताकि हम अपनी अंतर आत्मा के साथ मंत्र का सामंजस्य बिठा सकें और वो मंत्र हमें सिद्ध हो सके. इसीलिए ये जरूरी है की मंत्र हमेशा सदगुरुदेव से ही प्राप्त करना चाहिए जिससे की उसको विधिपूर्वक सिद्ध करके लाभ लिया जा सके
“शून्य” एक ऐसी सत्ता है जिसमें यदि पूरा ब्रह्मांड भी विलीन हो जाए तो उसे रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ेगा....पता है क्यों?? क्योकि ये एकमात्र ऐसी आधारभूत शक्ति है जिसके ना होने से पीछे कुछ बचेगा ही नहीं क्योकि अंत के लिए आरम्भ आवश्यक है. इसी तरह हमारे शास्त्रों में वर्णित मंत्रो का महत्व है....वो भी बिलकुल शून्य की तरह है. आप मंत्र को कैसे उपयोग कर रहे हो इससे मंत्र सत्ता को कोई फर्क नहीं पड़ता पर हाँ हमें इस बात से फर्क जरूर पड़ता है की वो मंत्र हमारे लिए कैसी स्थिति उत्पन्न कर रहे है या कर सकते है क्योकि हम जानते है की मंत्र शिव और शक्ति का मिलन है जो प्रतीक है उत्थान का और विध्वंस का भी .....
शिव और शक्ति की तरह मंत्र और सिद्धी भी एक साथ जुड़े हुए हैं....इसिलए यदि सिद्धी चाहिए तो इनसे जुड़े कुछ नियमों का पालन करना ही पड़ेगा क्योकि इनकी शक्ति अतुलनीय होती है. पिछले अंक में हमने जाना था कि मंत्र होते क्या है...इन्हें शक्ति कहाँ से प्राप्त होती है....उनका उच्चारण गोपन होना चाहिए या स्फुट. आज हम देखेंगे कि वेदोक्त और साबर मंत्रो को करने की विधि क्या होती है....और इनको करते समय किन तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है.
किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी भाव-भूमि का होना अति अनिवार्य है...क्योकि भाव से कल्पना जन्म लेती है और कल्पना से सच्चाई. ठीक इसी तरह किसी भी मंत्र को करने से पहले आपके भाव स्पष्ट होने चाहिए. श्मसान में यदि साधना के लिए बैठना है तो खुद मृत्यु बनना पड़ेगा तभी विजय हमारा वरण करेगी. ऐसी ही स्थिति होती है जब हम साबर मंत्रो को सिद्ध करने के लिए साधनारत होते है क्योकि इन मंत्रो को सिद्ध करना तलवार की धार पर चलने के समान है. जितनी सच्चाई इस बात में है कि ये मंत्र बहुत जल्दी सिद्ध होते है उतना ही बड़ा सच ये है कि किंचित मात्र भी यदि कहीं कोई त्रुटि रह गई तो.......तो खेल खत्म.
इसीलिए यदि आप पूरी तरह इनके प्रयोग के लिए सुनिश्चित नहीं हो तो इनका परीक्षण कभी ना करें और यदि कर रहे हो तो आपमें धैर्य होना अति आवश्य है.....तेज़ी आपके लिए हानिकारक हो सकती है. साबर मंत्रो में वाम मार्गी साधना का बहुत महत्व है पर वेदोक्त मंत्रो की तरह इनमें मांस और मदिरा का प्रयोग वर्जित है.....और एक और खास बात जहाँ साबर मंत्र सिद्ध किये जाए वहाँ वेदोक्त मंत्र कभी सिद्ध नहीं करने चाहिए. दोनों के लिए अलग अलग स्थान का चयन करना चाहिय क्योकि वेदोक्त मंत्रो के साथ साबर मंत्र कभी सिद्ध नहीं होते और कभी कभी तो विपरीत उर्जा के घर्षण से परिणाम विपरीत हो सकता है.
इसलिए इन मंत्रो को पुस्तकों से प्राप्त कर सिद्ध नहीं किया जा सकता.....इसके लिए आवश्कता होती है योग्य गुरु की क्योकि साधना का मार्ग कोई आसान मार्ग नहीं है.....इसमें बीच का कुछ नहीं होता ......या तो इस पार या उस पार.
मंत्र शक्ति गूढ़ार्थ
हमारे द्वारा बोले गये हर शब्द की अपनी एक सत्ता होती है क्योकि शब्द ब्रह्म होते है और ब्रह्म अटल होता है. जैसे एक एक वर्ण के सुमेल से एक निश्चित अर्थपूर्ण स्थति जन्म लेती है वैसे ही एक एक वर्ण के शिव और शक्ति के स्वरूप में मिलन से उत्पन होते हैं “ मंत्र “ जिनमें हमारे जीवन को बदलने की क्षमता होती है क्योकि मंत्र मात्र शब्दों की एक श्रंखला को नहीं कहते......इनमें प्राण ऊर्जा होती है क्योकि ये शिव,शक्ति और अणुओं के संयोजन से बनते हैं ,जो की आधार हैं सृजन और संहार का, इसी वजह से इनमें भोग और मोक्ष दोनों देने की क्षमता होती है.
अब प्रश्न आता है की मंत्रो का रूप कैसा होता है? ये आकारात्म्क होते हैं या निराकार? और कार्य को करने की शक्ति इन्हें कहाँ से प्राप्त होती है? तो सदगुरुदेव ने इन् प्रश्नों का उत्तर बहुत ही सरल भाषा में समझाया है की देह मलीनता युक्त होती है इसलिए दिव्यता इसमें वास नहीं कर सकती अब चूँकि मंत्र देव भूमि से संबंधित होते है तो ये आकार रहित होते हैं और इन्हें शक्ति मिलती है हमारे अन्तश्चेतन मन से क्योकि आसन पर बैठते ही साधक साधरण से खास और मनुष्य से देव और अंत में शव से शिव बन जाता है इसलिए जैसे ही साधक अपनी साधना प्रारम्भ करता है तो उसकी अन्तश्चेतना से एकाकार करके मंत्र प्राणमय हो जाता है.
पर इस बात को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए की हर किसी में अन्तश्चेतना एक जैसे जाग्रत नहीं होती. किसी में इसका स्तर कम होता है, किसी में ज्यादा तो किसी में ना के बराबर. तो क्या इसका अर्थ ये हुआ की जिसकी अन्तश्चेतना कम जाग्रत है वो मंत्र को प्राण ऊर्जा दे ही नहीं सकता?......नहीं, ऐसा नहीं है पर इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें मंत्रो की किस्मों और उच्चारण की विधि को समझना होगा. मंत्र आम तोर पर तीन किस्म के होते हैं –
वेदोक्त मंत्र, सर्वविदित मंत्र, और साबर मंत्र........पर इनमें से पहले और तीसरे क्रम को ज्यादा महत्व दिया जाता है. अब क्योकि साबर मंत्र “ मंत्र और तंत्र “ से मिलकर बनते है तो इन्हें सिद्ध करना आसान होता है पर इसके बिलकुल विपरीत वेदोक्त मंत्रो को सिद्ध करने के लिए साधक में धैर्य और विश्वास का होना अति आवश्यक है क्योकि इन मंत्रो का आधार ध्वनि होती है. उच्चारण ध्वनि में लेशमात्र भेदभाव इन्हें अर्थहीन बना देता है. इसीलिए इनमें ध्वनि के महत्व को समझते हुए हमारे ऋषिमुनियों ने ध्वनि के आधार पर इन मंत्रो को दो भागो में बांटा है- “गोपन मंत्र” अर्थात चित युक्त मंत्र और “स्फुट मंत्र” मतलब ध्वनि युक्त मंत्र. चित युक्त मंत्रो में साधक को मंत्र का उच्चारण मन ही मन में करना चाहिए पर ध्यान रखिये इसके लिए आपकी अन्तश्चेतना का पूरी तरह से जाग्रत होना अति आवश्यक है जिससे की आपकी आत्मा आपके मंत्र को सुन पाए. इसके उल्ट स्फुट मंत्रो में मंत्र का उच्चारण ध्वनि के साथ किया जाता है ताकि हम अपनी अंतर आत्मा के साथ मंत्र का सामंजस्य बिठा सकें और वो मंत्र हमें सिद्ध हो सके. इसीलिए ये जरूरी है की मंत्र हमेशा सदगुरुदेव से ही प्राप्त करना चाहिए जिससे की उसको विधिपूर्वक सिद्ध करके लाभ लिया जा सके
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