Tuesday, September 14, 2010

Our Desires

संसार में प्रत्येक व्यक्ति सदैव यही कामना करता रहता है कि उसे मन फल मिले| उसे उसकी इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो| जो वह सोचता है कल्पना करता है, वह उसे मिल जाये| भगवान् से जब यह प्रार्थना करते है तो यही कहते हैं, कि हमें यह दे वह दे| प्रार्थना और भजनों में ऐसे भाव छुपे होते हैं, जिनमें इश्वर से बहुत कुछ मांगा ही जाता है| यह तो ठीक है कि कोई या आप इश्वर से कुछ मंगाते है; प्रार्थना करते हैं| लेकिन इसके साथ ही यदि आप उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करते और अपनी असफलताओं; गरीबी या परेशानियों के विषय में सोच-सोचकर इश्वर की मूर्ती के सामने रोते-गिडगिडाते हैं उससे कुछ होने वाला नहीं है| क्योंकि आपके मन में गरीबी के विचार भरे हैं, असफलता भरी है, आपके ह्रदय में परेशानियों के भाव भरे हैं और उस असफलता को आप किसी दैवी चमत्कार से दूर भगाना चाहते हैं| जो कभी संभव नहीं है|

आपके पास जो कुछ है, वह क्यों है? वह इसलिए तो हैं कि मन में उनके प्रति आकर्षण है| आप उन सब चीजों को चाहते हैं| जो आपके पास हैं| मन में जिन चीजों के प्रति आकर्षण होता है, उन्हें मनुष्य पा लेता है| किन्तु शर्त यह भी है कि वह मनुष्य उसी विषय पर सोचता है, उसके लिये प्रयास करता हो और आत्मविश्वास भी हो| जो वह पाना चाहता है उसके प्रति आकर्षण के साथ-साथ वह उसके बारे में गंभीरता से सोचता भी हो|

दृढ आत्मविश्वास और परिश्रम की शक्ति से आप भी सफलता को अपनी ओर खींच सकते हैं| ईश्वरीय प्रेरणाओं से आप शक्ति ले सकते हैं और अपनी अभिलाषाओं को पुरी कर सकते हैं|

आप अपने जीवन स्वप्न को पूरा करते की दिशा में प्रयास करें| उसे ईश्वरीय प्रेरणा मानकर आगे बढे|

-सदगुरुदेव

युग परिवर्तन

युग परिवर्तन

संसार निरन्तर परिवर्तनशील है और समय के साथ-साथ व्यक्ति की मान्यताएं, भावनाएं और इच्छाएं बदलती रही हैं; कुछ समय पूर्व सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी, जब व्यक्ति की आवश्यकताएं न्यून थीं और वे परस्पर मिल कर अपनी आवश्यकाओं की पूर्ति कर लेते थे, किसान अपना अनाज मोची को देता था और बदले में जूते बनवा लेता था, मोची चमड़े का काम करके दर्जी को देता था, और बदले में अपने कपडे सिलवा लेता था, इस प्रकार वे परस्पर एक-दुसरे के सहयोग से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे|

परन्तु धीरे-धीरे युग में परिवर्तन आया और व्यक्ति के मन में एक-दुसरे के प्रति सन्देह का भाव बढ़ा; उसने सोचा, कि मैं अनाज दे रहा हूं, वह ज्यादा कीमती है, इसकी अपेक्षा यह जो मोची मुझे काम करके देता है, उसका मूल्य कम है, ऐसी स्थिति आने पर मुद्रा का विनिमय प्रारम्भ हुआ, तब जीवन में एक-दुसरे के कार्य की पूर्ति में मुद्रा मुख्य आधार बन गया|

लेकिन समय परिवर्तन के साथ ही साथ सामाजिक जीवन ज्यादा से ज्यादा जटिल होता गया, एक-दुसरे से आगे बढ़ने की होड़ लग गई और जल्दी से जल्दी अपने लक्ष्य तक पहुंचने की भावना तीव्र हो गई, प्रत्येक व्यक्ति इस प्रयत्न में लग गया, कि जल्दी से जल्दी उस गंतव्य स्थल पर पहुंच जाय, जो कि उसका लक्ष्य है; फलस्वरूप उसमें प्रतिस्पर्धा, द्वेष और एक-दुसरे को पछाड़ने की प्रवृत्ति बढ़ गई, व्यापारी जल्दी से जल्दी लखपति बनने की फिराक में मशगूल हो गए, अधिकारियों ने अपने विभाग में सबसे ऊँचे पद पर पहुंचने के लिए जी-तोड़ प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार एक ऐसी होड़ लग गई, जिसके रहते किसी प्रकार की शान्ति नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक छटपटाहट, एक बेचैनी, एक असंतोष की भावना बढ़ने लगी .. परन्तु इससे एक लाभ यह भी हुआ, कि व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा सक्रीय हो गया और इस प्रकार इस प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप उन्नति के द्वार सभी के लिए सामान रूप से खुल गए|

परन्तु जब एक लक्ष्य हो और प्रतिस्पर्धी ज्यादा हों, तो एक विशेष प्रकार की होड़ व्यक्ति के मन में जम जाती है, वह अपने भौतिक प्रयत्नों के साथ-साथ भारत की प्राचीन विद्याओं की तरफ भी उन्मुख होने लगा और उनके माध्यम से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी प्रयत्नशील बना, उसने इस सम्बन्ध में प्रयत्न भी किये और जब उसने अनुभव किया, कि अन्य भौतिक प्रयत्नों की अपेक्षा इनसे जल्दी और निश्चित सफलता मिलती है, तब वह इसकी खोज में ज्यादा प्रयत्नशील बना, वह ऐसे मन्त्रों व् साधना विधियों की खोज में बढ़ा, जिससे उसकी इच्छा पूर्ति सहजता से और शीघ्र हो सके|

मंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ आदि हमारी प्राचीन संस्कृति का मजबूत आधार है| एक ऐसा समय भी था, जब हम इनकी बदौलत संसार में अग्रगण्य थे और हमने समस्त भौतिक सुविधाओं को सुलभ कर लिया था, जिस समय पूरा संसार अज्ञान और अशिक्षा के अन्धकार में डूबा था, उस समय भी हमने प्रकृति को अपने नियंत्रण में सफलतापूर्वक ले लिया था, लंकाधिपति रावण ने पवन, अग्नि और अन्य प्राकृतिक तत्वों को मन्त्रों की सहायाता से इतना आधिक नियंत्रण में कर लिया था, कि वे उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करते थे, हमारे पूर्वज त्रिकालदर्शी थे और अपने स्थान पर बैठे-बैठे हजारों-लाखों मील दूर घटित घटनाओं को अपनी आँखों से देखने में समर्थ थे - ये सारे तथ्य इस बात को स्पष्ट करते हैं, कि हमारी परम्परा अत्यंत समृद्ध रही है और हमने इन मंत्र, तंत्र, यंत्रों के माध्यम से अदभुत सफलताएं प्राप्त की हैं|

कालांतर में हम पर विदेशी आक्रमण होते गए और उन लोगों ने हमारे उच्चकोटि के ग्रन्थ जला कर राख कर दिए, इस प्रकार से हम एक समृद्ध परम्परा से वंचित हो गए, हममे वह क्षमता नहीं रही, जो कि हमारे पूर्वजों में थी|

फिर समय बदला और लोगों ने यह महसूस किया, कि बिना इन मंत्र-तंत्रों की सहायता से हम अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते; इस संघर्ष में यदि हमें टिके रहना है, तो यह जरूरी है, कि इस उच्चकोटि की विद्या को पुनः प्राप्त कर योग्य गुरु से भली प्रकार समझा जाय, उन सारे नियमों-उपनियमों का पालन कर इन साधनाओं में सफलता प्राप्त की जाय, जिससे कि हमारा जीवन सुखमय, उन्नतिदायक और परिपूर्ण हो|

परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है, ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ मंत्र मर्मज्ञ प्रकाश में नहीं आये; जिनको ज्ञान है, वे स्वान्तः सुखाय पद्धति में विश्वास करते हैं और हिमालय के उन स्थानों पर तपस्यारत हैं, जहां आम आदमी का जाना संभव नहीं है| जो गृहस्थ जीवन में उच्चकोटि के अध्येता हैं, वे अपनी ही साधना में लीन हैं, उन्हें स्वार्थ का, छल-कपट का ज्ञान नहीं है, इसकी अपेक्षा नकली चमक-दमक वाले साधू-सन्तों और संन्यासियों की भीड़ एकत्र हो गई, जो आडम्बर से तो परिपूर्ण थे, लेकिन उनमे ठोस ज्ञान का सर्वथा अभाव था| सामान्य जन श्रेष्ठ और नकली साधू-सन्तों में भेद या अन्तर नहीं कर पाता, फ़लस्वरूप वे कई स्थानों पर धोके के शिकार हुए और इस प्रकार धीरे-धीरे जब उनका कार्य नहीं हुआ तो उनका विश्वास डगमगाने लगा, उन्हें आशंका होने लगी - ये मंत्र-तंत्र वास्तविक है भी या नहीं?

और इस प्रकार के विचारों ने उनकी आस्था की नींव हिला दी| परन्तु नकली चमक-दमक के बीच में ऐसे भी साधू, योगी या गृहस्थ गुरु विद्यमान रहे, जो निःस्वार्थ भाव से अपने रास्ते पर निरन्तर गतिशील बने रहे, चमक-दमक को देखने के बाद वे उस नकली जमात में नहीं मिले, जो स्वार्थ पर आधारित थी, क्योंकि उनके पास ठोस ज्ञान था, एक समृद्ध परम्परा थी, जिससे माध्यम से असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता था|

जब सामान्य जनता उन नकली लोगों से उब गई, तो उन्हें अपनी गलती महसूस और वे इस खोज में लगे, कि हमारे पूर्वजों की यह समृद्ध परम्परा गलत नहीं हो सकती, अवश्य ही इन नकली लोगों में ही त्रुटी है या इन्हें इस सम्बन्ध में पूरा ज्ञान नहीं है, जिससे कि मनोकामना सिद्धि हो सके|

आज का मानव-समाज इतना अधिक जटिल हो गया है, कि मानव की समस्याओं का कोई अंत नहीं है, आगे बढ़ने में पग-पग पर कठिनाइयां और समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है, जिससे उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है|

आर्थिक समस्या, पुत्र न होने की समस्या, पुत्र प्राप्त होने पर भी कुपुत्र होने की समस्या, दुराचारी पत्नी की समस्या, पति-पत्नी में अनबन की समस्या, व्यर्थ में मुकदमे और बाधाओं की समस्या, रोजी की समस्या, व्यापार प्रारंभ न होने की समस्या, व्यापार वृद्धि की समस्या, विभिन्न रोगों से ग्रसित होने की समस्या, मानसिक चिंता दूर न होने की समस्या, पुत्री के लिये उपयुक्त वर न मिलने की समस्या, पुत्री का विवाह होने के बाद उसका वैवाहिक जीवन सुखी न होने की समस्या, नौकरी की समस्या, प्रमोशन की समस्या, घर में सुख शान्ति की समस्या, अधिकारीयों से मतभेद होने की समस्या, आकस्मिक मृत्यु की समस्या, भाग्योदय न होने की समस्या, जरूरत से ज्यादा कर्जा बढ़ जाने की समस्या, समय पर उच्च सम्मान प्राप्त न होने की समस्या, भूत-प्रेत-पिशाच बाधा, घर में सुख-शान्ति न रहने की समस्या|

-- और इस प्रकार की सैंकड़ों-हजारों समस्याएं हैं, जिनसे पग-पग पर व्यक्ति को जूझना पड़ता है, जिससे उनका अत्यधिक श्रम और शक्ति इन्हीं समस्याओं को हल करने में लग जाती हैं|

इन समस्याओं का समाधान सामाजिक कार्यों के माध्यम से संभव नहीं है और ना ही विज्ञान के पास इसका कोई हल है, इनके लिये कुछ आधार या कुछ ऐसी विद्याओं की जरूरत है, जो गूढ़ विद्याएं कही जाती हैं, इन विद्याओं के अन्तर्गत यंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ मंत्र जप आदि जरूरी है|

अभी तक ये कार्य विशेष पंडित वर्ग ही संपन्न करता रहा, परन्तु धीरे-धीरे इन पंडितों के स्तर में भी न्यूनता आ गई, उनकी आगे की पीढ़ी इतनी योग्य न हो सकी, जो दुसरे लोगों की समस्याओं को इन विद्याओं के माध्यम से दूर कर सकें; तब वे व्यक्ति अपने गुरु के समीप बैठ कर उन उपायों की खोज करने लगे, जिसके माध्यम से वे स्वयं इस प्रकार की साधनाएं संपन्न कर समस्याओं से मुक्ति पा सके| आपके भी जीवन में ऐसे गुरु का आगमन हो यही आपको आशीर्वाद|


- श्री नारायण दत्त श्रीमाली

Wednesday, September 8, 2010

Guru Mantra Mystery Part -1

ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः

Guru Mantra Mystery Part -1

नए-नए साधक के मन में कुछ संशयात्मक प्रश्न, जो सहज ही घर कर बैठते हैं, वे हैं - मैं किस मंत्र को साधू? कौन सी साधना मेरे लिए अनुकूल रहेगी? किस देवता को मैं अपने ह्रदय में इष्ट का स्थान दूं?
ये प्रश्न सहज हैं, परन्तु इनके उत्तर इतने सहज प्रतीत नहीं होते, क्योंकि प्रथम तो इनके उत्तर कहीं भी स्पष्ट भाषा में नहीं मिलते, साथ ही यह बात भी निश्चित है, कि जब तक आप अत्यधिक व्यग्र हो कर जी-जान से चेष्टा नहीं करते, तब तक योग्य गुरु का सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकते| क्या इसका अर्थ यह निकाला जाय, कि अज्ञान के तिमिर में जीना ही हम सब का प्रारब्ध है? क्या इस दुविधाजनक स्थिति से निकलने का कोई उपाय नहीं?
यह शायद मेरा सुनहरा सौभाग्य ही था, कि हिमालय विचरण के दौरान मुझे विश्व प्रसिद्ध तंत्र शिरोमणि त्रिजटा अघोरी के दर्शन हुए| मैंने उनके बारे में कई आश्चर्यजनक तथ्य सुन रखे थे और इस बात से भी मैं परिचित था, कि वे गुरुदेव के प्रिय शिष्य हैं|
उस पहाड़ देहधारी मनुष्य के प्रथम दर्शन से ही मेरा शरीर रोमांचित हो उठा था.... मैं हर्षातिरेक एवं एक अवर्णनीय भय से थरथरा उठा, मेरे पाँव मानो जमीन पर कीलित हो गए, मेरा मुह आश्चर्य से खुल गया और एक क्षण मुझे ऐसा लगा मानो मेरी सांस रुक गई है .... इस स्थिति में मैं कितनी देर रहा, मुझे याद नहीं...हां! इतना अवश्य है, कि जब मैं प्रकृतिस्थ हुआ, तो वे मुस्कराहट बिखेरते हुए मेरे सामने थे, जबकि मैं एक चट्टान पर बैठा था ...
मैं दावे के साथ कह सकता हूं, कि कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि तथाकथित 'सिंह के सामान निडर' पुरुष भी अकेले में उनके सामने प्रस्तुत होने में संकोच करेगा .... इतना अधिक तेजस्वी एवं भयावह स्वरुप है उनका| शायद मैं यह जानता था, कि वे मेरे गुरु भाई हैं, या शायद उनके चेहरे पर उस समय ममत्व के भाव थे, जो मैं उनके सामने बैठा रह सका... थोड़ी देर उनसे बात हुई, तो मेरा रहा-सहा संकोच भी जाता रहा...उन्हें गुरुदेव द्वारा 'टेलीपैथी' से मुझसे मिलने का आदेश मिला था (इस भ्रमण के दौरान यह मेरी आतंरिक इच्छा थी, कि मैं त्रिजटा से मिलूं और शायद गुरुदेव ने इसे जान लिया था) और उन्हें मेरा मार्गदर्शन करने को कहा था|
उस समय मेरा मन भी इस प्रकार के संशयात्मक प्रश्नों से ग्रस्त था और उन पर विजय प्राप्त करने के लिए मैं उनसे जूझता रहता था| पर मुझे जल्दी ही इस बात का अहेसास हो गया था, कि मैं एक हारती हुई बाजी खेल रहा हूं और मेरे मस्तिष्क-पटल पर कई नवीन प्रश्न दस्तक देने लगे - मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मुझे क्या करना चाहिए? मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ पथ कौन सा है? आदि-आदि|
जब मैंने अपनी दुविधा त्रिजटा के समक्ष राखी, तो वे ठहाका लगा कर हंसाने लगे, मानो मेरी अज्ञानता पर उन्हें दया आई हो...और फिर उन्होनें जो कुछ भी तथ्य मेरे आगे स्पष्ट किये, उनके आगे तो तीनों लोक की निधियां भी तुच्छ हैं|
उन्होनें कहां - 'प्रत्येक मनुष्य इस प्रकार की समस्या का सामना कभी न कभी करता ही है, परन्तु केवल प्रज्ञावान एवं सूक्ष्म विवेचन युक्त व्यक्ति ही इससे पार हो सकता है; बाकी व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और जीवन का एक स्वर्णिम क्षण अवसर गँवा देते हैं, अत्यंत सामान्य रूप से जीवन व्यतीत कर देते हैं|
'हमारे शास्त्रों में तैंतीस करोड़ देव-देवताओं की उपस्थिति स्वीकार की गई और उन सबके एकत्व रूप को ही 'परम सत्य' या 'परब्रह्म' कहा गया है, कि यदि साधक को पूर्णता प्राप्त करनी है, तो उस इन ३३ करोड़ देवी-देवताओं को सिद्ध करना पडेगा; परन्तु यह तभी संभव है, जब व्यक्ति लगातार पृथ्वी पर अपने पूर्व जन्मों की स्मृति के साथ हजारों जन्म ले अथवा वह हमेशा के लिए अजर-अमर हो जाये....'

'परन्तु ये दोनों ही रस्ते बड़े पेचीदा और असंभव सी लगने वाली कठिनाइयों से युक्त हैं| इसके अलावा तुम्हें ज्ञान नहीं होता, कि कब तुम्हारी छोटी सी त्रुटी की वजह से तुम्हारी वर्षों की तपस्या नष्ट हो जायेगी और तुम उंचाई से वापस साधारण स्थिति में आ गिरोगे|

'मैं अत्यधिक लम्बे समय से हिमालय में तपस्यारत हूं और असंभव कही जाने वाली साधनाएं भी सिद्ध कर चुका हूं| इतने वर्षों के अनुभव के बाद यह मेरी धारणा है कि सभी मन्त्रों में 'गुरु मंत्र' सर्वश्रेष्ठ मंत्र है, सभी साधनाओं में 'गुरु साधना' अद्वितीय है और गुरु ही सभी देवताओं के सिरमौर हैं| वे इस समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने वाली आदि शक्ति हैं और कुछ शब्दों में कहा जाय, तो वे - 'साकार ब्रह्म' हैं|




मेरे चहरे पर आश्चर्य की लकीरें उभर आईं, जिसे देखकर उन्होनें कहा- 'तुम्हें यों अवाक होनी की जरूरत नहीं, मुझे इस बात का पूरा ज्ञान है, कि मैं क्या कह रहा हूं| भ्रमित तो तुम लोग हुए हो, तुम हर चीज को बिना गूढता से निरिक्षण किये ही मान लेते हो, तभी तो आज विभिन्न देवी-देवताओं की साधनाएं तुम्हारे मन-मस्तिष्क को इतना लुभाती हैं| तुम्हारी स्थिति उस मछली की तरह है, जो की नदी को ही सक्षम और अनंत समझती है, क्योंकि सागर की विशालता से अनभिज्ञ होती हैं|




'भगवान् शिव के अनुसार सभी देवी-देवताओं, पवित्र नदियां एवं तीर्थ गुरु के दक्षिण चरण के अंगुष्ठ में स्थित हैं, वे ही अध्यात्म के आदि , मध्य एवं अंत है, वे ही निर्माण, पालन, संहार एवं दर्शन, योग, तंत्र-मंत्र आदि के स्त्रोत्र हैं| वे सभी प्रकार की उपमाओं से परे हैं... इसीलिए यदि कोई पूर्णता प्राप्त करने का इच्छुक है, यदि कोई इमानदारी से 'दिव्य बोध' प्राप्त करने की शरण ग्रहण कर लेनी चाहिए और उनकी साधना एवं मंत्र को जीवन में उतारने की चेष्टा करनी चाहिए|'




'गुरु मंत्र' शब्दों का समूह मात्र न होकर समस्त ब्रह्माण्ड के विभिन्न आयों से युक्त उसका मूल तत्व होता है| अतः गुरु साधना में प्रवृत्त होने से पहले यह उपयुक्त होगा, कि हम गुरु मंत्र का बाह्य और गुह्य दोनों ही अर्थ भली प्रकार से समझ लें|




'पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र का क्या अर्थ है?- मैंने बीच में टोकते हुए पूछा| एक लम्बी खामोशी...जो इतनी लम्बी हो गई थी, कि खिलने लगती थी... उनके चहरे के भावों से मुझे अनुभव हुआ, कि वे निश्चय और अनिश्चय के बीच झूल रहे हैं| अंततः उनका चेहरा कुछ कठोर हुआ, मानो कोई निर्णय ले लिया हो| अगले ही क्षण उन्होनें अपने नेत्र मूंद लिये, शायद वे टेलीपैथी के माध्यम से गुरुदेव से संपर्क कर रहे थे; लगभग दो मिनिट के उपरांत मुस्कुराते हुए उन्होनें आंखे खोल दीं|




'उस मंत्र के मूल तत्व की तुम्हारे लिये उपयोगिता ही क्या हैं? मंत्र तो तुम जानते ही हो, इसके मूल तत्व को छोड़ कर इसकी अपेक्षा मुझसे आकाश गमन सिद्धि, संजीवनी विद्या अथवा अटूट लक्ष्मी ले लो, अनंत संपदा ले लो, जिससे तुम सम्पूर्ण जीवन में भोग और विलाद प्राप्त करते रहोगे... ऐसी सिद्धि ले लो, जिससे किसी भी नर अथवा नारी को वश में कर सकोगे|




एक क्षण तो मुझे ऐसा लगा, कि उनके दिमाग का कोई पेंच ढीला है, पर मेरा अगला विचार इससे बेहतर था| मैंने सूना था, कि उच्चकोटि के योगी या तांत्रिक साधक को श्रेष्ठ, उच्चकोटि का ज्ञान देने से पूर्व उसकी परिक्षा लेने, हेतु कई प्रकार के प्रलोभन देते हैं, कई प्रकार के चकमे देते हैं... वे भी अपना कर्त्तव्य बड़ी खूबसूरती से निभा रहे थे ...




करीब पांच मिनुत तक उनकी मुझे बहकाने की चेष्टा पर भी मैं अपने निश्चय पर दृढ़ रहा, तो उन्होनें एक लम्बी श्वास ली और कहा - 'अच्छा ठीक है, बोलो क्या जनता चाहते हो?'




'सब कुछ' - मैं चहक उठा - 'सब कुछ अपने गुरु मंत्र एवं उसके मूल तत्व के बारे में मेरा नम्र निवेदन है' कि आप कुछ भी छिपाइयेगा नहीं|'


मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान जुलाई 2010



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Saturday, September 4, 2010

मेरे गुरूजी को भला किसी परिचय की क्या आवश्यकता ?

मेरे गुरूजी ...
मेरे गुरूजी को भला किसी परिचय की क्या आवश्यकता ? वे कोई सूर्य थोड़े ही हैं जो रात्रिकाल में लुप्त हो जायें; वे चन्द्रमा भी नहीं जो मात्र रात्रि में ही दृष्टिगोचर हों | वे देव भी नहीं हैं क्योंकि वे कथाओं, शास्त्रों, मान्यताओं तक ही सीमित नहीं हैं और वे साधारण मनुष्य भी नहीं हैं क्योंकि वे सिद्ध हैं, ज्ञानी हैं, पूर्ण पुरुष हैं |
मेरे गुरूजी तो मात्र मेरे गुरूजी हैं | वे मेरी माता भी हैं, पिता भी और मार्गदर्शक भी | वे मेरे सर्वोत्तम मित्र हैं तथा मेरी सर्वाधिक मूल्यवान निजी संपत्ति भी | वे मेरे प्राण हैं अतैव मेरी अजरता, अमरता के स्रोत हैं | सारांश यह है की वे मेरे जीवन का सार हैं | जैसे मैं उनका परिचय हूँ वे मेरा परिचय हैं |
मेरे गुरूजी सहीं अर्थों में भारतीय ऋषि हैं, जिनके चरणों में बैठना ही एक सुखद अनुभव है, जीवन की पूर्णता है | वे तपस्वी हैं, सन्यासी हैं, गृहस्थ हैं, विद्वान हैं, श्रेष्ठतम शिष्य हैं, महानतम गुरु हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वस्व हैं फिर भी निरहंकार हैं, निर्विकार हैं |
मेरे गुरूजी तो केवल मेरे गुरूजी हैं ...
ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः
-- गुरूजी के श्री चरणों में नतमस्तक एक शिष्य --

Monday, August 30, 2010

जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा हैं ही नही!




जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा हैं ही नहीं और जब तुम हो ही नहीं, तो फिर तुम्हारा जो ये शरीर हैं, जो हृदय हैं, तुम्हारी आँखों में छलछलाते जो अश्रुकण हैं, वो मैं ही नहीं हूँ तो और कौन हैं? तुम्हारे अन्दर ही तो बैठा हुआ हूँ मैं, इस बात को तुम समझ नहीं पाते हो, और कभी कभी समझ भी लेते हो, परन्तु दुसरे व्यक्ति अवश्य ही इस बात को समझते हैं, अनुभव करते हैं, कि कुछ न कुछ विशेष तुम्हारे अन्दर हैं जरुर, और वह विशेष मैं ही तो हूँ, जो तुममें हूँ! ...... और फिर अभी तो मेरे काफी कार्य शेष पड़े हैं, इसीलिए तो अपने खून से सींचा हैं तुम सींच कर अपनी तपस्या को तुममें डालकर तैयार किया हैं तुम सब को, उन कार्यों को तुम्हें ही पूर्णता देनी हैं! मेरे कार्यों को मेरे ही तो मानस पुत्र परिणाम दे सकते हैं, अन्य किस्में वह पात्रता हैं, अन्य किसी में वह सामर्थ्य हो भी नहीं सकती, क्योंकि वह योग्यता मैंने किसी अन्य को दी भी तो नहीं हैं?
परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंदजी महाराज डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी

मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं हैं, जिनमें कायरता हो, विरोध सहने की क्षमता न हो.





"मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं हैं, जिनमें कायरता हो, विरोध सहने की क्षमता न हो. जो जरा सी विपरीत स्थिति प्राप्त होते ही विचलित हो जाते हो. मुझे तो वे शिष्य प्रिय हैं, जिनमें बाधाओं को ठोकर मारने का हौसला होता हैं. जो विपरीत परिस्थितियों पर छलांग लगाकर भी मेरी आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करने की क्रिया करते हैं, जो समस्त बंधनों को झटक कर भी मेरी आवाज़ को सुनते हैं.... और ऐसे शिष्य स्वत: ही मेरी आत्मा का अंश बन जाते हैं, उनका नाम स्वत: ही मेरे होंठों से उच्चरित होने लगता हैं और वे मेरे हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं. वास्तव में जो दृढ निश्चयी होते हैं, वे समाज को ठोकर मार कर, सभी बंधनों को तोड़ते हुए एवं सभी बाधाओं को पार करते हुए गुरु चरणों का सानिध्य प्राप्त कर ही लेते हैं और सेवा व 

साधनाओं को अपने जीवन में स्थान देकर परम सत्य के मार्ग पर गतिशील हो जाते हैं. - परमहंस स्वामी

अनंत देवी देवता हैं, अनंत उपासना पद्धति है, कहाँ कहाँ जाकर सिर झुकाओगे, किन किन दरवाज़ों पर जाकर नाक रगडोगे, जीवन के दिन तो थोड़े से ही हैं, गिनती के हैं. वे तो ऐसे ही समाप्त हो जायेंगे, फिर क्या मिलेगा? जीवन यूँ ही भटकते हुए मंदिरों में , तीर्थों में, साधू सन्यासियों के पास समाप्त हो जायेगा. यदि तुम्हें सदगुरु मिल गये हैं, तो सब कुछ छोड़कर उनके चरण क्यूँ नहीं पकड़ लेते.

निखिलेश्वरानंदजी महाराज डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी

मुझे वे शिष्य अत्यंत प्रिय हैं, जो अपने स्तर के अनुसार सेवा कार्य में रत हैं




मुझे वे शिष्य अत्यंत प्रिय हैं, जो अपने स्तर के अनुसार सेवा कार्य में रत हैं और समाज के नवनिर्माण में अपना योगदान प्रस्तुत कर रहे हैं. जब मैं एक, पॉँच, दस, पचास, सौ, पॉँच सौ व्यक्तियों व् परिवारों में अध्यात्मिक चेतना की लहर फैलाकर, उन्हें पत्रिका सदस्य बनाकर आर्य संस्कृति से उनका पुनर्परिचय करने वाले शिष्यों के नामों को पड़ता हूँ, तो उन पर मुझे गर्व हो आता हैं, ऐसा लगता हैं, कि मेरा एक प्रयास कुछ सार्थक हुआ हैं और मानव कल्याण को समर्पित कुछ रत्नों का चुनाव हो पाया हैं. ऐसे गृहस्थ शिष्य मुझे सन्यासी शिष्यों से अधिक प्रिय हैं, क्योंकि सन्यासी शिष्यों द्वारा कि गयी सेवा से सिर्फ उनका ही कल्याण होता हैं, जबकि इन गृहस्थ शिष्यों द्वारा कि जाने वाली सेवा से पुरे समाज का भी कल्याण होता हैं. ऐसे शिष्यों के नाम स्वत: ही मेरे ह्रदय पटल पर अंकित हो जाते हैं और मैं अपनी करुणा और आशीर्वाद की अमृत वर्षा से उन्हें सराबोर कर देने के लिए व्यग्र हो उठता हूँ.” -Sadgurudev