Wednesday, September 22, 2010

मेरे गुरुदेव, मेरा सौभाग्य.मेरी


फिर वो दिन दूर नहीं होगा जब इस धरती पर प्रेम के ही बादल बरसा करेंगे, और उन जल बूंदों से जो पौधे पनपेगी, उस हरियाली से भारत वर्ष झूम उठेगा. फिर हिमालय का एक छोटा सा भू-भाग ही नहीं पूरा भारत ही सिद्धाश्रम बन जायेगा, और पूरा भारत ही क्यों, पूरा विश्व ही सिद्धाश्रम बन सकेगा! कौन कहता हैं, कि यह संभव नहीं हैं? एक अकेला मेघ खण्ड नहीं कर सकता यह सब, पूरी धरती को एक अकेला मेघ खण्ड नहीं सींच सकता अपनी पावन फुहारों से ….. परन्तु जब तुम सभी मेघ खण्ड बनकर एक साथ उड़ोगे, तो उस स्थान पर जहाँ प्रचंड धुप में धरती झुलस रही होगी, वहां पर बरसोगे तो एकदम से वहां का मौसम बदल जायेगा!

इसीलिए मैं तुम्हें कह रहा हूँ, की तुम्हें किसी एक जगह ठहर कर नहीं रहना हैं, तुम्हें तो गतिशील रहना हैं, खलखल बहती नदी की तरह, जिससे तुम्हारे जल से कई और भी प्यास बुझा सकी, क्योंकि वह जल तुम्हारा नहीं हैं, वह तो मेरा दिया हुआ हैं! इसलिए तुम्हें फ़ैल जाना हैं पुरे भारत में, पुरे विश्व में..... ...... और यूँ ही निकल पड़ना घर से निहत्थे एक दिन प्रातः को नित्य के कार्यों को एक तरफ रखकर, हाथ में दस-बीस पत्रिकाएँ लेकर..... और घर वापिस तभी लौटना जब उन पत्रिकाओं को किसी सुपात्र के हाथों में अर्पित कर तुमने यह समझ लिया हो, कि वह तुम्हारे सदगुरुदेव का और उनके इस ज्ञान का अवश्य सम्मान करेगा! ...... और फिर देख लेना कैसे नहीं सदगुरुदेव की कृपा बरसती हैं! तुम उसमें इतने अधिक भीग जाओगे, कि तुम्हें अपनी सुध ही नहीं रहेगी!


तुम भी तो....' (जुलाई-98 के अंक में मैंने तुम्हें पत्र दिया था यही तो उसका शीर्षक था) लेकिन अब 'तुम भी तो' नहीं वरन 'तुम ही तो' मेरे हाथ पैर हो, और फिर कौन कहता हैं, कि मैं शरीर रूप में उपस्थित नहीं हूँ! मैं तो अब पहले से भी अधिक उपस्थित हूँ! और अभी तुम्हें इसका एहसास शायद नहीं भी हो, कि मेरा तुमसे कितना अटूट सम्बन्ध हैं, क्योंकि अभी तो मैंने इस बात का तुम्हें पूरी तरह एहसास होने भी तो नहीं दिया हैं! पर वो दिन भी अवश्य आएगा, जब तुम रोम-रोम में अपने गुरुदेव को, माताजी को अनुभव कर सकोगे, शीघ्र ही आ सके, इसी प्रयास में हूँ और शीघ्र ही आएगा! मैंने तुम्हें बहुत प्यार से, प्रेम से पाला-पोसा हैं, कभी भी निखिलेश्वरानंद की कठोर कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा नहीं ली हैं, हर बार नारायणदत्त श्रीमाली बनकर ही उपस्थित हुआ हूँ, तुम्हारे मध्य! और परीक्षा नहीं ली, तो इसीलिए कि तुम इस प्यार को भुला न सको, और न ही भुला सको इस परिवार को जो तुम्हरे ही गुरु भाई-बहिनों का हैं, तुम्हें उसी परिवार में प्रेम से रहना हैं!


समय आने पर, यह तो मेरा कार्य हैं, मैं तुम्हें गढ़ता चला जाऊंगा, और मैंने जो-जो वायदे तुमसे किये हैं, उन्हें मैं किसी भी पल भुला नहीं हूँ, तुम उन सब वायदों को अपने ही नेत्रों से अपने सामने साकार होते हुए देखते रहोगे! तुम्हारे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के अलावा और किसी सिद्धि की छह बचेगी ही नहीं, क्योंकि मेरा सब कुछ तो तुम्हारा हो चूका होगा, क्योंकि 'तुम्ही तो हो मेरे हो' -सदा की ही भांति स्नेहसिक्त आशीर्वाद. -तुम्हारा गुरुदेव. नारायणदत्त श्रीमाली. जुलाई 1999, पेज नं : 18-20


जो मैं जानती प्रीत किये दुःख होय! नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत कियो नहीं कोय!!


मेरे गुरुदेव, मेरा सौभाग्य.... मेरी...
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय. ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय. गुरु जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य. सबसे सौभाग्यशाली बाते: 1 सदगुरु का मिलना, उनके चरणों से लिपटना. 2 सदगुरु के उद्धेश्य उनके कार्य की पूर्ति में सहायक होना. 3 सदगुरु के कार्य, उनके प्रहार, उनके प्रेम का मिलना. 4 सदगुरु का सर पर हाथ फेरना और विकारों को खत्म करना. 5 नाम नहीं, उनका काम चाहना..... नाम तो सभी चाहते हैं, मगर उनका कार्य करना. और नाम होकर भी उसमें निर्लिप्त न रहना... सबसे सौभाग्यदायक बात हैं.... आयोजक बनना, दीक्षा लेना, शिविर लगाना, पढाई करना, यह कोई श्रेष्ठता नहीं हैं. वरन श्रेष्ठता तो यह हैं की शिष्य अपने गुरु का परिचय हैं या नहीं. और हैं तो किस तरह का.... शिष्य के कार्यों को देखकर कोई क्या कहता हैं? उसके गुरु को जानना चाहता हैं. या उसके गुरु की आलोचना करता हैं.... आइये हम बने अपने गुरु के परिचय बने. शिष्य बने. आयोजक नहीं, कार्यकर्त्ता नहीं. शिष्य/शिष्या जो देवताओं से भी बड़े होते हैं. और देवता भी जिनके समक्ष छोटे होते हैं.

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