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Friday, August 2, 2019

jaap Kyon AUR KESE KARE जप!! क्यों और कैसे?

जप!! क्यों और कैसे?



मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥

जप-उपासना के क्षेत्र में ‘नये साधकों’ के लिए जप संबंधी कुछ जिज्ञासाएं सहज हैं, उन्ही पाठकों के हितार्थ, मैंने अपने अनुभवों व अध्ययन के आधार पर एक ‘ब्लॉग’ तैयार किया है, जो आपके सम्मुख है-
शरीर को साफ रखने के लिए नित्य नहाना जरूरी है, उसी प्रकार कपड़े नित्य धोने आवश्यक हैं, घर की सफार्इ नित्य की जाती है। उसी प्रकार मन पर भी नित्य वातावरण में उड़ती-फिरती दुष्प्रवृतितयों की छाप पड़ती है, उस मलीनता को धोने के लिए नित्य “जप-उपासना” करनी आवश्यक है।

जप’ के द्वारा ”र्इश्वर” को स्मृति-पटल पर अंकित किया जाता है। ‘जप’ के आधार पर ही किसी सत्ता का ‘बोध’ और ‘स्मरण’ हमें होता है। स्मरण से आह्वान, आह्वान से स्थापना और स्थापना से उपलब्धि का क्रम चल पड़ता है। ये क्रम लर्निग-रिटेन्शन-रीकाल-रीकाग्नीशन के रूप में मनौवेज्ञानिकों द्वारा भी समर्थित है।

जप’ करने से जो घर्षण प्रक्रिया गतिशील होती है, वो ‘सूक्ष्म शरीर’ में उत्तेजना पैदा करती है और इसकी गर्मी से अन्तर्जत नये जागरण का अनुभव करता है। जो जप कर्ता के शरीर एवं मन में विभिन्न प्रकार की हलचलें उत्पन्न करता है तथा अनन्त आकाश में उड़कर सूक्ष्म वातावरण को प्रभावित करता है। इस ब्लॉग में हम केवल ”सात्विक मन्त्रों” के जप के संबंध में चर्चा करेंगें।
विभिन्न प्रकार के मन्त्रों के लिए भिन्न-2 प्रकार की मालाओं द्वारा जप किये जाने का विधान है। गायत्री-मंत्र या अन्य कोर्इ भी सात्विक साधना के लिए तुलसी या चंदन की माला लेनी चाहिए। कमलगट्टे, हडिडयों व धतूरे आदि की माला तांत्रिक प्रयोग में प्रयुक्त होती हैं 

कैसे करें मंत्र का जप सही विधि से, आप भी जानिए ..

जमीन पर बिना कुछ बिछाये साधना नहीं करनी चाहिए, इससे साधना काल में उत्पन्न होने वाली ‘विधुत’ जमीन में उतर जाती है। आसन पर बैठकर ही जप करना चाहिए। ‘कुश’ का बना आसन श्रेष्ठ है, सूती आसनों का भी प्रयोग कर सकते हैं। ऊनी, चर्म के बने आसन, तांत्रिक जपों के लिए प्रयोग किये जाते हैं।

उस अवस्था में पालथी लगाकर बैठे, जिससे शरीर में तनाव उत्पन्न न हो, इसे ‘सुखासन’ भी कह सकते हैं। यदि लगातार एक स्थिति में न बैठा जा सकें, तो आसन (मुद्रा) बदल सकते हैं। परन्तु पैरों को फैलाकर जप नहीं करना चाहिए। वज्रासन, कमलासन या सिद्धासन में बैठकर भी साधना की जा सकती है, परन्तु गृहस्थ मार्ग पर चलने वाले साधक व्यक्तियों को ‘सिद्धासन’ में में ज्यादा देर तक नहीें बैठना चाहिए।

जप के तीन प्रकार होते हैं-

  • (1) वाचिक जप-वह होता है जिसमें मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है।
  • (2) उपांशु जप-वह होता है जिसमें थोड़े बहुत जीभ व होंठ हिलते हैं, उनकी ध्वनि फुसफुसाने जैसी प्रतीत होती है।
  • (3) मानस जप-इस जप में होंठ या जीभ नहीं हिलते, अपितु मन ही मन मन्त्र का जाप होता है। ‘जप साधना’ की हम इन्हें तीन सीढि़यां भी कह सकते हैं। नया साधक ‘वाचिक जप’ से प्रारम्भ करता है, तो धीरे-धीरे ‘उपांशु जप’ होने लगता है, ‘उपांशु जप’ के सिद्ध होने की स्थिति में ‘मानस जप’ अनवरत स्वमेव चलता रहता है। 
  • जप जितना किया जा सकें उतना अच्छा है, परन्तु कम से कम एक माला (108 मन्त्र) नित्य जपने ही चाहिए। जितना अधिक जप कर सकें उतना अच्छा है।

  • किसी योग्य सदाचारी, साधक व्यक्ति को गुरू बनाना चाहिए, जो साधना मार्ग में आने वाली विध्न-बाधाओं को दूर करता रहें व साधना में भटकने पर सही मार्ग दिखा सकें। यदि कोर्इ गुरू नहीं है तो ”कृपा करो गुरूदेव की नायी” वाली उक्ति मानकर ”हनुमान” जी को ‘गुरू’ मान लेना चाहिए।
  • प्रात:काल पूर्व की ओर तथा सायंकाल पश्चिम की ओर मुख करके जप करना चाहिए। “गायत्री मंत्र” उगते “सूर्य” के सम्मुख जपना सर्वश्रेष्ठ हैै। क्योंकि गायत्री जप, सविता (सूर्य) की साधना का ही मन्त्र है।
  • एकांत में जप करते समय माला को खुले रूप में रख सकते हैं, जहां बहुत से व्यक्तियों की दृषिट पड़े। वहां ‘गोमुख’ में माला को डाल लेना चाहिए या कपड़े से ढक लेना चाहिए।
  • माला जपते समय सुमेरू (माला के आरम्भ का बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। एक माला पूरी करके उसे ‘मस्तक व नेत्रों’ पर लगाना चाहिए तथा पीछे की ओर उल्टा ही वापस कर लेना चाहिए।
जन्म एवं मृत्यु के सूतक हो जाने पर, माला से किया जाने वाला जप स्थगित कर देना चाहिए, केवल मानसिक जप मन ही मन चालूू रखा जा सकता हैं।
  • जप के समय शरीर पर कम कपड़े पहनने चाहिये, यदि सर्दी का मौसम है तो कम्बल आदि ओढ़कर सर्दी से बच सकते हैं।
  • जप के समय ध्यान लगाने के लिए जिस जप को कर रहे उनसे संबंधित देवी-देवता की तस्वीर रख सकते हैं, यदि र्इश्वर के ‘निराकार’ रूप की साधना करनी है, तो दीपक जला कर उसका ‘मानसिक ध्यान’ किया जा सकता है, दीपक को लगातार देख कर जप करने की क्रिया ‘दीपक त्राटक’ कहलाती है। इसे ज्यादा देर करने से आंखों पर विपरित प्रभाव पड़ सकता है, अत: बार-बार दीपक देखकर, फिर आंखे बन्द करके उसका मानसिक ध्यान करते रहना चाहिए। सूर्य के प्रकाश का मानसिक ध्यान करके भी जप किया जा सकता है।
माला को कनिषिठका व तर्जनी उगली से बिना स्पर्श किये जप करना चाहिये। कनिषिठका व तर्जनी से जप, तांत्रिक साधनाओं में किया जाता है। 
  • ब्रह्ममुहुर्त जप, ध्यान आदि के लिए श्रेष्ठ समय होता है, हम शाम को भी जप कर सकते हैं, परन्तु रात्रि-अर्धरात्रि में केवल तांत्रिक साधनाएं ही की जाती हैं।
  • गायत्री’ व ‘महामृत्युंजय’ मन्त्र के जप प्रारम्भ में कठिन लगते हैं, परन्तु लगातार जप करने से जिव्हा इनकी अभ्यस्त हो जाती है और कठिन उच्चारण वाले मन्त्र भी सरल लगने लगते हैं। 
  • मन्त्र जप का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, जप में एक निश्चित लय-ताल-गति का होना, तभी ये प्रभावशाली होते हैं। इसके प्रभाव का अन्दाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ‘सैनिकों’ को पुल पर पैंरों को मिलाकर चलने से उत्पन्न क्रमबद्ध ध्वनि उत्पन्न करने के लिए इसलिए मना कर दिया जाता है, कि इस क्रमबद्धता की साधारण क्रिया से पुल तोड़ देने वाला असाधारण प्रभाव उत्पन्न हो सकता है।
  • अन्त में, जप-साधना का एक मात्र उद्देश्य भगवान व भक्त के बीच एकात्म भाव की स्थापना करना है, ‘इष्ट’ का चित्र देखते रहने से, काम नहीें चलता। ‘साकार उपासना’ में ‘इष्ट देव’ का सामीप्य, अति सामीप्य होने के साथ-साथ उच्चस्तरीय प्रेम के आदान-प्रदान की गहरी कल्पना करनी चाहिए। 
  • साधक-भगवान के साथ, स्वामी-सखा-पिता-पुत्र किसी भी रूप में ‘सघन संबंध’ स्थापित कर सकता है, इससे आत्मीयता बढ़ती है और हम र्इश्वर के निकट व अति निकट होते जाते हैं।
एक ‘दोहे’ के साथ ‘ब्लॉग’ समाप्त करता हूँ-
           जब  मैं  था हरी नहीें अब हरी है मैं नाय,
           प्रेम गली अति सांकरी ता मैं दो न समाय।

Thursday, June 18, 2015

param prusrth ke marg par kud pado

परम पुरुषार्थ के मार्ग में कूद पड़ो। भूतकाल के लिए पश्चाताप और भविष्य की चिन्ता छोड़कर निकल पड़ो। परमात्मा के प्रति अनन्य भाव रखो। फिर देखो कि इस घोर कलियुग में भी तुम्हारे लिए अन्न, वस्त्र और निवास की कैसी व्यवस्था होती है। जिस साधना में तुम्हारी रुचि होगी उस साधना में सद्गुरुदेव मधुरता भर देंगे। तुम्हारी भावना, तुम्हारी निष्ठा पक्की होना महत्त्वपूर्ण है। तुम्हारे परम इष्टदेव ,तुम्हारे सद्गुरुदेव तुम पर खुश हो जायें तो अनिष्ट तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। परम इष्टदेव है तुम्हारा आत्मा, तुम्हारा निजस्वरूप। सद्गुरुदेव में तुम्हारी अनन्य भक्ति हो जाये तो सद्गुरुदेव तुम्हें कुछ देंगे नहीं, वे तुम्हें अपने में मिला लेंगे। अब बताओ, आपको कुछ देना शेष रहा क्या? सद्गुरुदेव के सिवाय अन्य तमाम सुखों के इर्द गिर्द व्यर्थता के काँटे लगे ही रहते हैं। जरा सा सावधान होकर सोचोगे तो यह बात समझ में आ जायेगी और तुम सद्गुरुदेव के मार्ग पर चल पड़ोगे। लौकिक सरकार भी अपने सरकारी कर्मचारी की जिम्मेदारी सँभालते हैं। फिर ऊर्ध्वलोक की दिव्य सरकार, परम पालक परमात्मा सद्गुरुदेव अध्यात्म के पथिक का बोझ नहीं उठायेंगे क्या?

Thursday, May 8, 2014

वास्तव मैं युग पुरुष हैं? Do Men Really era?

अब वक़्त आ गया हैं की मैं एक भारतीये होने के खातिर उन गुर रहस्यों को उज्जागर करूँ जो यह बताती हैं की हम भारतीये कितने महान थें ?और अब क्या हो गये हैं…?
मैं आपके सामने वोह सभी मंत्र तंत्र यन्त्र रख दूंगा जो आपके जीवन को पलट कर के रख देगी ..याकिन मानिये मेरा,,,,और यह सबका श्रेय मैं अपने प्रेयसी डॉ नारायण दत्त श्रीमाली को देता हूँ …तो वास्तव मैं युग पुरुष हैं ,,,,और याद रखे यह ऋषियों की वाणी हैं ,,,,तो आत्मसात कर ले इन्हें
जय गुरुदेव!
क्या आप मंत्र, तंत्र, यन्त्र के नाम से घबराते हैं, क्या आप जानते हैं कि तंत्र हमारे देश की सर्वश्रेष्ठ विधा हैं, जिसका उपयोग जितने भी महापुरुष, ऋषि, आदि हुए हैं, सभी ने ही किया हैं.
चाहे वे श्री राम हो, श्री कृष्ण हो, बुद्ध, शंकराचार्य, गोरखनाथ, हर व्यक्तित्व ही तंत्र का जानकर था….
आइये जानते हैं कुछ खास बातों को….
सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंदजी महाराज (पूज्य सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के शब्दों में, जो हर क्षेत्र के अद्वितीय व्यक्तित्व हैं..
जिनका नाम ही हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ माना जाता हैं…
जानिए हमारी ऋषियों की संस्कृति को.
मंत्र-तंत्र-यन्त्र
विज्ञान
वशिष्ठ ने कात्यायनी से कहा : “यदि तुम्हें जीवन में आनंद प्राप्त करना हैं, सब्भी रोगों से मुक्त होना हैं, चिरयौवनमय बने रहना हैं और सिद्धाश्रम के मार्ग में पूर्णता प्राप्त करनी हैं तो तुम्हें मंत्र-तंत्र और यंत्र का समन्वय करना होगा!” और कात्यायनी ने वशिष्ठ को पति नहीं गुरु रूप में स्वीकार कर ऐसा किया और अपने जीवन को उच्चता पर पहुँचाया!
इसलिए जीवन में मंत्र-तंत्र-यंत्र का परस्पर सम्बन्ध हैं, इनके द्वारा ही जीवन ऊपर की और उठ सकता हैं! मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान का प्रकाशन ही इसलिए किया हैं…. कोई आवश्यकता नहीं थी, मगर आवश्यकता इस बात की थी कि इस समय सारा संसार भौतिक बंधनों में बंधा हुआ हैं, और बन्धनों में बंधने के कारन व्यक्ति अन्दर से छटपटाता रहता हैं, वह चाहता हैं मैं मुक्त हवा में साँस ले सकूँ, मैं कुछ आगे बढ़ सकूँ, मैं जीवन में बहुत कुछ कर सकूँ….. मगर इसके लिए कोई रास्ता नहीं हैं, उसको कोई समझाने वाला नहीं हैं!
ऐसी स्थिति में पत्रिका का प्रकाशन किया गया और इस पत्रिका में मंत्र-तंत्र और यंत्र तीनों का समन्वय किया गया हैं! इसमें उच्चकोटि के मंत्रों का चिंतन दिया गया हैं! यह पत्रिका केवल कागज के कोरे पन्ने नहीं हैं! यदि बाजार से कागजों का एक बण्डल लाया जायें, तो वह सौ रूपये में प्राप्त हो सकता हैं, मगर जब उन कागजों पर उच्चकोटि के मंत्र और साधना विधियां लिख दी जाती हैं, तो वह पुस्तक अमूल्य हो जाती हैं! ज्ञान को मूल्य के तराजू में नहीं तौला जा सकता, ज्ञान को इस बात से भी नहीं देखा जाता हैं कि इस पत्रिका का मूल्य पांच रूपये या पच्चीस रूपये हैं, ज्ञान का मूल्य तो अनन्त होता हैं!
इसलिए हमने इस श्रेष्ठतम पत्रिका का प्रकाशन किया! इसके माध्यम से हम अपने पूर्वजों के ज्ञान को, पूर्वजों के साहित्य को, जो लुप्त होता जा रहा हैं, जो समाप्त होता जा रहा हैं, उसे सुरक्षित कर सकें, क्योंकि कुछ समय और बीत गया, तो हम इन मंत्रों के, तंत्रों के बारे में कुछ जान ही नहीं सकेंगे! उन सबको सुरक्षित रखने के लिए इस पत्रिका का प्रकाशन किया…… इसके पीछे कोई व्यापर की आकांक्षा और इच्छा नहीं हैं, इसके पीछे जीवन का कोई ऐसा चिंतन नहीं हैं कि इसके माध्यम से धनोपार्जन किया जायें, चिंतन तो इस बात के लिए हैं कि हम पूर्वजों की थाती को, पूर्वजों के ज्ञान को सुरक्षित रख सकें!
और पिछले कई वर्षों से इस पत्रिका का प्रकाशन इस बात का प्रमाण हैं कि आज भी समाज में चेतना हैं, जो इस प्रकार का ज्ञान चाहती हैं! अगर नहीं चाहती, तो पत्रिका कभी भी बंद हो चुकी होती! ऐसे व्यक्ति हैं जो इस प्रकार की साधनाओं के लिए लालायित हैं, उनको इस प्रकार की साधनाएं देने के लिए, वे समयानुसार किस प्रकार की साधनाएं करें , उनको मार्गदर्शन देने के लिए ही इस पत्रिका का प्रकाशन किया गया हैं!
और सही कहूँ तो यह पत्रिका नहीं कलयुग की श्रीमदभगवदगीता हैं, जिसका एक-एक पन्ना आने वाले समय के लिए, आने वाली पीढ़ी के लिए धरोहर हैं, उच्चता तक ले जाने की सीढ़ी हैं!
-पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी.
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान.

Friday, May 2, 2014

divya yug दिव्य युग

















जो मरते है उलझ कर किनारों पे, दुःख उनपर होता है ,
बीच समन्दर में फ़ना होना तो किस्मत की बात है


दिव्य युग
ॐ ब्रम्हा वे दिवौ ह: स: दिवौ ।
वे गुरु वे सदा ह: ।।


इस घोर संक्रमण काल मैं
जब मानव दिग्भ्रमित है
तुम पाथेय बनो ।
जब वे खोखली सभ्यता से दिशाः शून्या हैं
तुम मार्ग दर्शक बनो.…
जब वे आसुरी परवर्तीयों में लिप्त हैं
तुम साधनाताम्क परकाश से सुनय्ता भरो ।
छा जाओ पूरी पृथ्वी पर, और साधना
के द्वारा सह्श्त्रार जाग्रत कर
प्राणमय कोष से
धरा पर सिद्धाश्रम प्रेरित दिव्य युग स्थापित करो ।

यदि निरंतर गुरु सेवा और गुरु मंत्र जप करोगे तो निश्चय ही तुम जीवन में वह सब कुछ पा सकोगे जो कि तुम्हारा अभीष्ट हैं."

Friday, April 25, 2014

Must ask you this coming time


  • आने वाला समय तुमसे ये अवश्य पूछेगा Must ask you this coming time


    जीवन में ऊंचा उठना हैं और यदि नहीं उठते हैं तो यह जीवन व्यर्थ हैं, क्योंकि ऊंची सीढ़ी पर चढ़ना बहुत कठिन हैं, नीचे फिसलना बहुत आसान हैं ! दस सीढियों से नीचे उतरने में एक सेकंड लगता हैं, परन्तु दस सीढ़ी चढ़ने में आपको बीस सेकंड लगेंगे ! एक-एक सीढ़ी चढ़नी पड़ेगी, आपको नित्य बार-बार सोचना पड़ेगा कि :-



    मैं शिष्य बन रहा हूँ या नहीं बन रहा हूँ ! क्या मेरे अन्दर राक्षस वृत्ति पनप रही हैं या सदगुणों का विकास हो रहा हैं? मेरा जीवन कैसा व्यतीत हो रहा हैं – अपने आप में विश्लेषण करना जीवन की श्रेष्ठता हैं, महानता हैं, और यह वह व्यक्ति कर सकता हैं, जो अपने आप में बिल्कुल शिष्यवत बनकर गुरु के पास रहने का सामर्थ्य रखता हैं, और शंकराचार्य कहते हैं, ऐसे ही व्यक्ति गुलाब के फूल बनते हैं, जो सही अर्थों में गुरु के लिए अपने आपको समर्पित कर देते हैं !


    शंकराचार्य कहते हैं जीवन का श्रेष्ठतम शब्द “शिष्य” हैं और शिष्य वह होता हैं जो अपनी जान को हथेली पर लेकर चलता हैं ! दो तरह के व्यक्ति होते हैं – एक व्यक्ति सदगुणों का आगार होता हैं, भंडार होता हैं, एक व्यक्ति षडयंत्र का भंडार होता हैं ! जो कि चौबीसों घंटे यही सोचता कि मैं कैसे छल करूँ? कैसे झूठ बोलूं? कैसे प्रपंच रचूं, कैसे इनको फुसलाऊं? कैसे इनमें फ़ुट डालूं? कैसे इन दोनों को लडाऊं? कैसे अपने आप को श्रेष्ठ सिद्ध करूँ?


    परन्तु शिष्य के चित्त पर इन सबका प्रभाव नहीं पड़ता, वे समझते हैं कि मैं क्या हूँ ! जो सही अर्थों में शिष्य हैं और जिनके अन्दर सदगुण हैं, वे असदगुणों को तुंरत भांप लेते हैं, जो गुलाब के फूलों के बीच रहते हैं, जब थोडी सी भी नाली कि दुर्गन्ध आती हैं तो वे भांप लेते हैं कि यहाँ दुर्गन्ध हैं, कहाँ से नाली बह रही हैं, यह मालूम नहीं, पर दुर्गन्ध हैं अवश्य, और उन्हें एहसास होता हैं कि उन्हें दुर्गन्ध से दूर हट जाना हैं !


    ऐसा शिष्य या तो किनारा करके खड़ा हो जाता हैं या फिर उस सुगंध में स्वयं को व्याप्त करने के लिए तैयार हो जाता हैं ! मगर वह नाली का कीडा नहीं बनता, और नाली का कीडा बनकर हज़ार साल भी जीवित रहने की अपेक्षा दो दिन जीवित रहना ज्यादा अच्छा हैं ! वह अपने गुरु की रक्षा करने के लिए उनकी आज्ञा पालन करने के लिए, अपने जीवन को भी आत्मोत्सर्ग करने के लिए, वह तैयार रहता हैं – यही जीवन की श्रेष्ठता का एक मापदंड हैं !


    यदि हमने गुरु के लिए अपने आप को न्यौछावर ही नहीं किया, तो जीवन व्यर्थ हैं ! जीवन में एक तरफ ऐसे व्यक्ति हैं जो गुरु हैं और जीवन में गुलाब के फूल तो चार पॉँच ही खिलेंगे और यदि चार पॉँच फूल भी टूट गए तो फिर कांटे ही जीवन में रह जायेंगे ! जहाँ भी जाओगे, तुम्हें कांटे ही मिलेंगे ! उन काँटों के बीच जीवित नहीं रहना हैं, क्योंकि अगर उन फूलों को जीवित रखना हैं तो उन काँटों को तोड़ना ही पड़ेगा, उन काँटों को तोडेंगे तो फूल विकसित होंगे, आसपास की घास खोदेंगे तो फूल का विकास होगा !


    और हमने जीवन में काँटों का विकास किया, या फूलों का विकास किया, काँटों की रक्षा के लिए अपने क्षणों को व्यतीत किया या फूलों की रक्षा के लिए अपने क्षणों को व्यतीत किया, यह चिंतन का विषय हैं ! हमने अपने जीवन के कितने क्षण उस गुरु को दिए? कितना समय उनके लिए दिया? किस प्रकार से उनको बचाया? किस प्रकार से उनकी सेवा की, यह जीवन का एक उच्च स्तरीय सोपान हैं ! यह जीवन का एक उच्च स्तरीय मापदंड हैं, अपने आपको नापने की एक क्रिया हैं, और यही स्थिति शिष्यता कहलाती हैं ! शिष्य शब्द से ही सेवा शब्द बना हैं और सेवा का मतलब हैं उन गुलाब के फूलों को विकसित करने में सहयोग देना और सहयोग देने के लिए तूफ़ान आंधी के बीच में तन कर के खड़े हो जाना, क्योंकि अगर वे ही गिर गए तो चारों तरफ़ नाली के कीड़े बहने लग जायेंगे ! फिर हमारा जीवन अपने आप में व्यर्थ हो जाएगा, फिर हमारे जीवन का कोई अर्थ नहीं रह पायेगा !


    मैंने तो सैकडों प्रकार के जीवन जीये हैं, गृहस्थ शिष्यों के बीच में भी रहा हूँ, सन्यासी शिष्यों के बीच भी रहा हूँ ! सन्यासियों में भी कई हलके स्तर के भी होंगे, कुछ बहुत अच्छे स्तर के भी हैं, जिनके नाम आज भी मेरे चित्त पर बहुत गहरी स्याही से लिखे हैं और और आज भी मैं उनके संपर्क में हूँ !


    कृष्ण के भी तीर लगा तो उनको भी खून निकला ही निकला, राम को भी अगर रावण के तीर लगे तो उनके शरीर में भी कम से कम 108 छेद हो ही गए थे ! वह तो एक शरीर हैं, उस शरीर के अन्दर ईश्वरत्व हैं, उस शरीर के अन्दर गुरुत्व हैं, उस शरीर के अन्दर शिष्यत्व हैं !


    आपने अपना जीवन किस तरीके से व्यतीत किया हैं और गुरु ने अपना जीवन किस तरीके से व्यतीत किया यह महत्वपूर्ण हैं ! क्या गुरु तुम्हारे बराबर सहयोगी रहे? क्या गुरु तुम्हें बार-बार प्रेम से बोलते रहे? क्या गुरु ने तुम्हें कभी गालियाँ दी? क्या गुरु ने तुमसे कभी षड़यंत्र किया? नहीं किया! तो तुम्हें भी कोई अधिकार नहीं हैं कि उनके प्रति षडयंत्र करें, उनके प्रति झूठ बोलें, या उनके प्रति छल करें, उनके प्रति तूफ़ान को आने दें ! गुरु को मानसिक शांति मिले, यही हमारा धर्म काल गणना हो ! इसलिए शंकराचार्य कहते हैं कि जन्म से लेकर मृत्यु तक चाहे आप व्यापारी हैं, चाहे नौकरी पेशा हैं, चाहे आप किसी भी क्षेत्र में हैं, आप शिष्य हैं !


    मृत्यु के क्षण तक भी शिष्य हैं, शिष्य का अर्थ हैं कि आप क्या जीवन में सीख रहे हैं? आप क्या कर रहे हैं और आप किसके लिए क्या कर रहे हैं? क्या अपने लिए? हमने दूसरों के लिए क्या किया वह महत्वपूर्ण हैं !


    अपने आपको बलिदान नहीं कर दिया तो शिष्य कैसे हुए? आगे भी चाहे गुरु तुम्हारे पास नहीं होगा, परन्तु वह सुगंध तुम्हारे पास व्याप्त होगी कि हमने कुछ क्षण ऐसे व्यक्ति के साथ बिताये हैं जिनमें ज्ञान था, चेतना थी, जो सही अर्थों में व्यक्तित्व था, मगर जिसे तूफानों के बीच धकेल दिया हमने !


    और तूफ़ान के बीच तो अच्छे से अच्छा गुलाब भी मुरझाकर के टूटकर गिर जाता हैं, अच्छे से अच्छा राम भी बाणों का शिकार होकर गिर जाता हैं, अच्छे से अच्छा कृष्ण भी एक तीर लगने से मृत्यु को प्राप्त हो जाता हैं, लेकिन – नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि… ! !


    शंकराचार्य ने इस श्लोक में दूसरा शब्द लिया हैं प्रेम ! कि जिसके हृदय में प्रेम हैं वह गलती कर ही नहीं सकता ! और प्रेम केवल एक के साथ ही हो सकता हैं, दस लोगों के साथ नहीं हो सकता ! दस के साथ सहानुभूति हो सकती हैं, दस लोगों के साथ अटैचमेंट हो सकता हैं, चालीस लोगों के साथ परिचय आपका हो सकता हैं, प्रेम नहीं हो सकता ! प्रेम तो केवल एक व्यक्ति से होगा – या तो ईश्वर से होगा या गुरु से होगा या किसी से भी होगा और जिसके प्रति प्रेम हैं उसके प्रति जान न्यौछावर होती हैं ! भक्त अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर देता हैं !


    आपका प्रेम केवल एक के साथ हो सकता हैं – या तो काँटों के साथ हो सकता हैं या गुलाब के फूलों के साथ हो सकता हैं ! दोनों से एक साथ नहीं हो सकता ! यह आप पर निर्भर हैं कि आप काँटों के साथ प्रेम करते कि आप गुलाब के साथ प्रेम करते हैं ! मगर शंकराचार्य कहते हैं कि अपने जीवन को उच्चता तक पहुचाने के लिए आपको इसी क्षण से परिवर्तित होना पड़ेगा या तो आप नीचे धरातल पर चले जायेंगे, या फिर ऊंचाई पर चले जायेंगे ! यह फिर आपके हाथ में हैं या तो आप षडयंत्रकारी बन जायेंगे या गुलाब के फूल बन जायेंगे या तो कांटे बन जायेंगे !


    यह अपने आप में भगवान को धोखा देने की क्रिया हैं, अपने आप को धोखा देने की क्रिया हैं ! यदि आपके शरीर में सुगंध हैं आप में यदि प्रेम हैं तो आप वास्तव में उच्चता पर स्थित हैं ! प्रेम का अर्थ हैं अपने आप को मिटा देने की, फ़ना कर देने की क्रिया, उसके लिए अपने आपको न्यौछावर कर देने की क्रिया, तिल-तिल कर के जल जाने की क्रिया ! यदि ऐसा हैं तो जीवन की सार्थकता हैं !


    इतिहास नहीं क्षमा करेगा, फिर तुम्हारे जीवन का अर्थ क्या रहेगा? यदि तुम्हारे जीवन का मूल्य क्या रहेगा? फिर तुम शिष्य कैसे बनोगे? शिष्य वह तो हैं ही नहीं कि दीक्षा दी वही शिष्य हैं ! यह तो जन्म से लगाकर के मृत्यु तक की सारी क्रिया शिष्यता हैं, आप सीढियों पर चढ़ रहे हैं या उतर रहे हैं – यह शिष्यता हैं, आप तूफानों से टक्कर ले रहे हैं या तूफानों का शिकार हो रहे हैं – यह शिष्यता हैं, आप मन्दिर को गिरता देख रहे हैं या मन्दिर को बचाने में तत्पर हैं, यह शिष्यता हैं ! आपने गिरजाघर को गिरने दिया या बचाया, आपने गुरुद्वारे को समाप्त किया या बचाया, यह शिष्यता हैं !


    और गुरु की पहिचान तो अपने आप में मन की आंखों से ही सम्भव हैं ! अगर प्रेम का अंकुर फुटा ही नहीं, तो आपने गुरु को पहचाना ही नहीं ! पहचान ले जिससे प्रेम का वह अंकुर तेजी से बढ़ने लगे क्योंकि तुम्हारे अन्दर प्रेम हैं तो परन्तु तुमने उसे जागने नहीं दिया हैं ! इसलिए जागने नहीं दिया कि उसके ऊपर घृणा, बहार की हवा, तूफ़ान हावी हो गए ! तुम भाग बन गए उसके, और उस प्रेम को तुमने दबा दिया ! ज्योंही अंधेरे को हटाया, छल को हटाया तो प्रेम का अंकुर फूटा, फूटा और तुम्हारा चेहरा मुस्कराहट से खिल गया, तुम्हारे शरीर से सुगंध निकलने लगी, तुम्हारा शरीर सुगन्धित, सुवासित होने लगा, एक महक आने लगी, एक आंखों में सुरूर पैदा हुआ, एक जिंदगी की धड़कन पैदा हुयी और उसकी रक्षा के लिए अपने आप को तैयार कर दिया, उसके लिए अपने आपको न्यौछावर कर दिया, उसके लिए अपने आपको आत्मोत्सर्ग कर दिया !


    आपने क्या दिया, यह आपका अपना गणित हैं ! मैं आशीर्वाद देता हूँ कि आपके हृदय में प्रेम का अंकुर फूटे, आप किसी की ढाल बन सकें, आपके मन में जो घृणा दूसरो ने भर दी हैं, जो षडयंत्र, डर, भय, आतंक हैं उनको आप हटा कर निर्भीक हों ! आप निर्भीक है तो जीवित हैं, जाग्रत हैं, डरे हुए हैं तो आप अधम, गये बीते हैं ! जब भय रहित होंगे तब प्रेम व्याप्त हो पायेगा ! ऐसे ही आप भय रहित, निर्भय होकर के अपने अन्दर के गुलाब को, प्रेम को विकसित करें और आप आत्मोत्सर्ग हो सकें और एक ज्ञान के दीप को, एक गुलाब के फूल को जीवित, जाग्रत, चैतन्य बनाएं रख सकें, जिससे कि वह सुगंध चारों तरफ फ़ैल सकें ! यही आपके जीवन की क्रिया बने, ऐसे ही मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूँ, कल्याण कामना करता हूँ !


    गुरु वाणी, परमपूज्य गुरुदेव निखिलेश्वरानंद, Mantra Tantra Yantra Vigyan by Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji

Hirendra Pratap Singh


जीवन में तुम्हें रुकना नहीं है, निरंतर आगे बढ़ना है क्यूंकि जो साहसी होते हैं, जो दृढ़ निश्चयी होते हैं जिनके प्राणों में गुरुत्व का अंश होता है, वही आगे बढ़ सकता है.. और इस आगे बढ़ने में जो आनंद है, जो तृप्ति है, वह जीवन का सौभाग्य है.

***

गृहस्थ से भागने की जरुरत नहीं है, जरुरत है, एक तरफ खड़े होकर देखने की, तुम्हारी एक आँख गृहस्थ में हो, तो दूसरी आँख गुरु चरणों में नमन युक्त होनी चाहिए. तब तुम्हारे जीवन में कोई न्यूनता रहेगी ही नहीं क्यूंकि वह नमन युक्त आँख तुम्हारे जीवन को पूरी तरह से संवार देगी, सजग कर देगी, प्रकाशित कर देगी.

***

उन सन्यासी शिष्यों ने मेरे आनंद का अमृत चखा है, और इसलिए वो मेरी उपस्थिति के बिना भी मस्त हैं, चैतन्य हैं, नृत्य युक्त हैं, और मैं वही अमृत बांटने आया हूँ, तुम इस अमृत को तृप्ति के साथ चखो, और तुम्हें एहसास होगा की तुम्हारा जीवन संवर गया है, तुम्हारा जीवन जगमगाहट देने लगा है.
***
पिछले जीवन में तुम्ही तो थे, जो मुझसे अलग हुए थे, मैं तुम्हें आवाज़ दे रहा था और तुम नकली स्वप्नों के पीछे पीठ मोड़कर भाग रहे थे, और तुमने अपने कान मेरी आवाज़ सुनने के लिए बंद कर दिए थे, और उसी का परिणाम तुम्हारी ये चिंताएं हैं, ये परेशानियाँ हैं, ये जीवन की बाधाएं हैं.


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तुम्हें जीवन में कुछ भी विचार करने की जरुरत नहीं है, क्यूंकि मैं प्रतिक्षण प्रतिपल तुम्हारे साथ हूँ, मुझे मालुम है की तुम्हें किस लक्ष्य तक पहुँचाना है, तुम्हें तो चुपचाप अपना हाथ मुझे सौंप देना है आगे का कार्य तो मेरा है.


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तुम्हें साधना के और सिद्धियों के मोती नहीं मिल रहे हैं, तो यह कसूर तो तुम्हारा ही है, क्यूंकि तुम्हें समुद्र में गहरायी के साथ उतरने की क्रिया नहीं आई, तुममे पूर्ण रूप से डूबने का भाव नहीं आया, गुरु के ह्रदय सागर में निश्चिंत होकर दुबकी लगाने की क्षमता नहीं आई, और जिस दिन तुम गहराई के साथ गुरु के ह्रदय में डूब सकोगे, तब वापिस बाहर आते समय तुम्हारी दोनों हथेलियाँ “सिद्धि” के मोतियों से भरी होंगी.


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शिष्य का तात्पर्य नजदीक आना है, और ज्यादा नजदीक, इतना नजदीक, कि गुरु के प्राणों में समा जाये, एकाकार हो जाये, गुरु की धड़कनों में अपनी धडकनें मिला ले, और जब ऐसा होगा तो तुम्हारे अन्दर स्वतः गुरुत्व प्रारम्भ हो जायेगा, स्वतः दिव्यत्व प्रारम्भ हो जाएगा, और स्वतः सिद्धियाँ तुम्हारे सामने नृत्य करती सी प्रतीत होंगी.


".पहाड़ चढ़ने का एक उसूल है....झुक के चलो , दौड़ो मत ..... ज़िंदगी भी बस इतना ही मांगती है......... "ठोकरे खा कर भी ना संभले तो, मुसाफिर का नसीब। वरना पत्थरों ने तो, अपना फ़र्ज़ निभा दिया।

" तेरा इंतजार, किसी मुकदमें से कम नहीं... हर बार नई तारीख मिलती हो जैसे ========== ना डूबने देता है, ना उबरने देता है, उसकी आँखों का वो समंदर अजीब है... ..! "
  1. खुशियां कम और अरमान बहुत हैं, जिसे भी देखिए यहां हैरान बहुत हैं,, 
  2. करीब से देखा तो है रेत का घर, दूर से मगर उनकी शान बहुत हैं,, 
  3. कहते हैं सच का कोई सानी नहीं, आज तो झूठ की आन-बान बहुत हैं,, 
  4. मुश्किल से मिलता है शहर में आदमी, यूं तो कहने को इन्सान बहुत हैं,, 
  5. तुम शौक से चलो राहें-वफा लेकिन, जरा संभल के चलना तूफान बहुत हैं,, 
  6. वक्त पे न पहचाने कोई ये अलग बात, वैसे तो शहर में अपनी पहचान बहुत हैं।।। 

"कभी किसी दूसरे की मुस्कान की वजह भी बन कर देखें, ज़िन्दगी में कभी निराशा और उदासी आपके आस पास भी नहीं आ पाएगी.. "