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Wednesday, April 15, 2015

MTYV Vishwa Vidyalaya For Admission

मंत्र तंत्र यन्त्र विज्ञानं विधालय



मंत्र तंत्र यन्त्र विज्ञानं विधालय में प्रवेश के लिएसभी साधक और साधिका को सूचित किया जाता है की आप सब के लिए MTYV Vishwa Vidyalaya whatApp ग्रुप बन गया है | जहा पर साधना को सिखने का एक नवीन अवसर मिल सकता है बहुत से साधक और साधिका के अनुरोध पर ये किया जा रहा है , जो नए साधक उन को लाभ मिलेगा और पुरने साधक एस ग्रुप से जुड़ कर आपना ज्ञान, ध्यान और चिन्तन को बड़ा सकते है | जो साधको को साधना में सफलता नहीं मिल रहा है उन के लिए बहुत ही उपयोगी होगा और एक नए उत्साह से हम साधना को सिख कर आपने जीवन को आगे ले सकेगे | ये ग्रुप पैसे कमाने के लिए नहीं बनाया जा रहा है | में सद्गुरु के प्रेरणा से ये सब करने का विचार कर रहा हूँ , ग्रुप मैं कुछ टीम वर्क होगा जो आप को सही से मार्ग दर्सन के साथ उचित सलाह दिया जा सकेगा जिस आप साधना में मिल रही असफलता को कम कर सकेगे और सद्गुरु के ज्ञान को बचने मैं सहयोग के साथ खुद भी नवीन चेतना धारण कर शिष्य बन सकेगे |



तंत्र में किसी कि सहायता कर देना सरल नहीं होता है उसे पग पग पर मुसीबतों का सामना करना पड़ता है ।

एक प्रकार से शिव की तरह जहर पीना पड़ता है ।




सॉर्ट कट नहीं किसी भी चीज़ का तंत्र के क्षेत्र में फिर भी गुरु किरपा हो और अटूट प्रेम श्रद्धा विस्वास है सब संभव है ?

गुरु प्रेम नाम के हीरे मोती मैं बिखराऊ गली~ गली , है कोई गुरु चाहने वाला शोर मचाऊ गली~ गली '' लेकिन मेरी आवाज़ को कोई नहीं सुनता ,







गुरु और प्रेम की सारी विधियाँ , सारे नियम , सारे सिद्धांत , सारी साधना साधक की चेतना के विस्तार के लिए है ! साधना का एक अर्थ चेतना का विस्तार भी है जब तक साधक मूर्छा ( अज्ञानी ) में है तब तक उसकी चेतना का विस्तार संभव नहीं है ! गुरु के सारे उपक्रम इसी मूर्छा को दूर करने के लिए हैं ! गुरु दीक्षा द्वारा शक्तिपात के द्वारा ,साधना के द्वारा कुंडलिनी जागरण के द्वारा दूर करने का प्रयत्न करता है ! साधक को अज्ञान से बाहर निकलता है ! सचमुच गुरु और प्रेम बड़ा ही अद्भुत शास्त्र है ! जितना सीखो उतना कम है ! प्रत्येक साधक यह सोचता है विचारों का संग्रह ही ज्ञान है ! पुस्तकों में हम जो कुछ भी पड़ते हैं वह सब दूसरों के विचार हैं ,ज्ञान नहीं, विचारों के संग्रह से हम कभी भी ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते हैं ! ज्ञान आता है मिलकर बैठने से , ज्ञान आता है आत्मा से , ज्ञान आता है गुरु के वचनों से , ज्ञान आता है स्तरिये पुस्तकों से ,स्मरण रखें ज्ञान हमारी संपत्ति है और विचार दूसरों की सम्पति है !ज्ञान वास्तव मैं आत्मा की ऊर्जा है ! पुरुष कहो या साधक कहो के शरीर मैं श्वेत बिंदु के रूप में शिव और स्त्री कहो साधिका कहो या भैरवी कहो के शरीर में रक्त बिंदु के रूप मैं शक्ति का निवास है ! आपको यह जानकार बेहद आश्चर्य होगा कि बिंदु साधना का ही दूसरा नाम कुंडलिनी साधना है ! दोनों की जड़ में एक ही सिद्धांत , एक ही नियम और एक ही लक्ष्य है ! जैसे वैदिक युग में बिंदु साधना का प्रभाव था ठीक उसी प्रकार तंत्र युग में कुण्डलिनी साधना का प्रभाव था !जब भी गुरु कहीं लेकर चलते हैं ,या किसी गोपनीय साधना के लिए बुलाते हैं तो साधक को यही कहना चाहिए ~ गुरुवर आप बुलाएँ हम ना आयें ऐसे तो हालात ( स्थिती ) नहीं ! कभी न कभी सफल हो जाओगे ...........










जिसे सफलता का और असफलता का अंतर पता है और जो भुतक्भोगी है | में उन की सहायता करना चाहता हूँ जो साधक एस ग्रुप से जुड़ना चाहते है | आप एस विद्यालय में प्रवेश ले कर के अध्यन करे |

ग्रुप और कुछ नियम।

साधक /साधिका जैसा की हम अपनी पिछली पोस्ट में बता चुके है , की एक नविन विद्यालय ग्रुप का निर्माण हो रहा है। जो पूर्ण रूप से गोपनीय होगा। उससे सम्बंधित नियम यहाँ दिए जा रहे है। ध्यानपूर्वक अध्ययन करे।



Saturday, July 12, 2014

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी About Swami Nikhileshwaranand ji

आप सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाए | हम सभी आपस मे प्रेम करे ज्ञान चर्चा करे और निखिल संदेश को जन जन तक पहुंचाए |


धरती सब कागद करूं, लेखनी सब बनराय। 
साह सुमुंद्र की मसि करूं, गुरू गुण लिखा न जाय़।।

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी About Swami Nikhileshwaranand ji

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी एक ऐसे उदात्ततम व्यक्तित्व हें, जिनके चिन्तन मात्र से ही दिव्यता का बोध होने लगता हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत को अपने भीतर समाहित किए हुए महात्मा हिरण्यगर्भ की तरह शांत और सौम्य हैं। व्यवहारिक क्षेत्र में स्वच्छ धौत वस्त्र में सुसज्जित ये जितने सीधे-सादे से दिखाई देते हैं, इससे हट कर कुछ और भी हैं, जो सर्वसाधारण गम्य नहीं हैं। साधनाओं के उच्चतम सोपान पर स्थित विश्व के जाने-मने सम्मानित व्यक्तित्व हैं। इनका साधनात्मक क्षेत्र इतना विशालतम है, कि इसे सह्ब्दों के माध्यम से आंका नहीं जा सकता। किसी भी
प्रदर्शन से दूर हिमालय की तरह अडिग, सागर की तरह गंभीर, पुष्पों की तरह सुकोमल और आकाश की तरह निर्मल हैं।

इनके संपर्क में आया हुआ व्यक्ति एक बार तो इन्हें देखकर अचम्भे में पड़ जाता हैं, कि ये तो महर्षि जह्रु की तरह अपने अन्तस में ज्ञान गंगा के असीम प्रवाह को समेटे हुए हैं।

पूज्य गुरुदेव ऋषिकालीन भारतीय ज्ञान परम्परा की अद्वितीय कड़ी हैं। जो ज्ञान मध्यकाल में अनेक-प्रतिघात के कारण अविच्छिन्न हो, निष्प्राण हो गया था, जिस दिव्य ज्ञान की छाया तले समस्त जाति ने सुख, शान्ति एवं आनंद का अनुभव किया था, जिसे ज्ञान से संबल पाकर सभी गौरवान्वित हुए थे। तथा समस्त विसंगतियों को परास्त करने में सक्षम हुए थे, जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों ने अपनी तपः ऊर्जा से सबल एवं परिपुष्ट करके जन कल्याण के हितार्थ स्वर्णिम स्वप्न देखे थे... पूज्यपाद सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी ने समाज की प्रत्येक विषमताओं से जूझते हुए, अपने को तिल-तिल जलाकर उसी ज्ञान परम्परा को पुनः जाग्रत किया है, समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर उन्होनें पुनः उस ज्ञान प्रवाह को साधनाओं के माध्यम से आप्लावित किया है। मानव कल्याण के लिए अपनी आंखों में अथाह करुणा लिए उन्होनें मंत्र और तंत्र के माध्यम से, ज्योतिष, कर्मकाण्डएवं यज्ञों के माध्यम से, शिविरों तथा साधनाओं के माध्यम से उन्होनें इस ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाया हैं।

ऐसे महामानव, के लिए कुछ कहने और लिखने से पूर्व बहुत कुछ सोचना पङता है। जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं। निखिल स्तवन के एक-एक श्लोक उनके इसी सन्यासी स्वरुप का वर्णन हैं।

बाहरी शरीर से भले ही वे गृहस्थ दिखाई दें, बाहरी शरीर से वे सुख और दुःख का अनुभव करते हुए, हंसते हुए, उसास होते हुए, पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए या शिष्यों के साथ जीवन का क्रियाकलाप संपन्न करते हों, परन्तु यह तो उनका बाहरी शरीर है। उनका आभ्यंतरिक शरीर तो अपने-आप में चैतन्य, सजग, सप्राण, पूर्ण योगेश्वर का है, जिनको एक-एक पल का ज्ञान है और उस दृष्टि से वे हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगीश्वर हैं, जिनका यदा-कदा ही जन्म पृथ्वी पर हुआ करता है।

एक ही जीवन में उन्होनें प्रत्येक युग को देखा है, त्रेता को, द्वापर को, और इससे भी पहले वैदिक काल को। उनको वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हैं, त्रेता के प्रत्येक क्षण के वे साक्षी रहे हैं।

लगभग १५०० वर्षों का मैं साक्षीभूत शिष्य हूँ, और मैंने इन १५०० वर्षों में उन्हें चिर यौवन, चिर नूतन एक सन्यासी रूम में देखा है। बाहरी रूप में उन्होनें कई चोले बदले, कई स्थानों में जन्म लिया, पर यह मेरा विषय नहीं था, मेरा विषय तो यह था, कि मैं उनके आभ्यन्तरिक जीवन से साक्षीभूत रहूं, एक संन्यासी जीवन के संसर्ग में रहूं और वह संन्यासी जीवन अपन-आप उच्च, उदात्त, दिव्य और अद्वितीय रहा हैं।

उन्होनें जो साधनाएं संपन्न की हैं, वे अपने-आप में अद्वितीय हैं, हजारों-हजारों योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, क्योंकि वे योगी उनके आभ्यन्तरिक जीवन से परिचित हैं, वे समझते हैं कि यह व्यक्तित्व अपने-आप में अद्वितीय हैं, अनूठा हैं, इनके पास साधनात्मक ज्ञान का विशाल भण्डार हैं, इतना विशाल भण्डार, कि वे योगी कई सौ वर्षों तक उनके संपर्क और साहचर्य में रहकर भी वह ज्ञान पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक वेद, पुराण , स्मृति उन्हें स्मरण हैं, और जब वे बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ब्रह्मा अपने मुख से वेद उच्चारित कर रहे हों, क्योंकि मैंने उनके ब्रह्म स्वरुप को भी देखा हैं, रुद्र स्वरुप को भी देखा है, और रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहां हू।

आज भी सिद्धाश्रम का प्रत्येक योगी इस बात को अनुभव करता है, की 'निखिलेश्वरानंद' जी नहीं है, तो सिद्धाश्रम भी नहीं है, क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी उस सिद्धाश्रम के कण-कण में व्याप्त है। वे किसी को दुलारते हैं, किसी को झिड करते हैं, किसी को प्यार करते हैं, तो केवल इसलिए की वे कुछ सीख लें, केवल इसलिए की वे कुछ समझ ले, केवल इसलिए कि वह
जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ले, और योगीजन उनके पास बैठ कर के अत्यन्त शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है, कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास बैठे हों, एक साथ हिमालय के आगोश में बैठे हों, एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समेटे हुए जो व्यक्तित्व हैं, उनके पास बैठे हों। वास्तव में 'योगीश्वर निखिलेश्वरानन्द' इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय
विभूति हैं।

राम के समय राम को पहिचाना नहीं गया, उस समय का समाज राम की कद्र, उनका मूल्यांकन नहीं कर पाया, वे जंगल-जंगल भटकते रहे। कृष्ण के साथ भी ऐसा हुआ, उनको पीड़ित करने की कोई कसार बाकी नहीं राखी और एक क्षण ऐसा भी आया, जब उनको मथुरा छोड़ कर द्वारिका में शरण लेनी पडी और उस समय के समाज ने भी उनकी कद्र नहीं की। बुद्ध के समय में जीतनी वेदना बुद्ध ने झेली, समाज ने उनकी परवाह नहीं की। महावीर के कानों में कील ठोक दी गईं, उन्हें भूकों मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने उनके महत्त्व को आँका नहीं।

यदि सही अर्थों में 'सदगुरुदेव जी' को समझना है, तो उनके निखिलेश्वरानन्द स्वरुप समझना पडेगा। इन चर्म चक्षुओं से उन्हें नहीं पहिचान सकते, उसके लिए, तो आत्म-चक्षु या दिव्या चक्षु की आवश्यकता हैं।

मैंने ही नहीं हजारों संन्यासियों ने उनके विराट स्वरुप को देखा है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च और अद्वितीय ब्रह्माण्ड स्वरुप मैंने उनका देखा है, और एहेसास किया है कि
वे वास्तव में चौसष्ट कला पूर्ण एक अद्वितीय युग-पुरूष हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पृथ्वी गृह पर आए हैं। मैं अकेला ही साक्षी नहीं हूं, मेरे जैसे हजारों संन्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि उन्हें अभूतपूर्व सिद्धियां प्राप्त हैं। भले ही वे अपने -आप को छिपाते हों, भले ही वे सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते हों, मगर उनके अन्दर जो शक्तियां और सिद्धियां निहित हैं, वे अपने-आप में अन्यतम और अद्वितीय हैं।

एक जगह उन्होनें अपनी डायरी में लिखा हैं --

"मैं तो एक सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करता रहा, लोगों ने मुझे भगवान् कहा, संन्यासी कहा, महात्मा कहा, योगीश्वर कहा, मगर मैं तो अपने आपको एक सामान्य मानव ही समझता हूँ। मैं उसी रूप में गतिशील हूं, लोग कहें तो मैं उनका मुहबन्द नहीं सकता, क्योंकि जो जीतनी गहराई में है, वह उसी रूप में मुझे पहिचान करके अपनी धारणा बनाता हैं। जो मुझे उपरी तलछट में देखता है, वह मुझे सामान्य मनुष्य के रूप में देखता हैं, और जो मेरे आभ्यंतरिक जीवन को देखता है, वह मुझे 'योगीश्वर' कहता है, 'संन्यासी' कहता है। यह उनकी धारणा है, यह उनकी दृष्टि है, यह उनकी दूरदर्शिता है। जो मेरी आलोचना करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, क्योंकि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबसे सर्वथा परे हूं।

मैंने कोई दावा नहीं किया, कि मैं दस हजार वर्षों की आयु प्राप्त योगी हूं, और न ही मैं ऐसा दावा करता हूं, कि मैंने भगवे वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में विचरण किया, हिमालय गया, सिद्धियां प्राप्त कीं, या मैं कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व या मैं कोई अद्वितीय कार्य संपन्न किया है। मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं और सामान्य मनुष्य की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।" डायरी के ये अंश उनकी विनम्रता है, यह उनकी सरलता है, परन्तु जो पहिचानने की क्षमता रखते हैं - उनसे यह छिपा नहीं है, के वे ही वह अद्वितीय पुरूष हैं, तो कई हजार वर्षों बाद पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
------योगी विश्वेश्रवानंद copy right MTYV

Thursday, May 8, 2014

वास्तव मैं युग पुरुष हैं? Do Men Really era?

अब वक़्त आ गया हैं की मैं एक भारतीये होने के खातिर उन गुर रहस्यों को उज्जागर करूँ जो यह बताती हैं की हम भारतीये कितने महान थें ?और अब क्या हो गये हैं…?
मैं आपके सामने वोह सभी मंत्र तंत्र यन्त्र रख दूंगा जो आपके जीवन को पलट कर के रख देगी ..याकिन मानिये मेरा,,,,और यह सबका श्रेय मैं अपने प्रेयसी डॉ नारायण दत्त श्रीमाली को देता हूँ …तो वास्तव मैं युग पुरुष हैं ,,,,और याद रखे यह ऋषियों की वाणी हैं ,,,,तो आत्मसात कर ले इन्हें
जय गुरुदेव!
क्या आप मंत्र, तंत्र, यन्त्र के नाम से घबराते हैं, क्या आप जानते हैं कि तंत्र हमारे देश की सर्वश्रेष्ठ विधा हैं, जिसका उपयोग जितने भी महापुरुष, ऋषि, आदि हुए हैं, सभी ने ही किया हैं.
चाहे वे श्री राम हो, श्री कृष्ण हो, बुद्ध, शंकराचार्य, गोरखनाथ, हर व्यक्तित्व ही तंत्र का जानकर था….
आइये जानते हैं कुछ खास बातों को….
सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंदजी महाराज (पूज्य सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के शब्दों में, जो हर क्षेत्र के अद्वितीय व्यक्तित्व हैं..
जिनका नाम ही हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ माना जाता हैं…
जानिए हमारी ऋषियों की संस्कृति को.
मंत्र-तंत्र-यन्त्र
विज्ञान
वशिष्ठ ने कात्यायनी से कहा : “यदि तुम्हें जीवन में आनंद प्राप्त करना हैं, सब्भी रोगों से मुक्त होना हैं, चिरयौवनमय बने रहना हैं और सिद्धाश्रम के मार्ग में पूर्णता प्राप्त करनी हैं तो तुम्हें मंत्र-तंत्र और यंत्र का समन्वय करना होगा!” और कात्यायनी ने वशिष्ठ को पति नहीं गुरु रूप में स्वीकार कर ऐसा किया और अपने जीवन को उच्चता पर पहुँचाया!
इसलिए जीवन में मंत्र-तंत्र-यंत्र का परस्पर सम्बन्ध हैं, इनके द्वारा ही जीवन ऊपर की और उठ सकता हैं! मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान का प्रकाशन ही इसलिए किया हैं…. कोई आवश्यकता नहीं थी, मगर आवश्यकता इस बात की थी कि इस समय सारा संसार भौतिक बंधनों में बंधा हुआ हैं, और बन्धनों में बंधने के कारन व्यक्ति अन्दर से छटपटाता रहता हैं, वह चाहता हैं मैं मुक्त हवा में साँस ले सकूँ, मैं कुछ आगे बढ़ सकूँ, मैं जीवन में बहुत कुछ कर सकूँ….. मगर इसके लिए कोई रास्ता नहीं हैं, उसको कोई समझाने वाला नहीं हैं!
ऐसी स्थिति में पत्रिका का प्रकाशन किया गया और इस पत्रिका में मंत्र-तंत्र और यंत्र तीनों का समन्वय किया गया हैं! इसमें उच्चकोटि के मंत्रों का चिंतन दिया गया हैं! यह पत्रिका केवल कागज के कोरे पन्ने नहीं हैं! यदि बाजार से कागजों का एक बण्डल लाया जायें, तो वह सौ रूपये में प्राप्त हो सकता हैं, मगर जब उन कागजों पर उच्चकोटि के मंत्र और साधना विधियां लिख दी जाती हैं, तो वह पुस्तक अमूल्य हो जाती हैं! ज्ञान को मूल्य के तराजू में नहीं तौला जा सकता, ज्ञान को इस बात से भी नहीं देखा जाता हैं कि इस पत्रिका का मूल्य पांच रूपये या पच्चीस रूपये हैं, ज्ञान का मूल्य तो अनन्त होता हैं!
इसलिए हमने इस श्रेष्ठतम पत्रिका का प्रकाशन किया! इसके माध्यम से हम अपने पूर्वजों के ज्ञान को, पूर्वजों के साहित्य को, जो लुप्त होता जा रहा हैं, जो समाप्त होता जा रहा हैं, उसे सुरक्षित कर सकें, क्योंकि कुछ समय और बीत गया, तो हम इन मंत्रों के, तंत्रों के बारे में कुछ जान ही नहीं सकेंगे! उन सबको सुरक्षित रखने के लिए इस पत्रिका का प्रकाशन किया…… इसके पीछे कोई व्यापर की आकांक्षा और इच्छा नहीं हैं, इसके पीछे जीवन का कोई ऐसा चिंतन नहीं हैं कि इसके माध्यम से धनोपार्जन किया जायें, चिंतन तो इस बात के लिए हैं कि हम पूर्वजों की थाती को, पूर्वजों के ज्ञान को सुरक्षित रख सकें!
और पिछले कई वर्षों से इस पत्रिका का प्रकाशन इस बात का प्रमाण हैं कि आज भी समाज में चेतना हैं, जो इस प्रकार का ज्ञान चाहती हैं! अगर नहीं चाहती, तो पत्रिका कभी भी बंद हो चुकी होती! ऐसे व्यक्ति हैं जो इस प्रकार की साधनाओं के लिए लालायित हैं, उनको इस प्रकार की साधनाएं देने के लिए, वे समयानुसार किस प्रकार की साधनाएं करें , उनको मार्गदर्शन देने के लिए ही इस पत्रिका का प्रकाशन किया गया हैं!
और सही कहूँ तो यह पत्रिका नहीं कलयुग की श्रीमदभगवदगीता हैं, जिसका एक-एक पन्ना आने वाले समय के लिए, आने वाली पीढ़ी के लिए धरोहर हैं, उच्चता तक ले जाने की सीढ़ी हैं!
-पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी.
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान.

Friday, April 25, 2014

युद्धम् देहि yuddham dehi


सद्गुरुदेव ने यह साफ़ कहा था की मैंने तुम्हे अपने खून से इसलिए सींचा है क्योंकि आने वाले समय में समाज में छल , जूठ ,पाखंड अपनी पराकाष्ठा पर होगा, उस समय तुम्हे सिंह वत उस पाखंड पर प्रहार करना है और समाज में फिर से सनातन धर्म को अपनी भव्यता के साथ स्थापित करना है।

इस वीडियो में सद्गुरुदेव ने स्वयं यह आदेश दिए है की अगर कोई भी निखिल नाम के आड़ में व्यवसाय करे तो यह आपका कर्तव्य है की ऐसे व्यक्तियों को मुह तोड़ जवाब दीजिये.....

मैं गीदड़ो की तरह भेर चाल चलने का आदि नहीं हूँ मेरे रक्त में सद्गुरुदेव का लहू दौड़ रहा है ..... मैंने यह लड़ाई अकेले ही अपने दम पर प्रारम्भ की थी, अगर इस लड़ाई में कोई मेरा साथ दे तो उसका स्वागत है अगर नहीं दे तो मै अकेले ही इन पाखंडियो को उनकी औकात दिखने में सक्षम हूँ। ...

इस वीडियो को एक बार जरूर सुन ले ताकि अगर आपके अन्दर पाखंड के विरुद्ध आवाज उठाने की छमता नहीं है तो कम से कम आप पाखंडियो का साथ न दें

पर मै सनातन धर्म की पुनर्स्थापन लिए यह लड़ाई अपने अंतिम सांस तक लड़ता रहूँगा....

http://www.youtube.com/watch?v=gun1RfAXos0&feature=share&list=PLo6ZpeYNN6rKhy-fFodAw7aaUdQFJCdDx&index=4

युद्धम् देहि

जय निखिलेश्वर जय महाकाल

Meet and would miss the compulsion of life


मिलना और बिछुड़ना दोनों जीवन की मजबूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
शाखों से फूलों की बिछुड़न, फूलों से पंखुड़ियों की
आँखों से आँसू की बिछुड़न, होंठों से बाँसुरियों की
तट से नव लहरों की बिछुड़न, पनघट से गागरियों की
सागर से बादल की बिछुड़न, बादल से बीजुरियों की
जंगल जंगल भटकेगा ही जिस मृग पर कस्तूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
सुबह हुए तो मिले रात-दिन.. माना रोज बिछुड़ते हैं
धरती पर आते हैं पंछी.. चाहे ऊँचा उड़ते हैं
सीधे सादे रस्ते भी तो ..कहीं कहीं पर मुड़ते हैं
अगर हृदय में प्यार रहे तो..टूट टूटकर जुड़ते हैं
हमने देखा है बिछुड़ों को मिलना बहुत जरूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
hirendra jay sadgurudev

Tuesday, April 15, 2014

Master interaction of pupil गुरु - शिष्य का पारस्परिक संबंध


गुरु - शिष्य का पारस्परिक संबंध
अयोग्य व्यक्ति ( दुर्गुणों से युक्त ) न तो गुरु से दीक्षा पाने का अधिकारी है और न ही वह दीक्षित होने पर साधना के क्षेत्र में कोई उपलब्धि ही हासिल कर पाता है । यही कारण है कि प्रायः संत - महात्मा हरेक किसी को शिष्य नहीं बनाते । कुपात्रजनों को दिया जाने वाला ज्ञानोपदेश , आध्यात्मिक - संकेत , साधना - परामर्श और मंत्र - दीक्षा आदि सब निरर्थक होते हैं ।
गुरु और शिष्य के बीच पारस्परिक संबंध बहुत शुचिता और परख के आधार पर स्थापित होना चाहिए , तभी उसमें स्थायित्व आ पाता है । इसलिए गुरुजनों को भी निर्दिष्ट किया गया है कि वे किसी को शिष्य बनाने , उसे दीक्षा देने से पूर्व उसकी पात्रता को भली - भांति परख लें । शास्त्रों का कथन हैं -
मंत्री द्वारा किए गए दुष्कृत्य का पातक राजा को लगता है और सेवक द्वारा किए गए पाप का भागी स्वामी बनता है । स्वयंकृत पाप अपने को और शिष्य द्वारा किए गए अपराध का पाप गुरु को लगता है ।
दीक्षा और साधना के लिए अयोग्य व्यक्तियों के लक्षणों को शास्त्रकारों ने इस प्रकार स्पष्ट किया है -
ऐसा व्यक्ति जो अपराधी - मनोवृत्ति का हो अथवा क्रूर , पापी , हिंसक हो , वह न तो दीक्षा पाने का अधिकारी है और न वह साधना में ही सफल हो सकता है । कारण कि उसकी तामसिक - मनोवृत्ति उसे सदैव अस्थिर और असंतुलित बनाए रखती है ।
इसी प्रकार बकवादी , कुतर्क करने वाला , मिथ्याभाषी , अहंकारग्रस्त , लोभी , लम्पट , विषयी , चोर , दुर्व्यसनी , परस्त्रीगामी , मूर्ख , जड़ - बुद्धि , क्रोधी , द्वेषलु , ईर्ष्या अथवा अतिमोह से ग्रस्त , शास्त्र निंदक , आस्थाहीन , दुराचारी , वंचक , पाखंडी और न साधना करने योग्य । ऐसे लोगों को जन्मजात पापी , अपवित्र , दुर्भाग्यग्रस्त और कुपात्र माना गया है

Specific Siddhian by sadguru

These powers can be achieved even stronger इन सिद्धियों को हासिल कर आप भी बन सकते हैं शक्तिमान - परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी
हमारे पूर्वजों और ऋषियों के पास विशिष्ट सिद्धियां थी, परन्तु उनमें से काल के प्रवाह में बहु कुछ लुप्त हो गईं| उनमें भी बारह सिद्धियां तो सर्वथा लोप हो गईं थी, जिनका केवल नामोल्लेख इधर उधर पढ़ने को मिल जाता था पर उसके बारे में न तो किसी को प्रामाणिक ज्ञान था और न उन्हें ऐसी सिद्धि प्राप्त ही थी| ये इस प्रकार हें -
१.परकाया सिद्धि
२.आकाश गमन सिद्धि
३.जल गमन प्रक्रिया सिद्ध
४.हादी विद्या - जिसके माध्यम से साधक बिना कुछ आहार ग्रहण किये वर्षों जीवित रह सकता है|
५. कादी विद्या- जिसके माध्यम से साधक या योगी कैसी भी परिस्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है| उस पर सर्दी, गर्मी, बरसात, आग हिमपात आदि का कोई प्रभाव नहीं होता|
६.काली सिद्धि- जिसके माध्यम से हजारों वर्ष पूर्व के क्षण को या घटना को पहिचाना जा सकता है, देखा जा सकता है और समझा जा सकता है| साठ ही आने वाले हजार वर्षों के कालखण्ड को जाना जा सकता है कि भविष्य में कहां क्या घटना घटित होगी और किस प्रकार से घटित होगी इसके बारे में प्रामाणिक ज्ञान एक ही क्षण में हो जाता है| यही नहीं अपितु इस साधना के माध्यम से भविष्य में होने वाली घटना को ठीक उसी प्रकार से देखा जा सकता है, जिस प्रकार से व्यक्ति टेलेवीजन पर कोई फिल्म देख रहा हों|
७. संजीवनी विद्या, जो शुक्राचार्य या कुछ ऋषियों को ही ज्ञात थी जिसके माध्यम से मृत व्यक्ति को भी जीवन दान दिया जा सकता है|
८. इच्छा मृत्यु साधना- जिसके माध्यम से काल पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है और साधक चाहे तो सैकड़ो-हजारों वर्षों तक जीवित रह सकता है|
९. काया कल्प साधना - जिसके माध्यम से व्यक्ति के शरीर में पूर्ण परिवर्तन लाया जा सकता है और ऐसा परिवर्तन होने पर वृद्ध व्यक्ति का भी काया कल्प होकर वह स्वस्थ सुन्दर युवक बन सकता है, रोग रही ऐसा व्यक्तित्व कई वर्षों तक स्वस्थ रहकर अपने कार्यों में सफलता पा सकता है|
१०. लोक गमन सिद्धि-जिसके माध्यम से पृथ्वी लोक में ही नहीं अपितु अन्य लोकों में भी उसी प्रकार से विचरण कर सकता है जिस प्रकार से हम कार के द्वारा एक स्थान से दुसरे स्थान या एक नगर से दुसरे नगर जाते हें| इस साधना के माध्यम से भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, चंद्रलोक, सूर्यलोक और वायु लोक में भी जाकर वहां के निवासियों से मिल सकता, वहां की श्रेष्ठ विद्याओं को प्राप्त कर सकता है और जब भी चाहे एक लोक से दुसरे लोक तक जा सकता है|
११. शुन्य साधना - जिसके माध्यम से प्रकृति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है| खाद्य पदार्थ, भौतिक वस्तुएं और सम्पन्नता अर्जित की जा सकती है|
१२. सूर्य विज्ञान- जिसके माध्यम से एक पदार्थ को दुसरे पदार्थ में रूपांतरित किया जा सकता है|
अपने तापोबल से पूज्य निखिलेश्वरानन्द जी ने इन सिद्धियों को उन विशिष्ट ऋषियों और योगियों से प्राप्त किया जो कि इसके सिद्ध हस्त आचार्य थे| मुझे भली भांति स्मरण है कि परकाया प्रवेश साधना, इन्होनें सीधे विश्वामित्र से प्राप्त की थी| साधना के बल पर उन्होनें महर्षि विश्वामित्र को अपने सामने साकार किया और उनसे ही परकाया प्रवेश की उन विशिष्ट साधनाओं सिद्धियों को सीखा जो कि अपने आप में अन्यतम है| शंकराचार्य के समय तक तो परकाया प्रवेश की एक ही विधि प्रचिलित थी जिसका उपयोग भगवदपाद शंकराचार्य ने किया था परन्तु योगिराज निखिलेश्वरानन्द जी ने विश्वामित्र से उन छः विधियों को प्राप्त किया जो कि परकाया प्रवेश से सम्बंधित है| परकाया प्रवेश केवल एक ही विधि से संभव नहीं है अपितु कई विधियों से परकाया प्रवेश हो सकता है|
यह निखिलेश्वरानन्द जी ने सैकड़ो योगियों के सामने सिद्ध करके दिखा दिया| परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी इन बारहों सिद्धियों के सिद्धहस्त आचार्य है| कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे यह अलौकिक और दुर्लभ सिद्धियां नहीं उनके हाथ में खिलौने हें, जब भी चाहे वे प्रयोग और उपयोग कर लेते हें| इन समस्त विधियों कों उन्होनें उन महर्षियों से प्राप्त किया है जो इस क्षेत्र के सिद्धहस्त आचार्य और योगी रहे हें|उन्होनें हिमालय स्थित योगियों, संन्यासियों और सिद्धों के सम्मलेन में दो टूक शब्दों में कहा था कि तुम्हें इन कंदराओं में निवास नहीं करना हें और जंगल में नहीं भटकना हें, इसकी अपेक्षा समाज के बीच जाकर तुम्हें रहना है| उनके दुःख दर्द कों बांटना है, समझना है और दूर करना है|
मैंने कई बार अनुभव किया है, कि उनके दरवाजे से कोई खाली हाथ नहीं लौटा| जिस शिष्य, साधक, योगी या संन्यासी ने जो भी चाहा है उनके यहां से प्राप्त हुआ| गोपनीय से गोपनीय साधनाएं देने भी वे हिचकिचाये नहीं| साधना के मूल रहस्य स्पष्ट करते, अपने अनुभवों कों सुनाते, उन्हें धैर्य बंधाते, पीठ पर हाथ फेरते और उनमें जोश तथा आत्मविश्वास भर देते, कि वह सब कुछ कर सकता है और यही गुण उनकी महानता का परिचय है| सूर्य सिद्धांत के आचार्य पतंजलि ने अपने सूत्रों में बताया है, कि सूर्य की किरणों में विभिन्न रंगों की रश्मियों हें और इनका समन्वित रूप ही श्वेत है| इन्हीं रश्मियों के विशेष संयोजन से योगी किसी भी पदार्थ कों सहज ही शुन्य में से निर्मित कर सकता है, या एक पदार्थ कों दुसरे पदार्थ में परिवर्तित कर सकता है| मैंने स्वयं ही गुरुदेव कों अपने संन्यास जीवन में चौबीस वर्तुल वाले एक स्फटिक लेंस से प्रकाश रश्मियों कों परिवर्तित करते देखा है| और पुनः उस स्फटिक वर्तुल हीरक खण्ड कों शुन्य में वापस कर देते हुए देखा है, क्योंकि ये उन्हीं का कथन है, कि योगी अपने पास कुछ भी नहीं रखता| जब जरूरत होती है, तब प्रकृति से प्राप्त कर लेता है और कार्य समाप्त होने पर वह वस्तु प्रकृति कों ही लौट देता है|शिष्य ज्ञान मैंने स्वयं ही उन्हें अनेक अवसरों पर अपने पूर्व जन्म के शिष्य-शिष्याओं कों खोजकर पुनः साधनात्मक पथ पर सुदृढ़ करते हुए देखा है| एक बार नैनीताल के किसी पहाड़ी गाँव के निकट हम कुछ शिष्य जा रहे थे|
गुरुदेव हम सभी कों लेकर गाँव के एक ब्राह्मण के छोटे से घर में पहुंचे और ब्राह्मण से बोले - 'क्या आठ साल पहले तुम्हारे घर में किसी कन्या ने जन्म लिया था? ब्राह्मण ने आश्चर्यचकित होकर अपनी पुत्री सत्संगा को बुलाया, जिसे देखकर हम सभी चौंक गए| उसका चेहरा थी मां अनुरक्ता की तरह था| यद्यपि मां के चहरे पर झुर्रियां पड़ गई थी और यह अभी बालिका थी, परन्तु चेहरे में बहुत कुछ साम्य साफ-साफ दिखाई दे रहा था| सत्संगा ने गुरुदेव के सामने आते ही दोनों हाथ जोड़ लिए और ठीक मां की तरह चरणों में झुक गई|गुरुदेव ने बताया कि किस तरह उनकी शिष्या मां अनुरक्ता ने अपने मृत्यु के क्षणों में उनसे वचन लिया था, कि अगले जन्म में बाल्यावस्था होते ही गुरुदेव उसे ढूंढ निकालेंगे और साधनात्मक पथ पर अग्रसर कर देंगे| यह कन्या सत्संगा वही मां अनुरक्ता हें| गुरुदेव ने उसे दीक्षा प्रदान की, अपने गले की माला उतार कर उसे दी और गुरु मंत्र दे कर वहां से पुनः रवाना हो गए| अपने प्रत्येक शिष्य-शिष्याओं का उन्हें प्रतिपल जन्म से लेकर मृत्यु तक ध्यान रहता हें और उनका प्रत्येक क्षण ही शिष्य के कल्याण के चिन्तन में ही बीतता हें| धन्य हें वे जिनको कि उनका शिष्यत्व प्राप्त हुआ है|तंत्र मार्ग का सिद्ध पुरुष सही अर्थों में देखा जाय तो तंत्र भारतवर्ष का आधार रहा है| तंत्र का तात्पर्य व्यवस्थित तरीके से कार्य संपन्न होना|
प्रारम्भ में तो तंत्र भारतवर्ष की सर्वोच्च पूंजी बनी रही बाद में धेरे-धीरे कुछ स्वार्थी और अनैतिक तत्व इसमें आ गए, जिन्हें न तो तंत्र का ज्ञान था और न इसके बारे में कुछ विशेष जानते ही थे| देह सुख और भोग को ही उन्होनें तंत्र मां लिया था| तंत्र तो भगवान् शिव का आधार है| उन्हें द्वारा तंत्र का प्रस्फुटन हुआ| जो कार्य मन्त्रों के माध्यम से संपादित नहीं हो सकता, तंत्र के द्वारा उस कार्य को निश्चित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है|
मंत्र का तात्पर्य है प्रकृति की उस विशेष सत्ता को अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्न करना और अनुकूल बनाकर कार्य संपादित करना| पर तंत्र के क्षेत्र में यह स्थिति सर्वथा विपरीत है| यदि सीधे-सीधे तरीके से प्रकृति वशवर्ती नहीं होती, तो बलपूर्वक उसे वश में किया जाता है और इसी क्रिया को तंत्र कहते हैं| तंत्र तलवार की धार की तरह है| यदि इसका सही प्रकार से प्रयोग किया जाय, तो प्रांत अचूक सिद्धाप्रद है पर इसके विपरीत यदि थोड़ी भी असावधानी और गफलत कर दी जाय तो तंत्र प्रयोग स्वयं करता को ही समाप्त कर देता है| ऐसी कठिन चुनौती को निखिलेश्वरानन्द ने स्वीकार किया और तंत्र के क्षेत्र में उन स्थितियों को स्पष्ट किया जो कि अपने-आप में अब तक गोपनीय रही है|उन्होनें दुर्गम और कठिन साधनाओं को तंत्र के माध्यम से सिद्ध करके दिखा दिया कि यह मार्ग अपेक्षाकृत सुगम और सरल है|
स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी तंत्र के क्षेत्र की सभी कसौटिया में खरे उतारे तथा उनमें अद्वितीयता प्राप्त की| त्रिजटा अघोरी तंत्र का एक परिचित नाम है| पर गुरुदेव का शिष्यत्व पाकर उसने यह स्वाकार किया कि यदि सही अर्थों में कहा जाय तो स्वामी निखिलेश्वरानन्द तंत्र के क्षेत्र में अंतिम नाम है| न तो उनका मुकाबला किया जा सकता है और न ही इस क्षेत्र में उन्हें परास्त किया जा सकता है| एक प्रकार से देखा जाय तो सही अर्थों में वह शिव स्वरुप हैं, जिनका प्रत्येक शब्द अपनी अर्थवत्ता लिए हुई है, जिन्होनें तंत्र के माध्यम से उन गुप्त रहस्यों को उजागर किया है जो अभी तक गोपनीय रहे है|
---योगी विश्वेश्रवानंद

Saturday, November 17, 2012

You can uplift of India - Part 4 भारत का उत्थान तुम कर सकते हो





भारत का उत्थान तुम कर सकते हो- भाग ७

और शिष्य बस राम नाम सत्य है आगे गया गत है। अब यहां तो गति हुई नहीं आगे होगी या नहीं यह आपने देखा नहीं। मैं कह रहा हूं गति कुछ होती नहीं है, गति हम उसकी करेंगे जो हमारे घर मे गड़बड़ करेंगे, जो हमारे घर में हिंसा लाएगा कमजोरी लाएगा। कारखाने में कोई गोली बननी ही नहीं चाहिए जो आपको लग जाए। जब बनेगी ही नहीं तो लगेगी कहां से वो।

मैं आपको ऐसा क्षमतावान बनाना चाहता हूं, जो पांच हजार वर्षों मे समाप्त हो गया उस ज्ञान को आपको देना चाहता हूं, उस कृत्या को आपको प्रदान कर देना चाहता हूं आप तेजस्विता युक्त बनें। सुर्य तो बहुत कम चमक वाला है आप उससे हजार गुना चमक वाले बनें, ऐसा ज्ञान मैं आपको प्रदान करना चाहता हूं।

मैंने आपको समझाया कि हम कमजोर और अशक्त क्यों है, मानसिक रुप से परेशान और रूग्ण क्यों है, और ऐसी कौन सी विद्या, कौन सी ताक़त है जिसके माध्यम से जो हमारे विकार हैं वे समाप्त हो सकें। हमारे मन कुल ३२ संचारी भाव होते हैं सोलह अनुकूल, सोलह प्रतिकूल। घृणा, कोध, प्रतिशोध, दुर्भावना, लोभ मोह, अंहकार ये सब संचारी भाव है। और कुछ अच्छे संचारी भाव भी होते है जैसे प्रेम, स्नेह, परोपकार।

जीवन का सार बलशाली होना है, जब तक आदमी निर्बल रहेगा तब तक आदमी सफ़ल नहीं हो सकता। और बलशाली होने के लियी उसे सोलह जो प्रतिकूल संचारी भाव है उन्हें समाप्त करना होगा। प्रकृति भी निर्बल को सताती हैं। दिया निर्बल होता है, थोड़ी सी हवा चलती है और उसे बुझा देती है। और वही दिया अगर आग बन जाये तो हवा उसे बढ़ा देती है, हवा भी सहायक बन जाती है। ताकतवान का साथ देती है हवा निर्बल कि नहीं बनाती। दोनों ही आग है और हवा एक ही है मगर जो ताकतवान है जो क्षमतावान है उसकी वह सहायक बनती है।

आप ताकतवान है तो आप पूर्ण सफलतायुक्त होते ही है और वह ताकतवान होना मन से संबधित है, विचारों से संबंधित है। और कृत्या का अर्थ यही है कि आप ताकतवान, और क्षमतावान बने। मगर मंत्र जप आप करते रहे, एक महिना, दो महिने छः महीन पांच साल दस साल - ऐसी विद्या मैं आपको नहीं देना चाहता। मंत्र तो दूंगा ही मगर इतना लंबा मंत्र नहीं कि पांच साल जप करो तब सफ़लता मिले। ऐसा नहीं। पहली बार में ही सफ़लता मिलनी चाहिऐ, पूर्ण सफ़लता मिलनी चाहिऐ।

जो भी मंत्र आपको दूंगा वह महत्वपूर्ण दूंगा, मैं ऐसा नहीं कहूंगा कि आप एक साल मंत्र जप करें, पांच दिन करे मगर पुरी धारणा शक्ति के साथ करें गुरू को ह्रदय मे धारण करके करे। यह सोचिए कि गुरू के अलावा मेरे जीवन मे कुछ है ही नहीं। मैं यह नहीं कह रहा कि मैं आपका गुरू हूं तो आप मेरी प्रशंसा करी, आपके जो भी गुरू हों गुरू है तो है ही उनके बिना फिर सांस लेने कि भी क्षमता नहीं होनी चाहिए। और एक बार गुरू को धारण किया तो कर लिया, जो उसने कहा वह किया। फिर अपनी बुद्धि, अपनी होशियारी, अपनी अक्ल आप लडाएंगे तो आप ही गुरू बन जाएंगे, फिर कोई और गुरू बनाने कि जरूरत ही नहीं क्योंकि फिर आप ही गुरू है क्योंकि आप मुझसे ज्यादा गाली बोल सकते है, मुझसे ज्यादा झूठ बोल सकते है और मुझसे ज्यादा लडाई कर सकते है तो मुझसे योग्य हैं ही आप। मैं आपको जितना क्रोध कर नहीं सकता आपके जितना लडाई झगडा कर नहीं सकता। जीतनी शानदार २००० गलियां आप दे सकते है मैं दे ही नहीं सकता।

मगर साधनाओं मे आपसे ज्यादा क्षमता है, आपसे ज्यादा पौरुष है, आपसे ज्यादा साहस आपसे ज्यादा धारण शक्ति हैं। कृत्या का तात्पर्य यह भी है कि हममे साहस हो, पौरुष हो, धारणा शक्ति ह। कृत्या अपने आपमें एक प्रचंड शक्ति है जो भगवान शिव के द्वारा निर्मित हुई, जिसके कोई तूफान का अंत नहीं था। जब हूंकार करती थी तो दसों दिशाएं अपने आपमें कांपती थीं और उससे जो पैदा हुए उस कृत्या से वे वैताल जैसे पैदा हुए, धूर्जटा जैसे पैदा हुए, विकटा जैसे, अघोरा जैसे पैदा हुए। जो ग्यारह गण कहलाते हैं भगवान के वे कृत्या से पैदा हुए।

आपके जीवन में क्षमता साहस, जवानी पौरुष कृत्या साधना के माध्यम से ही आ सकती है। कृपणता, दुर्बलता, निराशा आपके जीवन में नहीं है, आप अपने ऊपर जबरदस्ती लाद लेते हैं हर बार लाद लेते है कि अब मैं कुछ नहीं कर सकता, मेरे जीवन में कुछ है ही नहीं।

और धीरे-धीरे आप, नष्ट होते जा रहे हैं। देश में जो चल रहा है, जो हो रहा है उसके लिए विज्ञान कर क्या रहा है हमारी उपयोगिता फिर क्या है हम फिर क्यों पैदा हुए हैं? ज्ञान क्या चीज है? पहले ज्ञान सही था तो अब ज्ञान सही क्यों नहीं हो रहा हां? मैं यह सिद्ध करना चाहता हूं।

मैं बताना चाहता हूं कि आयुर्वेद मे वह क्षमता है कि प्रत्येक रोग का निवारण कर सके। पहले किसी पौधी के पास खडे होते थे तो पौधा खुद खडा हो जाता था कि यह मेरा नाम है, यह मेरा गुण है, यह मेरा उपयोग है और मनुष्य जीवन के लिए मैं इस प्रकार उपयोगी हूं। पेड पौधे पहले इतना बोलते थे तो आज भी बोलते होंगे जरूर। उस समय वनस्पति खुद बोलती थी। आज भी बोलती है मगर हममे क्षमता नहीं कि हम समझ पाएं।

आपमें क्षमता हो, साहस हो पौरुष हो ऐसा मैं आपको बनाना चाहता हूं। आप बोले और सामने वाला थर्रा नही जाए तो फिर आप हुए ही क्या।

मैंने यह समझाया कि कृत्या क्या है और हमारे जीवन में क्यों आवश्यक है। कृत्या कोई लडाई झगडा नहीं है, कृत्या मतभेद नहीं है। कृत्या आपको प्रचंड पौरुष देने वाली एक जगदम्बा देवी है। कृत्या किसी को नष्ट कराने के लिए नहीं परंतु आपके पौरुष को ललकारने वाली जरूर है, हिम्मत, और हौंसला देने वाली जरूर है, वृद्धावस्था को मिटाने वाली जरूर है।

भारत का उत्थान तुम कर सकते हो- भाग ८

परंतु आवश्यकता है कि पूर्ण क्षमता के साथ इस कृत्या को धारण किया जाए और पूर्ण पौरुष के साथ, जवानी के साथ बैठकर इसे सिद्ध किया जा सकता है, मरे हुए मुर्दों कि तरह बैठकर नहीं प्राप्त किया जा सकता। और अगर मेरे शिष्य मरे हुए बैठेंगे तो मेरा सब कुछ देना ही व्यर्थ है। मैं स्वयं अभी पच्चीस साल बूढा नहीं होना चाहता और यदि आपमें से कोई बूढा नहीं होना चाहता और अगर यदि आपमें से कोई मुझे बूढा कहता है तो उठकर मुझसे पंजा लडा ले, मालूम पड जाएगा। आपकी हड़्डी नहीं उतार कर दी तो कह देना। कराटे में किस प्रकार हड्डी को तोडा जाता है मुझे मालूम है। मेरे पास हथियार भी नहीं होगा तो भी मैं कर दूंगा। यह कोई बड़ी चीज नहीं है और न ही वृद्धावस्था जैसी कोई चीज है। वृद्धावस्था तो आएगी मगर जब आएगी तो देखा जाएगा। पूछ लेंगे मेरे पास आने कि क्या जरूरत थी, बहुत बैठे है शिष्य उनके पास चली जाओ। मेरे पास हलवा पुरी मिलेगी नहीं तुम्हे।

बुढ़ापे जैसी कोई अवस्था होती नहीं है, यह केवल एक मन का विचार है कि हम बूढ़े हो गए हैं और आप जीवन भर पौरुषवान और यौवनवान हो सकते हैं कृत्या सिद्धि के द्वारा। मगर सिद्धि तब प्राप्त होगी जब गुरू जो ज्ञान दे उसे आप क्षमता के साथ धारण करे। शुकदेव ने तो केवल एक बार सूना और उसे सिद्धि सफ़लता मिल गई।

जब पार्वती ने यह हठ कर ली कि भगवान् शिव उन्हें बताएं कि आदमी जिंदा कैसे रह सकता है वह मरे ही नहीं, क्या विद्या है जिसे संजीवनी विद्या कहते है तो महादेव बताना नहीं चाहते थे, वह गोपनीय रहस्य था। मगर पार्वती ने हठ किया तो उन्हें कहना पडा।

अमरनाथ के स्थान पर शिव ने बताना शुरू किया। भगवान शिव ने डमरू बजाया तो जितने वहां पशु पक्षी कीट पतंग थे वे सब भाग गाए। लेकिन एक तोते ने अंडा दिया था वह रह गया। बाक़ी बारह कोस तक कोई कीट पतंग भी नहीं रहा। वह अंडा फूट गया और बच्चा बाहर आ गया। भगवान शिव पार्वती को कथा सुनाते जा रहे थे और वह बच्चा सुनता जा रहा था। पार्वती को नींद आ गई और वह बच्चा हुंकार भरता रहा। कथा समाप्त हुई तो भगवान शिव ने देखा कि पार्वती तो सो गई। उन्होने सोचा कि फिर यह हुंकार कौन भर रहा था उन्होने पार्वती को उठाया और पुछा तुमने कहां तक सूना?

पार्वती ने कहा मैंने वहां तक सूना और मुझे फिर नींद आ गई।
तो भगवान् शिव ने कहा यह हुंकार कौन भर रहा था फिर। पार्वती ने कहा मुझे तो मालूम नहीं।

उन्होने देखा तो एक तोते का बच्चा बैठा था। महादेव ने अपना त्रिशूल फेंका। तो उस बच्चे ने कहा- आप मुझे मार नहीं सकते मैंने अमर विद्या सीख ली है आपसे। जो आपने कहा वह मैं समझ गया। मुझे कोई मंत्र उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं।

तो वह बच्चा उडा और वेद व्यास कि पत्नी अर्ध्य दे रही थी भगवान् सुर्य को, और उसके मूंह के माध्यम से वह अन्दर उतर गया और १२ साल तक अन्दर रहा। पहले माताएं २१ महिने पर संतान पैदा करती थी। २१ महीन उनके गर्भ में बालक रहता था। फिर ११ महिने तक रहने लगा। फिर बच्चा दस महिने रहने लगा। सत्यनारायण कि कथा में आता है कि दस महीने के बाद मे पुलस्त्य कि पत्नी ने सुंदर कन्या को जन्म दिया। फिर नौ महिने बाद जन्म होने लगा और अब आठ महिने बाद जन्म होने लग गए। तो ये सब अपरिपक्व मस्तिष्क वाले बालक पैदा हो रहे है। जो धारणा शक्ति थी महिलाओं को वह ख़त्म हो गई।

और १२ साल बाद इसने कहा कि तुम्हे तकलीफ हो रही है तो मैं निकल जाऊंगा, महादेव मेरा कुछ नहीं कर सकते। और महादेव बैठे थे दरवाजे के ऊपर कि निकलेगा तो मार दूंगा।

व्यास कि पत्नी ने कहा - मुझे पता ही नहीं लगा कि तुम अंदर हो। तुम तो हवा कि तरह हलके हो। तुम्हारी इच्छा हो तो बैठे रहो, नही इच्छा हो तो निकल जाओ।

वह शुकदेव ऋषि बने। शुक याने तोता। यह बात बताने का अर्थ है कि जो मैं बोलूं उसे धारण करने कि शक्ति होनी चाहिए आपमें। जैसे शुकदेव ने सुना शिव को और एक ही बार मे सारा ज्ञान आत्मसात कर लिया। अगर धारण कर लेंगे, समझ लेंगे तो जीवन मे बहुत थोडा सा मंत्र जप करना पडेगा। धारण करेंगे ही नहीं, मानस अलग होगा तो नहीं हो पाएगा।

जो कहूं वह करना ही है आपको। शास्त्रों ने कहा है- जैसे गुरू करे ऐसा आप मत करिए, जो गुरू कहे वह करिए। अब गुरू वहां जाकर चाय पीने लगे तो हम भी चाय पींगे, जो गुरू जी करेंगे हम भी करेंगे अब गुरुजी मंच पर बैठे है तो हम भी बैठेंगे। नहीं ऐसा नहीं करना है आपको। जो गुरू कहे वह करिए। आपको यह करना है तो करना है।

आप गुरू के बताए मार्ग चलेंगे, गतिशील होंगे, तो अवश्य आपको सफ़लता मिलेगी, गारंटी के साथ मिलेगी। और साधना आप पूर्ण धारण शक्ति के साथ करेंगे तो अवश्य ही पौरुषवान, हिम्मतवान, क्षमतावान बन सकते है। आप अपने जीवन मे उच्च से उच्च साधनाएं, मंत्र और तंत्र का ज्ञान गुरू से प्राप्त कर सके और प्राप्त ही नहीं करें, उसे धारण कर सकें, आत्मसात कर सके ऐसा मैं आपको ह्रदय से आर्शीवाद देता हूं, कल्यान कामना करता हूं।


- सदगुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द

You can uplift of India - Part 3 भारत का उत्थान तुम कर सकते हो

भारत का उत्थान तुम कर सकते हो- भाग ५

इस समय ज्ञान के माध्यम से, चेतना के माध्यम से फिर कोई व्यक्ति पैदा हो जो आपको वह ज्ञान दे, फिर आपको वह चेतना दे जिसके माध्यम से बम विस्फोट बंद हो सके। यह लड़ाई बंद हो सके, यह सब कुछ बंद हो सके। आप इतने लोग हैं पुरे संसार मे इस विध्वंस को इस विनाश को समाप्त कर सकते हैं। इतनी क्षमता आपमें है। इसलिए मैं कह रहा हूं कि आप कायर नहीं है, आपने अपने आप को कायर मान लिया है। आप ने आपको बुजदिल मान लिया है, आपने आपको बूढा मान लिया है। आपने अपने को न्यून मान लिया है।

जो पुरुष कर सकता है वह स्त्री भी कर सकती है, तुमने भेद कर दिया। यह भेद मुग़लों के समय में आया स्त्री बिलकुल अलग, पुरुष बिलकुल अलग। स्त्री बाहर नहीं निकले, घर से बाहर निकलते ही गड़बड़। पुरुष घर के बाहर काम करे और औरत घूंगट निकाल कर अंदर बैठी रहे। क्योंकि ज्योंही चेहरा सुन्दर होता नहीं। मुसलमान उठाकर ले जाते थे। हिन्दुओं कि लड़कियों को। मुसलमानों ने बुरका प्रथा निकाली। उन्होने घूंगट प्रथा निकली बेचारों ने। यह मुग़लों का समय था, ६०० साल पहले यह घटना घटी।

अब कब तक वे घूंघट निकाले बैठी रहेंगी, कब तक वे ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाएंगी, कब तक वे घर मे चूल्हे चौके में ही फंसी रहेगी। जो पुरुष में क्षमता है वह स्त्री में भी क्षमता है। तुम्हारी नजर में भेद है, मगर साधना के क्षेत्र मे पुरुष-स्त्री समान है, बराबर है। कोई अंतर है ही नहीं, वेद मंत्र तो वशिष्ठ कि पत्नी ने भी सीखे, ब्रह्म ज्ञान सीखा, चेतना प्राप्त कि। कात्यायनी ने सीखा, मैत्रयी ने सीखा, कम से कम सैंकड़ों ऐसी विदुषियां बनीं। वे पत्नियां थीं और स्त्रियां होते हुए भी उन्होंने उच्च कोटी का ज्ञान प्राप्त किया।

क्या वे औरतें नहीं थीं, क्या उनके पुत्र पैदा नही हुए थे।

मगर वे ताकतवान थीं, क्षमतावान थीं। और पुरुष भी क्षमतावान थे। जो क्षमतावान थे वे जिंदा रहे। देवता तो ३३ करोड़ थे वहां। फिर हमे केवल २० नाम क्यों याद हैं? ऋषियों के अट्ठारह नाम ही क्यों याद है, बाकी ऋषि कहां चले गए? और उस समय ऋषि पैदा हुए तो अब ऋषि क्यों नहीं पैदा हो रहे? संतान तो पैदा, उन्होंने भी कि हमने भी कि। दो हाथ पांव उनके थे तो हमारे भी हैं। फिर हम ऋषि क्यों नहीं पैदा कर पाए। मैं आपको ताकतवान क्यों नहीं बना पाया?

गाजियाबाद में बम विस्फोट हुआ, आपने अखबार पढा और रख दिया। मन में कुछ हलचल भी नहीं हुई, तूफान भी पैदा नहीं हुआ। कितने लोग मर गए होंगे अकारण, मगर आपके अंदर कोई आग पैदा नहीं हुई, जलन नहीं पैदा हुई क्योंकि आपने अपने आप को कायर बुजदिल समझ लिया, आपने कहा -हम क्या करें, हमारी थोडे ही डयूटी है।

कृष्ण ने गीता में यही कहा था- यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारत अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मान स्रुजाम्याम।

जब जब भी धर्म कि हानि होगी, अधर्म का अर्थ है जहां जहां भी व्यक्ति अपने धर्म को भूल जाएगा, जब भारत कि हानि होने लगेगी जब भारत के टुकडे होने कि स्थिति हो जायेगी, आर्यावर्त के टुकडे होने कि स्थिति हो जायेगी, तब तक एक व्यक्ति पैदा होगा जो अपने शिष्यों को ज्ञान और चेतना देगा। उनको एहेसास कराएगा कि तुम कायर नहीं हो, बूढ़े नहीं हो, तुममे ताक़त है, क्षमता है मगर वह ज्ञान नहीं है। कृत्या जब दक्ष को विध्वंस कर सकती है, लाखों ऋषियों को उंचा उठाकर धकेल सकती है, वीर वेताल जैसे व्यक्ति को पैदा कर सकती है, जो पुरे पहाड़ के पहाड़ उठाकर दूसरी जगह रख सकती है, जिस कृत्या के माध्यम से रावण पुरी लंका को सोने कि बना सकता है। आप तो पांच रुपये चांदी के इकट्ठे नहीं कर सकते। आपके पास कागज के टुकडे तो है, एलम्यूनियम के सिक्के तो है पर चांदी के सिक्के पच्चीस, पचास या सौ मुश्किल से होंगे। क्या क्षमता, क्या ताक़त है आपमें?
जब वह सोने कि लंका बना सका तो हम क्यों नहीं कर पा रहे हममे न्यूनता क्या है?

न्यूनता यह है आपमें अकर्मण्यता आ गयी है आपमें भावना आ गयी है कि हम कुछ नहीं कर सकते। यह हमारी डयूटी हमारा काम है ही नहीं और कृष्ण कह रहे हैं जब जब भी धर्म कि हानि होने लग जाए तो यह हमारी डयूटी है कि हम ताक़त के साथ खडे हो सके और खडे हो कर बता सके कि तुम्हारा विज्ञान फेल हो रहा है और हम ज्ञान मे माध्यम से शांति पैदा कर रहे हैं। यह हमारा धर्म है, हमारा कर्तव्य है।

ऐसा अधर्म बना तो कृष्ण पैदा हुए, ऐसा अधर्म बना तब बुद्ध पैदा हुए, ऐसा अत्याचार बढ़ा तब सुकरात पैदा हुआ, इसा मसीह पैदा हुआ। सब देशों मे पैदा हुए कोई भारत वर्ष में ही पैदा नहीं हुए, सभी देशों मे महान पुरुष पैदा हुए जिन्होंने अपने शिष्यों को ज्ञान कि चेतना दी।

बगलामुखी तो क बहुत छोटी चीज है, धुमावती तो बहुत छोटी चीज है। दस महाविद्या तो अपने आपमें कुछ हैं ही नहीं कृत्या के सामने। कृत्या तो यह बैठे-बैठे एकदम से शत्रुओं को नष्ट कर दे, समाप्त कर दे। शत्रु में ताक़त ही नहीं रहे, हिम्मत ही नहीं रहे। पंगु बना दे। वह आज के युग कि जरूरत है।

आज के युग मे नोट की भी जरूरत है बेटों की भी जरूरत है, रोटी की भी जरूरत है, पानी की भी जरूरत है, मगर इससे पहले जरूरी है कि शत्रु समाप्त हों। जो बेचारे कुछ कर नहीं रहे वे मर रहे हैं, कहीँ सदर बाजार में उन बेचारे दुकानदारों ने कुछ किया नहीं उनकी दुकानें उडा दी गई। आप कल्पना करिये उनके परिवार वालों कि क्या हालत हुई होगी। कोई दुःख दर्द हुआ, आंखों में आंसू आए हमारे? हमारे नहीं आएंगे तो किसके आएंगे?

हमारे अंदर दर्द पैदा होना चाहिए और इस सबको मिटाना होगा। विज्ञान इसको नहीं मिटा सकता, बंदूक की गोलियों को विज्ञान नहीं मिटा सकता देख लिया हमने। और प्रत्येक के पास यह ताक़त होनी चाहिऐ, एक-एक शिष्य के पास वह ताक़त होनी चाहिऐ। दो चार शिष्य तैयार होंगे उससे नहीं हों पायेगा। एक-एक व्यक्ति, एक-एक पुरुष, एक-एक स्त्री को यह ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है। वह उस साधना को सिद्ध करे की जिसके माध्यम से वह कृत्या पैदा सके। भगवान अगर विक्रमादित्य पैदा कर सकता है फिर हम भी कर सकते हैं।

सांप जैसा एक मामूली जीव अगर कायाकल्प कर सकता है, पुरी केचुली उतारकर वापस क्षमतावान बन सकता है तो आप ऐसा क्यों नहीं कर पाते? सांप पुरे दो सौ साल जिंदा रह सकता है। पच्चीस पचास साल मे मरता नहीं। आदमी मरता है सांप नहीं मरता। जब भी बुढ़ापा आता है ऐसा दिखता है की कमजोरी आ गई तो वह केचुली को उतार कर फ़ेंक देता है। वह ज्ञान एक था जो सिर्फ उसके पास रह गया।

पहले नाग योनि थी। जैसे वानर योनि थी गंधर्व योनि थी वैसे नाग भी एक योनि थी। बाद में हमने मान लिया कि सांप ही नाग योनि है। नाग तो अपने आपमें एक जाती थी जिनके पास यह विद्या थी। वह कायाकल्प की विधि जब भी आप कहेंगे कि मैं वृद्ध हों गया हूं तो मैं आपको सीखा दूंगा। मैं तो आपको वृद्ध होने ही नही देना चाहता हूं। सफेद बालों वाला वृद्ध नहीं होता, वृद्धता तो मन कि अवस्था है। अगर सफेदी से ही बुढ़ापा आता हिमालय आपसे पहले बुढा है। उस पर सफेद ही सफेद लगा हुआ है। फिर तो वह बूढा ही बूढा बैठा है वह है ही नहीं ताकतवान। आपके सिर पर सफेदी है तो उस पर तो ज्यादा सफेदी है। मगर नहीं वह ताकत के साथ खङा हुआ है, अडिग खडा हुआ है।

भारत का उत्थान तुम कर सकते हो- भाग ६

आप वृद्ध नहीं है आप जवानों से ज्यादा ताकतवान हैं क्षमतावान है। आपमें हौसला और हिम्मत है और वह चीज वापस कृत्या के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। कृत्या को भगवान शिव ने प्रकट किया, पैदा किया और उस क्षमता के माध्यम से जितना अधर्म, जितनी दुर्नीति थी, जितना घटियापन था वह समाप्त किया, विध्वंस कर दिया और वेद मंत्र उच्चारण कर रहे थे और एक औरत जल रही थी और वे स्वाहा बोल रहे थे यह क्या चीज थी?और ऐसे समय क्रोध नहीं आए क्षमता नहीं आए, व्यक्ति जूझे नहीं तो हम मर्द क्या बने। फिर तो हम एक बहुत घटिया श्रेणी के मनुष्य हुए। और अगर गुरू शिष्य को क्षमतावान नहीं बना सके तो फिर गुरू को यहां बैठने का अधिकार नहीं है, बेकार है सब।

मैंने आपको बताया कि आज के युग के लिए क्या कोई घिसापिटा प्रवचन नहीं दिया आपको। मैं बता सकता था कि बगलामुखी क्या होती है, धूमावती क्या होती है, जगदम्बा क्या होती है। मैंने कृत्या के बारे मे बताया जिसके दस हाथों मे दस चीजें हैं और दस मे एक भी फूल नहीं है। उसके तो हाथों मे कहीँ खडग है, कहीँ चक्र है, कहीँ कृपाण है, कहीँ त्रिशूल है। अपने आपमें वह अकेली औरत ने कर दिया, इसलिये आज भी उसे पूजा जाता है। आपको भी पूजा जाएगा, यदि आपमें वह साधना होगी तो पूजा जायेगा। नहीं तो आप भी मर कर समाप्त हो जायेंगे कोई पूछेगा नहीं आपको, याद भी नहीं करेगा आपको।

इसलिये आपमें वह क्षमता आणि चाहिऐ। इनके दस हाथ हैं इसका मतलब कि, दस चीजें चलाने कि क्षमता है। अगर आप सोचते हैं कि रावण के बीस हाथ और दस सिर थे यह कपोल कल्पना है। रावण के न कोई दस सिर थे न बीस भुजाएं थी। यह एक कल्पना है, इसका अर्थ यह है कि उसके पास जितनी बीस भुजाओं मे ताक़त होती है उतनी ताक़त थी, दस सिरों मे जीतनी बुद्धि होनी चाहिए उतनी बुद्धि थे। उतनी साधनाएं थीं। उसके पास उतना ज्ञान था उसके पास चांदी के सौ पचास सिक्के नहीं पुरे शहर के शहर को सोने का बना दिया और उस समय किया जब दशरथ जैसा राजा भी कुछ कर नहीं पा रहा था। वही लडाई, वही झगड़े वही बेटों को बाहर निकाल देना वही मर जाना। और बेटा अपने पिता का अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाया। वही एक स्त्री सीता को उठा कर ले जाना। चीजें तो वहीँ कि वहीँ थीं, मगर एक विद्या उनके पास थी।

और कृत्या प्रयोग, कृत्या साधना को आज तक किसी ने छुआ तक नहीं, इसलिये कि उनके पास ज्ञान नहीं था। अगर ज्ञान ही नहीं होगा तो कोई सीखेगा कहां से, कोई बताएगा कहां से? अगर मुझे उर्दू नहीं आती तो मैं उर्दू बोलूंगा कहां से। मुझे मराठी नहीं आती तो मराठी बोलूंगा कहां से।

अगर मुझे ज्ञान है कि कृत्या सिद्ध कैसे हो सकती है तो मैं आपको कात्यायनी और ये छोटी-छोटी साधनाएं क्यों दूंगा? दूंगा तो एक बहुत बड़ी साधना दूंगा कि आप बैठे-बैठे शत्रुता को समाप्त कर सके, और पुरे देश को एहसास करा सके कि एक गुरू के कोई शिष्य है। ऐसा शिष्या मैं आपको बनाना चाहता हूं।

शायद मेरी बात आपको तीखी लगे, शायद मेरी बात क्रोधमय हो गई है। मगर क्रोध नहीं करता है उससे घटिया कोई आदमी नहीं होता। सबसे मरा हुआ जीव वह होता है जिसे क्रोध आता ही नहीं। और हमारा देश बरबाद इसलिए हो गया है कि अहिंसा परमो धर्मः कोई थप्पड़ मारे तो दो चार थप्पड़ और खा लीजिए। मैं कहता हूं कि थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठे उससे पहले चालीस थप्पड़ मार दीजिए। मैं आपको यह कह रहा हूं काहे को हम थप्पड़ खाएं।

जो पहले लात मारता, है वह जीतता है, यह ध्यान रखिए। कोई लात लगा देगा तो दुसरा गिर जाएगा, दुसरी लात लगेगी तो वह उठेगा नहीं। उसे दो चार थप्पड़ और पड़ेंगे तो वह कहेगा गलती हो गई। और तुम हाथ जोडो तो तुम्हारी हार निश्चित है। गांधीजी ने कह दिया अहिंसा परमो धर्मः उस जमाने मे जरूरी होगा, यह उनकी धारणा थी, विचार था। उस जमाने मे बुद्ध ने जो कहा सत्य कहा होगा। मगर वह उस जमाने में था आज वह चीज नहीं है। उस समय बम विस्फोट नहीं हो रहे थे। उस समय गोलियां नहीं चल रही थी, ए.के ४७ राइफल उस समय नहीं थी।

और अगर आप कहते हैं कि हम क्यों करें?

तो मैं कह रहा हूं-कौन करेगा फिर अगर मैं आपको ज्ञान नहीं दे पाउंगा, आप नहीं कर पाएंगे, आप इस देश को, भारत वर्ष को आर्यावर्त को तैयार नहीं कर पाएंगे। लोग जीवित जाग्रत नहीं हो पाएंगे, और लोग इस पर आक्रमण करते रहेंगे और आप चुपचाप देखते रहेंगे तो कौन आगे आएगा, कहां से आएगा? फिर शिष्य बनने का मनुष्य बनने का क्या धर्म रह जाएगा?

यह धर्म हमारा है क्योंकि हम जीवन मे अभावग्रस्त नहीं होना चाहते, हम दरिद्री नहीं रहना चाहते, हम जीवन में तकलीफ नहीं देखना चाहते, हम दुःखी नहीं होना चाहते, हम घर में लडाई झगड़ा नहीं चाहते हम जीवन में कायर बुजदिल नहीं होना चाहते, हम बुढ़ापा नहीं चाहते।

हम यह सब नहीं चाहते मगर ऐसा तब हो पाएगा जब हम ऐसी साधना सिद्ध कर सकेंगे कि आपका विकराल रुप देख कर मौत भी आपके द्वार के बाहर खड़ी रहे, अंदर आने कि हिम्मत नही कर सके। तब वह चीज हो पाएगी। मौत आपके पास आकर बैठे जाए तो मर्द ही क्या हुए आप?

भगवान शिव ने एक उच्च कोटी कि साधना के रुप में कृत्या प्रकट कि। उस कृत्या को सिद्ध किया विक्रमादित्य ने। बीच में कर ही नहीं पाए कोई। या तो ज्ञान लुप्त हो गया, या ऋषि मुनी समाप्त हो गाए। कुछ भगवान शिव ने समाप्त कर दिया, कुछ मर गए, कुछ को ज्ञान रहा नहीं और कुछ ऐसे ऋषि हो गाए जो अपने शिष्यों को ज्ञान दे नहीं पाए। पहले मुख से देते थे ज्ञान, किताबों मे होता ही नहीं था। आज मैंने आठ किताबें तैयार कि तो आप दो, पाच किताब लेंगे कि चलो कम से कम मेरे पास यह ज्ञान कि थाली रह पाएगी।

उनके पास किताबें थी नहीं। और उस समय ऐसे गुरू भी थे जो मरते दम तक कहते रहते थे कि बिल्कुल अंत मे सिखाउंगा यह चीज। अरे महाराज सीखा दो, न जाने आप कब समाप्त हो जाओगे।

वे कहते नहीं बच्चे! अंत समय मे सिखाउंगा।

उनको लालच यह कि सेवा कौन करेगा, सीखा तो चला जाएगा। और शिष्य सोचता यह कुछ सिखाता कुछ नहीं है रोज लंगोट धुलवाता है पर कुछ देता नहीं है। अब दोनों मे आपस मे द्वंद चल रहा है। वह उसको बोल नहीं पा रहा है, और मरते समय कहता है- राम राम जपना बेटा और गर्दन टेढ़ी।

You can uplift of India - Part 2, भारत का उत्थान तुम कर सकते हो



भारत का उत्थान तुम कर सकते हो- भाग ३

अब उन्होने जिंदगी भर पाप किया तो स्वर्गवासी हुए या नरकवासी हुए हम कह नही सकते। हम अपने आपमें नहीं कह सकते कि राम राज्य कैसा था, द्वापर युग कैसा था? हां, कृष्ण आपने आप मे सुर्य थे, वह युग कैसा था यह आपको बता रहा हूँ। युग आज भी वैसा ही है। युग नहीं बदल सकता, आदमी बदल सकता है। आदमी ज्ञान ले सकता है।

कृष्ण ने अकेले ने सब करके दिखा दिया। आप कल्पना करें एक तरफ कौरवों कि अक्षौहिणी सेना खडी है, एक तरफ पांडव खडे है बीच मे कृष्ण खडे है और उस अकेले व्यक्ति ने निश्चय कर लिया कि मैं कोई शत्र नहीं उठाऊंगा और उन पांच लोगों के सहारे पर कुरुक्षेत्र कि लड़ाई जित लिया पुरे महाभारत के युद्घ को जित लिया।

और आपके पास एक गुरू बैठा है और इस पुरे संसार को आप जित नहीं सकते तो फिर आप कमजोर हैं, मैं कमजोर नहीं हूं, फिर आपमें न्यूनता है मुझमें न्यूनता नही है। यह मेरी बात थोड़ी कड़वी हो सकती है।

मै भी अपने पिता जी कि प्रशंसा करता रहता हूं अपने दादाजी कि प्रशंसा करता रहता हूं कि बहुत महान थे, हम ऋषियों के परम्परा कि प्रशंसा ही करेंगे क्योंकि जो मर गए उनकी प्रशंसा ही कि जति है, उनके अवगुणों को देखा नही जाता। मर गए तो मर गए बस, सतयुग चला गया, द्वापर चला गया। मगर यह षड्यंत्र, यह कुचक्र, यह धूर्त यह मक्कारी, यह चल, यह झूठ, यह कपट, यह व्यभिचार। यह असत्य उस जमाने भी उतने ही थे जितने कि आज हैं। मगर उस जमाने में भी साधनाओं में सिद्धि होती थी क्योंकि उनके पास गुरू थे। गुरुओं को सम्मान था, राजा के पुत्र होते हुए भी दशरथ ने अपने पुत्रों को विश्वामित्र के पास भेज दिया कि तुम जाओ और धनुर्विद्या सीखो, तुम्हे वही जाना पड़ेगा। कहां ठेठ मथुरा, उत्तर प्रदेश में और कहां ठेठ मध्य प्रदेश वहां कृष्ण को भेजा क्योंकि उच्च कोटी का ब्राह्मण संदिपन वहां था। बीच मे क्या कोई उच्च कोटी का साधू सन्यासी था ही नही? क्यों नही उनके पास भेजा?

उन्होने जाना कि वह व्यक्ति अपने आपमें अद्वितीय ज्ञान युक्त है, उसके पास भेजना ही पड़ेगा। वो ट्यूशन पर गुरू को रख सकते थे। विश्वामित्र राजा कि प्रजा है, दशरथ कह सकते थे कि आपको चार किलो धान ज्यादा देंगे आप यहाँ आकर पढाइए। ज्ञान ऐसे प्राप्त नहीं हो सकता। ज्ञान के लिए फिर आपको शिष्य बनना पड़ेगा, आपको गुरू के पास पहुंचना पडेगा, आपको गुरू के सामने याचना करनी पडेगी और हम साधना में सिद्धि इसलिये नहीं प्राप्त कर रहे हैं, क्योंकि हम कमजोर महसूस करने लग गए हैं, कमजोरी आपके मन मे, जीवन में आ गयी है, कमजोर आप हैं नहीं।

जब दक्ष ने महादेव को यज्ञ में नहीं बुलाया तो .... महादेव तो अपने आप मे बहुत भोले हैं।महोक्ष खटवांग परशु फलिण चेती यः ......

श्मशान मे बैठें रहते हैं और कही कोई कमाने कि चिन्ता नही है, ना नौकरी करते है, न व्यापार करते हैं, कुछ करते ही नहीं ड्यूटी पर भी नही जाते, कपडे कि दुकान खोलते ही नही बस सांप लिपटाए बैठे हैं मस्ती के साथ में और उसके बाद भी जगदम्बा, जो लक्ष्मी का अवतार है, उनके घर में हैं और धन-धान्य कि कमी है ही नहीं। निश्चिन्तता है। निश्चिंत है इसलिये देवता नहीं कहलाए वो, महादेव कहलाए।

उन्होंने साधनाएं कि। महादेव ने भी कि, ब्रह्म ने भी कि, विष्णु ने भी कि। इंद्र ने भी कि। बिना साधनाओं के जीवन में सफ़लता प्राप्त नहीं हो सकती। मगर साधना मे सफ़लता तब प्राप्त हो सकती है जब आपकी कमजोरी, आपकी दुर्बलता, आपका भय, आपकी चिंता, आपका तनाव दूर हो और तनाव मेरे कहने से दूर नहीं हो पाएगा। मैं यहाँ से बोल कर चले जाऊं तो उससे तनाव नहीं मिट सकता। मैं कहूं कि अब तकलीफ नहीं आये तो उससे तकलीफ नहीं मिट सकती।

मैं बता रहां हूं कि वास्तविकता यह है। आप ज्योंही जायेंगे घर में तो तनाव तकलीफ, बाधाएं, कठिनाईयां वे ज्यों कि त्यों आपके सामने खडी होंगी। उससे छुटकारा पाएंगे तो साधना में बैठ पाएंगे। तो गुरू कि ड्यूटी है, गुरू का धर्म है कि उन साधनाओं को प्राप्त करने के लिए शिष्यों को निर्भय बना दिया जाए, जो कमजोर उनके जीवन के क्षण है जो मन मे कमजोरी है या दुर्बलता है उसे दूर कर दिया जाए। और क्षमता के साथ ही उन दुर्बलताओं को दूर किया जा सकता है, उन पर प्रहार करके ही विजय प्राप्त कि जा सकती है री रियाकर या प्रार्थना करके नहीं। और हमारे तो आराध्य महादेव हैं जो प्रखर व्यक्तित्व के स्वामी हैं जो प्रहार करने से विध्वंस करने से कभी हिचकते ही नहीं।

विध्वंसक बन करके, क्रोध मे उन्मत्त हो करके महादेव दक्ष के यज्ञ में गए, अपने श्वसुर के यज्ञ मे गए जहां ब्राह्मण, योगी, यति, सन्यासी आहुतियां दे रहे थे, वेद, मंत्र बोल रहे थे। उन्होंने एक लात मारी और यज्ञ को विध्वंस कर दिया, वेदी को तोड़ दिया अग्नि को बुझा दिया।

क्योंकि उससे पहले सती ने सोचा कि सब देवताओं यज्ञ में बुलाया गया, मेरे पति को नहीं बुलाया गया, इससे बड़ा क्या अपमान हो सकता है तो वह खुद यज्ञ कुण्ड में कूद गयी। आधी जली तो बाहर निकाला गया।

और भगवान् शिव .....

भगवान तो वह होता है जिसमे ज्ञान हो। भगवान अपने, आपमें कोई अजूबा नहीं है कि जो नई चीज पैदा हुआ वह भगवान है। भगवान तो आप सब हैं। यह शंकराचार्य स्पष्ट कर चुके हैं, और प्रत्येक मनुष्य राक्षस है, हम क्या हैं यह आपको चिन्तन करना है।


भारत का उत्थान तुम कर सकते हो- भाग ४

और भगवान शिव सती कि अधजली लाश को अपने कंधे पर ले कर क्रोध कि अवस्था में पुरे भारत वर्ष में घूमे क्रोध शांत नहीं हुआ। इतना बड़ा अपमान कि मेरी पत्नी जल गई और मैं कुछ नही कर पाया और क्रोध की चरम सीमा और उस चरम सीमा में दक्ष जैसे वरदान प्राप्त और तांत्रिक व्यक्ति का भी वध किया। ऐसे व्यक्ति का वध किया जाए तो कैसे किया जाए। तो उन्होने अपनी जटा में से बहुत उत्तेजना युक्त मंत्र के मध्यम से एक रचना कि जो कि पूर्ण जगदम्बा से भी सौ गुना ज्यादा क्षमतावान थी, जो साकार प्रतिमा थी जो कि सारी परेशानियों बाधाओं, अड़चन कठिनाइयों और शत्रुओं पर एकदम से प्रहार कर सके, समाप्त कर सके। वह चाहे शत्रु हो, चाहे बाधा हो, चाहे मुकदमेबाजी हो, चाहे असफलताएं हो, चाहे घर मे कलह हो - ये सब बाधाएं है। पैसे नही आ रहे है, व्यापार नहीं हो रहा हैं , ये सब बाधाएं है। ये समस्याएं हैं, परेशानीयां हैं अड़चनें हैं।

इनको समाप्त करने के लिए भगवान शिव ने एक रचना की जो की जगदम्बा से भी उंची, क्षमतावान थी। मुझसे भी उंचे गुरू हैं, मुझसे भू उंचे विद्वान होंगे। मैं यह कहकर जगदम्बा के प्रति न्यूनता नहीं दिखा रहा हूं। मगर भगवान शिव ने उस जटा में से ....

और जटा कैसी? भागीरथ ने जब गंगा का प्रवाह किया और उसे भगवान शिव ने अपनी जटा में लिया तो डेढ़ साल तक उन जटाओं मे गंगा घूमती रही, उसे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं मिला। इतनी घनी जटा! भागीरथ ने प्रणाम किया किया- महाराज! अगर गंगा नदी आपकी जटाओं मे घूमती रही तो रास्ता मिलेगा ही नहीं उसको। इतनी घनीभूत जटा है। कृपा करके गंगा को धरती पर उतारे तो उन देवताओं और लोगों का कल्याण होगा।

और मंत्रों के माध्यम से उस देव गंगा को पृथ्वी पर उतारा। ऐसे विकराल, विध्वंसक महादेव! हमने उनका सौम्य रुप देखा है की आंखें बंद किए श्मशान में बैठे हुए हैं, सांप की मालाएं पहने हुए हैं, ऊपर से गंगा प्रवाहित हो रही है और ध्यानस्थ बैठे हैं।

आपने वह रुप देखा है क्रोधमय रुप नहीं देखा, ज्वालामय रुप नहीं देखा, आखों से बरसते अंगारे नहीं देखे। देखे इसलिये नहीं की किसी ने दिखाया नहीं आपको। महादेव इसलिये नहीं बने की शांत बैठे हैं..... आप हाइएस्ट पोस्ट पर पहुंचेंगे तो हाथ जोड़-जोड़ कर नहीं पहुंचेंगे, ज्ञान को गिडगिडाते हुए नही प्राप्त कर पाएंगे। आपमें ताक़त होगी, क्षमता होगी तो ऐसा कर पाएंगे।

और महादेव ने उस जटा से जिसको निकला उसे कृत्या कहते हैं। उस कृत्या ने दक्ष का सिर काट दिया वह तंत्र का उच्च कोटि का विद्वान था, दक्ष के समान कोई विद्वान नहीं था उसे सभी तंत्र का ज्ञान था जिसको यह वरदान था की तुम मर ही नहीं सकते। उस कृत्या ने एक क्षण में सिर काटकर बकरे का सिर लगाया दिया, उसके ऊपर और सारे ऋषि मुनियों को उखाड़-उखाड़ कर फ़ेंक दिया उस कृत्या ने। एक भी ऋषि योग्य नहीं था। सती जल रही थी और वे चुपचाप बैठ-बैठे देखते रहे।

भगवान् शिव उस क्रोध कि अवस्था में सती के शरीर को लेकर घूमते रहे। क्रोध में आदमी कुछ भी कर सकता है, और क्रोध होना ही चाहिऐ, क्रोध नहीं है तो मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। ऐसा नहीं हो कि शत्रु हमारे सामने खडे हो और हम गिडगिडाएं कि भईया तू मत कर ऐसा। ऐसा हो ही नहीं सकता। वह हाथ ऊपर उंचा करे उससे पहले सात झापड़ उसे पड़ जानी चाहिए। बाद में देखा जाएगा।

मैं तुम्हे गिडगीडाने वाला नहीं बनाना चाहता, मैं बना ही नहीं सकता। बन भी नहीं सकता, जब मैं खुद बना ही नहीं तो तुम्हे कैसे बनाउंगा। पहले हाथ उठाऊंगा नहीं, और हाथ उसका उठा और मेरे गाल तक पहुंचे उससे पहले छः थप्पड़ मार कर निचे गिरा दूंगा, आज भी इतनी ताक़त क्षमता रखता हूँ, आज से सौ साल बाद भी इतनी ही ताक़त, क्षमता रखूंगा आपके सामने।

उस कृत्या ने समस्त ऋषि मुनियों को लात मार मारकर फ़ेंक दिया। आज हम उनको ऋषि कहते हैं, उस समय तो वे मनुष्य थे आप जैसे। आप भी ऋषि हैं मगर आप गलत काम करेंगे त लात मारकर फेकेंगे ही। भगवान् शिव ने कहा - यह तुमने क्या किया? यह यज्ञ कर रहे थे तुम एक औरत उसमें जल गई और आप बैठे-बैठे रह गए? तुममे दक्ष को समझाने कि क्षमता नहीं रह गई।

और भगवान शिव उस क्रोध कि अवस्था मे उस सती के शव को कंधे पर रख कर जहां-जहां पुरे भारत वर्ष मे घूमे, जहां-जहां गल गल कर जो अंग गिरा वह शक्तिपीठ कहलाए। और ५२ स्थानों पर वह शरीर गिरा, हाथ कही गिरा, कहीँ सिर गिरा, कहीँ पांव गिरा, कहीँ और कोई आंग गिरा। जीतनी चीजें गिरी ५२ जगहों पर गिरी और वे शक्ति पीठ कहलाए।

आज भारतवर्ष में कहते हैं शक्ति के जो अंग गिरे, वहां जो पीठ बनी, चेतना बनी, मंत्र बने, स्थान बने वे शक्ति पीठ कहलाए। मैं बात यह कह रहा था कि इतने ऋषियों, मुनियों को इतने उच्चकोटि के ज्ञान को, इतने तंत्र के विद्वानों को जो अपनी ठोकरों से मार दे और विध्वंस कर दे। सब कुछ वह क्या चीज थी - वह कृत्या थी और कृत्या से वैताल पैदा हुआ। वैताल जिसने विक्रमादित्य के काल में एक अदभूत, अनिर्वचनीय कथन किया कि कोई भी काम जिंदगी में असफ़ल नहीं हो सकता, संभव ही नहीं है। बम तो एक बहूत मामूली चीज है बम का प्रहार हमारा कुछ नहीं बिगाड सकता। हमें पहले ही मालूम पड़ जायेगा कि यह आदमी बम फेंकने वाला है, हम पहले ही उसका संहार कर देंगे, समाप्त कर देंगे, अगर कृत्या हमारे पास सिद्ध होगी तो।

और हमारे पास इंटैलीजैंस है, हमारे पास पुलिस है हमारे पास राँ है, हमारे पास और भी है, फिर भी बम विस्फोट होते जा रहे हैं। लाखों लोग मरते जा रहे है, बेकसूर लोग मरते जा रहे हैं। जिन्होंने कोई नुकसान किया ही नहीं बेचारों ने। आप सोचिए कि घर मे एक मृत्यु हो जाए तो घर कि क्या हालत होती है। एक जवान बेटा मर जाए तो पुरा जीवन दुःखदायी हो जाता है। यहां तो घर के पांच-पांच लोग मर जाते है और कानों पर जूं नहीं रेंगती। भारत सरकार कोशिश कर रही है इसमे कोई दो राय नहीं है, पुरा प्रयत्न कर रही है इसमे भी दो राय नहीं है मगर प्रहारक इतने बन गए है कि इस समय विज्ञान कुछ नहीं कर पा रहा है।

You can uplift of India - Part 1,2, भारत का उत्थान तुम कर सकते हो


भारत का उत्थान तुम कर सकते हो - भाग १/ 
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
मानव जीवन कि विक्षमताओं के बीच अपने आप को प्रतिष्टित करने के लिए अवं उच्चता प्राप्त करने हेतु जीवन में वह तेज और क्रोध होना आवश्यक हैं जो भीतर से शक्ति को जाग्रत कर सके। प्रस्तुत प्रवचन में सदगुरुदेव ने शिष्योंको को एक ललकार भावना देते हुए उन्हें अपने व्यक्तित्व से पहचान कराने का उत्साह जगाया है, जिससे शिष्य कुछ बन सके। गुरुदेव कि ओजस्वीवाणी में यह महान प्रवचन -

आज से हजारों वर्ष पहले सिंधु नदी के किनारे पहली बार आर्यों ने आंख खोली, हमारी पूर्वजों ने पहली बार अनुभव किया कि ज्ञान भी कुछ चीज़ होती है, पहली बार उन्होने एहसास किया कि जीवन मे कुछ उद्देश्य भी होता है, कुछ लक्ष्य भी होता है, तब उन्होने सबसे पहले गुरू मंत्र रचा, गुरू की ऋचाओँ को आवाहन किया। और भी देवताओं का कर सकते थे, भगवान रुद्र का कर सकते थे, विष्णु का कर सकते थे, उन ऋंषियों के सामने ब्रह्मा थे, इंद्र थे, वरुण थे, यम थे, कुबेर थे, सैकड़ों थे।

मगर सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना कि या संसार मे सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना हुई, वह गुरू मंत्र था। गुरू शरीर नही होता, अगर आप मेरे शरीर को गुरू मानते है तो गलत है आप, यदि मुझ में ज्ञान ही नही है तो फिर मैं आपका गुरू हूं ही नही।

यदि आप एक-एक पैसा खर्च करते है तो मेरे ह्रदय मे भी उस एक-एक पैसे कि वैल्यू है। मै उतने ही ढंग से आपको वह चीज़ देना चाहता हूं और आप उतनी ही पूर्णता के साथ उसे प्राप्त करें तब मेरा कोई अर्थ है। अन्यथा ऐसा लगता है कि आप मुझे दे रहे हैं और मैं भी फोर्मलिटी निभा रहा हूं ऐसा मै नही करना चाहता।

फोर्मलिटी बहुत हो चुकी। फूलों के हार बहुत पहन चूका, आपकी जय जयकार बहुत सुन चूका, टाँगे, बग्गी गाडी मे बहुत चढ़ चूका, हवाई जहाज मे यात्रा कर चूका, विदेश मे यात्रा कर चूका, यह सब बहुत हो चूका। बेटे, पोते, पोतियां, गृहस्थ और संन्यास जीवन सब देख चूका। संन्यास क्या होता है वह भी उच्च कोटी के साथ देख चूका। अब बस एक बात रह गई है कि जितने शिष्य है उन सबको अपने आप में सुर्य बनायें अद्वितीय बनायें। अब केवल इतनी इच्छा रह गई है। और कुछ इच्छा ही नही रह गई है।

सम्राट होते होंगे, मैंने देखा नही सम्राट कैसे होते है, मगर सम्राटों के सिर भी गुरू के चरणों मे झुकते है, उनके मुकुट भी गुरू के चरणों मे पड़ते हैं यदि वह सही अर्थों मे गुरू है, ज्ञान, चेतना युक्त है।

हम अपने आप मे इस शरीर को उतना उत्थानयुक्त बना दें, उतना चेतनायुक्त बना दें, उस मूल उत्स को जान लें कि हम क्या है? और जब हमारा अपना पिछला जीवन देखना शुरू कर देंगे तो आपको इतने रहस्य स्पष्ट होंगे कि आपको आर्श्चय होगा कि क्यों मेरे जीवन मैं ऐसा था, क्यां मैं इतनी ऊंची साधनाएं कर चूका था, फिर मैं इतना कैसे गिर गया? क्या हो गया मेरे साथ?

यह कैसा अटैचमेंट था गुरू के साथ? इतना अटैचमेंट था कि मैं गुरू के बिना एक मिनट भी नही रह सकता था, अब मैं दो-दो महिने कैसे निकाल देता हूँ। जब आपको पिछला जीवन देखने कि क्रिया प्रारंभ होने लगेगी, तब आप एक क्षण भी अलग नही रह पाएंगे, तब एहेसास होगा कि हम बहुत बड़ा अवसर खो रहे है, बहुत बडे समय से वंचित हो रहे हैं, क्षण एक-एक करके बीतते जा रहे है और जो क्षण बीतते जा रहे हैं वें क्षण लॉट कर नहीं आ सकते। जो समय बित गया, बित गया। बित गया तो समय निकल गया, इस शरीर में भी एक सलवट और बढ गई, कल एक और सलवट बढ जाएगी।

अगर सर्प ऐसा कर सकता है, कायाकल्प कर सकता है, अपनी पुरी केंचुली को, झुर्रीदार त्वचा को, अपने बुढ़ापे को निकाल कर एक तरफ रख देता है, पुरा नवीन ताजगी युक्त वापस शारीर उसका बन सकता है तो हमारा क्यों नही बन सकता ?

इसलिये नही बन सकता क्योंकि केवल उस वासुकी के पास यह ज्ञान रह गया है और हमने उसे समझा नही, हमने बस उसको विषैला समझ लिया, जहरीला समझ लिया। आपने उसके ज्ञान को नही समझा। आपने मुझे फूलों के हार पहना दिए, जय जय कार कर दिया मगर आप मेरा ज्ञान नही समझ पाये। जब ज्ञान नही ग्रहण कर पाएंगे तो फिर एक बहुत बड़ा अभाव आपके जीवन मे भी रहेगा। मेरे जीवन मे भी रहेगा कि यह ज्ञान, यह चेतना आप प्राप्त नहीं कर पाए। यह ज्ञान, यह चेतना यां तो पुस्तकों मे मिल पाएगी या प्रामाणिक होगी। और मैं ऐसा कोई ग्रंथ लिखना चाहता भी नहीं कि मेरे मरने के पांच सौ साल बाद भी कोई कहे कि इसमे गलती है। पांच सौ साल बाद भी लोग कहे कि यह तो बिलकुल नवीन और प्रामाणिक है एक चेतना युक्त है। वैसा ग्रंथ मैं आपको बनाना चाहता हूँ।

आप आपने आप को कायर या बुजदिल समझते हैं, आप आपने बारे में समझते हैं कि आप कुछ कर नही सकते। मैं प्रवचन बोल कर भी जाऊंगा तो मुझे मालूम है कि आप सब कुछ सुनने के बाद भी वही खडे रह जायेंगे कि मैं क्या कर सकता हूँ, इस उम्र मे होगा भी क्या, अब करने से लाभ भी क्या, अब मैं तो बुढा हो गया मेरा तो शरीर कमजोर है, अब मैं कुछ नहीं कर सकता।

यह आपके जीवन कि हीन भावना बोल रही है आप नहीं बोल रहे हैं। आपके ऊपर समाज ने जो प्रहार किए, वे बोल रहे हैं, आप नहीं बोल रहे हैं। आपके जीवन में जो दुःख है उन दुखों ने आपको इतना बोझिल बना दिया है वह बोल रहे हैं। वृध्दावस्था आ ही नहीं सकती, संभव नही हैं। बुढ़ापा तो एक शब्द है, नाम है। हमने एक नाम लिया कि बुढ़ापा है। बुढ़ापा शब्द क्या चीज है?

भारत का उत्थान तुम कर सकते हो- भाग २

मैंने तो नब्बे साल के लोगों को भी मुस्कुराते हुए, खिलखिलाते और ज्ञान प्राप्त करते हुए देखा है। जब इंग्लैंड पर जर्मनी ने बमबारी की और सारा ध्वस्त कर दिया तो ८२ साल के चर्चिल ने पुरे इंग्लैंड को संभाला, प्रधान मंत्री बन कर के वापस अपने देश को खड़ा कर दिया, ताकतवान बनाकर के। ७२ साल कि उम्र मे! अब आप पता नही ८२ साल की उम्र ले भी पाएंगे या नहीं ले पाएंगे।

तो क्या गुरुजी हम ८२ साल की उम्र ले ही नहीं पाएंगे? क्या चर्चिल ही ले पायेगा?

आप नब्बे साल नही ८२ सौ साल भी ले सकते, आप ले सकते हैं यदि आपके पास वह विद्या हो। यदि आपके पास ज्ञान हो कि मैं कायाकल्प कैसे करूं तो वह चीज आपको प्राप्त हो सकेगी। आपके पास एक भी विद्या रह पायेगी तो आने वाली हजारों पीढियां आपसे शिक्षा ग्रहन कर पाएंगी। आप सही अर्थों मे ग्रंथ बन पाएंगे, सही अर्थों मे सबसे ज्यादा प्रिय मुझे बन पाएंगे। तब मैं गर्व करुंगा कि आप मेरे शिष्य हैं।

मैं तो आपको चैलेंज देता हूँ, मैं दो टुक साफ कहता हूँ। मुझसे भी बडे विद्वान होंगे, मगर आप बाजार से जाकर कोई ग्रंथ लाइए। आप लाइए और मैं बीस किताबें और रख देता हूँ देखिए। इन सबमें चीजें ज्यों कि त्यों हैं, कुछ लाईने, इधर कर दी और कुछ लाईने उधर कर दी है और पोथी भरकर आपके सामने रख दी है। वही चीज हरेक में है चाहे मंत्र महोदधि लाईए, चाहे मन्त्र महार्णव लाईए, चाहे मंत्र सिंधु लाईए। मंत्र चिन्तन लाईये, मंत्र धटक लाईए। वे ग्रंथ तो मंत्रों पर है पर सबमे एक ही चीज हैं। एक ही बात को रिपीट कर दिया है, उनके छः संस्कारण बना दिए हैं।

क्या नवीनता है उनमे? क्या किसी ने कहा है कि सर्प के पास ज्ञान है हमारे पास क्यों नहीं? किसी ने इस पर चिंतन किया ?

और आप कह रहे हैं कि आप बुजदिल हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा कि आप किस कोने से बुजदिल हैं जिससे कि मैं उस कोने को निकल दूं कि किस कोने से हम कायर हैं, इस कोने से कमजोर हैं तो उस हिस्से को काट दूं और वापिस नए सिरे से आपको तयार कर दूं। आप हैं नहीं कमजोर, आपने मान लिया है। और मानना इसलिये पड़ा है क्योंकि आपके जीवन मे वास्तव मे बाधाएं, अड़चने, कठिनाईयां आई हैं। मगर ये समस्याएं केवल आप पर ही नहीं आई।

ऐसा नहीं है कि कलियुग में ही साधनायें नही हो पा रही हैं। गुरू जीं कलियुग आ गया और कलियुग में साधनायें नही हो पातीं। और सैकड़ों लोग ऐसा कहते हैं कि अब कैसे हो पायेगी चारों तरफ आप देख रहे हैं। मै भी चारों तरफ देख रहा हूँ कि कभी बम विस्फोट हो रहे हैं कभी पंजाब में हो रहे हैं कभी दिल्ली में हो रहे हैं, पुरे भारत वर्ष में हो रहे हैं। यह क्या हो रह हैं, क्यों हो रहा हैं?

इसलिये हो रह हैं कि हम कमजोर हैं। हमने अख़बार पढा, देखा और फिर अखबार को छोड दिया हममें क्षमता नहीं है वह कि हम उसको रोक सकें, और अगर विज्ञान रोक पाता तो फिर ये इतने लड़ाई झगड़े होते ही नहीं, इतने बम नहीं फटते। इसका मतलब इन समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रहा है। अगर कर पाता तो रोज अखबार में ये समस्याएं नहीं आ पाती।

उस चीज को आप लोगों में से अगर कोई एक बार समझ ले तो वह ज्ञान अगले तीन सौ, साल तक रह सकेगा। उस कायाकल्प को करें तो जैसे नविन सर्प निकलता, है तो आप निकल सकते हैं। वह तब हो पायेगा जब बुजदिली आप समाप्त कर देंगे, जब आप ताकतवान बनेंगे, क्षमतावान बनेंगे।

कुचक्र आज ही नहीं रचे गए, लड़ाई-झगड़े आज ही नहीं हो रहे, कलियुग आज ही पैदा नहीं हुआ, वह तो सतयुग में भी यही समस्या थी जिनसे आज तुम जूझ रहे हो। तुम मुझे बार-बार कह रहे हो कि कलियुग मैं कैसे साधनायें संपन्न करेंगे तो मै कह रहा हूँ द्वापर युग मे, त्रेता युग में, कितने षड़यंत्र हुए महलों मे, उस केकैयी के रुप जाल में फंस कर के दशरथ ने जो उनकी निति थी, धर्म था कि सबसे बडे बेटे को राजगद्दी पर बिठाया जाए। उसको भुलाकर उसे जंगल भेज दिया। एक छोटे बेटे को राजगद्दी पर बिठा दिया। यह षड्यंत्र नहीं था क्यां?

और उस केकैयी का षड्यंत्र यह कि राम यहां रहेगा तो फिर लड़ाई-झगड़े होंगे। इसको जंगल मे ही भेज दिया जाये। क्या षड्यंत्र उस समय नहीं होते थे? क्या आज ही होते हैं? क्या उस समय अपहरण नही होते थे ? क्या रावण सीता को नहीं ले गया? क्या द्वापर युग मे लडाईयां नहीं होती थी?

इतनी लडाइयां होती थी कि आज तो होती ही नहीं है। भरी सभा मे बहु को नंगा किया जा रहा है, साडी खींची जा रही है और उसके पांचों पति मुंह निचे लटकाए खडे हैं, उनका दादा भीष्म सिर निचे लटकाए खङा है, यह क्या था?

तो कौन सा युग तुम्हारा द्वापर युग है? राम राज्य कौन सा हो गया? मुझे बता दीजिए कि राम राज्य में कुछ नहीं हुआ वहां लड़ाई झगड़े हुए ही नही, वहां पर कोई किडनैप नहीं हुए। वह उस समय भी होते थे वे षड्यंत्र द्वापर में भी थे, सतयुग मे भी थे। तब भी हुए और कलियुग में भी हो रहे हैं। हो इसलिये रहे हैं कि मनुष्य जब तक बदलेगा नहीं, परिवर्तित नहीं होंगी तब तक ये घटनाएं घटित होंगी।

आपके मन में है कि आज कलियुग में साधनायें सफ़ल नहीं हो सकती मैं तो कहता हूँ कि कलियुग मे फिर भी हो सकती हैं क्योंकि इस समय सड़क पर किसी स्त्री को एकदम से नंगा नहीं कर सकते, एकदम से पचास आदमी लाठी लेकर खडे हो जायेंगे। उस समय तो भरी सभा में सैकड़ों लोगों के बीच मे ऐसा हुआ। कैसे पति थे वो? कैसे पितामह थे? क्या थे वो?

तब जुआ खेला जाता था और अपनी पत्नी को दांव पर लगा दिया जाता था यह तुम्हारा द्वापर युग था। हक़ीकत और इतिहास तो यह है। मगर हम प्रत्येक मृत को स्वर्गवासी कहते हैं, नरकवासी कहते ही नहीं हैं। कहा गए? स्वर्गवासी हो गए।

Tuesday, October 2, 2012

Baglamukhi: interesting facts


Baglamukhi: interesting facts by Gurudev (Dr. Narayan Dutt Shrimali)


Gurudev's experience when he did Baglamukhi Sadhna during his sanyas days. Further he also reveals some interesting facts about Maa Baglamukhi

Truth behind Maa Saraswati??


Truth behind Maa Saraswati?? by Gurudev (Dr. Narayan Dutt Shrimali)

Gurudev shatters all myths about Maa Saraswati in his pravachan. First time he throws light on who is Maa Saraswati and her significance in our lives 

We can not assess the value of living personalities?

We can not assess the value of living personalities?
WHY? " हम जीवित व्यक्तित्व का मूल्य आंक ही नही सकते |"

यह कैसे विडम्बना है की जब कोई महापुरुष जीवित होता है तब लोग उसे प्रताड़ित करते है ,उसकी आलोचना करते है |श्री कृष्ण को उनके जीवन काल में अपमान का सामना करना पड़ा ,गालिया खानी पड़ी ,एक से बढ़कर एक षड्यंत्र उनके खिलाफ रचे गए | लोगो ने कहा यह ग
्वाला चोर है ,उन पर मणि चोरी का इल्जाम लगा ,उन्हें रणछोड कह कर बुलाया गया |आज उनके जाने के इतने समय बाद हम अहसास करते है की वह एक उच्च कोटि का व्यक्तित्व था ,योगीश्वर था ,गीता जैसे ग्रन्थ का रचियता था | आज उनके जाने के इतने वर्षो बाद हम चाहते है की काश हम उनके पास रह पाते | क्योंकि हम मुर्दा पूजक है ,मुर्दा लोगो के पूजा करते है ,उनका श्राद्ध करते है |जब तक माता-पिता जीवित होते है ,हम उनकी आलोचना करते है ,उनका ख्याल नही रखते | जब वो मर जाते है तो उनका श्राद्ध करते है ,उन्हें खीर बना कर खिलाना चाहते है |

शंकराचार्य ,ईसामसीह ,मुहम्मद साहब ,सुकरात सभी के साथ उनके शिष्यों ने यही तो किया | ईसामसीह को सूली पर टांग दिया गया, सुकरात को जहर पीने के लिए बाध्य किया गया ,शंकराचार्य को उनके ही शिष्य ने कांच घोटकर पिला दिया |क्या हम इतिहास में हुई गलतियों से सीख नही ले सकते ?क्या हम वैसे शिष्य नही बन सकते जैसा गुरुदेव चाहते है ? सदगुरुदेव निखिल हमेशा कहते रहे है की शंकराचार्य के मृत्यु के समय शब्द थे की ," शिष्य बहुत घटिया शब्द है ",मैं शंकराचार्य के इस वाक्य को गलत सिद्ध करना चाहता हूँ | मैं आप लोगो के माध्यम से यह सिद्ध कर देना चाहता हूँ कि शिष्य एक उच्च कोटि का शब्द है , भाव है |

सदगुरुदेव डा. नारायण दत्त श्रीमाली जी से मैंने दीक्षा ली है |तब भी मैंने देखा है कि लोग उनकी आलोचना करते थे ,उन्हें गालिया देते थे ,उनके खिलाफ लोगो को भड़काते थे | आज वही लोग उनकी याद में रोते है और कहते है कि बहुत महान व्यक्तित्व था |आज लोगो का ऐसा व्यवहार त्रिमूर्ति गुरुदेव के प्रति देखने को मिल रहा है | वैसे ही उन्हें भला बुरा कहना ,उनकी आलोचना करना ,लोग आज भी उसी तरह से है कोई बदलाव नही आया यह देख कर बहुत दुःख होता है | 

क्या हम गुरुदेव के सिद्धाश्रम जाने के बाद ही उन्हें समझ पायेंगे ,क्या उनके साक्षात होने का ,उनके चरणों में बैठने का लाभ नही उठा सकते ? जैसे सदगुरुदेव निखिल सिद्धाश्रम चले गए है वैसे ही एक दिन जब गुरुदेव सिद्धाश्रम चले जायेंगे तब शायद हमे अहसास होगा कि हमने क्या खो दिया है | सदगुरुदेव निखिल ने बिलकुल सही कहा है कि " हम जीवित व्यक्तित्व का मूल्य आंक ही नही सकते |"

मेरे बारे में इससे श्रेष्ठ और कुछ नहीं हो सकता हैं कि मैं उस समुद्र की एक बूंद हूँ, जिस समुद्र का नाम "परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज (सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी" हैं. कुछ कागज के नोटों को कमाना, कुछ कंकड़-पत्थर को जमा कर

ना उन्होंने अपने शिष्यों को नहीं सिखाया. अपितु उन्होंने अपने शिष्यों को उत्तराधिकार में दिया : "प्रहार करने की कला - ताकि वे इस समाज में व्याप्त ढोंग और पाखण्ड पर प्रहार कर सके....... ..... और दे सके प्रेम, ताकि वे दग्ध हृदयों पर फुहार बनकर बरस सके, जलते हुए दिलों का मरहम बन सके, बिलखते हुए आंसुओं की हंसी बन सकें, छटपटाते हुए प्राणों की संजीवनी बन सकें." गुरुदेव चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ....... जो मेरे जीवन की सर्वश्रेष्ठ और अनमोल निधि हैं.... आज भी उनके चरणों की, उनके सानिध्य की कामना करता हूँ....... ....... .............. क्यूंकि जीवन का सौभाग्य यही हैं की मनुष्य इस जीवन में गुरु को प्राप्त करे.
मेरे प्रिय डॉ नारायण दत्त श्रीमाली....

Tuesday, May 15, 2012

Nikileshhwaranand panchak !! !! निखिलेश्वरानंद पंचक !!

!! निखिलेश्वरानंद पंचक !!

ॐ नमः निखिलेश्वर्यायै कल्याण्यै ते नमो नमः!
नमस्ते रूद्र रूपिंण्यै ब्रह्म मूर्त्यें नमो नमः !!1!!

नमस्ते क्लेश हारिण्यै मंगलायें नमो नमः!
हरति सर्व व्याधिनां श्रेष्ठ ऋष्यै नमो नमः. !!2!!

शिष्यत्व विष नाशिन्यें पूर्णतायै नमो नमः!
त्रिविध ताप संहत्र्यै ज्ञानदात्र्यै नमो नमः !!3!!

शांति सौभाग्य कारिण्यै शुद्ध मूर्त्यें नमो नमः!
क्षमावत्यै सुधात्यै तेजोवत्यै नमो नमः !!4!!

नमस्ते मंत्र रूपिण्यै तंत्र रूपे नमो नमः!
ज्योतिषं ज्ञान वैराग्यं पूर्ण दिव्यै नमो नमः !!5!!

य इदं पठते स्तोत्रं श्रृणुयात श्रद्धयान्वितम!
सर्व पाप विमुच्यन्ते सिद्ध योगिश्च जायते !!6!!

रोगस्थो रोग तं मुच्येत विपदा त्रानयादपि!
सर्व सिद्धिं भवेत्तस्य दिव्य देहश्च संभवे !!7!!

निखिलेश्वर्य पंचकं नित्यं यो पठते नर:!
सर्वान कामान अवाप्नोति, सिद्धाश्रमवाप्नुयात !!8!


Telepathy Power

Telepathy Power
Do you wish to attain the power to talk to people sitting thousand of miles away from you, without the help of any scientific equipment?

* Do you wish you were able to read the thoughts of others?

* Do you wish you were able to know about events occurring thousands of miles away without having to switch on a T.V. or radio?

In Mahabharat era, Sanjay had accomplished Divya Drishti Sadhana through which he could visualise events occurring hundreds of miles away. Dhritrashtra, the father of Kauravs was keen to know about the goings-on in the battle and as he was blind he could only hear about the proceedings. Through the power of his Sadhana, Sanjay was able to see the battle of Mahabharat going on in Kurukshetra and narrate the events to Dhritrashtra, while he sat in the palace in Hastinapur (Delhi).

Door Shravan or Divya Shravan Sadhana is similar, in it no telephone or scientific equipment is needed and a person can convey his thoughts to his friend staying far away from him and can also obtain messages from him.

Just imagine that you are sitting in Delhi and are talking to your wife who is in Bombay. You are not talking on phone but are receiving the sounds through the powers of the Sadhana. Isn't it amazing? You wouldn't have to resort to the help of any instrument or wait for the call to be linked and neither shall anyone be able to interrupt or overhear your conversation. Then you can contact anyone - even when you are far from civilization where there are no modern facilities like phones or wireless.

Once you have accomplished the Sadhana you can hear any conversation going on anywhere in the world. However in order to converse with someone it is necessary that the other person too, is perfect in this Sadhana. If this happens, exchange of thoughts would be child's play.

This Sadhana is not too difficult, but to accomplish it full faith and determination are absolutely necessary. You have but to try it once and if you succeed then the world shall be before you to explore and nothing shall remain a secret for you. You shall then be able to hear anything going on anywhere in the world.

This Sadhana can be started from any Sunday and it lasts for eleven days. One has to remain in Sadhana for about one hour daily.

4 to 6 am is the right time for this ritual, for the atmosphere then is peaceful and there is no disturbance. It is easy to communicate telepathically during this period.

The Sadhak should get up early in the morning and take a bath with fresh water. He should wear yellow clothes and sit on a yellow mattress facing the North. He should then light a lamp with a cotton wick immersed in clarified butter (Ghee).

In the Sadhana three articles are required - picture of the Guru, Door Shravan Yantra and Door Shravan Mala.

The Yantra and the rosary should be consecrated & enlivened through special Mantras composed by Shankaracharya. These Mantras are used to form a link of the rosary and the Yantra with the ether present everywhere.

The Sadhak must take a plate and draw a Swastik on it with red saffron. Then the Yantra should be placed over the Swastik.

After this the Sadhak should place the picture of the Guru next to the Yantra. The picture should be wiped clean and a mark of vermilion should be made on the Guru's forehead. Flowers and prayers should be offered to the Guru.

Then the Sadhak should chant the Mantra

|| Om ||
three times. Next he should chant one round of the following Door Shravan Mantra -

|| Om Bram Brahmaand Vei Bram Phat. ||
This Mantra is short but very effective and by its chanting the inner conscience of the Sadhak is awakened and thus the soul becomes free to move anywhere.

After the chanting of the Mantra is complete the Sadhak should sit peacefully for ten minutes and try to establish a contact with Gurudev. In the beginning just speak out your feelings or any message which you want to send to him.

During the time period from 4am. to 6a.m. Gurudev in an invisible form reaches all his disciples and the Sadhak's wish spoken at this time is surely conveyed to him.

Repeat this whole practice regularly for eleven days. Your inner conscience shall slowly become awakened. And the day you ask something of Gurudev and are able to receive an answer know that you have become perfect in telepathy. Then you can easily contact any person living anywhere in the world and read his or her thoughts. You can even know about remote events sitting at home.

MTYV 2000

Wednesday, May 9, 2012

Job promotion or advancement in the simple practice to get the legislation


नौकरी मे प्रमोशन या उन्नति पाने हेतु सरल साधना विधान .........


ज्ञान के मार्ग  पर चल   रहा  साधक   सिर्फ  कुछ  बात पर  ध्यान  रखता हैं   की उसे उसके  सदगुरुदेव  द्वारा   क्या  सिखाया   गया हैं  और   ना केबल  शब्दों  से ......बल्किउन्होंने स्वयं अपने  आचरण के  द्वारा  भी ... और दूसरा  तथ्य  की उसे देश  काल और धर्म   के मे  फैले पाखंडो और गलत अवधारणाओ मे  नही फसना हैं बल्कि   उसके  मन  मे    सभी धर्मो के प्रति..उनकी उच्चता  के प्रति ..... आदर   और सम्मान  होना  चाहिये .अगर वह मानता   हैंकि   यह सारा  विश्व  एक   उसी   ब्रह्म शक्ति  से चल रहा हैं.या ब्रह्म  शक्ति मय  हैं , तो फिर  ये  भेदभाव कैसा ..

और साधक  तो  हंस के समान होता हैं केबल मोती चुनता  हैं जो  की सदगुरुदेव  जी ने  ज्ञात या अज्ञात   रूप से उसके  सामने  विखेरे   हैं .  वह किसी भी मार्ग के ...... धर्म  के......  हो सकते  हैं .ज्ञान के  मार्ग मे    भला  कोई अपनी संक्रीनता रख कर आगे बढ़ पाया  हैं .  या तो वह  संक्रीनता  रख ले  या फिर   ज्ञान .....क्योंकि   यह तो कहा नही गया हैं की  केबल ... वह.... वह .... धर्म का ज्ञान  ही ...  सदगुरुदेव का प्रतीक हैं ..यह कह  कर उन  ब्रह्माण्ड पुरुष  को कम करना हो  जायेगा ..वह तो देश  काल  के सीमा  से परे   ब्रम्हांड मय   हैं ब्रह्माण्ड पुरुष  हैं ,

सदगुरुदेव जी ने  स्वयं अपने  देह लीला काल मे   कई बार  इन  मंत्रो को  जो मुस्लिम धर्म  से  जुड़े    हुए रहे हैं उन्हें पत्रिकामे  दिया   और एक शिविर   का आयोजन करने का  भी  दिया   था .और उनके शिष्यों मे  सभी धर्म  के लोग रहे हैं ..यहाँ तक की  अनेको देश के भी  ..उनके ..सदगुरुदेव के  सामने धार्मिक  संक्रीनता  का  स्थान  कभी नही था .
इन  मंत्रो का आधार ऐसी रूहानी ताकते हैं  जो  अग्नि से  उत्पन्न   हुयी हैं , और जो   शुभता युक्त हैं साधक  को  वेसे  ही  आचरण करने  के लिये  कहाँ भी गया हैं  और  साधक करते भी हैं .  और कुछ मंत्र  तो इतने सरल हैं और उनके  विधान भी सरल हैंकि विश्वास ही नही होता  की  ऐसा भी  हो सकता हैं .पर यह सच हैं ..जितनी तीव्रता  से  इन मंत्रो का असर   होता है वह काबिले  तारीफ हैं .

और साधक को तो हर पल अपने ज्ञान की वृद्धि करते  रहना  चाहिये ही ,
हमने इसी कारण  अनेको साधनाए   तंत्र कौमुदी  मे  दी  हैं और हमें  खुशी हैं की  अनेक लोगों ने  उसे किया भी हैं  और लाभान्वित भी हुए हैं ...
आज एक ऐसा  ही  मंत्र   जो की अनेको विवानो से  प्रशंशित रहा हैं ...आपके सामने हैं .

किसी भी नौकरी   मे  प्रमोशन पाने   के लिए  इसका  प्रयोग किया जा सकता  हैं .

विधान सरल हैं   या कहें की लगभग हैं ही  नही बस इतना की   इस मंत्रका  १००  बार जप करना   हैं .और कुछ नही .

मंत्र :
“अल्लाह  मेरे  दम विच

मुहमम्द  सल्लाह  मेरे दम विच

अल्लाह  करम  करेगा

एक घडी  दे  दम विच 

कोइ नियम नही हैं , बस  जब तक कार्य समपन्न न हो जाए   करते जाएँ  ..पर इतना   तो  ध्यान  रखें  की जब भी इन  मंत्रो  का उपयोग करना हो साधक  शारीरिक दृष्टी से  शुद्ध   हो .इस बात  का अर्थ समझे .मतलब स्नान करके  स्वच्छ  जगह  पर  ही करें ....

क्योंकि  इन्  मंत्रो के पीछे   पीर फ़कीर की दुआ   होतीहैं  तो स्वाभाविक हैं की इस बात का   हम भी ध्यान मे   रखे .ऐसा नही  की बाथ  रूम  या अन्य  रात्रि काल मे किसी  क्रिया विशेष के  बाद  अशुद्ध   हालत मे  भी जप करने लग  गए ..क्योंकि अगर आपको   सफलता पाना  हैं तो  भले  ही  प्रक्रिया  सरल  हो.... शुद्धता  तो मागेगी  ही न .****NPRU****