Wednesday, April 20, 2011

MAHAKALI Sadhana


 श्मशान काली साधना 

सन् 1985 के वसंत ऋतू की बात हैं. जोधपुर गुरुधाम में होली का शिविर चल रहा था. पूज्य गुरुदेव ने एक ऐसा प्रयोग को संपन्न कराने का मानस निर्मित किया था, जिसे श्मशान में ही संपन्न किया जाता था और वह भी शव के ऊपर आरूढ़ होकर.

शवारूढाम्महाभीमां घोर दंष्ट्राम हसंमुखीम,
चतुर्भुजांखड्ग मुण्ड वराभयकरां शिवाम्.
मुण्डमालाधरां देवीं ललज्जिह्वान्दिगम्बराम्.
एवं संचिन्त्येकत्काली श्मशानालयवासिनीम्.


काली के इस ध्यान मंत्र से स्पष्ट हैं, कि काली श्मशान में वास करती हैं, और शव पर आरूढ़ हैं.
काली की अनेकों प्रकार से साधना संभव हैं, परन्तु उस दिन पूज्यपाद सदगुरुदेव जो साधना संपन्न करा रहे थे, वह श्मशान में ही संपन्न हो सकती थी. और साधना के गूढ़तम रहस्यों को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव ने बताया कि यदि श्मशान पद्धति से काली को आत्मस्थ कर उनकी ही भांति शव पर आरूढ़ होकर इस श्मशान साधना को सिद्ध किया जायें, तो ऐसा संभव ही नहीं हैं, कि श्मशान सिद्धि और महाकाली सिद्धि प्राप्त न हो, और जब गुरु स्वयं ही इस साधना को संपन्न करावे तो अनिश्चितता जैसी कोई सम्भावना रह ही नहीं जाती हैं. परन्तु इसके लिए आवश्यक हैं, कि साधक शव पर बैठ कर मंत्र जाप करें. बिना शव पर आसीन हुए इस मंत्र जाप का कोई अर्थ नहीं होता. परन्तु इस प्रकार की श्मशान क्रियाएं सम्पन्न कराना मैं पसंद नहीं करता हूँ, क्योंकि इसके लिए शवों की आवश्यकता पड़ती हैं.

साधक पहले तो अति प्रसन्न हुए कि पूज्य गुरुदेव से एक अत्यंत उच्चा कोटि की महाविद्या साधना प्राप्त होने जा रही हैं, जो प्रथम बार में ही सिद्ध हो जाती हैं, परन्तु उनकी दूसरी बात सुनकर वे पुनः दुखी हो गए. वास्तव में बात सही थी, क्योंकि इस साधना में शवो की आवश्यकता थी, और प्रत्येक साधक के लिए ऐसी व्यवस्था करना सर्वथा असंभव और अनैतिक था. इसीलिए गुरुदेव इस प्रकार की साधना पद्धतियों का उल्लेख तो अवश्य किया करते थे, परन्तु संपन्न कभी नहीं करवाते थे.थोडी देर में साधकों को प्लाई वुड के टुकड़े दिए गए और साधकों को उन पर बैठने का आदेश दिया गया. लकडी पर मानवाकृति अंकित थी. उधर मंच पर पूज्य सदगुरुदेव आसन से तुंरत उठ खड़े हुए और गगनभेदी आवाज में जो उनका मंत्रोच्चारण प्रारम्भ हुआ तो आस पास का पूरा वातावरण एकदम ठक सा रह गया. हवा रूक गयी और चारों ओर घोर निःस्तब्धता छा गयी, बस कुछ सुनाई दे रहा था, तो गुरुदेव का अबाध गति में मंत्रोच्चार. साधक अपना दिल थामे लकडी के टुकडों पर बैठे थे. जो साधक उस समय उपस्थित थे, उन्हें गुरुधाम का वह दृश्य आज भी याद होगा.

थोडी ही देर में आसमान में चील और गिद्ध मंडराने लगे, एक दो नहीं सैकडो-हजारों की संख्या में और वातावरण में भी दुर्गन्ध सी व्याप्त होने लगी, कुछ गिद्ध तो एकदम नीचे तक आ रहे थे, जिससे साधक विचलित भी हो रहे थे. गुरुदेव आधे घंटे तक उसी अजस्त्र वेग से मंत्रोच्चार किये गए, और उसी में कई साधकों को अनेकों अनुभव हुए.वस्तुतः यही वह क्रिया होती हैं, जिसे प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं, और इसी क्रिया द्वारा एक सामान्य से लकडी के टुकड़े को या पत्थर के टुकड़े को या किसी माला यन्त्र को इच्छानुसार कोई भी रूप दिया जा सकता हैंगुरुदेव जब किसी माला को या यंत्र को किसी साधक को देते हैं, तो वह माला या यंत्र पत्थर के टुकडों की एक लड़ी या तांबे का एक टुकडा भर नहीं होता, अपितु उसमें देवताओं का अंश सुक्ष्म रूप से विराज रहा होता हैंयही प्राण प्रतिष्ठा क्रिया का महत्त्व हैंपरंतु यह क्रिया मात्र मंत्रोच्चारण तक ही सीमित नहीं होती, अपितु यह तो सदगुरु अपने प्राणों की ऊर्जा के एक अंश को ही किसी वास्तु में उतार देते हैं, जिससे साधक का कल्याण हो सकें. उसी प्राण ऊर्जा को जब किसी जड़ पदार्थ में उतरा जाता हैं, तो उसे प्राणप्रतिष्ठा कहा जाता हैं, और उसी प्राण ऊर्जा को जब किसी चेतन व्यक्ति में उतारा जाता हैं, तो उसे दीक्षा कहा जाता हैं.और प्राण प्रतिष्ठा जब हो जाती हैं, तो वही यंत्र, वही माला एक माला न रहकर एक अत्यंत दिव्य वस्तु बन जाती हैं, जो साधक का निश्चित रूप से कल्याण करने में सहायक होती हैं, क्योंकि फिर वह एक धातु नहीं रह जाती, अपितु देवताओं का निवास स्थान होती हैं. और ऐसी ही कोई दिव्य चैतन्य सामग्री प्राप्त कर जब साधक यंत्र में और देवता में बिना कोई भेद समझते हुए जब मंत्र प्रक्रिया या साधना करता हैं, तो यंत्र में निहित देवांश उपस्थित होकर उसका कल्याण करता हैं. फिर यंत्र की वह ऊर्जा स्वयं ही साधक के अन्तः में स्थित हो जाती हैं. ये यंत्र या मालाएं उस दिव्य ऊर्जा को साधक के शारीर में स्थापित करने का मात्र एक माध्यम भर ही होती हैं.

कुछ साधको का प्रश्न होता हैं, कि प्राण प्रतिष्ठा कैसे संपन्न की जाती हैं, और वे इसकी विधि पूछते हैं. ऐसे कई ग्रन्थ हैं, जिनमें प्राण प्रतिष्ठा की विधि और मंत्र दिए हुए हैं. परंतु प्राण प्रतिष्ठा की क्रिया मात्र मंत्रोच्चारण या कुछ आवश्यक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं होकर उससे भी आगे की क्रिया हैं, जो मात्र गुरु ही संपन्न कर सकते हैं, और केवल वही गुरु जिन्होंने प्राण तत्व का स्पर्श किया हो, जिनकी कुण्डलिनी पूर्ण रूप से जाग्रत हो, जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हो.
उनके दिव्व्य स्पर्श से और संकल्प से ही प्राण प्रतिष्ठा की क्रिया संपन्न हो पति हैं, ऊच्च कोटि के योगियों और गुरुओं के लिए तो मात्र एक बार विचार करना या संकल्प भर लेना ही पर्याप्त होता हैं, शेष कार्य तो स्वतः ही संपन्न हो जाते हैं.

बाद में सदगुरुदेव ने बताया कि आम के उन टुकडों को भी मंत्रों द्वारा प्रतिष्ठा कर शव का रूप दिया जा सकता हैं. उन्होंने बताया कि तुम तो शायद इसे आम का टुकडा ही समझ रहे होंगे, परन्तु इसकी गंध और इसका प्रभाव पूरा एक मुर्दा शव की तरह ही हो गया था, और वे जो हजारों गिद्ध आ गए थे, वह इसी बात का प्रमाण था, कि ये आम के टुकड़े नहीं वरण मृत मानव देह ही हैं. बाद में जब मंत्रो का विपरीत क्रम गुरुदेव ने दोहराया तब सब शांत और पूर्ववत हो गया, चील और गिद्धों का सैलाब जहाँ से उमड़ा था वहीँ वापस लौट गया.

पूज्य गुरुदेव ने सभी का मानस पढ़ लिया, साधक बहुत दुखी और निराश हो गए थे, और यही वह बिंदु होता हैं, जो गुरु से देखा नहीं जाता. सदगुरुदेव ने पुनः कहा कि कोई बात नहीं मैं इसकी व्यवस्था करूँगा और प्रत्येक साधक को यह साधना संपन्न कराऊंगा और निश्चित रूप से कराऊंगा, यह गुरु का वाक्य हैं.

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