मंत्र सिद्धि में गुरु की आवश्यकता क्यों होती है ?
मंत्र सिद्धि के लिए साधक को गुरु की नितान्त आवश्यकता होती है | इसलिए साधक अपने लिए सामर्थ्यवान गुरु की खोज करता है और चयन करता है | गुरु भी शिष्य की सुपात्रता से प्रभावित होने के उपरान्त ही अपना शिष्य स्वीकार करता है | जब गुरु साधक को अपना शिष्य बनाता है तभी वह शिष्य को दीक्षित करता है | मंत्र की सिद्धि और शक्ति की दीक्षा देता है | गुरु अपने शिष्य को मंत्र की दीक्षा शीघ्र भी दे सकता है और देर से भी | वह कब देगा यह नहीं कहा जा सकता है | वह शिष्य को यह समझकर कि यह दीक्षा देने योग्य हो गया है, इसे दीक्षा देना निरर्थक सिद्ध नहीं होगा, यह जानकर उसे उचित समय पर दीक्षा देता है | यह गुरु की इच्छा पर निर्भर करता है |
गुरु दीक्षा प्राप्त होने के बाद साधक को अपनी साधना का मार्ग सरल व सुगम लगने लग जाता है | उसके अतिरिक्त ज्ञान का विकास हो जाता है जिससे गुरु की शक्ति रूपी दीक्षा से साधक की शारीरिक व मानसिक अशुद्धियाँ स्वयमेव विलुप्त हो जाती है | क्योंकि दीक्षा एक प्रकार से शक्ति रूप व तेजपुंज होता है इसलिए गुरु की दीक्षा को हमारे भारतीय संस्कृति में एक अमूल्य व श्रेष्ठ शक्तिदान कहा गया है |
गुरु की महानता , श्रेष्ठता सर्वोपरि व निर्विवाद है | शास्त्र में बड़े -बड़े ऋषियों मुनियों द्वारा गुरु को ईश्वर तुल्य ही नहीं अपितु उससे भी महान कहा गया है | ऐसे ऐसे महान गुरुओं का इतिहास गौरवशाली व गरिमापूर्ण है जो वास्तव में ही साधक के लिए ईश्वर से भी बढ़कर सिद्ध हुए है और होते रहेंगे | भगवान राम और कृष्ण ने महर्षि विश्वामित्र , गुरु वशिष्ठ व संदीपन जैसे गुरुओं की शिष्यता ग्रहण कर गुरु की श्रेष्ठता को प्रमाणित किया है |
कबीर दास जी ने तो गुरु को महिमा का वर्णन करते हुए कहा है कि : –
गुरु गोबिंद दोउ खड़े , काको लागू पाँव |
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय ||
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय ||
अर्थात कबीर दास जी गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहते है कि मेरे समक्ष गुरु और गोविन्द अर्थात भगवान दोनों ही खड़े है | परन्तु समझ में नहीं आता कि पहले मै किसको प्रणाम करूँ | फिर गुरु की श्रेष्ठता बताते हुए स्वयं ही उत्तर देते है कि हे गुरुवर आप ही श्रेष्ठ व पूज्यनीय है क्योंकि आपने ही तो हमें ईश्वर प्राप्ति का मार्ग व ईश्वर का ज्ञान कराया है | अन्यथा मै तो ईश्वर के सम्बन्ध में बिल्कुल ही अनभिज्ञ था कोरा कागज था | इसलिए गुरु को ही पहले प्रणाम करना चाहिए फिर ईश्वर को |
कबीर दास जी कहते है की यदि ईश्वर रूठ जाये तो गुरु की शरण प्राप्त हो जाती है परन्तु यदि गुरु रूठ जाये तो कहीं भी शरण प्राप्त नहीं होती | इस प्रकार कबीर ने गुरु की श्रेष्ठता का वर्णन किया है |