प्रिय मित्रों
आपको नव वर्ष २०११ के लिए हार्दिक-२ शुभकामनाएं.
यह नव वर्ष आपके जीवन में सुख, शांति, समृद्धि, सुस्वास्थ्य, प्रसन्नता और भी बहुत कुछ लेकर आये जो आपके जीवन को दिव्यता कि और ले चले.
यह समय बहुत ही कीमती है, क्योंकि समय ही जीवन का आधार है. यह समय कुछ कर गुजरने का है; अपने अन्तःकरण कि पुकार सुनिए और वह सब करिए जो आपको मनुष्य कहलाने योग्य बनाता है.जो जीवन का आधार बनाते है ऐसे गुरु ही क्रांति दूत है जिन्होंने अपने जीवन से लोगो को राह दिखलाई कि सच्चा मनुष्य क्या होता है. वह मनुष्य से ऋषि, देवता कैसे बनता है.
यह क्रांति गीत हमारे जीवन को दिशा दे, हम नव वर्ष को अपने जीवन का हर्ष बनाले! यही कामना!
हाथ पर यूँ हाथ रखकर तुम न बैठो , सोच लो यह समय संक्रांति का है !
सावधानी से तुम्हें हर पग बढ़ाना, यह समय हर ओर घोर अशांति का है .
हर तरफ है दृश्य ऐसा, इस समय की धार में बिगड़ा हुआ हर संतुलन है .
सब ढलानों पर फिसलते जा रहे हैं इस तरह निश्चित पराभव है पतन है .
सावधानी से तुम्हें हर पग बढ़ाना, यह समय हर ओर घोर अशांति का है !
हाथ पर यूँ हाथ रखकर तुम न बैठो , सोच लो यह समय संक्रांति का है !!
आत्म बल लेकर अगर तुम बढ़ सकोगे, लक्ष्य पर ही दृष्टि यदि हर पल रहेगी .
तो समझ लो इस भयंकर धार में भी, नाव मनचाही दिशा में ही बहेगी.
आज तो निश्चित अडिग संकल्प ले लो, यह समय बिलकुल न अब दिग्भ्रांति का है !..
हाथ पर यूँ हाथ रखकर तुम न बैठो , सोच लो यह समय संक्रांति का है !!
Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Tuesday, January 4, 2011
Placed his hands on the hand you do not sit like that, think of the solstice is the time!
Labels:
happy new year 2011
Friday, December 17, 2010
Nikhil Elements Overview
निखिल तत्त्व अवलोकन Nikhil Elements Overview
ल तत्वार्थ - लं बीज पृथ्वी तत्त्व का कारक है एवं उसका स्थान है मूलाधार। इसलिए "ल" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है इस संपूर्ण स्थूल चराचर जगत का।
खि तत्वार्थ - खं शब्द का अर्थ संस्कृत में है - आकाश (Ether) और इकार है आद्यशक्ति का द्योतक। जैसे, 'शव' में जब 'इकार' का योग होता है तब ही वह "शिव" मेंपरिवर्तित होता है। इसीलिए "खि" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है ब्रम्हाण्ड में स्थित उन सुक्ष्म शक्तियों का जिनकी परिपाटी पर कई अगम्य अगोचर जगत विद्यमान हैं।
नि तत्वार्थ - "नि" उपसर्ग एक "पर (BEYOND)" की स्थिति दर्शाता है। स्वार्थ, 'नि' से युक्त होकर निःस्वार्थ हो जाता है, आकार - निराकार, कलंक - निष्कलंक,आधार - निराधार, विकार - निर्विकार, द्वन्द - निर्द्वंद........."नि" उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है जो की स्थूल एवं सुक्ष्म दोनों से ही "पर" है।
नि-खि-ल प्रतिक है, इन सभी जगतों का...
स्थूल - ल (GROSS)...आधिभौतिक
सुक्ष्म - खि (SUBTLE)...आधिदैविक
परा - नि (BEYOND)...आध्यात्मिक
और जो सत्ता इन तीनों जगत का संचालक है, पालक-पोषक है, इश्वर है, वही सत्ता है "निखिलेश्वर", वही तत्त्व है - "निखिलेश्वरानंद"।
॥ निखिलं वंदे जगद्गुरुम्||
ल तत्वार्थ - लं बीज पृथ्वी तत्त्व का कारक है एवं उसका स्थान है मूलाधार। इसलिए "ल" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है इस संपूर्ण स्थूल चराचर जगत का।
खि तत्वार्थ - खं शब्द का अर्थ संस्कृत में है - आकाश (Ether) और इकार है आद्यशक्ति का द्योतक। जैसे, 'शव' में जब 'इकार' का योग होता है तब ही वह "शिव" मेंपरिवर्तित होता है। इसीलिए "खि" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है ब्रम्हाण्ड में स्थित उन सुक्ष्म शक्तियों का जिनकी परिपाटी पर कई अगम्य अगोचर जगत विद्यमान हैं।
नि तत्वार्थ - "नि" उपसर्ग एक "पर (BEYOND)" की स्थिति दर्शाता है। स्वार्थ, 'नि' से युक्त होकर निःस्वार्थ हो जाता है, आकार - निराकार, कलंक - निष्कलंक,आधार - निराधार, विकार - निर्विकार, द्वन्द - निर्द्वंद........."नि" उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है जो की स्थूल एवं सुक्ष्म दोनों से ही "पर" है।
नि-खि-ल प्रतिक है, इन सभी जगतों का...
स्थूल - ल (GROSS)...आधिभौतिक
सुक्ष्म - खि (SUBTLE)...आधिदैविक
परा - नि (BEYOND)...आध्यात्मिक
और जो सत्ता इन तीनों जगत का संचालक है, पालक-पोषक है, इश्वर है, वही सत्ता है "निखिलेश्वर", वही तत्त्व है - "निखिलेश्वरानंद"।
॥ निखिलं वंदे जगद्गुरुम्||
Labels:
Nikhil Elements Overview
RECENT SHIVIRS
RECENT UPDATES OF ALL THE SHIVIRS WHICH ARE GOING TO BE PERFORMED UNDER THE REVERRED BHAGWAN NIKHILESHWAR
PARAM PUJYA BHAGWAN ARVIND GURUDEVJI KI SHIVIRS1. 26 december,2010
kuber yantra sadhna shivir, VALSAAD,GUJRAT
Address- Rajput samaj hall, near kasturba hospital, Valsaad city,gujrat
Contact- devender panchal-09998874612,08860556793, jayesh panchaal- 09427479275, shankar bhai prajapati-09978196517.
PARAM PUJYA BHAGWAN NAND KISHORE GURUDEVJI KI SHIVIRS
1) 18-19 December
Aadhya Shakti Sadhna Shivir
Bhimakali Mandir Parisar
Mandi(H.P)
9418065655,9418771841
PARAM PUJYA BHAGWAN KAILASH GURUDEVJI KI SHIVIRS!!!
2) 12 th Dec.-NAGPUR (MAHARASHTRA)
"Ashorya lakshmi sadhna shivir"digori,nagpur.
ADDRESS : PRAGATI SANSKRITIK BHAWAN, DIGORI, NAGPUR.
contact-9766797866, 9373218380
3) 14th december, "NAVAARN SHAKTI SATRU HANTA SADHANA SHIVIR" , dharmdaye cotton fund , amravati , 150km from nagpur station & 10km from badnera station , maharashtra.
contact-07223227194, 09826130684
4) 19th december, " TANTRA BAADHA MUKTI LAXMI SADHANA SHIVIR" , paras place ,malviya chowk , jabalpur, madhya pardesh.contact- vijay joshi-09300879776,09826130684
5) 21st december, "POORNTA PRAPTI BAHGYODAY SADHANA SHIVIR". COMMUNITY HALL , NEAR STADIUM , umaria, madhya pardesh.contact-kk chandra-9303127059,09826130684
6)22nd december, "MAHAMRITUNJAAY SHIVATA SADHANA SHIVIR" , BANKIM BIHAR , COMMUNITY HALL , JAMUNA-KOTMA, DIST. : ANUPPUR (M,.P.)contact-kk chandra-9303127059,09826130684
7) 24th december, "NIKHIL CHETANA KUBER SADHANA SHIVIR " , DURGA MANDIR HALL , GANDHI CHOWK , AMBIKAPUR (chattisgarh.).
contact-09926138808,09826130684
PARAM PUJYA BHAGWAN ARVIND GURUDEVJI KI SHIVIRS1. 26 december,2010
kuber yantra sadhna shivir, VALSAAD,GUJRAT
Address- Rajput samaj hall, near kasturba hospital, Valsaad city,gujrat
Contact- devender panchal-09998874612,08860556793, jayesh panchaal- 09427479275, shankar bhai prajapati-09978196517.
PARAM PUJYA BHAGWAN NAND KISHORE GURUDEVJI KI SHIVIRS
1) 18-19 December
Aadhya Shakti Sadhna Shivir
Bhimakali Mandir Parisar
Mandi(H.P)
9418065655,9418771841
PARAM PUJYA BHAGWAN KAILASH GURUDEVJI KI SHIVIRS!!!
2) 12 th Dec.-NAGPUR (MAHARASHTRA)
"Ashorya lakshmi sadhna shivir"digori,nagpur.
ADDRESS : PRAGATI SANSKRITIK BHAWAN, DIGORI, NAGPUR.
contact-9766797866, 9373218380
3) 14th december, "NAVAARN SHAKTI SATRU HANTA SADHANA SHIVIR" , dharmdaye cotton fund , amravati , 150km from nagpur station & 10km from badnera station , maharashtra.
contact-07223227194, 09826130684
4) 19th december, " TANTRA BAADHA MUKTI LAXMI SADHANA SHIVIR" , paras place ,malviya chowk , jabalpur, madhya pardesh.contact- vijay joshi-09300879776,09826130684
5) 21st december, "POORNTA PRAPTI BAHGYODAY SADHANA SHIVIR". COMMUNITY HALL , NEAR STADIUM , umaria, madhya pardesh.contact-kk chandra-9303127059,09826130684
6)22nd december, "MAHAMRITUNJAAY SHIVATA SADHANA SHIVIR" , BANKIM BIHAR , COMMUNITY HALL , JAMUNA-KOTMA, DIST. : ANUPPUR (M,.P.)contact-kk chandra-9303127059,09826130684
7) 24th december, "NIKHIL CHETANA KUBER SADHANA SHIVIR " , DURGA MANDIR HALL , GANDHI CHOWK , AMBIKAPUR (chattisgarh.).
contact-09926138808,09826130684
Friday, December 3, 2010
About GYANGUNJ
सिद्धाश्रम अध्यात्म जीवन का वह अंतिम आश्रय स्थल हैं, जिसकी उपमा संसार में हो ही नहीं सकती! देवलोक और इन्द्रलोक बभी इसके सामने तुच्छ हैं! यहाँ भौतिकता का बिलकुल ही अस्तित्व नहीं हैं! सिद्धाश्रम पूर्णतः आध्यात्मिक एवं पारलौकिक भावनाओं और चिन्तनो से सम्बंधित हैं! यह जीवन का सौभाग्य होता हैं, यदि सशरीर ही व्यक्ति वहां पहुँच पाए!
सिद्धाश्रम शब्द ही अपने-आप में जीवन की श्रेष्ठता और दिव्यता हैं, वहां पहुचना ही मानव देह की सार्थकता हैं! जब व्यक्ति सामान्य मानव जीवन से उठकर साधक बनता हैं, साधक से योगी और योगी से परमहंस बनता हैं, उसके बाद ही सिद्धाश्रम प्रवेश की सम्भावना बनती हैं, जिसके कण-कण में अद्भुत दिव्यता का वास हैं, जिसके वातावरण में एक ओजस्वी प्रवाह हैं, जिसकी वायु में कस्तूरी से भी बढ़कर मदहोशी हैं, जिसके जल में अमृत जैसी शीतलता हैं तथा जिसके हिमखंडों में चांदी-सी आभा निखरती प्रतीत होती हैं!
आज भी जहाँ ब्रह्मा उपस्थित होकर चारों वेदों का उच्चारण करते हैं! जहाँ विष्णु सशरीर उपस्थित हैं! जहाँ भगवन शंकर भी विचरण करते दिखाई देते हैं! जहाँ उच्चकोटि के देवता भी आने के लिए तरसते हैं! जहाँ गन्धर्व अपनी उच्च कलाओं के साथ दिखाई देते हैं! जहाँ मुनि, साधू, सन्यासी एवं योगी अपने अत्यंत तेजस्वी रूप में विचरण करते हुए दिखाई देते हैं! जहाँ पशु-पक्षी भी हर क्षण अपनी विविध क्रीडाओं से उमंग एवं मस्ती का बोध कराते हैं!
सिद्धाश्रम में गंधर्वों के मधुरिम संगीत पर अप्सराओं के थिरकते कदम, सिद्धयोग झील में उठती-टूटती तरंगों की कलकल करती ध्वनि, पक्षियों का कलरव तथा भंवरों के गुंजन..... सभी में गुरु-वंदना का ही बोध होता रहता हैं!
“पूज्यपाद स्वामी सच्चिदानंद जी” सिद्धाश्रम के संस्थापक एवं संचालक हैं, जिनके दर्शन मात्र से ही देवता धन्य हो जाते हैं, जिनके चरणों में ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र स्वयं उपस्थित होकर आराधना करते हैं, रम्भा, उर्वशी, और मेनका नृत्य करके अपने सौभाग्य की श्रेयता को प्राप्त करती हैं! जिनका रोम-रोम तपस्यामय हैं! जिनके दर्शन मात्र से ही पूर्णता प्राप्त होती हैं!
सिद्धाश्रम में मृत्यु का भय नहीं हैं, क्योंकि यमराज उस सिद्धाश्रम में प्रवेश नहीं कर पते! जहाँ वृद्धता व्याप्त नहीं हो सकती, जहाँ का कण-कण यौवनवान और स्फूर्तिवान बना रहता हैं! जहाँ के जीवन में हलचल हैं, आवेग हैं, मस्ती हैं, तरंग हैं! जहाँ उच्चकोटि क्र ऋषि अपने शिष्यों को ज्ञान के सूक्ष्म सूत्र समझा रहे होते हैं! कहीं पर साधना संपन्न हो रही हैं, कहीं पर मन्त्रों के मनन-चिंतन हो रहे हैं! कहीं पर यज्ञ का सुगन्धित धूम्र चारो और बिखरा हुआ हैं! जहाँ श्रेष्ठतम पर्णकुटीर बनी हुयी हैं, उनमें ऋषि, मुनि और तापस-गण निवास करते हैं!
सिद्धाश्रम शब्द ही अपने-आप में जीवन की श्रेष्ठता और दिव्यता हैं, वहां पहुचना ही मानव देह की सार्थकता हैं! जब व्यक्ति सामान्य मानव जीवन से उठकर साधक बनता हैं, साधक से योगी और योगी से परमहंस बनता हैं, उसके बाद ही सिद्धाश्रम प्रवेश की सम्भावना बनती हैं, जिसके कण-कण में अद्भुत दिव्यता का वास हैं, जिसके वातावरण में एक ओजस्वी प्रवाह हैं, जिसकी वायु में कस्तूरी से भी बढ़कर मदहोशी हैं, जिसके जल में अमृत जैसी शीतलता हैं तथा जिसके हिमखंडों में चांदी-सी आभा निखरती प्रतीत होती हैं!
आज भी जहाँ ब्रह्मा उपस्थित होकर चारों वेदों का उच्चारण करते हैं! जहाँ विष्णु सशरीर उपस्थित हैं! जहाँ भगवन शंकर भी विचरण करते दिखाई देते हैं! जहाँ उच्चकोटि के देवता भी आने के लिए तरसते हैं! जहाँ गन्धर्व अपनी उच्च कलाओं के साथ दिखाई देते हैं! जहाँ मुनि, साधू, सन्यासी एवं योगी अपने अत्यंत तेजस्वी रूप में विचरण करते हुए दिखाई देते हैं! जहाँ पशु-पक्षी भी हर क्षण अपनी विविध क्रीडाओं से उमंग एवं मस्ती का बोध कराते हैं!
सिद्धाश्रम में गंधर्वों के मधुरिम संगीत पर अप्सराओं के थिरकते कदम, सिद्धयोग झील में उठती-टूटती तरंगों की कलकल करती ध्वनि, पक्षियों का कलरव तथा भंवरों के गुंजन..... सभी में गुरु-वंदना का ही बोध होता रहता हैं!
“पूज्यपाद स्वामी सच्चिदानंद जी” सिद्धाश्रम के संस्थापक एवं संचालक हैं, जिनके दर्शन मात्र से ही देवता धन्य हो जाते हैं, जिनके चरणों में ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र स्वयं उपस्थित होकर आराधना करते हैं, रम्भा, उर्वशी, और मेनका नृत्य करके अपने सौभाग्य की श्रेयता को प्राप्त करती हैं! जिनका रोम-रोम तपस्यामय हैं! जिनके दर्शन मात्र से ही पूर्णता प्राप्त होती हैं!
सिद्धाश्रम में मृत्यु का भय नहीं हैं, क्योंकि यमराज उस सिद्धाश्रम में प्रवेश नहीं कर पते! जहाँ वृद्धता व्याप्त नहीं हो सकती, जहाँ का कण-कण यौवनवान और स्फूर्तिवान बना रहता हैं! जहाँ के जीवन में हलचल हैं, आवेग हैं, मस्ती हैं, तरंग हैं! जहाँ उच्चकोटि क्र ऋषि अपने शिष्यों को ज्ञान के सूक्ष्म सूत्र समझा रहे होते हैं! कहीं पर साधना संपन्न हो रही हैं, कहीं पर मन्त्रों के मनन-चिंतन हो रहे हैं! कहीं पर यज्ञ का सुगन्धित धूम्र चारो और बिखरा हुआ हैं! जहाँ श्रेष्ठतम पर्णकुटीर बनी हुयी हैं, उनमें ऋषि, मुनि और तापस-गण निवास करते हैं!
Wednesday, December 1, 2010
Monday, October 18, 2010
Guru Mantra Mystery Part -4
गुरु मंत्र रहस्य भाग - ४
'अगले बीज 'यो' का अर्थ है - 'योनी'| मानव जन्म के विषय में कहा जाता है, कि यह तभी प्राप्त होता है, जब जीव विभिन्न, चौरासी लाख योनियों में विचरण कर लेता है, परन्तु इस बीज के दिव्य प्रभाव से व्यक्ति अपनी समस्त पाप राशि को भस्म करने में सफल हो जाता है और फिर उसे पुनः निम्न योनियों में जन्म लेना नहीं पड़ता|
'योनी का एक दूसरा अर्थ है - शिव कि शिवा (शक्ति), ब्रह्माण्ड का मुख्य स्त्री तत्व, ऋणात्मक शक्ति| सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी शक्ति के फलस्वरूप गतिशील है और साधक इस बीज को सिद्ध कर लेता है, उसके शरीर में हजारों अणु बमों की शक्ति उतर आती है|'
मैं उनकी ओर भाव शून्य आँखों से ताक रहा था| मेरे संशय युक्त चहरे पर देख उन्होनें मुझे आश्वस्त करने के लिये एक शब्द भी नहीं कहा, बल्कि ऐसा कुछ किया, जो इससे लाख गुणा बेहतर था| उन्होनें अपनी दृष्टि एक विशाल चट्टान पर स्थिर कि, जो कि मेरी दाहिनी तरफ लगभग १५ मीटर की दूरी पर स्थित थी... और दुसरे ही क्षण एक भयंकर विस्फोट के साथ उसका नामोनिशान मिट गया|
भय और विस्मय एक साथ मेरे चहरे पर क्रीडा कर रहे थे, साथ ही मेरे रक्तहीन चेहरे पर विश्वास कि किरणें भी उभर रही थीं| उन्होनें अपनी 'कथनी' को 'करनी' में बदल दिया था, इससे अधिक और क्या हो सकता था...
'इसके अलावा- उन्होनें सामान्य ढंग से बात आगे बढाई, मानो कुछ हुआ न हो - 'ऐसा व्यक्ति अपने दिव्य व्यक्तित्व को छुपाने के लिए दूसरों पर माया का एक आवरण डाल सकता है, अद्वितीय एवं सर्वोत्तम व्यक्तित्व होने पर भी वह इस तरह बर्ताव करता है, कि आसपास के सभी लोग उसे सामान्य व्यक्ति समझने की भयंकर भूल कर बैठते हैं| वह सामान्य लोगों की तरह ही उठता-बैठता है, खाता-पीता है, हसता-रोता है, अतः लोग उसके वास्तविक स्वरुप को न तो देख पाते हैं और न ही पहचान पाते हैं|'
सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर अपने मंद प्रकाश की छटा बिखेरता हुआ अस्तांचल की ओर खिसक रहा था, पशु-पक्षी अपने-अपने घरों की ओर विश्राम के लिए जा रहे थे| मैं उसी मुद्रा में बुत सा विस्मय के साथ त्रिजटा के द्वारा इन रहस्यों को उजागर होते हुए सुन रहा था| हम कॉफ़ी पी चुके थे और उसकी सामग्री शुन्य में उसी रहस्यमय ढंग से विलुप्त हो गई थी, जिस प्रकार से आई थी| मैं सोच रहा था, कि गुरु मंत्र में कितनी सारी गूढ़ संभावनाएं छुपी हुई हैं और मैं अज्ञानियों कि भांति तथाकथित श्रेणी की छोटी-मोटी साधनाओं के पीछे पडा हूं| मैं यही सोच रहा था, जब त्रिजटा कि किंचित तेज आवाज ने मेरे विचार-क्रम को भंग कर दिया|
'मैं देख रहा हूं, कि तुम ध्यान पूर्वक नहीं सुन रहे हो' - उसके शब्द क्रोधयुक्त थे - 'और यदि यहीं तुम्हारा व्यवहार है, तो मैं आगे एक शब्द भी नहीं कहूंगा|'
'ओह! नहीं...मैं तो स्वप्न में भी आपको या आपके प्रवचन की उपेक्षा करने की नहीं सोच सकता...मैं तो अपनी और दुसरे अन्य साधकों की न्यून मानसिकता पर तरस खा रहा हूं, जो कि गुरु मंत्र रुपी 'कौस्तुभ मणि' प्राप्त कर के भी दूसरी अन्य साधनाओं के कंकड़-पत्थरों की पीछे पागल हैं...'
एक अनिर्वचनीय मुस्कराहट उनके होठों पर फैल गई और उनकी आँखों में संतोष कि किरणें झलक उठी| वे समझ गए, कि मैंने उनकी हर बात बखूबी हृदयंगम कर ली है, अतः वे अत्याधिक प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे|
'आखिरी शब्द का पहला बीज है 'न' अर्थात 'नवीनता', जिसका अर्थ है - एक नयापन, एक नूतनता और ऐसी अद्वितीय क्षमता, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने आपको अथवा दूसरों को भी समय की मांग के अनुसार ढाल सकता है, बदल सकता है या चाहे तो ठीक इसके विपरीत भी कर सकता है अर्थात समय को अपनी मांगों के अनुकूल बना सकता है| जो व्यक्ति इस बीज को पूर्णता के साथ आत्मसात कर लेता है, वह किसी भी समाज में जाएं, वहां उसे साम्मान प्राप्त होता है, फलस्वरूप वह हर कार्य में सफल होता हुआ शीघ्रातिशीघ्र शीर्षस्थ स्थान पर पहुंच जाता है, जीवन में उसे किसी भी प्रकार की कोई कमी महसूस नहीं होती|'
'वह किसी भी व्यवसाय में हाथ डाले, हमेशा सफल होता है और समय-समय पर वह अपने बाह्य व्यक्तित्व को बदलने में सक्षम होता है, उदाहरण के तौर पर अपना कद, रंग-रूप, आँखों का रंग आदि| जब कोई उसे व्यक्ति उससे मिलता है, हर बार वह एक नवीन स्वरुप में दिखाई देता है| ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार हर क्षण परिवर्तित हो सकता है और अपने आसपास के लोगों
को आश्चर्यचकित कर सकता है|'
'इसका सूक्ष्म अर्थ यह है, कि उसका कोई भी व्यक्तित्व इतनी देर तक ही रहता है, कि वह इच्छाओं एवं विभिन्न पाशों में जकड़ा जाये| हर क्षण पुराना व्यक्तित्व नष्ट होकर एक नवीन, पवित्र, व्यक्तित्व में परिवर्तित होता रहता है| इसी को नवीनता कहते हैं| ऐसा व्यक्ति हर प्रकार के कर्म करता हुआ भी उनसे और उनके परिणामों से अछूता रहता है|'
'अंतिम बीज 'म' 'मातृत्व' का बोधक है, जिसका अर्थ है असीमित ममता, दया और व्यक्ति को उत्थान की ओर अग्रसर करने की शक्ति, जो मात्र माँ अथवा मातृ स्वरूपा प्रकृति में ही मिलती है| माँ कभी भी क्रूर एवं प्रेम रहित नहीं हो सकती, यही सत्य है| शंकराचार्य ने इसी विषय पर एक भावात्मक पंक्ति कही है -
'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति|'
अर्थात 'पुत्र तो कुमार्गी एवं कुपुत्र हो सकता है, परन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती| वह हमेशा ही अपनी संतान को अपने जीवन से ज्यादा महत्त्व देती है|'
'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति स्वयं दया और मातृत्व का एक सागर बन जाता है| फिर वह जगज्जननी मां की भांति ही हर किसी के दुःख और परेशानियों को अपने ऊपर लेने को तत्पर हो, उनको सुख पहुंचाने की चेष्टा करता रहता है| वह अपनी सिद्धियों और शक्तियों का उपयोग केवल और केवल दूसरों की एवं मानव जाति कि भलाई के लिए ही करता है| बुद्ध और महावीर इस स्थिति के अच्छे उदाहरण है|'
त्रिजटा अचानक चुप हो गए और अब वे अपने आप में ही खोये हुए मौन बैठे थे| मर्यादानुकुल मुझ उनके विचारों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था, परन्तु मैं तो गुरु मंत्र के विषय में ज्यादा से ज्यादा जानने का व्यग्र था|
मैं जान-बूझ कर कई बार खांसा और अंततः उनकी आँखें एक बार फिर मेरी ओर घूम गई ..वे गीली थीं...
'जो कुछ भी मैंने गुरु मंत्र के बारे में उजागर किया है' ...उन्होनें कहा - 'यह वास्तविकता का शतांश भी नहीं है और सही कहूं तो यदि कोई इसकी दस ग्रंथों में भी विवेचना करना चाहे, तो यह संभव नहीं, परन्तु ...' उनकी आंखों का भाव सहसा बदल गया था - 'परन्तु मैं सौ से ऊपर उच्चकोटि के योगियों, संन्यासियों, यतियों को जानता हूं, जिनके सामने सारा सिद्धाश्रम नतमस्तक है और उन्होनें इसी षोड़शाक्षर मंत्र द्वारा ही पूर्णता प्राप्त की है...'
'कई गृहस्थों ने इसी के द्वारा जीवन में सफलता और सम्पन्नता की उचाईयों को छुआ है| औरों की क्या कहूं स्वयं मैंने भी 'परकाया प्रवेश सिद्धि' और 'ब्रह्माण्ड स्वरुप सिद्धि' इसी मंत्र के द्वारा प्राप्त की है..'
उनकी विशाल देह में भावो के आवेग उमड़ रहे थे| वे किसी खोये हुए बालक की भांति प्रतीत हो रहे थे, जो अपनी मां को पुकार रहा हो, प्रेमाश्रु उनके चहरे पर अनवरत बह रहे थे, जबकि उनके नेत्र उगते हुए चन्द्र की ज्योत्स्ना पर लगे हुए थे|
'तुम इस व्यक्तित्व (श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी) अमुल्यता की कल्पना भी नहीं कर सकते, जिसका मंत्र तुम सबको देवताओं की श्रेणी में पहुंचाने में सक्षम है|'
"श्री सार्थक्यं नारायणः'
- 'वे तुम्हें सब कुछ खेल-खेल में प्रदान कर सकते हैं| अभी भी समय है, कंकड़-पत्थरों को छोडो और सीधे जगमगाते हीरक खण्ड को प्राप्त कर लो|'
ऐसा कहते-कहते उन्होनें मेरी ओर एक छटा युक्त रुद्राक्ष एव स्फटिक की माला उछाली और तीव्र गति से एक चट्टान के पीछे पूर्ण भक्ति भाव से उच्चरित करते हुए चले गए -
नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
बिजली की तीव्रता के साथ मैं उठा और त्रिजटा के पीछे भागा..परन्तु चट्टान के पीछे कोई भी न था..केवल शीतल पवन तीव्र वेग से बहता हुआ मेरे केश उड़ा रहा था| वे वायु में ही विलीन हो गए थे| मैं मन ही मन उस निष्काम दिव्य मानव को श्रद्धा से प्रणिपात किया, जिसने गुरु मंत्र के विषय में गूढ़तम रहस्य मेरे सामने स्पष्ट कर दिए थे|
..तभी अचानक मेरी दृष्टी नीचे अन्धकार से ग्रसित घाटी पर गई, ऊपर शून्य में 'निखिल' (संस्कृत में पूर्ण चन्द्र को 'निखिल' भी कहते हैं) अपने पूर्ण यौवन के साथ जगमगा कर चातुर्दिक प्रकाश फैला रहा था और ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो सारा वायुमंडल, सारी प्रकृति उस दिव्य श्लोक के नाद से गुज्जरित हो रही हो -
नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जुलाई २०१०
'अगले बीज 'यो' का अर्थ है - 'योनी'| मानव जन्म के विषय में कहा जाता है, कि यह तभी प्राप्त होता है, जब जीव विभिन्न, चौरासी लाख योनियों में विचरण कर लेता है, परन्तु इस बीज के दिव्य प्रभाव से व्यक्ति अपनी समस्त पाप राशि को भस्म करने में सफल हो जाता है और फिर उसे पुनः निम्न योनियों में जन्म लेना नहीं पड़ता|
'योनी का एक दूसरा अर्थ है - शिव कि शिवा (शक्ति), ब्रह्माण्ड का मुख्य स्त्री तत्व, ऋणात्मक शक्ति| सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी शक्ति के फलस्वरूप गतिशील है और साधक इस बीज को सिद्ध कर लेता है, उसके शरीर में हजारों अणु बमों की शक्ति उतर आती है|'
मैं उनकी ओर भाव शून्य आँखों से ताक रहा था| मेरे संशय युक्त चहरे पर देख उन्होनें मुझे आश्वस्त करने के लिये एक शब्द भी नहीं कहा, बल्कि ऐसा कुछ किया, जो इससे लाख गुणा बेहतर था| उन्होनें अपनी दृष्टि एक विशाल चट्टान पर स्थिर कि, जो कि मेरी दाहिनी तरफ लगभग १५ मीटर की दूरी पर स्थित थी... और दुसरे ही क्षण एक भयंकर विस्फोट के साथ उसका नामोनिशान मिट गया|
भय और विस्मय एक साथ मेरे चहरे पर क्रीडा कर रहे थे, साथ ही मेरे रक्तहीन चेहरे पर विश्वास कि किरणें भी उभर रही थीं| उन्होनें अपनी 'कथनी' को 'करनी' में बदल दिया था, इससे अधिक और क्या हो सकता था...
'इसके अलावा- उन्होनें सामान्य ढंग से बात आगे बढाई, मानो कुछ हुआ न हो - 'ऐसा व्यक्ति अपने दिव्य व्यक्तित्व को छुपाने के लिए दूसरों पर माया का एक आवरण डाल सकता है, अद्वितीय एवं सर्वोत्तम व्यक्तित्व होने पर भी वह इस तरह बर्ताव करता है, कि आसपास के सभी लोग उसे सामान्य व्यक्ति समझने की भयंकर भूल कर बैठते हैं| वह सामान्य लोगों की तरह ही उठता-बैठता है, खाता-पीता है, हसता-रोता है, अतः लोग उसके वास्तविक स्वरुप को न तो देख पाते हैं और न ही पहचान पाते हैं|'
सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर अपने मंद प्रकाश की छटा बिखेरता हुआ अस्तांचल की ओर खिसक रहा था, पशु-पक्षी अपने-अपने घरों की ओर विश्राम के लिए जा रहे थे| मैं उसी मुद्रा में बुत सा विस्मय के साथ त्रिजटा के द्वारा इन रहस्यों को उजागर होते हुए सुन रहा था| हम कॉफ़ी पी चुके थे और उसकी सामग्री शुन्य में उसी रहस्यमय ढंग से विलुप्त हो गई थी, जिस प्रकार से आई थी| मैं सोच रहा था, कि गुरु मंत्र में कितनी सारी गूढ़ संभावनाएं छुपी हुई हैं और मैं अज्ञानियों कि भांति तथाकथित श्रेणी की छोटी-मोटी साधनाओं के पीछे पडा हूं| मैं यही सोच रहा था, जब त्रिजटा कि किंचित तेज आवाज ने मेरे विचार-क्रम को भंग कर दिया|
'मैं देख रहा हूं, कि तुम ध्यान पूर्वक नहीं सुन रहे हो' - उसके शब्द क्रोधयुक्त थे - 'और यदि यहीं तुम्हारा व्यवहार है, तो मैं आगे एक शब्द भी नहीं कहूंगा|'
'ओह! नहीं...मैं तो स्वप्न में भी आपको या आपके प्रवचन की उपेक्षा करने की नहीं सोच सकता...मैं तो अपनी और दुसरे अन्य साधकों की न्यून मानसिकता पर तरस खा रहा हूं, जो कि गुरु मंत्र रुपी 'कौस्तुभ मणि' प्राप्त कर के भी दूसरी अन्य साधनाओं के कंकड़-पत्थरों की पीछे पागल हैं...'
एक अनिर्वचनीय मुस्कराहट उनके होठों पर फैल गई और उनकी आँखों में संतोष कि किरणें झलक उठी| वे समझ गए, कि मैंने उनकी हर बात बखूबी हृदयंगम कर ली है, अतः वे अत्याधिक प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे|
'आखिरी शब्द का पहला बीज है 'न' अर्थात 'नवीनता', जिसका अर्थ है - एक नयापन, एक नूतनता और ऐसी अद्वितीय क्षमता, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने आपको अथवा दूसरों को भी समय की मांग के अनुसार ढाल सकता है, बदल सकता है या चाहे तो ठीक इसके विपरीत भी कर सकता है अर्थात समय को अपनी मांगों के अनुकूल बना सकता है| जो व्यक्ति इस बीज को पूर्णता के साथ आत्मसात कर लेता है, वह किसी भी समाज में जाएं, वहां उसे साम्मान प्राप्त होता है, फलस्वरूप वह हर कार्य में सफल होता हुआ शीघ्रातिशीघ्र शीर्षस्थ स्थान पर पहुंच जाता है, जीवन में उसे किसी भी प्रकार की कोई कमी महसूस नहीं होती|'
'वह किसी भी व्यवसाय में हाथ डाले, हमेशा सफल होता है और समय-समय पर वह अपने बाह्य व्यक्तित्व को बदलने में सक्षम होता है, उदाहरण के तौर पर अपना कद, रंग-रूप, आँखों का रंग आदि| जब कोई उसे व्यक्ति उससे मिलता है, हर बार वह एक नवीन स्वरुप में दिखाई देता है| ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार हर क्षण परिवर्तित हो सकता है और अपने आसपास के लोगों
को आश्चर्यचकित कर सकता है|'
'इसका सूक्ष्म अर्थ यह है, कि उसका कोई भी व्यक्तित्व इतनी देर तक ही रहता है, कि वह इच्छाओं एवं विभिन्न पाशों में जकड़ा जाये| हर क्षण पुराना व्यक्तित्व नष्ट होकर एक नवीन, पवित्र, व्यक्तित्व में परिवर्तित होता रहता है| इसी को नवीनता कहते हैं| ऐसा व्यक्ति हर प्रकार के कर्म करता हुआ भी उनसे और उनके परिणामों से अछूता रहता है|'
'अंतिम बीज 'म' 'मातृत्व' का बोधक है, जिसका अर्थ है असीमित ममता, दया और व्यक्ति को उत्थान की ओर अग्रसर करने की शक्ति, जो मात्र माँ अथवा मातृ स्वरूपा प्रकृति में ही मिलती है| माँ कभी भी क्रूर एवं प्रेम रहित नहीं हो सकती, यही सत्य है| शंकराचार्य ने इसी विषय पर एक भावात्मक पंक्ति कही है -
'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति|'
अर्थात 'पुत्र तो कुमार्गी एवं कुपुत्र हो सकता है, परन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती| वह हमेशा ही अपनी संतान को अपने जीवन से ज्यादा महत्त्व देती है|'
'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति स्वयं दया और मातृत्व का एक सागर बन जाता है| फिर वह जगज्जननी मां की भांति ही हर किसी के दुःख और परेशानियों को अपने ऊपर लेने को तत्पर हो, उनको सुख पहुंचाने की चेष्टा करता रहता है| वह अपनी सिद्धियों और शक्तियों का उपयोग केवल और केवल दूसरों की एवं मानव जाति कि भलाई के लिए ही करता है| बुद्ध और महावीर इस स्थिति के अच्छे उदाहरण है|'
त्रिजटा अचानक चुप हो गए और अब वे अपने आप में ही खोये हुए मौन बैठे थे| मर्यादानुकुल मुझ उनके विचारों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था, परन्तु मैं तो गुरु मंत्र के विषय में ज्यादा से ज्यादा जानने का व्यग्र था|
मैं जान-बूझ कर कई बार खांसा और अंततः उनकी आँखें एक बार फिर मेरी ओर घूम गई ..वे गीली थीं...
'जो कुछ भी मैंने गुरु मंत्र के बारे में उजागर किया है' ...उन्होनें कहा - 'यह वास्तविकता का शतांश भी नहीं है और सही कहूं तो यदि कोई इसकी दस ग्रंथों में भी विवेचना करना चाहे, तो यह संभव नहीं, परन्तु ...' उनकी आंखों का भाव सहसा बदल गया था - 'परन्तु मैं सौ से ऊपर उच्चकोटि के योगियों, संन्यासियों, यतियों को जानता हूं, जिनके सामने सारा सिद्धाश्रम नतमस्तक है और उन्होनें इसी षोड़शाक्षर मंत्र द्वारा ही पूर्णता प्राप्त की है...'
'कई गृहस्थों ने इसी के द्वारा जीवन में सफलता और सम्पन्नता की उचाईयों को छुआ है| औरों की क्या कहूं स्वयं मैंने भी 'परकाया प्रवेश सिद्धि' और 'ब्रह्माण्ड स्वरुप सिद्धि' इसी मंत्र के द्वारा प्राप्त की है..'
उनकी विशाल देह में भावो के आवेग उमड़ रहे थे| वे किसी खोये हुए बालक की भांति प्रतीत हो रहे थे, जो अपनी मां को पुकार रहा हो, प्रेमाश्रु उनके चहरे पर अनवरत बह रहे थे, जबकि उनके नेत्र उगते हुए चन्द्र की ज्योत्स्ना पर लगे हुए थे|
'तुम इस व्यक्तित्व (श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी) अमुल्यता की कल्पना भी नहीं कर सकते, जिसका मंत्र तुम सबको देवताओं की श्रेणी में पहुंचाने में सक्षम है|'
"श्री सार्थक्यं नारायणः'
- 'वे तुम्हें सब कुछ खेल-खेल में प्रदान कर सकते हैं| अभी भी समय है, कंकड़-पत्थरों को छोडो और सीधे जगमगाते हीरक खण्ड को प्राप्त कर लो|'
ऐसा कहते-कहते उन्होनें मेरी ओर एक छटा युक्त रुद्राक्ष एव स्फटिक की माला उछाली और तीव्र गति से एक चट्टान के पीछे पूर्ण भक्ति भाव से उच्चरित करते हुए चले गए -
नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
बिजली की तीव्रता के साथ मैं उठा और त्रिजटा के पीछे भागा..परन्तु चट्टान के पीछे कोई भी न था..केवल शीतल पवन तीव्र वेग से बहता हुआ मेरे केश उड़ा रहा था| वे वायु में ही विलीन हो गए थे| मैं मन ही मन उस निष्काम दिव्य मानव को श्रद्धा से प्रणिपात किया, जिसने गुरु मंत्र के विषय में गूढ़तम रहस्य मेरे सामने स्पष्ट कर दिए थे|
..तभी अचानक मेरी दृष्टी नीचे अन्धकार से ग्रसित घाटी पर गई, ऊपर शून्य में 'निखिल' (संस्कृत में पूर्ण चन्द्र को 'निखिल' भी कहते हैं) अपने पूर्ण यौवन के साथ जगमगा कर चातुर्दिक प्रकाश फैला रहा था और ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो सारा वायुमंडल, सारी प्रकृति उस दिव्य श्लोक के नाद से गुज्जरित हो रही हो -
नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जुलाई २०१०
Labels:
गुरु मंत्र रहस्य
Guru Mantra Mystery Part -3
गुरु मंत्र रहस्य भाग - ३
'अगला बीज है 'य', जिस्से बनाता है 'यम' (यम-नियम), अर्थात जीवन को एक सही, पवित्र एवं लय के साथ जीने का तरीका| इसके द्वारा व्यक्ति को एक अद्वितीय, आकर्षक शरीर प्राप्त हो जाता है और उसका व्यक्तित्व कई गुना निखर जाता है| जो कोई भी उसके सम्पर्क में आता है, वह स्वतः ही उसकी और आकर्षित हो जाता है और उसकी हर एक बात मानाने को तैयार हो जाता है|'
'एक और महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऐसा व्यक्ति 'यम' (जो यहां यमराज को इंगित करता है) पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है और आश्वस्त हो जाता है, साधारण शब्दों में वह मृत्युंजय हो जाता है, अमर हो जाता है, मृत्यु कभी उसका स्पर्श नहीं कर सकती...मुझे एक बेवकूफ की भांति घूरने की जरूरत नहीं (शायद उसने मेरी आँखों में उभरती संशय की लकीरों को देख लिया था)| गोरखनाथ, वशिष्ठ, हनुमान आदि ने इस उपलब्धि को प्राचीन काल में प्राप्त किया है, यह कोई नवीन स्थिति नहीं|'
वे सत्य ही कह रहे थे| 'फिर आता है 'ना' यानी 'नाद', 'अनहद नाद' अर्थात दिव्य संगीत, एक आनंदमय, शक्तिप्रद गुन्जरण, जो कि ऐसे व्यक्ति के आत्म में, जो नित्य गुरु मंत्र का जप करता है, गुंजरित होता रहता है| यह नाद वास्तव में व्यक्ति की वास्तविकता पर बहुत निर्भर करता है| उदाहरणतः जो व्यक्ति भक्ति के पथ पर कायल हो, उसे साधारणतः बांसुरी जैसी ध्वनि सुनाई देती है, जो भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय वाद्य है| इसके अतिरिक्त ज्ञान मार्ग पर अग्रसर होने वाले (ज्ञानी) को अधिकतर ज्ञान स्वरुप भगवान शिव का डमरू का शाश्वत नाद सुनाई पड़ता है|'
अदभुत! - मैंने कहा - 'परन्तु यही दो ध्वनियाँ है, जो साधक के समक्ष उपस्थित होती हैं?'
'नहीं, ऐसा तो निश्चित मापदण्ड नहीं है, फिर भी ये दो प्रकार के नाद ही मुख्य हैं और अधिकांशतः सुनाई पड़ते हैं| जो व्यक्ति इस स्थिति पर पहुंच जाता है, वह स्वतः ही संगीत में पारंगत हो जाता है उसकी आवाज अपने आप सुरीली, मधुरता युक्त और एक आकर्षण लिये हुए हो जाती है| जो कोई भी उसे सुनता है, वह एक अद्वितीय आनन्द वर्षा से सरोबार हो जाता है और सभी परेशानियों से मुक्त होता हुआ, असीम शान्ति अनुभव करता है|'
'अगला बीज है 'रा' यानी 'रास' जिसका अर्थ है...एक दिव्य उत्सव, एक अनिवर्चनीय मस्ती, जो कि मानव जीवन की असली पहचान है| क्या तुम बिना उत्साह, ख़ुशी और जीवन्तता के जीने का कल्पना कर सकते हो? क्या तुम बिना उत्सव और प्रसन्नता के जीवन की विषय में विचार कर सकते हो? नहीं| इसलिए इस बीज मंत्र की मदद से व्यक्ति अपने जीवन में उस तत्व को उतार पाने में सफल होता है, जिसके द्वारा उसका सम्पूर्ण जीवन परिवर्तित हो जाता है, दरिद्रता, सम्पन्नता में बदल जाती है, दुःख खुशियों में परिवर्तित हो जाते हैं, शत्रु मित्र बन जाते हैं और असफलताएं सफलताओं में परिवर्तित हो जाती हैं'
'यदि इसका सूक्ष्म विवेचन किया जाय, तो यह उस गुप्त प्रक्रिया को दर्शाता है, जो द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों पर की गई थी| वास्तव में महारास एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार में स्पन्दित के ऊपर की ओर अग्रसर किया जाता है| इस बीज के अनवरत जप से व्यक्ति सहज ही भाव समाधि में पहुंच जाता है वह गुरु में लीन हो जाता है और उसकी कुण्डलिनी पूर्णतः जाग्रय हो जाती है, फलस्वरूप सह्गैनी सिद्धियां जैसे कि परकाया प्रवेश, जलगमन अटूट लक्ष्मी एवं असीमित शक्ति व्यक्ति को सहज ही प्राप्त हो जाती है|'
ऐसा कहते कहते उन्होनें अपना दाहिना हाथ हवा में उठाया और दुसरे ही क्षण उसमें एक केतली और दो गिलास आ गए| केतली में से बाष्प निकल रही थी| आश्चर्य से मेरा मुंह खुला रह गया और एक विस्मय से उनकी ओर देखता रह गया| उन्होनें केतली मेर से कोई तरल पदार्थ गिलास में डाला और एक गिलास मेरी ओर बढ़ा दिया| वह पेरिस की मशहूर 'क्रीम्ड कॉफ़ी' थी|
'हां, मैं जानता हूं, कि तुम क्या सोच रहे हो?' - त्रिजटा ने एक चुस्की लेते हुए कहा - 'पर विशवास करो, यह कोई असामान्य घटना नहीं हैं, क्योंकि हर व्यक्ति के अन्दर ऐसी शक्तियां निहित हैं, जरूरत है मात्र उनको उभारने की|'
उन्होनें फिर एक चुस्की भरी और तरोताजा हो उन्होनें अपना प्रवचन प्रारम्भ किया - 'अगला बीज है 'य' और इसका तात्पर्य है 'यथार्थ' अर्थात वास्तविकता, सच्चाई, परम सत्य| इस बीज पर मनन करने से व्यक्ति को अपनी न्यूनताओं का भान होता है और वह पहली बार इसके कारण अर्थात 'माया' के स्वरुप देखता है और जान पाता है|'
'यदि व्यक्ति नित्य गुरु मंत्र का जप करे, तो वह माया जाल को काटने में सफल हो सकता है जिसमें कि वह जकड़ा हुआ है, स्वतः ही उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह 'दिव्य बोध' से युक्त हो जाता है, एक जाग्रत अवस्था प्राप्त कर लेता है, फिर वह समाज में रह कर एवं नाना प्रकार के लोगों से मिल कर भी अपनी आतंरिक पवित्रता एवं चेतना बनाए रखने में सफल होता है, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार एक कमल कीचड़ में खिल कर भी अछूता रहता है|'
'जनक की तरह...!' - स्वतः ही मेरे मुंह से निकला!
'हां, जनक की तरह, राम, कृष्ण और नानक की तरह..!'
'इसके उपरांत आता है बीज मंत्र 'ण', जो कि 'अणु' या ब्रह्म की शक्ति अपने में निहित किये हुए है| ब्रहम के विषय में एक जगह कहा गया है - 'अणोरणीयाम' अर्थात सूक्ष्मतम पदार्थ अणु से भी हजारों गुना सूक्ष्म क्योंकि वह तो अणुओं में भी व्याप्त है|'
'तो इस बीज के नित्य उच्चारण से व्यक्ति ब्रह्म स्वरुप हो जाता है| वह हर पदार्थ में खुद को ही देखता है, हर स्वरुप में खुद के ही दर्शन करता है, चाहे वह पशु हो, व्यक्ति हो अथवा पत्थर| दया, ममता उसकी प्रकृति बन जाते हैं और वह समस्त विश्व को 'वसुधैव कुटुम्बकम' की दृष्टि से देखता है| वह किसी की मदद अथवा सेवा करने का कोई भी अवसर नहीं गवाता और..'
'और?'
'और वह स्वतः उन गोपनीय अष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है, जो कि ग्रंथो में वर्णित है| अणिमा, महिमा, गरिमा इत्यादि उसे प्राप्त हो जाती हैं, हालांकि यह अलग बात है, कि वह उनका उपयोग नहीं करता और एक अति सामान्य मनुष्य की भांति ही प्रतीत होता है|'
'इसके बाद आता है 'य' अर्थात 'यज्ञ' और इस बीज को निरन्तर जपने से व्यक्ति स्वतः ही यज्ञ शास्त्र एव यज्ञ विज्ञान में परंगत हो जाता है, उसे प्राचीन गोपनीय तथ्यों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और वह विद्वत समाज द्वारा पूजित होता है, धन एवं वैभव की देवी महालक्ष्मी उसके गृह में निरन्तर स्थापित रहती है और वह धनवान, ऐश्वर्यवान हो संतोष पूर्वक एवं शान्ति पूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है|'
'यज्ञ शब्द का गूढ़ अर्थ है - अपने समस्त शुभ एवं अशुभ कर्मों की आहुति को 'ज्ञान की अग्नि' के द्वारा गुरु के चरणों में समर्पित करना| यही वास्तविक यज्ञ है और व्यक्ति इस स्थिति को इस बीज मंत्र के जप मात्र से शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है, जिससे कि वह कर्मों के कठोर बन्धन से मुक्त हो जन्म-मृत्यु के आवागमन चक्र से भी छूट जाता है|'
'अगला बीज है 'गु' अर्थात 'गुन्जरण' और यह व्यक्ति के आतंरिक शरीरों - भू, भवः, स्वः, मः, जनः, तपः, सत्यम - से उसके चित्त के योग को दर्शाता है| यह अत्यंत ही उच्च एवं भव्य स्थिति है, जिसे प्राप्त कर वह योगी अन्य योगियों में श्रेष्ठ कहलाता है और 'योगिराज' की उपाधि से विभूषित हो जाता है| ऐसे व्यक्ति की देवता एवं श्रेष्ठ ऋषि भी पूजा करते हैं और उसकी झलक मात्र के लिये लालायित रहते हैं|'
'चूंकि 'गु' गुरु का भी बीज मंत्र हैं अतः इसको जपने से व्यक्ति स्वतः ही गुरुमय हो जाता है और गुरु का सारा ज्ञान, शक्तियां एवं तेजस्विता उसके शरीर में उतर जाती हैं| वह समस्त विश्व में पूजनीय हो जाता है और इच्छानुसार किसी भी लोक अथवा गृह में आ-जा सकता है|'
'परा जगत के लोग एवं गृह... तो क्या पृथ्वी के अलावा भी जीवन की स्थिति है?
'कैसे मूर्खों का प्रश्न है?' - त्रिजटा कुछ उत्तेजित होकर बोले - 'क्या तुम सोचते हो कि मात्र पृथ्वी पर ही जीवन है? तुम लोग अहम् से इतने पीड़ित हो, कि अपने आपको ही 'भगवान् द्वारा चुने गए' समझते हो' - वे व्यंग से मुस्कुराये|
'परन्तु एक बार तुम इस बीज को साध लो, तो तुम कोई अदभुत और अनसुनी घटनाओं के साक्षी बन जाओगे| बेशक देर से ही सही अब तो विज्ञान ने भी अन्य लोकों पर जीवन के तथ्य को स्वीकार कर लिया है|'
'फिर आता है 'रु' अर्थात रूद्र जो कि इस ब्रह्माण्ड का मुख्य पुरुष तत्व है, उसे चाहे गुणात्मक शक्ति कहो या शिव अथवा कुछ और| इस बीज को सिद्ध करने पर व्यक्ति कभी वृद्ध नहीं होता, न ही काल-कवलित होता है और न ही उसे बार-बार जन्म लेता पड़ता है| वह सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता एवं सर्वशक्तिशाली हो जाता है|'
'वह चाहे, तो विश्वामित्र की भांति एक नवीन सृष्टि रच सकता है और शिव की तरह उसे नष्ट भी कर सकता है सम्पूर्ण प्रकृति उसके इशारों पर नृत्य करती प्रतीत होती है| उसे भोजन, जल, निद्रा आदि कि आवश्यकता नहीं होती, परिणाम स्वरुप उसे मल-मूत्र विसर्जन भी नहीं करना पड़ता| एक स्वर्णिम, दिव्य आभा मंडल उसके चतुर्दिक बन जाता है और प्रत्येक व्यक्ति, जो उसके समीप आता है, उससे प्रभावित होता है और उसका भी आध्यात्मिक उत्थान हो जाता है, उसकी सारी इच्छाएं स्वतः पूर्ण हो जाति हैं|'
'अगला बीज है 'य', जिस्से बनाता है 'यम' (यम-नियम), अर्थात जीवन को एक सही, पवित्र एवं लय के साथ जीने का तरीका| इसके द्वारा व्यक्ति को एक अद्वितीय, आकर्षक शरीर प्राप्त हो जाता है और उसका व्यक्तित्व कई गुना निखर जाता है| जो कोई भी उसके सम्पर्क में आता है, वह स्वतः ही उसकी और आकर्षित हो जाता है और उसकी हर एक बात मानाने को तैयार हो जाता है|'
'एक और महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऐसा व्यक्ति 'यम' (जो यहां यमराज को इंगित करता है) पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है और आश्वस्त हो जाता है, साधारण शब्दों में वह मृत्युंजय हो जाता है, अमर हो जाता है, मृत्यु कभी उसका स्पर्श नहीं कर सकती...मुझे एक बेवकूफ की भांति घूरने की जरूरत नहीं (शायद उसने मेरी आँखों में उभरती संशय की लकीरों को देख लिया था)| गोरखनाथ, वशिष्ठ, हनुमान आदि ने इस उपलब्धि को प्राचीन काल में प्राप्त किया है, यह कोई नवीन स्थिति नहीं|'
वे सत्य ही कह रहे थे| 'फिर आता है 'ना' यानी 'नाद', 'अनहद नाद' अर्थात दिव्य संगीत, एक आनंदमय, शक्तिप्रद गुन्जरण, जो कि ऐसे व्यक्ति के आत्म में, जो नित्य गुरु मंत्र का जप करता है, गुंजरित होता रहता है| यह नाद वास्तव में व्यक्ति की वास्तविकता पर बहुत निर्भर करता है| उदाहरणतः जो व्यक्ति भक्ति के पथ पर कायल हो, उसे साधारणतः बांसुरी जैसी ध्वनि सुनाई देती है, जो भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय वाद्य है| इसके अतिरिक्त ज्ञान मार्ग पर अग्रसर होने वाले (ज्ञानी) को अधिकतर ज्ञान स्वरुप भगवान शिव का डमरू का शाश्वत नाद सुनाई पड़ता है|'
अदभुत! - मैंने कहा - 'परन्तु यही दो ध्वनियाँ है, जो साधक के समक्ष उपस्थित होती हैं?'
'नहीं, ऐसा तो निश्चित मापदण्ड नहीं है, फिर भी ये दो प्रकार के नाद ही मुख्य हैं और अधिकांशतः सुनाई पड़ते हैं| जो व्यक्ति इस स्थिति पर पहुंच जाता है, वह स्वतः ही संगीत में पारंगत हो जाता है उसकी आवाज अपने आप सुरीली, मधुरता युक्त और एक आकर्षण लिये हुए हो जाती है| जो कोई भी उसे सुनता है, वह एक अद्वितीय आनन्द वर्षा से सरोबार हो जाता है और सभी परेशानियों से मुक्त होता हुआ, असीम शान्ति अनुभव करता है|'
'अगला बीज है 'रा' यानी 'रास' जिसका अर्थ है...एक दिव्य उत्सव, एक अनिवर्चनीय मस्ती, जो कि मानव जीवन की असली पहचान है| क्या तुम बिना उत्साह, ख़ुशी और जीवन्तता के जीने का कल्पना कर सकते हो? क्या तुम बिना उत्सव और प्रसन्नता के जीवन की विषय में विचार कर सकते हो? नहीं| इसलिए इस बीज मंत्र की मदद से व्यक्ति अपने जीवन में उस तत्व को उतार पाने में सफल होता है, जिसके द्वारा उसका सम्पूर्ण जीवन परिवर्तित हो जाता है, दरिद्रता, सम्पन्नता में बदल जाती है, दुःख खुशियों में परिवर्तित हो जाते हैं, शत्रु मित्र बन जाते हैं और असफलताएं सफलताओं में परिवर्तित हो जाती हैं'
'यदि इसका सूक्ष्म विवेचन किया जाय, तो यह उस गुप्त प्रक्रिया को दर्शाता है, जो द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों पर की गई थी| वास्तव में महारास एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार में स्पन्दित के ऊपर की ओर अग्रसर किया जाता है| इस बीज के अनवरत जप से व्यक्ति सहज ही भाव समाधि में पहुंच जाता है वह गुरु में लीन हो जाता है और उसकी कुण्डलिनी पूर्णतः जाग्रय हो जाती है, फलस्वरूप सह्गैनी सिद्धियां जैसे कि परकाया प्रवेश, जलगमन अटूट लक्ष्मी एवं असीमित शक्ति व्यक्ति को सहज ही प्राप्त हो जाती है|'
ऐसा कहते कहते उन्होनें अपना दाहिना हाथ हवा में उठाया और दुसरे ही क्षण उसमें एक केतली और दो गिलास आ गए| केतली में से बाष्प निकल रही थी| आश्चर्य से मेरा मुंह खुला रह गया और एक विस्मय से उनकी ओर देखता रह गया| उन्होनें केतली मेर से कोई तरल पदार्थ गिलास में डाला और एक गिलास मेरी ओर बढ़ा दिया| वह पेरिस की मशहूर 'क्रीम्ड कॉफ़ी' थी|
'हां, मैं जानता हूं, कि तुम क्या सोच रहे हो?' - त्रिजटा ने एक चुस्की लेते हुए कहा - 'पर विशवास करो, यह कोई असामान्य घटना नहीं हैं, क्योंकि हर व्यक्ति के अन्दर ऐसी शक्तियां निहित हैं, जरूरत है मात्र उनको उभारने की|'
उन्होनें फिर एक चुस्की भरी और तरोताजा हो उन्होनें अपना प्रवचन प्रारम्भ किया - 'अगला बीज है 'य' और इसका तात्पर्य है 'यथार्थ' अर्थात वास्तविकता, सच्चाई, परम सत्य| इस बीज पर मनन करने से व्यक्ति को अपनी न्यूनताओं का भान होता है और वह पहली बार इसके कारण अर्थात 'माया' के स्वरुप देखता है और जान पाता है|'
'यदि व्यक्ति नित्य गुरु मंत्र का जप करे, तो वह माया जाल को काटने में सफल हो सकता है जिसमें कि वह जकड़ा हुआ है, स्वतः ही उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह 'दिव्य बोध' से युक्त हो जाता है, एक जाग्रत अवस्था प्राप्त कर लेता है, फिर वह समाज में रह कर एवं नाना प्रकार के लोगों से मिल कर भी अपनी आतंरिक पवित्रता एवं चेतना बनाए रखने में सफल होता है, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार एक कमल कीचड़ में खिल कर भी अछूता रहता है|'
'जनक की तरह...!' - स्वतः ही मेरे मुंह से निकला!
'हां, जनक की तरह, राम, कृष्ण और नानक की तरह..!'
'इसके उपरांत आता है बीज मंत्र 'ण', जो कि 'अणु' या ब्रह्म की शक्ति अपने में निहित किये हुए है| ब्रहम के विषय में एक जगह कहा गया है - 'अणोरणीयाम' अर्थात सूक्ष्मतम पदार्थ अणु से भी हजारों गुना सूक्ष्म क्योंकि वह तो अणुओं में भी व्याप्त है|'
'तो इस बीज के नित्य उच्चारण से व्यक्ति ब्रह्म स्वरुप हो जाता है| वह हर पदार्थ में खुद को ही देखता है, हर स्वरुप में खुद के ही दर्शन करता है, चाहे वह पशु हो, व्यक्ति हो अथवा पत्थर| दया, ममता उसकी प्रकृति बन जाते हैं और वह समस्त विश्व को 'वसुधैव कुटुम्बकम' की दृष्टि से देखता है| वह किसी की मदद अथवा सेवा करने का कोई भी अवसर नहीं गवाता और..'
'और?'
'और वह स्वतः उन गोपनीय अष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है, जो कि ग्रंथो में वर्णित है| अणिमा, महिमा, गरिमा इत्यादि उसे प्राप्त हो जाती हैं, हालांकि यह अलग बात है, कि वह उनका उपयोग नहीं करता और एक अति सामान्य मनुष्य की भांति ही प्रतीत होता है|'
'इसके बाद आता है 'य' अर्थात 'यज्ञ' और इस बीज को निरन्तर जपने से व्यक्ति स्वतः ही यज्ञ शास्त्र एव यज्ञ विज्ञान में परंगत हो जाता है, उसे प्राचीन गोपनीय तथ्यों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और वह विद्वत समाज द्वारा पूजित होता है, धन एवं वैभव की देवी महालक्ष्मी उसके गृह में निरन्तर स्थापित रहती है और वह धनवान, ऐश्वर्यवान हो संतोष पूर्वक एवं शान्ति पूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है|'
'यज्ञ शब्द का गूढ़ अर्थ है - अपने समस्त शुभ एवं अशुभ कर्मों की आहुति को 'ज्ञान की अग्नि' के द्वारा गुरु के चरणों में समर्पित करना| यही वास्तविक यज्ञ है और व्यक्ति इस स्थिति को इस बीज मंत्र के जप मात्र से शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है, जिससे कि वह कर्मों के कठोर बन्धन से मुक्त हो जन्म-मृत्यु के आवागमन चक्र से भी छूट जाता है|'
'अगला बीज है 'गु' अर्थात 'गुन्जरण' और यह व्यक्ति के आतंरिक शरीरों - भू, भवः, स्वः, मः, जनः, तपः, सत्यम - से उसके चित्त के योग को दर्शाता है| यह अत्यंत ही उच्च एवं भव्य स्थिति है, जिसे प्राप्त कर वह योगी अन्य योगियों में श्रेष्ठ कहलाता है और 'योगिराज' की उपाधि से विभूषित हो जाता है| ऐसे व्यक्ति की देवता एवं श्रेष्ठ ऋषि भी पूजा करते हैं और उसकी झलक मात्र के लिये लालायित रहते हैं|'
'चूंकि 'गु' गुरु का भी बीज मंत्र हैं अतः इसको जपने से व्यक्ति स्वतः ही गुरुमय हो जाता है और गुरु का सारा ज्ञान, शक्तियां एवं तेजस्विता उसके शरीर में उतर जाती हैं| वह समस्त विश्व में पूजनीय हो जाता है और इच्छानुसार किसी भी लोक अथवा गृह में आ-जा सकता है|'
'परा जगत के लोग एवं गृह... तो क्या पृथ्वी के अलावा भी जीवन की स्थिति है?
'कैसे मूर्खों का प्रश्न है?' - त्रिजटा कुछ उत्तेजित होकर बोले - 'क्या तुम सोचते हो कि मात्र पृथ्वी पर ही जीवन है? तुम लोग अहम् से इतने पीड़ित हो, कि अपने आपको ही 'भगवान् द्वारा चुने गए' समझते हो' - वे व्यंग से मुस्कुराये|
'परन्तु एक बार तुम इस बीज को साध लो, तो तुम कोई अदभुत और अनसुनी घटनाओं के साक्षी बन जाओगे| बेशक देर से ही सही अब तो विज्ञान ने भी अन्य लोकों पर जीवन के तथ्य को स्वीकार कर लिया है|'
'फिर आता है 'रु' अर्थात रूद्र जो कि इस ब्रह्माण्ड का मुख्य पुरुष तत्व है, उसे चाहे गुणात्मक शक्ति कहो या शिव अथवा कुछ और| इस बीज को सिद्ध करने पर व्यक्ति कभी वृद्ध नहीं होता, न ही काल-कवलित होता है और न ही उसे बार-बार जन्म लेता पड़ता है| वह सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता एवं सर्वशक्तिशाली हो जाता है|'
'वह चाहे, तो विश्वामित्र की भांति एक नवीन सृष्टि रच सकता है और शिव की तरह उसे नष्ट भी कर सकता है सम्पूर्ण प्रकृति उसके इशारों पर नृत्य करती प्रतीत होती है| उसे भोजन, जल, निद्रा आदि कि आवश्यकता नहीं होती, परिणाम स्वरुप उसे मल-मूत्र विसर्जन भी नहीं करना पड़ता| एक स्वर्णिम, दिव्य आभा मंडल उसके चतुर्दिक बन जाता है और प्रत्येक व्यक्ति, जो उसके समीप आता है, उससे प्रभावित होता है और उसका भी आध्यात्मिक उत्थान हो जाता है, उसकी सारी इच्छाएं स्वतः पूर्ण हो जाति हैं|'
Labels:
गुरु मंत्र रहस्य
Subscribe to:
Posts (Atom)