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त्वदीयं वस्तु गोविन्द
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षो बाद जब निखिलश्वेरानंद के सेवा ,एक निष्ठा एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामी जी प्रभावित हुए तो अक दिन पूछा-निखिल |मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ ,तुम जो कुछ भी चाहो मांग सकते हो ,असंभव मांग भी पूरी करूंगा ,मांगो ?निखिलश्वेरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे ,बोले -"त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " जब 'मेरा ' कहने लायक मेरे पास कुछ है ही नहीं ,तो मैं क्या मांगू ,किसके लिए मांगू ,मेरा मन ,प्राण ,रोम -प्रतिरोम तो आपका है ,आपका ही तो आपको समर्पित है ,मेरा अस्तित्व ही कहाँ है ?| उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सदृश गुरु की आँखे डबडबा गयी और शिष्य को आपने हाथो से उठा कर सीने से चिपका दिया ,एकाकार कर दिया ,पूर्णत्व दे दिया |
शिष्य की व्यक्तिगत कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं होती, जब वह मुक्त गुरु के सामने होता हैं, तब सरल बालक की तरह ही होता हैं, गुरु के सामने तो शिष्य कच्ची मिटटी के लौन्दे की तरह होता हैं, उस समय उसका स्वयं का कोई आकर नहीं होता, ऐसी स्थिति होने पर ही वह सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी हो सकता हैं. इसीलिए शिष्य को चाहिए की वह जब भी गुरु के सामने उपस्थित हो, तब वह सारी उपाधियों और विशेषताओं को परे रखकर उपस्थित हो, ऐसा होने पर ही परस्पर पूर्ण तादात्म्य सम्भव हैं.शिष्य का अर्थ निकटता होता हैं, और वह जितना ही गुरु के निकट रहता हैं, उतना ही प्राप्त कर सकता हैं, आप अपने शरीर से गुरु के चरणों में उपस्थित रह सकते हैं. यदि सम्भव हो तो साल में तिन या चार बार स्वयं उनके चरणों में जाकर बैठे, क्योंकि गुरु परिवार का ही एक अंश होता हैं, परिवार का मुखिया होता हैं, अतः समय-समय पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना, उससे कुछ प्राप्त करना, शिष्य का पहला धर्म हैं, यदि आप गुरु के पास जायेंगे ही नहीं, तो उनसे कुछ प्राप्त ही किस प्रकार से कर सकेंगे? गुरु से बराबर सम्बन्ध बनाये रखना और गुरु के साथ अपने को एकाकार कर लेना ही शिष्यता हैं.
गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि हैं, जब आप शिष्य हैं तो यह आपका धर्म हैं, कि आप गुरु की आज्ञा का पालन करें गुरु की आज्ञा में कोई ना कोई विशेषता अवश्य छिपी रहती हैं. जितनी क्षमता और शक्ति के द्वारा. जितना ही जल्दी सम्भव हो सकें, गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्यता का धर्म मन गया हैं.The Hunger Games
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
त्वदीयं वस्तु गोविन्द
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षो बाद जब निखिलश्वेरानंद के सेवा ,एक निष्ठा एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामी जी प्रभावित हुए तो अक दिन पूछा-निखिल |मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ ,तुम जो कुछ भी चाहो मांग सकते हो ,असंभव मांग भी पूरी करूंगा ,मांगो ?निखिलश्वेरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे ,बोले -"त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " जब 'मेरा ' कहने लायक मेरे पास कुछ है ही नहीं ,तो मैं क्या मांगू ,किसके लिए मांगू ,मेरा मन ,प्राण ,रोम -प्रतिरोम तो आपका है ,आपका ही तो आपको समर्पित है ,मेरा अस्तित्व ही कहाँ है ?| उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सदृश गुरु की आँखे डबडबा गयी और शिष्य को आपने हाथो से उठा कर सीने से चिपका दिया ,एकाकार कर दिया ,पूर्णत्व दे दिया |
शिष्य की व्यक्तिगत कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं होती, जब वह मुक्त गुरु के सामने होता हैं, तब सरल बालक की तरह ही होता हैं, गुरु के सामने तो शिष्य कच्ची मिटटी के लौन्दे की तरह होता हैं, उस समय उसका स्वयं का कोई आकर नहीं होता, ऐसी स्थिति होने पर ही वह सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी हो सकता हैं. इसीलिए शिष्य को चाहिए की वह जब भी गुरु के सामने उपस्थित हो, तब वह सारी उपाधियों और विशेषताओं को परे रखकर उपस्थित हो, ऐसा होने पर ही परस्पर पूर्ण तादात्म्य सम्भव हैं.शिष्य का अर्थ निकटता होता हैं, और वह जितना ही गुरु के निकट रहता हैं, उतना ही प्राप्त कर सकता हैं, आप अपने शरीर से गुरु के चरणों में उपस्थित रह सकते हैं. यदि सम्भव हो तो साल में तिन या चार बार स्वयं उनके चरणों में जाकर बैठे, क्योंकि गुरु परिवार का ही एक अंश होता हैं, परिवार का मुखिया होता हैं, अतः समय-समय पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना, उससे कुछ प्राप्त करना, शिष्य का पहला धर्म हैं, यदि आप गुरु के पास जायेंगे ही नहीं, तो उनसे कुछ प्राप्त ही किस प्रकार से कर सकेंगे? गुरु से बराबर सम्बन्ध बनाये रखना और गुरु के साथ अपने को एकाकार कर लेना ही शिष्यता हैं.
गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि हैं, जब आप शिष्य हैं तो यह आपका धर्म हैं, कि आप गुरु की आज्ञा का पालन करें गुरु की आज्ञा में कोई ना कोई विशेषता अवश्य छिपी रहती हैं. जितनी क्षमता और शक्ति के द्वारा. जितना ही जल्दी सम्भव हो सकें, गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्यता का धर्म मन गया हैं.The Hunger Games
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
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