Monday, March 2, 2015

शिष्य धर्म, काही विधि करूं उपासना shisya dhram, do some form of worship

विवेकानन्द सात साल तक साधना में लगे रहे । भोजन में किसी पवित्र घर की ही भिक्षा खाते थे । साधन- भजन के दिनों में बहिर्मुख निगुरे लोगों के हाथ का अन्न कभी नहीं लेते थे । पवित्र घर की रोटी भिक्षा में लेते और वह रोटी लाकर रख देते थे । ध्यान करते जब भूख लगती तो रोटी खा लेते थे । कभी तो सात दिन की बासी रोटी हो जाती । उसको चबाते-चबाते मसूढ़ों में खून निकल आता । फिर भी विवेकानन्द आध्यात्मिक मार्ग पर डटे रहे ।
ऐसा नहीं सोचते थे कि "घर जाकर ताजा रोटी खाकर भजन करेंगे ।" वे
जानते थे कि कितनी भी कठिनाई आ जाये फिर भी आत्मज्ञान पाना ज़रुरी है । गुरु के वचनों का साक्षात्कार करना ज़रूरी है । जो बुद्धिमान ऐसा समझता है उसको प्रत्येक मिनट का सदुपयोग करने की रुचि होती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि ध्यान करो, नियम करो, सुबह जल्दी उठकर संध्या में बैठो ।
जो अपनी ज़िन्दगी की कदर करता है वह तत्पर हो जाता है । जिसका मन मूर्ख है और वह खुद मन का गुलाम है, वह तो चाबुक खाने के बाद
थोड़ा चलेगा और फिर चलना छोड़ देगा । मूर्ख हृदय न चेत
यद्यपि गुरु मिलहीं बिरंचि सम। भले ब्रह्माजी गुरु मिल जायें फिर भी मूर्ख
आदमी सावधान नहीं रहता । बुद्धिमान आदमी गुरु की युक्ति पर डट जाता है । जैसे, एकलव्य गुरु की मूर्ति बनाकर अभ्यास में लग जाता था । कोई गलती होती थी तो अपना कान पकड़ता था । बाँये हाथ से कान पकड़ता था और दायाँ हाथ गुरु का मानकर चाँटा मारता था । ऐसा करते करते गुरु की मूर्ति के आगे धनुर्विद्या सीखा और उसमें श्रेष्ठता प्राप्त की । जो गुरु वचन लग जाते हैं उन्हे हजार विघ्न-बाधाएँ भी आयें फिर भी आध्यात्मिक रास्ता नहीं छोड़ते
। सबसे ऊँचे पद का साक्षात्कार कर ही लेते हैं । ऐसे आत्मवेत्ता अदभुत होते हैं ।

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