Wednesday, August 25, 2010

India ke सर्वश्रेष्ठ एवं ऋषियों में भी परम वन्दनीय ऋषिगण

सर्वश्रेष्ठ एवं ऋषियों में भी परम वन्दनीय ऋषिगण निम्नवत हैं, जिनका उल्लेख कूर्म पुराण, वायु पुराण तथा विष्णु पुराण में भी प्राप्त होता है! इन ऋषियों ने समय-समय पर शास्त्र तथा सनातन धर्म की मर्यादा बनाये रखने के लिए सतत प्रयास किया हैं! अतः ये आज भी हम लोगों के लिए वन्दनीय हैं -
स्वयंभू,
मनु,
भारद्वाज,
वशिष्ठ,
वाचश्रवस नारायण,
कृष्ण द्वैपायन,
पाराशर,
गौतम,
वाल्मीकि,
सारस्वत,
यम,
आन्तरिक्ष धर्म,
वपृवा,
ऋषभ,
सोममुख्यायन,
विश्वामित्र,
मुद्गल,

गुरु की महत्ता

गुरु की महत्ता

प्रश्न : तैतीस करोड़ देवी-देवताओं के होने पर भी हमें आखिर गुरु की आवश्यकता क्यूँ हैं?
जवाब :
क्यूंकि तैंतीस करोड़ देवी-देवता हमें सब कुछ दे सकते हैं. मगर जन्म-मरण के चक्र से सिर्फ गुरु ही मुक्त कर सकता हैं.
यह तैतीस करोड़ देवी-देवताओं के द्वारा संभव नहीं हैं.
इसलिए ही तो राम और कृष्ण, शंकराचार्य, गुरु गोरखनाथ, मेरे, कबीर, आदि... हर विशिष्ट व्यक्तित्व ने जीवन में गुरु को धारण किया और 
तब उनके जीवन में वे अमर हो सके.... 
..... आज भी इतिहास में, वेदों में, पुराणों ने उन्हें अमर कर दिया....

इसीलिए तो कहा गया हैं:
तीन लोक नव खण्ड में गुरु ते बड़ा न कोय!
करता करे न कर सकें , गुरु करे सो होय!!
 
गुरूजी का पता :

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान

डॉ. श्रीमाली मार्ग, हाईकोर्ट कालोनी,

जोधपुर - 342 031 (राजस्थान)

फ़ोन : 0291-2432209, 2433623.

फैक्स : 0291 - 2432010.

ई-मेल : mtyv@siddhashram.org

वेबसाईट : www.siddhashram.org
 

mere GURU JI ki kirpa ho jaye to kuchh bhi asmbhav nahi

मेरे गुरूजी ...
मेरे गुरूजी को भला किसी परिचय की क्या आवश्यकता ? वे कोई सूर्य थोड़े ही हैं जो रात्रिकाल में लुप्त हो जायें; वे चन्द्रमा भी नहीं जो मात्र रात्रि में ही दृष्टिगोचर हों | वे देव भी नहीं हैं क्योंकि वे कथाओं, शास्त्रों, मान्यताओं तक ही सीमित नहीं हैं और वे साधारण मनुष्य भी नहीं हैं क्योंकि वे सिद्ध हैं, ज्ञानी हैं, पूर्ण पुरुष हैं |
मेरे गुरूजी तो मात्र मेरे गुरूजी हैं | वे मेरी माता भी हैं, पिता भी और मार्गदर्शक भी | वे मेरे सर्वोत्तम मित्र हैं तथा मेरी सर्वाधिक मूल्यवान निजी संपत्ति भी | वे मेरे प्राण हैं अतैव मेरी अजरता, अमरता के स्रोत हैं | सारांश यह है की वे मेरे जीवन का सार हैं | जैसे मैं उनका परिचय हूँ वे मेरा परिचय हैं |
मेरे गुरूजी सहीं अर्थों में भारतीय ऋषि हैं, जिनके चरणों में बैठना ही एक सुखद अनुभव है, जीवन की पूर्णता है | वे तपस्वी हैं, सन्यासी हैं, गृहस्थ हैं, विद्वान हैं, श्रेष्ठतम शिष्य हैं, महानतम गुरु हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वस्व हैं फिर भी निरहंकार हैं, निर्विकार हैं |
मेरे गुरूजी तो केवल मेरे गुरूजी हैं ...
ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः
-- गुरूजी के श्री चरणों में नतमस्तक एक शिष्य --
-- आशीष मराठे / निखिलाशीष --

निखिलेश्वरानंद श्री गुरुचरणों में समर्पित एक शिष्य का प्रेमाश्रु है

यह क्या है 
http://www.facebook.com/Nikhileshwaranand

यह फेसबुक पेज श्री गुरुचरणों में समर्पित एक शिष्य का प्रेमाश्रु है | यह संसार के महानतम गुरु के तेजोमय व्यक्तित्व का परिचय समस्त मानव जाति से कराने का एक साधन है | यह भीषणतम युद्ध का उद्घोष है | यह गुरूजी की आज्ञानुसार निर्मित एक कृति है |

यहाँ क्या करें

यदि मेरी तरह आप भी मेरे गुरूजी परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद के शिष्य हैं तो सर्वप्रथम अपनी उपस्थिति दर्ज कराएं | सदस्यों की सूची में आप का नाम होना अनिवार्य है | इसे आप प्रतीकात्मक रूप में गुरूजी के श्री चरणों को स्पर्श करना भी मान सकते हैं | यह इसलिए भी अनिवार्य है क्योंकि कहीं लोगों को यह भ्रम न हो जाये कि मैं गुरूजी का एकमात्र शिष्य हूँ |
संभव हो तो अपने सभी मित्रों को यहाँ आमंत्रित करें |
तदुपरांत आप भित्तिपटल (Wall) पर गुरु मंत्र "ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः" लिख कर सांकेतिक गुरु पूजन सम्पन्न करें | आप प्रतिदिन ऐसा कर गुरुकृपा के पात्र भी बन सकते हैं |
यदि आपकी इच्छा हो तो आप गुरूजी से सम्बंधित संस्मरणों, कथाओं, कविताओं, अनुभवों इत्यादि का वर्णन भी कर सकते हैं |
आप यहाँ गुरूजी के चित्रों, चलचित्रों आदि को भी प्रेषित कर सकते हैं |
यह क्या नहीं है

यह मूर्खों, कायरों, आलसियों, लोभियों, अहंकारियों और राजनीतिज्ञों की शरणस्थली नहीं है | यह व्यक्तिगत समस्याओं, चिंताओं, लालसाओं इत्यादि की अभिव्यक्ति हेतु जनसुलभ स्थान नहीं है | यह मन्त्रों, साधना विधियों के विनिमय व वितरण का केंद्र अथवा विज्ञापनों इत्यादि हेतु उपलब्ध संसाधन तो कदापि नहीं है |

एक याचक कभी साधक नहीं बन सकता इसलिए किसी से कुछ न मांगें |

Thursday, June 24, 2010

ऊर्जा जगत का विस्तार है

जगत ऊर्जा का विस्तार है
अठारहवीं सदी में वैज्ञानिकों की घोषणा थी कि परमात्मा मर गया है, आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, पदार्थ ही सब कुछ है। लेकिन विगत तीस वर्षों में ठीक उलटी स्थिति हो गई है। विज्ञान को कहना पड़ा कि पदार्थ है ही नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। ऊर्जा ही सत्य है, शक्ति ही सत्य है। लेकिन शक्ति की तीव्रगति के कारण पदार्थ का भास होता है।

दीवालें दिखाई पड़ रही हैं एक, अगर निकलना चाहेंगे तो सिर टूट जाएगा। कैसे कहें कि दीवालें भ्रम हैं? स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं, उनका होना है। पैरों के नीचे जमीन अगर न हो तो आप खड़े कहां रहेंगे?

नहीं, इस अर्थों में नहीं विज्ञान कहता है कि पदार्थ नहीं है। इस अर्थों में कहता है कि जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वैसा नहीं है।

अगर हम एक बिजली के पंखे को बहुत तीव" गति से चलाएं तो उसकी तीन पंखुड़ियां तीन दिखाई पड़नी बंद हो जाएंगी। क्योंकि पंखुड़ियां इतनी तेजी से घूमेंगी कि उनके बीच की खाली जगह, इसके पहले कि आप देख पाएं, भर जाएगी। इसके पहले कि खाली जगह आंख की पकड़ में आए, कोई पंखुड़ी खाली जगह पर आ जाएगी। अगर बहुत तेज बिजली के पंखे को घुमाया जाए तो आपको टीन का एक गोल वृत्त घूमता हुआ दिखाई पड़ेगा, पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़ेंगी। आप गिनती करके नहीं बता सकेंगे कि कितनी पंखुड़ियां हैं। अगर और तेजी से घुमाया जा सके तो आप पत्थर फेंक कर पार नहीं निकाल सकेंगे, पत्थर इसी पार गिर जाएगा। अगर और तेज घुमाया जा सके, जितनी तेजी से परमाणु घूम रहे हैं, अगर उतनी तेजी से बिजली के पंखे को घुमाया जा सके, तो आप मजे से उसके ऊपर बैठ सकते हैं, आप गिरेंगे नहीं। और आपको पता भी नहीं चलेगा कि पंखुड़ियां नीचे घूम रही हैं। क्योंकि पता चलने में जितना वक्त लगता है, उसके पहले नई पंखुड़ी आपके नीचे आ जाएगी। आपके पैर खबर दें आपके सिर को कि पंखुड़ी बदल गई, इसके पहले दूसरे पंखुड़ी आ जाएगी। बीच के गैप, बीच के अंतराल का पता न चले तो आप मजे से खड़े रह सकेंगे।

ऐसे ही हम खड़े हैं अभी भी। अणु तीव्रता से घूम रहे हैं, उनके घूमने की गति तीव्र है इसलिए चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं। जगत में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। और जो चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं, वे सब चल रही हैं।

अगर वे चीजें ही होती चलती हुई तो भी कठिनाई न थी। जितना ही विज्ञान परमाणु को तोड़ कर नीचे गया तो उसे पता चला कि परमाणु के बाद तो फिर पदार्थ नहीं रह जाता, सिर्फ ऊर्जा कण, इलेक्ट्रांस रह जाते हैं, विद्युत कण रह जाते हैं। उनको कण कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कण से पदार्थ का खयाल आता है। इसलिए अंग्रेजी में एक नया शब्द उन्हें गढ़ना पड़ा, उस शब्द का नाम क्वांटा है। क्वांटा का मतलब है: कण भी, कण नहीं भी; कण भी और लहर भी, एक साथ। विद्युत की तो लहरें हो सकती हैं, कण नहीं हो सकते। शक्ति की लहरें हो सकती हैं, कण नहीं हो सकते। लेकिन हमारी भाषा पुरानी है, इसलिए हम कण कहे चले जाते हैं। ऐसे कण जैसी कोई भी चीज नहीं है। अब विज्ञान की नजरों में यह सारा जगत ऊर्जा का, विद्युत की ऊर्जा का विस्तार है।
योग का पहला सूत्र यही है: जीवन ऊर्जा है, शक्ति है।

Monday, May 10, 2010

Why the suffering in this life I've got pain?

इस जीवन में मैंने दुख ही दुख क्यों पाया है?



दुख ही दुख अगर पाया है तो बड़ी मेहनत की होगी पाने के लिए, बड़ा श्रम किया होगा, बड़ी साधना की होगी, तपश्र्चर्या की होगी! अगर दुख ही दुख पाया है तो बड़ी कुशलता अर्जित की होगी! दुख कुछ ऐसे नहीं मिलता, मुफ्त नहीं मिलता। दुख के लिए कीमत चुकानी पड़ती है।

आनंद तो यूं ही मिलता है; मुफ्त मिलता है; क्योंकि आनंद स्वभाव है। दुख अर्जित करना पड़ता है। और दुख अर्जित करने का पहला नियम क्या है? सुख मांगो और दुख मिलेगा। सफलता मांगो, विफलता मिलेगी। सम्मान मांगो, अपमान मिलेगा। तुम जो मांगोगे उससे विपरीत मिलेगा। तुम जो चाहोगे उससे विपरीत घटित होगा। क्योंकि यह संसार तुम्हारी चाह के अनुसार नहीं चलता। यह चलता है उस परमात्मा की मर्जी से।

अपनी मर्जी को हटाओ! अपने को हटाओ! उसकी मर्जी पूरी होने दो। फिर दुख भी अगर हो तो दुख मालूम नहीं होगा। जिसने सब कुछ उस पर छोड़ दिया, अगर दुख भी हो तो वह समझेगा कि जरूर उसके इरादे नेक होंगे। उसके इरादे बद तो हो ही नहीं सकते। जरूर इसके पीछे भी कोई राज होगा। अगर वह कांटा चुभाता है तो जगाने के लिए चुभाता होगा। और अगर रास्तों पर पत्थर डाल रखे हैं उसने तो सीढ़ियां बनाने के लिए डाल रखे होंगे। और अगर मुझे बेचैनी देता है, परेशानी देता है, तो जरूर मेरे भीतर कोई सोई हुई अभीप्सा को प्रज्वलित कर रहा होगा; मेरे भीतर कोई आग जलाने की चेष्टा कर रहा होगा।

जिसने सब परमात्मा पर छोड़ा, उसके लिए दुख भी सुख हो जाते हैं। और जिसने सब अपने हाथ में रखा, उसके लिए सुख भी दुख हो जाते हैं।

जिसे तुम जीवन समझ रहे हो, वह जीवन नहीं है, टुकड़े-टुकड़े मौत है। जन्म के बाद तुमने मरने के सिवाय और किया ही क्या है? रोज-रोज मर रहे हो। और जिम्मेवार कौन है? अस्तित्व ने जीवन दिया है, मृत्यु हमारा आविष्कार है। अस्तित्व ने आनंद दिया है, दुख हमारी खोज है।

प्रत्येक बच्चा आनंद लेकर पैदा होता है; और बहुत कम बूढ़े हैं जो आनंद लेकर विदा होते हैं। जो विदा होते हैं उन्हीं को हम बुद्ध कहते हैं। सभी यहां आनंद लेकर जन्मते हैं; आश्र्चर्यविमुग्ध आंखें लेकर जन्मते हैं; आह्लाद से भरा हुआ हृदय लेकर जन्मते हैं। हर बच्चे की आंख में झांक कर देखो, नहीं दीखती तुम्हें निर्मल गहराई? और हर बच्चे के चेहरे पर देखो, नहीं दीखता तुम्हें आनंद का आलोक? और फिर क्या हो जाता है? क्या हो जाता है? फूल की तरह जो जन्मते हैं, वे कांटे क्यों हो जाते हैं?

जरूर कहीं हमारे जीवन की पूरी शिक्षण की व्यवस्था भ्रांत है। हमारा पूरा संस्कार गलत है। हमारा पूरा समाज रुग्ण है। हमें गलत सिखाया जा रहा है। हमें सुख पाने के लिए दौड़ सिखाई जा रही है। दौड़ो! ज्यादा धन होगा तो ज्यादा सुख होगा। ज्यादा बड़ा पद होगा तो ज्यादा सुख होगा।

गलत हैं ये बातें। न धन से सुख होता है, न पद से सुख होता है। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धन छोड़ दो या पद छोड़ दो। मैं इतना ही कह रहा हूं, इनसे सुख का कोई नाता नहीं। सुख तो होता है भीतर डुबकी मारने से। हां, अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में धन हो तो धन भी सुख देता है। अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में दुख हो तो दुख भी सुख बन जाता है। जिसने भीतर डुबकी मारी, उसके हाथ में जादू आ गया, जादू की छड़ी आ गई। वह भीड़ में रहे, तो अकेला। वह शोरगुल में रहे, तो संगीत में। वह जल में चलता है, लेकिन जल में उसके पैर नहीं भीगते।

यह मैं नहीं कह सकता कि ये दुख अगर मिल रहे हैं तो पिछले जन्मों के हैं। पिछले जन्मों के दुख पिछले जन्मों में मिल गए होंगे। परमात्मा उधारी में भरोसा नहीं करता। अभी आग में हाथ डालोगे, अभी जलेगा, अगले जन्म में नहीं। और अभी किसी को दुख दोगे तो अभी दुख पाओगे, अगले जन्म में नहीं। यह अगले जन्म की तरकीब बड़ी चालबाज ईजाद है, बड़ा षड्यंत्र है, बड़ा धोखा है।

अगर अभी प्रेम करोगे तो अभी सुख बरसेगा और अभी क्रोध करोगे तो अभी दुख बरसेगा। सच तो यह है, क्रोध करने के पहले ही आदमी क्रोध से भस्मीभूत हो जाता है। दूसरे को जलाओ, उसके पहले खुद जलना पड़ता है। दूसरे को दुख दो, उसके पहले खुद को दुख देना पड़ता है।

ये पिछले जन्मों के दुख नहीं हैं। अभी जो कर रहे हो, उसी का परिणाम है। पहले तो मेरी बात सुन कर चोट लगेगी, क्योंकि सांत्वना नहीं मिलेगी। लेकिन अगर मेरी बात समझे तो छुटकारे का उपाय भी है। तो खुशी भी होगी। अगर इसी जन्म की बात है तो कुछ किया जा सकता है। यही मैं कह रहा हूं कि अभी कुछ किया जा सकता है।

सुख छोड़ो! सुख की आकांक्षा छोड़ो! सुख की आकांक्षा का अर्थ है-बाहर से कुछ मिलेगा, तो सुख। बाहर से कभी सुख नहीं मिलता। सुख की सारी आकांक्षा को ध्यान की आकांक्षा में रूपांतरित करो। सुख नहीं चाहिए, आनंद चाहिए। और आनंद भीतर है।

तो भीतर जितना समय मिल जाए, उतना भीतर डुबकी मारो। जब मिल जाए, दिन-रात, काम-धाम से बच कर, जब सुविधा मिल जाए, पति दफ्तर चले जाएं, बच्चे स्कूल चले जाएं, तो घड़ी दो घड़ी के लिए द्वार-दरवाजे बंद करके-घर के ही नहीं, इंद्रियों के भी द्वार-दरवाजे बंद करके-भीतर डूब जाओ। और धीरे-धीरे सुख के फूल खिलने शुरू हो जाएंगे-महासुख के! और वे ऐसे फूल हैं जो खिलते हैं तो फिर मुर्झाते नहीं हैं।

Monday, February 15, 2010

अनुशासन स्वतंत्रता साधन है & अनुशासनहीन स्वतंत्रता अति दु:खदायी है?,



जो व्यक्ति स्वतंत्र हैं, उन्हें यह खेद है कि उनमें अनुशासन नहीं। वे बार-बार प्रतिज्ञा करते हैं कि वे कुछ संयम में रहेंगे।
जो व्यक्ति नियंत्रण में रहते हैं, वे उसके समाप्त होने का इंतजार करते हैं। अनुशासन अपने आप में अंत नहीं, एक साधन है।
उन व्यक्तियों को देखो जिनमें जरा भी अनुशासन नहीं है, उनकी अवस्था दयनीय है। अनुशासनहीन स्वतंत्रता अति दु:खदायी है। और स्वाधीनता के बिना अनुशासन से भी घुटन होती है। सुव्यवस्था में नीरसता है, अव्यवस्था तनावपूर्ण होती है। हमें अपने अनुशासन को अजाद व स्वतंत्रता को अनुशासित करना है।
जो व्यक्ति हमेशा साथियों से घिरे हैं, वे एकांत का आराम ढूंढते हैं। एकांत में रहने वाले व्यक्ति अकेलापन अनुभव करते हैं और साथी ढूंढते हैं। ठंड में रहने वाले लोग गर्म स्थान चाहते हैं। गर्म प्रदेश में रहने वाले ठंड पसंद करते हैं। जीवन की यही विडंबना है।
प्रत्येक व्यक्ति संपूर्ण संतुलन की खोज में है। संपूर्ण संतुलन तलवार की धार की तरह है। यह सिर्फ आत्मा में ही पाया जा सकता है।
आत्मा के एकांत में
बुद्ध शिखर पर नहीं हैं, बल्कि शिखर उनके नीचे है। जो शिखर पर ऊपर जाता है, वह फिर नीचे आता है। पर शिखर उसको ढूंढता है जो और ऊपर, अपनी अंतरात्मा में स्थित है।
शिव को चंद्रशेखर कहते हैं, जिसका अर्थ है वह मन जो शिवमय है- इंद्रियों के परे, त्रिगुणातीत और सर्वदा शिखर के ऊपर है।
लोग दावतों और उत्सवों के पीछे भागते हैं। पर जो उनके पीछे नहीं भागता, दावत और उत्सव, जहां भी वह जाए, उसके पीछे चलते हैं। जब तुम दावतों के पीछे भागते हो, तुम्हें अकेलापन मिलता है।
जब तुम आत्मा के साथ एकांत में रहते हो, तुम्हारे चारों ओर उत्सव होते हैं।
संघर्ष का अंत
जब तुम शांतिपूर्ण वातावरण में होते हो, तुम्हारा मन संघर्ष पैदा करने के लिए बहाने ढूंढता है। प्राय: छोटी-छोटी बातें बडी हलचल मचाने के लिए पर्याप्त हैं, क्या आपने गौर किया है?
स्वयं से यह प्रश्न करो: क्या तुम हर परिस्थिति में शांति देखते हो या इस चेष्टा में रहते हो कि मतभेदों को बढाकर अपना मत प्रमाणित करो?
जब तुम्हारा जीवन संकट में होता है तब तुम्हें यह शिकायत नहीं होती कि दूसरे तुमसे प्रेम नहीं करते हैं। जब तुम भयरहित और सुरक्षित होते हो, तब तुम चाहते हो कि लोग तुमको पूछें। कुछ व्यक्ति दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ही लडाई-झगडे उत्पन्न करते हैं। नकारात्मकता का बीज और संघर्ष करने की तुम्हारी प्रवृत्ति का अंत केवल साधना द्वारा ही संभव है।
शिव और कृष्ण एक ही हैं
अनंत के विविध गुण हैं और विशेष गुणों के अनुसार वे नाम ग्रहण करते हैं। उन्हें देवता कहते हैं।
देवता तो सिर्फतुम्हारी ही परम-आत्मा की किरणें हैं, तुम्हारे विस्तृत हाथ। वे तुम्हारी ही सेवा में रहते हैं-जब तुम केंद्रित होते हो। जैसे एक अंकुरित बीज से जड, स्कंध व पत्तियां निकलती हैं, वैसे ही जब तुम केंद्रित होते हो, तब तुम्हारे जीवन में सभी देवी-देवताओं का प्रकटीकरण होता है।
देवता तुम्हारी संगत में बहुत आनंदित होते हैं, पर तुम्हें उनसे कोई लाभ नहीं।
जिस तरह सूर्य के उज्ज्वल प्रकाश में सभी रंग समाए रहते हैं, उसी तरह सभी देवता तुम्हारी विशुद्ध आत्मा में समाए हैं। परम-सुख उनकी श्वास है, वैराग्य उनका वास।
वैराग्य के दाता हैं शिव- वह परम चेतना जिसमें भोलापन है, जो आनंदमय है, सर्वव्यापी है। कृष्ण शिव की बाह्य अभिव्यक्ति हैं और शिव कृष्ण के आंतरिक मौन।
ईश्वर का ग्यारहवां आदेश
जब तुम अकेले हो तो भीड में रहना अज्ञानता है। ज्ञान-प्राप्ति है भीड में भी अकेले रहना। भीड में सभी के साथ एकता महसूस करना बुद्धिमता का लक्षण है।
जीवन के प्रति ज्ञान आत्मविश्वास लाता है और मृत्यु का ज्ञान तुम्हें निडर बनाता है, आत्मकेंद्रित करता है।
भय क्या है? पृथकता, अलगाव का भय।
कुछ व्यक्ति केवल लोगों की भीड में ही उत्सव मना सकते हैं, और कुछ सिर्फएकांत में, मौन में, ख्ाुशी मना सकते हैं।
मैं तुमसे कहता हूं-दोनों करो।
एकांत में उत्सव मनाओ, लोगों के साथ भी उत्सव मनाओ।
शांति का उत्सव मनाओ, शोरगुल का भी उत्सव मनाओ।
जीवन का उत्सव मनाओ, मृत्यु का भी उत्सव मनाओ।
यही ग्यारहवां आदेश है।
जो झरना ऊपर की ओर जाता है
तुम केवल पानी का गिरना देखते हो। तुम यह नहीं देखते कि सागर कैसे बादल बन जाता है-यह तो एक रहस्य है। परंतु बादल का सागर बनना प्रत्यक्ष है, सुस्पष्ट।
संसार में बहुत कम लोग तुम्हारी आंतरिक उन्नति को पहचान सकते हैं, परंतु तुम्हारा बाहरी आचरण ही सबको नजर आता है।
कभी चिंतित नहीं हो कि लोग तुम्हें समझते नहीं। वे सिर्फ तुम्हारे भावों की अभिव्यक्ति को देख सकते हैं!