Friday, August 19, 2011

KaLika Astak


कालिकाष्टक (शंकराचार्य विरचितम)



* ध्यान *
गलद्रक्त मुण्डावली कण्ठमाला 
माहाघोर रावा सुदँष्ट्रा कराला।
विवस्त्रा श्मशनालया मुक्तकेशी
महाकाल कामा कुला कालिकेयम।।१।। 

भुजेवामयुग्मे शिरोसिं दधाना
वरं दक्षयुग्मेभयं वै तथैव । 
सुमध्यापी तुंगस्थना भारनम्रा
लसद्रक्त सृक्कद्वया सुस्मितास्या।।२।। 

शवद्वन्दकर्णा वतंसा सुकेशी
लसत्प्रेतपाणीं प्रयुक्तैक कांची। 
शवाकारमँचाधीरुढा शिवाभि-
श्चतुर्दिक्षु शब्दयामानाभिरेजे।।३।। 

      **स्तुती** 
विरन्च्यादिदेवास्त्रयते गुणात्रिम्
समाराध्य कालीँ प्रधाना बवुभु। 
अनादिं सुरादीं मखादिं भवादिं 
स्वरूपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।१।।

जगन्मोहिनियम् तु वाग्वादिनियम्
सुह्रिद्पोषिणी शत्रु संहारणियम्।  
वचस्तम्भनियम् किमुच्चाटनियम्
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।२।।

इयं स्वर्गदात्री पुन: कल्पवल्ली 
मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात।
तथाते कृतार्था भवन्तीति नित्यम
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।३।। 

सुरापानमत्ता शुभक्तानुरक्ता 
लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते। 
जपध्यान् पूजासुधाधौतपंका 
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।४।। 

चिदानन्दकन्दं हसन्मन्दमन्दं 
शरच्चन्द्र कोटीप्रभापुन्ज बिन्वम्। 
मुनीनां कवीनां हृदि ध्योतयन्तं 
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।५।।        

माहामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा
कदचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया। 
न वाला न वृद्धा न कामातुरापि 
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।६।। 

क्षमास्वपराधं माहागुप्तभावं 
मायालोकमध्ये प्रकाशीकृतं यत्। 
तव ध्यानपुतेन चापल्यभावात्
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।७।। 

यदी ध्यान युक्तं पठेध्यो मनुष्य 
स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च। 
गृहे चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्ती-
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।८।। 

A tribute to Mother..Jay Mahakali Jay Jagat Janani Bhagavati Mata

apradh kashma stotra





अपराध क्षमापन स्तोत्र



न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा:।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्॥1॥


विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति॥2॥


पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहव: सन्ति सरला:
परं तेषां मध्ये विरलतरलोहं तव सुत:।
मदीयोऽयं त्याग: समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति॥3॥


जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति॥4॥


परित्यक्ता देवा विविधविधिसेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥5॥


श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरित चिरं कोटिकनकै:।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जन: को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ॥6॥


चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपति:।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्॥7॥


न मोक्षस्याकाड्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुन:।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपत:॥8॥


नाराधितासि विधिना विविधोपचारै:
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभि:।
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव॥9॥


आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा:
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति॥10॥


जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।
अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम्॥11॥


मत्सम: पातकी नास्ति पापघन्ी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु.

Gurumata........ Image:सिद्धाश्रम निखिल वाणी

Guru Aavhan stotra


गुरु आह्वान् स्तोत्र

१ 
पूर्णम् सतान्यै परिपूर्ण रुपम्।  
गूरुर्वै सतान्यम् दीर्घो वतान्यम्।। 
आवर्विताम् पूर्ण मदैव पुण्यम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
       त्वमेव माता च........... 
२ 
न जानामी योगम न जानामी ध्यानम्। 
न मन्त्रम् न तन्त्रम् योगम् कृयान्वै।। 
न जानामी पुर्णम् न देहम न पूर्वम। 
गुरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
       त्वमेव माता च........... 
३ 
अनाथो दरिद्रो जरा रोग युक्तो। 
माहाक्षिण दीनम् सदा ज्याड्य वक्त्र:।। 
विपत्ती प्रविष्टम् सदाह्म् भजामी। 
गुरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
       त्वमेव माता च........... 
४ 
त्वम् मातृ रुपम् पितृ स्वरुपम्। 
आत्म स्वरुपम् प्राण स्वरुपम्।। 
चैतन्य रुपम् देव दिवन्त्रम्। 
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।  
        त्वमेव माता च...........
५ 
त्वम् नाथ पूर्णम् त्वम् देव पुर्णम्। 
आत्मम् च पूर्णम् ज्ञानम् च पूर्णम्।। 
अहम् त्वाम् प्रपध्ये सदह्म् भजामी। 
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
           त्वमेव माता च........... 
६ 
मम अश्रु अर्घ्यम् पुष्पम् प्रसुनम्। 
देहम् च पुष्पम् शरणम् त्वमेवम्।। 
जीवो$वदाम् पूर्ण मदैव रुपम्। 
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।। 
           त्वमेव माता च...........
आवाहयामि        आवाहयामि। 
शरण्यम् शरण्यम् सदाह्म् शरण्यम्।। 
त्वम् नाथ मेवम् प्रपध्ये प्रशन्नम्। 
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।। 
         त्वमेव माता च...........
८ 
न तातो न माता न बन्धुर्न भ्राता।
न पुत्रो न पुत्री न भृत्योर्न भर्ता।।
न जाया न वित्तम न वृत्तिर्ममेवम्।
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च...........
९ 
आवध्य रुपम् अश्रु प्रवाहम्। 
धीयाम् प्रपध्ये हृदयम् वदान्यै।। 
देह त्वमेवम् शरण्यम् त्वमेवम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च........... 
१० 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
एको हि नाथम् एको हि शब्दम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च...........
११ 
कान्ताम् न पूर्व वदान्यै वदान्यम्। 
को$ह्म् सदान्यै सदाह्म् वदामि।। 
न पूर्वम् पतिर्वै पतिर्वै सदा$ह्म्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च...........
 १२ 
न प्राणो वदार्वै न देहम् नवा$है। 
न नेत्रम न पूर्व सदा$ह्म् वदान्यै।। 
तुच्छम् वदाम् पूर्व मदैव तुल्यम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च...........
१३ 
पूर्वो न पूर्व न ज्ञानम् न तुल्यम्। 
न नारी नरम् वै पतिर्वै न पत्न्यम्।। 
को कत् कदा कुत्र कदैव तुल्यम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
        त्वमेव माता च...........
१४ 
गुरुर्वै गतान्यम् गुरुर्वै शतान्यम्। 
गुरुर्वै वदान्यम् गुरुर्वै कथान्यम्।। 
गुरुमेव रुपम् सदा$ह्म् भजामी। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
        त्वमेव माता च...........
१५ 
आत्र वदाम् अश्रु वदैव रुपम्। 
ज्ञानम् वदान्यै परिपूर्ण नित्यम्।। 
गुरुर्वै वज्राह्म् गुरुर्वै भजाह्म्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
        त्वमेव माता च........... 
१६ 
त्वमेव माता च पिता त्वमेव। 
त्वमेव वन्धुश्च सखा त्वमेव।। 
त्वमेव विध्या द्रविणम् त्वमेव। 
त्वमेव सर्वम् मम देव देव।।

Siddhashram Panchak


सिद्धाश्रम पञ्चक

गुरूत्वम् सदैवम् पुर्णा तदैवम्।
भाग्येन् देवो भवदेव नित्यम्।।
अहो भवाम् परीपूर्ण सिन्धुम्।
गुरूत्वम् शरण्यम् गुरुत्वम शरण्यम्।।
             त्वमेव माता च पिता त्वमेव..........

त्वम् मातृ रुपम् पितृ स्वरुपम्।
बन्धु स्वरुपम् आत्म स्वरुपम्।।
चैतन्य रुपम् पूर्णत्व रुपम्।
गुरूत्वम् शरण्यम् गुरुत्वम् शरण्यम्।।  
           त्वमेव माता च पिता त्वमेव......... 

न तातो न माता न बन्धुर्न भ्राता।
न पुत्रो न पुत्री न भृत्योर्न भर्ता।।
न जाया न वित्तम न वृत्तिर्ममेवम्।
गतिस्त्वम् मतिस्त्वम् गुरूत्वम् शरण्यम्।।
             त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

अनाथो दरिद्रो जरा रोग युक्तो।
महाक्षीण दीन सदा जाड्यवक्ता।।
विपत्ती प्रविष्ट सदाहम् भजामी।
गुरूत्वम् शरण्यम् गुरूत्वम् शरण्यम्।।
             त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

त्वम् मातृ रुपम् त्वम् पितृ रुपम्।
सदैवम् सदैवम् कृपा सिन्धु रुपम्।।
त्वमेवम् शरण्यम् त्वमेवम् शरण्यम्।
गुरूत्वम् सदैवम् गुरूत्वम् शरण्यम्।।
             त्वमेव माता च पिता त्वमेव......... 

न जानामी मन्त्रम्  न जानामी तन्त्रम्।
न योगम् न पूजा न ध्यानम् वदामी।।
न जानामी चैतन्य ज्ञानम् स्वरुपम्।
एकोही रुपम् गुरूत्वम् शरण्यम्।।
            त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

एकोही नामम् एकोही कार्यम्।
एकोही ध्यानम् एकोही ज्ञानम्।।
आज्ञा सदैवम् परिपाल्यन्तिम्।
त्वमेवम् शरण्यम् त्वमेवम् शरण्यम्।।
              त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

त्वम् ज्ञात रुपम् त्वम् अज्ञात रुपम्।
मम देह रुपम् मम प्राण रुपम्।।
पूर्णत्व देहम मम प्राण सदेवम्।
त्वमेवम् शरण्यम् गुरूत्वम् शरण्यम्।। 
              त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

Friday, August 12, 2011

SABAR GURU PARTYAKSH SADHNA



SABAR GURU PARTYAKSH SADHNA

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साधक जीवन का सर्वोपरि सुख और आनंद जो है,वो एक मात्र गुरु की सायुज्यता ही है,गुरु के चरणों में बैठना,उनसे सतत ज्ञान की प्राप्ति करना,उनके मधुर साहचर्य में जीवन के अभावो की तपती दोपहरी से बच कर बैठने की क्रिया समझना.पर क्या ये इतना सहज है,नहीं ना.........................

और जब गुरु ने स्वधाम गमन कर लिया हो तब तो चित्त की अशांति इतनी भयावह हो जाती है की उस अंधियारे में कोई राह नहीं दिखती है,तब साबर साधनाओ का ये अत्यधिक गोपनीय मंत्र उस पूर्णमासी के चाँद के रूप में आपको प्रकाश तक पहुचता है.यदि पूर्ण विधान से इसे शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी और पूर्णिमा को संपन्न किया जाये तो साधक को उसके बिम्बात्मक गुरु के दर्शन और दिशा निर्देशन सतत मिलता ही रहता है.ये प्रयोग सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं अपितु करकर देखने के लिए है.इससे आभास नहीं होता बल्कि उसे पूर्ण तेजस्वी बिम्ब के दर्शन होते ही हैं और यही नहीं बल्कि उसे गुरु के द्वारा भविष्य में जीवन के लिए उपयोगी निर्देश भी प्राप्त होते रहते हैं.

निर्देशित दिवस की रात्री के दूसरे प्रहर में पूर्ण स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण कर छत पर सफ़ेद उनी आसन पर उत्तराभिमुख होकर बैठ जाये.सामने बाजोट पर गुरु का चित्र स्थापित हो उनका पूर्ण विधि विधान से पूजन करे,सुगन्धित धुप का और पुष्पों का प्रयोग किया जाये,उसी प्रकार महासिद्ध गुटिका को भी चित्र के समक्ष अक्षत की ढेरी पर स्थापित कर पूजन करे,घृत दीपक का प्रयोग करे.खीर का भोग चढ़ाये,और स्थिर चित्त होकर त्रिकूट पर ध्यान लगाकर निम्न मन्त्र का ४ घंटे तक जप करे. जैसे जैसे आपकी तल्लीनता बढते जायेगी,आपके आज्ञा चक्र पर एक सुनहरी-नीली ज्योति प्रकट होने लग जायेगी और अंत में आपके गुरु का पूर्ण तेजस्वी बिम्ब वहाँ प्रत्यक्ष हो जायेगा और आपके कानो में उनकी पूर्ण आवाज भी सुनाई देने लगेगी,आप जो भी प्रश्न पूर्ण कृतज्ञता के साथ अपने ह्रदय में लायेंगे,उनका उत्तर आपको कानो में सुनाई देने लगेगा,परन्तु ये प्रश्न आपके जीवन ध्येय और साधनाओं से सम्बंधित ही होने चाहिए.और यदि आपने यही क्रम पूर्णिमा को भी एकाग्रता पूर्वक संपन्न कर लिया तो जब भी आप अपनी साधना में बैठोगे उनका पूर्ण वरदहस्त आपके शीश पर ही होगा. उच्च कोटि के साधक इसी मंत्र से त्रिकूट के बजाय अपने सामने गुरु को आवाहित करने में सफल होते ही हैं.

मन्त्र- आदि ज्योति,रूप ओंकार,आनंद का है गुरु वैपार,नीली ज्योति,सुनहरा रूप,तेरो भेष न जाने कोय,अनगद भेष बदलतो रूप,तू अविनाशी जानत न कोय,शून्य में तू विराजत,तेरो चाकर ब्रह्म बिष्णु महेश.किरपा दे,कर तू उपकार,जीवन नैया कर बेडा पार.जय जय जय सतगुरु की दुहाई.

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The most blissful moment for saadhak’s life are that in which he spend time with his guru while sitting at his feet and getting the lessons that how he can protect himself from the drastic ups and down of life but this is not as easy as it sounds……..

But it becomes most dreadful fact of life and cause pain if guru has proceeded to his final destination. But if this mantra of Sabar sadhnas can be enchant on the Shukl Pksh ki Chtudrshi aur on Poornima by following all the rules and regulations then sadhak can have not only the glimpse of his guru but also get direction and guideline from him. This practical is not merely to listen but authentic and by doing this one can have direct orders and guidelines from his guru not only for present but for future as well. Sadhak that are on high level in sadhnas field successfully call their guru himself at place of Trikutt.

Aadi jyoti,roop omkaar,aanand ka hai guru vaipaar,neelee jyoti,sunhara roop,tero bhesh na jaane koy,angad bhesh badalto roop,tu avinaashi jaanat naa koy,shunya me tu viraajat,tero chaakar bramha bishnu mahesh.kirpa de,kar tu upkaar,jeevan naiya kar bedaa paar,jai jai jai satguru ki duhaai.

****NPRU****

Friday, August 5, 2011

shri Narayan kavach

श्री नारायण कवच
न्यासः- सर्वप्रथम श्रीगणेश जी तथा भगवान नारायण को नमस्कार करके नीचे लिखे प्रकार से न्यास करें।
अगं-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — पादयोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों का स्पर्श करें)।
ॐ नं नमः — जानुनोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों घुटनों का स्पर्श करें )।
ॐ मों नमः — ऊर्वोः (दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों की जाँघ का स्पर्श करें)।
ॐ नां नमः — उदरे ( दाहिने हाथ की तर्जनी तथा अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर पेट का स्पर्श करे )
ॐ रां नमः — हृदि ( मध्यमा-अनामिका-तर्जनी से हृदय का स्पर्श करें )
ॐ यं नमः – उरसि ( मध्यमा- अनामिका-तर्जनी से छाती का स्पर्श करे )
ॐ णां नमः — मुखे ( तर्जनी – अँगुठे के संयोग से मुख का स्पर्श करे )
ॐ यं नमः — शिरसि ( तर्जनी -मध्यमा के संयोग से सिर का स्पर्श करे )
कर-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — दक्षिणतर्जन्याम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने तर्जनी के सिरे का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —-दक्षिणमध्यमायाम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ मों नमः —दक्षिणानामिकायाम् ( दहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ भं नमः —-दक्षिणकनिष्ठिकायाम् (दाहिने अँगुठे से हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ गं नमः —-वामकनिष्ठिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ वं नमः —-वामानिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाँथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ तें नमः —-वाममध्यमायाम् ( बाँये अँगुठे से बाये हाथ की मध्यमा का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ वां नमः —वामतर्जन्याम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की तर्जनी का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ सुं नमः —-दक्षिणाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ दें नमः —–दक्षिणाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
ॐ वां नमः —–वामाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये अँगुठे के ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ यं नमः ——वामाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
विष्णुषडक्षरन्यासः-
ॐ ॐ नमः ————हृदये ( तर्जनी – मध्यमा एवं अनामिका से हृदय का स्पर्श करे )
ॐ विं नमः ————-मूर्ध्नि ( तर्जनी मध्यमा के संयोग सिर का स्पर्श करे )
ॐ षं नमः —————भ्रुर्वोर्मध्ये ( तर्जनी-मध्यमा से दोनों भौंहों का स्पर्श करे )
ॐ णं नमः —————शिखायाम् ( अँगुठे से शिखा का स्पर्श करे )
ॐ वें नमः —————नेत्रयोः ( तर्जनी -मध्यमा से दोनों नेत्रों का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —————सर्वसन्धिषु ( तर्जनी – मध्यमा और अनामिका से शरीर के सभी जोड़ों — जैसे – कंधा, घुटना, कोहनी आदि का स्पर्श करे )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्राच्याम् (पूर्व की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् –आग्नेय्याम् ( अग्निकोण में चुटकी बजायें )
ॐ मः अस्त्राय फट् — दक्षिणस्याम् ( दक्षिण की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — नैऋत्ये (नैऋत्य कोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्रतीच्याम्( पश्चिम की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — वायव्ये ( वायुकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — उदीच्याम्( उत्तर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऐशान्याम् (ईशानकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऊर्ध्वायाम् ( ऊपर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — अधरायाम् (नीचे की ओर चुटकी बजाएँ )
श्री हरिः
अथ श्रीनारायणकवच
।।राजोवाच।।
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्।।१
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाssततायिनः शत्रून् येन गुप्तोsजयन्मृधे।।२
राजा परिक्षित ने पूछाः भगवन् ! देवराज इंद्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरङ्गिणी सेना को खेल-खेल में अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राज लक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को सुनाइये और यह भी बतलाईये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की ।।१-२
।।श्रीशुक उवाच।।
वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु।।३
श्रीशुकदेवजी ने कहाः परीक्षित् ! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण कवच का उपदेश दिया तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ।।३
विश्वरूप उवाचधौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः।।४
नारायणमयं वर्म संनह्येद् भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि।।५
मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा।।६
विश्वरूप ने कहा – देवराज इन्द्र ! भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिए उसकी विधि यह है कि पहले हाँथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथ में कुश की पवित्री धारण करके उत्तर मुख करके बैठ जाय इसके बाद कवच धारण पर्यंत और कुछ न बोलने का निश्चय करके पवित्रता से “ॐ नमो नारायणाय” और “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इन मंत्रों के द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि करन्यास करे पहले “ॐ नमो नारायणाय” इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करे अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ॐ कार तक आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ कर उन्हीं आठ अङ्गों में विपरित क्रम से न्यास करे ।।४-६
करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारन्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठ​पर्वसु।।७
तदनन्तर “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस द्वादशाक्षर -मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बाँयीं तर्जनी तक दोनों हाँथ की आठ अँगुलियों और दोनों अँगुठों की दो-दो गाठों में न्यास करे।।७
न्यसेद् हृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्।।८
वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः।।९
सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति ।।१०
फिर “ॐ विष्णवे नमः” इस मन्त्र के पहले के पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदय में, ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्र , में ‘ष’ का भौहों के बीच में, ‘ण’ का चोटी में, ‘वे’ का दोनों नेत्रों और ‘न’ का शरीर की सब गाँठों में न्यास करे तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्ध करे इस प्रकर न्यास करने से इस विधि को जानने वाला पुरूष मन्त्रमय हो जाता है ।।८-१०
आत्मानं परमं ध्यायेद ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत ।।११
इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या, तेज, और तपः स्वरूप इस कवच का पाठ करे ।।११
ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः ।।१२
भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं आठ हाँथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष, और पाश (फंदा) धारण किए हुए हैं वे ही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें।।१२
जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ।।१३
मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण के पाश से मेरी रक्षा करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें 13
दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ।।१४
जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ।।१४
रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद् भरताग्रजोsस्मान् ।।१५
अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुराम जी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगावन् रामचंद्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें ।।१५
मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।१६
भगवान् नारायण मारण – मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें ।।१६
सनत्कुमारो वतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ।।१७
परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ।।१७
धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ।।१८
भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों से मेरी रक्षा करें ।।१८
द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात्।
कल्किः कले कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः ।।१९
भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें धर्म-रक्षा करने वाले महान अवतार धारण करने वाले भगवान् कल्कि पाप-बहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें ।।१९
मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ।।२०
प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।२०
देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतु पद्मनाभः ।।२१
तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें सांयकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषिकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्ध रात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१
श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ।।२२
रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।२२
चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ।।२३
सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह है आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।।२३
गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि। कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्र​हांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ।।२४
कौमुद की गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ इसलिए आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर – चूर कर दिजिये ।।२४
त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्​रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ।।२५
शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से तुरन्त भगा दीजिये ।।२५
त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक​्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् २६
भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिजिये। भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ।।२६
यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ।।२७
सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ।।२८
सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हो और जो हमारे मङ्गल के विरोधी हों – वे सभी भगावान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें ।।२७-२८
गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ।।२९
बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरूड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें।।२९
सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ।।३०
श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ।।३०
यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत्।
सत्यनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपाद्रवाः ।।३१
जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है, वह वास्तव में भगवान् ही है इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें ।।३१
यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।।३२
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ।।३३
जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों से रहित है-भेदों से रहित हैं फिर भी वे अपनी माया शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें ।।३२-३३
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजाः ।।३४
जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में, नीचे -ऊपर, बाहर-भीतर – सब ओर से हमारी रक्षा करें ।।३४
मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ।।३५
देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया है इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य – यूथपतियों को जीत कर लोगे ।।३५
एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ।।३६
इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छू देता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है 36
न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ।।३७
जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता ।।३७
इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि ।।३८
देवराज! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया ।।३८
तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षयः ।।३९
जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके उपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठ कर निकले ।।३९
गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ।।४०
वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को चले गये ।।४०
।।श्रीशुक उवाच।।
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ।।४१
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परिक्षित् जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ।।४१
एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्यऽमृधेसुरान् ।।४२
परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे 42
।।इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्।।
( श्रीमद्भागवत स्कन्ध 6 , अ। 8 )

Narayana Kavacham

Narayana Kavacham

Om harir vidhadhyan mama sarva raksham.
Nyashngir padma padgendra prushte,
Dharari charmasi gadheshu chapa,
Pasan dadhano ashtaguno ashta bahu., 12
Jaleshu maam rakshathu mathsya moorthir,
Yadho ganebhyo varunasya pasad,
Sthaleshu maya vatu vamano avyal,
Trivikrama khevadu viswaroopa., 13
Durgesh atavyaji mukhadhishu Prabhu,
Payanrusimho asura yoodha pari,
Vimunchatho yasya mahattahasam,
Dhiso vinedhur anya pathangascha Garbha., 14
Rakshathwasou maadhwani Yajna Kalpa,
Swadamshtrayoth patha dharo varaha,
Ramo aadhrikooteshwadha vipravase,
Sa lakshmanovyadh bharathagrajo maam., 15
Mamugra dharmad akhilath pramadath,
Narayana pathu narascha hasath,
Dathaswa yogad adha Yoga natha,
Payadh Gunesa kapila Karma bandath., 16
Sanath kumaro aavathu Kama devath,
Hayanano maam padhi deva helanath,
Devarshi varya purusharcha nantharath,
Koormo harir maam nirayadh aseshath., 17
Dhanwandarir bhagawan pathway padhyath,
Dwandwadh bhayad rushabho nirjithama,
Yajnascha loka devathaa janandath,
Balo ganath krodha vasadh aheendra., 18
Dwaipayano bhagwan aprabhodhad,
Budhasthu pashanda ganath pramadhath,,
Kalki kale kala malath prapath,
Dharma vanayoru kruthavathara., 19
Maam kesavo gadhaya pratharavyad,
Govinda aasangava aartha venu,
Narayana prahana udatha shakthir,
Madhyandhine vishnurareendra pani., 20
Devo aparahne Madhu hogra dhanwa,
Sayam thridhamavathu Madhwao maam,
Doshe Hrishi kesa, uthardha rather,
Niseedha yekovathu Padmanabha., 21
Srivathsa dhamaapara rathra eesa,
Prathyoosha eesosidharo janardhana,
Dhamodharo avyad anusandhyam prabathe,
Visweswaro bhagwan kala moorthi., 22
Chakram yugantha analathigma nemi,
Bhramath samanthad Bhagvath prayuktham,
Dandhagdhi dangdhyari sainya masu,
Kaksham yadha vatha sakho huthasa., 23
Gadhe asani sparsana visphulinge,
Nishpindi nishpindyajitha priyasi,
Koosmanda vainayaka yaksha raksho,
Bhootha graham choornaya choornyarin., 24
Thwam yathu dhana pramadha pretha mathru,
Pisacha vipra graham gora drushteen,
Dharendra vidhravaya Krishna pooritho,
Bhima swano arer hrudhayani kambhayan., 25
Thwam thigma dharasi varari sainyam,
Eesa prayuktha mama chindhi, chindhi,
Chakshoomshi charman satha chandra chadhaya,
Dwishamaghonaam hara papa chakshusham., 26
Yanna bhayam grahebhyobhooth kethubhyo nrubhya eva cha,
Saree srupebhyo dhamshtribhyo bhoothabyohebhya yeva cha., 27
Sarvanyethani bhagavan nama roopasthra keerthanath,
Prayanthu samkshayam sadhyo ye na sreya pratheepika., 28
Garudo Bhagawan sthothra sthobha chandho maya Prabhu,
Rakshathwa sesha kruchsrebhyo vishwaksena swa namabhi., 29
Savapadbhyo harer nama roopayanaayudhani na.
Budheendriya mana praanan paanthu parshadha bhooshana., 30
Yadhahi bhagwan eva vasthutha sad sachayath,
Sathye nanena na sarve yanthu nasamupadrawa., 31
Yadaikathmanu bhavanam vikalpa rahitha swayam,
Bhooshanuyudha lingakhya dathe shakthi swa mayaya., 32
Thenaiva sathya manen sarvajno Bhagwan Hari,
Pathu sarvai swaroopairna sada sarvathra sarvaga., 33
Vidikshu dikshoordhwamadha Samantha,
Anthar bahir bhagwan narasimha,
Praha bhayam loka bhayam swanena,
Swathejasa grastha samastha theja., 34
Maghavan idham aakhyatham varma narayanathmakam,
Vijeshya syanjasa yena damsitho sura yoodhapan., 35
Yethad dharayamanasthu yam yam pasyathi chakshusha,
Pada vaa samsprusethsadhya saadvasath sa vimuchyathe., 36
Na kuthaschid bhayam thasya vidhyam dharayatho bhaved.,
Raja dasyu grahadhebhyo vyagradhibhyascha karhichith., 37
Imam vidhyam pura kaschid kaushiko dharayan dwija,
Yogadharanaya swa angam jahow marudhanwani., 38
Thasyopari vimanena gandharwa pathi rekhadha,
Yayou chithra radha sthreebhir vrutho yathra dwijakshaya., 39
Gagamam anya pada sadhya savimano hyavak sira,
Sa balakhilya vachanad asthhenyadhya vismitha,
Prasya prachee saraswathyam snathwa dhama swa manwagadh., 40