Wednesday, November 2, 2011

Papankusha Sadhana पापांकुशा साधना

यावत् जीवेत सुखं जीवेत |

सर्वं पापं विनश्यति ||



प्रत्येक जीव विभिन्न योनियों से होता हुआ निरन्तर गतिशील रहता है| हलाकि उसका बाहरी चोला बार-बार बदलता रहता है, परन्तु उसके अन्दर निवास करने वाली आत्मा शाश्वत है, वह मारती नहीं हैं, अपितु भिन्न-भिन्न शरीरों को धारण कर आगे के जीवन क्रम की ओर गतिशील रहती है|

जो कार्य जीव द्वारा अपनी देह में होता है, उसे कर्म कहते हैं और उसके सामान्यतः दो भेद हैं - शुभ कर्म यानी कि पुण्य तथा अशुभ कर्म अर्थात पाप| शुभ कर्म या पुण्य वह होता है, जिसमे हम किसी को सुख देते हैं, किसी की भलाई करते हैं और अशुभ कर्म वह होता है, जिसमें हमारे द्वारा किसी को दुःख प्राप्त होता है, जिसमें हमारे द्वारा किसी को संताप पहुंचता हैं|

मानव योनी ही एक ऐसे योनि है, जिसमें वह अन्य कर्मों को संचित करता रहता है| पशु आदि तो बस पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म ले कर ही चलते रहते हैं, वे यह नहीं सोचते, कि यह कार्य में कर रहा हूं या मैं इसको मार रहा हूं| अतः उनके पूर्व कर्म तो क्षय होते रहते हैं, परन्तु नवीन कर्मों का निर्माण नहीं होता; जबकि मनुष्य हर बात में 'मैं' को ही सर्वोच्चता प्रदान करता हैं... और चूंकि वह प्रत्येक कार्य का श्रेय खुद लेना चाहता है, अतः उसका परिणाम भी उसे ही भुगतना पड़ता है|

मनुष्य जीवन और कर्म

मनुष्य जीवन में कर्म को शास्त्रीय पद्धति में तीन भागों में बांटा गया है -


१. संचित
२. प्रारब्ध
३. आगामी (क्रियमाण)


'संचित कर्म' वे होते हैं, जो जीव ने अपने समस्त दैहिक आयु के द्वारा अर्जित किये हैं और जो वह अभी भी करता जा रहा है|

'प्रारब्ध' का अर्थ है, जिन कर्मों का फल अभी गतिशील हैं, उसे वर्त्तमान में भोगा जा रहा हैं|

'आगामी' का अर्थ है, वे कर्म, जिनका फल अभी आना शेष है|

इन तीनो कर्मों के अधीन मनुष्य अपना जीवन जीता रहता है| प्रकृति के द्वारा ऐसी व्यवस्था तो रहती है, कि उसके पूर्व कर्म संचित रहें, परन्तु दुर्भाग्य यह है, कि मनुष्य को उसके नवीन कर्म भी भोगने पड़ते हैं, फलस्वरूप उसे अनंत जन्म लेने पड़ते हैं| परन्तु यह तो एक बहुत ही लम्बी प्रक्रिया है, और इसमें तो अनेक जन्मों तक भटकते रहना पड़ता है|

परन्तु एक तरीका है जिससे व्यक्ति अपने छल, दोष, पाप को समूल नष्ट कर सकता है, नष्ट ही नहीं कर सकता अपितु भविष्य के लिए अपने अन्दर अंकुश भी लगा सकता है, जिससे वह आगे के जीवन को पूर्ण पवित्रता युक्त जी सके, पूर्ण दिव्यता युक्त जी सके और जिससे उसे फिर से कर्मों के पाश में बंधने की आवश्यकता नहीं पड़े|

साधना : एकमात्र मार्ग


...और यह तरीका, यह मार्ग है साधना का, क्योंकि साधना का अर्थ ही है, कि अनिच्छित स्थितियों पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर अपने जीवन को पूरी तरह साध लेना, इस पर पूरी तरह से अपना नियंत्रण कायम कर लेना|


यदि यह साधना तंत्र मार्ग के अनुसार हो, तो इससे श्रेष्ठ कुछ हो ही नहीं सकता, इससे उपयुक्त स्थिति तो और कोई हो ही नहीं सकती, क्योंकि स्वयं शिव ने 'महानिर्वाण तंत्र' में पार्वती को तंत्र की विशेषता के बारे में समझाते हुए बताया है -

कल्किल्मष दीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरी |

मध्या मध्य विचाराणां न शुद्धिः श्रौत्कर्मणा ||

न संहिताध्यैः स्र्मुतीभिरष्टसिद्धिर्नुणां भवेत् |

सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्य सत्यं मयोच्यते ||

विनाह्यागम मार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये |

श्रुतिस्मृतिपुराणादी मयैवोक्तं पूरा शिवे ||

आगमोक्त विधानेन कलौ देवान्यजेत्सुधिः ||




- ही देवी! कलि दोष के कारण ब्राह्मण या दुसरे लोग, जो पाप-पुण्य का विचार करते हैं, वे वैदिक पूजन की विधियों से पापहीन नहीं हो सकते| मैं बार बार सत्य कहता हूं, कि संहिता और स्मृतियों से उनकी आकांक्षा पूर्ण नहीं हो सकती| कलियुग में तंत्र मार्ग ही एकमात्र विकल्प है| यह सही है, कि वेद, पुराण, स्मृति आदि भी विश्व को किसी समय मैंने ही प्रदान किया था, परन्तु कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति तंत्र द्वारा ही साधना कर इच्छित लाभ पाएगा|

इससे स्पष्ट होता है, कि तंत्र साधना द्वारा व्यक्ति अपने पाप पूर्ण कर्मों को नष्ट कर, भविष्य के लिए उनसे बन्धन रहित हो सकते हैं| वैसे भी व्यक्ति यदि जीवन में पूर्ण दरिद्रता युक्त जीवन जी रहा है या यदि वह किसी घातक बीमारी के चपेट में है, जो कि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही हो, तो यह समझ लेना चाहिए, कि उसके पाप आगे आ रहे है ...

नीचे मैं कुछ स्थितियां स्पष्ट कर रहा हूं, जो कि व्यक्ति के पूर्व पापों के कारण जीवन में प्रवेश करती हैं --


१. घर में बार-बार कोई दुर्घटना होना, आग लगना, चोरी होना आदि |

२. पुत्र या संतान का न होना, या होने पर तुरंत मर जाना |

३. घर के सदस्यों की अकाल मृत्यु होना |

४. जो भी योजना बनायें, उसमें हमेशा नुकसान होना |

५. हमेशा शत्रुओं का भय होना|

६. विवाह में अत्यंत विलम्ब होना या घर में कलह पूर्ण वातावरण, तनाव आदि|

७. हमेशा पैसे की तंगी होना, दरिद्रतापूर्ण जीवन, बीमारी और अदालती मुकदमों में पैसा पानी की तरह बहना|


ये कुछ स्थितियां हैं, जिनमें व्यक्ति जी-जान से कोशिश करने के उपरांत भी यदि उन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त कर पाता, तो समझ लेना चाहिए, कि यह पूर्व जन्म कर्मों के दोष के कारण ही घटित हो रहा है| इसके लिये फिर उन्हें साधना का मार्ग अपनाना चाहिए, जिसके द्वारा उसके समस्त दोष नष्ट हो सकें और वह जीवन में सभी प्रकार से वैभव, शान्ति और श्रेष्ठता प्राप्त कर सके|

पापांकुशा साधना

ऐसी ही एक साधना है पापांकुशा साधना, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन में व्याप्त सभी प्रकार के दोषों को - चाहे वह दरिद्रता हो, अकाल मृत्यु हो, बीमारी हो या चाहे और कुछ हो, उसे पूर्णतः समाप्त कर सकता है और अब तक के संचित पाप कर्मों को पूर्णतः नष्ट करता हुआ भविष्य के लिए भी उनके पाश से मुक्त हो जाता है, उन पर अंकुश लगा पाता है |

इस साधना को संपन्न करने से व्यक्ति के जीवन में यदि ऊपर बताई गई स्थितियां होती है, तो वे स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं| वह फिर दिनों-दिन उन्नति की ओर अग्रसर होने लग जाता है, इच्छित क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है और फिर कभी भी, किसी भी प्रकार की बाधा का सामना उसे अपने जीवन में नहीं करना पड़ता|

यह साधना अत्याधिक उच्चकोटि की है और बहुत ही तीक्ष्ण है| चूंकि यह तंत्र साधना है, अतः इसका प्रभाव शीघ्र देखने को मिलता है| यह साधना स्वयं ब्रह्म ह्त्या के दोष से मुक्त होने के लिए एवं जनमानस में आदर्श स्थापित करने के लिए कालभैरव ने भी संपन्न की थी ... इसी से साधना की दिव्यता और तेजस्विता का अनुमान हो जाता है ....


यह साधना तीन दिवसीय है, इसे पापांकुशा एकादशी से या किसी भी एकादशी से प्रारम्भ करना चाहिए| इसके लिए 'समस्त पाप-दोष निवारण यंत्र' तथा 'हकीक माला' की आवश्यकता होती है|

सर्वप्रथ साधक को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हो कर, सफेद धोती धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मूंह कर बैठना चाहिए और अपने सामने नए श्वेत वस्त्र से ढके बाजोट पर 'समस्त पाप-दोष निवारण यंत्र' स्थापित कर उसका पंचोपचार पूजन संपन्न करना चाहिए| 'मैं अपने सभी पाप-दोष समर्पित करता हूं, कृपया मुझे मुक्ति दें और जीवन में सुख, लाभ, संतुष्टि प्रसन्नता आदि प्रदान करें' - ऐसा कहने के साथ यदि अन्य कोई इच्छा विशेष हो, तो उसका भी उच्चारण कर देना चाहिए| फिर 'हकीक' से निम्न मंत्र का २१ माला मंत्र जप करना चाहिए --
|| ॐ क्लीं ऐं पापानि शमय नाशय ॐ फट ||

यह मंत्र अत्याधिक चैत्यन्य है और साधना काल में ही साधक को अपने शरीर का ताप बदला मालूम होगा| परन्तु भयभीत न हों, क्योंकि यह तो शरीर में उत्पन्न दिव्याग्नी है, जिसके द्वारा पाप राशि भस्मीभूत हो रही है| साधना समाप्ति के पश्चात साधक को ऐसा प्रतीत होगा, कि उसका सारा शरीर किसी बहुत बोझ से मुक्त हो गया है, स्वयं को वह पूर्ण प्रसन्न एवं आनन्दित महसूस करेगा और उसका शरीर फूल की भांति हल्का महसूस होगा |

जो साधक अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें तो यह साधना अवश्य ही संपन्न करने चाहिए, क्योंकि जब तक पाप कर्मों का क्षय नहीं हो जाता, व्यक्ति की कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो ही नहीं सकती और न ही वह समाधि अवस्था को प्राप्त कर सकता है|

साधना के उपरांत यंत्र तथा माला को किसी जलाशय में अर्पित कर देना चाहिए| ऐसा करने से साधना फलीभूत होती है और व्यक्ति समस्त दोषों से मुक्त होता हुआ पूर्ण सफलता अर्जित कर, भौतिक एवं अध्यात्मिक, दोनों मार्गों में श्रेष्टता प्राप्त करता है| इसलिए साधक को यह साधना बार बार संपन्न करनी है, जब तक कि उसे अपने कार्यों में इच्छित सफलता मिल न पाये|


- सदगुरुदेव नारायण दत्त श्रीमाली

Mrityorma Amritn Gmay - 1 मृत्योर्माअमृतं गमय

आज का यह प्रवचन अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण है, महत्वपूर्ण इसलिए कि संसार के जटिल प्रश्नों में से एक प्रश्न है जिसे हम सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और यह प्रश्न हजारों-हजारों वर्षों से भारतीय ऋषियों-महर्षियों, योगियों, तपस्वियों, साधुओं, संन्यासियों और वैज्ञानिकों का मस्तिष्क मंथन करता रहा है कि 'मृत्यु क्या है?' और 'अमृत्यु क्या है?' -

क्या मिर्त्यु से परे भी कोई चीज है? क्या मृत्यु असंभव है? क्या मृत्यु को हम टाल सकते हैं? और क्या कोई युक्ति या साधना या कोई स्थिति या कोई तरकीब है जिससे हम 'मृत्योर्माअमृतं गमय', उस उपनिषद् की इस पंक्ति को सही कर सकें चरितार्थ कर सकें| उपनिषद् में तो दो टूक शब्दों में इस पंक्ति को स्पष्ट किया गया है| 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' |
मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिये कि मृत्यु से अमृत्यु की ओर अग्रसर हो| उसका लाक्ष, उसका रास्ता, उसका पथ अमृत्यु की ओर हो| इसका मतलब यह है कि उपनिषद् भी इस बात को स्वीकार करता है कि मृत्यु तो असम्भव है ही| तभी उसमें कहा है कि मृत्यु से अमृत्यु की ओर तुम्हें अग्रसरित होना है| क्योंकि यह मृत्यु तुम्हारे जीवन का हिस्सा है, पार्ट है| तुम चाहो या नहीं चाहो मृत्यु का तुम्हें एक न एक बार साथ तो देना ही होगा| परन्तु यदि ऋषि ने उपनिषदकार ने इस पंक्ति के आधे हिस्से में मृत्यु शब्द का प्रयोग किया है कि कोई ऐसी स्थिति तो जरूर है जिससे हम अमृत्यु की ओर अग्रसर हो सके|

कोई ऐसी स्थिति आ सकती है जहां हम अमृत्यु की ओर बढ़ सकें, हमारी मृत्यु नहीं हो, हम पूर्ण रूप से अमर हो सकें, जीवित रह सकें, लम्बे वर्षों तक जीवन जी सकें, स्वस्थ रह सकें| दोनों ही स्थितियां हमारे सामने एक पेचीदा प्रश्न लिये खडी रहती हैं और इस मृत्यु के लिये, भारतीय दर्शन, योग, मीमांसा, शास्त्र, वेद, पुराण इन सभी में मंथन, चिन्तन किया गया है| वैज्ञानिकों ने भी अपने तरीके से इस पर चिन्तन और विचार किया है| मनुष्य वृद्ध क्यों होता है?, मनुष्य मृत्यु को प्राप्त क्यों होता है? ऐसी क्या चीज है मनुष्य के शरीर में जिसके बने रहने से वो जीवित रहता है और जिसके चले जाने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है? क्योंकि मृत्यु और अमृत्यु के बीच में शरीर के अन्दर गुणात्मक अन्तर तो नहीं आता, एक सेकण्ड पहले जो जीवित था, उसके हाथ-पांव, आंख, कान-नाक सही सलामत थे और उसके एक सेकण्ड के बाद वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और उसमें भी उसके हाथ-पांव, आंख, नाक-कान सही सलामत होते हैं| प्रश्न उठता है कि लोग ये बात कहते हैं कि ह्रदय का धड़कना बंद हो जाता है तो मृत्यु हो जाती है| परन्तु ऐसे कई योगी हैं जो कई-कई घंटों तक ह्रदय की धड़कन को रोक देते हैं और चार-छः घंटे ह्रदय की धड़कन होती ही नहीं तो क्या मृत्यु को प्राप्त हो गए? इसलिए यह परिभाषा तो मान्य नहीं हो सकती कि ह्रदय की धड़कन बंद होने से आदमी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है|

ह्रदय की धड़कन तो कई कारणों से बंद हो सकती है| जो हमारे यंत्रों के माध्यम से सुनाई नहीं दे सकती| प्रश्न यह नहीं है| प्रश्न यह है कि मृत्यु यदि हो जाति है तब तो वापिस पुनः जन्म स्वाभाविक है| हमारे शास्त्र इस बारे में दो टूक शब्दों में कहते हैं कि जो पैदा होता है उसकी मृत्यु होती ही है| चाहे वह पशु-पक्षी हो, चाहे वह कीट-पतंग हो, चाहे मनुष्य हो, चाहे वह वनस्पति हो, पेड़-पौधे हों| जो उत्पन्न होगा, वह उवा भी होगा, वृद्ध भी होगा, मृत्यु को प्राप्त भी होगा| क्योंकि मृत्यु के भुक्ति पर ही मृत्यु के नींव पर ही, वापिस नये जीव का जन्म होता है| यदि मृत्यु हो ही नहीं तो यह देश, यह समाज, यह राष्ट्र अपने आप में कितना दुःखी, परेशान हो जाएगा, इसकी कल्पना की जा सकती है| कल्पना की जा सकती है कि हजारों-हजारों, करोड़ों-करोड़ों वृद्ध घूमते नजर आयेंगे, सिसकते हुए, दुःखी, परेशान, पीड़ित नजर आयेंगे| कफ, खांसी, थूक से संतप्त नजर आयेंगे और नै पीढी को खडा होने के लिये पृथ्वी पर कहीं जमीन नजर नहीं आएगी| कहां खड़े होंगे? क्या करेंगे? किस प्रकार की स्थिति बनेगी? अगर सारे व्यक्ति ही जीवित रहेंगे तब तो यह राष्ट्र, यह पूरा देश और पूरा विश्व अपने आप में असक्त वृद्ध और कमजोर और दुर्बल सा दिखाई देने लग जाएगा|

उसमें कोई नवीनता नहीं होगी| कुछ हलचल नहीं होगी, कुछ तूफान नहीं होगा, कोई जोश नहीं होगा, नवजवानी नहीं होगी, यौवन नहीं होगा यह सब कुछ होगा ही नहीं क्योंकि उन जवानों को पैदा होने के लिये, उन बालकों को पैदा होने के लिये जगह की कमी पड़ जायेगी| कहां से इतनी वनस्पति आयेगी? कहां से इतना खाद्य पदार्थ आयेगा? कहां से उनको जीवित रखने की क्रिया संपन्न हो पाएगी? कहां से उनको धुप-पानी-भोजन की व्यवस्था हो पाएगी? इसलिए मृत्यु दीवार पर एक अमृत्यु का पौधा रोपा जा सकता है| मृत्यु की भुक्ति पर जन्म का एक सवेरा होता है, यह प्रश्न एक अलग है कि क्या मृत्यु के बाद भी हमारा तत्व रहता है कि नहीं| यह मृत्यु के परे क्या चीज है? यह विषय एक अलग विषय है| क्योंकि यदि मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है, तो फिर जन्म भी हमारे हाथ में नहीं है| दोनों स्थितियों में हम लाचार है, बेबस हैं| हम किस समय मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे यह हमारे हाथ में नहीं है| हमारे पास ऐसी कोई साधना सिद्धि या विज्ञान नहीं है, जिसके माध्यम से हम दो टूक शब्दों में कह सकेंगे कि हम इतने दिन तक जीवित रहेंगे ही|

मृत्यु हमें स्पर्श नहीं कर सकेगी, हां यह अलग बात है कुछ विशिष्ट साधनाएं ऐसी है कुछ अद्वितीय साधनाएं ऐसी हैं जिसके माध्यम से इच्छामृत्यु प्राप्त की जा सकती है| चाहे जितने समय तक जीवित रहा जा सकता है| परन्तु वह तो एक रेयर (Rare) है वह तो एक विशिष्टता है इसलिए मैंने कहा कि मृत्यु पर हमारा नियंत्रण नहीं है और इस मृत्यु पर वशिष्ठ, अत्री, कणाद, विश्वामित्र, राम और कृष्ण का भी कोई अधिकार नहीं रहा है| उनको भी मृत्यु को वरन करना ही पडा, मगर मृत्यु के बाद भी उस प्राणी का अस्तित्व इस भूमंडल पर और पितृ लोक में बना रहता है| एक विरल रूप में, एक सांकेतिक रूप में, एक सूक्ष्म रूप में और वह प्राणी निरन्तर इस बात के लिये प्रयत्नशील रहता है, जिसकी मृत्यु हो चुकी है और जिसका केवल प्राण ही इस वायुमंडल में व्याप्त है| जिसका प्राण ही सूक्ष्म शरीर धारण किये हुए है, यत्र-तत्र विचरण करता रहता है| इस बात के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है कि वापिस वह कैसा जन्म लें|

जन्म लेने के लिये बहुत धक्का-मुक्की है, बहुत जोश खरोश है क्योंकि करोड़ों-करोड़ों, प्राणी इस वायुमंडल में विचरण करते रहते हैं और जन्म लेने की स्थिति बहुत कम है| कुछ ही गर्भ स्पष्ट होते हैं, जहां जन्म लिया जा सकता है| उन करोड़ों व्यक्तियों में, उन करोड़ों प्राणियों में आपस में रेलम-पेल होती रहती है, धक्का-मुक्की होती रहती है, एक-दुसरे को ठेलते रहते हैं| क्योंकि प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक जीवात्मा इस बात के लिये प्रयत्न करता रहता है कि यह जो गर्भ खुला है, इस गर्भ में जन्म लूं, इसमें प्रवेश कर लूं और इस धक्का-मुक्की में और इस जोर जबरदस्ती में दुष्ट आत्माएं ज्यादा सुविधाएं प्राप्त कर लेती हैं| ये ज्यादा पहले जन्म ले लेती हैं| जो चैतन्य हैं, सरल हैं,जो निष्प्राण हैं, जो कपट रहित हैं, जो धक्का-मुक्की से परे हैं वे सब पीछे खड़े रहते हैं| वे इस प्रकार से गुंडा गर्दी नहीं कर सकते, धक्का-मुक्की नहीं कर सकते| इस प्रकार से जबरदस्ती किसी गर्भ में प्रवेश नहीं कर सकते| वे तो इंतज़ार करते रहते हैं इसीलिये इस पृथ्वी पर दुष्ट और पापी व्यक्तियों का जन्म ज्यादा होने लगा हैं| क्योंकि उन सरल और निष्प्रह ऋषि तुल्य योगियों, विचारकों और विद्वानों, कपट रहित प्राणियों का जन्म होना कठिन सा होने लगा है|

तो मैंने कहा कि यह हमारे बस में नहीं है, मृत्यु हमारे बस में नहीं है और जन्म भी हमारे बस में नहीं है परन्तु जो उच्च कोटि की साधनाएं संपन्न करते हैं, जो 'मृत्योर्मा अमृतंगमय' साधना को संपन्न कर लेते हैं| उनके हाथ में होता है कि वह किस क्षण मृत्यु को प्राप्त हों, कहां मृत्यु को प्राप्त हो, किस स्थिति में मृत्यु को प्राप्त हों और किस तरीके से मृत्युका वरन करें| क्योंकि मृत्यु तो जीवन का श्रृंगार है| मृत्यु भय नहीं है| मृत्यु तो एक प्रकार से निद्रा है जिस प्रकार से रोज रात को हम सोते हैं और नींद के आगोश में होते हैं, उस समय हमें कोई होश नहीं होता है, कोई ज्ञान नहीं होता है, कोई चेतना नहीं रहती है, हम कहां हैं?, किस प्रकार से हैं? हमारे कपड़ों का हमें ध्यान नहीं रहता, हम नंगे है या सही है इसका भी हमें ध्यान नहीं रहता और यदि हम नींद में होते हैं और कोई दुष्ट व्यक्ति चाकू लेकर हमारे सिहराने खडा हो जाता है और वह हमें चाकू घोप देता है तब भी हमें होश नहीं रहता ज्ञान नहीं रहता कि कोई हमें मारने के लिये उदित हुआ है| इसका मतलब यह हुआ हम नित्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं|

निद्रा अपने आप में मृत्यु है और नित्य वापिस सुबह जन्म लेते हैं, नित्य रात्रि मृत्यु को प्राप्त करते हैं| मृत्यु का मतलब है अपने आप में भूल जाने की क्रिया अपने अस्तित्व को भूल जाने की क्रिया, अपने प्राणों को भूल जाने की क्रिया, अपनी चैत्यन्यता को भूल जाने की क्रिया| मगर भूल जाने की क्रिया कुछ घण्टों की होती है, जिसको हम नींद कहते हैं और वह भूल जाने की क्रिया काफी लम्बे अरसे तक की होती है| इसलिए उसे मृत्यु कहते हैं| इस निद्रा में और मृत्यु में कोई विशेष अन्तर नैन है और इसलिए मार्कण्डेय पुराण में स्पष्ट कहा गया है|


या देवी सर्व भूतेषु, निद्रा रूपें संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ||

क्योंकि निद्रा भी अपने आप में मृत्यु का पूर्वाभ्यास है, मैंने जैसे बताया कि कुछ विशिष्ट साधनाएं हैं| जिसके माध्यम से हम इस मृत्यु पर नियंत्रण प्राप्त कर सकते हैं| विजय प्राप्त करना एक अलग चीज है, नियंत्रण प्राप्त करने का मतलब है कि जहां चाहें, जिस उम्र में चाहें मृत्यु को वरन करें| यदि हम चाहे सौ साल की आयु प्राप्त करें तो निश्चित ही सौ साल की आयु प्राप्त कर सकते हैं| १२० साल, २०० साल, ५०० साल, १००० साल तक हम जीवित रह सकते हैं| इस तरह पूर्ण आयु भी प्राप्त कर सकते हैं| यह हमारे हाथ में हैं| यदि हम चाहे तो उन साधनाओं के माध्यम से, जीवन को पूर्णता की ओर अग्रसर कर सकते हैं और जिस प्रकार से मृत्यु, हमारी साधनाओं के माध्यम से हमारे हाथ में रहती है, हमारी इच्छाओं पर निर्भर रहती हैं| ठीक उसी प्रकार से मृत्यु के बाद में भी हमारे पास हमारा अस्तित्व, हमारी चैतन्यता बनी रहती है कि हम इस ब्रह्माण्ड में कहां हैं प्राणियों के किस लोक में हैं, भू-लोक में हैं, पितृ लोक में हैं, राक्षस लोक में हैं, गन्धर्व लोक में हैं किस लोक में हैं? और इन सारे लोकों में हा एक सुक्ष अंगूठे के आकार के प्राणी के रूप में बने रहते हैं|

इसलिए प्राणियों को अंगुष्ठरूपा कहा गया है| यानि यह पूरा शरीर एक अंगूठे के आकार का बन जाता है और ऐसे अंगूठे के आकार के प्राणी एवं जीवात्माएं करोड़ों-करोड़ों इस आत्म मंडल में विचरण करती रहती हैं| जहां हमारी दृष्टि नहीं जाती और यदि हम इस मृत्यु लोक से थोड़ा सा ऊपर उठ कर देखें तो करोड़ों आत्माएं जो मृत्यु को प्राप्त कर चुकी हैं बराबर भटकती रहती हैं और उन सब का एक मात्र लक्ष्य यही होता है कि वह वापिस जन्म लेनिन| मगर जन्म लेना तो उनके हाथ में है ही नहीं| जैसा की मैंने बताया की वहां पर भी उतनी ही जोर-जबरदस्ती हैं, कोई ऐसा संकेत नहीं, कोई ऐसी एक नियंत्रण रेखा नहीं है, कोई ऐसा सिस्टम नहीं है कि एक के बाद एक जन्म लेता रहे, ऐसा कोई संभव नहीं है| जिसको जो स्थिति बनती है वो वैसे जन्म ले लेता है| ठीक उसी प्रकार से कि जहां बलवान होते हैं वे किसी भी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं और जो बेचारा जमीन का मालिक होता है वो टुकुर-टुकुर ताकता रहता है| ठीक उसी प्रकार से जो दुष्ट ताकतवर आत्माएं होती हैं वे ठेलम-ठेल करके, धक्का-मुक्की करके, जो गर्भ खुलता है उसमें प्रवेश कर लेती हैं और जन्म ले लेती हैं और जो देव आत्माएं होती हैं, सीधे-सरल ऋषि तुल्य व्यक्तित्व होते हैं वह चुपचाप खड़े रहते हैं, २ साल, ५ साल, २० साल, ५० साल उनका जन्म होना ज़रा कठिन होने लगा है| इसलिए इस पृथ्वी पर दुष्ट आत्माएं ज्यादा जन्म लेने लगी हैं| इसलिए इस पृथ्वी पर अधर्म ज्यादा फैला है, इसलिए इस पृथ्वी पर व्याभिचार ज्यादा फैला है, इस पृथ्वी पर छल-कपट, झूट ज्यादा हुआ है| ये इसलिए हो रहा है क्योंकि इस पृथ्वी पर दुष्ट और पापी आत्माएं ज्यादा प्रमाण से जन्म ले रही हैं| उनका जन्म ज्यादा होने लगा है|


[ यह प्रवचन जारी रहेगा.... ]

Mrityorma Amritn Gmay - 2 मृत्योर्मा अमृतं गमय

क्या हम इस स्थिति को अपने-आप से टाल सकते हैं| यह तो अपने आप में पेचीदा और बहुत दुःखदायी स्थिति है कि हमने अपने जीवन को इतने सरल स्तर पर व्यतीत किया और इस पुरे जीवन को व्यतीत करने के बाद भी हमें कई वर्षों तक इस आत्मा में भटकना पड़ता है और वापिस जन्म नहीं ले पाते| जबकि हम चाहते है कि हमारा जन्म हो और जन्म लेने के बाद फिर हम इश्वर चिन्तन करें, जन्म लेने के बाद फिर हम साधनाएं करें, फिर हमें आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करें, फिर हम गुरु चरणों में बैठें, हम फिर इस मृत्यु लोक के प्राणियों की सेवा करें, उनको सहयोग करें, उनकी सहायता करें| मगर यह तब हो सकता है जब आप जन्म लें| यदि हम जन्म ही नहीं ले सकते, तब यह आध्यात्मिक चिन्तन और साधना, ये सब हमारे लिये दुराग्रह बन गए हैं| इसलिए कुछ विशिष्ट आत्माएं, यदि इस जीवन में ही साधनाएं संपन्न कर लेती है तो उनकी अपनी चेतना का पूरा ज्ञान रहता हैं| उनको ज्ञान रहता है कि मैं कहां था, किस रूप में था, पहले जीवन में कौनसी साधनाएं संपन्न की थी, कहां जन्म लिया था, किस प्रकार से जन्म लिया था? और उसको साधना की वजह से ही यह भी चैतन्यता रहती है कि मुझे जल्दी से जल्दी जन्म लेना है| उसे उस बात का भी ध्यान रहता कि मैं उच्च कोटि के गर्भ को ही चुनूं|

अभी तक उन प्राणियों ने या मैं यूं कहूं कि मृर्त्यु लोक के जो नर और नारी हैं, पति-पत्नी हैं उनके पास ऐसी कोई शक्ति, ऐसा कोई सामर्थ्य नहीं है कि वह उत्तम कुल के प्राणी को ही जन्म दें या किसी विशिष्ट योगी को ही अपने गर्भ में प्रवेश दें| उनके पास कोई साधना नहीं हैं| उस समय, जिस समय गर्भ खुला रहता है उस समय कोई भी दुष्ट आत्मा या अच्छी आत्मा गर्भ में प्रवेश कर जाती हैं| उस गर्भ को धारण करना उसकी मजबूरी हो जाती है| ये हमारे जीवन की विडम्बना है, यह हमारे जीवन कि न्यूनता है, ये हमारे जीवन की कमी है| इसलिए यह बहुत पेचीदा स्थिति है क्योंकि मृत्यु पर हमारा नियंत्रण नहीं है| हम जिस प्रकार के प्राणियों को हमारे गर्भ में धारण करना चाहते हैं, उस पर भी हमारा नियंत्रण नहीं है| जो भी दुष्ट और पापी आत्मा हमारे गर्भ में प्रवेश कर लेती है, उसी को हमें गर्भ में प्रवेश देना पड़ता है| उसी को पैदा करना पड़ता हैं, उसी को बड़ा करना पड़ता हैं और बड़ा होने के बाद वह उसी प्रकार से अपने मां-बाप को गालिया देता है, समाज विरोधी कार्य करता है और अपना नाम और अपने मां-बाप का नाम कलंकित कर देता है| इतना कष्ट सहन करने के बाद दुःख देखने के बाद, उसकी पूरी परवरिश करने के बाद भी हमें यही दुःख भोगना है तो यह हमारे जीवन की विडम्बना है, यह हमारे जीवन की कमी है और इस पर मनुष्य चिन्तन नहीं करता, विचार नहीं करता, विज्ञान इस प्रश्न को सुलझा भी नहीं सकता|

इस प्रश्न को सुलझाने के लिये ज्ञान का सहारा लेना पडेगा, साधना का सहारा लेना पडेगा, आराधना का सहारा लेना पडेगा| यहां ये तीन प्रश्न हमारे सामने खड़े होते हैं| एक प्रश्न तो यह कि क्या हम जितने समय तक चाहें जीवित रह सकते हैं और जीवित रह सकते हैं? जीवित रहने का तात्पर्य रोग रहित जीवन हैं और यदि हम जीवित हैं, अरे हुए से हैं, बीमार हैं, अपंग है, लाचार है, खाट पर पड़े हुए हैं और दूसरों पर आश्रित हैं तो वह मूल में जीवन नहीं हैं| वह जीवन मृत्यु के समान है| जीवित होने का तात्पर्य, स्वस्थ तंदुरूस्त और कायाकल्प से युक्त जीवन हो, बलवान हो, पौरुषवान हो, क्षमतावान हो और इसका उत्तर मेरे पास यह है कि हम निश्चय ही स्वस्थ जीवित रह सकते हैं| जितने समय तक चाहें जीवित रह सकते हैं| ५० साल, ६० साल, ८० साल, १०० साल, २०० साल, ३०० साल, ५०० साल, १००० साल, २००० साल तक हम जीवित रह सकते हैं और निश्चित रूप से जीवित रह सकते हैं| स्वस्थ-सुन्दर, तंदुरूस्त के साथ और पूर्ण चैतन्यता के साथ और पूर्ण यौवन स्फूर्ति के साथ, मगर इसके लिये मृत्योर्मा अमृतंगमय साधना संपन्न करना आवश्यक हैं|

यह जो मृत्योर्मा साधना है| उस साधना को संपन्न करने से शरीर में एक गुणात्मक रूप से अन्तर आ जाता है| एक परिवर्तन आ जाता है जिस प्रकार से एक बैटरी जो चार्ज की हुई बैटरी है हा यूज करते हैं| कुछ समय बाद उस बैटरी के अन्दर की पॉवर समाप्त हो जाती है और जब समाप्त हो जाति है तो उसे वापिस चार्ज करना पड़ता है| चार्ज करने के बाद वह बैटरी वापिस उसी प्रकार से शरीर की शक्ति दिन-प्रतिदिन क्षीण होती रहती है और क्षीण होते-होते एक स्थिति ऐसी आती है कि शरीर की बैटरी समाप्त हो जाती है| जिसको हा मृत्यु कहते है और यदि हम उसको वापिस चार्ज करने की क्षमता प्राप्त कर सकें, कोई ऐसा ज्ञान, कोई ऐसी चेतना कोई ऐसी साधना हो, जिससे जिससे हम वापिस अपने आप को चार्ज कर सकें| फिर हम ६०-७० साले वापिस जी सकते है| जब ये बैटरी समाप्त हो जाये, फिर उसे चार्ज कर लें, फिर हम ६०-७० साल जीवित रह सकते हैं| जिस प्रकार से बैटरी डिस्चार्ज होती है| ठीक उसी प्रकार से शरीर की शक्ति शनैः शनैः क्षीण होती रहती है और क्षीण होते-होते एक स्टेज ऐसी आती है कि वह बैटरी, शरीर की बैटरी समाप्त हो जाती है| जिसको हम मृत्यु कहते हैं|

मृत्योर्मा अमृतंगमय साधना जीवन की श्रेष्ठ, अदभुद और उन्मत साधना है| जिसे योगियों ने ऋषियों ने स्वीकार किया है| सिद्धाश्रम अपने आप में अति-दुर्लभ और महत्वपूर्ण संस्थान है जो आध्यात्मिक जीवन का एक बिन्दु है| और जहां से पूर्ण विश्व का आध्यात्मिक जीवन संचालित होता है, क्योंकि विश्व तब तक जीवित है, जब तक भौतिकता और आध्यात्मिकता का बराबर सुखद सम्बन्ध रहे, बैलेन्स रहे| ज्योही यह बैलेन्स बिगड़ता है तो यह विश्व अपने आप में प्रलय की स्टेज में चला जाता है| जिस समय भौतिकता बहुत अधिक बढ़ जायेगी| चारो तरफ बम गिरेंगे प्रत्येक देश एक दुसरे पर अतिक्रमण करेगा, एक देश दुसरे देश पर परमाणु बम गिरायेंगे और कोई भी देश बचेगा नहीं| न बम गिराने वाला और न बम झेलने वाला और इसी को प्रलय कहते हैं| और यदि आध्यात्मिकता का ही बाहुल्य हो जाये और भौतिकता जीवन में रहे ही नहीं तब भी प्रलय हो जाएगा| इसलिए इन दोनों का समन्वय होना जरूरी है| मगर इस भौतिकता के लिये कुछ प्रयत्न नहीं करना पड़ता, झूठ के लिये, हिंसा के लिये, कपट के लिये कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वह तो एक सामान्य सी बात है|

मनुष्य की दुःप्रवृतियां तो अपने आप में जन्म लेती है उनको बैलेन्स करने के लिये सिद्धाश्रम अपने आप में कुछ विशिष्ट योगियों को, कुछ विशिष्ट महात्माओं को इस मृत्यु लोक में उन प्राणियों के बीच भेजता है| वे चाहे राम हो, वे चाहे कृष्ण हो, वे चाहे बुद्ध हो, वे चाहे महावीर हो, वे चाहे शंकराचार्य हो, चाहे ईसामसीह हो, चाहे सुकरात हो वे अपने ज्ञान के सन्देश के माध्यम से, अपनी चेतना के माध्यम से अपनी पवित्रता, अपनी विद्वत्ता के माध्यम से उन लोगों के अन्दर ज्ञान और चेतना पैदा करते हैं| यद्यपि इस तरह की चेतना पैदा करने वालों को बहुत सी गालियां मिलती हैं| क्योंकि वे अंधे हैं, वे भौतिकताओं से ग्रस्त हैं और उनके पास झूठ, छल और कपट के अलावा कोई रास्ता नहीं है और वो जब इस प्रकार की बातें सुनते हैं तब वो सोचते हैं कि उनके अधिकार पर हनन है| यह व्यक्ति हमारे जीवन को पूरी जमा पूंजी को समाप्त कर रहा है| हमारे स्वार्थों पर चोट कर रहा है, एक प्रकार से उन्हें अपने गुरुर का हनन होते हुए दिखाई देता है| इसलिए उनके द्वारा उस व्यक्ति का प्रताडन होता है| इसलिए उसको गालियां दी जाती हैं उसको मार दिया जाता है, उसको समाप्त कर दिया जाता है|

मगर उनके समाप्त कर देने से वह समाप्त नहीं हो जाता है| देह तो टूट जाती है, देह तो गिर जाति है| मगर अंगुष्ठ मात्र के प्राण पुनः नई देह धारण करके उस सिद्धाश्रम में जन्म लेते हैं या सिद्धाश्रम में वापिस संचालित करने लग जाते हैं| इसके लिये तो कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता| यह तो इसी प्रकार से है जैसे मैंने कुर्ता पहना और यदि कुर्ता घिस गया है या पुराना हो गया है, मैंने उस कुरते को उतार दिया और दूसरा कुर्ता धारण कर लिया| इस कपडे बदलने से कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं आया| ठीक उसी प्रकार से यदि यह शरीर घिस जाता है, यह कमजोर पड़ जाताहै, शरीर की नाड़ियां, अंग-प्रत्यंग शिथिल हो जाते हैं और दूसरा नया शरीर धारण कर लेते हैं| ऐसा का ऐसा ही शरीर, ऐसी की ऐसी आंखे और नाक, हाथ-पांव, लम्बाई, चौड़ाई, ज्यों कि त्यों अपने आप में स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं| जिस प्रकार से अपने शरीर के ऊपर की चमड़ी किसी चोट से छिल जाती हैं, उसी जगह अपने आप स्वतः दूसरी चमड़ी आ जाती है| उसी प्रकार से यह देह गिरती है, उसी जगह दूसरी देह स्वतः अपने आप में आ जाती है| यह तो साधना के बल पर संभव है और इसलिए उस सिद्धाश्रम में योगियों को १००, २००, ३००, ४००, ५००, १०००, २००० वर्षों की आयु प्राप्त है| वे इस समय भी सिद्धाश्रम में विद्यमान हैं|

कोई भी पानी आंखों से उस सिद्धाश्र के योगियों को देख सकता है, उनके पास बैठ सकता है, उनके प्रवचन सुन सकता है, उनके ज्ञान और चेतना को अपने ह्रदय में उतार सकता है और कोई भी व्यक्ति आज भी यदि चाहे राम के पास बैठ करके, युद्ध कला के बारे में सीख सकता है, कृष्ण के पास बैठ करके गीता का सन्देश सुन सकता है, कृष्ण के पास बैठ करके शांकरभाष्य को वापिस उनके मुख से सुन सकता है| यह तो कोई कठिन नहीं है, यह तो आपको उस स्टेज पर पहुंचने की जरूरत है, आपकी क्षमता उस स्टेज पर पहुंचने की हो, आपके पास एक समर्थ और योग्य गुरु हो|

समर्थ और योग्य गुरु का मतलब यह है कि उसको ऐसी सिद्धियां प्राप्त हो, ऐसी समर्थता प्राप्त हो और जो ले जा सके आपको अपने साथ सिद्धाश्रम में, दिखा सकें सिद्धाश्रम के योगियों को, उनके पास बैठा सकें, उनका खुद भी सम्मान हो, वह खुद भी अपने आप में उंचाई पर पहुंचा हुआ हो| ऐसा नहीं है कि ऐसा गुरु इस पृथ्वी पर है ही नहीं है, यह अलग बात है कि हमारी आंखे उनको नहीं देख पाती, यह अलग बात है कि हमारी बुद्धि ऐसे व्यक्ति के पास बैठते हुए भे आलोचना, झूठ और छल-कपट में लिप्त रहती हैं| एक-एक क्षण हा दुसरे कार्यों में व्यतीत कर देते हैं| मगर उन गुरु को हम न पहचान पाते है, न उनके पास बैठ करके उस आनन्द को प्राप्त कर पाते हैं| हमें जो प्रश्न करने चाहिए, वो तो प्रश्न हम करते ही नहीं, जो कुछ हमें सीखना चाहिए वो तो हम सीखते ही नहीं, जो कुछ सेवा हमें करनी चाहिए वो हम करते ही नहीं, जो कुछ हमें उनके सान्निध्य में अनुभव प्राप्त करना चाहिए, वे आनन्द हम नहीं प्राप्त कर पाते ये हमारे जीवन की विडम्बना है, ये हमारे जीवन की कमी है, ये हमारी दुर्बुद्धि है, ये हमारा दुर्भाग्य है|

प्रत्येक युग में और प्रत्येक परिशिती में सिद्धाश्रम के इस प्रकार के योगी, अलग-अलग नामों में, अलग-अलग रूपों में इस पृथ्वी तल पर अवतरित हुए हैं, विचरण किये हैं और आम लोगों की तरह रहे हैं| उन्होनें कुछ विशिष्टता राखी नहीं, इसलिए विशिष्टता नहीं राखी क्योंकि आम आदमी, आम आदमी को समझा सकता है| समाज का एक भाग बनकर के समाज के लोगों को अपनी ज्ञान चेतना दे सकता है| ईसा मसीह एक सामान्य व्यक्ति बनकर के अपने उन अनुयायियों को ज्ञान-चेतना शिक्षा-दीक्षा दे सकें| कृष्ण एक सामान्य मानव बनकर के, सारथी बनकर के अर्जुन को और दुसरे लोगों को दीक्षा दे सकें| भीष्म पितामह उन्हें पहचान सकें| वे पहचान सकें कि वे अपने आप में एक अद्वितीय पुरुष है| पर आम आदमी तो उनको नहीं पहचान सकता, गीता जैसा ज्ञान, चिन्तन उच्च कोटि की चेतना देने वाला व्यक्ति एक सामान्य व्यक्ति नहीं हो सकता| मगर उन्हें कितनों ने पहचाना, कितने लोगों ने पहचाना, नहीं पहचाना वो अपने आप में एक मौका चूक गए और जिन्होनें पहचाना वो अपने आप में अद्वितीय बन गये|

और उसके बाद फिर सिद्धाश्रम से बुद्ध आये, महावीर आये, फिर शंकराचार्य आये| जीवन में इस प्रकार के महापुरुष पृथ्वी तल पर तो अवतरित होते ही रहते हैं| यह हमारा सौभाग्य है कि हमारी पीढ़ी में इस प्रकार के युगपुरुष विद्यमान हैं| यह हमारा सौभाग्य है कि इस पीढ़ी में इन युगपुरुषों के साथ हमें कुछ दिन रहने का मौका मिला यह हमारा और हमारी पीढ़ी का सौभाग्य है कि हम उनसे परिचित हैं और यह भी सौभाग्य है कि हा उनके साथ रह सकते हैं| मगर यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम चाहते हुए भी उनके पास नहीं बैठ पाते, क्योंकि चारों तरफ व्यस्तताएं, मजबूरियां, परेशानियां, बाधाओं से हम इतने अधिक घिर जाते हैं कि उन्हीं को प्राथमिकता दे देते हैं| उन सारे बंधनों-बाधाओं-परेशानियों को तोड़ कर उस जगह पहुंचने की क्षमता नहीं रख पाते, यह हमारे जीवन की कमी है| यह हमारे जीवन कि दैन्यता है और जब तक की यह न्यूनता रहेगी तब तक उस आनन्द को, उस क्षण को प्राप्त नहीं कर सकेंगे और हमारे पास पछतावे के अलावा कुछ नहीं रहेगा और फिर तुम अहसास करोगे कि वास्तव में ही तुम्हारे पास एक सुनहरा सा मौका था, एक अद्वितीय अवसर था और तुम चूक गये| इसलिए जो मैं स्पष्ट कर रहा था वो बात यह है कि उस मृत्योर्मा साधना के माध्यम से आज भी हजारों-हजारों योगी, संन्यासी कई-कई वर्षों की आयु प्राप्त कर बैठे हैं और हम अपनी आंखों से उनको देख सकते हैं| उन पांच सौ साल आयु प्राप्त योगियों को भी, उन हजार साल प्राप्त योगियों को भी और पांच सौ साल की आयु प्राप्त करने के बावजूद भी उनके शरीर में कोई अन्तर नहीं आया और उन्हें देखने से ऐसा लगता हैं कि ये तो केवल पचास और साठ साल के व्यक्ति है| ऐसा लगता है कि अभी तो इनका यौवन बरकरार है, इनमे ताकत है, इनमें क्षमता है, इनमें पौरुषता है, इनमें पूर्णता है और यह सब कुछ मृत्योर्मा अमृतंगमय साधना के माध्यम से ही संभव है|


[ यह प्रवचन जारी रहेगा.... ]
-सदगुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस

Mrityorma Amritn Gmay - 3 मृत्योर्मा अमृतं गमय

जैसा कि मैंने अभी आपके सामने स्पष्ट किया कि हम मृत्योर्मा अमृतं गमय साधना से मनोवांछित आयु प्राप्त कर सकते हैं| इसके साथ एक और तथ्य की और हमारा ध्यान जाना चाहिए कि हममें यह क्षमता हो कि हम श्रेष्ठ गर्भ को धारण कर सके| एक मां तीन-चार पुत्रों या बालकों को जन्म दे सकती है और यदि उनमें से भी दुष्ट और दुबुद्धि आत्मा वाले बालक जन्म लेते हैं| तो मां-बाप को बहुत दुःख और वेदना होती है कि उन्होनें जितना दुःख और कष्ट उठाया, उसके बावजूद भी उन्हें जो फल मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पाया| इसकी अपेक्षा आप यह कल्पना करें कि एक ही बालक उत्पन्न हो, मगर वह अद्वितीय हो| ज्ञान के क्षेत्र में सिद्धहस्त हो, पूर्ण हो, महान हो, चाहे विज्ञान के क्षेत्र में हो, चाहे भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में हो, चाहे गणित के क्षेत्र में हो, चाहे रसायन विज्ञान के क्षेत्र में हो| जिस भी क्षेत्र में हो विश्व विख्यात हो, अद्वितीय ह, श्रेष्टतम हो ऐसा बालक जन्म दे| यह तो प्रत्येक मां-बाप कल्पना करता है| प्रत्येक मां-बाप चाहता है कि एक ही उत्पन्न हो मगर सूर्य के सामान हो, एक ही उत्पन्न हो मगर चन्द्रमा के समान तेजस्वी हो| हजार-हजार तारों का भी जन्म देने से उतना अंधियारा नहीं छट सकेगा, जितना एक चन्द्रमा को जन्म देने से उस अंधियारों को हम दूर सकते हैं| मगर जैसा मैंने यह बताया कि यह आपके बस की बात नहीं हैं|


आप तो गर्भ खोल सकते हैं, गर्भ में कौनसी दुष्ट आत्मा प्रवेश कर जायेगी यह आपके आधिकार क्षेत्र के बाहर है यह आपकी सबसे बड़ी विडम्बना है और जैसा कि मैंने अभी बताया कि उन आत्माओं में भी होड़ मची रहती है, एक दुसरे को ठेलते हुए जो ताकतवान है, जो क्षमतावान है, जो दुष्ट है वे आगे बढ़कर के और दूसरों को पीछे धकेल कर के उस समय खुले हुए गर्भ में प्रवेश कर जाते हैं और जो योगी है, जो श्रेष्ठ है, जो संत है जो विद्वान् है, जो सरल है, जो निपृह वे पीछे खड़े रहते हैं कि कभी हमारा अवसर आये और हम किसी गर्भ में प्रवेश करें| इसीलिए मां-बाप के पास में ऐसी कोई स्थिति नहीं है जिसकी वजह से श्रेष्ठ बालक को या श्रेष्ठ आत्मा को अपने गर्भ में प्रवेश दे सकें| मगर उसके लिए भी एक साधना है, एक अद्वितीय साधना है जिसको गमय साधना कहा गया है, जिसको पूर्णत्व साधना कहा गया है| और इस साधना के माध्यम से यदि मां गर्भ धारण करने से पूर्व, इस गमय साधना को पूर्णता के साथ संपन्न कर लेती है तो उसके गर्भ में एक विशिष्टता प्राप्त हो जाती है और वह विशिष्टता यह प्राप्त होती है कि दुष्ट आत्मा उसके गर्भ में प्रवेश कर ही नहीं पाती| वह उच्च कोटि के आत्माओं को ही अपने गर्भ में निमंत्रण देती है और वहां चाहे कितने ही झेलम-झेल हो, धक्के हो या एक-दुसरे को धकियाते हो मगर ज्योंही एक शुद्ध और पवित्र आत्मा पास में से गुजराती है, गर्भ खुल जाता है और उच्च कोटि की आत्मा उस गर्भ में प्रवेश कर जाती है| इस प्रकार से उस मां-बाप के हाथ में यह होता है साधना के माध्यम से अपने गर्भ में एक एक श्रेष्ठ आत्मा को ही स्थान दें और श्रेष्ठ आत्मा जब गर्भ में प्रवेश करती है तो मां के चहरे पर एक अपूर्व आभा और तेजस्विता आ जाती है| एक ललाई आ जाती है, एक अहेसास होने लग जाता है कि वास्तव में ही किसी श्रेष्ठ आत्मा ने इस गर्भ में में प्रवेश किया है, चेहरे पर तेजस्विता आ जाती है और प्रसन्नता से ह्रदय झूम उठाता है और उसके नौ महीने किस प्रकार से व्यतीत होते उसको पता ही नहीं चलता और वह जब जन्म देती है तो श्रेष्ठ आत्मा को जन्म देती है जो कि आगे चलकर के अपने क्षेत्र में अद्वितीय व्यक्तित्व बन सकता है और अपने क्षेत्र में उच्च कोटि का बनकर के मां-बाप के नाम को रोशन कर सकता है और वह मां हजारो हजारो वर्षों तक के लिए धन्य हो जाती है|


आने वाली पीढियां उसकी कृतज्ञ हो जाती है| वह मां-बाप अपने आप में एक सौभाग्य अनुभव करने लग जाते हैं| यदि इस गमय साधना को संपन्न करके इस तरह का श्रेष्ठ गर्भ प्राप्त कर सकें और यह साधना अपने आप में कोई कोई पेचीदा नहीं है, कोई कठिन नहीं है| आवश्यकता यह है कि हमें इस साधना को संपन्न करना चाहिए| आवश्यकता इस बात कि है इस तरह की साधना संपन्न कर देने की क्षमता वाला कोई गुरु आपके सामने हो| आवश्यकता यह है कि वह पति और पत्नी इस बात का दृढ़ निश्चय करे कि हमें गुरु के पास जा करके इस तरह की साधनाओं को संपन्न करना ही है और उसके बाद ही गर्भ धारण करना है और गुरु उस समयगमय साधना को संपन्न करवाता है तो यह भी बता देता है कि इस साधना को संपन्न करने के बाद किस तारीख को कितने बज कर कितने मिनिट पर समागम करने से उच्चकोटि की आत्मा का प्रवेश तुम्हारे गर्भ में हो सकता है| ठीक उसी समय तुम्हारा गर्भ खुला होना चाहिए, ठीक उसी समय उस आत्मा का प्रवेश होगा| गमय साधना का तात्पर्य यही है| और यह अपने आप में महत्वपूर्ण विचार है, चिंतन है|


वासुदेव-देवकी को जब नारद मिलें| तब उन्होनें उनसे एक ही बात कहीं थी कि मेरे गर्भ से एक उच्च कोटि का बालक जन्म ले| तो नारद ने स्पष्ट रूप से कहा कि तुम्हें गमय साधना संपन्न करनी है, चाहे तुम जेल में ही हो| इस साधना को संपन्न कर के, इस तिथि को इतने बज कर इतने मिनिट पर तुम्हें समागम करना है, गर्भ खोलना है और एक उच्च कोटि का महा मानव तुम्हारे गर्भ में जन्म ले सकेगा और जन्म लेगा तो अपने आप तुम्हें स्वप्न में स्पष्ट होगा कि कौन ले रहा है, वह स्वयं तुम्हें इस बात का संकेत दे देगा| तुम्हारे चेहरे पर एक आभा आ जायेगी, चेहरे पर मुस्कराहट आ जायेगी, तुम्हारे सारे शरीर में एक अपूर्व तेजस्विता प्रवाहित होने लगेगी और ठीक ऐसा ही हुआ|


यदि उस समय गमय साधना जीवित थी, तो गमय साधना आज भी जीवित है| आवश्यकता इस बात कि है कि हम उस गमय साधना को समझे| आवश्यकता इस बात कि है कि इस प्रकार कि साधनाओं पर विश्वास करें| आवश्यकता इस बात कि है कि ऐसा गुरु हमें मिले, जिसे इस प्रकार कि साधना ज्ञात हो| वह चाहे हरिद्वार में हो, चाहे मथुरा में हो, चाहे काशी में हो, चाहे कांची में हो और हम उस गुरु के सान्निध्य में जायें| अत्यंत विनम्रता पूर्वक अपनी इच्छा व्यक्त करें| उनसे प्रार्थना करें कि वह गमय साधना संपन्न कराये और पूर्ण गमय साधना को संपन्न होने के बाद वे उन क्षणों को स्पष्ट करें, दो या चार या छः क्षणों को उन-उन क्षणों में समागम करने से, गर्भ खोलने से तुम्हारे गर्भ में उच्च कोटि का महामानव जन्म ले सकेगा|


इसीलिए जीवन की यह महत्वपूर्ण स्थिति है, यदि हमें उच्च कोटि के बालकों को जन्म देना है, यदि इस पृथ्वी को बचाना है, यदि इसमें असत्य के ऊपर सत्य कि विजय देनी है, यदि अधर्म पर धर्म का स्थान देना है, यदि इस पृथ्वी को सुन्दर, आकर्षक और मनमोहक बनाना है, ज्यादा सुखी, ज्यादा सफल और संपन्न करना है तो यह जरूरी है और ऐसा होने से उन बालकों का जन्म हो सकेगा जो कि वास्तव में अद्वितीय है| हम कल्पना करें कि एक समय ऐसा था जब वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्री, कणाद, पुलत्स्य, गौतम सैकड़ो सैकड़ों ऋषि जन्म लिए हुए थे| अब क्या हो गया है? एक भी वशिष्ठ पैदा नहीं हो रहा है, एक भी विश्वामित्र पैदा नहीं हो रहा है, एक भी वासुदेव पैदा नहीं हो रहा है, एक भी शंकराचार्य पैदा नहीं हो रहा है, एक भी इसा-मसीह पैदा नहीं हो रहा है| इसका कारण क्या है? कारण यह है कि हम अपनी परम्पराओं से टूट गए| पूर्वजों के ज्ञान से वंचित हो गए| हमें इस बात का ज्ञान नहीं रहा कि हम किस प्रकार से विश्वामित्र, वशिष्ठ जैसे पैदा कर सकते हैं, अत्री-कणाद को जन्म दे सकते हैं, राम और कृष्ण को गर्भ में स्थान दे सकते हैं| क्योंकि हमारे पास गमय साधना का ज्ञान नहीं और ऐसे गुरु नहीं जो गमय साधना संपन्न करा सकें| उन क्षणों का, उस ज्योतिष का उनको अहेसास नहीं की वे किस क्षण विशेष में उच्च कोटि की आत्मा को गर्भ में ले सकें|


यह आज के युग में प्रत्येक स्त्री और पुरुष के लिए आवश्यक ही नहीं आनिवार्य हो गया है और यदि आप वृद्ध हो गए हो तो आपके पुत्र है, पुत्री वधु है उनके गर्भ से शिक्षा, चेतना, ज्ञान से सकते हैं कि इस प्रकार कि योग्यतम बालक को जन्म दें| ऐसा संभव हो सकता है और मेरा तीसरा प्रश्न आपके सामने रखा था कि हमने जन्म लिया, हम बड़े हुए, हमने अपने जीवन में जो भी कुछ कार्य करना था वो किया और हम मृत्यु को प्राप्त हुए| सैकड़ों हजारों लोग मृत्यु को प्राप्त हुए, मगर मृत्यु के परे और मृत्यु के बाद उनका अस्तित्व, उनके प्राणों का अस्तित्व विद्यमान रहता ही हैं| जैसा की मैं बताया अंगुष्ठ रूप के आकार की आत्मा इस पितृ लोक में बराबर विचरण करती रहती है और उन लाखों करोड़ों आत्माओं में तुम्हारी एक आत्मा होती है| उन लाखों-करोड़ों के भीड़ में तुम भी एक गुमनाम सी आत्मा लिए खड़े होते हो| कोशिश करते रहते हो कि कोई गर्भ मिले और जन्म लें, मगर आप सरल है आप सीधे, आप भले हैं| आपने अपने जीवन को एक शुद्धता के साथ व्यतीत किया है, आप में छल नहीं है, कपट नहीं है, झूठ नहीं है, धक्का-मुक्की नहीं है, दुष्टता नहीं है, इसलिए आप वहां पर भी इस प्रकार की स्थिति पैदा नहीं कर सकते| धक्के नहीं मार सकते, जबरदस्ती किसी गर्भ में प्रवेश नहीं कर सकते, प्रश्न उठता है क्या कोई ऐसी विधि, कोई तरकीब है, कोई स्थिति है जिसकी वजह से श्रेष्ठ गर्भ में हम जन्म ले सकें|


यहां मैंने एक श्रेष्ठ गर्भ का प्रयोग किया, श्रेष्ठ गर्भ तो बहुत कम होते है, दुष्ट गर्भ बहुत है, हजारों है, जो झूट बोलने वाले पिता है, जो कपट करने वाले पिता हैं, दुष्ट आत्माएं माताएं हैं, व्याभिचारिणी माताएं हैं, जिनका जीवन अपने आप में दुष्टता के साथ व्यतीत होता है, ऐसे गर्भ तो हजारो हैं, लाखों है मगर जो सदाचारी है, पवित्र है, दिव्या हैं, शुद्ध हैं, देवताओं का पूजन करने वाले हैं, जो आध्यात्मिक चिंतन में सतत रहने वाले हैं| ऐसे स्त्री पुरुष तो बहुत कम हैं पृथ्वी पर गिने चुने हैं| बहुत कम है जो पति-पत्नी दोनों साधनाओं में रत है, आराधनाओं में व्यतीत करते हैं| ऐसे पति-पत्नी बहुत कम है जो नित्य अपना समय भगवान् की चर्चाओं में व्यतीत करते हों|



[ यह प्रवचन जारी रहेगा.... ]
-सदगुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस

Mrityorma Amritn Gmay - 4 मृत्योर्मा अमृतं गमय


मृत्योर्मा अमृतं गमय - ४





जो झूठ और असत्य से, छल और कपट से परे रहते हो| जिनका जीवन अपने आप में सात्विक हो, जो अपने आप में देवात्मा हो, अपने आप में पवित्र हों, दिव्य हो, ऐसे स्त्री और पुरुष श्रेष्ठ युगल कहें जाते हैं और यदि ऐसे स्त्री और पुरुष के गर्भ में हम जन्म लें, तो अपने आप में अद्वितीयता होती है, क्या हम कल्पना कर सकते हैं की देवकी के अलावा श्रीकृष्ण भगवान् किसी ओर के गर्भ में जन्म ले सकते थे? क्या हम सोच सकते हैं कौशल्या के अलावा किसी के गर्भ में इतनी क्षमता थी की भगवान् राम को उनके गर्भ में स्थान दे सकें? नहीं| इसके लिए पवित्रता, दिव्यता, श्रेष्ठता, उच्चता जरूरी है| मगर प्रश्न यह उठाता है की क्या हम मृत्यु को प्राप्त होने के बाद, क्या हमारी चेतना बनी रह सकती है और क्या मृत्यु को प्राप्त होने के बाद ऐसी स्थिति, कोई ऐसी तरकीब, कोई ऐसी विशिष्टता है की हम श्रेष्ठ गर्भ का चुनाव कर सकें? वह चाहे किसी शहर में हो , वह चाहे किसी प्रांत में हो, वह चाहे किसी राष्ट्र में हो, जहां जिस राष्ट्र में चाहे, भारतवर्ष में चाहे, जिस शहर में चाहे, जिस स्त्री या पुरुष के गर्भ से जन्म लेना चाहे, हम जन्म ले सकें कोई ऐसी स्थिति है? यह प्रश्न हमारे सामने सीधा, दो टूक शब्दों में स्पष्ट खडा रहता है और इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान के पास नहीं है|

हमारे पास नहीं है मृत्यु को प्राप्त होने के बाद, हम विवश हो जाते हैं, मजबूर हो जाते हैं, लाचार हो जाते हैं, यह कोई स्पष्ट नहीं है की हम दो साल बाद, पांच साल बाद, दस साल बाद, पंद्रह या बीस साल बाद, पचास साल बाद उस पितृ लोक में भटकते हुए कहीं जन्म ले लें| हो सकता है किसी गरीब घराने में जन्म लें, कसाई के घर में जन्म ले, हम किसी दुष्ट आत्मा के घर में जन्म ले लें, हम किसी व्याभिचारी के घर में जन्म ले लें और हम किसी मां के घर में जन्म ले लें की भ्रूण ह्त्या हो जाए, गर्भपात हो जाए, हम पूरा जन्म ही नहीं ले सकें| आप कल्पना करें कितनी विवशता हो जायेगी हमारे जीवन की और हम इस जीवन में ही उस स्थिति को भी प्राप्त कर सकते हैं की हम मृत्यु के बाद भी उस प्राणी लोक में, जहां करोडो प्राणी हैं, करोडो आत्माएं है उन आत्माओं में भी हम खड़े हो सके और हमें इस बात का ज्ञान हो सके की हम कौन थे कहां थे किस प्रकार की साधनाएं संपन्न की और क्या करना है? और साथ ही साथ इतनी ताकत, इतनी क्षमता, इतनी तेजस्विता आ सके कि सही गर्भ का चुनाव कर सकें और फिर ऐसी स्थिति बन सके कि तुरन्त हम उस श्रेष्ठ गर्भ में प्रवेश कर सकें और जन्म ले सकें| चाहे उसमे कितनी भीड़, चाहे कितनी ही दुष्ट आत्माएं हमारे पीछे हो| हा उसके बीच में से रास्ता निकाल कर के उस श्रेष्ठ गर्भ का चयन कर सकें और ज्योंही गर्भ खुल जाए उसमें प्रवेश कर सके| इसको अमृत साधना कहा गया है और यह अपने अपने आप में अद्वितीय साधना है, यह विशिष्ट साधना| इसका मतलब है कि इस साधना को संपन्न करने के बाद हमारा यह जीवन हमारे नियंत्रण में रहता है, मृत्यु के बाद हम प्राणी बनकर के भी, जीवात्मा बनकर के भी हमारा नियंत्रण उस पर रहता है और उस जीवात्मा के बाद गर्भ में जन्म लेते हैं, गर्भ में प्रवेश करते हैं| तब भी हमारा नियंत्रण बना रहता है| यह पूरा हमारा सर्कल बन जाता है की हम हैं, हम बढें, हम मृत्यु को प्राप्त हुए, जीवात्मा बनें फिर गर्भ में प्रवेश किया| गर्भ में प्रवेश करने के बाद जन्म लिया और जन्म लेने के बाद खड़े हुए| ये पूरी एक स्टेज, एक पूरा वृत्त बनाता है| पुरे वृत्त का हमें भान रहता है और कई लोगों को ऐसे वृत्त का भान रहता है, ज्ञान रहता है कि प्रत्येक जीवन में हम कहां थे| किस प्रकार से हमने जन्म लिया? ऐसे कई अलौकिक घटनाएं समाज में फैलती हैं जिसको पुरे जन्म का ज्ञान रहता है| मगर कुछ समय तक रहता है|


प्रश्न तो यह है की हम ऐसी साधनाओं को संपन्न करें जो कि हमारे इस जीवन के लिए उपयोगी हो और मृत्यु के बाद हमारी प्राणात्मा इस वायुमंडल में विचरण करते रहती है तो प्राणात्मा पर भी हमारा नियंत्रण बना रहे| साधना के माध्यम से वह डोर टूटे नहीं, डोर अपने आप में जुडी रहे और जल्दी से जल्दी उच्चकोटि के गर्भ में हम प्रवेश कर सकें| ऐसा नहीं हो कि हम लेने के लिए ५० वर्षों तक इंतज़ार करते रहे| हम चाहते हैं कि हम वापिस जल्दी से जल्दी जन्म लें, हम चाहते हैं कि इस जीवन में जो की गई साधनाएं हैं वह सम्पूर्ण रहे और जितना ज्ञान हमने प्राप्त कर लिया उसके आगे का ज्ञान हम प्राप्त करें क्योंकि ज्ञान को तो एक अथाह सागर हैं, अनन्त पथ है| इस जीवन में हम पूर्ण साधनाएं संपन्न नहीं कर सकें, तो अगले जीवन में हमने जहां छोड़ा है उससे आगे बढ़ सकें, क्योंकि ये जो इस जीवन का ज्ञान है वह उस जीवन में स्मरण रहता है| यदि उस प्राणात्मा या जीवात्मा पर हमारा नियंत्रण रहता है, गर्भ पर हमारा नियंत्रण रहता है, गर्भ में जन्म लेने पर हमारा नियंत्रण रहता है| जन्म लेने के बाद गर्भ से बाहर आने कि क्रिया पर नियंत्रण रहता है, इसलिए इस अमृत साधना का भी हमारे जीवन में अत्यंत महत्त्व है क्योंकि अमृत साधना के माध्यम से हम जीवन को छोड़ नहीं पाते, जीवन पर हमारा पूर्ण अधिकार रहता है| जिस प्रकार क़ी सिद्धि को चाहे उस सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं|

प्रत्येक स्त्री और पुरुष को अपने जीवन काल में जब भी अवसर मिले, समय मिले अपने गुरु के पास जाना चाहिए| मैं गुरु शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूं, जिसको इस साधना का ज्ञान हो वह गुरु| हो सकता है, ऐसा गुरु आपका भाई हो, आपकी पत्नी हो, आपका पुत्र हो सकता है यदि उनको इस बात का ज्ञान है और यदि नहीं ज्ञान है जिस किसी गुरु के पास इस प्रकार का ज्ञान हो उसके पास हम जाए| उनके चरणों में बैठे, विनम्रता के साथ निवेदन करें कि हम उस अमृत साधना को प्राप्त करना चाहते हैं| क्योंकि इस जीवन को तो हम अपने नियंत्रण में रखें ही, उसके बाद हम जब भी जन्म लें तो उस प्राणात्मा या जीवात्मा पर भी हमारा नियंत्रण बना रहे और हम जल्दी से जल्दी उच्चकोटि के गर्भ को चुनें, श्रेष्टतम गर्भ को चुने, अद्वितीय उच्चकोटि क़ी मां को चुने, उस परिवार को चुने जहां हम जन्म लेना चाहते हैं| उस गर्भ में जन्म ले सके| हम एक उच्च कोटि के बालक बनें क्योंकि साधना से उच्च कोटि के मां-बाप का चयन भी कर सकते हैं और यदि हम चाहे अमुक मां-बाप के गर्भ से ही जन्म लेना है, तब भी ऐसा हो सकता है| यदि हम चाहे उस शहर के उस मां-बाप के यहां जन्म लेना है यदि वह गर्भ धारण करने क़ी क्षमता रखते हैं तो वापिस उसमें प्रवेश करके जन्म ले सकते हैं| ऐसे कई उदाहरण बने हैं| जिस मां के गर्भ से जन्म लिया और किसी कारणवश मृत्यु को प्राप्त हो गए, तो उस मां के गर्भ में वापिस भी जन्म लेने की स्थिति बन सकती है| खैर ये तो आगे क़ी स्थिति है, इस समय तो स्थिति है कि हम इस अमृत साधना के माध्यम से अपने वर्त्तमान जीवन को अपने नियंत्रण में रखे इस मृत्यु के बाद जीवात्मा क़ी स्थिति पर नियंत्रण रखें| हम जो गर्भ चाहे, श्रेष्टतम गर्भ में प्रवेश कर सकें, पूर्णता के साथ कर सकें और जन्म लेने के बाद विगत जन्म का स्मरण हमें पूर्ण तरह से रहे| जैसे कि उस जीवन में जो साधना क़ी है उस साधना को आगे बढ़ा सकें| उस जीवन जिस गुरु के चरणों में रहे हैं, उस गुरु के चरणों में वापिस जल्दी से जल्दी जा सकें, आगे क़ी साधना संपन्न कर सकें| ये चाहे स्त्री हो, पुरुष हो, साधक हो, साधिका हो प्रत्येक के जीवन क़ी यह मनोकामना है कि वह इस साधना को सपन्न कर सकता है| मैंने अपने इस प्रवचन में तीन साधनों का उल्लेख किया| मृत्योर्मा साधना, अमृत साधना और गमय साधना और इन तीनों साधनाओं को मिलाकर 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' शब्द विभूषित किया गया है| इसलिए इशावास्योपनिषद में और जिस उपनिषद् में इस बात क़ी चर्चा है वह केवल एक पंक्ति नहीं हैं, 'मृत्योर्मा अमृत गमयं '|

मृत्यु से अमृत्यु के ओर चले जाए, हम किस प्रकार से जाए, किस तरकीब से जाए इसलिए उन तीनों साधनाओं के नामकरण इसमें दिए हैं, इसको स्पष्ट किया| इन तीनों साधनाओं को सामन्जस्य से करना, इन तीनो साधनाओं को समझना हमारे जीवन में जरूरी है, आवश्यक है और हम अपने जीवन काल में ही इन तीनों साधनाओं को संपन्न करें, यह हमारे लिए जरूरी है, उतना ही आवश्यक है और जितना जल्दी हो सके अपने गुरु के चरणों में बैठे, जितना जल्दी हो सके उनके चरणों में अपने आप को निवेदित करें| अपनी बात को स्पष्ट करें की हम क्या चाहते हैं और वो जो समय दें, वह जो परीक्षा लें, वह परिक्षा हम दें| वह जिस प्रकार से हमारा उपयोग करना चाहे, हम उपयोग होने दें| मगर हम उनके चरणों में लिपटे रहे क्योंकि हमें उनसे प्राप्त करना है| अदभुद ज्ञान, अद्वितीय ज्ञान, श्रेष्टतम ज्ञान| बहुत कुछ खोने के बाद बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है| यदि आप कुछ खोना नहीं चाहें और बहुत कुछ प्राप्त करना चाहें तो तो ऐसा जीवन में संभव नहीं हो सकता| अपने जीवन को दांव पर लगा करके, प्राप्त किया जा सकता है| यदि आप जीवन को बचा रहे हैं, तो जीवन को बचाते रहे और बहुत कुछ प्राप्त करना चाहे तो ऐसा संभव नहीं हो सकता| इसीलिये इस उपनिषदकार ने इस मृत्योर्मा अमृतं गमयं से सम्बंधित कुछ विशिष्ट मंत्रो का प्रयोग किया| यद्यपि इसकी साधना पद्धति बहुत सरल है, सही है कोई भी स्त्री या पुरुष इस साधना को संपन्न कर सकता है| यद्यपि इस साधना के लिए गुरु के चरणों में पहुँचना आनिवार्य है, क्योंकि इसकी पेचीदगी गुरु के द्वारा ही समझी जा सकती है| उनके साथ, उनके द्वारा ही मन्त्रों को प्राप्त किया जा सकता है| यदि इन मन्त्रों को हम एक बार श्रवण करते हैं तब भी हमारे जीवन क़ी चैतन्यता बनती है, तब भे हम जीवन के उत्थान क़ी ओर अग्रसर होते हैं, तब ही हम मृत्यु पर विजय प्राप्त करने क़ी साहस और क्षमता प्राप्त कर सकते हैं और तभी हम मृत्यु से अमृत्यु की ओर अग्रसर होते हैं, जहां मृत्यु हम पर झपट्टा मार नहीं सकती, जहां मृत्यु हमको दबोच नहीं सकती, समाप्त नहीं कर सकती और हम जितने वर्ष चाहे जितने युगों चाहे जीवित रह सकते हैं|

-- सदगुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस 

Tuesday, November 1, 2011

Ten Mahavidya Kavach




Ten Mahavidya Kavach | श्रीमहा-विधा-कवच

Das Mahavidya Kavach | श्रीमहा-विधा-कवच:

This Ten Mahavidya Stotra/ stavan/Kavach is very important due to its efficacy. Those Sadhak who study this Das Mahavidya Kavach daily, he becomes safe from all the impediments and ailments in his life. Goddess Mahavidyas bless him to make his life full of joy, happiness and totality.

श्रीमहा-विधा-कवच
Das Mahavidyas
विनियोग -

ॐ अस्य श्रीमहा-विधा-कवचस्य श्रीसदा-शिव ॠषि:, उष्णिक छन्द:, श्रीमहा-विधा देवता, सर्व-सिद्धी-प्राप्त्यर्थे पाठे विनियोग: ।

ॠष्यादी न्यास - 

श्रीसदा-शिव-ॠषये नम: शिरसी, उष्णिक-छन्दसे नम: मुखे, श्रीमहा-विधा-देवतायै नम: ह्रीदी, सर्व-सिद्धी-प्राप्त्यार्थे पाठे विनियोगाय नम: सर्वाङ्गे।

मानस-पुजन - 

ॐ पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमहा-विधा-प्रीत्यर्थे समर्पयामी नम: । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमहा-विधा-प्रीत्यर्थे समर्पयामी नम:। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धुपं श्रीमहा-विधा-प्रीत्यर्थे घ्रापयामी नम: । ॐ रं अग्नी-तत्त्वात्मकं दीपं श्रीमहा-विधा-प्रित्यर्थे दर्शयामी नम: । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेधं श्रीमहा-विधा-प्रीत्यर्थे निवेदयामी नम: । ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बुलं श्रीमहा-विधा-प्रित्यर्थे निवेदयामी नम:।

Tuesday, October 25, 2011

Lakshmi puja performed during Diwali

लक्ष्मी पूजा बिधि 
लक्ष्मी जीवन का अधर है 
एस लिए लक्ष्मी पूजा भी अवसक है 

Lakshmi puja is performed during Diwali, the festival of lights. According to tradition people would put small oil lamps outside their homes on Diwali and hope Lakshmi will come to bless them.
Goddess Lakshmi is worshipped by those who wish to acquire or to preserve wealth. It is believed that Lakshmi (wealth) goes only to those houses which are clean and where the people are hardworking. She does not visit the places which are unclean/dirty or where the people are lazy.
In the Sri Vaishnava philosophy however, Sri (Lakshmi) is honoured as the "Iswarigm sarva bhootanam" i.e. the Supreme goddess and not just the goddess of wealth. This is an important distinction between Sri Vaishnavism and other materialistic philosophies.
Gurudev
Om
GIVE ME FAITH AND DEVOTION, AND I WILL GIVE YOU FULFILMENT & COMPLETENESS
ParamPujya Pratahsamaraniya Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji
Om