Saturday, November 5, 2011

mantra mulam Goru kirpa मन्त्र मुलं गुरु वाक्य

मन्त्र मुलं गुरु वाक्य --
भाई बेला सिंह का नाम सिख धर्म में बड़े सन्मान के साथ लिया जाता है !वोह बहुत ही भोले और सीदे थे !गुरु आश्रम में पशुयो की देख रेख करते थे चारा डालना गोबर उठाना अदि अदि और अपनी ही धुन में रहते थे आश्रम के लोग कई वार उनका मजाक भी उडा दिया करते थे लेकिन भाई बेला अपनी मस्ती में सेवा में मस्त रहते थे !जब गुरु गोबिंद सिंह जी अमृत शका रहे थे मतलव नाम दे रहे थे तो भाई बेला अपनी सेवा में मस्त अपना कार्य करते रहे रात को जब आराम करने कमरे में पुह्चे तो वहाँ कुश और लोग जो नाम लेकर आये थे उन्हों ने कहा भाई बेला आप तो रह गये आज गुरु जी ने सभ को नाम दिया !तो भाई बेला ने कहा नाम से क्या होता है तो उस सिख ने बताया इस से गुरु हमेशा के लिए हमारे हो जाते हैं भाई बेला की समझ में बात आ गई के नाम से मेरे गुरु जी मेरे हो जायेगे पर अब क्या उठे और गुरूजी की तरफ चल पड़े रात के १२ वज रहे थे और भाई बेला जी ने गुरु जी का दरवाजा जा खडकाया अन्दर से गुरु जी की आवाज आये कोन है !तो वोह बोले जी बेला हू !गुरु जी की आवाज आयी क्या काम है !भाई बेला जी ने कहा जी नाम लेना है! अन्दर से गुरु जी बोले बेला सिंह जे ना ओह बेला ना एह बेला एह कोन सा बेला (मतलव ना ओह टाइम है ना एह टाइम है जनि के रात्रि का समय था भई एह नाम लेने का कोन सा टाइम है )तो भाई बेला जी ने नमस्कार किया और वापिस आ गये और हर रोज पशुओ की सेवा करते जपने लगे ,ना एह बेला ना ओह बेला एह कोन सा बेला कई साल गुजर गये भाई बेला अपने नाम में मस्त हो के रमे रहे !एक वार पशुयो के लिए चारा लेकर आ रहे थे !रस्ते में एक आदमी की अर्थी लिए जा रहे थे और भाई बेला जी ने उनको कहा मुझे भी मुख दिखला दो उन लोगो ने सोचा गुरुका सेवक है !चलो दिखा देते हैं !तो अर्थी रख के मुख से कफन उठा दिया कहा भाई बेला लो देह लो भाई बेला ने मुख देखा और उसके मुख से निकला , ना एह बेला ना ओह बेला एह कोन सा बेला ,बस इतना निकलना था वोह मुर्दा आदमी उठके बैठ गया और सभी और बेले की चर्चा होने लगी के भाई बेले ने आदमी जिन्दा कर दिया जो लोग गुरु के सेवा दार थे गुरु जी कोल शक्यत लाने चले गये कहा जी बेले ने आदमी जिन्दा कर दिया क्यों के सिख धर्म में चमत्कार नहीं दिखाए जाते तो गुरु जी ने भाई बेले को बुलाया कहा बेला सिंह बई एह कहंदे ने तू आदमी जिन्दा कर दिया तो बेला जी हाथ जोड़ के कहने लगे गुरु जी एह मैंने नहीं किया एह तो आप के दिए नाम ने किया है मुज में इतनी शक्ति कहा के मैं जे कर सकू तो गुरु जी ने कहा भाई बेला मैंने तो तुमे नाम अभी दिया ही नहीं तो भाई बेला जी ने कहा गुरु जी आपने उस रात कहा था ना एह बेला ना ओह बेला एह कोनसा बेला तो मेरे लिए जही नाम हो गया मैंने इसे ही नाम मान कर जपना शुरू कर दिया इसी ने आज एह आदमी जिन्दा कर दिया तो गुरु जी बहुत पर्सन हुए और भाई बेला को अपने सीने से लगा लिया इसे तरह अगर हर शिष्य गुरु वाकया को नाम जितना दर्जा दे और उसे फिर कही भटकने की जरूरत नहीं वोह सभी कुतर्को से ऊपर उठ कर उस पार ब्रह्म से मिल जाता हैं ! जय गुरुदेव !

siddhashram eulogy सिद्धाश्रम स्तवन



सिद्धाश्रम स्तवन

सिद्धाश्रमोऽयं परिपूर्ण रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं दिव्यं वरेण्यम् |
न देवं न योगं न पूर्वं वरेण्यम्, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १ ||

न पूर्वं वदेन्यम् न पार्वं सदेन्यम्, दिव्यो वदेन्यम् सहितं वरेण्यम् |
आतुर्यमाणमचलं प्रवतं प्रदेयं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || २ ||

सूर्यो वदाम्यं वदतं मदेयं, शिव स्वरूपं विष्णुर्वदेन्यं |
ब्रह्मात्वमेव वदतं च विश्वकर्मा, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ३ ||

रजतत्वदेयं महितत्वदेयं वाणीत्वदेयं वरिवनत्वदेयं |
आत्मोवतां पूर्ण मदैव रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ४ ||

दिव्याश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं वदनं त्वमेवं आत्मं त्वमेवं |
वारन्यरूप पवतं पहितं सदैवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ५ ||

हंसो वदान्यै वदतं सहेवं, ज्ञानं च रूपं रूपं त्वदेवम् |
ऋषियामनां पूर्व मदैवं रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ६ ||

मुनियः वदाम्यै ज्ञानं वदाम्यै, प्रणवं वदाम्यै देवं वदाम्यै |
देवर्ष रूपमपरं महितं वदाम्यै, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ७ ||

वशिष्ठ विश्वामित्रं वदेन्यम् ॠषिर्माम देव मदैव रूपं |
ब्रह्मा च विष्णु वदनं सदैव, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ८ ||

भगवत् स्वरूपं मातृ स्वरूपं, सच्चिदानन्द रूपं महतं वदेवम् |
दर्शनं सदां पूर्ण प्रणवैव पुण्यं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ९ ||

महते वदेन्यम् ज्ञानं वदेन्यम्, न शीतोष्ण रूपं आत्मं वदेन्यम् |
न रूपं कथाचित कदेयचित कदीचित, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १० ||

जरा रोग रूपं महादेव नित्यं, वदन्त्यम् वदेन्यम् स्तुवन्तम् सदैव |
अचिन्त्य रूपं चरितं सदैवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ११ ||

यज्ञो न धूपं न धूमं वदेन्यम्, सदान्यं वदेयं नवेवं सदेयम् |
ॠषिश्च पूर्णं प्रवितं प्रदेवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १२ ||

दिव्यो वदेवं सहितं सदेवं, कारूण्य रूपं कहितं वदेवं |
आखेटकं पूर्व मदैव रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १३ ||

सिद्धाश्रमोऽयं मम प्राण रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं आत्म स्वरूपं |
सिद्धाश्रमोऽयं कारुण्य रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १४ ||

निखिलेश्वरोऽयं किंकर वतान्वे महावतारं परश्रुं वदेयम् |
श्रीकृष्ण रूपं मदिदं वदेन्यम्, कृपाचार्य कारुण्य रूपं सदेयम् || १५ ||

सिद्धाश्रमोऽयं देवत्वरूपं, सिद्धाश्रमोऽयं आत्म स्वरूपं |
सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १६ ||

सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं, सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं |
न शब्दं न वाक्यं न चिन्त्यं न रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १७ ||

कुश अजमाए हुए पॉवर फुल नुक्ते -- 1

कुश अजमाए हुए पॉवर फुल नुक्ते -- 1
१ काले घोड़े की नाल तो सभी जानते है इस का छला बना कर मध्यमा उंगी में पहन ने से शनि कभी नुकसान नहीं करता और शुभ फल देता है इस नाल को घर के मुख्या दुयार पे लगाने से घर में गलत चीज परवेश नहीं करती !
२ नाव की कील जो तांबे की होती है जयादा कर उसे हासिल करे उसको बिना गरम किये एक छला बना कर पर्थम ऊँगली में धारण करे आपका कोइ भी काम नहीं रुकेगा और साधना करते वक़्त भी रक्षा व् विध्नो का नाश होता है !यह कील कोइ नाव वाला नहीं देता !
३ हाथी दन्त का कड़ा अगर मिल जाये तो उस पे ॐ गं गणपतये नमः मन्त्र का ११००० हजार जप कर उसे शक्ति कृत करे और गुरुवार को धारण कर ले इस से कोइ भी किसी भी किस्म का तंत्र प्रयोग साधक पे असर नहीं करता और किया हुआ तंत्र निछ्फल हो जाता है !
४ नाग दोन के बूटी होती है उस की जड़ घर रखने से कभी धन की कमी नहीं अति उसे विधि पूर्वक हासिल कर पूजन कर हरे रंग के कपडे में लपेट कर धन रखने की जगह रखना चाहिए !
५ केले की जड़ गुरु पुष्य नक्षत्र के दिन धारण करने से रुका हुआ साधना कर्म चल पड़ता है !उसे विधि पूर्वक गुरु पुष्य नक्षत्र से एक दिन पहले नियुता देना चाहिए फिर गुरु पुष्य नक्षत्र को ले कर पूजन करे और पीले वस्त्र में लपेट कर धारण कर ले !इस से साधक ही नहीं एक साधारण आदमी के रुके हुए काम भी गतिमान हो जाते है !

Durlabhopanishad (दुर्लभोपनिषद)

Durlabhopanishad (दुर्लभोपनिषद)

गुरुर्वै सदां पूर्ण मदैव तुल्यं
प्राणो बदार्यै वहितं सदैव।
चिन्त्यं विचिन्त्यं भव मेक रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं


गुरुर्वै प्रपन्ना महितं वदैवं
अत्योर्वतां वै प्रहितं सदैव।
देवोत्वमेव भवतं सहि चिन्त्य रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


सतं वै सदानं देहालयोवैप्रातोर्भवेवै
सहितं न दिर्घयै।
पूर्णतंपरांपूर्ण मदैव रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


अदोयं वदेवं चिन्त्यं (सहेतं)
पुर्वोत्त रुपं चरणं सदैयं।
आत्मो सतां पूर्ण मदैव चिन्त्यं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


चैतन्य रुपं अपरं सदैव
प्राणोदवेवं चरणं सदैव।
सतिर्थो सदैवं भवतं वदैव
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


चैतन्य रुपं भवतं सदैव,
ज्ञानोच्छवासं सहितं तदैव।
देवोत्त्थां पूर्ण मदैव शक्तीं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


न तातो वतान्यै न मातं न भ्रातं
न देहो वदान्यै पत्निर्वतेवं।
न जानामी वित्तीं न व्रितं न रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


त्वदियं त्वदेयं भवत्वं भवेयं,
चिन्त्यंविचिन्त्यं सहितं सदैव।
आतोनवातं भवमेक नित्यं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


अवतं मदेवं भवतं सदैवं,
ज्ञानं सदेवं चिन्त्यं सदैवं।
पूर्णं सदैवं अवतं सदैवं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
Listen the Audio clip of Durlabhopanishad (दुर्लभोपनिषद) in the voice of our revered Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimali.


Those Sadhak or Shishyas who read or listen this divine Durlabhopanishad continuously for 108 days he/she will surely achieve half and over several types of Siddhis and success in Sadhanas and in the field of Spiritualism. So, It's your turn to read and Listen the Audio clip of Durlabhopanishad (दुर्लभोपनिषद) in the voice of our revered Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimali. That is at the bottom of this page........ Jaya Gurudev! https://sites.google.com/site/nikhilbhaktas/gm/welcome-gurumantra.mp3
‎8754014549602520350-a-1802744773732722657-s-sites.googlegroups.com

Wednesday, November 2, 2011

That was sad not to be avoided it -जो दुःख आया नहीं है उसे टाला जाना चाहिए



जीवन के दुःख

 That was sad not to be avoided it 

जो दुःख आया नहीं है उसे टाला जाना चाहिए | कोशिश करनी चाहिए उसे टालने की| जो दुःख वर्त्तमान में मिल रहा है उसे तो सहकर ही समाप्त किया जा सकता है| कर्म सिद्धांत के अनुसार भी जो कर्म परिपक्व हों दुःख देते हैं| उनसे किसी भी प्रकार से बच पाना संभव नहीं होता| उनसे छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ता उन्हें भोग कर ही समाप्त करना होता है| परन्तु जो अभी आया नहीं है हम उसके आगमन को अवश्य रोक सकते हैं| जब तक शरीर विद्यमान है, दुःख तो लगे ही रहेंगे, परन्तु भविष्य को बदलना हमारे हाथ में होता है|

उदाहरण के लिये आपने खेत में जो कुछ बोया है उसकी फसल तो काटना आनिवार्य है क्योंकि अब उसे बदल पाना आपके हाथ में नहीं होता| परन्तु जहां तक भविष्य की फसलों का सवाल है, आप पूरी तरह स्वतंत्र है कि किन परिस्थितियों में कैसी फसल हों| बन्दूक से एक बार छूटी गोली पुनः उसमें वापिस नहीं लाइ जा सकती| परन्तु अभी उसमें जो गोली बची है उसे न दागना आपके हाथ में होता है| इसके लिये अपने वर्त्तमान कर्मों को सही ढंग से इच्छित फल के अनुरूप करना आवश्यक होता है|

मनुष्य जीवन में कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो अपना फल देना प्रारम्भ करने के निकट होते हैं| उनके फल को प्रारब्ध कहते हैं जिसे सुख अथवा दुःख के रूप में प्रत्येक को भोगना आनिवार्य होता है| तपस्या, विवेक और साधना द्वारा उनका सामना करना चाहिए| परन्तु ऐसे कर्म जो भविष्य में फल देंगे, आप उनसे बच सकते हैं| इसके लिये आपको वर्त्तमान में, जो आपके हाथ में है, सुकर्म करना होगा| कर्म के सिद्धांत के अनुसार कर्मों का एक समूह ऐसा है जिससे आप लाख उपाय करने पर भी बच नहीं सकते| परन्तु दुसरा समूह ऐसा है जिसे आप इच्छानुसार बदल अथवा स्थगित कर सकते हैं| इस प्रकार यह सूत्र घोषणापूर्वक बताता है कि आने वाले दुःख (कर्मफल) को रोकना व्यक्ति के अपने हाथ में होता हैं|
-सदगुरुदेव कैलाश चन्द्र श्रीमाली

GURU SEVA

गुरु सेवा
गंगा नदी के किनारे स्वामी जी का आश्रम था! स्वामी जी की दिनचर्या नियमित थी, जो प्रातः काल स्नान से प्रारंभ होती थी! उनके सभी शिष्य भी जल्दी उठकर अपने कार्यों से निवृत्त होते और फिर गुरु सेवा में लग जाते! उनके स्नान-ध्यान से लेकर अध्यापन कक्ष की सफाई व आश्रम के छोटे-मोटे कार्य शिष्यगण ही करते थे!
एक सुबह स्वामी जी एक संत के साथ गंगा-स्नान कर रहे थे! तभी स्वामीजी अपने शिष्य को गंगाजी में खड़े-खड़े ही आवाज लगायी!

शिष्य दौड़ा-दौड़ा चला गया!

स्वामीजी ने उससे कहा : "बेटा! मुझे गंगाजल पीना हैं!"

शिष्य आश्रम के भीतर से लोटा लेकर आया और उसे बालू से मांजकर चमकाया! फिर गंगाजी में उतरकर पुनः लोटा धोकर गंगाजल भरकर गुरूजी को थमाया! स्वामी जी ने अंजलि भरकर लोटे से जल पिया!
इसके बाद शिष्य खली लोटा लेकर लौट गया!

यह सब देखकर साथ नहा रहे संत ने हैरान होते हुए पूछा :

"स्वामी जी जब आपको गंगाजल हांथों से ही पीना था तो शिष्य से व्यर्थ परिश्रम क्यों करवाया? आप यहीं से जल लेकर पी लेते! इस पर स्वामी जी बोले : यह तो उस शिष्य को सेवा देने का बहाना भर था! सेवा इसीलिए दी जाती हैं की व्यक्ति का अंत:करण शुद्ध हो जाये और वह विद्या का सच्चा अधिकारी बन सके, क्योंकि बिना गुरु सेवा के शिक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती!

चाणक्य नीति में कहा गया हैं की जिस प्रकार कुदाल से मनुष्य जमीन को खोदकर जल निकल लेता हैं उसी प्रकार गुरु की सेवा करने वाला शिष्य गुरु के अंतर में दबी शिक्षा को प्राप्त कर सकता हैं!

Sex is a force, think of him.

सेक्स एक शक्ति है, उसको समझिए। 

Sex is a force, think of him.




हमने सेक्स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने में भयभीत होते हैं। हमने तो सेक्स को इस भांति छिपा कर रख दिया है जैसे वह है ही नहीं, जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब कि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में और कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है, उसको दबाया है। दबाने और छिपाने से मनुष्य सेक्स से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि मनुष्य और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाया है। शायद आपमें से किसी ने एक फ्रेंच वैज्ञानिक कुए के एक नियम के संबंध में सुना होगा। वह नियम है: लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट। कुए ने एक नियम ईजाद किया है, विपरीत परिणाम का नियम। हम जो करना चाहते हैं, हम इस ढंग से कर सकते हैं कि जो हम परिणाम चाहते थे, उससे उलटा परिणाम हो जाए।

कुए कहता है, हमारी चेतना का एक नियम है—लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट। हम जिस चीज से बचना चाहते हैं, चेतना उसी पर केंद्रित हो जाती है और परिणाम में हम उसी से टकरा जाते हैं।

पांच हजार वर्षों से आदमी सेक्स से बचना चाह रहा है और परिणाम इतना हुआ है कि गली-कूचे, हर जगह, जहां भी आदमी जाता है, वहीं सेक्स से टकरा जाता है। वह लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट मनुष्य की आत्मा को पकड़े हुए है।

क्या कभी आपने यह सोचा कि आप चित्त को जहां से बचाना चाहते हैं, चित्त वहीं आकर्षित हो जाता है, वहीं निमंत्रित हो जाता है! जिन लोगों ने मनुष्य को सेक्स के विरोध में समझाया, उन लोगों ने ही मनुष्य को कामुक बनाने का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया है। मनुष्य की अति कामुकता गलत शिक्षाओं का परिणाम है। और आज भी हम भयभीत होते हैं कि सेक्स की बात न की जाए! क्यों भयभीत होते हैं? भयभीत इसलिए होते हैं कि हमें डर है कि सेक्स के संबंध में बात करने से लोग और कामुक हो जाएंगे।

मैं आपको कहना चाहता हूं, यह बिलकुल ही गलत भ्रम है। यह शत प्रतिशत गलत है। पृथ्वी उसी दिन सेक्स से मुक्त होगी, जब हम सेक्स के संबंध में सामान्य, स्वस्थ बातचीत करने में समर्थ हो जाएंगे। जब हम सेक्स को पूरी तरह से समझ सकेंगे, तो ही हम सेक्स का अतिक्रमण कर सकेंगे।

जगत में ब्रह्मचर्य का जन्म हो सकता है, मनुष्य सेक्स के ऊपर उठ सकता है, लेकिन सेक्स को समझ कर, सेक्स को पूरी तरह पहचान कर। उस ऊर्जा के पूरे अर्थ, मार्ग, व्यवस्था को जान कर उससे मुक्त हो सकता है। आंखें बंद कर लेने से कोई कभी मुक्त नहीं हो सकता। आंखें बंद कर लेने वाले सोचते हों कि आंख बंद कर लेने से शत्रु समाप्त हो गया है, तो वे पागल हैं। सेक्स के संबंध में आदमी ने शुतुरमुर्ग का व्यवहार किया है आज तक। वह सोचता है, आंख बंद कर लो सेक्स के प्रति तो सेक्स मिट गया।

अगर आंख बंद कर लेने से चीजें मिटती होतीं, तो बहुत आसान थी जिंदगी, बहुत आसान होती दुनिया। आंखें बंद करने से कुछ मिटता नहीं, बल्कि जिस चीज के संबंध में हम आंखें बंद करते हैं, हम प्रमाण देते हैं कि हम उससे भयभीत हो गए हैं, हम डर गए हैं। वह हमसे ज्यादा मजबूत है, उससे हम जीत नहीं सकते हैं, इसलिए हम आंख बंद करते हैं। आंख बंद करना कमजोरी का लक्षण है।

और सेक्स के बाबत सारी मनुष्य-जाति आंख बंद करके बैठ गई है। न केवल आंख बंद करके बैठ गई है, बल्कि उसने सब तरह की लड़ाई भी सेक्स से ली है। और उसके परिणाम, उसके दुष्परिणाम सारे जगत में ज्ञात हैं।

अगर सौ आदमी पागल होते हैं, तो उसमें से अट्ठानबे आदमी सेक्स को दबाने की वजह से पागल होते हैं। अगर हजारों स्त्रियां हिस्टीरिया से परेशान हैं, तो उसमें सौ में से निन्यानबे स्त्रियों के हिस्टीरिया के, मिरगी के, बेहोशी के पीछे सेक्स की मौजूदगी है, सेक्स का दमन मौजूद है। अगर आदमी इतना बेचैन, अशांत, इतना दुखी और पीड़ित है, तो इस पीड़ित होने के पीछे उसने जीवन की एक बड़ी शक्ति को बिना समझे उसकी तरफ पीठ खड़ी कर ली है, उसका कारण है। और परिणाम उलटे आते हैं।

अगर हम मनुष्य का साहित्य उठा कर देखें, अगर किसी देवलोक से कभी कोई देवता आए या चंद्रलोक से या मंगल ग्रह से कभी कोई यात्री आए और हमारी किताबें पढ़े, हमारा साहित्य देखे, हमारी कविताएं पढ़े, हमारे चित्र देखे, तो बहुत हैरान हो जाएगा। वह हैरान हो जाएगा यह जान कर कि आदमी का सारा साहित्य सेक्स ही सेक्स पर क्यों केंद्रित है? आदमी की सारी कविताएं सेक्सुअल क्यों हैं? आदमी की सारी कहानियां, सारे उपन्यास सेक्स पर क्यों खड़े हैं? आदमी की हर किताब के ऊपर नंगी औरत की तस्वीर क्यों है? आदमी की हर फिल्म नंगे आदमी की फिल्म क्यों है? वह आदमी बहुत हैरान होगा; अगर कोई मंगल से आकर हमें इस हालत में देखेगा तो बहुत हैरान होगा। वह सोचेगा, आदमी सेक्स के सिवाय क्या कुछ भी नहीं सोचता? और आदमी से अगर पूछेगा, बातचीत करेगा, तो बहुत हैरान हो जाएगा। आदमी बातचीत करेगा आत्मा की, परमात्मा की, स्वर्ग की, मोक्ष की। सेक्स की कभी कोई बात नहीं करेगा! और उसका सारा व्यक्तित्व चारों तरफ से सेक्स से भरा हुआ है! वह मंगल ग्रह का वासी तो बहुत हैरान होगा। वह कहेगा, बातचीत कभी नहीं की जाती जिस चीज की, उसको चारों तरफ से तृप्त करने की हजार-हजार पागल कोशिशें क्यों की जा रही हैं?

आदमी को हमने परवर्ट किया है, विकृत किया है और अच्छे नामों के आधार पर विकृत किया है। ब्रह्मचर्य की बात हम करते हैं। लेकिन कभी इस बात की चेष्टा नहीं करते कि पहले मनुष्य की काम की ऊर्जा को समझा जाए, फिर उसे रूपांतरित करने के प्रयोग भी किए जा सकते हैं। बिना उस ऊर्जा को समझे दमन की, संयम की सारी शिक्षा, मनुष्य को पागल, विक्षिप्त और रुग्ण करेगी। इस संबंध में हमें कोई भी ध्यान नहीं है! यह मनुष्य इतना रुग्ण, इतना दीन-हीन कभी भी न था; इतना विषाक्त भी न था, इतना पायज़नस भी न था, इतना दुखी भी न था।

मनुष्य के भीतर जो शक्ति है, उस शक्ति को रूपांतरित करने की, ऊंचा ले जाने की, आकाशगामी बनाने का हमने कोई प्रयास नहीं किया। उस शक्ति के ऊपर हम जबरदस्ती कब्जा करके बैठ गए हैं। वह शक्ति नीचे से ज्वालामुखी की तरह उबल रही है और धक्के दे रही है। वह आदमी को किसी भी क्षण उलटा देने की चेष्टा कर रही है।

क्या आपने कभी सोचा? आप किसी आदमी का नाम भूल सकते हैं, जाति भूल सकते हैं, चेहरा भूल सकते हैं। अगर मैं आप से मिलूं या मुझे आप मिलें तो मैं सब भूल सकता हूं—कि आपका नाम क्या था, आपका चेहरा क्या था, आपकी जाति क्या थी, उम्र क्या थी, आप किस पद पर थे—सब भूल सकता हूं, लेकिन कभी आपको खयाल आया कि आप यह भी भूल सके हैं कि जिससे आप मिले थे, वह आदमी था या औरत? कभी आप भूल सके इस बात को कि जिससे आप मिले थे, वह पुरुष है या स्त्री? कभी पीछे यह संदेह उठा मन में कि वह स्त्री है या पुरुष? नहीं, यह बात आप कभी भी नहीं भूल सके होंगे। क्यों लेकिन? जब सारी बातें भूल जाती हैं तो यह क्यों नहीं भूलता?

हमारे भीतर मन में कहीं सेक्स बहुत अतिशय होकर बैठा है। वह चौबीस घंटे उबल रहा है। इसलिए सब बात भूल जाती है, लेकिन यह बात नहीं भूलती। हम सतत सचेष्ट हैं। यह पृथ्वी तब तक स्वस्थ नहीं हो सकेगी, जब तक आदमी और स्त्रियों के बीच यह दीवार और यह फासला खड़ा हुआ है। यह पृथ्वी तब तक कभी भी शांत नहीं हो सकेगी, जब तक भीतर उबलती हुई आग है और उसके ऊपर हम जबरदस्ती बैठे हुए हैं। उस आग को रोज दबाना पड़ता है। उस आग को प्रतिक्षण दबाए रखना पड़ता है। वह आग हमको भी जला डालती है, सारा जीवन राख कर देती है। लेकिन फिर भी हम विचार करने को राजी नहीं होते—यह आग क्या थी?

और मैं आपसे कहता हूं, अगर हम इस आग को समझ लें तो यह आग दुश्मन नहीं है, दोस्त है। अगर हम इस आग को समझ लें तो यह हमें जलाएगी नहीं, हमारे घर को गरम भी कर सकती है सर्दियों में, और हमारी रोटियां भी पका सकती है, और हमारी जिंदगी के लिए सहयोगी और मित्र भी हो सकती है। लाखों साल तक आकाश में बिजली चमकती थी। कभी किसी के ऊपर गिरती थी और जान ले लेती थी। कभी किसी ने सोचा भी न था कि एक दिन घर में पंखा चलाएगी यह बिजली। कभी यह रोशनी करेगी अंधेरे में, यह किसी ने सोचा नहीं था। आज? आज वही बिजली हमारी साथी हो गई है। क्यों? बिजली की तरफ हम आंख मूंद कर खड़े हो जाते तो हम कभी बिजली के राज को न समझ पाते और न कभी उसका उपयोग कर पाते। वह हमारी दुश्मन ही बनी रहती। लेकिन नहीं, आदमी ने बिजली के प्रति दोस्ताना भाव बरता। उसने बिजली को समझने की कोशिश की, उसने प्रयास किए जानने के। और धीरे-धीरे बिजली उसकी साथी हो गई। आज बिना बिजली के क्षण भर जमीन पर रहना मुश्किल मालूम होगा।
मनुष्य के भीतर बिजली से भी बड़ी ताकत है सेक्स की।
मनुष्य के भीतर अणु की शक्ति से भी बड़ी शक्ति है सेक्स की।

कभी आपने सोचा लेकिन, यह शक्ति क्या है और कैसे हम इसे रूपांतरित करें? एक छोटे से अणु में इतनी शक्ति है कि हिरोशिमा का पूरा का पूरा एक लाख का नगर भस्म हो सकता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि मनुष्य के काम की ऊर्जा का एक अणु एक नये व्यक्ति को जन्म देता है? उस व्यक्ति में गांधी पैदा हो सकता है, उस व्यक्ति में महावीर पैदा हो सकता है, उस व्यक्ति में बुद्ध पैदा हो सकते हैं, क्राइस्ट पैदा हो सकता है। उससे आइंस्टीन पैदा हो सकता है और न्यूटन पैदा हो सकता है। एक छोटा सा अणु एक मनुष्य की काम-ऊर्जा का, एक गांधी को छिपाए हुए है। गांधी जैसा विराट व्यक्तित्व जन्म पा सकता है।

सेक्स है फैक्ट, सेक्स जो है वह तथ्य है मनुष्य के जीवन का। और परमात्मा? परमात्मा अभी दूर है। सेक्स हमारे जीवन का तथ्य है। इस तथ्य को समझ कर हम परमात्मा के सत्य तक यात्रा कर भी सकते हैं। लेकिन इसे बिना समझे एक इंच आगे नहीं जा हमने कभी यह भी नहीं पूछा कि मनुष्य का इतना आकर्षण क्यों है? कौन सिखाता है सेक्स आपको?

सारी दुनिया तो सिखाने के विरोध में सारे उपाय करती है। मां-बाप चेष्टा करते हैं कि बच्चे को पता न चल जाए। शिक्षक चेष्टा करते हैं। धर्म-शास्त्र चेष्टा करते हैं। कहीं कोई स्कूल नहीं, कहीं कोई यूनिवर्सिटी नहीं। लेकिन आदमी अचानक एक दिन पाता है कि सारे प्राण काम की आतुरता से भर गए हैं! यह कैसे हो जाता है? बिना सिखाए यह कैसे हो जाता है? सत्य की शिक्षा दी जाती है, प्रेम की शिक्षा दी जाती है, उसका तो कोई पता नहीं चलता। इस सेक्स का इतना प्रबल आकर्षण, इतना नैसर्गिक केंद्र क्या है? जरूर इसमें कोई रहस्य है और इसे समझना जरूरी है। तो शायद हम इससे मुक्त भी हो सकते हैं।


HIrendra paratap singh