Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Friday, November 11, 2011
himalay se ooncha guru
Sri Guru stotram श्री गुरु स्तोत्रम्
श्री गुरु स्तोत्रम्
पार्वती उवाच
गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा ।
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे ॥
महादेव उवाच
जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम्।
उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥१॥
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम्।
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥२॥
वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम्।
साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥३॥
विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम्।
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥४॥
प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम्।
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥५॥
काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा।
श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥६॥
मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम्।
नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥७॥
श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम्।
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥८॥
गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा।
यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥९॥
गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्।
एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥१०॥
तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः।
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥११॥
एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम् |
ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥१२॥
|| वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम् ||
भावार्थ:
माता पार्वती ने कहा हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है - इस बारे विस्तार से बताये।
महादेव ने कहा जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥१॥
प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥२॥
वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥३॥
भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥४॥
प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥५॥
काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥६॥
भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥७॥
भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥८॥
गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥९॥
हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन - ये सब भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है,गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥१०॥
तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥११॥
इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है | निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥१२॥
उपरोक्त गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र मं त्रिपुरा-शिव संवाद में वर्णित हैं।
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श्री गुरु स्तोत्रम्
Saturday, November 5, 2011
mantra mulam Goru kirpa मन्त्र मुलं गुरु वाक्य
मन्त्र मुलं गुरु वाक्य --
भाई बेला सिंह का नाम सिख धर्म में बड़े सन्मान के साथ लिया जाता है !वोह बहुत ही भोले और सीदे थे !गुरु आश्रम में पशुयो की देख रेख करते थे चारा डालना गोबर उठाना अदि अदि और अपनी ही धुन में रहते थे आश्रम के लोग कई वार उनका मजाक भी उडा दिया करते थे लेकिन भाई बेला अपनी मस्ती में सेवा में मस्त रहते थे !जब गुरु गोबिंद सिंह जी अमृत शका रहे थे मतलव नाम दे रहे थे तो भाई बेला अपनी सेवा में मस्त अपना कार्य करते रहे रात को जब आराम करने कमरे में पुह्चे तो वहाँ कुश और लोग जो नाम लेकर आये थे उन्हों ने कहा भाई बेला आप तो रह गये आज गुरु जी ने सभ को नाम दिया !तो भाई बेला ने कहा नाम से क्या होता है तो उस सिख ने बताया इस से गुरु हमेशा के लिए हमारे हो जाते हैं भाई बेला की समझ में बात आ गई के नाम से मेरे गुरु जी मेरे हो जायेगे पर अब क्या उठे और गुरूजी की तरफ चल पड़े रात के १२ वज रहे थे और भाई बेला जी ने गुरु जी का दरवाजा जा खडकाया अन्दर से गुरु जी की आवाज आये कोन है !तो वोह बोले जी बेला हू !गुरु जी की आवाज आयी क्या काम है !भाई बेला जी ने कहा जी नाम लेना है! अन्दर से गुरु जी बोले बेला सिंह जे ना ओह बेला ना एह बेला एह कोन सा बेला (मतलव ना ओह टाइम है ना एह टाइम है जनि के रात्रि का समय था भई एह नाम लेने का कोन सा टाइम है )तो भाई बेला जी ने नमस्कार किया और वापिस आ गये और हर रोज पशुओ की सेवा करते जपने लगे ,ना एह बेला ना ओह बेला एह कोन सा बेला कई साल गुजर गये भाई बेला अपने नाम में मस्त हो के रमे रहे !एक वार पशुयो के लिए चारा लेकर आ रहे थे !रस्ते में एक आदमी की अर्थी लिए जा रहे थे और भाई बेला जी ने उनको कहा मुझे भी मुख दिखला दो उन लोगो ने सोचा गुरुका सेवक है !चलो दिखा देते हैं !तो अर्थी रख के मुख से कफन उठा दिया कहा भाई बेला लो देह लो भाई बेला ने मुख देखा और उसके मुख से निकला , ना एह बेला ना ओह बेला एह कोन सा बेला ,बस इतना निकलना था वोह मुर्दा आदमी उठके बैठ गया और सभी और बेले की चर्चा होने लगी के भाई बेले ने आदमी जिन्दा कर दिया जो लोग गुरु के सेवा दार थे गुरु जी कोल शक्यत लाने चले गये कहा जी बेले ने आदमी जिन्दा कर दिया क्यों के सिख धर्म में चमत्कार नहीं दिखाए जाते तो गुरु जी ने भाई बेले को बुलाया कहा बेला सिंह बई एह कहंदे ने तू आदमी जिन्दा कर दिया तो बेला जी हाथ जोड़ के कहने लगे गुरु जी एह मैंने नहीं किया एह तो आप के दिए नाम ने किया है मुज में इतनी शक्ति कहा के मैं जे कर सकू तो गुरु जी ने कहा भाई बेला मैंने तो तुमे नाम अभी दिया ही नहीं तो भाई बेला जी ने कहा गुरु जी आपने उस रात कहा था ना एह बेला ना ओह बेला एह कोनसा बेला तो मेरे लिए जही नाम हो गया मैंने इसे ही नाम मान कर जपना शुरू कर दिया इसी ने आज एह आदमी जिन्दा कर दिया तो गुरु जी बहुत पर्सन हुए और भाई बेला को अपने सीने से लगा लिया इसे तरह अगर हर शिष्य गुरु वाकया को नाम जितना दर्जा दे और उसे फिर कही भटकने की जरूरत नहीं वोह सभी कुतर्को से ऊपर उठ कर उस पार ब्रह्म से मिल जाता हैं ! जय गुरुदेव !
भाई बेला सिंह का नाम सिख धर्म में बड़े सन्मान के साथ लिया जाता है !वोह बहुत ही भोले और सीदे थे !गुरु आश्रम में पशुयो की देख रेख करते थे चारा डालना गोबर उठाना अदि अदि और अपनी ही धुन में रहते थे आश्रम के लोग कई वार उनका मजाक भी उडा दिया करते थे लेकिन भाई बेला अपनी मस्ती में सेवा में मस्त रहते थे !जब गुरु गोबिंद सिंह जी अमृत शका रहे थे मतलव नाम दे रहे थे तो भाई बेला अपनी सेवा में मस्त अपना कार्य करते रहे रात को जब आराम करने कमरे में पुह्चे तो वहाँ कुश और लोग जो नाम लेकर आये थे उन्हों ने कहा भाई बेला आप तो रह गये आज गुरु जी ने सभ को नाम दिया !तो भाई बेला ने कहा नाम से क्या होता है तो उस सिख ने बताया इस से गुरु हमेशा के लिए हमारे हो जाते हैं भाई बेला की समझ में बात आ गई के नाम से मेरे गुरु जी मेरे हो जायेगे पर अब क्या उठे और गुरूजी की तरफ चल पड़े रात के १२ वज रहे थे और भाई बेला जी ने गुरु जी का दरवाजा जा खडकाया अन्दर से गुरु जी की आवाज आये कोन है !तो वोह बोले जी बेला हू !गुरु जी की आवाज आयी क्या काम है !भाई बेला जी ने कहा जी नाम लेना है! अन्दर से गुरु जी बोले बेला सिंह जे ना ओह बेला ना एह बेला एह कोन सा बेला (मतलव ना ओह टाइम है ना एह टाइम है जनि के रात्रि का समय था भई एह नाम लेने का कोन सा टाइम है )तो भाई बेला जी ने नमस्कार किया और वापिस आ गये और हर रोज पशुओ की सेवा करते जपने लगे ,ना एह बेला ना ओह बेला एह कोन सा बेला कई साल गुजर गये भाई बेला अपने नाम में मस्त हो के रमे रहे !एक वार पशुयो के लिए चारा लेकर आ रहे थे !रस्ते में एक आदमी की अर्थी लिए जा रहे थे और भाई बेला जी ने उनको कहा मुझे भी मुख दिखला दो उन लोगो ने सोचा गुरुका सेवक है !चलो दिखा देते हैं !तो अर्थी रख के मुख से कफन उठा दिया कहा भाई बेला लो देह लो भाई बेला ने मुख देखा और उसके मुख से निकला , ना एह बेला ना ओह बेला एह कोन सा बेला ,बस इतना निकलना था वोह मुर्दा आदमी उठके बैठ गया और सभी और बेले की चर्चा होने लगी के भाई बेले ने आदमी जिन्दा कर दिया जो लोग गुरु के सेवा दार थे गुरु जी कोल शक्यत लाने चले गये कहा जी बेले ने आदमी जिन्दा कर दिया क्यों के सिख धर्म में चमत्कार नहीं दिखाए जाते तो गुरु जी ने भाई बेले को बुलाया कहा बेला सिंह बई एह कहंदे ने तू आदमी जिन्दा कर दिया तो बेला जी हाथ जोड़ के कहने लगे गुरु जी एह मैंने नहीं किया एह तो आप के दिए नाम ने किया है मुज में इतनी शक्ति कहा के मैं जे कर सकू तो गुरु जी ने कहा भाई बेला मैंने तो तुमे नाम अभी दिया ही नहीं तो भाई बेला जी ने कहा गुरु जी आपने उस रात कहा था ना एह बेला ना ओह बेला एह कोनसा बेला तो मेरे लिए जही नाम हो गया मैंने इसे ही नाम मान कर जपना शुरू कर दिया इसी ने आज एह आदमी जिन्दा कर दिया तो गुरु जी बहुत पर्सन हुए और भाई बेला को अपने सीने से लगा लिया इसे तरह अगर हर शिष्य गुरु वाकया को नाम जितना दर्जा दे और उसे फिर कही भटकने की जरूरत नहीं वोह सभी कुतर्को से ऊपर उठ कर उस पार ब्रह्म से मिल जाता हैं ! जय गुरुदेव !
siddhashram eulogy सिद्धाश्रम स्तवन
सिद्धाश्रम स्तवन
सिद्धाश्रमोऽयं परिपूर्ण रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं दिव्यं वरेण्यम् |
न देवं न योगं न पूर्वं वरेण्यम्, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १ ||
न पूर्वं वदेन्यम् न पार्वं सदेन्यम्, दिव्यो वदेन्यम् सहितं वरेण्यम् |
आतुर्यमाणमचलं प्रवतं प्रदेयं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || २ ||
सूर्यो वदाम्यं वदतं मदेयं, शिव स्वरूपं विष्णुर्वदेन्यं |
ब्रह्मात्वमेव वदतं च विश्वकर्मा, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ३ ||
रजतत्वदेयं महितत्वदेयं वाणीत्वदेयं वरिवनत्वदेयं |
आत्मोवतां पूर्ण मदैव रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ४ ||
दिव्याश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं वदनं त्वमेवं आत्मं त्वमेवं |
वारन्यरूप पवतं पहितं सदैवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ५ ||
हंसो वदान्यै वदतं सहेवं, ज्ञानं च रूपं रूपं त्वदेवम् |
ऋषियामनां पूर्व मदैवं रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ६ ||
मुनियः वदाम्यै ज्ञानं वदाम्यै, प्रणवं वदाम्यै देवं वदाम्यै |
देवर्ष रूपमपरं महितं वदाम्यै, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ७ ||
वशिष्ठ विश्वामित्रं वदेन्यम् ॠषिर्माम देव मदैव रूपं |
ब्रह्मा च विष्णु वदनं सदैव, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ८ ||
भगवत् स्वरूपं मातृ स्वरूपं, सच्चिदानन्द रूपं महतं वदेवम् |
दर्शनं सदां पूर्ण प्रणवैव पुण्यं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ९ ||
महते वदेन्यम् ज्ञानं वदेन्यम्, न शीतोष्ण रूपं आत्मं वदेन्यम् |
न रूपं कथाचित कदेयचित कदीचित, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १० ||
जरा रोग रूपं महादेव नित्यं, वदन्त्यम् वदेन्यम् स्तुवन्तम् सदैव |
अचिन्त्य रूपं चरितं सदैवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ११ ||
यज्ञो न धूपं न धूमं वदेन्यम्, सदान्यं वदेयं नवेवं सदेयम् |
ॠषिश्च पूर्णं प्रवितं प्रदेवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १२ ||
दिव्यो वदेवं सहितं सदेवं, कारूण्य रूपं कहितं वदेवं |
आखेटकं पूर्व मदैव रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १३ ||
सिद्धाश्रमोऽयं मम प्राण रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं आत्म स्वरूपं |
सिद्धाश्रमोऽयं कारुण्य रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १४ ||
निखिलेश्वरोऽयं किंकर वतान्वे महावतारं परश्रुं वदेयम् |
श्रीकृष्ण रूपं मदिदं वदेन्यम्, कृपाचार्य कारुण्य रूपं सदेयम् || १५ ||
सिद्धाश्रमोऽयं देवत्वरूपं, सिद्धाश्रमोऽयं आत्म स्वरूपं |
सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १६ ||
सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं, सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं |
न शब्दं न वाक्यं न चिन्त्यं न रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १७ ||
कुश अजमाए हुए पॉवर फुल नुक्ते -- 1
कुश अजमाए हुए पॉवर फुल नुक्ते -- 1
१ काले घोड़े की नाल तो सभी जानते है इस का छला बना कर मध्यमा उंगी में पहन ने से शनि कभी नुकसान नहीं करता और शुभ फल देता है इस नाल को घर के मुख्या दुयार पे लगाने से घर में गलत चीज परवेश नहीं करती !
२ नाव की कील जो तांबे की होती है जयादा कर उसे हासिल करे उसको बिना गरम किये एक छला बना कर पर्थम ऊँगली में धारण करे आपका कोइ भी काम नहीं रुकेगा और साधना करते वक़्त भी रक्षा व् विध्नो का नाश होता है !यह कील कोइ नाव वाला नहीं देता !
३ हाथी दन्त का कड़ा अगर मिल जाये तो उस पे ॐ गं गणपतये नमः मन्त्र का ११००० हजार जप कर उसे शक्ति कृत करे और गुरुवार को धारण कर ले इस से कोइ भी किसी भी किस्म का तंत्र प्रयोग साधक पे असर नहीं करता और किया हुआ तंत्र निछ्फल हो जाता है !
४ नाग दोन के बूटी होती है उस की जड़ घर रखने से कभी धन की कमी नहीं अति उसे विधि पूर्वक हासिल कर पूजन कर हरे रंग के कपडे में लपेट कर धन रखने की जगह रखना चाहिए !
५ केले की जड़ गुरु पुष्य नक्षत्र के दिन धारण करने से रुका हुआ साधना कर्म चल पड़ता है !उसे विधि पूर्वक गुरु पुष्य नक्षत्र से एक दिन पहले नियुता देना चाहिए फिर गुरु पुष्य नक्षत्र को ले कर पूजन करे और पीले वस्त्र में लपेट कर धारण कर ले !इस से साधक ही नहीं एक साधारण आदमी के रुके हुए काम भी गतिमान हो जाते है !
१ काले घोड़े की नाल तो सभी जानते है इस का छला बना कर मध्यमा उंगी में पहन ने से शनि कभी नुकसान नहीं करता और शुभ फल देता है इस नाल को घर के मुख्या दुयार पे लगाने से घर में गलत चीज परवेश नहीं करती !
२ नाव की कील जो तांबे की होती है जयादा कर उसे हासिल करे उसको बिना गरम किये एक छला बना कर पर्थम ऊँगली में धारण करे आपका कोइ भी काम नहीं रुकेगा और साधना करते वक़्त भी रक्षा व् विध्नो का नाश होता है !यह कील कोइ नाव वाला नहीं देता !
३ हाथी दन्त का कड़ा अगर मिल जाये तो उस पे ॐ गं गणपतये नमः मन्त्र का ११००० हजार जप कर उसे शक्ति कृत करे और गुरुवार को धारण कर ले इस से कोइ भी किसी भी किस्म का तंत्र प्रयोग साधक पे असर नहीं करता और किया हुआ तंत्र निछ्फल हो जाता है !
४ नाग दोन के बूटी होती है उस की जड़ घर रखने से कभी धन की कमी नहीं अति उसे विधि पूर्वक हासिल कर पूजन कर हरे रंग के कपडे में लपेट कर धन रखने की जगह रखना चाहिए !
५ केले की जड़ गुरु पुष्य नक्षत्र के दिन धारण करने से रुका हुआ साधना कर्म चल पड़ता है !उसे विधि पूर्वक गुरु पुष्य नक्षत्र से एक दिन पहले नियुता देना चाहिए फिर गुरु पुष्य नक्षत्र को ले कर पूजन करे और पीले वस्त्र में लपेट कर धारण कर ले !इस से साधक ही नहीं एक साधारण आदमी के रुके हुए काम भी गतिमान हो जाते है !
Durlabhopanishad (दुर्लभोपनिषद)
Durlabhopanishad (दुर्लभोपनिषद)
गुरुर्वै सदां पूर्ण मदैव तुल्यं
प्राणो बदार्यै वहितं सदैव।
चिन्त्यं विचिन्त्यं भव मेक रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं
गुरुर्वै प्रपन्ना महितं वदैवं
अत्योर्वतां वै प्रहितं सदैव।
देवोत्वमेव भवतं सहि चिन्त्य रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
सतं वै सदानं देहालयोवैप्रातोर्भवेवै
सहितं न दिर्घयै।
पूर्णतंपरांपूर्ण मदैव रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
अदोयं वदेवं चिन्त्यं (सहेतं)
पुर्वोत्त रुपं चरणं सदैयं।
आत्मो सतां पूर्ण मदैव चिन्त्यं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
चैतन्य रुपं अपरं सदैव
प्राणोदवेवं चरणं सदैव।
सतिर्थो सदैवं भवतं वदैव
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
चैतन्य रुपं भवतं सदैव,
ज्ञानोच्छवासं सहितं तदैव।
देवोत्त्थां पूर्ण मदैव शक्तीं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
न तातो वतान्यै न मातं न भ्रातं
न देहो वदान्यै पत्निर्वतेवं।
न जानामी वित्तीं न व्रितं न रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
त्वदियं त्वदेयं भवत्वं भवेयं,
चिन्त्यंविचिन्त्यं सहितं सदैव।
आतोनवातं भवमेक नित्यं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
अवतं मदेवं भवतं सदैवं,
ज्ञानं सदेवं चिन्त्यं सदैवं।
पूर्णं सदैवं अवतं सदैवं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
Listen the Audio clip of Durlabhopanishad (दुर्लभोपनिषद) in the voice of our revered Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimali.
Those Sadhak or Shishyas who read or listen this divine Durlabhopanishad continuously for 108 days he/she will surely achieve half and over several types of Siddhis and success in Sadhanas and in the field of Spiritualism. So, It's your turn to read and Listen the Audio clip of Durlabhopanishad (दुर्लभोपनिषद) in the voice of our revered Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimali. That is at the bottom of this page........ Jaya Gurudev! https://sites.google.com/site/nikhilbhaktas/gm/welcome-gurumantra.mp3
गुरुर्वै सदां पूर्ण मदैव तुल्यं
प्राणो बदार्यै वहितं सदैव।
चिन्त्यं विचिन्त्यं भव मेक रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं
गुरुर्वै प्रपन्ना महितं वदैवं
अत्योर्वतां वै प्रहितं सदैव।
देवोत्वमेव भवतं सहि चिन्त्य रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
सतं वै सदानं देहालयोवैप्रातोर्भवेवै
सहितं न दिर्घयै।
पूर्णतंपरांपूर्ण मदैव रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
अदोयं वदेवं चिन्त्यं (सहेतं)
पुर्वोत्त रुपं चरणं सदैयं।
आत्मो सतां पूर्ण मदैव चिन्त्यं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
चैतन्य रुपं अपरं सदैव
प्राणोदवेवं चरणं सदैव।
सतिर्थो सदैवं भवतं वदैव
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
चैतन्य रुपं भवतं सदैव,
ज्ञानोच्छवासं सहितं तदैव।
देवोत्त्थां पूर्ण मदैव शक्तीं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
न तातो वतान्यै न मातं न भ्रातं
न देहो वदान्यै पत्निर्वतेवं।
न जानामी वित्तीं न व्रितं न रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
त्वदियं त्वदेयं भवत्वं भवेयं,
चिन्त्यंविचिन्त्यं सहितं सदैव।
आतोनवातं भवमेक नित्यं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
अवतं मदेवं भवतं सदैवं,
ज्ञानं सदेवं चिन्त्यं सदैवं।
पूर्णं सदैवं अवतं सदैवं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
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(दुर्लभोपनिषद),
Durlabhopanishad
Wednesday, November 2, 2011
That was sad not to be avoided it -जो दुःख आया नहीं है उसे टाला जाना चाहिए
जीवन के दुःख
That was sad not to be avoided it
जो दुःख आया नहीं है उसे टाला जाना चाहिए | कोशिश करनी चाहिए उसे टालने की| जो दुःख वर्त्तमान में मिल रहा है उसे तो सहकर ही समाप्त किया जा सकता है| कर्म सिद्धांत के अनुसार भी जो कर्म परिपक्व हों दुःख देते हैं| उनसे किसी भी प्रकार से बच पाना संभव नहीं होता| उनसे छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ता उन्हें भोग कर ही समाप्त करना होता है| परन्तु जो अभी आया नहीं है हम उसके आगमन को अवश्य रोक सकते हैं| जब तक शरीर विद्यमान है, दुःख तो लगे ही रहेंगे, परन्तु भविष्य को बदलना हमारे हाथ में होता है|
उदाहरण के लिये आपने खेत में जो कुछ बोया है उसकी फसल तो काटना आनिवार्य है क्योंकि अब उसे बदल पाना आपके हाथ में नहीं होता| परन्तु जहां तक भविष्य की फसलों का सवाल है, आप पूरी तरह स्वतंत्र है कि किन परिस्थितियों में कैसी फसल हों| बन्दूक से एक बार छूटी गोली पुनः उसमें वापिस नहीं लाइ जा सकती| परन्तु अभी उसमें जो गोली बची है उसे न दागना आपके हाथ में होता है| इसके लिये अपने वर्त्तमान कर्मों को सही ढंग से इच्छित फल के अनुरूप करना आवश्यक होता है|
मनुष्य जीवन में कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो अपना फल देना प्रारम्भ करने के निकट होते हैं| उनके फल को प्रारब्ध कहते हैं जिसे सुख अथवा दुःख के रूप में प्रत्येक को भोगना आनिवार्य होता है| तपस्या, विवेक और साधना द्वारा उनका सामना करना चाहिए| परन्तु ऐसे कर्म जो भविष्य में फल देंगे, आप उनसे बच सकते हैं| इसके लिये आपको वर्त्तमान में, जो आपके हाथ में है, सुकर्म करना होगा| कर्म के सिद्धांत के अनुसार कर्मों का एक समूह ऐसा है जिससे आप लाख उपाय करने पर भी बच नहीं सकते| परन्तु दुसरा समूह ऐसा है जिसे आप इच्छानुसार बदल अथवा स्थगित कर सकते हैं| इस प्रकार यह सूत्र घोषणापूर्वक बताता है कि आने वाले दुःख (कर्मफल) को रोकना व्यक्ति के अपने हाथ में होता हैं|
जो दुःख आया नहीं है उसे टाला जाना चाहिए | कोशिश करनी चाहिए उसे टालने की| जो दुःख वर्त्तमान में मिल रहा है उसे तो सहकर ही समाप्त किया जा सकता है| कर्म सिद्धांत के अनुसार भी जो कर्म परिपक्व हों दुःख देते हैं| उनसे किसी भी प्रकार से बच पाना संभव नहीं होता| उनसे छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ता उन्हें भोग कर ही समाप्त करना होता है| परन्तु जो अभी आया नहीं है हम उसके आगमन को अवश्य रोक सकते हैं| जब तक शरीर विद्यमान है, दुःख तो लगे ही रहेंगे, परन्तु भविष्य को बदलना हमारे हाथ में होता है|
उदाहरण के लिये आपने खेत में जो कुछ बोया है उसकी फसल तो काटना आनिवार्य है क्योंकि अब उसे बदल पाना आपके हाथ में नहीं होता| परन्तु जहां तक भविष्य की फसलों का सवाल है, आप पूरी तरह स्वतंत्र है कि किन परिस्थितियों में कैसी फसल हों| बन्दूक से एक बार छूटी गोली पुनः उसमें वापिस नहीं लाइ जा सकती| परन्तु अभी उसमें जो गोली बची है उसे न दागना आपके हाथ में होता है| इसके लिये अपने वर्त्तमान कर्मों को सही ढंग से इच्छित फल के अनुरूप करना आवश्यक होता है|
मनुष्य जीवन में कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो अपना फल देना प्रारम्भ करने के निकट होते हैं| उनके फल को प्रारब्ध कहते हैं जिसे सुख अथवा दुःख के रूप में प्रत्येक को भोगना आनिवार्य होता है| तपस्या, विवेक और साधना द्वारा उनका सामना करना चाहिए| परन्तु ऐसे कर्म जो भविष्य में फल देंगे, आप उनसे बच सकते हैं| इसके लिये आपको वर्त्तमान में, जो आपके हाथ में है, सुकर्म करना होगा| कर्म के सिद्धांत के अनुसार कर्मों का एक समूह ऐसा है जिससे आप लाख उपाय करने पर भी बच नहीं सकते| परन्तु दुसरा समूह ऐसा है जिसे आप इच्छानुसार बदल अथवा स्थगित कर सकते हैं| इस प्रकार यह सूत्र घोषणापूर्वक बताता है कि आने वाले दुःख (कर्मफल) को रोकना व्यक्ति के अपने हाथ में होता हैं|
-सदगुरुदेव कैलाश चन्द्र श्रीमाली
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