Saturday, November 19, 2011

Master philosophy meditation गुरु दर्शन साधना

गुरु दर्शन साधना ---
गुरु शब्द ही का उचार्ण ही हिरदे में प्रेम भर जाता है और उसी क्षण अपने प्रिये गुरुदेव का चेहरा आँखों में या जाता है और अपने आप आंसु धरा प्रवाहित होने लग जाती है !क्यों के एक गुरु ही है जो शिष्य के अपने होते है बाकि सभी रिश्ते तो जही के जही रह जाते है !जहाँ गुरु है वहाँ सभी है !इस संसार रुपी भव से एक गुरु जी ही होते है जो पार लगा देते है !सिर्फ गुरु शब्द का उचार्ण भी अगर प्रेम भव से किया जाये तो भी सिधियो के दुयार खोल देता है !इस लिए गुरु दर्शन हर शिष्य के दिल की कामना ही नहीं लक्ष्य भी होता है ! दिल में प्रेम भरिये और अपना ले अपने सद्गुरु जी को आगे बढ़ कर उतर ले उनका प्रेम अपने हिरदे में और बसा ले उनकी सुरत अपनी आँखों में और उनकी यादे अपने ख्यालो में जही तो है उनके साक्षात् दर्शन करने की विधि !मैं जहा एक साधना दे रहा हू जो सद्गुरु के दर्शन और अशिर्बाद दिलाने में सहयक होती है !आप दिल से करे और विशुद प्रेम से उनको रिझा ले !
विधि --इसे किसी भी गुरुवार शुरू करना है !५ दिन की साधना है !
२ वस्त्र-- धोती पितान्म्बर पहन कर पीले आसन पे पूर्व विमुख बैठे और दैनिक साधना विधि से एक वेजोट पे पीला वस्त्र विशा के गुरु पूजन करे !
३ शुद्ध घी का दीप लगा दे और सुंगधित अगर वती भी लगा दे !
४ प्रसाद के लिए हलवा बना कर रख ले इन पाँच दिनों में हर दिन अलग अलग भोग लगाये !पहले दिन लडू जो शुद्ध घी के ले दुसरे दिन खीर तीसरे दिन पाँच पीस बर्फी के और ४थे दिन पांचो किस्म के मेवे और पंचमे दिन हलवा ले !पूजन पांचो दिन पूर्ण प्रेम भाव से करे !फिर पाँच माला गुरु मंत्र फिर एक माला निम्न साबर मंत्र का जाप और फिर पाँच माला गुरु मंत्र जाप करे !इस परकार पांचो दिन कर्म करने से गुरु जी का साक्षात् दर्शन ,स्वपन दर्शन होता है जा स्वपन में उनसे बात हो जाती है !
साबर मंत्र --- ॐ तारन गुरु बिन नहीं कोई श्रीति स्मृति मध् बात परोई !
थान अद्वैत तभी जाये पसरे मन बच कर्म गुरु पग दर्शे !
दरिदर रोग मिटे सभ तन का गुरु करुना कर होवे मुक्ता!
धन्य गुरु मुक्ति के दाते ॐ !!
जय गुरुदेव !

sadhna 5 Mudhra Vigyan

IMPORTENCE OF MUDRAS
पंचमकार में से एक "मुद्रा" के बारे में जितनी भ्रान्ति हैं बहुत कम लोग ही समझ ही पाते हैं कि क्या हैं ये?, क्यों इनका महत्त्व हैं ?, ओर क्या


क्या किया जासकता हैं ?इनके बारे में, जिन्होंने भी सदगुरुदेव द्वार रचित “मन्त्र रहस्य ”पढ़ी होगी जो की हमसभी के लिए अंत्यंत पवित्र ग्रन्थ हैं उसका तो बार बार पढना /अध्ययन होना ही चाहिए हर बारआप एक नए रहस्य से परिचित होंगे .अनेको वर्ष पूर्व जब यह ग्रन्थ मेरे पास आया तो सभी की तरह मैंने भी जितना समझ सकता था अपनी क्षमतानुसार अनुसार पढ़ा , पर जो प्रस्तावना किताब के प्रारंभ में दिया हैं सदगुरुदेव जी और स्वामी प्रवाज्यनंद जी के बारे में वह तो आख खोल ही देता हैं की कैसे शिष्य होते हैं शिष्यता के क्या माप दंड हैं ?और अनेक बाते ..


पर उसमें एक बात बहुत ही आश्चर्य जनक तथ्य हैं की पूज्य सदगुरुदेव जी ने अपनी सारी बात केबल ओर केबल मुद्राओं के माध्यम से की.
कैसे संभव हो सकता हैं ?
कहा तो यह भी गया हैं की इनके माध्यम से मृत व्यक्ति को भी प्राण दान दिया जा सकता हैं .
साधनाओ को आप बिना मुद्रा के भी संपन्न कर सकते हैं पर फिर कब आपको सफलता मिलेगी यह तो .....


पर यदि आप उस साधना की मुद्रा जानते हैं तो लगभग आप सफलता के दरवाजे तक आ ही गए हैं ...
आखिर ये हैं क्या?,


अपने हाँथ की अंगुली को अलग अलग ढंग से मिलाना और बिभिन्न ढंग से दिखाना या प्रदर्शित करना ही मुद्रा कहलाता हैं यह पर एक तथ्य ओर भी समझने वाला हैं की योग में की जाने वाली मुद्राये कुछ अलग हैं यहाँ पर हुम हाथों से प्रदर्शित करने वाली मुद्राओं के बारे में विचार कर रहे हैं .
ये तो जान लिया की कैसे यह बनती हैं पर इनका इतना महत्त्व क्यों हैं? इसके लिए हमें मानव जीवन की विशेताओं को जानना पड़ेगा, कब से वैज्ञानिक इस देह की विशेषताओं के लिए खोज कर रहे हैं , यूं तो यह देह कहा जाता हैं की पाप की गढ़री हैं , पर तंत्र इस बात को स्वीकार नहीं करता हैं वह यह कहता हैं की यदि इश्वर खुद सम्पूर्णता लिए हैं तो उसी से बनी /बनायीं गयी इस कृति में भी पूर्णता होगी ही, बस देखने ओर महसूस करने की क्षमता होने चाहिए .
इस देह को काट पीट कर नहीं बल्कि" यत पिंडे तत ब्रह्माण्ड" के अर्थानुसार इसमें सब कुछ हैं पर कैसे उस रहस्य को समझे हम, इसके लिए तो तंत्र को समझना हिपड़ेगा, आत्मसात भी करना पड़ेगा .हाँथ की हर अंगुली अपने आप एक तत्व पंच महाभूत को प्रदर्शित करती हैं , जब दो या तीन अँगुलियों का योग होता हैं कभी उनके अतिम सिरे से तो कभी उनके उद्गम स्थान से तब एक अद्भुत विद्युत् प्रभाव बनता हैं जो साधक को उसका अभिस्ट प्रदान करने सहायक रहता हैं .
पर अँगुलियों में विद्युत् प्रभाव कैसे हैं संभव ?
आप अपनी तर्जनी अंगुली को किसी भी व्यक्ति जिसने दोनों आँखे बंद कर ली हो, उसके दोनों भौहों के मध्य रखे थोडा दूर बिना स्पर्श कराये मुश्किल से कुछ सेकंड के अन्दर उस व्यक्ति को दर्द होने लगेगा उस स्थान पर . इसलिए क्योंकि किसी भी अन्य अंगुली की अपेक्षा तर्जनी में ज्यादा विद्युत् प्रभाव रहता हैं, इसी कारण इस अंगुली से मंजन करना मना किया जाता हैं
हम में से अनेक देवी या शक्ति पूजा करते हैं क्या आप जानते हैं की यदि जप समर्पण "योनी मुद्रा" के साथ किया जाये तो माँ जल्दी प्रसन्न होती हैं ओर इसे तो सीखना ही चाहिए , यह मुद्रा अनेक प्रकार से बनायीं जाती हैं यह योनी मुद्रा आपको इन्टरनेट पर सर्च करने पर मिल जाएगी. पर इसके तीन चार प्रकार मिलेंगे आपको सभी एक समान हैं जिसे जो अच्छा लगे वह उसे बनाए की कोशिश करे .
सदगुरुदेव जी ने “तंत्रसाधना शिविर” में इतनी अधिक मुद्राओं के बारे में समझया की साधक तो नोट नहीं कर पा रहे थे, उन्होंने अनेको देव देवताओ , देवियों ओर अनेक क्रम की साधनों में उपयोगित होने वाले मुद्राओं के बारे में बिस्तार से बतया, पर शिविर के अंतिम दिन उन्होंने साधको के प्रति अत्यधिक स्नेह के वशीभूत हो कर कहा की जो किसी साधना विशेष की मुद्रा नहीं समझ पा रहा हो,वैसे तो यदि साधना विशेष की मुद्राये मालूम हो तो वह जरुर करे अन्यथा ओर यदि साधक इन पांच मुद्राओं के कर लेता हैं किसी भी साधना के पूर्व तो भी सफलता प्राप्त होती हैं. ये पांच मुद्राये हैं ,




दंड , शंख ,मत्स्य,अभय और ह्रदय मुद्रा
आप इन मुद्राओं के बारे में पूज्य सदगुरुदेव जी द्वारा रचित "तंत्र के गोपनीय रहस्य " नाम की cd जरुर सुने ..सदगुरुदेव भगवान् ने काफी विस्तार से इन रहस्यों के हमारे सामने रखा हैं उसमें दिए सूत्रों का पालन करे ओर सफलता प्राप्त करे
ये तो उपरोक्त दी गयी मुद्राये साधना से पहले मात्र २/२ मिनिट ही करनी हैं , हमेशा ऐसा हो यह कोई आवश्यक चीज नहीं हैं कभी कभी साधना के दौरान भी दोनों हाँथ से या एक हाँथ से भी मुद्रा लगातार प्रदर्शित करना पड़ती हैं.
उपरोक्त पांच मुद्राओं को हर दिन करे तो बहुत अच्छा हैं पर यदि २१ दिन की साधना हो तो पहले ,११ वे २१ वे दिन तो जरुर करे.
आपने ब्लॉग में काफी उच्चस्तरीय मुद्राओं के बारे में पढ़ा हैं ओर आगे जैसे भी संभव होता हैं अनेक ऐसी देव दुर्लभ मुद्राओं के बारे में जानकारी आपको दी जाएगी.
आप किसी भी वरिष्ट गुरु भाई /बहिन से इन्हें सीख ले, हम सब यहाँ कोशिश में हैं की आपके लिए विडियो /फोटो ग्राफ के साथ इन्हें वेबसाइट पर प्रदर्शित किया जाये ...
फिर कभी अन्य मुद्राओं के बारेमें अनेक ज्ञात अज्ञात तथ्य जानेगे जैसे की हाँथ में तीर्थ की स्थिति कहाँकहाँ ?
ओर कौन से होती हैं,?
क्या इनके माध्यम से कोई भी रोग दूर किया जा सकता हैं?,
क्या केबल मुद्रा के माध्यम से व्यक्ति की अद्रश्य जगत की चीजें भी देख सकता हैं ?
..ऐसे अनेको प्रशन के उत्तर आने वाली इस विषय से सम्बंधित बाते किसी भविष्य की पोस्ट पर


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mudra
Mudra in “panch makar”a highly confusing word, most of the people not able to understand what is the real meaning of that ?, why these are so much importance ?
What can be done through that ? those who read “Mantra Rahasy “ written by Sadgurudev ji ( this is the book must read by every shishy or who wanted to know about mantra and tantra) every time you will get new insight , and some more mystery will open to you .many years ago when I found this book , try to understand as much I could at that time. Most important thing is the preface that around Sadgurudev and swami pravajyanand ji, unfolded a new dimension of shishy dharma. How a shishy could work and may responsibility and other things.
One of the more interesting thing is that Sadgurudev talked to swami ji with mudra only.
How that could be possible?
It has been said that though mudra life will be given to dead people. You can do sadhana without mudra , but when you will get success in that this….
If you know the mudra of that specific sadhana than you are just nearer to the door of success.
So What is this mudra /it stands for.?
Through various way the finger of both hand joining and showing is known as mudra , here one difference is that the mudra in yog is quite different in mudra in tantra.
Now You knew what is mudra , but why these are so much important?, to know the answer of this question one must understand the divinity of this body, means mysteriousness of this body. scientist are working day and night to reveal the mystery but still a long road to go. In general sense it has been said that this body is noting but a bundle of sins. But tantra never accept that it says if god is complete than this body is his creation that also be complete, only thing to research the way to feel and understands the divinity.
Through dissection one can not understand the meaning or divinity of this body, according to “yat pinde tat bramhaand” everything is init how we can understand this, for that we must understand the tantra, and understand the deep hidden meaning of that. Each finger of the hand represent one of the basic maha tatav i.e. panch mahabhut. When two or more finger join through a specific way a electricity energy formed, that provide the sadhak to his aim/achievement.
How we understand that there is electricity lies in finger.?
If you place your index finger very close to the point between the eyebrow who have already closed his both eye, within a few second the person start pain in his head specially the point between the eye brow. since compare to other finger index finger has more electricity power. That is the reason why doing teeth wash/ manjan is not done by this finger, who do this ,always have problem in his teeth.
Many of us doing sadhana /pooja of various devi or shakti do you know that if after the jap you should offer /samarpan of your jap through “ yoni mudra” ,divine mother bless you early. And became happy. One must know how to do that . various ways of making yoni mudra , search in internet you will find two three ways , each are equal, which ever you like practice that.
In “Tantra Sadhana Shivir” Sadgurudev has taught and describe so many mudra that for sadhak ,it was very difficult to memorize and use them, Sadgurudev describe in details various mudra used in different, different devi devta , with full description and practical. But on the last days of shivir understanding each sadhak ‘s problem though his divine love he said that if any one follow only theses five mudra in any sadhana starting time for just 2/3 minute he need not require to do other mudra, but if sadhak knew about specific mudra for that sadhana it would d be much better.
Theses are
Dand , shankh,hrdya, abhay , matsy
You can listen in audio c d “ tantra ke gopniy rahsy” In that Sadgurudev describe in details about theses mudra’s , follow the various rules and get the success in sadhana.
You have to show theses five mudra just for 2/2 minute , but it is not always necessary things, sometimes in sadhana time you have to show continuous mudra through other hand.
If you show theses five mudra every day , its would be good , if not possible than showing on them on 1st . 11th and 21 th days also serves the purpose.
You have already read about so many higher level mudra in blog, as soon as possible , we are continuous updating about you on this topic.
Those five mudra you can learn from any senior guru brother, here we are doing our best to make photographs or video of that and upload on our website.
In any coming post we will discuss
what are the position of various teerth?,
where are they reside?
Is there any way by which we can remove illness from that ?
is it possible that only showing the mudra one can see the astral world?
Like so many question ‘s answer we will explore in any coming post.

….. in continuous..
Abhay Mudra as on Google!
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यह दंड मुद्रा है, बायें (left) हाथ को अपने वक्ष स्थल पर रखकर उसपर दाहिने हाथ को रखना चाहिए।

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Hriday Mudra as on Google!

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Hriday Mudra as on Google!
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Matsya Mudra as found on Google!
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Shankh Mudra as on Google!
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Yoni Mudra for Jap Samarpan as on Google!


मुद्रा विज्ञानं के अंतर्गत कई एसी मुद्राओ का अभ्यास होता हे जिससे साधक साधनाओ की उत्च्च्तम स्थिति को प्राप्त कर लेता हे. तंत्र में मुद्रा को एक अत्यधिक आवश्यक अंग माना गया हे, और मुद्राओ का अभ्यास करने वाला साधक तंत्र में तीव्र गति से सफलता प्राप्त कर सकता है. सभी प्रकार की साधनाओ में मुद्रा का एक महत्वपूर्ण स्थान हे और इसी के अंतर्गत मुद्राओ के कई प्रकार हे. शक्तिओ को आकर्षित कर के केन्द्रीभूत करना मुद्राओ मुख्य कार्य है तथा मुद्राओ का आधार पंचतत्वों का नियमन हे. उंगलियां पंचतत्वो की प्रतिनिधि हे व् इनको निर्देशित दिशा में गतिविध करने पर शारीरिक तत्वों में परिवर्तन होने लगता हे जिसका सीधा सम्बन्ध परा जगत से होता है.

मुद्राओ का महत्व सिर्फ मात्र एक तथ्य पर भी जाना जा सकता हे की इन्हें वामाचार के मुख्य पंचमकार में भी यह एक अंग है. यु मुद्राए न सिर्फ आध्यात्मिक वरन भौतिक सफलताओ के लिए भी बराबर महत्व पूर्ण है. नाथ योगियो के मध्य गुप्त रूप से ही सही लेकिन कुछ एसी महत्वपूर्ण मुद्राओ का अभ्यास गुरु मुखी परंपरा से कराया जाता हे की साधक अत्यंत ही सहज प्रयास में वह सब कुछ हासिल कर लेता हे जो उसका अभीष्ट होता है, एसी मुद्राओ का उलेख्ख किसी ग्रन्थ में नहीं किया गया था ताकि इसका दुरुपयोग न हो सके और योग्यता वां व्यक्तियो को ही मात्र इसका ज्ञान हो सके. नाथ तंत्र दीक्षा के बाद इस प्रकार की मुद्राओ का अभ्यास अत्यंत गुप्त रूप से चुने हुए शिष्यों को कराया जाता है. कई नाथ संप्रदाय के महायोगी सिर्फ मुद्राओ के माध्यम से ही अष्टसिद्धियो को प्राप्त कर चुके हे. पूज्य श्री निखिलेश्वरानंद जी ने अत्यधिक कृपा कर के मुझे कई एसी दुर्लभ मुद्राओ का ज्ञान दिया था. उन मुद्राओ का प्रभाव देख कर चमत्कृत व् दंग रह गया था में. आज उन्ही मुद्राओ में से कुछ मुद्राओ का उल्लेख में आगे कर रहा हू.

दिव्यात्मा आकर्षण मुद्रा:

अंगुष्ठ को मध्यमा अंगुली के निचे स्थापित करे. फिर मध्यम को अंगुष्ठ के ऊपर हथेली तक मोड दे. बाकि तीनों अंगुलिया सीधी रहे. दोनों हाथो में यही क्रिया हो, उसके बाद परस्पर दोनों हाथो को जोड़ दे. यह दिव्यात्मा आकर्षण मुद्रा बनती हे जिससे सिद्ध जगत की दिव्यात्माओ का आकर्षण होता हे. इस मुद्रा को यथा संभव ३० मिनिट तक ब्रम्ह मुहूर्त में और ३० मिनिट सोने से पहले अभ्यास करना चाहिए. इस मुद्रा के अभ्यास से साधक को दिव्यात्मा प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप में सहायता प्रदान करती है और साधना का मार्ग प्रसस्त करती है, अगर नियमित रूप से साधनात्मक नियमों के साथ इस मुद्राका साधक ११ दिन तक अभ्यास कर लेता हे तो उसे स्वप्न में दिव्यात्मा का दर्शन सुलभ होता है और साधक उनसे स्वप्नावस्था में साधना सबंधी प्रश्न पूछ सकता हे एवं उनका मार्गदर्शन ले सकता हे.

सिद्धनाथ दंड मुद्रा:


बाये हाथ की सभी अंगुलियों को मोड के हथेली तक लाया जाए. अंगुष्ठ सीधा तना हुआ रहे. अब दायें हाथ की अंगुलिओ से बाये हाथ के अंगुष्ठ को ऊपर से पकड़ा जाए, तथा दाये हाथ का अंगुष्ठ सीधा रहे. इस मुद्रा में दायाँ हाथ ऊपर और बाया हाथ निचे रहेगा. इसे सिद्धनाथ दंड मुद्रा कहते हे. इसका अभ्यास करते वक्त आंखे बांध रहे व् ध्यान नाभि पर रहे. इस मुद्रा का अभ्यास करने वाले साधक की ज्ञानशक्ति अत्यधिक बढ़ जाती हे और उसे सृष्टि के कई गोपनीय रहस्य अपने आप ही समज आने लगते हे, ज्ञान शक्ति बढ़ जाने पर उसे कई विविध प्रकार के चमत्कारिक अनुभव स्वयं ही होने लगते हे और साधना के गोपनीय रहश्य उसके सामने थिरकने लगते हे. स्थायी रूप से इस मुद्रा का अभ्यास करने पर कई सिद्धिया साधक को स्वतः ही प्राप्त हो जाती हे.

मंजरी मुद्रा:

दोनों हाथो तर्जनी अनामिका व् मध्यमा अंगुलीओको हथेली की तरफ मोड दे व् प्रथम अंगुली को एक दम सीधा रखे अंगुष्ठ को सीधा कर दे. अब दोनों हाथो के अंगुष्ठ को एक दूसरे से स्पर्श करने पर मंजरी मुद्रा बनती हे

इस मुद्रा की जीतनी प्रशंशा की जाए कम है, इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से व्यक्ति का मोह कम हो जाता है, उसमे साधना के प्रति एक आदर भाव उत्प्पन होता हे, साधना के लिए अनुकूल स्थिति उसे प्राप्त होती रहती है, यह मुद्रा आनंद कोष को जागृत करती हे फल स्वरुप साधक चाहे संसार के बाहरी क्रियाकलापों में हो या किसी भी कार्य में हो, अंदर से वो हर पल एक आनंद में डूबा रहता हे और अपने आप में ही खोया हुआ वह प्रकृति से एक कार हो जाता हे. वास्तव में यह मुद्रा अत्यधिक गुप्त हे क्यूंकि योगतंत्र की उच्चतम साधनाओ के लिए जिस प्रकार की भावभूमि साधक में होनी चाहिए यह मुद्रा उसी का ही स्थापन करती है.

There are special practices applied under Mudra science, which lead sadhak to achieve highest levels in Sadhanas. In the tantra, Mudra is believed as one of the very important part, and Sadhaka practicing Mudra can achieve success in tantra with rapid speed. In every kind of sadhana, mudra owns its important place and thus leads various types of the same. To attract powers and centralize them is main work of the Mudra and the base of the Mudra is to control 5 elements. Fingers are representation of 5 elements and to active those in proper direction can lead change in body elements which is directly connected with Trans world.

The importance of Mudra can even be understood with a single fact that it is also part of Panchamakara of Vaam marg. This way, mudras are useful for not only spiritual attainment but for material success even. Though secretly but in nath cult there are few important mudras which are applied for the sadhak to practice with Guru Disciple tradition only leading sadhak achieve his desires in very less efforts. Such mudras are not described in any scriptures so no one can misuse it and only appropriates may only get the knowledge of these mudras. After Nath tantra Diksha only selected disciples receive this knowledge secretly. There are Many Nathyogis who succeeded to receive AshtSiddhi through Mudras only. With extreme please of pujy Nikhileshwaranandji he blessed me with such rare knowledge of Mudras. After watching effect of these Mudras, I was amazed. Today, I am sharing few of them with you, below.

Divyatma Aakarshan Mudra:

Place your thumb under Madhyama finger. Then the thumb should be folded by Madhyamafinger touching the palm. The rest three fingers should be straight. Same goes for other hand, and then both hands should be joined together. This is Divyatma aakarshan mudra which leads an attraction of Divyatmas. This mudra should be applied to practice for 30 minutes in Bramh Muhurt and 30 minutes before sleeping. Practicing this mudra results into help from Divyatma in Direct/indirect way to sadhak and clears the way of sadhana. If sadhak practices this mudra for 11 days with all the regulations of sadhana that way he receives the blessing of Divyatma in dream and in that condition of dream sadhak may ask question in regard of sadhana and can seek their guidance.

Sidhhnath dand Mudra:

All Fingers of the Left hand should be folded to palm. Thumb should be straight. Now with the fingers of the right hand the thumb of the left hand should be hold and the thumb of the right hand should be straight and up. In this mudra right hand will be on upper side and left hand will be below the right hand. This is called as siddhnath dand Mudra. While practicing this mudra, eyes should remain close and concentration should be on navel. The practitioner of this mudra will get increment in knowledge power, and he becomes capable to understands many secret of this world by himself, with increasing knowledge power, he witness many mysterious experiences and many secrets of sadhana gets revealed in front of him. If this mudra is permanently placed in practice, it generates self to have so many siddhis.

Manjari Mudra:

The tarjani, anamika and madhyama fingers should be folded in both hands. The first finger should be straight and thumb should even be straight in its own direction. Now both the thumb should be applied for touch. This becomes Manjari Mudra. The words for appreciation are less for this mudra, with practice of this mudra, it lessens theenchantment of person, and the respect toward sadhana starts to flow. Sadhaka starts receiving favorable conditions for sadhana, this mudra activates Anand Kosha thus if sadhak is in whatever material work or task, even though from the inside he will have a joy and being lost within he becomes part of the divine nature. In fact this Mudra is very secret because the platform requires for sadhak to perform high level of yog tantra sadhana, this Mudra prepares the same attributes in sadhak.

Sidhi to consider actions -सिधी कर्म के लिए अवश्य विचार

सिधी कर्म के लिए अवश्य विचार --१ -
जब आप कोई भी साधना करते हो वोह आपको कोई ना कोई गुण प्रदान जरुर करती है इस के साथ ही आपको उस से कोई ना कोई शिक्षा जरुर मिलती है जो आप को भविष्य में काम आती है !साधना कभी भी विर्थी नहीं जाती उसका फल आपको कभी ना कभी जरूर मिलता है !कई वार साधना करते कोई अनुभव नहीं होता तो साधक निराश हो जाता है और सोचने लगता है के साधना सफल नहीं हुई लेकिन ऐसा नहीं है !जब भी आपको स्टार सहयोग देते है आपको की हुई साधना का फल अवश्य मिलता है !इस बात को हमेशा दिल में रख कर साधना जगत में प्रवेश करना चाहिए !कई वार एक से अधिक साधनाए शुरू कर लेते है साधक कभी भी परस्पर दो विरोधी साधनाए साधनाए एक साथ शुरू नहीं करनी चाहिए जैसे लक्ष्मी और भैरव एक साथ नहीं किये जाते ऐसे ही बहुत सी साधनाए है जो आपस में विरोधाभास रखती है जैसे तमो गुण की साधना के साथ सतो गुण की साधना नहीं करनी चाहिए रजो गुण प्रधान लक्ष्मी है और सतो गुण प्रधान सरस्वती है ज्ञान और धन दो गुण है इन साधनायो को अगर अलग अलग किया जाये तो अशा रहता है !काली तमो गुण प्रधान है इस लिए इस साधना को अलग किया जाता है !जैसे अग्नि मंत्र जिन में अंत में ॐ लगता है वोह अग्नि मंत्र होते है और सोम मंत्र एक साथ नहीं किये जाते अर्थान्त शांति कर्म के मंत्र !मंत्र का चयन अपनी स्वास सूरा के अनुसार किया जाता है जैसे दाये सुर हो तो सोम मंत्र और बाये हो तो अग्नि मंत्रो का जाप करना उचित होता है !जब दोनों सुर एक साथ चलते हो तो सभी मंत्र जागृत होते है !मंत्रो का चयन अपनी राशी अनुसार भी कर सकते है जिस की जानकारी अगले किसी लेख में दूंगा !
मन्त्र साधना से पूर्व अगर मंत्र के समाधित देवी की पूजा जा आराधना कर उसे संतुष्ट कर लिया जाये तो सिधी जल्द मिल जाती है शाश्त्रो अनुसार ६ देविये मंत्रो के ष्ट कर्म की अधिष्ठात्री मानी गई है !
१ शांति कर्म की देवी रति को माना गया है !
२ वशी कर्ण की देवी वाणी है !
३ सत्म्भन कर्म की देवी रमा है !
४ विद्वेष कर्म की देवी जेष्टा है !
५ उचाटन कर्म की देवी दुर्गा है !
६ मारन कर्म की देवी भद्र काली को माना गया है !
इसी परकार सभी मंत्रो के देवता १५ है !
1रूद्र ,२ मंगल ,३ गरुड ,४ गंधर्व ,५ यक्ष ६ तक्ष ७ भुजंग ८ किनर ९ पिचाश १० भूत ११ दैंत १२ इन्दर १३ सिद्ध १४ विधाधर १५ असर !
मंत्र ष्ट कर्म और दिशा
1 शांति कर्म ---- इशान कोन !
२ वशी कर्ण उतर दिशा !
३ स्तम्भन के लिए पूर्व दिशा !
४ विद्वेष के लिए नरैत कोन
५ उचाटन के लिए वविया कोन !
६ मारन कर्म के लिए दक्षिण दिशा !
उतर दिशा को सिधी कर्म के लिए ले सकते है !पछिम को धन प्राप्ति और सुलेमानी साधनाओ के ले सकते है !(कर्षम )

इस लेख में हम ऋतू विचार और देव ध्यान पे विचार करेगे !इस के साथ ही मन्त्र परकार पे भी थोरी चर्चा करेगे !
१ ऋतू ----दिशा के बाद ऋतू विचार कर लेना चाहिए शाश्त्रो में ६ ऋतू मानी गई है !बसंत ,गर्मी ,वर्षा ,सर्द ,हेमंत ,सीत ऋतू !
इसी परकार दिन में ६० घडी मानी गई है !
१ पहली दस घडी बसंत ऋतू की है !
२ दूसरी दस घडी ग्रीषम ऋतू है !
३ तीसरी दस घडी वर्षा ऋतू की है !
४ इसके बाद शरद ऋतू !
५ फिर हेमंत !
६ और सीत ऋतू को माना गया है !
ऋतू अनुसार मंत्र ष्ट कर्म ---
१ शांति कर्म के लिए हेमंत ऋतू श्रेष्ट है !
२ वशी कर्ण वास्ते बसंत ऋतू को श्रेष्ट माना गया है !
३ सत्म्भन कर्म शीर्ष ऋतू में किया जाता है !
४ विद्वैस कर्म ग्रीषम ऋतू में करना चाहिए !
५ उचाटन कर्म वर्षा ऋतू में श्रेष्ट फल देता है !
६ मारन कर्म सर्द ऋतू में करने से जल्द फल दे देता है !
मंत्रो का परकार ---
सभी मन्त्र तीन श्रेणी में आते है !
१ इस्त्री २ पुरष और ३ नपुसक
१ इस्त्री संगक मंत्रो के अंत में सवाहा लगा होता है !
२ पुरष संगक मंत्रो के अंत में फट लगा होता है !
३ नपुसक मंत्रो के अंत में नम ; होता है !
मंत्रो की सिधी में देव ध्यान ---
१ वशी कर्ण ,मोहन ,उचाटन इन तीन कर्मो में देवता को लोहे जैसे रंग में ध्यान करे !
२ शांति कर्म, सिधी कर्म ,पुष्टि कर्म ,विद्वैस कर्म में देवता को शुभ और सुन्दर वर्ण वाले सवरूप में ध्यान करे !
३ उचाटन अनुमाद मारन कर्म में देवता को धूमल रंग अर्थात धुएं जैसे रंग के स्वरुप में ध्यान करना उचित रहता है !
४ मारन कर्म में देवता को तयार वर तयार देखे और उचाटन कर्म में देवता को सोये हुए ध्यान करे बाकि सभी कर्मो में देवता को बैठे हुए ध्यान करे !



सदगुरुदेव जी ने यह भी कहा हैं कि साधक को तो एक मध्यम मार्ग पर चलना चाहिए उसे अपने शरीर का भी ध्यान रखना चाहिए अनावश्यक रूप से उसे तोड़ नहीं डालना चहिये , वही भी किसी तथाकथित नियमो की आड़ में क्योंकि इसी शरीर के माध्यम से ही तो अमृतत्व की यात्रा संभव होगी न तो आप अपने सबसे ज्यादा मित्र के जो आपका ही शरीर हैं उसके प्रति इतने बे रहम कैसे हो सकते

Thought of day

इंसान के जीवन मे कई बार अचानक से एसी परिस्थितियां आ जाती है की सारा जीवन अस्तव्यस्त सा हो जाता है. कई बार कुछ एक अत्याधिक भयास्पद घटनाओ का सामना हो जाता है की घर परिवार का पूरा वातावरण ही शोकमय हो जाता है. इस तरह एक व्यक्ति की आध्यात्मिक तथा भौतिक प्रगति न सिर्फ अटक जाती है वरन उसमे ग्रास भी आने लगता है. भविष्य के गर्भ मे छिपे वे अकस्मात तथा वृहद समस्या व्यक्ति को अंदर से तोड़ देती है और तब उदगार निकलता है की काश हमें पहले से ही पता होता. क्या ऐसा हो सकता है ? व्यक्ति के जीवन मे समस्या तो आती ही है लेकिन एक साधक के लिए कोई भी समस्या बाधक नहीं हो सकती है. हमारे देश की यह महान साधनात्मक प्रणाली मे जीवन को हमेशा उर्ध्वगामी बनाने के लिए हीरे मोती हमारे सदगुरुदेव ने बिखेरे है. इसी क्रम मे उन्होंने एक से एक हीरक खंड को हमारे सामने रखा ही है. चाहे वह भौतिक पक्ष से सबंधित हो या आध्यात्मिक पक्ष से. इस प्रकार के नितांत आवश्यक विषय पर भी उन्होंने साधनाए प्रदान की है जिससे की साधक ना मात्र उन समस्याओ के बारे मे पहले से ही जान लेता है बल्कि साथ ही साथ उन प्रतिकूल घटनाओ से अपने आपका रक्षण भी कर लेता है. ऐसा ही एक सरल विधान जो की आज तक गुप्त रहा है वह है काल भैरव साधना जिसके माध्यम से भगवान खुद साधक को किसी न किसी रूप मे सूचित कर देते है तथा साधक का उस समस्या से रक्षण भी कर देते है. जल्द ही ये प्रयोग आप सब के मध्य होगा. आशा करता हू की ये दुर्लभ साधना आपकी प्रगति मे आने वाली हर बाधा को निस्तेज कर आपको अपने पथ पर अग्रसर करने मे सहायता देगी

जय सदगुरुदेव

Friday, November 11, 2011

himalay se ooncha guru


Sri Guru stotram श्री गुरु स्तोत्रम्


श्री गुरु स्तोत्रम्


पार्वती उवाच

गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा ।
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे ॥


महादेव उवाच


जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम्।
उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥१॥
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम्।
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥२॥

वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम्।
साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥३॥

विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम्।
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥४॥

प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम्।
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥५॥

काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा।
श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥६॥

मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम्।
नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥७॥

श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम्।
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥८॥

गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा।
यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥९॥

गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्।
एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥१०॥

तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः।
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥११॥

एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम् |
ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥१२॥

|| वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम् ||

भावार्थ:


माता पार्वती ने कहा हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है - इस बारे विस्तार से बताये।

महादेव ने कहा जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥१॥

प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥२॥

वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥३॥

भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥४॥

प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥५॥

काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥६॥

भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥७॥

भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥८॥

गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥९॥

हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन - ये सब भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है,गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥१०॥

तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥११॥

इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है | निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥१२॥

उपरोक्त गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र मं त्रिपुरा-शिव संवाद में वर्णित हैं।

Saturday, November 5, 2011

mantra mulam Goru kirpa मन्त्र मुलं गुरु वाक्य

मन्त्र मुलं गुरु वाक्य --
भाई बेला सिंह का नाम सिख धर्म में बड़े सन्मान के साथ लिया जाता है !वोह बहुत ही भोले और सीदे थे !गुरु आश्रम में पशुयो की देख रेख करते थे चारा डालना गोबर उठाना अदि अदि और अपनी ही धुन में रहते थे आश्रम के लोग कई वार उनका मजाक भी उडा दिया करते थे लेकिन भाई बेला अपनी मस्ती में सेवा में मस्त रहते थे !जब गुरु गोबिंद सिंह जी अमृत शका रहे थे मतलव नाम दे रहे थे तो भाई बेला अपनी सेवा में मस्त अपना कार्य करते रहे रात को जब आराम करने कमरे में पुह्चे तो वहाँ कुश और लोग जो नाम लेकर आये थे उन्हों ने कहा भाई बेला आप तो रह गये आज गुरु जी ने सभ को नाम दिया !तो भाई बेला ने कहा नाम से क्या होता है तो उस सिख ने बताया इस से गुरु हमेशा के लिए हमारे हो जाते हैं भाई बेला की समझ में बात आ गई के नाम से मेरे गुरु जी मेरे हो जायेगे पर अब क्या उठे और गुरूजी की तरफ चल पड़े रात के १२ वज रहे थे और भाई बेला जी ने गुरु जी का दरवाजा जा खडकाया अन्दर से गुरु जी की आवाज आये कोन है !तो वोह बोले जी बेला हू !गुरु जी की आवाज आयी क्या काम है !भाई बेला जी ने कहा जी नाम लेना है! अन्दर से गुरु जी बोले बेला सिंह जे ना ओह बेला ना एह बेला एह कोन सा बेला (मतलव ना ओह टाइम है ना एह टाइम है जनि के रात्रि का समय था भई एह नाम लेने का कोन सा टाइम है )तो भाई बेला जी ने नमस्कार किया और वापिस आ गये और हर रोज पशुओ की सेवा करते जपने लगे ,ना एह बेला ना ओह बेला एह कोन सा बेला कई साल गुजर गये भाई बेला अपने नाम में मस्त हो के रमे रहे !एक वार पशुयो के लिए चारा लेकर आ रहे थे !रस्ते में एक आदमी की अर्थी लिए जा रहे थे और भाई बेला जी ने उनको कहा मुझे भी मुख दिखला दो उन लोगो ने सोचा गुरुका सेवक है !चलो दिखा देते हैं !तो अर्थी रख के मुख से कफन उठा दिया कहा भाई बेला लो देह लो भाई बेला ने मुख देखा और उसके मुख से निकला , ना एह बेला ना ओह बेला एह कोन सा बेला ,बस इतना निकलना था वोह मुर्दा आदमी उठके बैठ गया और सभी और बेले की चर्चा होने लगी के भाई बेले ने आदमी जिन्दा कर दिया जो लोग गुरु के सेवा दार थे गुरु जी कोल शक्यत लाने चले गये कहा जी बेले ने आदमी जिन्दा कर दिया क्यों के सिख धर्म में चमत्कार नहीं दिखाए जाते तो गुरु जी ने भाई बेले को बुलाया कहा बेला सिंह बई एह कहंदे ने तू आदमी जिन्दा कर दिया तो बेला जी हाथ जोड़ के कहने लगे गुरु जी एह मैंने नहीं किया एह तो आप के दिए नाम ने किया है मुज में इतनी शक्ति कहा के मैं जे कर सकू तो गुरु जी ने कहा भाई बेला मैंने तो तुमे नाम अभी दिया ही नहीं तो भाई बेला जी ने कहा गुरु जी आपने उस रात कहा था ना एह बेला ना ओह बेला एह कोनसा बेला तो मेरे लिए जही नाम हो गया मैंने इसे ही नाम मान कर जपना शुरू कर दिया इसी ने आज एह आदमी जिन्दा कर दिया तो गुरु जी बहुत पर्सन हुए और भाई बेला को अपने सीने से लगा लिया इसे तरह अगर हर शिष्य गुरु वाकया को नाम जितना दर्जा दे और उसे फिर कही भटकने की जरूरत नहीं वोह सभी कुतर्को से ऊपर उठ कर उस पार ब्रह्म से मिल जाता हैं ! जय गुरुदेव !

siddhashram eulogy सिद्धाश्रम स्तवन



सिद्धाश्रम स्तवन

सिद्धाश्रमोऽयं परिपूर्ण रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं दिव्यं वरेण्यम् |
न देवं न योगं न पूर्वं वरेण्यम्, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १ ||

न पूर्वं वदेन्यम् न पार्वं सदेन्यम्, दिव्यो वदेन्यम् सहितं वरेण्यम् |
आतुर्यमाणमचलं प्रवतं प्रदेयं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || २ ||

सूर्यो वदाम्यं वदतं मदेयं, शिव स्वरूपं विष्णुर्वदेन्यं |
ब्रह्मात्वमेव वदतं च विश्वकर्मा, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ३ ||

रजतत्वदेयं महितत्वदेयं वाणीत्वदेयं वरिवनत्वदेयं |
आत्मोवतां पूर्ण मदैव रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ४ ||

दिव्याश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं वदनं त्वमेवं आत्मं त्वमेवं |
वारन्यरूप पवतं पहितं सदैवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ५ ||

हंसो वदान्यै वदतं सहेवं, ज्ञानं च रूपं रूपं त्वदेवम् |
ऋषियामनां पूर्व मदैवं रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ६ ||

मुनियः वदाम्यै ज्ञानं वदाम्यै, प्रणवं वदाम्यै देवं वदाम्यै |
देवर्ष रूपमपरं महितं वदाम्यै, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ७ ||

वशिष्ठ विश्वामित्रं वदेन्यम् ॠषिर्माम देव मदैव रूपं |
ब्रह्मा च विष्णु वदनं सदैव, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ८ ||

भगवत् स्वरूपं मातृ स्वरूपं, सच्चिदानन्द रूपं महतं वदेवम् |
दर्शनं सदां पूर्ण प्रणवैव पुण्यं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ९ ||

महते वदेन्यम् ज्ञानं वदेन्यम्, न शीतोष्ण रूपं आत्मं वदेन्यम् |
न रूपं कथाचित कदेयचित कदीचित, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १० ||

जरा रोग रूपं महादेव नित्यं, वदन्त्यम् वदेन्यम् स्तुवन्तम् सदैव |
अचिन्त्य रूपं चरितं सदैवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ११ ||

यज्ञो न धूपं न धूमं वदेन्यम्, सदान्यं वदेयं नवेवं सदेयम् |
ॠषिश्च पूर्णं प्रवितं प्रदेवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १२ ||

दिव्यो वदेवं सहितं सदेवं, कारूण्य रूपं कहितं वदेवं |
आखेटकं पूर्व मदैव रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १३ ||

सिद्धाश्रमोऽयं मम प्राण रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं आत्म स्वरूपं |
सिद्धाश्रमोऽयं कारुण्य रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १४ ||

निखिलेश्वरोऽयं किंकर वतान्वे महावतारं परश्रुं वदेयम् |
श्रीकृष्ण रूपं मदिदं वदेन्यम्, कृपाचार्य कारुण्य रूपं सदेयम् || १५ ||

सिद्धाश्रमोऽयं देवत्वरूपं, सिद्धाश्रमोऽयं आत्म स्वरूपं |
सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १६ ||

सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं, सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं |
न शब्दं न वाक्यं न चिन्त्यं न रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १७ ||