Friday, March 14, 2014

red fort delhi is the real name of redcoat

लालकिला का का असली नाम लालकोट है----
जैसे ताजमहल का असली नाम तेजोमहालय है और क़ुतुब मीनार का असली नाम विष्णु स्तम्भ है वैसे ही यह बात भी सत्य है|
- अक्सर हमें यह पढाया जाता है कि दिल्ली का लालकिला शाहजहाँ ने बनवाया था| लेकिन यह एक सफ़ेद झूठ है
और इतिहासकारों का कहना है की वास्तव में लालकिला पृथ्वीराज ने बारहवीं शताब्दी में पूरा बनवाया था जिसका नाम “लाल कोट “था जिसे तोमर वंश के शासक ‘अनंग पाल’ ने १०६० में बनवाना शुरू किया था |महाराज अनंगपाल तोमर और कोई नहीं बल्कि महाभारत के अभिमन्यु के वंशज तथा महाराज पृथ्वीराज चौहान के नाना जी थे.
इसका प्रमाण >
तारीखे फिरोजशाही के पृष्ट संख्या 160 (ग्रन्थ ३) में लेखक लिखता है कि सन 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल ( लाल प्रासाद/ महल ) कि ओर बढ़ा और वहां उसने आराम किया.
>अकबरनामा और अग्निपुराण दोनों ही जगह इस बात के वर्णन हैं कि महाराज अनंगपाल ने ही एक भव्य और आलिशान दिल्ली का निर्माण करवाया था.
> शाहजहाँ से 250 वर्ष पहले ही 1398 ईस्वी में तैमूरलंग ने भी पुरानी दिल्ली का उल्लेख किया हुआ है (जो कि शाहजहाँ द्वारा बसाई बताई जाती है).
- लाल किले के एक खास महल मे वराह के मुँह वाले चार नल अभी भी लगे हुए हैं क्या शाहजहाँ सूअर के मुंह वाले नल को लगवाता ? हिन्दू ही वराह को अवतार मान कर पावन मानते है|
- किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है क्योंकि राजपूत राजा गजो (हाथियों) के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे जबकि इस्लाम जीवित प्राणी के मूर्ति का विरोध करता है|
- लालकिला के दीवाने खास मे केसर कुंड नाम से एक कुंड भी बना हुआ है जिसके फर्श पर हिंदुओं मे पूज्य कमल पुष्प अंकित है| साथ ही ध्यान देने योग्य बात यह है कि केसर कुंड एक हिंदू शब्दावली है जो कि हमारे राजाओ द्वारा केसर जल से भरे स्नान कुंड के लिए प्राचीन काल से ही प्रयुक्त होती रही है|
- गुंबद या मीनार का कोई अस्तित्व तक नही है लालकिला के दीवानेखास और दीवानेआम मे| दीवानेखास के ही निकट राज की न्याय तुला अंकित है \ ब्राह्मणों द्वारा उपदेशित राजपूत राजाओ की न्याय तुला चित्र से प्रेरणा लेकर न्याय करना हमारे इतिहास मे प्रसिद्द है|
- दीवाने ख़ास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 ईस्वी के अंबर के भीतरी महल (आमेर/पुराना जयपुर) से मिलती है जो कि राजपूताना शैली मे बना हुई है|
आज भी लाल किले से कुछ ही गज की दूरी पर बने हुए देवालय हैं जिनमे से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकर मंदिर है जो कि शाहजहाँ से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं के बनवाए हुए है|
- लाल किले के मुख्य द्वार के फोटो में बने हुए लाल गोले में देखिये , आपको अधिकतर ऐसी अलमारियां पुरानी शैली के हिन्दू घरो के मुख्य द्वार पर या मंदिरों में मिल जायंगी जिनपर गणेश जी विराजमान होते हैं |
- और फिर शाहजहाँ ने एक भी शिलालेख मे लाल किले का वर्णन तक नही किया है|

Friday, February 14, 2014

You are born, it is not untoward

तुम्हारा जन्म हुआ,यह कोई अनहोनी घटना नहीं है |
इसमे कोई विशेषता भी नहीं है | 
यह तो एक मामूली स्त्री-पुरूष के मिलन की क्रिया है और तुमने जन्म ले लिया इसमे कोई परिवर्तन नहीं आया, परिवर्तन तब आएगा जब तुम किसी सद्गुरू से टकराओ और गुरू तुम्हे उच्च्ता की और ले जाने वाले मार्ग पर अग्रसर कर दे | जैसे बादल हिमालय से टकराये और बरस कर पृ्थ्वी को हरा-भरा कर दे-सद्गुरूदेव परम हंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी महाराज ||

Gurorastakam गुरोरष्टकं

गुरोरष्टकं

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं, यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 1 ॥
कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं, गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 2 ॥
षड़ङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या, कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 3 ॥
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः, सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 4 ॥
क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः, सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 5 ॥
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्, जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 6 ॥
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ, न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 7 ॥
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये, न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 8 ॥

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही, यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही ।
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसञ्ज्ञं, गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ॥ 9 ॥

Lalitha Sahasranamam Full (Stotra & Meaning)


न्यासः


अस्य श्री ललिता सहस्रनामस्तोत्र महा मंत्रस्य

वसिन्यदिवग्देवतर्सायः

अनुस्तुप चंदः

श्रीललित परमेश्वरि देवत

श्रिमद्वाग्भावकुतेटि बीजं

मध्यकुतेटि सक्तिह

सक्तिकुतेटि कीलकं

श्री ललिता महा त्रिपुरसुंदरि प्रसदसिद्धिद्वार

सिन्तितफलवप्त्यर्ते जपे विनियोगः


ध्यानं


सिन्दुररुन विग्रहं त्रिनयनं माणिक्य मौलि स्पुरत

तार नयगा सेकरं स्मित मुखि मापिन वक्षोरुहं,

पनिभयं अलिपूर्ण रत्न चषकं रक्तोत्पलं विभ्रतीं,

सौम्यं रत्न गतस्त रक्त चरणं, ध्यायेत परमंबिकं.


अरुणं करुण तरंगितक्सिं दर्त पसंकुस पुष्प बनकापं

अनिमदिभिरव्र्तं मयुखैरहमित्येव विभावये भवानीं


द्यायेत पद्मसनस्तं विकसित वदनं पद्म पत्रयतक्षिं,

हेमभं पीतवस्त्रं करकलित-लसदेम पद्मं वरंगिं,

सर्वलन्गर युक्तं सततं अभायडं भक्त नम्रं भवानीं.

श्रिविद्यं संतमुतिं सकल सुरनुतं सर्व संपत प्रधत्रिं.


सकुन्कुमविलेपनमलिकसुम्बिकस्तुरिकं

समंदहसितेक्सनं ससरकापपसंकुसं

असेसजनमोहिनिं अरुनमल्यभुसंबरं

जपकुसुमभासुरं जपविधु स्मरेडंबिकं


स्तोत्रं


श्रीमत श्री महाराज्ञि श्री मत सिमसनेश्वरि

चिदग्नि कुंड संबूत देव कार्य समुद्यत

उद्यत भानु सहस्रभ चडुर बहु समन्विध

राघ स्वरूप पसद्य क्रोधकरंकुसोज्वाल

मनो रुपेषु कोदंड पंच तन मात्र सायक

निजरुन प्रभ पूरा मज्जत ब्रह्मांड मंडल


चंपकसोक – पुन्नाग-सौगंधिक-लसत कच

कुरु विनड मनि – श्रेणि-कणत कोटिर मंदित

अष्टमि चंद्र विभ्राज – धलिक स्थल शोभित

मुक चंद्र कलन्कभ म्रिगानभि विसेशक

वादन समर मांगल्य गरिह तोरण चिल्लक

वक्त्र लक्ष्मि –परिवाह-चलन मीनभ लोचन


नव चंपक –पुष्पभ-नासा दंड विराजित

तार कांति तिरस्करि नसभारण भासुर

कडंभ मंजरि क्लुप्त कर्ण पूरा मनोहर

तदंग युगलि भूत तपनोडुप मंडल

पद्म रागा सिल दर्श परिभाविक पोलभु

नव विद्रुम बिम्भ श्री न्याक्करि रत्न च्चद


शुद्ध विद्यन्गुराकर द्विज पंग्ति द्वायोज्जल

कर्पूर वीडि कमोध समकर्श दिगंदर

निज सल्लभ माधुर्य विनिर्भार्दिस्ता कच्चाभि

मंदस्मित प्रभ पूरा मज्जट कामेष मानस

अनकलिध सद्रुष्य चिबुक श्री विराजित

कामेष बद्ध मांगल्य सूत्रा शोबित कंधर


कन्कंगाध केयूर कमनीय बुजन्विध

रत्न ग्रैवेय चिंतक लोल मुक्त फलन्वित

कामेश्वर प्रेम रत्न मनि प्रति पान स्तानि

नभ्याल वल रामलि लता फल कुछ द्वयि

लक्ष्य रोम लता धारत समुन्नेय मध्यम

स्थान भर दलान मध्य पट्टा भंद वलित्रय


अरुनरुन कुसुंब वस्त्र भास्वाट कटि ताटि

रत्न किन्किनिक रम्य रसन धम भूषित

कामेष गनत सौभाग्य मर्द्वोरु द्वायन्वित

मनिख्य मुकुट कर जानू द्वय विराजित

इंद्र कोप परिक्षिप्त स्मरतुनभ जन्गिक

कूडा गुल्प्ह कूर्म प्रष्ट जयिश्नु प्रपदंविध


नाकदि दिति संचान्न नमज्जन तमोगुण

पद द्वय प्रभ जल परक्रुत सरोरुह

सिन्चन मनि मंजीर मंदित श्री पमंबुज

मरलि मंद गमन महा लावण्य सेवदि

सर्वरुन अनवध्यंगि श्र्वभारण भूषित

शिवकमेस्वरंगास्त शिव स्वाधीन वल्लभ


सुम्मेरु मध्य श्रिन्गास्त श्रीमान नगर नायिका

चिंतामणि ग्रिहन्तस्त पंच ब्रह्मसन स्थित

महा पद्म द्वि संस्थ कडंभ वन वासिनि

सुधा सागर मध्यस्थ कामाक्षि कमधयिनि

देवर्षि गण-संगत-स्तुयमनत्म-वैभव

भंडासुर वदोद्युक्त शक्ति सेन समवित


संपत्कारि समरूड सिंधूर व्रिज सेवित

अस्वरूददिशिदस्व कोडि कोडि बिरव्रुत

चक्र राज रथ रूड सर्वायुध परिष्क्रिध

गेय चक्र रथ रूड मंत्रिनि परि सेवित

गिरि चक्र रातरूड दंड नाथ पुरस्क्रुत

ज्वलिमालिक क्सिप्त वंहि प्रकार मध्यक


भंड सैन्य वदोद्युक्त शक्ति विक्रम हर्षित

नित्य परकमतोप निरीक्षण समुत्सुक

बंड पुत्र वदोद्युक्त बाल विक्रम नंदित

मंत्रिन्यंब विरचित विशंगावत दोषित

विशुक प्राण हरण वाराहि वीएर्य नंदित

कामेश्वर मुकलोक कल्पित श्री गनेश्वर


महागानेश निर्भिन्न विग्नयन्त्र प्रहर्शित

बंड सुरेंद्र निर्मुक्त साष्ट्र प्रत्यस्त्र वर्षानि

करंगुलि नखोत्पन्न नारायण दासकृति

महा पसुपतस्त्रग्नि निर्दाग्धसुर सैनिक

कामेश्वरस्त्र निर्दग्ध सबंदासुर सुन्यक

ब्र्ह्मोपेंद्र महेन्द्रदि देव संस्तुत वैभव


हर नेत्रग्नि संदग्ध कामा सन्जेवनौशधि

श्री वाग्भावे कूडैगा स्वरूप मुख पंकज

कंटत काडि पर्यंत मध्य कूडैगा स्वरूपिणि

शक्ती कूडैगा तपनन कद्यतो बागा दारिनि

मूल मंत्रत्मिख मूल कूडा त्रय कलेभर

कुलंरुतैक रसिक कुल संकेत पालिनि


कुलंगन कुलन्तस्त कुलिनि कुल योगिनि

आकुल समयन्तस्त समयचर तट पर

मोलधरैक निलय ब्रह्म ग्रंधि विभेदिनि

मनि पूरंतरुदित विष्णु ग्रंधि विबेधिनि

आज्ञ चकरंतरलस्त रुद्रा ग्रंधि विभेदिनि

सहररंभुजरूड सुधा सरभि वर्षिनि


तदिल्लत समरुच्य षड चक्रोपरि संशित

महा स्सक्त्य कुंडलिनि बिस तंतु तनियासि

भवानि भावन गम्य भावरनी कुदरिगा

भद्र प्रिय भद्र मूर्ति भक्त सौभाग्य दायिनि

भक्ति प्रिय भक्ति गम्य भक्ति वस्य भयपः

संभाव्य सरधरद्य सर्वाणि सर्मधयिनि


संकरि श्रीक्रि साध्वि शरत चंद्र निभानन

सतो धरि संतिमति निरादर निरंजन

निर्लेप निर्मल नित्य निराकर निराकुल

निर्गुण निष्कल संत निष्काम निरुप्पल्लव

नित्य मुक्त निर्विकार निष्प्रपंच निराश्रय


नित्य शुद्ध नित्य भुद्ध निरवद्य निरंतर

निष्कारण निष्कलंक निरुपाधि निरीश्वर

नीरगा राघ मदनि निर्मध माधनसिनि

निश्चिंत निरहंकर निर्मोह मोहनसिनि

निर्ममा ममत हंत्रि निष्पाप पापा नाशिनि

निष्क्रोध क्रोध–सामानि निर लोभ लोभ नसिनि


निस्संसय संसयग्नि निर्भव भाव नसिनि

निर्विकल्प निरभाध निर्भेद भेद नसिनि

निरनस म्रित्यु मदनि निष्क्रिय निष्परिग्रह

निस्तुल नील चिकुर निरपाय निरत्याय

दुर्लभ दुर्गम दुर्ग

दुक हंत्रि सुख प्रद

दुष्ट दूर दुराचार सामानि दोष वर्जित


सर्वंग्न सांद्र करुण समानाधिक वर्जित

सर्व शक्ति मयि सर्व मंगल सद्गति प्रद

सर्वेश्वरि सर्व मयि

सर्व मंत्र स्वरूपिणि


सर्व यन्त्रत्मिक सर्व तंत्र रूप मनोन्मनि

माहेश्वरि महा देवि महा लक्ष्मि मरिद प्रिय

महा रूप महा पूज्य महा पतक नसिनि

महा माय महा सत्व महा शक्ती महा रति


महा भोग महैश्वर्य महा वीर्य महा बाल

महा भुदि महा सिदि महा योगेस्वरेस्वरि

महातंत्र महामंत्र महायंत्र महासन


महा यागा क्रमराध्य महा भैरव पूजित

महेश्वर महाकल्प महा तांडव साक्षिनि

महा कामेष महिषि महा त्रिपुर सुंदरि


चतुस्तात्युपचारद्य चातु सष्टि कल मयि

महा चतुसष्टि कोडि योगिनि गण सेवित

मनु विद्य चंद्र विद्य चंद्र मंडल मध्यगा

चारु रूप चारु हस चारु चंद्र कालधर

चराचर जगन्नाथ चक्र राज निकेतन


पार्वति पद्म नायन पद्म रागा समप्रभ

पंच प्रेतसन शीन पंच ब्रह्म स्वरूपिणि

चिन्मयि परमानंद विज्ञान गण रूपिनि

ध्यान ध्यत्रु ध्येय रूप धर्मध्रम विवर्जित

विश्व रूप जगरिनि स्वपंति तैजसत्मिक


सुप्त प्रांज्ञात्मिक तुर्य सर्ववस्थ विवर्जित

स्रिष्ति कर्त्रि ब्रह्म रूप गोप्त्रि गोविंद रूपिनि

संहारिनि रुद्र रूप तिरोधन करि ईश्वरि

सदाशिवा अनुग्रहाड पंच कृत्य पारायण

भानु मंडल मध्यस्थ भैरवि बागा मालिनि

पद्मासन भगवति पद्मनाभ सहोदरि

उन्मेष निमिशोत्पन्न विपन्न भुवनावलि

सहस्र शीर्ष वादन सहराक्षि सहस्र पात


आब्रह्म कीड जननि वर्णाश्रम विधायिनि

निजंग्न रूप निगम पुन्यपुन्य फल प्राध

श्रुति सीमंत कुल सिंधूरि कृत पडब्ज्ह दूलिगा

सकलागम संदोह शुक्ति संपुट मुक्तिक

पुरशार्त प्राध पूर्ण भोगिनि भुवनेश्वरि

अंबिक अनादि निधान हरि ब्रह्मेंद्र सेवित


नारायनि नाद रूप नम रूप विवर्जित

हरिं करि हरिमति हृदय हेयोपदेय वर्जित

राज राजार्चित राखिनि रम्य राजीव लोचन

रंजनि रमणि रस्य रनाथ किंकिनि मेखल

रामा राकेंदु वादन रति रूप रति प्रिय


रक्षा करि राक्षसग्नि रामा रमण लंपट

काम्य कमकल रूप कडंभ कुसुम प्रिय

कल्याणि जगति कंद करुण रस सागर

कलावति कालालप कांत कादंबरि प्रिय

वरद वाम नायन वारुणि मध विह्वल

विस्वधिक वेद वेद्य विंध्याचल निवासिनि

विधात्रि वेद जननि विष्णु माय विलासिनि


क्षेत्र स्वरूप क्षेत्रेसि क्षेत्र क्षेत्रज्ञ पालिनि

क्षय वरिदि निर्मुक्त क्षेत्र पल समर्चित

विजय विमल वंद्य वंदारु जन वत्सल

वाग वादिनि वाम केसि वह्नि मंडल वासिनि

भक्ति माट कल्प लतिक पशु पस विमोचनि


संहृत शेष पाषंड सदाचार प्रवर्तिक

तपत्र्यग्नि संतप्त समह्लादह्न चंद्रिक

तरुणि तपस आराध्य तनु मध्य तमोपः

चिति तत्पद लक्ष्यर्त चिदेकर स्वरूपिणि

स्वत्मानंद लवि भूत ब्रह्मद्यनंत संतति


परा प्रत्यक चिदि रूप पश्यन्ति पर देवत

मध्यम वैखरि रूप भक्त मानस हंसिख

कामेश्वर प्राण नदि क्रुतज्ञ कामा पूजित

शृंगार रस संपूर्ण जया जलंधर स्थित

ओडयन पीडा निलय बिंदु मंडल वासिनि

रहो योग क्रमराध्य रहस तर्पण तर्पित


सद्य प्रसादिनि विश्व साक्षिनि साक्षि वर्जित

षडंगा देवत युक्त षड्गुण्य परिपूरित

नित्य क्लिन्न निरुपम निर्वनसुख दायिनि

नित्य षोडसिक रूप श्री कंडर्त सरीरिनि

प्रभावति प्रभ रूप प्रसिद्ध परमेश्वरि

मूल प्रकृति अव्यक्त व्यक्त अव्यक्त स्वरूपिणि

व्यापिनि विविधाकर विद्य अविद्य स्वरूपिणि

महा कामेष नायन कुमुदह्लाद कुमुदि

भक्त हर्द तमो बेध भानु माट भानु संतति


शिवदूति शिवराध्य शिव मूर्ति शिवंगारि

शिव प्रिय शिवपार शिष्टेष्ट शिष्ट पूजित

अप्रमेय स्वप्रकाश मनो वाच्म गोचर

चित्सक्ति चेतन रूप जड शक्ति जडत्मिख

गायत्रि व्याहृति संध्य द्विज ब्रिंदा निषेवित


तत्वसन तट त्वां आयी पंच कोसंदर स्थित

निस्सेम महिम नित्य यौअवन मध शालिनि

मध गूर्नित रक्ताक्षि मध पाताल खंडबू


चंदन द्रव दिग्धंगि चंपेय कुसुम प्रिय

कुसल कोमलकर कुरु कुल्ल कुलेश्वरि

कुल कुंदालय कुल मार्ग तट पर सेवित

कुमार गण नडंभ

तुष्टि पुष्टि मति धरिति

शांति स्वस्तिमति कांति नंदिनि विग्न नसिनि


तेजोवति त्रिनयन लोलाक्षि-कमरूपिनि

मालिनि हंसिनि मत मलयाचल वासिनि

सुमुखि नलिनि सुब्रु शोभन सुर नायिका

कल कंटि कांति मति क्षोभिनि सुक्ष्म रूपिनि


वज्रेश्वरि वामदेवि वयोवस्थ विवर्जित

सिदेस्वरि सिध विद्य सिध मत यसविनि

विशुदिचक्र निलय आरक्तवर्नि त्रिलोचन

खद्वान्गादि प्रकरण वादानिक सामविध

पायसान्न प्रिय त्वक्स्त पशु लोक भयंकरि

अम्रुतति महा शक्ती संवृत दकिनीस्वरि


अनहतब्ज निलय स्यमभ वादनद्वाय

दंष्ट्रोज्वाल अक्ष मालदि धर रुधिर संस्तिड

कल रात्र्यदि शक्ति योगा वृधा स्निग्ग्दोव्धन प्रिय


महा वीरेंद्र वरद राकिन्यंभ स्वरूपिणि

मनि पूरब्ज निलय वादन त्रय संयुध

वज्रदिकयुदोपेत दमर्यदिभि राव्रुत

रक्त वर्ण मांस निष्ठ गुदन्न प्रीत मानस


समस्त भक्त सुखद लकिन्यंभ स्वरूपिणि

स्वदिष्टनंबुजगत चतुर वक्त्र मनोहर

सुलयुध संपन्न पीत वर्ण अदि गर्वित


मेधो निष्ठ मधु प्रीत भंडिन्यदि समन्विध

धद्यन्न सक्त ह्रिदय काकिनि रूप दारिनि

मूलद्रंबुजरूड पंच वक्त्र स्थिति संस्थिता

अंकुसति प्रहरण वरडदि निषेवित

मुद्गौ दानसक्त चित्त सकिन्यंभ स्वरूपिणि


आज्ञ चक्रब्ज निलय शुक्ल वर्ण शादनन

मज्ज संस्थ हंसवति मुख्य शक्ति समन्वित

हर्द्रन्नैक रसिक हाकीनि रूप दारिनि

सहस्र दल पद्मस्त सर्व वर्नोपि शोबित

सर्वायुध धर शुक्ल संस्थिता सर्वतोमुखि

सर्वौ धन प्रीत चित्त यकिन्यंभ स्वरूपिणि


स्वाहा स्वद अमति मेधा श्रुति स्म्रिति अनुतम

पुण्य कीर्ति पुण्य लभ्य पुण्य श्रवण कीर्तन

पुलोमजर्चिध बंध मोचिनि बर्भारालक


विमर्शा रूपिनि विद्य वियधदि जगत प्रसु

सर्व व्याधि प्रसमनि सर्व मृत्यु निवारिणि

अग्रगान्य अचिंत्य रूप कलि कल्मष नसिनि

कात्यायिनि कल हंत्रि कमलाक्ष निषेवित

तांबूल पूरित मुखि धदिमि कुसुम प्रभ


म्र्गाक्षि मोहिनि मुख्य म्रिदनि मित्र रूपिनि

नित्य त्रुप्त भक्त निधि नियंत्रि निखिलेस्वरि

मैत्र्यदि वासना लभ्य महा प्रलय साक्षिनि

पर शक्ति पर निष्ठ प्रज्ञन गण रूपिनि


माधवि पान लासा मत मातृक वर्ण रूपिनि

महा कैलास निलय म्रिनल मृदु दोर्ल्लत

महनीय दय मूर्ति महा साम्राज्य शालिनि

आत्म विद्य महा विद्य श्रीविद्य कामा सेवित

श्री षोडसक्षरि विद्य त्रिकूट कामा कोतिक


कटाक्ष किम्करि भूत कमल कोटि सेवित

शिर स्थित चंद्र निभ भालस्त इंद्र धनु प्रभ

ह्रिदयस्त रवि प्राग्य त्रि कोनंतर दीपिक

दक्षयनि दित्य हंत्रि दक्ष यज्ञ विनसिनि

धरण्दोलित दीर्गाक्षि धरहसोज्वलन्मुखि

गुरु मूर्ति गुण निधि गोमात गुहजन्म भू


देवेशि दंड नीतिस्त धहरकास रूपिनि

प्रति पंमुख्य रकंत तिदि मंडल पूजित

कलत्मिक कल नाध काव्य लाभ विमोधिनि

सचामर राम वाणि सव्य दक्षिण सेवित आदिशक्ति

अमेय आत्म परम पवन कृति

अनेक कोटि ब्रमंड जननि दिव्य विग्रह

क्लिं क्री केवला गुह्य कैवल्य पद दायिनि

त्रिपुर त्रिजगाट वंद्य त्रिमूर्ति त्रि दसेस्वरि


त्र्यक्ष्य दिव्य गंधद्य सिंधूर तिल कंचिध

उमा शैलेंद्र तनय गौरी गंधर्व सेवित

विश्व ग्रभ स्वर्ण गर्भ अवराध वगदीस्वरी

ध्यानगाम्य अपरिचेद्य ग्नाध ज्ञान विग्रह

सर्व वेदांत संवेद्य सत्यानंद स्वरूपिणि

लोप मुद्रर्चित लील क्लुप्त ब्रह्मांड मंडल

अडुर्ष्य दृश्य रहित विग्नत्री वेद्य वर्जित


योगिनि योगद योग्य योगानंद युगंधर

इच्च शक्ति-ज्ञान शक्ति-क्रिय शक्ति स्वरूपिणि

सर्वाधार सुप्रतिष्ठ सद सद्रूप दारिनि

अष्ट मूर्ति अज जेत्री लोक यात्र विडह्यिनि

एकाकिनि भूम रूप निर्द्वित द्वित वर्जित

अन्नाद वसुध व्रिद्ध ब्र्ह्मत्म्यक्य स्वरूपिणि


ब्रिहति ब्रह्मनि ब्राह्मि ब्रह्मानंद बलि प्रिय

भाष रूप ब्रिहाट सेन भवभव विवर्जित

सुखराध्य शुभकरी शोभन सुलभ गति

राज राजेश्वरि राज्य दायिनि राज्य वल्लभ

रजत कृप राज पीत निवेसित निजश्रित

राज्य लक्ष्मि कोस नाथ चतुरंग बलेस्वै


साम्राज्य दायिनि सत्य संद सागर मेखल

दीक्षित दैत्य शामनि सर्व लोक वासं करि

सर्वार्थ धात्रि सावित्रि सचिदनंद रूपिनि

देस कल परिस्चिन्न सर्वग सर्व मोहिनि


सरस्वति शस्त्र मयि गुहंब गुह्य रूपिनि

सर्वो पदि विनिर्मुक्त सद शिव पति व्रित

संप्रधएश्वरि साधु ई गुरु मंडल रूपिनि

कुलोतीर्ण भागाराध्य माय मधुमति मही

गानंब गुह्यकराध्य कोमलांगि गुरु प्रिय

स्वतंत्र सर्व तन्त्रेसि दक्षिण मूर्ति रूपिनि


सनकादि समाराध्य शिव ज्ञान प्रदायिनि

चिद कल आनंद कालिक प्रेम रूप प्रियंकरी

नम पारायण प्रीत नंदि विद्य नतेश्वरी

मिथ्य जगत अतिश्तन मुक्तिद मुक्ति रूपिनि

लास्य प्रिय लय क्री लज्ज रंभ अदि वंदित

भाव धव सुधा व्रिष्टि पपरन्य धवनल

दुर्भाग्य तूलवतूल जरद्वान्तर विप्रभ

भाग्यब्दि चंद्रिक भक्त चिट्टा केकि गणगण


रोग पर्वत दंबोल मृत्यु दारु कुदरिक

महेश्वरी महा कलि महा ग्रास महासन

अपर्ण चंडिक चंदा मुन्दासुर निशूधिनि

क्षरक्षरात्मिक सर्व लोकेसि विश्व दारिनि

त्रिवर्गा धात्रि सुभगा त्र्यंभागा त्रिगुणात्मिक

स्वर्गापवर्गाध शुद्ध जपपुश्प निभाक्रिति

ओजोवति द्युतिधर यज्ञ रूप प्रियव्रुध

दुरराध्य दुराधर्ष पातलि कुसुम प्रिय

महति मेरु निलय मंधर कुसुम प्रिय


वीरराध्य विराड रूप विराज विस्वतोमुखि

प्रतिग रूप परकास प्रनाध प्राण रूपिनि

मार्तांड भैरवराध्य मंत्रिनि न्याश्त राज्यदू

त्रिपुरेसि जयत्सेन निस्त्रै गुन्या परपर

सत्य ज्ञानंद रूप सामरस्य पारायण

कपर्धिनि कलमल कमदुख कामा रूपिनि

कल निधि काव्य कल रसज्ञ रस सेवधि


पुष्ट पुरातन पूज्य पुष्कर पुष्करेक्षण

परंज्योति परं धम परमाणु परात पर

पस हस्त पस हंत्रि पर मंत्र विभेदिनि

मूर्त अमूर्त अनित्य त्रिपथ मुनि मानस हंसिक

सत्य व्रित सत्य रूप सर्वन्तर्यमिनि सती

ब्रह्मनि ब्रह्मा जननि बहु रूप बुधर्चित

प्रसवित्रि प्रचंड आज्ञ प्रतिष्ट प्रकट कृति

प्रनेश्वरि प्राण धात्रि पंचास्ट पीत रूपिनि

विशुन्गल विविक्तस्त वीर मत वियत प्रसू


मुकुंदा मुक्ति निलय मूल विग्रह रूपिनि

बावग्न भाव रोकग्नि भाव चक्र प्रवर्तनि

चंदा शर शस्त्र शर मंत्र शर तलोधारी

उदार कीर्ति उद्द्हमा वैभव वर्ण रूपिनि

जन्म मृत्यु जरा तप्त जन विश्रांति दायिनि

सर्वोपनिष दुद गुष्ट शांत्यत्हीत कलत्मिक


गंभीर गगनंतस्त गर्वित गण लोलुप

कल्पना रहित कष्ट आकांत कन्तत विग्रह

कार्य करण निर्मुक्त कामा केलि तरंगित

कणत कनक तदंग लील विग्रह दारिनि

अज्ह क्षय निर्मुक्त गुबद क्सिप्र प्रसादिनि

अंतर मुख समाराध्य बहिर मुख सुदुर्लभ


त्रयी त्रिवर्गा निलय त्रिस्त त्रिपुर मालिनि

निरामय निरालंब स्वात्म राम सुधा श्रुति

संसार पंग निर्मग्न समुद्धरण पंडित

यज्ञ प्रिय यज्ञ कर्त्री याजमान स्वरूपिणि

धर्म धर धनद्यक्ष धनधान्य विवर्दनि


विपर प्रिय विपर रूप विश्व ब्र्हमन कारिणि

विश्व ग्रास विध्रुमभ वैष्णवि विष्णु रूपिनि

योनि योनि निलय कूतस्त कुल रूपिनि

वीर गोष्टि प्रिय वीर नैष कर्मय नाध रूपिनि

विज्ञान कलन कल्य विदग्ध बैन्दवासन

तत्वधिक तत्व मायी तत्व मार्त स्वरूपिणि


सम गण प्रिय सौम्य सद शिव कुटुंबिनि

सव्यप सव्य मर्गास्त सर्व अपद्वि निवारिणि

स्वस्त स्वभाव मदुर धीर धीर समर्चिड

चैत्न्यर्क्य समाराध्य चैतन्य कुसुम प्रिय

सद्दोतित सदा तुष्ट तरुनदित्य पाताल

दक्षिण दक्सिनराध्य धरस्मेर मुखंबुज


कुलिनि केवल अनर्ग्य कैवल्य पद दायिनि

स्तोत्र प्रिय स्तुति मति स्तुति संस्तुत वैभव

मनस्विनि मानवति महेसि मंगल कृति

विश्व मत जगत धात्रि विसलक्षि विरागिनि

प्रगल्भ परमोधर परमोध मनोमायि

व्योम केसि विमनस्त वज्रिनि वामकेश्वरी


पंच यज्ञ प्रिय पंच प्रेत मंचदि सायिनि

पंचमि पंच भूतेसि पंच संख्योपचारिनि

सस्वति सस्वतैस्वर्य सरमद शंभु मोहिनि

धर धरसुत धन्य धर्मिनि धर्म वारधिनि

लोक तीत गुण तीत सर्वातीत समत्मिक

भंदूक कुसुम प्रख्य बाल लील विनोदिनि

सुमंगलि सुख करि सुवेशाद्य सुवासिनि

सुवसिन्यर्चन प्रीत आशोभान शुद्ध मानस


बिंदु तर्पण संतुष्ट पूर्वज त्रिपुरंबिक

दास मुद्र समाराध्य त्र्पुर श्री वसंकरि

ज्ञान मुद्र ज्ञान गम्य ज्ञान ज्ञेय स्वरूपिणि

योनि मुद्र त्रिखंडेसि त्रिगुण अम्बत्रिकोनगा

अनगा अद्बुत चरित्र वंचितर्त प्रदायिनि

अभ्यसतिसय गनत षड्द्वातीत रूपिनि


अव्याज करुण मूर्हि अज्ञान द्वंत दीपिक

आबाल गोपा विदित सर्वान उल्लंग्य शासन

श्री चक्र राज निलय श्री मत त्रिपुर सुंदरि

श्री शिवा शिव शक्तैक्य रूपिनि ललितंबिक

एवं श्रीललित देवय नामनं सहस्रकं जगुह

Tuesday, February 4, 2014

Amazing Jigsaw / Aura of Silence अद्भुत आरा/Aura साधना

अद्भुत आरा/Aura साधना

इस अद्भुत साधना से स्वयं की अथवा किसी की भी Aura देख सकते हैं
आधुनिक वैज्ञानिक तथ्य स्वीकारते है कि जिस प्रकार हम चित्र में  भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध और यीशु के चेहरे के चारों आभा मंडल देखते हैं उसी प्रकार हर व्यक्ति का आभा मंडल होता है हर व्यक्ति  अपने स्वयं का और  अन्य लोगों की आभा को देखने की क्षमता योग, साधना, ध्यान और जैसे विभिन्न तरीकों के माध्यम प्राप्त कर सकता है. वो अपने शरीर के चारों उपस्थित आभा मंडल की वृद्धि भी कर सकते हैं.  हमारा यह आभा मंडल समय, सवास्थ्य के साथ बदलता रहता है .
प्राचीन भारतीय साधु और संत जो अध्यात्मवाद और प्राकृतिक विज्ञान के महान ज्ञाता थे.  वस्तुतः हमारा शरीर  एक नहीं ६ अन्य सूक्ष्म शारीर से मिल कर बना  है . इस प्रकार सात निकायों के संयोजन एक पूर्ण मानव शरीर  बनाता है. लेकिन दुर्भाग्य से हम केवल बाहरी भौतिक शरीर की उपस्थिति को देखने और महसूस करने में सक्षम हैं.
आइये इन शरीर के बारे में संक्षिप्त रूप में जानते हैं.
1. स्थूल  शरीर:  यह एक ठोस रूप है और बाहरी भौतिक शरीर है. यह अन्नमय  कोष या भी  कहा जाता है. सरल शब्दों में यह स्थूल शरीर  जानवरों, पक्षियों, और मनुष्य के पास शरीर है.
2. प्राण  शारीर:  प्राण  जीवन का मतलब है और यह स्थूल  शरीर  से थोरा अधिक महत्वपूर्ण क्यूंकि यह स्थूल  शरीर को ऊर्जा और जीवन प्रदान करता है. इसे प्राणमय   कोष भी  कहा जाता है. यह भौतिक शरीर  और अन्य पांच शरीर के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करता है. एक इस प्राण  शरीर  की मदद के माध्यम से ही अन्य पांच शरीर को देख सकते हैं.
3. काम शरीर: इसे   मनोमय  कोष या भावनाओं, विचारों और बुद्धि का भंडार  कहा जाता है और साथ इसकी मदद से एक व्यक्ति अपने  शरीर जैसा दूसरा बना सकते हैं. इसे  पशु  शरीर  कहा जाता है. इस  के माध्यम से  मानव जीवन में उत्तेजना  , उत्साह का  जीवन में  अनुभव होता है.
4. सुक्ष्म मन शरीर:  यह काम  शरीर  का एक भाग  है इस  के माध्यम से मन और बुद्धि और विकसित किया जा सकता है एक व्यक्ति किसी भी  विषय की जटिलताओं को समझने की क्षमता विकसित कर सकता हैं.
5. उच्च  मन शरीर: यह  दिव्य शरीर का  पहला भाग  है. यह विज्ञानमय  कोष भी कहा जाता है. एक इंसान इस के माध्यम से अपने जीवन आध्यात्मिक तरक्की कर सकते हैं, समग्रता को प्राप्त करने और देवतुल्य हो सकता है . लेकिन अगर इसे नियंत्रित नहीं है तो परिणाम काफी विपरीत हो सकते हैं.इस शरीर में प्रवेश करने के लिए बहुत अनुशासन की जरूरत है व्यक्ति इस शरीर की शक्तियों का दुरूपयोग कर सकता है.
6. बुद्धि शरीर:  इसे निर्वाण  शरीर भी  कहा जाता है. निर्वाण का अर्थ है  मोक्ष का अर्थ है, इसलिए इस की प्राप्ति पर एक व्यक्ति के  स्वयं को स्थूल  शरीर  से मुक्त करने में सक्षम हो जाता है. यह आनंदमय  कोष या दिव्य आनन्द कोष  कहा जाता है. और इस शरीर में प्रवेश करने के बाद व्यक्ति अपनी आत्मा का अनुभव कर सकता है.
7. आत्मा शरीर:  यह अपने आप में एक पूरी तरह से सूक्ष्म शरीर है. इसकी  प्राप्ति पर एक व्यक्ति दिव्यता को उपलब्ध हो जाता है और उसके चेहरे के चारों ओर आभा और भी अधिक उज्ज्वल और अलग हो जाता है, यहाँ तक की आम आदमी भी अनुभव करने में सक्षम हो जाता है.
जब इन  का साक्षात्कार इन सभी शरीरो से गुरु की कृपा से हो जाता है तो उसे सिद्धयाँ स्वयं ही मिल जाती हैं .
                                                                दिव्य आभा/Aura
आत्म शरीर  या आत्मा की चमक कोरोना तरह प्रतीत होता है जैसे सूर्य ग्रहण के दौरान जब सूर्य पूरा धक् जाता है उसके चारों ओर एक diamond रिंग/ एक गोल चमक जैसा दीखता है.
जैसा हमने पहले ही देखा यह आभा न केवल देवी, देवता  और महान संतों के आसपास है यह हर इंसान के आसपास मौजूद है. .आम तौर पर यह सामान्य लोंगों में  बहुत उज्ज्वल है और स्पष्ट नहीं  होई है लेकिन अगर कोई व्यक्ति अपनी स्वयं की अथवा अन्य किसी की Aura को  देखने की इच्छा हो तो वह साधना को पूरा करने के द्वारा किसी भी व्यक्ति के चारों ओर और अपने खुद के चेहरे के चारों ओर आभा देख सकते हैं. यह आभा हिन्दी में आभा मंडल या प्रभा मंडल भी कहा जाता है और भगवान महावीर ने इसे  Leshya कहा है .
भारतीय ऋषि, मुनियों की तरह पश्चिमी वैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्ति की आभा देखकर कई तथ्यों पता लगाया जा सकता है.
1. Aura के माध्यम से व्यक्ति का भूतकाल अत्यंत स्पष्ट/crystal clear जाना जा सकता है. . इस प्रकार व्यक्ति के चरित्र और जीने का ढंग आसानी से जाना जा सकता है.
2. जिस प्रकार  व्यक्ति की आभा को देख कर एक व्यक्ति के अतीत के बारे में पता कर सकते हैं, उसी प्रकार उसके  जीवन के इसी तरह भविष्य की घटनाओं को भी पहले से जाना जा सकता है.
3. एक व्यक्ति की आदतें उसकी aura को बदल कर बदली जा सकती हैं. एक व्यक्ति अपनी का किसी दुसरे की आरा को बदल सकता है जिससे एक निर्धन धनवान, एक मुर्ख विद्वान बन सकता है. या एक महान व्यक्ति बन सकता है.
4. आभा में सात रंग हो सकता है.  Sthul Sharir की  आरा  हरी होती है. Prann Sharir की आरा  गुलाबी होती है.  Kaam Sharir की आरा पीत्वर्निया  होती है. Sukshma Sharir की आरा पीले और हरे रंग का मिश्रण होती है., Uchch Man Sharir की चांदी/silver के  रंग की होती है. Buddhi Sharir की नीली  और Aatma Sharir is सुनहरी /गोल्डेन कोलोर की होती है .
5. एक व्यक्ति की मृत्यु  के छह महीने पहले उसकी आभा धुंधली  और कालापन लिये हुवे हो जाता है.
6. एक चरित्रहीन व्यक्ति की आभा धुंदली और पीलापन लिये हुवे होती है. चालाक और धोखेबाज व्यक्ति की आभा धुएँ के रंग और हल्का पीलापन होता है.
7. अपनी आभा पर नियंत्रण के माध्यम से एक व्यक्ति कई शारीरिक रूप बना सकता है और वह शारीर प्रकाश की गति से यात्रा कर सकता है और भार हीन होता है. इसके  माध्यम से एक व्यक्ति हजारों मील दूर होने वाली घटनाओं को देख सकता  हैं, वह भविष्य में भी देख सकता हैं और इस प्रकार आपदाओं या दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है.
8. आभा व्यक्ति विचार के अनुसार बदलती रहती है हमारे भौतिक शरीर या .Sthul Sharir में परिवर्तन जो पहले से ही आंतरिक शरीर या Sukshma Sharir  पर काफी समय पहले पर उनके प्रभाव दिख जाता है  जिसे किसी भी बड़ा रोग या बीमारी तीन महीनेपहले से ही आभा प्रभावित होता जिससे बीमारी  का पूर्वानुमान किया जा सकता है.
9. इस साधना को करने के बाद गर्भस्त शिशु की आरा देख सकते हैं. उस शिशु की आरा को अधिक तेजविता दे सकते हैं.  वह बालक भविष्य में  एक बुद्धिमान और प्रतिभाशाली व्यक्ति बनने के गुर आ जाते हैं जिससे वह  एक वैज्ञानिक, गणितज्ञ, चिकित्सक, या इंजीनियर अर्थात् किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करता  है वह अद्वितीय होगा.
एक व्यक्ति एक सिध्द और आध्यात्मिक क्षमता इस आरा साधना से विकसित कर सकता है . और इस इया प्रक्रिया द्वारा जन कल्याण लिए हजारों लोगों के आरा  बदला सकता है.
इस साधना को आत्मा साधना/aatma sadhna कहते हैं.
इस साधना में १.आत्म महा यंत्र २. चैतन्य  माला की आवशयकता होती है
इस साधना को प्रातः काल में करना है . अपने सामने यन्त्र को रख कर बिना पलक
झपकाए अथवा बंद किये एकटक आपको यन्त्र पर दृष्टि जमानी है अथवा ये कह सकते है यन्त्र पर त्राटक करना है. फिर आपको यह मंत्र माला से 21 माला पढ़ना है. प्रति दिन आपको २१ माला करनी है.
 
ॐ ऐं ब्रह्माण्ड चाक्शुरतेजसे नमः [  Om Ayeim Brahmaand Chakshurtejase namah].
इस साधना को करते समय अपने मन को नकारात्मक विचारों, भय, संदेह, हिचकिचाहट, चिंताओं और कुंठाओं  से मुक्त रखें इसके बाद ही साधना शुरू करें . इस यंत्र पर आपको पूर्ण ध्यान देन्द्रित करना है और आपके मन में कोई भी चिंता विचार कुछ  भी  न रखें.
15 दिनों के अभ्यास के बाद आप किसी भी व्यक्ति के चेहरे पर देखें. उसकी अन्ह्कों में न देखें. उसके चेरी को सर से शुरू कर के गर्दन तक देखें. इस स्थान पर आरा सबसे अधिक होती है.  फिर उसके सिर के ऊपर  दो से सात इंच देखें आपको  इंद्रधनुष की तरह रंग दिखाई देगा.
 
नियमित रूप से इस यंत्र पर अभ्यास करते रहे और विभिन्न लोगों पर अपनी इस क्षमता की प्रक्टिस करते रहे. जब आप व्यक्ति की आरा देखने में सक्षम हो जाते हैं तो आप उसके भूत और भविष्य भी देख  सकते हैं. यन्त्र को विसर्जित नहीं करना है उसपर आपको अभ्यास करना है
शुरू शुरू में आपको आरा बहुत धुंदली दिखेगी लेकिन समय के साथ प्रक्टिस करने से आपकी क्षमता में धीरे धीरे वृद्धि होती जाएगी. इस साधना से व्यक्ति की और और भी प्रकाश युक्त और स्ट्रोंग हो गतो है. इस साधना से व्यक्ति का आध्यामिक विकास होता है और वह कहीं भी होने वाली घटना को देख सकता है.
[तंत्र मंत्र यन्त्र February 1999 ]

The method and moment of Saraswati Puja




आप सब को वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।।

सद्गुरुदेव एवं माँ सरस्वती आप सब को विद्या, बुद्धि और ज्ञान दें..

सरस्वती पूजा की संपूर्ण विधि और मुहूर्त
दिन बसंत पंचमी इस वर्ष 4 फरवरी को मनाया जा रहा है। इस दिन अगर आप भी मां सरस्वती की पूजा करके उन्हें प्रसन्न करना चाहते हैं तो इसके लिए शुभ मुहूर्त पूरे दिन है।

सरस्वती माता की पूजा करने वाले को सबसे पहले मां सरस्वती की प्रतिमा अथवा तस्वीर को सामने रखकर उनके सामने धूप-दीप और अगरबत्ती जलानी चाहिए।

||सरस्वती वंदना||

सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं । मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है । पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है । वाहन मयूर-सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है।इनका वाहन हंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेद और माला होती है ।
हिन्दू कोई भी पाठ्यकर्म के पहले इनकी पूजा करते हैं ।

रात्रि कालीन सरस्वती साधना ::-

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥

सरस्वती यन्त्र और लाल मूंगा माला से जाप करे ..

ऊं गं गणेशाय नमः: 3 माला
ऊं ऐं सरस्वत्यै ऐं नमः : 3 माला
ऊं नमः निखिलेश्वरायै : 3 माला

विध्या की देवी, भगवती सरस्वती, कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥

शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ/करती हूँ ॥2॥

जाप गुरु देव को समर्पित करे
Guru Paduka Stotram By Bhagawat Pada Adi Sankara

अनंत संसार समुद्र तार नौकयीताभ्याम गुरुभक्तीदाभ्याम
वैराग्य साम्राज्यद पूजनाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 1
कवित्व वाराशी निशाकराभ्याम दौर्भाग्य दावाम्बुद मालीकाभ्याम
दुरी कृता नम्र विपत्तीताभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 2

नता ययोहो श्रीपतीताम समियुः कदाचीदप्याषु दरिद्र्यवर्याहा
मूकाश्च वाचस्पतीताहिताभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 3
नालिक नीकाश पदाह्रीताभ्याम ना ना विमोहादी निवारीकाभ्याम
नमत्ज्ज्नाभिष्ट ततीप्रदाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 4
नृपाली मौली व्रज रत्न कांती सरीत द्विराजत झशकन्यकाभ्याम
नृपत्वादाभ्याम नतलोकपंक्तेहे नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम ||5
पापान्धाकारार्क परम्पराभ्याम त्राप त्रयाहीन्द्र खगेश्वराभ्याम
जाड्याब्धी समशोषण वाडवाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 6
श्मादी षटक प्रदवैभवाभ्याम समाधी दान व्रत दिक्षिताभ्याम
रमाधवाहीन्ग्र स्थिरभक्तीदाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 7
स्वार्चापराणाम अखीलेष्टदाभ्याम स्वाहा सहायाक्ष धुरंधराभ्याम
स्वान्तच्छभाव प्रदपूजनाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 8
कामादिसर्प व्रज ग़ारुडाभ्याम विवेक वैराग्य निधी प्रदाभ्याम
बोधप्रदाभ्याम द्रुत मोक्षदाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 9

Thursday, January 2, 2014

kundali jagran mantra part-3 manipur chakra

कुंडलिनी जागरण मन्त्र प्रयोग भाग 3 अमृत सिद्धि(मणिपुर चक्र विभेदनं):


  • ॐ गं गणेशाय नमः
  • ॐ  ऐं सरस्वत्यै ऐं नमः 
  •  ॐ नमः निखिलेश्वरायै : 


अमृत सिद्धि(मणिपुर चक्र विभेदनं): मणिपुर चक्र को योग, साधना, तंत्र सिद्धि, प्रत्यक्षिकरण, देह सिद्धि, पद्मासन सिद्धि, खेचरत्व पद प्राप्ति,सूक्ष्म शरीर जागरण व विचरण एवं और भी बहुत सारी उपलब्धियों की प्राप्ति में सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। इस चक्र के जागरण या भेदन के पश्चात् शरीर पूर्ण रूपेण सिद्ध हो जाता है। क्षुधा कम लगती है यानि के आप को अत्यंत ही अल्प आहार की आवश्यकता होती है। प्राण शक्ति का यही उद्गम बिन्दु है। अत: इस चक्र के भेदन के पश्चात आप कोई भी साधना कर लें सिद्धि सुनिश्चित रूप से प्रथम बार में ही साधक के गले में वरमाला डालने को बाध्य हो जाती है। ऐसा शास्त्रों में उल्लिखित है। सदगुरुदेव ने इस स्तोत्र का उल्लेख अपनी एक पुस्तक में रोग मुक्ति के संदर्भ में किया है। जिसमें साधक को इस स्तोत्र के नित्य 108 पाठ 21 दिनों तक भगवान शिव के समक्ष उनकी सुविधानुसार पूजन कर करना चाहिए। हवन आदि की आवश्यकता नहीं है। बाकि उपरोक्त वर्णित लाभों में से कुछ तो फलश्रुति में वर्णित हैं और बाकि योग ग्रंथों में। इस स्तोत्र को मैं फलश्रुति के साथ दे रहा हूं। पहला पाठ फलश्रुति के साथ करें। बीच के सभी पाठ में मूल स्तोत्र का ही पाठ करें और पुन: अंतिम पाठ फलश्रुति के साथ करें। कोशिश करें यदि आप एक मूल पाठ एक श्वास में कर पाएं तो या फिर दो सांस में करें। 2—3 दिनों के अभ्यास से ही ये संभव हो जाएगा। गहरी श्वास लें और पाठ प्रारंभ करें। 1 या 2 श्वास में मूल पाठ को संपन्न करें। श्वास का नियम फलश्रुति के लिए नहीं है। पहले गुरु, गणेश, गौरी और भैरव का पूजन कर लें। सदगुरुदेव से आज्ञा लेकर इस साधना में प्रवृत्त हों।यदि आपके पास शिवलिंग या महामृत्युजय यंत्र हो तो उसका पूजन करें या भगवान श्री निखिल या श्रीशिव के चित्र के सामने भी कर सकते हैं। रोग की गंभीरता को देखता हुए आप पाठ की संख्या में वृद्धि कर लें। और उपरोक्त वर्णित लाभों की प्राप्ति के लिए इस स्तोत्र को नित्य 1100 बार जिसमें आपको कुल 5—6 घंटे लगेंगे, करें। इसमें समय सीमा का उल्लेख नहीं है परंतु साधक को स्वत: ही पता चलने लगता है कि उसे किन किन उपलब्धियों की प्राप्ति हो रही है और कितने समय में उसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है। इसमें शब्दों का उच्चारण शुद्ध करें। क्योंकि मणिपूर का विभेदन इस स्तोत्र के ध्वनि विज्ञान पर आधारित है।

मणिपूर विभेदकम् स्तोत्रम् मूल पाठ:


ऊँ नम: परमकल्याण नमस्ते विश्वभावन।
 नमस्ते पार्वतीनाथ उमाकान्त नमोस्तुते।।
 विश्वात्मने अविचिन्त्याय गुणाय निर्गुणाय च।
 धर्माय ज्ञानमक्षाय नमस्ते सर्वयोगिने।
 नमस्ते कालरूपाय त्रैलोक्यरक्षणाय च।।
 गोलोकघातकायैव चण्डेशाय नमोस्तुते।
 सद्योजाताय नमस्ते शूलधारिणे।।
 कालान्ताय च कान्ताय चैतन्याय नमो नम:।
 कुलात्मकाय कौलाय चंद्रशेखर ते नम:।। 
उमानाथ नमस्तुभ्यम् योगीन्द्राय नमो नम:। 
सर्वाय सर्वपूज्याय ध्यानस्थाय गुणात्मने।
 पार्वती प्राणनाथाय नमस्ते परमात्मने।। 
फलश्रुति: एतत् स्तोत्रं पठित्वा तु स्तौति य: परमेश्वरं। 
याति रुद्रकुलस्थानं मणिपूरं विभिद्यते।। 
एतत् स्तोत्रं प्रपाठेन तुष्टो भवति शंकर:।
 खेचरत्व पदं नित्यं ददाति परमेश्वर:।


अंत में सर्वसिद्धिप्रदाता प्रभु श्रीनिखिलेश्वर से ये प्रार्थना करता हूँ कि वे अपनी असीम अनुकम्पा समस्त शिष्यों और साधकों पर बरसायें और उन्हें मनोनुकूल सिद्धियां प्रदा करें उनका कल्याण करें। ।। श्रीनिखिल पादारविन्दार्पणमस्तु ।।