जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता!
तंत्र शास्त्र भारत की एक प्राचीन विद्या है। तंत्र ग्रंथ भगवान शिव के मुख से आविर्भूत हुए हैं। उनको पवित्र और प्रामाणिक माना गया है। भारतीय साहित्य में 'तंत्र' की एक विशिष्ट स्थिति है, पर कुछ साधक इस शक्ति का दुरुपयोग करने लग गए, जिसके कारण यह विद्या बदनाम हो गई।
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥
जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! गुरु गोरखनाथ के समय में तंत्र अपने आप में एक सर्वोत्कृष्ट विद्या थी और समाज का प्रत्येक वर्ग उसे अपना रहा था! जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझाने में केवल तंत्र ही सहायक हो सकता हैं! परन्तु गोरखनाथ के बाद में भयानन्द आदि जो लोग हुए उन्होंने तंत्र को एक विकृत रूप दे दिया! उन्होंने तंत्र का तात्पर्य भोग, विलास, मद्य, मांस, पंचमकार को ही मान लिया ।
“मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च, मकार पंचवर्गस्यात सह तंत्रः सह तान्त्रिकां”
जो व्यक्ति इन पांच मकारो में लिप्त रहता हैं वही तांत्रिक हैं, भयानन्द ने ऐसा कहा! उसने कहा की उसे मांस, मछली और मदिरा तो खानी ही चाहिए, और वह नित्य स्त्री के साथ समागम करता हुआ साधना करे! ये ऐसी गलत धरना समाज में फैली की जो ढोंगी थे, जो पाखंडी थे, उन्होंने इस श्लोक को महत्वपूर्ण मान लिया और शराब पीने लगे, धनोपार्जन करने लगे, और मूल तंत्र से अलग हट गए, धूर्तता और छल मात्र रह गया! और समाज ऐसे लोगों से भय खाने लगे! और दूर हटने लगे! लोग सोचने लगे कि ऐसा कैसा तंत्र हैं, इससे समाज का क्या हित हो सकता हैं? लोगों ने इन तांत्रिकों का नाम लेना बंद कर दिया, उनका सम्मान करना बंद कर दिया, अपना दुःख तो भोगते रहे परन्तु अपनी समस्याओं को उन तांत्रिकों से कहने में कतराने लगे, क्योंकि उनके पास जाना ही कई प्रकार की समस्याओं को मोल लेना था! और ऐसा लगने लगा कि तंत्र समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं।
परन्तु दोष तंत्र का नहीं, उन पथभ्रष्ट लोगों का रहा, जिनकी वजह से तंत्र भी बदनाम हो गया! सही अर्थों में देखा जायें तो तंत्र का तात्पर्य तो जीवन को सभी दृष्टियों से पूर्णता देना हैं!
जब हम मंत्र के माध्यम से देवता को अनुकूल बना सकते हैं, तो फिर तंत्र की हमारे जीवन में कहाँ अनुकूलता रह जाती हैं? मंत्र का तात्पर्य हैं, देवता की प्रार्थना करना, हाथ जोड़ना, निवेदन करना, भोग लगाना, आरती करना, धुप अगरबत्ती करना, पर यह आवश्यक नहीं कि लक्ष्मी प्रसन्ना हो ही और हमारा घर अक्षय धन से भर दे! तब दुसरे तरीके से यदि आपमें हिम्मत हैं, साहस हैं, हौसला हैं, तो क्षमता के साथ लक्ष्मी की आँख में आँख डालकर आप खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं यह तंत्र साधना कर रहा हूँ, मैं तुम्हें तंत्र में आबद्ध कर रहा हूँ और तुम्हें हर हालत में सम्पन्नता देनी हैं, और देनी ही पड़ेगी।
पहले प्रकार से स्तुति या प्रार्थना करने से देवता प्रसन्ना न भी हो परन्तु तंत्र से तो देवता बाध्य होते ही हैं, उन्हें वरदान देना ही पड़ता हैं! मंत्र और तंत्र दोनों ही पद्धतियों में साधना विधि, पूजा का प्रकार, न्यास सभी कुछ लगभग एक जैसा ही होता हैं, बस अंतर होता हैं, तो दोनों के मंत्र विन्यास में, तांत्रोक्त मंत्र अधिक तीक्ष्ण होता हैं! जीवन की किसी भी विपरीत स्थिति में तंत्र अचूक और अनिवार्य विधा हैं।
आज के युग में हमारे पास इतना समय नहीं हैं, कि हम बार-बार हाथ जोड़े, बार-बार घी के दिए जलाएं, बार-बार भोग लगायें, लक्ष्मी की आरती उतारते रहे और बीसों साल दरिद्री बने रहे, इसलिए तंत्र ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, कि लक्ष्मी बाध्य हो ही जायें और कम से कम समय में सफलता मिले! बड़े ही व्यवस्थित तरीके से मंत्र और साधना करने की क्रिया तंत्र हैं! किस ढंग से मंत्र का प्रयोग किया जायें, साधना को पूर्णता दी जायें, उस क्रिया का नाम तंत्र हैं! और तंत्र साधना में यदि कोई न्यूनता रह जायें, तो यह तो हो सकता हैं, कि सफलता नहीं मिले परन्तु कोई विपरीत परिणाम नहीं मिलता! तंत्र के माध्यम से कोई भी गृहस्थ वह सब कुछ हस्तगत कर सकता हैं, जो उसके जीवन का लक्ष्य हैं! तंत्र तो अपने आप में अत्यंत सौम्य साधना का प्रकार हैं, पंचमकार तो उसमें आवश्यक हैं ही नहीं! बल्कि इससे परे हटकर जो पूर्ण पवित्रमय सात्विक तरीके, हर प्रकार के व्यसनों से दूर रहता हुआ साधना करता हैं तो वह तंत्र साधना हैं।
जनसाधारण में इसका व्यापक प्रचार न होने का एक कारण यह भी था कि तंत्रों के कुछ अंश समझने में इतने कठिन हैं कि गुरु के बिना समझे नहीं जा सकते । अतः ज्ञान का अभाव ही शंकाओं का कारण बना।
तंत्र शास्त्र वेदों के समय से हमारे धर्म का अभिन्न अंग रहा है। वैसे तो सभी साधनाओं में मंत्र, तंत्र एक-दूसरे से इतने मिले हुए हैं कि उनको अलग-अलग नहीं किया जा सकता, पर जिन साधनों में तंत्र की प्रधानता होती है, उन्हें हम 'तंत्र साधना' मान लेते हैं। 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' की उक्ति के अनुसार हमारे शरीर की रचना भी उसी आधार पर हुई है जिस पर पूर्ण ब्रह्माण्ड की।
तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अन्तर्मुखी होकर साधनाएँ की जाती हैं। तांत्रिक साधना को साधारणतया तीन मार्ग : वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग व मधयम मार्ग कहा गया है।
श्मशान में साधना करने वाले का निडर होना आवश्यक है। जो निडर नहीं हैं, वे दुस्साहस न करें। तांत्रिकों का यह अटूट विश्वास है, जब रात के समय सारा संसार सोता है तब केवल योगी जागते हैं।
तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। यह एक अत्यंत ही रहस्यमय शास्त्र है ।
चूँकि इस शास्त्र की वैधता विवादित है अतः हमारे द्वारा दी जा रही सामग्री के आधार पर किसी भी प्रकार के प्रयोग करने से पूर्व किसी योग्य तांत्रिक गुरु की सलाह अवश्य लें। अन्यथा किसी भी प्रकार के लाभ-हानि की जिम्मेदारी आपकी होगी।
परस्पर आश्रित या आपस में संक्रिया करने वाली चीजों का समूह, जो मिलकर सम्पूर्ण बनती हैं, निकाय, तंत्र, प्रणाली या सिस्टम (System) कहलातीं हैं। कार है और चलाने का मन्त्र भी आता है, यानी शुद्ध आधुनिक भाषा मे ड्राइविन्ग भी आती है, रास्ते मे जाकर कार किसी आन्तरिक खराबी के कारण खराब होकर खडी हो जाती है, अब उसके अन्दर का तन्त्र नही आता है, यानी कि किस कारण से वह खराब हुई है और क्या खराब हुआ है, तो यन्त्र यानी कार और मन्त्र यानी ड्राइविन्ग दोनो ही बेकार हो गये, किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान, और समय का अन्दरूनी ज्ञान रखने वाले को तान्त्रिक कहा जाता है, तो तन्त्र का पूरा अर्थ इन्जीनियर या मैकेनिक से लिया जा सकता है जो कि भौतिक वस्तुओं का और उनके अन्दर की जानकारी रखता है, शरीर और शरीर के अन्दर की जानकारी रखने वाले को डाक्टर कहा जाता है, और जो पराशक्तियों की अन्दर की और बाहर की जानकारी रखता है, वह ज्योतिषी या ब्रह्मज्ञानी कहलाता है, जिस प्रकार से बिजली का जानकार लाख कोशिश करने पर भी तार के अन्दर की बिजली को नही दिखा सकता, केवल अपने विषेष यन्त्रों की सहायता से उसकी नाप या प्रयोग की विधि दे सकता है, उसी तरह से ब्रह्मज्ञान की जानकारी केवल महसूस करवाकर ही दी जा सकती है।
जो वस्तु जितने कम समय के प्रति अपनी जीवन क्रिया को रखती है वह उतनी ही अच्छी तरह से दिखाई देती है और अपना प्रभाव जरूर कम समय के लिये देती है मगर लोग कहने लगते है, कि वे उसे जानते है, जैसे कम वोल्टेज पर वल्व धीमी रोशनी देगा, मगर अधिक समय तक चलेगा, और जो वल्व अधिक रोशनी अधिक वोल्टेज की वजह से देगा तो उसका चलने का समय भी कम होगा, उसी तरह से जो क्रिया दिन और रात के गुजरने के बाद चौबीस घंटे में मिलती है वह साक्षात समझ मे आती है कि कल ठंड थी और आज गर्मी है, मगर मनुष्य की औसत उम्र अगर साठ साल की है तो जो जीवन का दिन और रात होगी वह उसी अनुपात में लम्बी होगी, और उसी क्रिया से समझ में आयेगा.जितना लम्बा समय होगा उतना लम्बा ही कारण होगा, अधिकतर जीवन के खेल बहुत लोग समझ नही पाते, मगर जो रोजाना विभिन्न कारणों के प्रति अपनी जानकारी रखते है वे तुरत फ़ुरत में अपनी सटीक राय दे देते है.यही तन्त्र और और तान्त्रिक का रूप कहलाता है.
तन्त्र परम्परा से जुडे हुए आगम ग्रन्थ हैं। इनके वक्ता साधारणतयः शिवजी होते हैं।
तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है - “तनोति त्रायति तन्त्र” । जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय "गुह्य या गूढ़ साधनाओं" से किया जाता रहा है।
तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है और साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्रचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं।