Saturday, September 6, 2014

Lakshmi spiritual redemption of debt; Lakshmi receipt twenty formula ऋण मोचन लक्ष्मी साधना; लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र


ऋण मोचन लक्ष्मी साधना; लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

ऋण मोचन लक्ष्मी साधना

कर्ज का भार व्यक्ति के जीवन में अभिशाप की तरह होता है, जो व्यक्ति की हंसती हुई जिन्दगी में एक विष की भांति चुभ जाता है, जो निकाले नहीं निकलता और व्यक्ति को त्रस्त कर देता है। ऋण का ब्याज अदा करते-करते लम्बी अवधि हो जाती है, पर मूल राशी वैसी की वैसे बनी रहती है। नवरात्रि में ऋण मोचन लक्ष्मी की साधना करने से व्यक्ति कितना भी अधिक ऋणभार युक्त क्यों न हो, उसकी ऋण मुक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

नवरात्री में अथवा इस काल में संकल्प लेकर किसी भी सप्तमी से नवमी के बीच साधना कर सकता है। इस प्रयोग के लिए प्राणप्रतिष्ठायुक्त 'ऋण मुक्ति यंत्र' और 'ऋण मोचन लक्ष्मी तंत्र फल' की आवश्यकता होती है। साधना वाले दिन साधक प्रातः काल स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मुख कर अपने पवित्र आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक बाजोट पर लाल रंग का कपडा बिछाकर उस पर किसी पात्र में यंत्र स्थापित कर दें, यंत्र के ऊपर कुंकुम से अपना नाम अंकित कर दें, उस पर तंत्र फल को रख दें। धुप-दीप से संक्षिप्त पूजन करें। वातावरण शुद्ध एवं पवित्र हो। फिर निम्न मंत्र का डेढ़ घंटे जप करें -

मंत्र
॥ ॐ नमो ह्रीं श्रीं क्रीं श्रीं क्लीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मम गृहे धनं देही चिन्तां दूरं करोति स्वाहा ॥

अगले दिन यंत्र को जल मे विसर्जीत कर दें तथा, ऋण मोचन फल को प्रयोगकर्ता स्वयं अपने हाथों से किसी गरीब या भिखारी को अतिरिक्त दान-दक्षिणा, फल-फूल आदि के साथ दें। कहा जाता है, की ऐसा करने से उस तंत्र फल के साथ ही व्यक्ति की ऋण बाधा तथा दरिद्रता भी दान में चली जाती है और उसके घर में भविष्य में फिर किसी प्रकार की दरिद्रता का वास नहीं रहता।

यदि दान लेने वाला नहीं मिले, तो प्रयोगकर्ता स्वयं किसी मन्दिर में जाकर दक्षिणा के साथ उस तंत्र फल को भेट चढ़ा दे। इस प्रयोग को संपन्न करने के बाद तथा तंत्र फल दान कर पुनः घर आने पर लक्ष्मी आरती अवश्य संपन्न करें। इस प्रकार प्रयोग पूर्ण हो जाता है।

लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

सदगुरुदेव की वाणी से लक्ष्मी साधना के अद्वितीय

बीस सूत्र

प्रत्येक गृहस्थ इन सूत्रों-नियमों का पालन कर जीवन में लक्ष्मी को स्थायित्व प्रदान कर सकता है। आप भी अवश्य अपनाएं -

1. जीवन में सफल रहना है या लक्ष्मी को स्थापित करना है तो प्रत्येक दशा में सर्वप्रथम दरिद्रता विनाशक प्रयोग करना ही होगा। यह सत्य है की लक्ष्मी धनदात्री हैं, वैभव प्रदायक हैं, लेकिन दरिद्रता जीवन की एक अलग स्थिति होती है और उस स्थिति का विनाश अलग ढंग से सर्वप्रथम करना आवश्यक होता है।

2. लक्ष्मी का एक विशिष्ट स्वरूप है "बीज लक्ष्मी"। एक वृक्ष की ही भांति एक छोटे से बीज में सिमट जाता है - लक्ष्मी का विशाल स्वरूप। बीज लक्ष्मी साधना में भी उतर आया है भगवती महालक्ष्मी के पूर्ण स्वरूप के साथ-साथ जीवन में उन्नति का रहस्य।

3. लक्ष्मी समुद्र तनया है, समुद्र से उत्पत्ति है उनकी, और समुद्र से प्राप्त विविध रत्न सहोदर हैं उनके, चाहे वह दक्षिणवर्ती शंख हो या मोती शंख, गोमती चक्र, स्वर्ण पात्र, कुबेर पात्र, लक्ष्मी प्रकाम्य क्षिरोदभव, वर-वरद, लक्ष्मी चैतन्य सभी उनके भ्रातृवत ही हैं और इनकी गृह में उपस्थिति आह्लादित करती है, लक्ष्मी को विवश कर देती है उन्हें गृह में स्थापित कर देने को।

4. समुद्र मंथन में प्राप्त कर रत्न "लक्ष्मी" का वरण यदि किसी ने किया तो वे साक्षात भगवान् विष्णु। आपने पति की अनुपस्थिति में लक्ष्मी किसी गृह में झांकने तक की भी कल्पना नहीं कर करतीं और भगवान् विष्णु की उपस्थिति का प्रतीक है शालिग्राम, अनंत महायंत्र एवं शंख। शंख, शालिग्राम एवं तुलसी का वृक्ष - इनसे मिलकर बनता है पूर्ण रूप से भगवान् लक्ष्मी - नारायण की उपस्थिति का वातावरण।

5. लक्ष्मी का नाम कमला है। कमलवत उनकी आंखे हैं अथवा उनका आसन कमल ही है और सर्वाधिक प्रिय है - लक्ष्मी को पदम। कमल - गट्टे की माला स्वयं धारण करना आधार और आसन देना है लक्ष्मी को आपने शरीर में लक्ष्मी को समाहित करने के लिए।

6. लक्ष्मी की पूर्णता होती है विघ्न विनाशक श्री गणपति की उपस्तिथि से जो मंगल कर्ता है और प्रत्येक साधना में प्रथम पूज्य। भगवान् गणपति के किसी भी विग्रह की स्थापना किए बिना लक्ष्मी की साधना तो ऐसी है, ज्यों कोई अपना धन भण्डार भरकर उसे खुला छोड़ दे।

7. लक्ष्मी का वास वही सम्भव है, जहां व्यक्ति सदैव सुरुचिपूर्ण वेशभूषा में रहे, स्वच्छ और पवित्र रहे तथा आन्तरिक रूप से निर्मल हो। गंदे, मैले, असभ्य और बक्वासी व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी का वास संभव ही नहीं।

8. लक्ष्मी का आगमन होता है, जहां पौरुष हो, जहां उद्यम हो, जहां गतिशीलता हो। उद्यमशील व्यक्तित्व ही प्रतिरूप होता है भगवान् श्री नारायण का, जो प्रत्येक क्षण गतिशील है, पालन में संलग्न है, ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में संलग्न है। ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी गृहलक्ष्मी बनकर, संतान लक्ष्मी बनकर आय, यश, श्री कई-कई रूपों मे प्रकट होती है।

9. जो साधक गृहस्थ है, उन्हें अपने जीवन मे हवन को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए और प्रत्येक माह की शुक्ल पंचमी को श्री सूक्त के पदों से एक कमल गट्टे का बीज और शुद्ध घृत के द्वारा आहुति प्रदान करना फलदायक होता है।

10. आपने दैनिक जीवन क्रम में नित्य महालक्ष्मी की किसी ऐसी साधना - विधि को सम्मिलित करना है, जो आपके अनुकूल हो, और यदि इस विषय में निर्णय - अनिर्णय की स्थिति हो तो नित्य प्रति, सूर्योदय काल में निम्न मन्त्र की एक माला का मंत्र जप तो कमल गट्टे की माला से अवश्य करना चाहिए।
मंत्र: ॐ श्रीं श्रीं कमले कमलालाये प्रसीद प्रसीद मम गृहे आगच्छ आगच्छ महालक्ष्म्यै नमः

11. किसी लक्ष्मी साधना को आपने जीवन में अपनायें और उसे किस मन्त्र से संपन्न करे उसका उचित ज्ञान तो केवल आपके गुरुदेव के पास ही है, और योग्य गुरुदेव अपने शिष्य की प्रार्थना पर उसे महालक्ष्मी दीक्षा से विभूषित कर वह गृह्य साधना पद्धति स्पष्ट करते है, जो सम्पूर्ण रूप से उसके संस्कारों के अनुकूल हो।

12. अनुभव से यह ज्ञात होता है की बड़े-बड़े अनुष्ठान की अपेक्षा यदि छोटी साधानाए, मंत्र-जप और प्राण प्रतिष्ठायुक्त यंत्र स्थापित किए जाएं तो जीवन में अनुकूलता तीव्रता से आती है और इसमें हानि की भी कोई संभावना नहीं होती।

13. जीवन में नित्य महालक्ष्मी के चिंतन, मनन और ध्यान के साथ-साथ यंत्रों का स्थापन भी, केवल महत्वपूर्ण ही नहीं, आवश्यक है। श्री यंत्र, कनक धारा यंत्र और कुबेर यंत्र इन तीनों के समन्वय से एक पूर्ण क्रम स्थापित होता है।

14. जब कोई छोटे-छोटे प्रयोग और साधनाएं सफल न हो रही हों तब भी लक्ष्मी की साधना बार-बार अवश्य ही करनी चाहिए।

15. पारद निर्मित प्रत्येक विग्रह आपने आप में सौभाग्यदायक होता है, चाहे वह पारद महालक्ष्मी हो या पारद शंख अथवा पारद श्रीयंत्र। पारद शिवलिंग और पारद गणपति भी आपने आप में लक्ष्मी तत्व समाहित किए होते हैं।

16. जीवन में जब भी अवसर मिले, तब एक बार भगवती महालक्ष्मी के शक्तिमय स्वरूप, कमला महाविद्या की साधना अवश्य ही करनी चाहिए, जिससे जीवन में धन के साथ-साथ पूर्ण मानसिक शांति और श्री का आगमन हो सके।

17. धन का अभाव चिंता जनक स्थिति में पहुंच जाय और लेनदारों के तानों और उलाहनों से जीना मुश्किल हो जाता है, तब श्री महाविद्या साधना साधना करना ही एक मात्र उपाय शेष रह जाता है।

18. जब सभी प्रयोग असफल हो जाएं, तब अघोर विधि से लक्ष्मी प्राप्ति का उपाय ही अंतिम मार्ग शेष रह जाता है, लेकिन इस विषय में एक निश्चित क्रम अपनाना पड़ता है।

19. कई बार ऐसा होता है की घर पर व्याप्त किसी तांत्रिक प्रयोग अथवा गृह दोष या अतृप्त आत्माओं की उपस्थिति के कारण भी वह सम्पन्नता नहीं आ पाती, जो की अन्यथा संभव होती है। ऐसी स्थिति को समझ कर "प्रेतात्मा शांति" पितृ दोष शान्ति करना ही बुद्धिमत्ता है।

20. उपरोक्त सभी उपायों के साथ-साथ सीधा सरल और सात्विक जीवन, दान की भावना, पुण्य कार्य करने में उत्साह, घर की स्त्री का सम्मान और प्रत्येक प्रकार से घर में मंगलमय वातावरण बनाए रखना ही सभी उपायों का पूरक है क्योंकि इसके अभाव में यदि लक्ष्मी का आगमन हो भी जाता है तो स्थायित्व संदिग्ध रह जाता है।

Thursday, August 21, 2014

Seeker and master साधक और सदगुरु पहचान

Seeker and master (साधक और सदगुरु)
२१ तारीख है सद्गुरु की पहचान नए साधक केसे करे ?
आप को समझने के लिए ही सद्गुरु का उत्तर आप के लिए ...

प्रश्न: सदगुरु मिल गए। साधक को इसकी प्रत्यभिज्ञा, पहचान कैसे हो?
साधक और सदगुरु

साधक हो, तो क्षणभर की देर नहीं लगती। साधक ही न हो, तो प्रत्यभिज्ञा का कोई उपाय नहीं। प्यासा हो, तो पानी मिल गया--क्या इसे किसी और से पूछने जाना पड़ेगा? प्यास ही प्रत्यभिज्ञा बन जाएगी। कंठ की तृप्ति ही प्रमाण हो जाएगी।

लेकिन प्यास ही न हो, जल का सरोवर भरा रहे और तुम्हारे कंठ ने प्यास न जानी हो, तो जल की पहचान न हो सकेगी। पानी तो प्यास से पहचाना जाता है, शास्त्रों में लिखी परिभाषाओं से नहीं।

अगर साधक है कोई--साधक का अर्थ क्या है? साधक का अर्थ है कि खोजी है, आकांक्षी है, अभीप्सा से भरा है। साधक का अर्थ है, कि प्यासा है सत्य के लिए।

सौ साधकों में निन्यानवे साधक होते नहीं, फिर भी साधन की दुनिया में उतर जाते हैं। इससे सारी उलझन खड़ी होती है।

तुम्हें प्यास न लगी हो और किसी दूसरे ने जिसने प्यास को जानी है, प्यास की पीड़ा जानी है और फिर जल के पीने की तृप्ति जानी है, तुमसे अपनी तृप्ति की बात कही: बात-बात में तुम प्रभावित हो गए। तुम्हारे मन में भी लोभ जगा। तुमने भी सोचा, कि ऐसा आनंद हमें भी मिले, ऐसी तृप्ति हमें भी मिले। तुम यह भूल ही गए, कि बिना प्यास के तृप्ति का कोई आनंद संभव नहीं है।

उस आदमी ने जो तृप्ति जानी है, वह प्यास की पीड़ा के कारण जानी है। जितनी गहरी होती है पीड़ा, उतनी ही गहरी होती है तृप्ति। जितनी छिछली होती है पीड़ा, उतनी ही छिछली होती है तृप्ति। और पीड़ा हो ही न, और तुम लोभ के कारण निकल गए पानी पीने, तो प्यास तो है ही नहीं। पहचानोगे कैसे, कि पानी हैं?

शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार समझ लिया कि पानी होगा, तो हमेशा संदेह बना रहेगा। क्योंकि अपने भीतर तो कोई भी प्रमाण नहीं है। तुम्हारा कोई संसर्ग तो हुआ नहीं जल से। जलधार से तुम्हारे प्राण तो जुड़े नहीं। तुम तो दूर से ही दूर बने रहे हो। और तुम पानी पी भी लो बिना प्यास के और ठीक असली पानी हो, तो भी तो आनंद उपलब्ध न होगा। उलटा भी हो सकता है। कि वमन की इच्छा हो जाए, उलटी हो जाए।

प्यास न हो, तो पानी पीना खतरनाक है। भूख न हो, तो भोजन कर लेना मंहगा पड़ सकता है। सत्य को चाहा ही न हो, तो सदगुरु का मिलना खतरनाक हो सकता है।

सौ में से निन्यानवे लोग तो लोभ के कारण उत्सुक हो जाते हैं। उपनिषद गीत गाते हैं। दादू, कबीर उस परम आनंद की चर्चा करते हैं। सदियों-सदियों में मीरा और नानक, चैतन्य नाचे हैं। उनका नाच तुम्हें छू जाता है। उनके गीत की भनक तुम्हारे कान में पड़ जाती है। उन्हें देखकर तुम्हारा हृदय लोलुप हो उठता है। तुम भी ऐसे होना चाहोगे।

बुद्ध के पास जाकर किसका मन नहीं हो उठता, कि ऐसी शांति हमें भी मिले! लेकिन उतनी अशांति तुमने जानी है, जो बुद्ध ने जानी? वही अशांति तो तुम्हारी शांति का द्वार बनेगी। तुमने उस पीड़ा को झेला है, जो बुद्ध ने झेली? तुम उस मार्ग से गुजरे हो--कंटकाकीर्ण--जिससे बुद्ध गुजरे? तो मंजिल पर आकर जो वे नाच रहे हैं, वह उस मार्ग के सारे के सारे दुख अनुभव के कारण।

तुम सीधे मंजिल पर पहुंच जाते हो; मार्ग का तुम्हें कोई पता नहीं। मंजिल भी मिल जाए, तो मिली हुई नहीं मालूम पड़ती। और संदेह तो बना ही रहेगा।

इसलिए यह तो पूछो ही मत, कि सदगुरु मिल गए, इसकी साधक को प्रत्यभिज्ञा कैसे हो, पहचान कैसे हो?
सदगुरु की फिक्र छोड़ो। पहली फिक्र यह कर लो, कि साधक हो? पहले तो इसकी ही प्रत्यभिज्ञा कर लो, कि साधक हो?

अगर साधक हो, तो जैसे ही गुरु मिलेगा, प्राण जुड़ जाएंगे; तार मिल जाएगा। कोई बताने की जरूरत न पड़ेगी। अगर उजाला आ जाए, तो क्या कोई तुम्हें बताने आएगा, तब तुम पहचानोगे कि यह अंधेरा नहीं, उजाला है? अंधे की आंख खुल जाए, तो क्या अंधे को दूसरों को बताना पड़ेगा, कि अब तेरी आंख खुल गई, अब तू देख सकता है देख। आंख खुल गई, कि अंधा देखने लगता है। रोशनी आ गई कि पहचान ली जाती है, स्वतः प्रमाण है।

सदगुरु का मिलन भी स्वतः प्रमाण है। नहीं तो आखिर में तुम सवाल पूछोगे, कि जब परमात्मा मिलेगा तो कैसे प्रत्यभिज्ञा होगी, कैसे पहचानेंगे कि यही परमात्मा है? कोई जरूरत ही नहीं है।

जब तुम्हारे सिर में दर्द होता है, तब तुम पहचान लेते हो दर्द। और जब दर्द चला जाता है तब भी तुम पहचान लेते हो, कि अब सब ठीक हो गया--स्वस्थ। दोनों तुम पहचान लेते हो। जब प्राणों में पीड़ा होती है, तब भी तुम पहचान लेते हो; जब प्राण तृप्त हो जाते हैं, तब भी पहचान लेते हो।

नहीं, कोई प्रत्यभिज्ञा का शास्त्र नहीं है। जरूरत ही नहीं है।
लेकिन भूल पहली जगह हो जाती है। लोभ के कारण बहुत लोग साधना में प्रविष्ट हो जाते हैं। और अगर लोभ के कारण प्रविष्ट न हों, तो भय के कारण प्रविष्ट हो जाते हैं। वह एक ही बात है। लोभ और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कोई इसलिए परमात्मा की प्रार्थना कर रहा है कि डर हुआ है, भयभीत है। कोई इसलिए प्रार्थना कर रहा है कि लोभातुर है। पर दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। दोनों में कोई भी साधक नहीं है। साधक का तो अर्थ ही यह है, कि जीवन के अनुभव से जाना, कि जीवन व्यर्थ है। जीवन से गुजरकर पहचाना, कि कोई सार नहीं है। हाथ सिवाय राख लगी कुछ भी न लगा। सब जीवन के अनुभव देख लिए और खाली पाए; पानी के बबूले सिद्ध हुए। जब सारा जीवन राख हो जाता है, जो भी तुम चाह सकते थे, जो भी तुम मांग सकते थे, जो भी तुम्हारी वासना थी, सब व्यर्थ हो जाती है, सब इंद्रधनुष टूट जाते हैं, खंडहर रह जाता है जीवन का--उस अनुभूति के क्षण में खोज शुरू होती है, कि फिर सत्य क्या है? सब जीवन तो सपना हो गया। न केवल सपना, बल्कि दुख-सपना हो गया; अब सत्य क्या है?

जब तुम ऐसी उत्कंठा से भरते हो, तब गुरु को पहचानना न पड़ेगा। गुरु के पैरों की आवाज सुनकर तुम्हारे हृदय के घूंघर बज उठेंगे। गुरु की आंख में आंख पड़ते ही सदा के बंद द्वार खुल जाएंगे। गुरु का स्पर्श तुम्हें नचा देगा। उसका एक शब्द--और तुम्हारे भीतर ऐसी ओंकार की ध्वनि गूंजने लगेगी, जो तुमने कभी नहीं जानी थी। तुम एक नई पुलक, एक नए संगीत और नए जीवन से आपूरित हो उठोगे।

नहीं, कोई पहचानने की जरूरत न पड़ेगी। तुम पूछोगे नहीं। और सारी दुनिया भी कहती हो, कि यह आदमी सतगुरु नहीं तो भी कोई तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा तुम्हारे हृदय ने जान लिया। और हृदय की पहचान ही एकमात्र पहचान है।

इसलिए पहले तुम खोज कर लो, कि साधक हो? वहीं भूल हो गई, तो फिर मैं तुम्हें सारा शास्त्र भी बता दूं, कि इस-इस भांति पहचानना गुरु को, कुछ काम न आएगा।

क्योंकि जितने गुरु हैं उतने ही प्रकार के हैं। कोई परिभाषा काम नहीं आ सकती। महावीर अपने ढंग के हैं, बुद्ध अपने ढंग के, कृष्ण अपने ढंग के, क्राइस्ट अपने ढंग के, मुहम्मद की बात ही और है। सब अनूठे हैं। अगर तुमने कोई परिभाषा बनाई तो वह किसी एक ही गुरु के आधार पर बनेगी। और वैसा गुरु दुबारा पैदा होने वाला नहीं है। इसलिए तुम्हारी परिभाषा में कभी कोई गुरु बैठेगा नहीं।

जो गुरु पैदा होंगे, वे तुम्हारी परिभाषा में न बैठेंगे। और जिसकी तुम परिभाषा लेकर चल रहे हो, वह दुबारा पैदा नहीं होता। कहीं दुबारा बुद्ध होते हैं! कहीं दुबारा महावीर होते हैं! नाटक करना एक बात है, दुबारा महावीर होना तो बहुत मुश्किल है। अभिनय और बात है। रामलीला की बात मत उठाओ, राम होना बहुत मुश्किल है।

अगर तुमने किसी की परिभाषा पकड़ ली, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे क्योंकि उस परिभाषा को पूरा करने वाला दुबारा न आएगा। वह आ चुका और जा चुका। और जब वह आया था, तब तुम पहचान न सके क्योंकि तब तुम कोई दूसरी पुरानी परिभाषा लिए बैठे थे।

महावीर जब मौजूद थे, तब तुम्हारे पास कृष्ण की परिभाषा थी। महावीर बिलकुल बैठे न उस परिभाषा में। हिंदू-शास्त्रों ने महावीर का उल्लेख ही नहीं किया। इतना महिमावान पुरुष पैदा हुआ और इस देश का बड़े से बड़ा धर्म, इस देश की बहुसंख्या के शास्त्र उसका उल्लेख भी नहीं करते। क्या बात हो गई होगी? एक बार महावीर का नाम नहीं लेते। पक्ष की तो छोड़ दो, विपक्ष में भी कुछ नहीं कहते। प्रशंसा न करो, कम से कम निंदा तो करते!

नहीं, उतना भी ध्यान न दिया। परिभाषा में ही न बैठा यह आदमी। परमात्मा की परिभाषा उनकी और थी। उन्होंने देखा था कृष्ण को मोरमुकुट बांधे, यह आदमी नग्न खड़ा था। इससे कहीं मेल नहीं बैठता था। उन्होंने कृष्ण को देखा था बांसुरी बजाते। इस आदमी की अगर कोई बांसुरी थी, तो इतनी अदृश्य थी, कि किसी को दिखाई नहीं पड़ी। यह इस आदमी के पास कोई बांसुरी ही न थी, यह आदमी उनकी भाषा में कहीं आया नहीं। सब पुराने संकेतों, कसौटियों का कसा नहीं जा सका। तब महावीर चूक गए।

महावीर को जिन थोड़े से लोगों ने समझा, जिनकी प्यास थी, जिन्होंने पहचाना, जो बिना परिभाषा के पहचानने को राजी थे, वे वे ही लोग थे, जिनकी प्यास थी। अब वे दूसरी परिभाषा बना गए। अब उनके अनुयायी उस परिभाषा को ढो रहे हैं। अब बहुत अड़चन है। अगर वे मुझे बैठे इस कुर्सी पर देख लें, अड़चन है। महावीर कुर्सी पर कभी बैठे नहीं। यह आदमी गलत है। कपड़ा पहने देख लें, मुश्किल। क्योंकि महावीर तो नग्न थे। दिगंबरत्व तो लक्षण है।

अभी तो मुझे वे ही लोग पहचान सकते हैं, जिनकी प्यास है। और खतरा उनके साथ भी यही रहेगा, कि मेरे जाने के बाद वे कोई परिभाषा बना लेंगे, जो दूसरों को उलझाएगी क्योंकि फिर दुबारा कोई आता नहीं।

मेरी बात ठीक से समझ लो। जब तक तुम परिभाषा बनाते हो, आदमी चला जाता है। जब तुम्हारी परिभाषा बनकर तैयार हो जाती है, बिलकुल सुनिश्चित हो जाती है, तब दुबारा वैसा आदमी पैदा नहीं होता। धर्म की सारी विडंबना यही है। इसलिए तुम कृपा करो, परिभाषाएं मत पूछो। प्यास पूछो। अपनी प्यास टटोलो।

अगर प्यास न हो, धर्म की बात ही छोड़ दो। अभी धर्म का क्षण नहीं आया। अभी थोड़े और भटको। अभी थोड़ा और दुख पाओ। अभी दुख को तुम्हें मांजने दो। अभी दुख तुम्हें और निखारेगा। अभी जल्दी मत करो। अभी बाजार में ही रहो। अभी मंदिर की तरफ पीठ रखो। क्योंकि जब तक तुम ठीक से पीड़ा से न भर जाओ, लाख बार मंदिर आओ, आना न हो पाएगा। हर बार खाली हाथ आओगे, खाली हाथ लौट जाओगे।

मंदिर तो उसी दिन आओगे, जिस दिन बाजार की तरफ पीठ ही हो जाए। तुम जान ही लो कि सब व्यर्थ है। उस दिन तुम बाजार में बैठे-बैठे पाओगे, मंदिर ने तुम्हें घेर लिया। उस दिन तुम्हें गुरु खोजने न जाना पड़ेगा, वह तुम्हारे द्वार पर आकर दस्तक देगा। अपनी प्यास को परख लो।

मगर बड़ा मजा है, लोग प्यास का सवाल ही नहीं उठाते; पूछते हैं, सदगुरु की परीक्षा क्या? तुम अपनी परीक्षा कर लो। तुम तक तुम्हारी परीक्षा काफी है; उससे आगे मत जाओ। तुम्हें प्रयोजन भी क्या है सदगुरु से? तुम अपनी प्यास को पहचान लो। अगर प्यास है, तो तुम जल की खोज कर लोगे--करनी ही पड़ेगी मरुस्थल में भी आदमी जल खोज लेता है, प्यास होनी चाहिए।

और प्यास न हो, तो सरोवर के किनारे बैठा रहता है। जल दिखाई ही नहीं पड़ता। जल के होने से थोड़े ही जल दिखाई पड़ता है! भीतर की प्यास होने से दिखाई पड़ता है।

कभी उपवास करके बाजार गए? उस दिन फिर कपड़े की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सोने चांदी की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सिर्फ रेस्ट्रां, होटल! उपवास करके बाजार में जाओ, सब तरफ से भोजन की गंध आती मालूम पड़ती है, जो पहले कभी नहीं मालूम पड़ी थी। सब तरफ भोजन ही बनता हुआ दिखाई पड़ता है। वह पहले भी बन रहा था, लेकिन तब तुम भूखे न थे।

भूखे को भोजन दिखाई पड़ता है।

प्यासे को पानी दिखाई पड़ता है।

साधक को सदगुरु दिखाई पड़ जाता है।

Tuesday, August 12, 2014

Realization of God is possible only by the grace of Guru गुरु की कृपा से ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है।

गुरु की कृपा से ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है। गुरु ज्ञान की वह दिव्य ज्योति है जिसके द्वारा ही परमात्मा के दर्शन हो सकते है।
" मन के अंदर छिपे दुगुर्णो को दूर करने के लिये हमें गुरु की शरण लेनी चाहिए, क्योंकि गुरु का दर्जा परमात्मा से भी बड़ा होता है। क्योंकि गुरु ही ज्ञान की वह ज्योति होती है जिसके सहारे ही हमें परमात्मा की प्राप्ति संभव है। गुरु की कृपा के बिना किसी भी कार्य में सफलता हासिल नही होती है, चाहे वह परिवार में सुख-शांति की हो या फिर व्यापार में सफलता हासिल करने की हो। हर क्षेत्र में गुरु की कृपा आवश्यक होती है। कलयुग में भी गुरु कृपा के बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नही है। उन्होंने कहा कि हमें नियमित रूप से परमात्मा की साधना और भक्ति करनी चाहिए। ईश्वर साधना और भक्ति के बिना यह जीवन अधूरा है। गुरु की कृपा से भक्तों के सारे कष्टों को पल भर में ही दूर कर देता है।"

क्योकि गुरु ही साकार रूप मैं हमरे सामने होता है और वो हमारी सारी इच्छा पूरा करने मैं समर्थ है | इस लिए गुरु की किरपा अगर जीवन मैं हो गया तो सब कुच्छ मिल सकता है | पर गुरु भी देख समझ कर ही बनाना चहिये |
बिना जाने समझे गुरु बना लेने उस के बाद उस की निदा करना महा पाप कहा गया जो ऐसा करता है उसे कही शरण नहीं मिलती है | गुरु ही शिव है शिव ही गुरु है ऐसा मानने वाले ही मोक्ष के अधिकारी होते है | शिष्य बनाना जीवन की बहुत बड़ी उपलधि है | जिसे आप पैसे से नहीं खरीद सकते है ये बाज़ार मैं नहीं मिलती है | मैं आप को ये आशीर्वाद देता हूँ की आप के जीवन मैं साद गुरु मिले और और आप एक शिष्य बन सके |

Dr. Narayan Dutt Shrimali

जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, That humans are not the same, who Terrified of the system,

जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! 


तंत्र शास्त्र भारत की एक प्राचीन विद्या है। तंत्र ग्रंथ भगवान शिव के मुख से आविर्भूत हुए हैं। उनको पवित्र और प्रामाणिक माना गया है। भारतीय साहित्य में 'तंत्र' की एक विशिष्ट स्थिति है, पर कुछ साधक इस शक्ति का दुरुपयोग करने लग गए, जिसके कारण यह विद्या बदनाम हो गई।
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥
जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! गुरु गोरखनाथ के समय में तंत्र अपने आप में एक सर्वोत्कृष्ट विद्या थी और समाज का प्रत्येक वर्ग उसे अपना रहा था! जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझाने में केवल तंत्र ही सहायक हो सकता हैं! परन्तु गोरखनाथ के बाद में भयानन्द आदि जो लोग हुए उन्होंने तंत्र को एक विकृत रूप दे दिया! उन्होंने तंत्र का तात्पर्य भोग, विलास, मद्य, मांस, पंचमकार को ही मान लिया ।
“मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च, मकार पंचवर्गस्यात सह तंत्रः सह तान्त्रिकां”

जो व्यक्ति इन पांच मकारो में लिप्त रहता हैं वही तांत्रिक हैं, भयानन्द ने ऐसा कहा! उसने कहा की उसे मांस, मछली और मदिरा तो खानी ही चाहिए, और वह नित्य स्त्री के साथ समागम करता हुआ साधना करे! ये ऐसी गलत धरना समाज में फैली की जो ढोंगी थे, जो पाखंडी थे, उन्होंने इस श्लोक को महत्वपूर्ण मान लिया और शराब पीने लगे, धनोपार्जन करने लगे, और मूल तंत्र से अलग हट गए, धूर्तता और छल मात्र रह गया! और समाज ऐसे लोगों से भय खाने लगे! और दूर हटने लगे! लोग सोचने लगे कि ऐसा कैसा तंत्र हैं, इससे समाज का क्या हित हो सकता हैं? लोगों ने इन तांत्रिकों का नाम लेना बंद कर दिया, उनका सम्मान करना बंद कर दिया, अपना दुःख तो भोगते रहे परन्तु अपनी समस्याओं को उन तांत्रिकों से कहने में कतराने लगे, क्योंकि उनके पास जाना ही कई प्रकार की समस्याओं को मोल लेना था! और ऐसा लगने लगा कि तंत्र समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं।
परन्तु दोष तंत्र का नहीं, उन पथभ्रष्ट लोगों का रहा, जिनकी वजह से तंत्र भी बदनाम हो गया! सही अर्थों में देखा जायें तो तंत्र का तात्पर्य तो जीवन को सभी दृष्टियों से पूर्णता देना हैं!
जब हम मंत्र के माध्यम से देवता को अनुकूल बना सकते हैं, तो फिर तंत्र की हमारे जीवन में कहाँ अनुकूलता रह जाती हैं? मंत्र का तात्पर्य हैं, देवता की प्रार्थना करना, हाथ जोड़ना, निवेदन करना, भोग लगाना, आरती करना, धुप अगरबत्ती करना, पर यह आवश्यक नहीं कि लक्ष्मी प्रसन्ना हो ही और हमारा घर अक्षय धन से भर दे! तब दुसरे तरीके से यदि आपमें हिम्मत हैं, साहस हैं, हौसला हैं, तो क्षमता के साथ लक्ष्मी की आँख में आँख डालकर आप खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं यह तंत्र साधना कर रहा हूँ, मैं तुम्हें तंत्र में आबद्ध कर रहा हूँ और तुम्हें हर हालत में सम्पन्नता देनी हैं, और देनी ही पड़ेगी।
पहले प्रकार से स्तुति या प्रार्थना करने से देवता प्रसन्ना न भी हो परन्तु तंत्र से तो देवता बाध्य होते ही हैं, उन्हें वरदान देना ही पड़ता हैं! मंत्र और तंत्र दोनों ही पद्धतियों में साधना विधि, पूजा का प्रकार, न्यास सभी कुछ लगभग एक जैसा ही होता हैं, बस अंतर होता हैं, तो दोनों के मंत्र विन्यास में, तांत्रोक्त मंत्र अधिक तीक्ष्ण होता हैं! जीवन की किसी भी विपरीत स्थिति में तंत्र अचूक और अनिवार्य विधा हैं।
आज के युग में हमारे पास इतना समय नहीं हैं, कि हम बार-बार हाथ जोड़े, बार-बार घी के दिए जलाएं, बार-बार भोग लगायें, लक्ष्मी की आरती उतारते रहे और बीसों साल दरिद्री बने रहे, इसलिए तंत्र ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, कि लक्ष्मी बाध्य हो ही जायें और कम से कम समय में सफलता मिले! बड़े ही व्यवस्थित तरीके से मंत्र और साधना करने की क्रिया तंत्र हैं! किस ढंग से मंत्र का प्रयोग किया जायें, साधना को पूर्णता दी जायें, उस क्रिया का नाम तंत्र हैं! और तंत्र साधना में यदि कोई न्यूनता रह जायें, तो यह तो हो सकता हैं, कि सफलता नहीं मिले परन्तु कोई विपरीत परिणाम नहीं मिलता! तंत्र के माध्यम से कोई भी गृहस्थ वह सब कुछ हस्तगत कर सकता हैं, जो उसके जीवन का लक्ष्य हैं! तंत्र तो अपने आप में अत्यंत सौम्य साधना का प्रकार हैं, पंचमकार तो उसमें आवश्यक हैं ही नहीं! बल्कि इससे परे हटकर जो पूर्ण पवित्रमय सात्विक तरीके, हर प्रकार के व्यसनों से दूर रहता हुआ साधना करता हैं तो वह तंत्र साधना हैं।
जनसाधारण में इसका व्यापक प्रचार न होने का एक कारण यह भी था कि तंत्रों के कुछ अंश समझने में इतने कठिन हैं कि गुरु के बिना समझे नहीं जा सकते । अतः ज्ञान का अभाव ही शंकाओं का कारण बना।
तंत्र शास्त्र वेदों के समय से हमारे धर्म का अभिन्न अंग रहा है। वैसे तो सभी साधनाओं में मंत्र, तंत्र एक-दूसरे से इतने मिले हुए हैं कि उनको अलग-अलग नहीं किया जा सकता, पर जिन साधनों में तंत्र की प्रधानता होती है, उन्हें हम 'तंत्र साधना' मान लेते हैं। 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' की उक्ति के अनुसार हमारे शरीर की रचना भी उसी आधार पर हुई है जिस पर पूर्ण ब्रह्माण्ड की।
तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अन्तर्मुखी होकर साधनाएँ की जाती हैं। तांत्रिक साधना को साधारणतया तीन मार्ग : वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग व मधयम मार्ग कहा गया है।
श्मशान में साधना करने वाले का निडर होना आवश्यक है। जो निडर नहीं हैं, वे दुस्साहस न करें। तांत्रिकों का यह अटूट विश्वास है, जब रात के समय सारा संसार सोता है तब केवल योगी जागते हैं।
तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। यह एक अत्यंत ही रहस्यमय शास्त्र है ।
चूँकि इस शास्त्र की वैधता विवादित है अतः हमारे द्वारा दी जा रही सामग्री के आधार पर किसी भी प्रकार के प्रयोग करने से पूर्व किसी योग्य तांत्रिक गुरु की सलाह अवश्य लें। अन्यथा किसी भी प्रकार के लाभ-हानि की जिम्मेदारी आपकी होगी।
परस्पर आश्रित या आपस में संक्रिया करने वाली चीजों का समूह, जो मिलकर सम्पूर्ण बनती हैं, निकाय, तंत्र, प्रणाली या सिस्टम (System) कहलातीं हैं। कार है और चलाने का मन्त्र भी आता है, यानी शुद्ध आधुनिक भाषा मे ड्राइविन्ग भी आती है, रास्ते मे जाकर कार किसी आन्तरिक खराबी के कारण खराब होकर खडी हो जाती है, अब उसके अन्दर का तन्त्र नही आता है, यानी कि किस कारण से वह खराब हुई है और क्या खराब हुआ है, तो यन्त्र यानी कार और मन्त्र यानी ड्राइविन्ग दोनो ही बेकार हो गये, किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान, और समय का अन्दरूनी ज्ञान रखने वाले को तान्त्रिक कहा जाता है, तो तन्त्र का पूरा अर्थ इन्जीनियर या मैकेनिक से लिया जा सकता है जो कि भौतिक वस्तुओं का और उनके अन्दर की जानकारी रखता है, शरीर और शरीर के अन्दर की जानकारी रखने वाले को डाक्टर कहा जाता है, और जो पराशक्तियों की अन्दर की और बाहर की जानकारी रखता है, वह ज्योतिषी या ब्रह्मज्ञानी कहलाता है, जिस प्रकार से बिजली का जानकार लाख कोशिश करने पर भी तार के अन्दर की बिजली को नही दिखा सकता, केवल अपने विषेष यन्त्रों की सहायता से उसकी नाप या प्रयोग की विधि दे सकता है, उसी तरह से ब्रह्मज्ञान की जानकारी केवल महसूस करवाकर ही दी जा सकती है।
जो वस्तु जितने कम समय के प्रति अपनी जीवन क्रिया को रखती है वह उतनी ही अच्छी तरह से दिखाई देती है और अपना प्रभाव जरूर कम समय के लिये देती है मगर लोग कहने लगते है, कि वे उसे जानते है, जैसे कम वोल्टेज पर वल्व धीमी रोशनी देगा, मगर अधिक समय तक चलेगा, और जो वल्व अधिक रोशनी अधिक वोल्टेज की वजह से देगा तो उसका चलने का समय भी कम होगा, उसी तरह से जो क्रिया दिन और रात के गुजरने के बाद चौबीस घंटे में मिलती है वह साक्षात समझ मे आती है कि कल ठंड थी और आज गर्मी है, मगर मनुष्य की औसत उम्र अगर साठ साल की है तो जो जीवन का दिन और रात होगी वह उसी अनुपात में लम्बी होगी, और उसी क्रिया से समझ में आयेगा.जितना लम्बा समय होगा उतना लम्बा ही कारण होगा, अधिकतर जीवन के खेल बहुत लोग समझ नही पाते, मगर जो रोजाना विभिन्न कारणों के प्रति अपनी जानकारी रखते है वे तुरत फ़ुरत में अपनी सटीक राय दे देते है.यही तन्त्र और और तान्त्रिक का रूप कहलाता है.

तन्त्र परम्परा से जुडे हुए आगम ग्रन्थ हैं। इनके वक्ता साधारणतयः शिवजी होते हैं।
तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है - “तनोति त्रायति तन्त्र” । जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय "गुह्य या गूढ़ साधनाओं" से किया जाता रहा है।
तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है और साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्रचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं।

Saturday, July 12, 2014

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी About Swami Nikhileshwaranand ji

आप सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाए | हम सभी आपस मे प्रेम करे ज्ञान चर्चा करे और निखिल संदेश को जन जन तक पहुंचाए |


धरती सब कागद करूं, लेखनी सब बनराय। 
साह सुमुंद्र की मसि करूं, गुरू गुण लिखा न जाय़।।

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी About Swami Nikhileshwaranand ji

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी एक ऐसे उदात्ततम व्यक्तित्व हें, जिनके चिन्तन मात्र से ही दिव्यता का बोध होने लगता हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत को अपने भीतर समाहित किए हुए महात्मा हिरण्यगर्भ की तरह शांत और सौम्य हैं। व्यवहारिक क्षेत्र में स्वच्छ धौत वस्त्र में सुसज्जित ये जितने सीधे-सादे से दिखाई देते हैं, इससे हट कर कुछ और भी हैं, जो सर्वसाधारण गम्य नहीं हैं। साधनाओं के उच्चतम सोपान पर स्थित विश्व के जाने-मने सम्मानित व्यक्तित्व हैं। इनका साधनात्मक क्षेत्र इतना विशालतम है, कि इसे सह्ब्दों के माध्यम से आंका नहीं जा सकता। किसी भी
प्रदर्शन से दूर हिमालय की तरह अडिग, सागर की तरह गंभीर, पुष्पों की तरह सुकोमल और आकाश की तरह निर्मल हैं।

इनके संपर्क में आया हुआ व्यक्ति एक बार तो इन्हें देखकर अचम्भे में पड़ जाता हैं, कि ये तो महर्षि जह्रु की तरह अपने अन्तस में ज्ञान गंगा के असीम प्रवाह को समेटे हुए हैं।

पूज्य गुरुदेव ऋषिकालीन भारतीय ज्ञान परम्परा की अद्वितीय कड़ी हैं। जो ज्ञान मध्यकाल में अनेक-प्रतिघात के कारण अविच्छिन्न हो, निष्प्राण हो गया था, जिस दिव्य ज्ञान की छाया तले समस्त जाति ने सुख, शान्ति एवं आनंद का अनुभव किया था, जिसे ज्ञान से संबल पाकर सभी गौरवान्वित हुए थे। तथा समस्त विसंगतियों को परास्त करने में सक्षम हुए थे, जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों ने अपनी तपः ऊर्जा से सबल एवं परिपुष्ट करके जन कल्याण के हितार्थ स्वर्णिम स्वप्न देखे थे... पूज्यपाद सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी ने समाज की प्रत्येक विषमताओं से जूझते हुए, अपने को तिल-तिल जलाकर उसी ज्ञान परम्परा को पुनः जाग्रत किया है, समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर उन्होनें पुनः उस ज्ञान प्रवाह को साधनाओं के माध्यम से आप्लावित किया है। मानव कल्याण के लिए अपनी आंखों में अथाह करुणा लिए उन्होनें मंत्र और तंत्र के माध्यम से, ज्योतिष, कर्मकाण्डएवं यज्ञों के माध्यम से, शिविरों तथा साधनाओं के माध्यम से उन्होनें इस ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाया हैं।

ऐसे महामानव, के लिए कुछ कहने और लिखने से पूर्व बहुत कुछ सोचना पङता है। जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं। निखिल स्तवन के एक-एक श्लोक उनके इसी सन्यासी स्वरुप का वर्णन हैं।

बाहरी शरीर से भले ही वे गृहस्थ दिखाई दें, बाहरी शरीर से वे सुख और दुःख का अनुभव करते हुए, हंसते हुए, उसास होते हुए, पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए या शिष्यों के साथ जीवन का क्रियाकलाप संपन्न करते हों, परन्तु यह तो उनका बाहरी शरीर है। उनका आभ्यंतरिक शरीर तो अपने-आप में चैतन्य, सजग, सप्राण, पूर्ण योगेश्वर का है, जिनको एक-एक पल का ज्ञान है और उस दृष्टि से वे हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगीश्वर हैं, जिनका यदा-कदा ही जन्म पृथ्वी पर हुआ करता है।

एक ही जीवन में उन्होनें प्रत्येक युग को देखा है, त्रेता को, द्वापर को, और इससे भी पहले वैदिक काल को। उनको वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हैं, त्रेता के प्रत्येक क्षण के वे साक्षी रहे हैं।

लगभग १५०० वर्षों का मैं साक्षीभूत शिष्य हूँ, और मैंने इन १५०० वर्षों में उन्हें चिर यौवन, चिर नूतन एक सन्यासी रूम में देखा है। बाहरी रूप में उन्होनें कई चोले बदले, कई स्थानों में जन्म लिया, पर यह मेरा विषय नहीं था, मेरा विषय तो यह था, कि मैं उनके आभ्यन्तरिक जीवन से साक्षीभूत रहूं, एक संन्यासी जीवन के संसर्ग में रहूं और वह संन्यासी जीवन अपन-आप उच्च, उदात्त, दिव्य और अद्वितीय रहा हैं।

उन्होनें जो साधनाएं संपन्न की हैं, वे अपने-आप में अद्वितीय हैं, हजारों-हजारों योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, क्योंकि वे योगी उनके आभ्यन्तरिक जीवन से परिचित हैं, वे समझते हैं कि यह व्यक्तित्व अपने-आप में अद्वितीय हैं, अनूठा हैं, इनके पास साधनात्मक ज्ञान का विशाल भण्डार हैं, इतना विशाल भण्डार, कि वे योगी कई सौ वर्षों तक उनके संपर्क और साहचर्य में रहकर भी वह ज्ञान पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक वेद, पुराण , स्मृति उन्हें स्मरण हैं, और जब वे बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ब्रह्मा अपने मुख से वेद उच्चारित कर रहे हों, क्योंकि मैंने उनके ब्रह्म स्वरुप को भी देखा हैं, रुद्र स्वरुप को भी देखा है, और रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहां हू।

आज भी सिद्धाश्रम का प्रत्येक योगी इस बात को अनुभव करता है, की 'निखिलेश्वरानंद' जी नहीं है, तो सिद्धाश्रम भी नहीं है, क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी उस सिद्धाश्रम के कण-कण में व्याप्त है। वे किसी को दुलारते हैं, किसी को झिड करते हैं, किसी को प्यार करते हैं, तो केवल इसलिए की वे कुछ सीख लें, केवल इसलिए की वे कुछ समझ ले, केवल इसलिए कि वह
जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ले, और योगीजन उनके पास बैठ कर के अत्यन्त शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है, कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास बैठे हों, एक साथ हिमालय के आगोश में बैठे हों, एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समेटे हुए जो व्यक्तित्व हैं, उनके पास बैठे हों। वास्तव में 'योगीश्वर निखिलेश्वरानन्द' इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय
विभूति हैं।

राम के समय राम को पहिचाना नहीं गया, उस समय का समाज राम की कद्र, उनका मूल्यांकन नहीं कर पाया, वे जंगल-जंगल भटकते रहे। कृष्ण के साथ भी ऐसा हुआ, उनको पीड़ित करने की कोई कसार बाकी नहीं राखी और एक क्षण ऐसा भी आया, जब उनको मथुरा छोड़ कर द्वारिका में शरण लेनी पडी और उस समय के समाज ने भी उनकी कद्र नहीं की। बुद्ध के समय में जीतनी वेदना बुद्ध ने झेली, समाज ने उनकी परवाह नहीं की। महावीर के कानों में कील ठोक दी गईं, उन्हें भूकों मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने उनके महत्त्व को आँका नहीं।

यदि सही अर्थों में 'सदगुरुदेव जी' को समझना है, तो उनके निखिलेश्वरानन्द स्वरुप समझना पडेगा। इन चर्म चक्षुओं से उन्हें नहीं पहिचान सकते, उसके लिए, तो आत्म-चक्षु या दिव्या चक्षु की आवश्यकता हैं।

मैंने ही नहीं हजारों संन्यासियों ने उनके विराट स्वरुप को देखा है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च और अद्वितीय ब्रह्माण्ड स्वरुप मैंने उनका देखा है, और एहेसास किया है कि
वे वास्तव में चौसष्ट कला पूर्ण एक अद्वितीय युग-पुरूष हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पृथ्वी गृह पर आए हैं। मैं अकेला ही साक्षी नहीं हूं, मेरे जैसे हजारों संन्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि उन्हें अभूतपूर्व सिद्धियां प्राप्त हैं। भले ही वे अपने -आप को छिपाते हों, भले ही वे सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते हों, मगर उनके अन्दर जो शक्तियां और सिद्धियां निहित हैं, वे अपने-आप में अन्यतम और अद्वितीय हैं।

एक जगह उन्होनें अपनी डायरी में लिखा हैं --

"मैं तो एक सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करता रहा, लोगों ने मुझे भगवान् कहा, संन्यासी कहा, महात्मा कहा, योगीश्वर कहा, मगर मैं तो अपने आपको एक सामान्य मानव ही समझता हूँ। मैं उसी रूप में गतिशील हूं, लोग कहें तो मैं उनका मुहबन्द नहीं सकता, क्योंकि जो जीतनी गहराई में है, वह उसी रूप में मुझे पहिचान करके अपनी धारणा बनाता हैं। जो मुझे उपरी तलछट में देखता है, वह मुझे सामान्य मनुष्य के रूप में देखता हैं, और जो मेरे आभ्यंतरिक जीवन को देखता है, वह मुझे 'योगीश्वर' कहता है, 'संन्यासी' कहता है। यह उनकी धारणा है, यह उनकी दृष्टि है, यह उनकी दूरदर्शिता है। जो मेरी आलोचना करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, क्योंकि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबसे सर्वथा परे हूं।

मैंने कोई दावा नहीं किया, कि मैं दस हजार वर्षों की आयु प्राप्त योगी हूं, और न ही मैं ऐसा दावा करता हूं, कि मैंने भगवे वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में विचरण किया, हिमालय गया, सिद्धियां प्राप्त कीं, या मैं कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व या मैं कोई अद्वितीय कार्य संपन्न किया है। मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं और सामान्य मनुष्य की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।" डायरी के ये अंश उनकी विनम्रता है, यह उनकी सरलता है, परन्तु जो पहिचानने की क्षमता रखते हैं - उनसे यह छिपा नहीं है, के वे ही वह अद्वितीय पुरूष हैं, तो कई हजार वर्षों बाद पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
------योगी विश्वेश्रवानंद copy right MTYV

Saturday, July 5, 2014

Aab To Jag Guru Purnima Mahotsava Camp


अब तो जाग 

जीवन मैं सफलता सद्गुरु के सिवा कोई नहीं दे सकता है|चाहे भोतिक जीवन हो या अधय्त्मिक जीवन हो , मानव आदिकाल से ही सद्गुरु के असरे ही सब कुच्छ पता रहा है| आज हम जिस जीवन के आनंद को पाने के लिए सब कुच्छ कर रहे है, पर आनंद दूर दूर तक नजर नहीं आती है. झूठे सपने बन के रह गया है ?मानव को समझ ही नहीं आ रहा है भोतिकता की चकाचोध ने उसे अंधकार मैं ले कर खड़ा कर रहा है , उसे कुच्छ सूझ ही नहीं कर वो के करना चाहता है , उस की मंजिल कहा है, वो गुम हो गया है, भोतिकता की साडी चीज़े होते हूया भी , परेशान है , दुबिधा मैं जी रहा है, क्या करे क्या न करे, 

उस के पास पूरा परिवार भी है , समाज है , जीने के लिए सरे साजो सामान है 
किसी के पास नहीं भी है, पर उस का चिंतन हमेशा आनंद को पाने की लालशा बनी होई होती है, 

समय समय पर सिद्धास्रम के ऋषि यहाँ आते रहे है मानव को नया चिंतन देते रहे वेदों, (Upanishad )उपनिषद् के ज्ञान को सरलता से समझने की कोसिस किया और साधना का ज्ञान दिया, जिस मानव के जीवन मैं समस्त इच्छा पूर्ति के बाद उसे वो ज्ञान चिंतन मिल सके जिस के लिए उसे मानव जीवन मिला उसे सार्थक बना सके , और एस जीवन के कर्म बन्धन (माया) से दूर हो कर गुरुमय हो सके |

एस लिए गुरु के मिलने का एक उत्सव बनाया गया जो शिष्य के लिए परम ज्ञान को पाने के लिए गुरु से एकाकार हो सके उस उत्सव का नाम गुरु पूणिमा का नाम दिया गया, वेसे गुरु से कभी भी एकाकार हो सकते है, पर ये दिवश मैं जो विशेषता है उसे शब्दों मैं नहीं बताया जा सकता है,वो तो आप जाब गुरु से मिल के उन के सानिध्य मैं आपने आप को पुण्य विसर्जित करते होए आपने आंसुओ से उन के चरणों मैं समर्पित करते हूया सब कुच्छ दे देना ही गुरु पूणिमा का उत्सव बन जाता है, गुरु पूणिमा गुरु के लिए नहीं होता ! अपितु शिष्य के लिए होता है, एस लिए शिष्य एस महोत्सव की साल भर प्रतीक्षा करता है,
आब वो दिन आ रहा है आप जाग जाये और उस महोत्सव मैं सामिल होने के लिए सद्गुरु से मिलने के लिए छुटी के लिए आभी आवेदन कर ले और भारत से कोने कोने से शिष्य जाग जाये, और सद्गुरु से मिलने जाये 

"राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥"
11-12 July,Haridwar.अब की बार-हरिद्वार Click Here:http://youtu.be/1XVq4RcD8xU
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं।यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।व्यास जयन्ती ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। 
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

ये बहुत ही सोभाग्य होगा उन शिष्यों के लिए जो गुरु के प्रति समर्पित है

जो प्रेम मैं फ़ना होना जानते है, जो मिटना जानते है सही मायने मैं गुरुमय बन सकेगे |

आप का सिद्धास्रम साधक परिवार गुरु पूणिमा पर आप का इन्तजार करेगा आप ११,१२ जुलाई को त्रिमूर्ति गुरु से मिल कर आपनी समस्या को सुलझते हूए गुरुमय ,प्रेममय बन कर आनंद की प्राप्ति कर सके ऐसा ही सद्गुरु देव से निवेदन है

सिद्धास्रम साधक परिवार जोधपुर

Dikshas Granted by Pujya Gurudev

11-12 July 2014
SADHNA DATE CAMP (SHIVIR)
LOCATION & CONTACT

============================

Nikhil Mantra Vigyan

Guru Purnima Mahotsava Camp Shree Prem Nagar Ashram, Jwalapur Road, Haridwar, Uttarakhand

11-12 July 2014, Haridwar (UK)
Organisers
Ashok Khurana : 094160-84960

Gopal Ji : 098961-87061

Suresh Bhardwaj : 094160-31474

Ashok Sharma : 098888-39585

Avinash : 088728-10008

Rajneesh Sharma : 097799-74542

Dr.M.K. Tiwari : 098916-04043

Indra Pal Singh : 098183-83931
============================

Narayan Mantra Sadhana Vigyan

10-11-12 July 2014 Guru Purnima Sadhana Camp Ramadheen Singh Utsav Bhawan, Babu Ganj, Near I.T. Chowk, Lucknow, Uttar Pradesh

10-11-12 July 2014, Lucknow (UP)
Organisers
Ajay Kumar Singh : 9415116998

D.K. Singh : 9532040013

Pradeep Shukla : 94152-66543

Satish Tandon : 9336150802

Harish Chandra Pandey : 94544-12737

Jayant Mishra : 9125980014

Santosh Naik : 9125238618

T.N.Pandey : 9415342272

=============================

KAILASH SIDDHASHRAM -
PRACHEEN MANTRA YANTRA VIGYAN

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिल के आशीर्वाद से पूज्य कैलाश गुरूजी के दिव्य सानिध्य में "अहं ब्रम्हास्मि शक्ति गुरु पूर्णिमा महोत्सव" इनडोर स्टेडियम ,बूढ़ा तालाब , रायपुर ,छत्तीसगढ़ में सम्पन्न होगा ।

शिष्य पूर्णिमा के महापर्व पर स्वयं को अहं ब्रम्हास्मि शक्ति से युक्त करने हेतु इन्द्राक्षी धन वैभव लक्ष्मी दीक्षा , प्रत्यंगिरा उर्वशी आकर्षण दीक्षा , सर्व पीड़ा हरण संहार दीक्षा प्राप्त कर अपने आप को प्रेम ,हर्ष ,आनंद और हर्षयुक्त बनाने हेतु क्रियाए सम्पन्न होगी ।

सदगुरूदेव के निर्देशानुसार गुरुपूर्णिमा 12 जुलाई के दिन आप सभी प्रात: उठ जाए और स्नान आदि कर स्वच्छ वस्त्र धारण कर ब्रम्ह मुहूर्त में सदगुरुदेव का पूजन ,ध्यान-चिंतन करे । शिष्य पूर्णिमा के महापर्व पर स्वयं को अहं ब्रम्हास्मि शक्ति से युक्त करने हेतु अपने समस्त पाप दोषो के शमन हेतु प्रात:5:26 से 7:42 के बीच गुरुत्व ध्यान स्थिति में बैठ जाए सदगुरुदेव द्वारा आप सभी को ब्रम्ह वर्चस्व स्वरूप शिष्याभिषेक दीक्षा प्रदान की जाएगी | यदि किसी कारणवश आप शिविर में नहीं आ पा रहे है तब भी आप अपने घर के पूजा स्थान में यह क्रिया सम्पन्न करें । आप स्वयं महसूस करेंगे की सदगुरुदेव की ऊर्जा ,चेतना आप में व्याप्त हो रही है ,आपके जीवन में धीरे-धीरे अनुकूलता आ रही है ।

न्यौछावर -1100/-

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें -
0291-2517025, 07568939648, 08769442398

Kailash Siddhashram, Delhi (91) 11-27351006

GIVE ME FAITH AND DEVOTION, AND I WILL GIVE YOU FULFILMENT & COMPLETENESS 

- ParamPujya Pratahsamaraniya Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji

Thursday, May 8, 2014

वास्तव मैं युग पुरुष हैं? Do Men Really era?

अब वक़्त आ गया हैं की मैं एक भारतीये होने के खातिर उन गुर रहस्यों को उज्जागर करूँ जो यह बताती हैं की हम भारतीये कितने महान थें ?और अब क्या हो गये हैं…?
मैं आपके सामने वोह सभी मंत्र तंत्र यन्त्र रख दूंगा जो आपके जीवन को पलट कर के रख देगी ..याकिन मानिये मेरा,,,,और यह सबका श्रेय मैं अपने प्रेयसी डॉ नारायण दत्त श्रीमाली को देता हूँ …तो वास्तव मैं युग पुरुष हैं ,,,,और याद रखे यह ऋषियों की वाणी हैं ,,,,तो आत्मसात कर ले इन्हें
जय गुरुदेव!
क्या आप मंत्र, तंत्र, यन्त्र के नाम से घबराते हैं, क्या आप जानते हैं कि तंत्र हमारे देश की सर्वश्रेष्ठ विधा हैं, जिसका उपयोग जितने भी महापुरुष, ऋषि, आदि हुए हैं, सभी ने ही किया हैं.
चाहे वे श्री राम हो, श्री कृष्ण हो, बुद्ध, शंकराचार्य, गोरखनाथ, हर व्यक्तित्व ही तंत्र का जानकर था….
आइये जानते हैं कुछ खास बातों को….
सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंदजी महाराज (पूज्य सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के शब्दों में, जो हर क्षेत्र के अद्वितीय व्यक्तित्व हैं..
जिनका नाम ही हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ माना जाता हैं…
जानिए हमारी ऋषियों की संस्कृति को.
मंत्र-तंत्र-यन्त्र
विज्ञान
वशिष्ठ ने कात्यायनी से कहा : “यदि तुम्हें जीवन में आनंद प्राप्त करना हैं, सब्भी रोगों से मुक्त होना हैं, चिरयौवनमय बने रहना हैं और सिद्धाश्रम के मार्ग में पूर्णता प्राप्त करनी हैं तो तुम्हें मंत्र-तंत्र और यंत्र का समन्वय करना होगा!” और कात्यायनी ने वशिष्ठ को पति नहीं गुरु रूप में स्वीकार कर ऐसा किया और अपने जीवन को उच्चता पर पहुँचाया!
इसलिए जीवन में मंत्र-तंत्र-यंत्र का परस्पर सम्बन्ध हैं, इनके द्वारा ही जीवन ऊपर की और उठ सकता हैं! मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान का प्रकाशन ही इसलिए किया हैं…. कोई आवश्यकता नहीं थी, मगर आवश्यकता इस बात की थी कि इस समय सारा संसार भौतिक बंधनों में बंधा हुआ हैं, और बन्धनों में बंधने के कारन व्यक्ति अन्दर से छटपटाता रहता हैं, वह चाहता हैं मैं मुक्त हवा में साँस ले सकूँ, मैं कुछ आगे बढ़ सकूँ, मैं जीवन में बहुत कुछ कर सकूँ….. मगर इसके लिए कोई रास्ता नहीं हैं, उसको कोई समझाने वाला नहीं हैं!
ऐसी स्थिति में पत्रिका का प्रकाशन किया गया और इस पत्रिका में मंत्र-तंत्र और यंत्र तीनों का समन्वय किया गया हैं! इसमें उच्चकोटि के मंत्रों का चिंतन दिया गया हैं! यह पत्रिका केवल कागज के कोरे पन्ने नहीं हैं! यदि बाजार से कागजों का एक बण्डल लाया जायें, तो वह सौ रूपये में प्राप्त हो सकता हैं, मगर जब उन कागजों पर उच्चकोटि के मंत्र और साधना विधियां लिख दी जाती हैं, तो वह पुस्तक अमूल्य हो जाती हैं! ज्ञान को मूल्य के तराजू में नहीं तौला जा सकता, ज्ञान को इस बात से भी नहीं देखा जाता हैं कि इस पत्रिका का मूल्य पांच रूपये या पच्चीस रूपये हैं, ज्ञान का मूल्य तो अनन्त होता हैं!
इसलिए हमने इस श्रेष्ठतम पत्रिका का प्रकाशन किया! इसके माध्यम से हम अपने पूर्वजों के ज्ञान को, पूर्वजों के साहित्य को, जो लुप्त होता जा रहा हैं, जो समाप्त होता जा रहा हैं, उसे सुरक्षित कर सकें, क्योंकि कुछ समय और बीत गया, तो हम इन मंत्रों के, तंत्रों के बारे में कुछ जान ही नहीं सकेंगे! उन सबको सुरक्षित रखने के लिए इस पत्रिका का प्रकाशन किया…… इसके पीछे कोई व्यापर की आकांक्षा और इच्छा नहीं हैं, इसके पीछे जीवन का कोई ऐसा चिंतन नहीं हैं कि इसके माध्यम से धनोपार्जन किया जायें, चिंतन तो इस बात के लिए हैं कि हम पूर्वजों की थाती को, पूर्वजों के ज्ञान को सुरक्षित रख सकें!
और पिछले कई वर्षों से इस पत्रिका का प्रकाशन इस बात का प्रमाण हैं कि आज भी समाज में चेतना हैं, जो इस प्रकार का ज्ञान चाहती हैं! अगर नहीं चाहती, तो पत्रिका कभी भी बंद हो चुकी होती! ऐसे व्यक्ति हैं जो इस प्रकार की साधनाओं के लिए लालायित हैं, उनको इस प्रकार की साधनाएं देने के लिए, वे समयानुसार किस प्रकार की साधनाएं करें , उनको मार्गदर्शन देने के लिए ही इस पत्रिका का प्रकाशन किया गया हैं!
और सही कहूँ तो यह पत्रिका नहीं कलयुग की श्रीमदभगवदगीता हैं, जिसका एक-एक पन्ना आने वाले समय के लिए, आने वाली पीढ़ी के लिए धरोहर हैं, उच्चता तक ले जाने की सीढ़ी हैं!
-पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी.
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान.