Tuesday, January 13, 2015

NARAYAN MANTRA SADHANA VIGYAN, GURUDHAM JODHPUR Feb 2015

NARAYAN MANTRA SADHANA VIGYAN, GURUDHAM JODHPUR


मैं आपको बगावत करना सीखा रहा हूँ !
शायद आपको मेरी बात तीखी लगे ,शायद आपको मेरी बात क्रोधमय हो गई हैं !
मगर जो क्रोध नही करता हैं उससे घटिया कोई आदमी नहीं होता, सबसे मरा हुआ जीव होता हैं जिसे क्रोध आता ही नही !
और हमारा देश बर्बाद इसलिए हो गया कि अहिंसा परमो धर्म : कोई थप्पड़ मारे तो दो चार थप्पड़ और खा लीजिये !
मैं कहता हूँ कि थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठे उससे पहले चालीस थप्पड़ मार दीजिये !
मैं आपको यह कह रहा हूँ काहे को हम थप्पड़ खाएं ?
जो लात मारता ,हैं वह जीतता ,यह ध्यान रखिये !
कोई लात लगा देगा तो दूसरा गिर जाएगा, दूसरा लात लगेगी तो उठेगा ही नहीं ! उसको 2 चार थप्पड़ और पड़ेंगे तो वह कहेगा गलती हो गई !
और तुम हाथ जोड़ो तो तुम्हारी हार निश्चित हैं !
गांधी जी ने यह कह दिया अहिंसा परमो धर्म :उस जमाने में जरूरी होगा ,यह उनकी धारणा थी विचार था ! उस जमाने में बुद्ध ने जो कहा सत्य कहा होगा !
मगर वह उस जमाने में था आज वह चीज नहीं ! उस समय बम विस्फोट नही हो रहे थे ,उस समय गोलिया नही चल रही थी Ak-47 रायफल उस समय नही थी आज वर्तमान में बच्चो के हाथो में भी यह सब हैं !
जहाँ भी व्यक्ति अपने धर्म को भूल जाएगा ,जब भारत की हानी होने लगेगी, जब भारत के टुकड़े होने की स्थिति हो जाएगी आर्यावर्त के टुकड़े होने संभावनाए तेज हो जाएंगी तब तब एक व्यक्ति पैदा होगा जो अपने शिष्यों को ज्ञान चेतना देगा ! उनको अहसास कराएगा कि तुम कायर नहीं हो ,बूढ़े नही हो ,तुममे ताकत हैं क्षमता हैं !
अत :आप सभी तैयार होना हैं अर्जुन बनाना होगा आप अपने जीवन में उच्च साधनाए ,आत्मसात कर सके ,ऐसा मैं आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूँ !
~सदगुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद !

Identify your character !! अपने स्वरूप को पहचानिए !!

यदि आप मरना = माने अपने साथ सब ख़त्म हो जाना ) सोचते हैं तो आप बहुत भारी भ्रम में जी रहे हैं , क्योंकि मरने पर तो अगले जीवन की शुरुआत होती है !!
.......अपने स्वरूप को पहचानिए !!
जो अपने इस वास्तविक, नित्य , अमर-स्वरूप को अनुभव करता है , वो दरअसल मरता ही नहीं !!
.........यही मृत्युंजय बनना है !!!
जो मृत्यु को जीत लेता है , वही अभय पद प्राप्त करता है !!!
आपको जान कर आश्चर्य होगा -ये सब आसानी से जीते- जी प्राप्त हो सकता है !!!
....बस आपको जरूरत है तो एक सही संगत की !!!

काम ।क्रोध।मद ।मोह।और लोभ छोड़ने के चक्कर में रहेंगे ।तो ये जीवन भर नहीं छुटता ।छोड़ना भी पकड़ने जैसा ही है ।क्योकि स्मरण पहले बनता था ।ये विकार है अब स्मरण बनी रहेगी छोड़ना है।
है वही के वाही ।एक उपाय है नाम जाप या मन्त्र जाप करते रहने से इन विकारो को पकड़ने और छोड़ने की बात नहीं चलती ये स्वतः ही समाप्त हो जाते है।
वो कहते है न पायोजी मैंने राम रतन धन पायो।बस्तु अमोलक दिन्ह मेरे सतगुरु विरथा कुछ छोड़ना पकड़ना नहीं है ।वस उनकी स्मरण बनी रहे ।

I am in love You मैं तुम्हें अत्यधिक प्रेम करता हूं

जीवन का लक्षय प्राप्त किये बिना ही जीवन बीत गया। अभी भी समय है, उठो,जागो
भक्त से शिष्य बनने का सद्अवसर है , उठो,जागो सोचो मत।
केवल "पुरूशार्थ करो, केवल "पुरूशार्थ
बिना कुछ किये ही आशीर्वाद मत मांगो। तुम मेरे हो, अतिशय प्रिय हो। मैं तुम्हें अत्याधिक प्रेम करता हूं।

पल प्रतिपल तेरी हर प्रकार से सहायता करने को तत्पर हूं। आज से, अभी से
अब तो मेरे आश्वासन का, मेरी कृपा का एवं इस अनमोल अवसर का सदुपयोग करो। मैं हर प्रकार से तुम्हारे साथ हूँ। सांसारिक सुख के पीछे मत भटकते रहो,उसकी चाह को ही मिटा दो।
अविनाशी सुख, परम शांति अर्थात परमानंद की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है। तू एक बूंद पानी, मेरा ही अंश, मुझ अंशी सागर को प्राप्त हो।
यही है मिलन, जीव का अपने घर लौटना। जल्दी करो। मैं दोनो नही, असंख्य हाथ... बांहे फैलाये तेरी प्रतीक्षा कर रहा हूं।
मेरा ह्रदय तेरे लिये व्याकुल है, मिलन के लिये तड़प रहा है। जल्दी लौट आओ।

अगर आप दुनिया की भीड़ से बचना चाहते हो बस एक काम करना, प्रेमके रास्ते पर
चलना शुरू कर देना। यहाँ बहुत कम भीड़ है और इस रास्ते पर चलने के लिए हर कोई तैयार नहीं होता। यद्यपि व्यर्थ के लोगों से बचने के और भी कई तरीके हैं मगर प्रेम पर चलने से व्यर्थ अपने आप छूट जाता है और श्रेष्ठ प्राप्त हो जाता है।
गलत दिशा की ओर हजारों कदम चलने की अपेक्षा लक्ष्य की ओर चार कदम चलना कई
गुना महत्वपूर्ण है। तुम प्रेम को जितना जल्दी हो चुन लो ताकि परम प्रेम भी तुम्हें चुन सके।
प्रेम के मार्ग पर चलना ही सबसे बड़ा साहसिक कार्य है। प्रेम के मार्ग पर चलने ही सृजन
होता है। प्रेम के मार्ग पर चलने से ही आत्मा का कल्याण होता है। हो सकता है
प्रेम से सत्ता ना मिले पर सच्चिनानंद अवश्य मिल जाता है।

When you come out of vanity? आपने घमंड से कब बाहर आओगे ?



अब अपनी बुद्धि को किनारे रख दो l अब बहुत हो गया तुम कितनी भी खोपड़ी खुजा लो , अब तुम्हारी समझ में कुछ आने वाला नहीं l मैंने जितना समझाना था समझा दिया l मै तो अपना काम कर ही लूँगा l तुम अपनी सोचो l बड़े चालाक बनते हो , बहुत बुद्धि लगाते हो l कुछ भी कर लो अपनी बुद्धि से मेरे खेल को नहीं समझ सकते l अरे मै तो जिसे चाहूं समझा दूँ , जिस भाषा में चाहूँ समझा दूं लेकिन पहले तुम अपना अहंकार तो छोड़ो l खुद को बहुत बुद्धिमान समझते हो ,सोचते हो तुम्ही बस सही हो और बाकी सब गलत l अरे अपनी बुद्धि और घमंड से बाहर आओगे तब दुनिया देखोगे l अभी तुमने देखा ही क्या है l
पूरे देश के लोग मुझे सुनते हैं चाहे किसी भी भाषा को बोलने वाले क्यूँ न हों l सब समझते हैं मेरी बात l तो तुम ये न जानो कि मैं किसी को समझा नहीं सकता l जब मेरे बच्चे निकल पड़ेंगे तो तुम्हारी बुद्धि फेल हो जाएगी l तब समझ ही नहीं आएगा कि क्या सही और क्या गलत l जिसे पीछे लगना है वो मेरे पीछे लग चुका है l मेरा सारा काम हो रहा है l कोई इसे रोक नहीं सकता l l तुम्हारा बना कुछ नहीं, बिगड़ जरुर गया l मैं अपनी संख्या पूरी कर लूँगा l तुम क्या समझते हो मेरे जीवों को तोड़कर अपना बना लोगे l अरे! काल का ग्रास तो तुम्हें बनना ही होगा l अब बहुत हो गया l तुमने जो करना था कर लिया l अब मैं करूँगा l
मेरे अपने बच्चे मेरे साथ हैं और मेरा काम कर रहे हैं l अब ये बोध में आ चुके हैं l इन्हें बच्चा समझने की भूल मत करना l इनके पास वो अपार शक्ति है जो ऊपर से आती है l
मेरे सत्संग वचनों को तुमने बहुत सुना किन्तु गुना नहीं l यदि एक भी वचन ढंग से पकड़ लेते तो आज गिरते नहीं l खुद को बड़ा ऊंचा जीव समझते हो , कुछ दिखाई सुनाई तो देता नहीं l अहंकार में दूसरे की सुनते नहीं l अब तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता l जब घमंड छोड़ोगे तभी कुछ समझ आएगा l जो साधक हैं वो सब जानते हैं l वो तुम्हें भेद बता सकते हैं , मुझसे मिलवा सकते हैं l साधकों की सुनने के लिए दीनता जरूरी है l दीनता होगी तो उनसे पूछ लोगे , नहीं तो घमंड में बैठे रह जाओगे l अब आगे तुम जानो तुम्हारा काम जाने l
मेरे गुरु महराज ने इसी समय के लिए कहा था कि पीछे मुड़कर नहीं देखना l कोई गिर जाएगा तो अब उसे उठाने का वक़्त नहीं है l
सच्ची साधना में लगे रहो l अभी काम आगे बहुत करना है l जो नए लोग आयेंगे उन्हें बताना समझाना है l जो नए हैं वो कर ले जायेंगे ,पुराने अपने को पुराना समझ बैठे ही रहेंगे
अब मेरे पास वक़्त ज्यादा नहीं है l तुम लोगों को लग कर काम करना होगा l मेरी बात को ध्यान से सुनना l संकेत तो मैं बहुतों को देता हूँ पर सब बुद्धि लगाते हैं इसलिए कुछ समझ नहीं पाते l जब समर्पण का भाव होगा तो धीरे धीरे सब समझ आ जायेगा l
मैं कोई शरीर नहीं हूँ , न ही तुम लोग मेरे लिए शरीर हो l तुम तो वो सुरतें हो जिन्हें मैंने कई जन्मों से अपने साथ जोड़ रखा है l तुम्हें शरीर देता रहा ताकि तुम उससे अपना काम कर सको l मेरे लिए मेरा शरीर सिर्फ एक मर्यादा है , तुम्हारे समीप रहने का l मेरे शरीर से प्रेम मत करो, मुझसे करो , वैसे ही जैसे मैं अपनी सुरतों से करता हूँ l तुम सब मेरे बच्चे हो l जब मेरे जीवों को कष्ट होता है तो मुझे दुःख होता है l मैं चाहता हूँ तुम्हारा कष्ट सदा के लिए मिट जाए और तुम अपने धाम चले जाओ l
सतगुरु के मिलने के लिए तड़प जरुरी होती है जिन्हें तड़प होती है वो मुझतक पहुँच ही जाते हैं l मार्ग मैं बना देता हूँ l अब भी संभल जाते हो तो ये मदद कर देंगे l बाद में पछताना पड़ेगा l समय रहते काम कर लो तो अच्छी बात है l तुम्हारा भी काम हो जाएगा और मेरा भी l तुम तो सिर्फ दिखावा करते हो l भाव एक कौड़ी का नहीं और चाहते हो घर बैठे सब मिल जाए l ऐसा नहीं होता l वो तुम्हारी मेहनत लगन और भाव के बदले ही कुछ देता है l मुझे तो अपना काम करना ही है , तुम नहीं कोई और सही पर अब काम रुकने वाला नहीं है l
जिसने जिसने जो भविष्यवाणीयां की वो सब मैंने काट दी l तुम सोचते हो मेरी नक़ल कर कुछ पा लोगे तो वो संभव नहीं l अब मैं ऐसा नहीं होने दूंगा l जब आऊंगा तो विश्व हिलाकर रख दूंगा l तब समझ जाना मेरा काम चरम पर है l मेरे ये बच्चे बहुत शक्तिशाली हैं l जो खून इनकी रगों में दौड़ रहा है वो गरम है l इसी गर्म जोशी में सब काम कर ले जायेंगे l जब तुम पीछे रह जाओगे तब तुम्हें दुःख होगा l याद आएगा कि इसने बताया समझाया था |
श्री सदगुरुजी चरनार्पणमस्तू

GoD comes in the form of the master himself परमपिता स्वयं गुरु का रूप धारण कर के आता है



परमपिता स्वयं गुरु का रूप धारण कर के आता है
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जब परमपिता परमात्मा हमारी फिल्म बनाता है तो हमारे इस जन्म का बजट पूंजी देखता है की कितनी है और वह फिल्म पूरी करता है । फिर वह हमारे पिछले जन्म में किये गए पाप - पुण्य के आधार पर जीवन की स्टोरी लिखता है ।
हमारे पूर्व कर्मों के कारण ही हमें सुख - दुःख मिलते है । कोई भी निर्देशक ये नहीं चाहता की उसकी फिल्म सफल न हो सभी ये चाहते की फिल्म को पसंद करें और उसकी यादें उनके दिल में बसी रहे । फिर हम उस परमपिता परमात्मा जो हम सबके जीवन की फिल्म का निर्देशक है उस पर क्यों इल्जाम लगाते है की वह हमारे जीवन की फिल्म दुःख से भरी बना रहा है । देखो जब हम कोई फिल्म या नाटक देखते है तो उसमे जब नायक या नायिका के साथ गलत होता है तो हमें बुरा लगता है लेकिन फिल्म का निर्देशक जानता है की इन मुस्किल परिस्थितयों के साथ लड़ते हुए नायक या नायिका का चरित्र उभर कर आएगा और अंत में नायक जीतेगा तो सब लोग खुश हो जाएंगे और बीच की सारी मुस्किल परिस्थियों आने का कारन समझ जायेंगे की ये सब निर्देशक ने फिल्म को रोमांचक बनाने के लिए किया था ।
निर्देशक लोगों को फिल्म के प्रति खींचने के लिए फिल्म में संगीत डालता है जिसकी धुन में मस्त होकर लोग सिनेमा में खींचे चले आते हैं ।
ऐसे ही परमपिता ने मनुष्य को अपने निजधाम में लाने के लिए मनुष्य के अंदर नाद, धुन, रखी हुई है । इस को पकड़ कर हम पहुँच सकते है ।
हमें अपने निज धाम ले जाने के लिए वो सच्चा निर्देशक परमपिता स्वयं गुरु का रूप धारण कर के आता है और हमें उस धुन का ज्ञान देता है । जैसे फिल्म से पहले उस फिल्म में काम करने वालों के नाम स्क्रीन पर आते है ऐसे ही गुरु हमें ऊपर के मंडल में काम करने वाली शक्तियों के नाम व् उनकी पहचान हमें बताते है ।
फिल्म का आखरी हिस्सा सबसे महत्वपूर्ण होता है किसी ने सच ही कहा है की ' अंत भला तो सब भला ' ऐसे ही अगर हमारे जीवन के अंत समय में हमारा ध्यान गुरु के चरणों में लगा रहता है तो हमारी आत्मा उस परमपिता परमात्मा में जा मिलती है जहाँ पहुंचकर फिर जन्म मरण नहीं होता ।










अब मेरी बात मान लो | अब नहीं सुनोगे तो कब सुनोगे | अब तो समय ख़त्म होने जा रहा है | बाद में पछताओगे | जिन्होंने मुझे चाहा उन्होंने मुझे पा लिया | तुम्हें अगर नहीं मिला तो कुछ न कुछ तो कमी थी | अपनी कमी पहचान लोगे तो सब ठीक हो जायेगा | वैसे भी अब मैं किसी के लिए बैठने वाला नहीं हूँ | मुझे तो अपना काम करना ही है | तुम आ जाओगे तो अच्छा होगा , नहीं तो जिसे चलना है वो साथ चल रहा |
ये मन बड़ा बैरी है | इसे रस नहीं मिलता तो इस पर विकार अत्यधिक हावी हो जाते हैं | अहंकार ईर्ष्या द्वेष और सर्वाधिक मान सम्मान जागृत होता है | ये तुम्हें सतगुरु मिलन से रोक देता है |
तुम ये न समझो की तुम इससे अछूते हो | ये तुम पर भी कार्य करने की कोशिश करता है और तुम्हें भी गिराने का पूरा प्रयास करता है | एक साधक को सदैव सचेत रहना पड़ता है | ये तुम्हारे लिए चेतावनी है | संभल कर रहो |
|| बड़ा बैरी ये मन घट में , इसी को जीतना कठिना ||
मैंने जितने को लिया था उसमे से बहुत कम ही आ पाये | अगर तुम आ जाओगे तो तुम्हारा ही भला होगा | अपनी गिनती मैं बाहर से पूरी कर रहा हूँ | मुझे अपना काम करने से कोई नहीं रोक सकता | मैं तो अपना काम कर लूँगा , तुम अपनी तो सोचो |
अब काम पूरा करने के लिए इंतज़ार नहीं करूँगा |
अब सब बढे चलो | आगे आगे चलो | तुम सबके लिए ही तो मैं आया था |




दुनिया में कोशिश करके तो देख :
... रोक सकता है तू लहरों को, .. लौटा सकता है तू तूफ़ां को,
यह दुनिया जो कोसती है रात-दिन तुझे,
सीने से लगायेगी एक दिन, ...... कोशिश करके तो देख
क्यूँ फंसता है संभव-असंभव के फेर में,
कर सकता है सब कुछ, ...... कोशिश करके तो देख
मुसीबतें खड़ी है जो सीना ताने तेरे सामने,
सर झुकायेगी एक दिन, ....... कोशिश करके तो देख
अपनों की दूरियाँ क्यों कचौटती हैं तुमको,
दुश्मन भी हाथ मिलायेंगे, ..... कोशिश करके तो देख
ग़म के अंधियारे तो खुद डरते हैं तुझसे,
उजाले की बस एक किरण, तू लाकर तो देख
कर सकता है सब कुछ, ....कोशिश करके तो देख !!

Saturday, October 4, 2014

Papankusha ekadashi Sadhana पापांकुशा एकादशी साधना,



http://mantra-tantra-yantra-science.blogspot.in/2011/11/papankusha-sadhana.html

हर मनुष्य को मृत्यु के बाद नरक में जाने का भय सताता है। तो उस भय से मुक्त हो जाइए और अपने द्वारा किए हुए पाप कर्मों से मुक्ति पाइए। पापांकुशा एकादशी का व्रत रख कर भयमुक्त जीवन का आनंद लीजिए और स्वर्ग जाने का मार्ग पाइए।

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पापांकुशा एकादशी कहते हैं। इस एकादशी का महत्व भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर को बताया था। इस एकादशी पर भगवान पद्मनाभ की पूजा की जाती है। इस बार यह एकादशी 4 अक्टूबर है|

धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! आश्विन शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? अब आप कृपा करके इसकी विधि तथा फल कहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे युधिष्ठिर! पापों का नाश करने वाली इस एकादशी का नाम पापांकुशा एकादशी है। हे राजन! इस दिन मनुष्य को विधिपूर्वक भगवान पद्‍मनाभ की पूजा करनी चाहिए। यह एकादशी मनुष्य को मनवांछित फल देकर स्वर्ग को प्राप्त कराने वाली है।

मनुष्य को बहुत दिनों तक कठोर तपस्या से जो फल मिलता है, वह फल भगवान गरुड़ध्वज को नमस्कार करने से प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य अज्ञानवश अनेक पाप करते हैं परंतु हरि को नमस्कार करते हैं, वे नरक में नहीं जाते। विष्णु के नाम के कीर्तन मात्र से संसार के सब तीर्थों के पुण्य का फल मिल जाता है। जो मनुष्य शार्ङ्‍ग धनुषधारी भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं, उन्हें कभी भी यम यातना भोगनी नहीं पड़ती।

जो मनुष्य वैष्णव होकर शिव की और शैव होकर विष्णु की निंदा करते हैं, वे अवश्य नरकवासी होते हैं। सहस्रों वाजपेय और अश्वमेध यज्ञों से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी के व्रत के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होता है। संसार में एकादशी के बराबर कोई पुण्य नहीं। इसके बराबर पवित्र तीनों लोकों में कुछ भी नहीं। इस एकादशी के बराबर कोई व्रत नहीं। जब तक मनुष्य पद्‍मनाभ की एकादशी का व्रत नहीं करते हैं, तब तक उनकी देह में पाप वास कर सकते हैं।

हे राजेन्द्र! यह एकादशी स्वर्ग, मोक्ष, आरोग्यता, सुंदर स्त्री तथा अन्न और धन की देने वाली है। एकादशी के व्रत के बराबर गंगा, गया, काशी, कुरुक्षेत्र और पुष्कर भी पुण्यवान नहीं हैं। हरिवासर तथा एकादशी का व्रत करने और जागरण करने से सहज ही में मनुष्य विष्णु पद को प्राप्त होता है। हे युधिष्ठिर! इस व्रत के करने वाले दस पीढ़ी मातृ पक्ष, दस पीढ़ी पितृ पक्ष, दस पीढ़ी स्त्री पक्ष तथा दस पीढ़ी मित्र पक्ष का उद्धार कर देते हैं। वे दिव्य देह धारण कर चतुर्भुज रूप हो, पीतांबर पहने और हाथ में माला लेकर गरुड़ पर चढ़कर विष्णुलोक को जाते हैं।

हे नृपोत्तम! बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में इस व्रत को करने से पापी मनुष्य भी दुर्गति को प्राप्त न होकर सद्‍गति को प्राप्त होता है। आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की इस पापांकुशा एकादशी का व्रत जो मनुष्य करते हैं, वे अंत समय में हरिलोक को प्राप्त होते हैं तथा समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं। सोना, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, छतरी तथा जूती दान करने से मनुष्य यमराज को नहीं देखता।

जो मनुष्य किसी प्रकार के पुण्य कर्म किए बिना जीवन के दिन व्यतीत करता है, वह लोहार की भट्टी की तरह साँस लेता हुआ निर्जीव के समान ही है। निर्धन मनुष्यों को भी अपनी शक्ति के अनुसार दान करना चाहिए तथा धनवालों को सरोवर, बाग, मकान आदि बनवाकर दान करना चाहिए। ऐसे मनुष्यों को यम का द्वार नहीं देखना पड़ता तथा संसार में दीर्घायु होकर धनाढ्‍य, कुलीन और रोगरहित रहते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हे राजन! जो आपने मुझसे मुझसे पूछा वह सब मैंने आपको बतलाया। अब आपकी और क्या सुनने की इच्छा है?



यावत् जीवेत सुखं जीवेत |

सर्वं पापं विनश्यति ||




प्रत्येक जीव विभिन्न योनियों से होता हुआ निरन्तर गतिशील रहता है| हलाकि उसका बाहरी चोला बार-बार बदलता रहता है, परन्तु उसके अन्दर निवास करने वाली आत्मा शाश्वत है, वह मारती नहीं हैं, अपितु भिन्न-भिन्न शरीरों को धारण कर आगे के जीवन क्रम की ओर गतिशील रहती है|

जो कार्य जीव द्वारा अपनी देह में होता है, उसे कर्म कहते हैं और उसके सामान्यतः दो भेद हैं - शुभ कर्म यानी कि पुण्य तथा अशुभ कर्म अर्थात पाप| शुभ कर्म या पुण्य वह होता है, जिसमे हम किसी को सुख देते हैं, किसी की भलाई करते हैं और अशुभ कर्म वह होता है, जिसमें हमारे द्वारा किसी को दुःख प्राप्त होता है, जिसमें हमारे द्वारा किसी को संताप पहुंचता हैं|

मानव योनी ही एक ऐसे योनि है, जिसमें वह अन्य कर्मों को संचित करता रहता है| पशु आदि तो बस पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म ले कर ही चलते रहते हैं, वे यह नहीं सोचते, कि यह कार्य में कर रहा हूं या मैं इसको मार रहा हूं| अतः उनके पूर्व कर्म तो क्षय होते रहते हैं, परन्तु नवीन कर्मों का निर्माण नहीं होता; जबकि मनुष्य हर बात में 'मैं' को ही सर्वोच्चता प्रदान करता हैं... और चूंकि वह प्रत्येक कार्य का श्रेय खुद लेना चाहता है, अतः उसका परिणाम भी उसे ही भुगतना पड़ता है|

मनुष्य जीवन और कर्म

मनुष्य जीवन में कर्म को शास्त्रीय पद्धति में तीन भागों में बांटा गया है -


१. संचित
२. प्रारब्ध
३. आगामी (क्रियमाण)


'संचित कर्म' वे होते हैं, जो जीव ने अपने समस्त दैहिक आयु के द्वारा अर्जित किये हैं और जो वह अभी भी करता जा रहा है|


'प्रारब्ध' का अर्थ है, जिन कर्मों का फल अभी गतिशील हैं, उसे वर्त्तमान में भोगा जा रहा हैं|

'आगामी' का अर्थ है, वे कर्म, जिनका फल अभी आना शेष है|

इन तीनो कर्मों के अधीन मनुष्य अपना जीवन जीता रहता है| प्रकृति के द्वारा ऐसी व्यवस्था तो रहती है, कि उसके पूर्व कर्म संचित रहें, परन्तु दुर्भाग्य यह है, कि मनुष्य को उसके नवीन कर्म भी भोगने पड़ते हैं, फलस्वरूप उसे अनंत जन्म लेने पड़ते हैं| परन्तु यह तो एक बहुत ही लम्बी प्रक्रिया है, और इसमें तो अनेक जन्मों तक भटकते रहना पड़ता है|

परन्तु एक तरीका है जिससे व्यक्ति अपने छल, दोष, पाप को समूल नष्ट कर सकता है, नष्ट ही नहीं कर सकता अपितु भविष्य के लिए अपने अन्दर अंकुश भी लगा सकता है, जिससे वह आगे के जीवन को पूर्ण पवित्रता युक्त जी सके, पूर्ण दिव्यता युक्त जी सके और जिससे उसे फिर से कर्मों के पाश में बंधने की आवश्यकता नहीं पड़े|

साधना : एकमात्र मार्ग


...और यह तरीका, यह मार्ग है साधना का, क्योंकि साधना का अर्थ ही है, कि अनिच्छित स्थितियों पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर अपने जीवन को पूरी तरह साध लेना, इस पर पूरी तरह से अपना नियंत्रण कायम कर लेना|


यदि यह साधना तंत्र मार्ग के अनुसार हो, तो इससे श्रेष्ठ कुछ हो ही नहीं सकता, इससे उपयुक्त स्थिति तो और कोई हो ही नहीं सकती, क्योंकि स्वयं शिव ने 'महानिर्वाण तंत्र' में पार्वती को तंत्र की विशेषता के बारे में समझाते हुए बताया है -

कल्किल्मष दीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरी |

मध्या मध्य विचाराणां न शुद्धिः श्रौत्कर्मणा ||

न संहिताध्यैः स्र्मुतीभिरष्टसिद्धिर्नुणां भवेत् |

सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्य सत्यं मयोच्यते ||

विनाह्यागम मार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये |

श्रुतिस्मृतिपुराणादी मयैवोक्तं पूरा शिवे ||

आगमोक्त विधानेन कलौ देवान्यजेत्सुधिः ||




- ही देवी! कलि दोष के कारण ब्राह्मण या दुसरे लोग, जो पाप-पुण्य का विचार करते हैं, वे वैदिक पूजन की विधियों से पापहीन नहीं हो सकते| मैं बार बार सत्य कहता हूं, कि संहिता और स्मृतियों से उनकी आकांक्षा पूर्ण नहीं हो सकती| कलियुग में तंत्र मार्ग ही एकमात्र विकल्प है| यह सही है, कि वेद, पुराण, स्मृति आदि भी विश्व को किसी समय मैंने ही प्रदान किया था, परन्तु कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति तंत्र द्वारा ही साधना कर इच्छित लाभ पाएगा|

इससे स्पष्ट होता है, कि तंत्र साधना द्वारा व्यक्ति अपने पाप पूर्ण कर्मों को नष्ट कर, भविष्य के लिए उनसे बन्धन रहित हो सकते हैं| वैसे भी व्यक्ति यदि जीवन में पूर्ण दरिद्रता युक्त जीवन जी रहा है या यदि वह किसी घातक बीमारी के चपेट में है, जो कि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही हो, तो यह समझ लेना चाहिए, कि उसके पाप आगे आ रहे है ...

नीचे मैं कुछ स्थितियां स्पष्ट कर रहा हूं, जो कि व्यक्ति के पूर्व पापों के कारण जीवन में प्रवेश करती हैं --


१. घर में बार-बार कोई दुर्घटना होना, आग लगना, चोरी होना आदि |

२. पुत्र या संतान का न होना, या होने पर तुरंत मर जाना |

३. घर के सदस्यों की अकाल मृत्यु होना |

४. जो भी योजना बनायें, उसमें हमेशा नुकसान होना |

५. हमेशा शत्रुओं का भय होना|

६. विवाह में अत्यंत विलम्ब होना या घर में कलह पूर्ण वातावरण, तनाव आदि|

७. हमेशा पैसे की तंगी होना, दरिद्रतापूर्ण जीवन, बीमारी और अदालती मुकदमों में पैसा पानी की तरह बहना|


ये कुछ स्थितियां हैं, जिनमें व्यक्ति जी-जान से कोशिश करने के उपरांत भी यदि उन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त कर पाता, तो समझ लेना चाहिए, कि यह पूर्व जन्म कर्मों के दोष के कारण ही घटित हो रहा है| इसके लिये फिर उन्हें साधना का मार्ग अपनाना चाहिए, जिसके द्वारा उसके समस्त दोष नष्ट हो सकें और वह जीवन में सभी प्रकार से वैभव, शान्ति और श्रेष्ठता प्राप्त कर सके|

पापांकुशा साधना

ऐसी ही एक साधना है पापांकुशा साधना, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन में व्याप्त सभी प्रकार के दोषों को - चाहे वह दरिद्रता हो, अकाल मृत्यु हो, बीमारी हो या चाहे और कुछ हो, उसे पूर्णतः समाप्त कर सकता है और अब तक के संचित पाप कर्मों को पूर्णतः नष्ट करता हुआ भविष्य के लिए भी उनके पाश से मुक्त हो जाता है, उन पर अंकुश लगा पाता है |

इस साधना को संपन्न करने से व्यक्ति के जीवन में यदि ऊपर बताई गई स्थितियां होती है, तो वे स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं| वह फिर दिनों-दिन उन्नति की ओर अग्रसर होने लग जाता है, इच्छित क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है और फिर कभी भी, किसी भी प्रकार की बाधा का सामना उसे अपने जीवन में नहीं करना पड़ता|

यह साधना अत्याधिक उच्चकोटि की है और बहुत ही तीक्ष्ण है| चूंकि यह तंत्र साधना है, अतः इसका प्रभाव शीघ्र देखने को मिलता है| यह साधना स्वयं ब्रह्म ह्त्या के दोष से मुक्त होने के लिए एवं जनमानस में आदर्श स्थापित करने के लिए कालभैरव ने भी संपन्न की थी ... इसी से साधना की दिव्यता और तेजस्विता का अनुमान हो जाता है ....


यह साधना तीन दिवसीय है, इसे पापांकुशा एकादशी से या किसी भी एकादशी से प्रारम्भ करना चाहिए| इसके लिए 'समस्त पाप-दोष निवारण यंत्र' तथा 'हकीक माला' की आवश्यकता होती है|

सर्वप्रथ साधक को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हो कर, सफेद धोती धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मूंह कर बैठना चाहिए और अपने सामने नए श्वेत वस्त्र से ढके बाजोट पर 'समस्त पाप-दोष निवारण यंत्र' स्थापित कर उसका पंचोपचार पूजन संपन्न करना चाहिए| 'मैं अपने सभी पाप-दोष समर्पित करता हूं, कृपया मुझे मुक्ति दें और जीवन में सुख, लाभ, संतुष्टि प्रसन्नता आदि प्रदान करें' - ऐसा कहने के साथ यदि अन्य कोई इच्छा विशेष हो, तो उसका भी उच्चारण कर देना चाहिए| फिर 'हकीक' से निम्न मंत्र का २१ माला मंत्र जप करना चाहिए --
|| ॐ क्लीं ऐं पापानि शमय नाशय ॐ फट ||


| ॐ सर्व पापनाशय ह्रों हीं नम : |

यह मंत्र अत्याधिक चैत्यन्य है और साधना काल में ही साधक को अपने शरीर का ताप बदला मालूम होगा| परन्तु भयभीत न हों, क्योंकि यह तो शरीर में उत्पन्न दिव्याग्नी है, जिसके द्वारा पाप राशि भस्मीभूत हो रही है| साधना समाप्ति के पश्चात साधक को ऐसा प्रतीत होगा, कि उसका सारा शरीर किसी बहुत बोझ से मुक्त हो गया है, स्वयं को वह पूर्ण प्रसन्न एवं आनन्दित महसूस करेगा और उसका शरीर फूल की भांति हल्का महसूस होगा |

जो साधक अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें तो यह साधना अवश्य ही संपन्न करने चाहिए, क्योंकि जब तक पाप कर्मों का क्षय नहीं हो जाता, व्यक्ति की कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो ही नहीं सकती और न ही वह समाधि अवस्था को प्राप्त कर सकता है|

साधना के उपरांत यंत्र तथा माला को किसी जलाशय में अर्पित कर देना चाहिए| ऐसा करने से साधना फलीभूत होती है और व्यक्ति समस्त दोषों से मुक्त होता हुआ पूर्ण सफलता अर्जित कर, भौतिक एवं अध्यात्मिक, दोनों मार्गों में श्रेष्टता प्राप्त करता है| इसलिए साधक को यह साधना बार बार संपन्न करनी है, जब तक कि उसे अपने कार्यों में इच्छित सफलता मिल न पाये|


- सदगुरुदेव नारायण दत्त श्रीमाली

Monday, September 29, 2014

When ever you need me understand ? जब कभी आप मुझे समझेंगे जब गंगा मे पानी बह चुका होगा


जब कभी आप मुझे समझेंगे जब गंगा मे पानी बह चुका होगा ,,
और आप हाथ मलते रह जाएंगे .... और एहसास करेंगे की जीवन मे कुछ पल ऐसे भी थे जब मै गुरु चरणों मे बैठा था .!

गुरु के रुप में ज्ञान की पूजा का है। गुरु अज्ञान रुपी अंधकार
से ज्ञान रुपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं। गुरु धर्म और
सत्य की राह बताते हैं। गुरु से ऐसा ज्ञान मिलता है,
जो जीवन के लिए कल्याणकारी होता है।
गुरु शब्द का सरल अर्थ होता है- बड़ा, देने वाला,
अपेक्षा रहित, स्वामी, प्रिय यानि गुरु वह है जो ज्ञान में
बड़ा है, विद्यापति है, जो निस्वार्थ भाव से देना जानता हो,
जो हमको प्यारा है। गुरु का जीवन में उतना ही महत्व है,
जितना माता-पिता का। माता-पिता के कारण इस संसार में
हमारा अस्तित्व होता है। किंतु जन्म के बाद एक सद्गुरु
ही व्यक्ति को ज्ञान और अनुशासन का ऐसा महत्व
सिखाता है, जिससे व्यक्ति अपने सद्कर्मों और
सद्विचारों से जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद भी अमर
हो जाता है। यह अमरत्व गुरु ही दे सकता है। सद्गुरु ने
ही भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया। इसलिए
गुरुपूर्णिमा को अनुशासन पर्व के रुप में भी मनाया जाता है।
इस प्रकार व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व का संपूर्ण
विकास गुरु ही करता है। जिससे जीवन की कठिन राह
को आसान हो जाती है।
जब अध्यात्म क्षेत्र की बात होती है तो बिना गुरु के ईश्वर
से जुडऩा कठिन है। गुरु से दीक्षा पाकर ही आत्मज्ञान,
ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है।
हिन्दु धर्म ग्रंथों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश
माना गया है।

गुरुब्र्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरा:।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्मï तस्मै: श्री गुरुवे नम:॥

सार यह है कि गुरु शिष्य के बुरे गुणों को नष्ट कर उसके
चरित्र, व्यवहार और जीवन को ऐसे सद्गुणों से भर देता है।
जिससे शिष्य का जीवन संसार के लिए एक आदर्श बन
जाता है। ऐसे गुरु को ही साक्षात ईश्वर कहा गया है।
इसलिए जीवन में गुरु का होना जरुरी है।