https://www.youtube.com/watch?v=Cu6M-gHyX20
Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Sunday, April 23, 2023
समस्त पापों को भस्म करने का वेदोक्त मंत्र | Paap Dosh Nivaran Vedokt Mantra | Narayan Dutt Shrimali
Thursday, September 29, 2022
meaning of NIKHILESHWAR
meaning of NIKHILESHWAR
means of NIKHILESHWAR
meaning of NIKHILESHWAR
N-Neither Krishnagopal nor Kali's Mother
Or the impersonal Parabramha element
Either father or mother, not even own Brother
To no one this place ever could be lent
I-In this small altar of my heart
A radiant image which always shines
As if it has never been apart
And within my very soul it confines
K-Keeping me in constant awareness
Always gesturing with a subtle call
Walking along with a definite closeness
To hold me tight at every fall
H-Helping to lift me from unrest
Brimming my inner being with knowledge
Waiting patiently as I pass through each test
In His divine transcendental college
I-Inspiring with His words of wisdom
Encouraging with His flashing grace
He calls me to the “land of freedom”
By breaking the shackles of this human race
L-Love is His final answer
To all the miseries of this life
Deluding attachment’s vicious cancer
He teaches walking on the edge of the knife
Every passing moment for me counts
While He keeps me waiting till that day
Above the brows, in between the mounts
Shall emerge His deific thoughtless ray
S-Sweeping away all the clatter
Of this transient ephemeral plane
Beyond the realms of mind and matter
Over the rational human brain
H-Holding that ray, He will make me walk
With bated breath and careful steps
Absorbing me in some speechless talk
In the primordial sound’s tranquil depths
W-Walking upright on this mystic road
He shall lead me to my final rest
Taking me to His Celestial Abode
Concluding my arduous eternal quest
A-A fraction of His loving remembrance
Transports to that scene of Karmic Tantra
When under the sky, in Divine trance
I was invigorated by His Gurumantra
R-Reversing all worldly fears
With a fervent urge I had prayed
Drenched with my uncontrollable tears
“My Life is yours”, this I had said
NIKHILESHWAR is that Blissful name
In my heart’s altar to whom I pray out loud
"Oh Nikhileshwaranand! You are the same
Who will clear my ignorance’s cloud".
gunaahon ka devata गुनाहों का देवता
अगर पुराने जमाने की नगर-देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएँ आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता जरूर कोई रोमैण्टिक कलाकार है। ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, जिन्दगी और रहन-सहन में कोई बँधे-बँधाये नियम नहीं, कहीं कोई कसाव नहीं, हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक बिखरी हुई-सी अनियमितता। बनारस की गलियों से भी पतली गलियाँ और लखनऊ की सड़कों से चौड़ी सड़कें। यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरों का मुकाबला करने वाले सिविल लाइन्स और दलदलों की गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले। मौसम में भी कहीं कोई सम नहीं, कोई सन्तुलन नहीं। सुबहें मलयजी, दोपहरें अंगारी, तो शामें रेशमी ! धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे-भरे खेर भी मिलें और ऊसर और परती की भी कमी नहीं। सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग-कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं।
और जाहे जो हो, नगर इधर क्वार, कार्तिक तथा उधर वसन्त के बाद और होली के बीच के मौसम में इलाहाबाद का वातावरण नैस्टर्शियम और पैंजी के फूलों से भी ज्यादा खूबसूरत और आम के बौरों की खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है। सिविल लाइन्स हो या अल्फ्रेड पार्क, गंगातट हो या खुसरूबाग, लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा की तरह कलियों के आँचल और लहरों के मिजाज से छेड़खानी करती चलती है। और अगर आप सर्दी से बहुत नहीं डरते तो आप जरा एक ओवरकोट डालकर सुबह-सुबह घूमने निकल जायें तो इन खुली हुई जगहों की फिजाँ इठलाकर आपको अपने जादू में बाँध लेगी। खास तौर से पौ फटने से पहले तो आपको एक बिलकुल नयी अनुभूति होगी। वसन्त के नये-नये मौसमी फूलों के रंग से मुकाबला करने वाली हलकी सुनहली, बाल-सूर्य की अँगुलियाँ सुबह की राजकुमारी के गुलाबी वक्ष पर बिखरे हुए भौंराले गेसुओ को धीरे-धीरे हटाती जाती हैं और क्षितिज पर सुनहली तरूणाई बिखर पड़ती है।
एक ऐसी ही खुशनुमा सुबह थी, और जिसकी कहानी मैं कहने जा रहा हूँ, वह सुबह से भी ज्यादा मासूम युवक, प्रभाती गाकर फूलों को जगाने वाले देवदूत की तरह अल्फ्रेड पार्क के लॉन फूलों की सरजमीं के किनारे-किनारे घूम रहा था। कत्थई स्वीटपी के रंग का पश्मीने का लम्बा कोट, जिसका एक कालर उठा हुआ था और दूसरे कालर में सरो की एक पत्ती बटन होल में लगी हुई थी, सफेद मक्खन जीन का पतला पैण्ट और पैरों में सफेद जरी की पेशावरी सैण्डिलें, भरा हुआ गोरा चेहरा और ऊँचे चमकते हुए माथे पर झूलती हुई एक रूखी भूरी लटा। चलते-चलते उसने एक रंग-बिरंगा गुच्छा इकट्ठा कर लिया था और रह-रह कर वह उसे सूंघ लेता था।
पूरब के आसमान की गुलाबी पंखुरियाँ बिखरने लगी थीं और सुनहले पराग की एक बौछार सुबह के ताजे फूलों पर बिछ रही थी। ‘‘अरे सुबह हो गई !’’ उसने चौंककर कहा और पास की एक बेंच पर बैठ गया। सामने से एक माली आ रहा था। ‘‘क्यों जी, लाइब्रेरी खुल गयी ?’’ ‘‘अभी नहीं बाबूजी !’’ उसने जवाब दिया। वह फिर सन्तोष से बैठ गया और फूलों की पाँखुरियाँ नोचकर नीचे फेंकने लगा। जमीन पर बिछाने वाली सोने की चादर परतों पर परतें बिछाती जा रही थीं और पेड़ों की छायाओं का रंग गहराने लगा था। उसकी बेंच के नीचे फूलों की चुनी हुई पत्तियाँ बिखरी थीं और अब उसके पास सिर्फ एक फूल बाकी रह गया था। हलके फालसई रंग के उस फूल पर गहरे बैंजनी डोरे थे।
‘‘हलो कपूर !’’ सहसा किसी ने पीछे से कन्धे पर हाथ रखकर कहा-‘‘यहाँ क्या झक मार रहे हो सुबह-सुबह ?’’
उसने मुड़कर पीछे देखा-‘‘आओ, ठाकुर साहब ! आओ बैठो यार, लाइब्रेरी खुलने का इन्तजार कर रहा हूँ।’’
‘‘क्यों, युनिवर्सिटी लाइब्रेरी चाट डाली, अब इसे तो शरीफ लोगों के लिए छोड़ दो !’’
‘‘हाँ, हाँ, शरीफ लोगों ही के लिए छोड़ रहा हूँ; डॉक्टर शुक्ला की लड़की है न, वह इसकी मेम्बर बनना चाहती थी तो मुझे आना पड़ा, उसी का इन्तजार भी कर रहा हूँ।’’
‘‘डॉक्टर शुक्ला तो पॉलिटिक्स डिपार्टमेण्ट में हैं ?’’
‘‘नहीं, गवर्नमेण्ट साइकोलॉजिकल ब्यूरो में।’’
‘‘और तुम पॉलिटिक्स में रिसर्च कर रहे हो ?’’
‘‘नहीं इकनॉमिक्स में !’’
‘‘बहुत अच्छे ! तो उनकी लड़की को सदस्य बनवाने आये हो ?’’ कुछ अजब स्वर में ठाकुर ने कहा।
‘‘छिः !’’ कपूर ने हँसते हुए, कुछ अपने को बचाते हुए कहा- ‘‘यार, तुम जानते हो मेरा कितना घरेलू सम्बन्ध है। जब से मैं प्रयाग में हूँ, उन्हीं के सहारे हूँ और आजकल तो उन्हीं के यहाँ पढ़ता-लिखता भी हूँ...।’’
ठाकुर साहब हँस पड़े- ‘‘अरे भाई, मैं डॉक्टर शुक्ला को जानता नहीं क्या ? उनका-सा भला आदमी मिलना मुश्किल है। तुम सफाई व्यर्थ में दे रहे हो’’
ठाकुर साहब युनिवर्सिटी के उन विद्यार्थियो में से थे जो बरायनाम विद्यार्थी होते हैं और कब तक वे युनिवर्सिटी को सुशोभित करते रहेंगे, इसका कोई निश्चित नहीं। एक अच्छे-खासे रूपए वाले व्यक्ति थे और घर के ताल्लुकेदार। हँसमुख, फब्तियाँ कसने में मजा लेने वाले, मगर दिल से साफ, निगाह के सच्चे। बोले-
‘‘एक बात तो मैं स्वीकार करता हूँ कि तुम्हारी पढ़ायी का सारा श्रेय डॉ. शुक्ला को है ! तुम्हारे घर वाले तो कुछ खर्चा भेजते नहीं ?’’
‘‘नहीं, उनसे अलग ही होकर आया था। समझ लो कि इन्होंने किसी-न-किसी बहाने मदद की है।’’
‘‘अच्छा, आओ, तब तक लोटस-पोण्ड (कमल-सरोवर) तक ही घूम लें । फिर लाइब्रेरी भी खुल जाएगी !’’
दोनों उठकर एक कृमिक कमल-सरोवर की ओर चल दिये जो पास ही में बना हुआ था। सीढ़ियाँ चढ़कर ही उन्होंने देखा कि एक सज्जन किनारे बैठे कमलों की ओर एकटक देखते हुए ध्यान में तल्लीन हैं। दुबले-पतले छिपकली से, बालों की एक लट माथे पर झूलती हुई-
‘‘कोई प्रेमी हैं, या कोई फिलासफर हैं, देखा ठाकुर ?’’
‘‘नहीं यार, दोनों से निकृष्ट कोटि के जीव हैं-ये कवि हैं। मैं इन्हें जानता हूँ। ये रवीन्द्र बिसरिया हैं। एम.ए. में पढ़ता है। आओ, मिलायें तुम्हें !’’
ठाकुर साहब ने एक बड़ा-घास का तिनका तोड़कर पीछे से चुपके-से जाकर उनकी गरदन गुदगुदायी। बिसरिया चौक उठा-पीछे मुड़कर देखा और बिगड़ गया-‘‘यह क्या बदतमीजी है, ठाकुर साहब !’’ मैं कितने गम्भीर विचारों में डूबा था।’’ और सहसा बड़े विचित्र स्वर में आँखे बन्द कर बिसरिया बोला, ‘‘आह ! कैसा मनोरम प्रभात है ! मेरी आत्मा में घोर अनुभूति हो रही थी...’’
कपूर बिसरिया की मुद्रा पर ठाकुर साहब की ओर देखकर मुसकराया और इशारे में बोला- ‘‘है यार शगल की चीज। छेड़ो जरा !’’
ठाकुर साहब ने तिनका फेंक दिया और बोले-‘‘माफ करना, भाई बिसरिया ! बात यह है कि हम लोग कवि तो हैं नहीं, इसलिए समझ नहीं पाते। क्या सोच रहे थे तुम ?’’
बिसरिया ने आँखें खोलीं और एक गहरी साँस लेकर बोला- ‘‘मैं सोच रहा था कि आखिर प्रेम क्या होता है, क्यों होता है ? कविता क्यों लिखी जाती है ? फिर कविता के संग्रह उतने क्यों नहीं बिकते जितने उपन्यास या कहानी-संग्रह ?’’
‘‘बात तो गम्भीर है।’’ कपूर बोला-‘‘जहाँ तक मैंने समझा और पढ़ा है- प्रेम एक तरह की बीमारी होती है मानसिक बीमारी, जो मौसम बदलने के दिनों में होती है, मसलन क्वार-कार्तिक या फागुन-चैत। उसका सम्बन्ध रीढ़ की हड्डी से होता है और कविता एक तरह का सन्निपात होता है। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं, मि. सिबरिया ?’’
‘‘सिबरिया नहीं बिसरिया ?’’ ठाकुर साहब ने टोका। बिसरिया ने कुछ उजलत, कुछ परेशानी और कुछ गुस्से से उनकी ओर देखा और बोला-‘‘क्षमा कीजिएगा, आप या तो फ्रायडवादी हैं, या प्रगतिवादी और आपके विचार सर्वदा विदेशी हैं। मैं इस तरह के विचारों से घृणा करता हूँ...।’’
कपूर कुछ जवाब देने ही वाला था कि ठाकुर साहब बोले-‘‘अरे भाई, बेकार उलझ गए तुम लोग, पहले परिचय तो कर लो आपस में। ये हैं श्री चन्द्रकुमार कपूर, विश्वविद्यालय में रिसर्च कर रहे हैं और आप हैं श्री रवीन्द्र बिसरिया, इस वर्ष एम.ए. में बैठ रहे हैं। बहुत अच्छे कवि हैं।’’
कपूर ने हाथ मिलाया और फिर गम्भीरता से बोला-‘‘क्यों साहब, आपको दुनिया में और कोई काम नहीं रहा जो आप कविता करते हैं ?’’
बिसरिया ने ठाकुर साहब की ओर देखा और बोला-‘‘ठाकुर साहब, यह मेरा अपमान है; मैं इस तरह के सवालों का आदी नहीं हूँ।’’ और उठ खड़ा हुआ।
‘‘अरे बैठो-बैठो !’’ ठाकुर साहब ने हाथ खींचकर बिठा लिया-‘‘देखो, कपूर का मतलब तुम समझे नहीं। उसका कहना यह है कि तुममें इतनी प्रतिभा है कि लोग तुम्हारी प्रतिभा का आदर करना नहीं जानते। इसलिए उन्होंने सहानुभूति में तुमसे कहा कि तुम और कोई काम क्यों नहीं करते। वरना कपूर साहब तुम्हारी कविता के बहुत शौकीन हैं। मुझसे बराबर तारीफ करते हैं।’’
बिसरिया पिघल गया और बोला-‘‘क्षमा कीजिएगा। मैंने गलत समझा, अब मेरा कविता-संग्रह छप रहा है , मैं आपको अवश्य भेंट करूँगा।’’ और फिर बिसरिया ठाकुर साहब की ओर मुड़कर बोला- ‘‘अब लोग मेरी कविताओं की इतनी माँग करते है कि मैं परेशान हो गया हूँ। अभी कल ‘त्रिवेणी’ के सम्पादक मिले। कहने लगे अपना चित्र दे दो। मैंने कहा कोई चित्र नहीं है तो पीछे पड़ गये। आखिरकार मैंने आइडेण्टिटी कार्ड उठाकर दे दिया !’’
‘‘वाह !’’ कपूर बोला-‘‘मान गये आपको हम ! तो आप राष्ट्रीय कविताएँ लिखते हैं या प्रेम की ?’’
‘‘जब जैसा अवसर हो !’’ ठाकुर साहब ने जड़ दिया- ‘‘वैसे तो यह वारफ्रण्ट का कवि-सम्मेलन, शराबबन्दी कॉन्फ्रेन्स का कवि-सम्मेलन, शादी-ब्याह का कवि-सम्मेलन, साहित्य-सम्मेलन का कवि-सम्मेलन सभी जगह बुलाये जाते हैं। बड़ा यश है इनका !’’
बिसरिया ने प्रशंसा से मुग्ध होकर देखा, मगर फिर एक गर्व का भाव मुँह पर लाकर गम्भीर हो गया।
कपूर थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला-‘‘तो कुछ हम लोगों को भी सुनाइए न !’’ ‘‘अभी तो मूड नहीं है।’’ बिसरिया बोला।
ठाकुर साहब बिसरिया को पिछले पाँच सालों से जानते थे, वे अच्छी तरह जानते थे, कि बिसरिया किस समय और कैसे कविता सुनाता है। अतः बोले-‘‘ऐसे नहीं कपूर, आज शाम को आओ। जरा गंगाजी चलें, कुछ बोटिंग रहे, कुछ खाना-पीना रहे तब कविता भी सुनना !’’
कपूर को बोटिंग का बेहद शौक था। फौरन राजी हो गया और शाम का विस्तृत कार्यक्रम बन गया।
इतने में एक कार उधर से लाइब्रेरी की ओर गुजरी। कपूर ने देखा और बोला-‘‘अच्छा, ठाकुर साहब, मुझे तो इजाजत दीजिए। अब चलूँ लाइब्रेरी में। वो लोग आ गये। आप कहाँ चल रहे हैं ?’’
‘‘मैं जरा जिमखाने की ओर जा रहा हूँ। अच्छा भाई, तो शाम को पक्की रही।’’
‘‘बिलकुल पक्की !’’ कपूर बोला और चल दिया।
लाइब्रेरी के पोर्टिको में कार रूकी थी और उसके अन्दर ही डॉक्टर साहब की लड़की बैठी थी।
‘‘क्यों सुधा, अन्दर क्यों बैठी हो ?’’
‘‘तुम्हें ही देख रही थी, चन्दर।’’ और वह उतर आयी। दुबली-पतली, नाटी-सी, साधारण-सी लड़की बहुत सुन्दर नहीं, केवल सुन्दर, लेकिन बातचीत में बहुत दुलारी।
‘‘चलो, अन्दर चलो।’’चन्दर ने कहा।
वह आगे बढ़ी, फिर ठिठक गयी और बोली-‘‘चन्दर, एक आदमी को चार किताबें मिलती हैं ?’’
‘‘हाँ ! क्यों ?’’
‘‘तो...तो..’’ उसने बड़े भोलेपन से मुसकराते हुए कहा- ‘‘तो तुम अपने नाम से मेंम्बर बन जाओ और दो किताबें हमें दे दिया करना बस, ज्यादा का हम क्या करेंगे ?’’
‘‘नहीं !’’ चन्दर हँसा-‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब है। खुद क्यों नहीं बनतीं मेम्बर ?’’
‘‘नहीं, हमें शरम लगती है, तुम बन जाओ मेम्बर हमारी जगह पर।’’
‘‘पगली कहीं की !’’ चन्दर ने उसका कन्धा पकड़कर आगे ले चलते हुए कहा- ‘‘वाह रे शरम ! अभी कल ब्याह होगा तो कहना, हमारी जगह तुम बैठ जाओ चन्दर ! कॉलेज में पहुँच गयी लड़की; अभी शरम नहीं छूटी इसकी ! चल अन्दर !’’
और वह हिचकती, ठिठकती, झेंपती और मुड़-मुड़कर चन्दर की ओर रूठी हुई निगाहों से देखती हुई अन्दर चली गयी।
थोड़ी देर बाद सुधा चार किताबें लादे हुए निकली। कपूर ने कहा-‘‘लाओ, मैं ले लूँ !’’ तो बाँस की पतली टहनी की तरह लहराकर बोली-‘‘सदस्य मैं हूँ तुम्हें क्यों दूँ किताबें ?’’ और जाकर कार के अन्दर किताबें पटक दीं। फिर बोली-‘‘आओ, बैठो, चन्दर !’’
‘‘मैं अब घर जाऊँगा।’’
‘‘ऊँहूँ यह देखो !’’ और उसने भीतर से कागजों का एक बण्डल निकाला और बोली-‘‘देखो, यह पापा ने तुम्हारे लिए दिया है। लखनऊ में कॉन्फ्रेन्स है न। वहीं पढ़ने के लिए यह निबन्ध लिखा है उन्होंने। शाम तक यह टाइप हो जाना चाहिए। जहाँ संख्याएँ हैं वहाँ खुद आपको बैठकर बोलना होगा। और पापा सुबह से ही कहीं गये हैं। समझे जनाब !’’ उसने बिल्कुल अल्हड़ बच्चों की तरह गरदन हिलाकर शोख स्वरों में कहा।
कपूर ने बण्डल ले लया और कुछ सोचता हुआ बोला-‘‘लेकिन डॉक्टर साहब का हस्तलेख, इतने पृष्ठ, शाम तक कौन टाइप कर देगा ?’’
‘‘इसका भी इन्तजाम है’’ –और उसने ब्लाउज में से एक पत्र निकालकर चन्दर के हाथ में देती हुई बोली- ‘‘यह कोई पापा की पुरानी ईसाई छात्रा है। टाइपिस्ट। इसके घर में तुम्हें पहुँचाये देती हूँ। मुकर्जी रोड पर रहती है यह। उसी के यहाँ टाइप करवा लेना और यह खत उसे दे देना।’’
‘‘लेकिन अभी मैंने चाय नहीं पी।’’
‘‘समझ गये, अब तुम सोच रहे होंगे कि इसी बहाने सुधा तुम्हें चाय भी पिला देगी। सो मेरा काम नहीं है जो मैं चाय पिलाऊँ ? पापा का काम है यह ! चलो, आओ !’’
चन्दर जाकर भीतर बैठ गया और किताबें उठाकर देखने लगा- ‘‘अरे, चारों कविता की किताबें उठा लायी- समझ में आयेंगी तुम्हारे ? क्यों, सुधा ?’’
‘‘नहीं !’’ चिढ़ाते हुए सुधा बोली-‘‘तुम कहो, तुम्हें समझा दें। इकनॉमिक्स पढ़ने वाले क्या जानें साहित्य ?’’
‘‘अरे, मुकर्जी रोड पर ले चलो, ड्राइवर !’’ चन्दर बोला-‘‘इधर कहाँ चल रहे हो ?’’
‘‘नहीं, पहले घर चलो !’’ सुधा बोली-‘‘चाय पी लो तब जाना !’’
‘‘नहीं मैं चाय नहीं पिऊँगा।’’ चन्दर बोला।
‘‘चाय नहीं पिऊँगा, वाह ! वाह ! सुधा की हँसी में दूधिया बचपन छलक उठा -‘‘मुँह तो सूखकर गोभी हो रहा है, चाय नहीं पीयेंगे।’’
बँगला आया तो सुधा ने महराजिन से चाय बनाने के लिए कहा और चन्दर को स्टडी रूम में बिठाकर प्याले निकालने के लिए चल दी।
वैसे तो यह घर, परिवार चन्द्र कपूर का अपना हो चुका था; जब से वह अपनी माँ से झगड़कर प्रयाग भाग आया था पढ़ने के लिए, यहाँ आकर बी.ए. में भरती हुआ था और कम खर्च के खयाल से चौक में एक कमरा लेकर रहता था, तभी डॉक्टर शुक्ला उसके सीनियर टीचर थे और उसकी परिस्थितियों से अवगत थे। चन्दर की अंग्रेजी बहुत ही अच्छी थी और डॉक्टर शुक्ला उससे छोटे-छोटे लेख लिखवाकर पत्रिकाओं में भिजवाते थे। उन्होंने कई पत्रों के आर्थिक स्तम्भ का काम चन्दर को दिलवा दिया था और उसके बाद चन्दर के लिए डॉ. शुक्ला का स्थान अपने संरक्षक और पिता से भी ज्यादा हो गया था। चन्दर शरमीला लड़का था, बेहद शरमीला, कभी उसने युनिवर्सिटी के वजीफे के लिए भी कोशिश न की थी, लेकिन जब बी.ए. में वह सारी युनिवर्सि़टी में सर्वप्रथम आया तब स्वयं इक्नॉमिक्स विभाग ने उसे युनिवर्सिटी के आर्थिक प्रकाशनों का वैतनिक संपादक बना दिया था। एम.ए. में भी वह सर्वप्रथम आया और उसके बाद उसने रिसर्च ले ली। उसके बाद डॉक्टर शुक्ला युनिवर्सिटी से हटकर ब्यूरो में चले गये थे। अगर सच पूछा जाए तो उसके सारे कैरियर का श्रेय डॉ. शुक्ला को था जिन्होंने हमेशा उसकी हिम्मत बढ़ायी और उसको अपने लड़के से बढ़कर माना। अपनी सारी मदद के बावजूद डॉ. शुक्ला ने उससे इतना अपनापन बनाए रखा कि कैसे धीरे-धीरे चन्दर सारी गैरियत खो बैठा; यह उसे खुद नहीं मालूम। यह बँगला, इसके कमरे, इसके लॉन, इसकी किताबें, इसके निवासी, सभी कुछ जैसे उसके अपने थे और सभी का उससे जाने कितने जन्मों का सम्बन्ध था।
और यह नन्ही दुबली-पतली रंगीन चन्द्रकिरन-सी सुधा। जब आज से वर्षों पहले यह सातवाँ पास करके अपनी बुआ के पास से यहाँ आयी थी तब से लेकर आज तक कैसे वह भी चन्दर की अपनी होती गयी थी, इसे चन्दर खुद नहीं जानता था। जब वह आयी थी तब वह बहुत शरमीली थी, बहुत भोली थी, आठवें में पढ़ने के बावजूद वह खाना खाते वक्त रोती थी, मचलती थी तो अपनी कॉपी फाड़ डालती थी और जब तक डॉक्टर साहब उसे गोदी में बिठाकर नहीं मनाते थे, वह स्कूल नहीं जाती थी। तीन बरस की अवस्था में ही उसकी माँ चल बसी थी और दस साल तक वह अपनी बुआ के पास एक गाँव में रही थी। अब तेरह वर्ष की होने पर गाँव वालों ने उसकी शादी पर जोर देना और शादी न होने पर गाँव की औरतों ने हाथ नचाना और मुँह मटकाना शुरू किया तो डॉक्टर साहब ने उसे इलाहाबाद बुलाकर आठवें में भरती करा दिया। जब वह आयी थी तो आधी जंगली थी, तरकारी में घी कम होने पर वह महराजिन का चौका जूठा कर देती थी और रात में फूल तोड़कर न लाने पर अकसर उसने माली को दाँत भी काट खाया था। चन्दर से जरूर वह बेहद डरती थी, पर न जाने क्यों चन्दर भी उससे नहीं बोलता था।
लेकिन जब दो साल तक उसके ये उपद्रव जारी रहे और अकसर डॉक्टर साहब गुस्से के मारे उसे साथ न खिलाते थे और न उससे बोलते थे, तो वह रो-रोकर और सिर पटक-पटककर अपनी जान आधी कर देती थी। तब अकसर चन्दर ने पिता और पुत्री का समझौता कराया था, अकसर सुधा को डाँटा था, समझाया था, और सुधा, घर-भर से अल्हड़ पुरवाई और विद्रोही झोंके की तरह तोड़-फोड़ मचाती रहने वाली सुधा, चन्दर के आँख के इशारे पर सुबह की नसीम की तरह शान्त हो जाती थी। कब और क्यों उसने चन्दर के इशारों का यह मौन अनुशासन स्वीकार कर लिया था। यह उसे खुद नहीं मालूम था, और यह सभी कुछ इतने स्वाभाविक ढंग से, इतना अपने-आप होता गया कि दोनों में से कोई भी इस प्रक्रिया से वाकिफ नहीं था, कोई भी इसके प्रति जागरूक न था, दोनों का एक-दूसरे के प्रति अधिकार और आकर्षण इतना स्वाभाविक था जैसे शहद की पवित्रता या सुबह की रोशनी।
और मजा तो यह था कि चन्दर की शक्ल देखकर छिप जाने वाली सुधा इतनी ढीठ हो गई थी कि उसका सारा विद्रोह, सारी झुँझलाहट, मिजाज की सारी तेजी, सारा तीखापन और सारा लड़ाई-झगड़ा, सभी की तरफ से हटकर चन्दर की ओर केन्द्रित हो गया था। वह विद्रोहिनी अब शान्त हो गयी थी। इतनी शान्त, इतनी सुशील, इतनी विनम्र, इतनी मिष्टभाषिणी कि सभी को देखकर ताज्जुब होता था, लेकिन चन्दर को देखकर जैसे उसका बचपन फिर लौट आता था और जब तक वह चन्दर को खिजाकर, छेड़कर लड़ नहीं लेती थी उसे चैन नहीं पड़ता था। अकसर दोनों में अनबोला रहता था, लेकिन जब दो दिन तक दोनों मुँह फुलाए रहते थे और डॉक्टर साहब के लौटने पर सुधा उत्साह से उनको ब्यूरो का हाल नहीं पूछती थी और खाते वक्त दुलार नहीं दिखाती थी तो डॉक्टर साहब फौरन पूछते थे- ‘‘क्या, चन्दर से लड़ाई हो गयी क्या ?’’ फिर वह मुँह फुलाकर शिकायत करती थी और शिकायतें भी क्या-क्या होती थीं, चन्दर ने उसकी हेड मिस्ट्रेस का नाम एलीफैण्टा (श्रीमती हथिनी) रखा है, या चन्दर ने उसको डिबेट के भाषण के प्वाइण्ट नहीं बताये, या चन्दर कहता है कि सुधा की सखियाँ कोयला बेचतीं हैं, और जब डॉक्टर साहब कहते हैं कि वह चन्दर को डाँट देगें तो वह खुशी से फूल उठती और चन्दर के आने पर आँखें नचाती हुई चिढ़ाती थी, ‘‘कहो, कैसी डाँट पड़ी ?’’
वैसे सुधा अपने घर की पुरखिन थी। किस मौसम में कौन-सी तरकारी पापा को माफिक पड़ती है, बाजार में चीजों का क्या भाव है, नौकर चोरी तो नहीं करता, पापा कितनी सोसायटियों के मेम्बर हैं, चन्दर के इक्नॉमिक्स के कोर्स में क्या है, यह सभी उसे मालूम था। मोटर या बिजली बिगड़ जाने पर वह थोड़ी-बहुत इंजीनियरिंग भी कर लेती थी और मातृत्व का अंश तो उसमें इतना था कि हर नौकर और नौकरानी उससे अपना सुख-दुःख कह देते थे। पढ़ाई के साथ-साथ घर का सारा काम-काज करते हुए उसका स्वास्थ्य भी कुछ बिगड़ गया था और अपनी उम्र के हिसाब से कुछ अधिक शान्त, संयत, गम्भीर और बुजुर्ग थी, मगर अपने पापा और चन्दर, इन दोनों के सामने हमेशा उसका बचपन इठलाने लगता था। दोनों के सामने उसका हृदय उन्मुक्त था और स्नेह बाधाहीन।
लेकिन, हाँ, एक बात थी। उसे जितना स्नेह और स्नेह-भरी फटकारें और स्वास्थ्य के प्रति चिन्ता अपने पापा से मिलती थी, वह सब बड़े निःस्वार्थ भाव से वह चन्दर को दे डालती थी। खाने-पीने की जितनी परवाह उसके पापा उसकी रखते थे, न खाने पर या कम खाने पर उसे जितने दुलार से फटकारते थे, उतना ही खयाल वह चन्दर का रखती थी और स्वास्थ्य के लिए जो उपदेश उसे पापा से मिलते थे उसे और भी स्नेह में पागकर वह चन्दर को दे डालती थी। चन्दर कै बजे खाना खाता है, यहाँ से जाकर घर पर कितनी देर पढ़ता है, रात को सोते वक्त दूध पीता है या नहीं, इन सबका लेखा-जोखा उसे सुधा को देना पड़ता, और जब कभी उसके खाने-पीने में कोई कमी रह जाती तो उसे सुधा की डाँट खानी ही पड़ती थी। पापा के लिए सुधा अभी बच्ची थी; और स्वास्थ्य के मामले में सुधा के लिए चन्दर अभी बच्चा था। और कभी-कभी तो सुधा की स्वास्थ्य-चिन्ता इतनी ज्यादा हो जाती थी कि चन्दर बेचारा जो खुद तन्दुरूस्त था, घबरा उठता था। एक बार सुधा ने कमाल कर दिया। उसकी तबीयत खराब हुई और डॉक्टर ने उसे लड़कियों का एक टॉनिक पीने के लिए बताया। इम्तहान में जब चन्दर कुछ दुबला-सा हो गया तो सुधा अपनी बची हुई दवा ले आयी। और लगी चन्दर से जिद करने कि ‘‘पियो इसे !’’ जब चन्दर ने किसी अखबार में उसका विज्ञापन दिखाकर बताया कि वह लड़कियों के लिए है तब कहीं जाकर उसकी जान बची।
इसीलिए जब आज सुधा ने चाय के लिए कहा तो उसकी रूह काँप गयी क्योंकि जब कभी सुधा चाय बनाती थी तो प्याले के मुँह तक दूध भरकर उसमें दो तीन चम्मच चाय का पानी डाल देती थी और अगर उसने ज्यादा स्ट्रांग चाय की माँग की तो उसे खालिस दूध पीना पड़ता था। और चाय के साथ फल और मेवा और खुदा जाने क्या-क्या, और उसके बाद सुधा का इसरार, न खाने पर सुधा का गुस्सा और उसके बाद की लम्बी-चौड़ी मनुहार; इस सबसे चन्दर बहुत घबराता था। लेकिन जब सुधा उसे स्टडी रूम में बिठाकर जल्दी से चाय बना लायी तो उसे मजबूर होना पड़ा, और बैठे-बैठे निहायत बेबसी से उसने देखा कि सुधा ने प्याले में दूध डाला और उसके बाद थोड़ी-सी चाय डाल दी। उसके बाद अपने प्याले में चाय डालकर और दो चम्मच दूध डालकर आप ठाठ से पीने लगी, और बेतकल्लुफी से दूधिया चाय का प्याला चन्दर के सामने खिसकाकर बोली- ‘‘पीजिए, नाश्ता आ रहा है।’’
चन्दर ने प्याले को अपने सामने रखा और उसे चारों तरफ घुमाकर देखता रहा कि किस तरह से उसे चाय का अंश मिल सकता है। जब सभी ओर से प्याले में क्षीरसागर नजर आया तो उसने हारकर प्याला रख दिया।
‘‘क्यों, पीते क्यों नहीं ?’’ सुधा ने अपना प्याला रख दिया।
‘‘पीयें क्या ? कहीं चाय भी हो ?’’
तो और क्या खालिस चाय पीजिएगा ? दिमागी काम करने वालों को ऐसी ही चाय पीनी चाहिए।’’
‘‘तो अब मुझें सोचना पड़ेगा कि मैं चाय छोडूँ या रिसर्च। न ऐसी चाय मुझे पसन्द, न ऐसा दिमागी काम !’’
Saturday, October 30, 2021
सितोपलादि चूर्ण के फायदे / Benefits Of Sitopaladi Churna
सितोपलादि चूर्ण के फायदे / Benefits Of Sitopaladi Churna
सितोपलादि चूर्ण क्षय (TB), खांसी, जीर्णज्वर (पुराना बुखार), धातुगत ज्वर, मंदाग्नि (Indigestion), अरुचि (Anorexia), प्रमेह, छातीमे जलन, पित्तविकार, खांसीमे कफके साथ खून आना, बालकोकी निर्बलता, रात्रीमे बुखार आना, नेत्रो (आंखो)मे उष्णता (गरमी) तथा गलेमे जलन आदि विकारोको दूर करता है। सगर्भा स्त्रियोको 3-4 मास तक सितोपलादि चूर्ण का सेवन करानेसे गर्भ पुष्ट और तेजस्वी बनता है।
राज्यक्षमा (TB) की प्रथम अवस्थामे श्वास प्रणालिका और फुफ्फुसों के भीतर रहे हुए वायुकोषोमे क्षय किटाणुओके विषप्रकोपसे शुष्कता (सूखापन) आजाती है। उस अवस्थामे यदि बुखारको शमन करने के लिये क्वीनाइन आदि उग्र औषधियोका, या त्रिक्टु, चित्रकमूल आदि अग्निप्रदीपन औषधियोका सेवन प्रधानरूप से या विशेषरूप से किया जाय, तो फुफ्फुस संस्थानमे शुष्कताकी वृद्धि होती है। फिर शुष्क कास (सुकी खांसी) अति बढ़ जाती है और किसी-किसी रोगी को रक्त मिश्रित थूक आता रहता है। दिनमे शांति नहीं मिलती और रात्रीको पूरी निंद्रा भी नहीं मिलती। व्याकुलता बनी रहती है। अग्निमांद्य, शारीरिक निर्बलता, मलावरोध (कब्ज), मूत्रमे पीलापन, शुष्क कासका वेग चलने पर बार-बार पसीना आते रहना, नेत्रमे जलन होते रहना आदि लक्षण प्रतीत होते है। एसी अवस्थामे अभ्रक आदि उत्तेजक औषधिसे लाभ नहीं मिलता, किन्तु कष्ट और भी बढ़ जाता है। शामक औषधिके सेवन की ही आवश्यकता रहती है। अतः यह सितोपलादि चूर्ण अमृतके सद्रश उपकार दर्शाता है। मात्रा 2-2 ग्राम गौधृत (गायका घी) और शहदके साथ मिलाकर दिनमे 4 समय देते रहना चाहिये। मुक्तापिष्टि या प्रवालपिष्टि साथमे मिला दी जाय तो लाभ सत्वर मिलता है।
सूचना: याद रखे घी और शहद कभी समान-मात्रामे न ले। समान-मात्रामे लेनेसे विष के समान बन जाता है। या तो शहदको घीसे कम ले या घीको शहदसे कम ले।
ज्वर जीर्ण होनेपर शरीर निर्बल बन जाता है, फिर थोड़ा परिश्रम भी सहन नहीं होता; आहार विहारमे थोड़ा अंतर होनेपर भी ज्वर बढ़ जाता है। शरीरमे मंद-मंद ज्वर बना रहता है या रात्रीको ज्वर आ जाता है और सुखी खांसी भी चलती रहती है। उन रोगियोको प्रवालपिष्टि और सितोपलादि चूर्ण शहद मिलाकर दिनमे 3 समय देते रहनेसे थोड़े ही दिनोमे खांसी शांत हो जाती है, ज्वर विषका पचन हो जाता है और रस, रक्त आदि धातुए पुष्ट बनकर ज्वरका निवारण हो जाता है।
माता निर्बल होनेपर संतान निर्बल रह जाती है। उनकी हड्डीयां बहुत कमजोर होती है। ऐसे शिशुओको प्रवाल और सितोपलादि चूर्णका मिश्रण 1 से 2 रत्ती (125 से 250 mg) दिनमे 2 समय लंबे समय तक देते रहनेसे बालक पुष्ट बन जाता है। यह उपचार प्रथम वर्षमे ही कर लिया जाय तो लाभ अधिक मिलता है।
कितनेही मनुस्योंकी निर्बलतासे उनकी संतान निर्बल होती है। ऐसी संतानकी माताओको सगर्भावस्थामे अभ्रक-प्रवालसह सितोपलादिका सेवन 5-7 मास तक कराया जाय, तो संतान बलवान, तेजस्वी और बुद्धिमान बनती है। इससे गर्भिणी और गर्भ दोनों पुष्ट बन जाते है, शरीरमे स्फूर्ति रहती है और मन भी प्रसन्न रहता है।
कोई रोगकी वजहसे अथवा अधिक गरम-गरम मसाला, अधिक गरम चाय आदि अथवा आमाशय पित्त (Gastric Juice)की वृद्धि करने वाले लवण भास्कर आदि चूर्णोका सेवन होनेपर आमाशयस्थ पित्तकी वृद्धि हो जाती है या पित्त तीव्र बन जाता है अर्थात लवणाम्ल (Acid Hydrochloric)की मात्र बढ़ जाती है। जिससे छाती और गलेमे जलन, मुहमे छाले, खट्टी-खट्टी डकारे आते रहना आदि लक्षण प्रतीत होते है, आहारका योग्य पचन नहीं होता और अरुचि भी बनी रहती है। इन रोगियोको प्रवाल भस्म या वराटिका भस्म और सितोपलादि चूर्णका सेवन करानेसे थोड़े ही दिनोंमे अम्लपित्तके लक्षण और अरुचि दूर होकर अग्नि प्रदीप्त हो जाती है।
आमाशय (stomach) पित्त (Gastric Juice) तीव्र बननेके कारण पचन क्रिया मंद हो जाती है। इसका उपचार शीघ्र न किया जाय तो किसी किसिको विदग्धाजीर्ण (अजीर्णका एक प्रकार है) हो जाता है। पेसाबका वर्ण अति पीला भासता है। सर्वांगमे दाह (पूरे शरीरमे जलन), तृषा (प्यास), मूत्रके परिमाणमे कमी, मूत्रस्त्राव अधिक बार होना, देह (शरीर) शुष्क (सूखा) हो जाना, चक्कर आते रहना आदि लक्षण उपस्थि होते है। इस अवस्थामे मुख्य औषधि चन्द्रकला रसके साथ साथ आमाशय पित्तकी शुद्धि करनेके लिये सितोपलादि चूर्णका सेवन कराया जाय तो जल्दी लाभ पहुंचता है।
जीर्णज्वर (पुराना बुखार) या प्रकुपित हुआ ज्वर दिर्धकाल पर्यन्त रह जानेपर शरीर अशक्त बन जाता है और मस्तिष्कमे उष्णता आजाती है। जिससे सहनशीलता कम हो जाती है, थोड़ीसी प्रतिकूलता होने या विचार विरुद्ध होनेपर अति क्रोध आ जाता है। यकृत (Liver) निर्बल हो जाता है। मलावरोध (Constipation) रहता है और मलमे दुर्गंध आती है, एवं पांडुता (शरीरमे पीलापन), ह्रदयमे धड़कन और अति निर्बलता आदि लक्षण उपस्थित होते है। ऐसे रोगियोको सितोपलादि चूर्ण खमीरेगावजवाके साथ कुच्छ दिनों तक देते रहनेपर सब लक्षणोसह पित्तप्रकोप दूर होकर शरीर बलवान बन जाता है।
मात्रा: 2 से 4 ग्राम दिनमे 2 बार घी और शहदके साथ। कफ प्रधान रोगोमे घीसे शहद दूना (Double) ले। वात और पित्त प्रधान रोगोमे घीमे शहद आधा मिलावे। घी पहले मिलावे फिर शहद मिलावे। कफ सरलतासे निकलता हो ऐसी खांसीमे केवल शहदके साथ।
सितोपलादि चूर्ण बनाने की विधि (Sitopaladi Churna Ingredients): मिश्री 16 तोले (1 तोला = 11.66 ग्राम), वंशलोचन 8 तोले, पीपल 4 तोले, छोटी इलायची के बीज 2 तोले और दालचीनी 1 तोला लें। सबको कूटकर बारीक चूर्ण बनावें।
Friday, July 16, 2021
time dilation theory for in bharat event history पौराणिक विज्ञान
time dilation theory for in bharat event history
In physics and relativity, time dilation is the difference in the elapsed time as measured by two clocks.Monday, May 3, 2021
Chant the mantra of Matangi Mata
मातंगी मतंग शिव का नाम है। शिव की यह शक्ति असुरों को मोहित करने वाली और साधकों को अभिष्ट फल देने वाली है। गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए लोग इनकी पूजा करते हैं। अक्षय तृतीया अर्थात वैशाख शुक्ल की तृतीया को इनकी जयंती आती है।
यह श्याम वर्ण और चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करती हैं। यह पूर्णतया वाग्देवी की ही पूर्ति हैं। चार भुजाएं चार वेद हैं। मां मातंगी वैदिकों की सरस्वती हैं।
पलास और मल्लिका पुष्पों से युक्त बेलपत्रों की पूजा करने से व्यक्ति के अंदर आकर्षण और स्तम्भन शक्ति का विकास होता है। ऐसा व्यक्ति जो मातंगी महाविद्या की सिद्धि प्राप्त करेगा, वह अपने क्रीड़ा कौशल से या कला संगीत से दुनिया को अपने वश में कर लेता है। वशीकरण में भी यह महाविद्या कारगर होती है।
गृहस्थ सुख, शत्रुओं का नाश, विलास, अपार सम्पदा, वाक सिद्धि। कुंडली जागरण, आपार सिद्धियां, काल ज्ञान, इष्ट दर्शन आदि के लिए मातंगी देवी की साधना की जाती है।
मातंगी माता का मंत्र स्फटिक की माला से बारह माला ‘ ॐ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा ‘ मंत्र का जाप करें।
Matangi is the name of Matang Shiva. This power of Shiva is enchanting asuras and giving blessings to seekers. People worship them to make home life better. Akshaya Tritiya means Vaishak Shukla's Tritiya on his birth anniversary.
It bears the black color and the moon on the forehead. This is completely the fulfillment of Vagdevi. The four arms are the four Vedas. Mother Matangi is the Saraswati of the Vedic people.
Worshiping belapatras with palas and mallika flowers develops attraction and pillar power within the person. Such a person who attains the accomplishment of Mathangi Mahavidya, he can subdue the world by his sportsmanship or art music. This Mahavidya is also effective in captivating.
Household happiness, destruction of enemies, luxury, immense wealth, speech accomplishment. Matangi Devi is practiced for awakening horoscopes, abhi siddhis, Kaal Gyan, favored darshan etc.
Chant the mantra of Matangi Mata with the garland of rhinestones, twelve chants of “Hari Ain Bhagwati Matangeshwari Shree Swaha”.