आर्य संस्कृति के रक्षक
प्रिया आत्मीय बंधुओं,
समय का चक्र अपनी गति से चलता रहता है। उस गति में हर क्षण नित्य नवीन होता है। पुराने क्षण से अलग कुछ नया करने का आह्वान करता है। जीवन को लम्बी यात्रा न मानकर क्षण-क्षण जीने में ही आनन्द है और जो जीवन को भार समझाते हैं, यह कि जीवन में केवल बाधाएं और परेशानियां ही हैं तो उनके लिए यह भार बढ़ता ही जाता है। जो साधक है, जो शिष्य है वह अपने मन से एक-एक कर भार का बोझ फेकता रहता है। अपने मार्ग में आने वाले कांटे पत्थरों को स्वयं हटाता है। स्वयं के प्रयत्नों से इस यात्रा में एक विशेष आनन्द की अनुभूति होती है। इस आनन्द में पूर्ण आत्म साक्षात्कार कराने हेतु सदगुरुदेव हर समय ह्रदय में विराजमान रहते ही हैं, केवल आवश्यकता इस बात की है की हम मन मंथन हर समय करते रहे। अपने आप को समय के तराजू पर तोलते रहें, समाज आवश्यक है लेकिन समाज की चिंताओं में इतना भी अधिक जकड नहीं जाएं कि समाज हमारे मन पर हावी हो जाएं।
जीवन के अज्ञान अंधकार को मिटाने के लिए यह आवश्यक है कि हमें अपने अन्दर विखण्डन प्रक्रिया प्रारम्भ करनी ही पड़ेगी। इसके लिए कोई समय मूहूर्त की आवश्यकता नहीं है। सदगुरुदेव कहते हैं कि जीवन का आधार विचार, विवेक और वैराग्य है। साधक का प्रथम कर्तव्य विचारशील होना है और यह विचार विवेक से युक्त होने चाहिए। लाखों प्रकार की बातें हम सुनते हैं, लाखों प्रकार के मंत्र हैं, लाखों प्रकार के अन्य कार्य हैं, लाखों प्रकार के मोह है। लेकिन जब हम अपने विवेक स्थान, जिसका प्रारम्भ ह्रदय से है, जिसका भाव आज्ञा चक्र मस्तिष्क में है उस विवेक स्थान पर सदगुरुदेव स्थापित हो जाएं तो श्रेष्ठ विचार ही उत्पन्न होते हैं। विचार ही महाशक्ति है, विचार ही आद्या दुर्गा शक्ति है, महाकाली है, महाविद्याएं है, विचार ही भाग्य का निर्माण करती है। विचार का तात्पर्य है संकल्प और चिंतन। जब चिंतन के साथ संकल्प प्रारम्भ होता है तो जीवन की समस्याएं लघु लगने लगती हैं और इसी से जीवन में एक निःस्पृह योगी का भाव आता है। आप साधक है, शिष्य है और शक्ति के उपासक हैं। सदगुरुदेव रूपी शिव आपके साथ है फिर जीवन में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।
जब हम गुरु से मिलते है तो हमारा नया जन्म होता है और जीवन का हर क्षण एक उज्जवल भविष्य की सम्भावना लेकर आता है। हर घड़ी एक महान मोड़ का समय हो सकती है। क्या पता जिस क्षण को हम समझकर बरबाद कर रहे हैं, वही हमारे लिए अपनी झोली में सुंदर सौभाग्य की सफलता लाया हो। समय की चूक पश्चाताप की हूक बन जाती है। जीवन में कुछ करने की इच्छा रखने वालों को चाहिए कि वे अपने किसी भी ऐसे कर्तव्य को भूलकर भी कलपर न टालें, जो आज किया जाना चाहिए। आज के मन के लिए आज का ही दिन निश्चित है और हमें हर समय वर्त्तमान में ही जीवन जीना है।
गुरुदेव चाहे तो एक क्षण में वरदान देकर जीवन को परिवर्तित कर सकते हैं लेकिन गुरुदेव तो जीवन को तपाते है, साधक में अग्नि तत्व का संचार करते हैं और जब यह अग्नि तत्व संचालित हो जाता है तो साधक आत्म ज्ञान का पहला अध्याय पूरा करता है। इसलिए सदगुरुदेव सदैव संस्कृति और संस्कार पर बल देते हैं। संस्कार एक दिन में ही जाग्रत हो जाते हैं इसे बदलने के लिए मन के हजार-हजार बंधनों को तोड़ना पङता हैं।
जब नदी कई धाराओं में बट जाती है तो वह नदी न बनकर एक नहर बन जाती है और नहरें समुद्र को पा नहीं सकती हैं। वे छोटे-छोटे टुकडों में बटी हुई अपने अस्तित्व को समाप्त कर देती हैं और केवल स्थान भर के लिए थोडी उपयोगी रह जाती है। शिष्य भी नदी की तरह ही जब वह ज्ञान के मार्ग पर जीवन की यात्रा करता है तो उसमें दृढ़ निश्चय संकल्प होना आवश्यक है क्योंकि उसका लक्ष्य यह होना चाहिए कि मुझे अपने सागर रुपी गुरु से मिलना है। गुरु ही विराट है उसी में अपने अस्तित्व का मिलन करना है।
सिद्धाश्रम साधक परिवार की इस यात्रा में जब मैं कई शिष्यों को अपने मार्ग से थोडा भटकते हुए देखता हूं आश्चर्य होता है मन व्यथित होता है, जब लोगों को सदगुरु के नाम पर ढोंग करने वाले शिष्यों के सामने नमन करते देखता हूं, जब कुछ शिष्यों को क्षणिक, भौतिक सुविधाओं के लिए ऐसे लोगों के पास भटकते देखता हूं जो उन्हें जीवन की सारी भौतिक बाधाओं को पूर्ण करने का छलावा दिखाते हैं। कोई तथाकथित गुरु गडा धन बताने की बात करता है तो कोई तथाकथित गुरु भूत-प्रेत भगाने का दावा करता है तो कोई मां काली के दर्शन कराने का भ्रम दिखाता है। इन छोटे-छोटे स्थानिक गुरुओं को देखकर आश्चर्य होता है कि सदगुरु के शिष्य ऐसे भ्रम में कैसे पड़ जाते हैं? और मेरे सामने इनका उत्तर ना मिलने पर सदगुरुदेव निखिल के सामने बैठकर प्रार्थना करता हूं कि हे! गुरुदेव यह कैसी लीला है तो गुरुदेव कहते हैं कि चिंता करने की कोई बात नहीं है घासफूस, खतपतवार, मौसमी फल थोड़े समय के लिए सबको अच्छे लगते हैं लेकिन खतपतवार, मौसमी फल-फूल का जीवन स्थाई नहीं रहता। जो शिष्य इन मार्गों पर जा रहे हैं वे वापस सिद्धाश्रम की मुख्य धारा में अवश्य आयेंगे।
इसलिए मुझे आज यह उदघोष करना है कि आप सिद्धाश्रम साधक परिवार के प्रहरी हैं। सदगुरुदेव के मानस पुत्र हैं, दीक्षा प्राप्त शिष्य हैं, आर्य संस्र्कुती के रक्षक हैं तो आपका यह कर्तव्य कि सदगुरुदेव के नाम पर पड़ने वाली इस खतपतवार को समाप्त कर दें। इन ढोंगियों को ऐसी सजा दे कि पूरा समाज देख सके और पत्थर और हीरे में अनुभव अन्तर कर सकें। कृत्रिम चमक कुछ समय के लिए लुभा सकती है लेकिन हीरा तो हीरा ही है। हमारे सदगुरुदेव तो हीरे से भी अधिक मूल्यवान, सागर से भी
विशाल, हिमालय से भी उंचे, शिवरूपी निखिल हैं और जिन्हें प्राप्त करना सहज है।
इसी उद्देश्य से यह अंक भगवती मां दुर्गा को समर्पित है, महाविद्याओं को समर्पित है जिनकी साधना आराधना कर हम जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकते हैं।
इस बार बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में फिर महाशिवरात्रि पर्व "हर-हर महादेव" का उदघोष करेंगे। शिव और शक्ति से अपने जीवन को भर देंगे क्योंकि हमारा एक ही मूल सुत्र है -
एकोही नामं एकोहि कार्यं, एकोहि ध्यानं एकोहि ज्ञानं ।
आज्ञा सदैवं परिपालयन्ति; त्वमेवं शरण्यं त्वमेव शरण्यं ॥
आपका अपना
नन्द किशोर श्रीमाली
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका , फरवरी 2006