Friday, March 2, 2018

मंत्र साधना करते समय सावधानियां mantra sadhana karte hoye kucch savdhaniya par dhyan de

साधना में गुरु की आवश्यकता
Y      मंत्र साधना के लिए गुरु धारण करना श्रेष्ट होता है.
Y      साधना से उठने वाली उर्जा को गुरु नियंत्रित और संतुलित करता है, जिससे साधना में जल्दी सफलता मिल जाती है.
Y      गुरु मंत्र का नित्य जाप करते रहना चाहिए. अगर बैठकर ना कर पायें तो चलते फिरते भी आप मन्त्र जाप कर सकते हैं.
Y      रुद्राक्ष या रुद्राक्ष माला धारण करने से आध्यात्मिक अनुकूलता मिलती है .
Y      रुद्राक्ष की माला आसानी से मिल जाती है आप उसी से जाप कर सकते हैं.
Y      गुरु मन्त्र का जाप करने के बाद उस माला को सदैव धारण कर सकते हैं. इस प्रकार आप मंत्र जाप की उर्जा से जुड़े रहेंगे और यह रुद्राक्ष माला एक रक्षा कवच की तरह काम करेगा.
गुरु के बिना साधना
Y         स्तोत्र तथा सहश्रनाम साधनाएँ बिना गुरु के भी की जा सकती हैं.
Y         जिन मन्त्रों में 108 से ज्यादा अक्षर हों उनकी साधना बिना गुरु के भी की जा सकती हैं.
Y         शाबर मन्त्र तथा स्वप्न में मिले मन्त्र बिना गुरु के जाप कर सकते हैं .
Y         गुरु के आभाव में स्तोत्र तथा सहश्रनाम साधनाएँ करने से पहले अपने इष्ट या भगवान शिव के मंत्र का एक पुरश्चरण यानि १,२५,००० जाप कर लेना चाहिए.इसके अलावा हनुमान चालीसा का नित्य पाठ भी लाभदायक होता है.
    
मंत्र साधना करते समय सावधानियां
Y      मन्त्र तथा साधना को गुप्त रखेंढिंढोरा ना पीटेंबेवजह अपनी साधना की चर्चा करते ना फिरें .
Y      गुरु तथा इष्ट के प्रति अगाध श्रद्धा रखें .
Y      आचार विचार व्यवहार शुद्ध रखें.
Y      बकवास और प्रलाप न करें.
Y      किसी पर गुस्सा न करें.
Y      यथासंभव मौन रहें.अगर सम्भव न हो तो जितना जरुरी हो केवल उतनी बात करें.
Y      ब्रह्मचर्य का पालन करें.विवाहित हों तो साधना काल में बहुत जरुरी होने पर अपनी पत्नी से सम्बन्ध रख सकते हैं.
Y      किसी स्त्री का चाहे वह नौकरानी क्यों न हो, अपमान न करें.
Y      जप और साधना का ढोल पीटते न रहें, इसे यथा संभव गोपनीय रखें.
Y      बेवजह किसी को तकलीफ पहुँचाने के लिए और अनैतिक कार्यों के लिए मन्त्रों का प्रयोग न करें.
Y      ऐसा करने पर परदैविक प्रकोप होता है जो सात पीढ़ियों तक अपना गलत प्रभाव दिखाता है.
Y      इसमें मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों का जन्म लगातार गर्भपातसन्तान ना होना अल्पायु में मृत्यु या घोर दरिद्रता जैसी जटिलताएं भावी पीढ़ियों को झेलनी पड सकती है |
Y      भूतप्रेतजिन्न,पिशाच जैसी साधनाए भूलकर भी ना करें इन साधनाओं से तात्कालिक आर्थिक लाभ जैसी प्राप्तियां तो हो सकती हैं लेकिन साधक की साधनाएं या शरीर कमजोर होते ही उसे असीमित शारीरिक मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है ऐसी साधनाएं करने वाला साधक अंततः उसी योनी में चला जाता है |
Y      गुरु और देवता का कभी अपमान न करें.
मंत्र जाप में दिशाआसनवस्त्र का महत्व
ü  साधना के लिए नदी तटशिवमंदिरदेविमंदिरएकांत कक्ष श्रेष्ट माना गया है .
ü  आसन में काले/लाल कम्बल का आसन सभी साधनाओं के लिए श्रेष्ट माना गया है .
ü  अलग अलग मन्त्र जाप करते समय दिशाआसन और वस्त्र अलग अलग होते हैं .
ü  इनका अनुपालन करना लाभप्रद होता है .
ü  जाप के दौरान भाव सबसे प्रमुख होता है जितनी भावना के साथ जाप करेंगे उतना लाभ ज्यादा होगा.
ü  यदि वस्त्र आसन दिशा नियमानुसार ना हो तो भी केवल भावना सही होने पर साधनाएं फल प्रदान करती ही हैं .
ü  नियमानुसार साधना न कर पायें तो जैसा आप कर सकते हैं वैसे ही मंत्र जाप करें लेकिन साधनाएं करते रहें जो आपको साधनात्मक अनुकूलता के साथ साथ दैवीय कृपा प्रदान करेगा |
साधना पत्रिका  निखिल मंत्र विज्ञान 
यह पत्रिका तंत्र साधनाओं के गूढतम रहस्यों को साधकों के लिये स्पष्ट कर उनका मार्गदर्शन करने में अग्रणी है. साधना पत्रिका निखिल मंत्र विज्ञान में महाविद्या साधना भैरव साधनाकाली साधनाअघोर साधनाअप्सरा साधना इत्यादि के विषय में जानकारी मिलेगी . इसमें आपको विविध साधनाओं के मंत्र तथा पूजन विधि का प्रमाणिक विवरण मिलेगा . देश भर में लगने वाले विभिन्न साधना शिविरों के विषय में जानकारी मिलेगी . 

Tuesday, January 23, 2018

ज्योतिष में फलकथन का आधार The basis of astrology in astrology

लग्न आदिक द्वादशभावोंमेंसे जो जो भाव अपने पूर्ण बली स्वामीवाला हो अथवा स्वामीसे युक्त वा देखा जात हो अथवा शुभग्रहोंकी दृष्टिसे युक्त हो तो क्रमसे उस भावकी वृद्धि कहना चाहिये ॥१॥

रुप, वर्ण, चिह्न, जाति अवस्थाका प्रमाण, सुख,ल दुःख और साहस इन सब पदार्थोंका विचार तनुभावसे करना चाहिये ॥२॥

स्वर्णादि धातु, क्रय, विक्रय रत्नादि, कोषका संग्रह ये सब दूसरे ( धन ) भावसे विचार करना चाहिये ॥३॥

सहोदरभाईका, नौकरका और पराक्रमका विचार तीसरे ( सहज ) भावसे करना चाहिये ॥४॥

चौथे ( सुह्यत् ) भावसे मित्र, मकान, ग्राम, चौपाये जीव, क्षेत्र भूमि इन सबका विचार करना चाहिये, जो शुभग्रह बैठे होय या देखते होंय तो इन सब पदार्थोकी वृद्धि कहना और जो चौथे स्थानमें पापग्रह बैठे होंय वा देखते होंय तो इन पदार्थोंकी हानि होती है ॥५॥

बुद्धिके प्रबंध, विद्या, सन्तान, मंत्राराधन, नीति, न्याय और गर्भकी स्थिति ये सब विचार पंचम ( सुत ) भावसे करना चाहिये ॥६॥

शत्रु, व्रण ( फोडा, फुंसी, तिल, मस्सा ), क्रूरकर्म, रोग, चिंता, शंका, मातुलका शुभाशुभ विचार, ये सब छठे ( शत्रु ) भावसे विचार करना चाहिये ॥७॥

युद्ध, स्त्री, व्यापार, परदेशसे आनेका विचार ये सब सप्तम ( जाया ) भावसे विचार करना चाहिये ॥८॥

नदीके पार उतरना, रास्ता, विषमस्थान, शस्त्रप्रहार, आयुषीय समस्त संकटोंका विचार अष्टम ( रन्ध्र ) भावसे करना चाहिये ॥९॥

धर्मक्रियामें मनकी प्रवृत्ति और निर्मल स्वभाव, तीर्थयात्रा, नीति, नम्रता ये सब नवम ( भाग्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥१०॥

व्यापार, मुद्रा, राजमान्य और राजसंबंधी प्रयोजन, पिताके सुखदुःखका विचार, महत् पदकी प्राप्ति ये सब दशम ( पुण्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥११॥

हाथी, घोडा, सोना, चांदी, वस्त्र, आभूषण, रत्नोंका लाभ, पालकी, मकान इन सब चीजोंका विचार ग्यारहवें ( लाभ ) भावसे करना चाहिये ॥१२॥

हानिका विचार व दानका व व्ययका व दंड और बंधन इन सबका विचार ( व्यय ) बारहवें भावसे करना चाहिये ॥१३॥

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 लग्न आदिक द्वादशभावोंमेंसे जो जो भाव अपने पूर्ण बली स्वामीवाला हो अथवा स्वामीसे युक्त वा देखा जात हो अथवा शुभग्रहोंकी दृष्टिसे युक्त हो तो क्रमसे उस भावकी वृद्धि कहना चाहिये ॥१॥

रुप, वर्ण, चिह्न, जाति अवस्थाका प्रमाण, सुख,ल दुःख और साहस इन सब पदार्थोंका विचार तनुभावसे करना चाहिये ॥२॥

स्वर्णादि धातु, क्रय, विक्रय रत्नादि, कोषका संग्रह ये सब दूसरे ( धन ) भावसे विचार करना चाहिये ॥३॥

सहोदरभाईका, नौकरका और पराक्रमका विचार तीसरे ( सहज ) भावसे करना चाहिये ॥४॥

चौथे ( सुह्यत् ) भावसे मित्र, मकान, ग्राम, चौपाये जीव, क्षेत्र भूमि इन सबका विचार करना चाहिये, जो शुभग्रह बैठे होय या देखते होंय तो इन सब पदार्थोकी वृद्धि कहना और जो चौथे स्थानमें पापग्रह बैठे होंय वा देखते होंय तो इन पदार्थोंकी हानि होती है ॥५॥

बुद्धिके प्रबंध, विद्या, सन्तान, मंत्राराधन, नीति, न्याय और गर्भकी स्थिति ये सब विचार पंचम ( सुत ) भावसे करना चाहिये ॥६॥

शत्रु, व्रण ( फोडा, फुंसी, तिल, मस्सा ), क्रूरकर्म, रोग, चिंता, शंका, मातुलका शुभाशुभ विचार, ये सब छठे ( शत्रु ) भावसे विचार करना चाहिये ॥७॥

युद्ध, स्त्री, व्यापार, परदेशसे आनेका विचार ये सब सप्तम ( जाया ) भावसे विचार करना चाहिये ॥८॥

नदीके पार उतरना, रास्ता, विषमस्थान, शस्त्रप्रहार, आयुषीय समस्त संकटोंका विचार अष्टम ( रन्ध्र ) भावसे करना चाहिये ॥९॥

धर्मक्रियामें मनकी प्रवृत्ति और निर्मल स्वभाव, तीर्थयात्रा, नीति, नम्रता ये सब नवम ( भाग्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥१०॥

व्यापार, मुद्रा, राजमान्य और राजसंबंधी प्रयोजन, पिताके सुखदुःखका विचार, महत् पदकी प्राप्ति ये सब दशम ( पुण्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥११॥

हाथी, घोडा, सोना, चांदी, वस्त्र, आभूषण, रत्नोंका लाभ, पालकी, मकान इन सब चीजोंका विचार ग्यारहवें ( लाभ ) भावसे करना चाहिये ॥१२॥

हानिका विचार व दानका व व्ययका व दंड और बंधन इन सबका विचार ( व्यय ) बारहवें भावसे करना चाहिये ॥१३॥



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(5)
ज्योतिष में फलकथन का आधार मुख्यतः ग्रहों, राशियों और भावों का स्वाभाव, कारकत्‍व एवं उनका आपसी संबध है।

ग्रहों को ज्योतिष में जीव की तरह माना जाता है - राशियों एवं भावों को वह क्षेत्र मान जाता है, जहाँ ग्रह विचरण करते हैं। ग्रहों का ग्रहों से संबध, राशियों से संबध, भावों से संबध आदि से फलकथन का निर्धारण होता है।

ज्योतिष में ग्रहों का एक जीव की तरह 'स्‍वभाव' होता है। इसके अलाव ग्रहों का 'कारकत्‍व' भी होता है। राशियों का केवल 'स्‍वभाव' एवं भावों का केवल 'कारकत्‍व' होता है। स्‍वभाव और कारकत्‍व में फर्क समझना बहुत जरूरी है।

सरल शब्‍दों में 'स्‍वभाव' 'कैसे' का जबाब देता है और 'कारकत्‍व' 'क्‍या' का जबाब देता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। माना की सूर्य ग्रह मंगल की मेष राशि में दशम भाव में स्थित है। ऐसी स्थिति में सूर्य क्‍या परिणाम देगा?

नीचे भाव के कारकत्‍व की तालिका दी है, जिससे पता चलता है कि दशम भाव व्यवसाय एवं व्यापार का कारक है। अत: सूर्य क्‍या देगा, इसका उत्‍तर मिला की सूर्य 'व्‍यवसाय' देगा। वह व्‍यापार या व्‍यवसाय कैसा होगा - सूर्य के स्‍वाभाव और मेष राशि के स्‍वाभाव जैसा। सूर्य एक आक्रामक ग्रह है और मंगल की मेष राशि भी आक्रामक राशि है अत: व्‍यवसाय आक्रामक हो सकता है। दूसरे शब्‍दों में जातक सेना या खेल के व्‍यवयाय में हो सकता है, जहां आक्रामकता की जरूरत होती है। इसी तरह ग्रह, राशि, एवं भावों के स्‍वाभाव एवं कारकत्‍व को मिलाकर फलकथन किया जाता है।

दुनिया की समस्त चल एवं अचल वस्तुएं ग्रह, राशि और भाव से निर्धारित होती है। चूँकि दुनिया की सभी चल एवं अचल वस्तुओं के बारे मैं तो चर्चा नहीं की जा सकती, इसलिए सिर्फ मुख्य मुख्य कारकत्‍व के बारे में चर्चा करेंगे।

सबसे पहले हम भाव के बारे में जानते हैं। भाव के कारकत्‍व इस प्रकार हैं -
प्रथम भाव : प्रथम भाव से विचारणीय विषय हैं - जन्म, सिर, शरीर, अंग, आयु, रंग-रूप, कद, जाति आदि।


द्वितीय भाव: दूसरे भाव से विचारणीय विषय हैं - रुपया पैसा, धन, नेत्र, मुख, वाणी, आर्थिक स्थिति, कुटुंब, भोजन, जिह्य, दांत, मृत्यु, नाक आदि।


तृतीय भाव : तृतीय भाव के अंतर्गत आने वाले विषय हैं - स्वयं से छोटे सहोदर, साहस, डर, कान, शक्ति, मानसिक संतुलन आदि।


चतुर्थ भाव : इस भाव के अंतर्गत प्रमुख विषय - सुख, विद्या, वाहन, ह्दय, संपत्ति, गृह, माता, संबंधी गण,पशुधन और इमारतें।


पंचव भाव : पंचम भाव के विचारणीय विषय हैं - संतान, संतान सुख, बुद्धि कुशाग्रता, प्रशंसा योग्य कार्य, दान, मनोरंजन, जुआ आदि।


षष्ठ भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - रोग, शारीरिक वक्रता, शत्रु कष्ट, चिंता, चोट, मुकदमेबाजी, मामा, अवसाद आदि।


सप्तम भाव : विवाह, पत्‍नी, यौन सुख, यात्रा, मृत्यु, पार्टनर आदि विचारणीय विषय सप्तम भाव से संबंधित हैं।


अष्टम भाव : आयु, दुर्भाग्य, पापकर्म, कर्ज, शत्रुता, अकाल मृत्यु, कठिनाइयां, सन्ताप और पिछले जन्म के कर्मों के मुताबिक सुख व दुख, परलोक गमन आदि विचारणीय विषय आठवें भाव से संबंधित हैं।


नवम भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - पिता, भाग्य, गुरु, प्रशंसा, योग्य कार्य, धर्म, दानशीलता, पूर्वजन्मों का संचि पुण्य।


दशम भाव : दशम भाव से विचारणीय विषय हैं - उदरपालन, व्यवसाय, व्यापार, प्रतिष्ठा, श्रेणी, पद, प्रसिद्धि, अधिकार, प्रभुत्व, पैतृक व्यवसाय।


एकादश भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - लाभ, ज्येष्ठ भ्राता, मुनाफा, आभूषण, अभिलाषा पूर्ति, धन संपत्ति की प्राप्ति, व्यापार में लाभ आदि।


द्वादश भाव : इस भाव से संबंधित विचारणीय विषय हैं - व्यय, यातना, मोक्ष, दरिद्रता, शत्रुता के कार्य, दान, चोरी से हानि, बंधन, चोरों से संबंध, बायीं आंख, शय्यासुख, पैर आदि।

इस बार इतना ही। ग्रहों का स्‍वभाव/ कारकत्‍व व राशियों के स्‍वाभाव की चर्चा हम अगले पाठ में करेंगे।

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 भावेश

भाव विशेष में स्थित राशि का स्वामी ग्रह ही उस भाव का स्वामी होता है, जिसे भावेश कहते हैं।

आमतौर से…

१. प्रथम भाव के स्वामी को लग्नेश;

२. द्वितीय भाव के स्वामी को धनेश/द्वितीयेश;

३. तृतीय भाव के स्वामी को सहजेश/तृतीयेश;

४. चतुर्थ भाव के स्वामी को सुखेश/चतुर्थेश;

५. पंचम भाव के स्वामी को सुतेश/पंचमेश;

६. षष्ठ भाव के स्वामी को रोगेश/षष्ठेश;

७. सप्तम भाव के स्वामी को जायेश/सप्तमेश;

८. अष्टम भाव के स्वामी को रन्ध्रेश/अष्टमेश;

९. नवम भाव के स्वामी को भाग्येश/नवमेश;

१०. दशम भाव के स्वामी को कर्मेश/दशमेश;

११. एकादश भाव के स्वामी को आयेश/एकादशेश;

१२. द्वादश भाव के स्वामी को व्ययेश/द्वादशेश; कहते हैं।

भावेश, लग्न या अपने भाव से किस स्थान पर है? इसका फलादेश में बहुत महत्त्व होता है। फिर यह देखा जाता है कि भावेश किस राशि में है? किस ग्रह से युक्त या दृष्ट है? उदय/अस्त; वक्री/मार्गी; संधि; चर; अतिचर इत्यादि विभिन्न स्थितियों पर आधारित भावेश का बलाबल और अपने भाव को भावेश कतना सहयोग दे रहा है, इस बात का विचार होता है।

tantrika-sadhanao-ya-tantrika-paddhati-se-sadhana-ka-mahatva तांत्रिक साधनाओ या तांत्रिक पद्धति से साधना का महत्व।

 तांत्रिक साधनाओ या तांत्रिक पद्धति से साधना का महत्व।

तंत्र अलौकिक शक्तियों से युक्त तथा सार्वभौमिक ज्ञान से सम्बद्ध, एक प्रकार विद्या प्राप्ति की पद्धति हैं, जो महान ज्ञान का भंडार हैं। आदि काल से ही समस्त हिन्दू शास्त्र महान ज्ञान तथा दर्शन का भंडार रहा हैं तथा पांडुलिपि के रूप में लिपि-बद्ध हैं एवं स्वतंत्र ज्ञान के श्रोत हैं। बहुत से ग्रंथों की पाण्डुलिपि प्रायः लुप्त हो चुकी हैं या जीर्ण अवस्था में हैं। बहुत से ग्रंथों में कुछ ऐसे ग्रंथों का नाम प्राप्त होता हैं, जो आज लुप्त हो चुके हैं।

       ।। तंत्र का शाब्दिक अर्थ ।।

तंत्र का सर्वप्रथम अर्थ ऋग्-वेद से प्राप्त होता हैं, जिसके अनुसार यह एक ऐसा करघा हैं जो ज्ञान को बढ़ता हैं। जिसके अंतर्गत, भिन्न-भिन्न प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर, बुद्धि तथा शक्ति दोनों को बढ़ाया जाता हैं। तंत्र के सिद्धांत आध्यात्मिक साधनाओं, रीति-रिवाजों के पालन, भैषज्य विज्ञान, अलौकिक तथा पारलौकिक शक्तिओं की प्राप्ति हेतु, काल जादू-इंद्र जाल, अपने विभिन्न कामनाओं के पूर्ति हेतु, योग द्वारा निरोग रहने, ब्रह्मत्व या मोक्ष प्राप्ति हेतु, वनस्पति विज्ञान, सौर्य-मण्डल, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष विज्ञान, शारीरिक संरचना विज्ञान इत्यादि से सम्बद्ध हैं या कहे तो ये सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्ति का भंडार हैं। हिन्दू धर्मों के अनुसार हजारों तंत्र ग्रन्थ हैं, परन्तु काल के दुष्प्रभाव के परिणामस्वरूप कुछ ग्रन्थ लुप्त हो गए हैं। तंत्र का एक अंधकार युक्त भाग भी हैं, जिसके अनुसार हानि से संबंधित क्रियाओं का प्रतिपादन होता हैं। परन्तु यह संपूर्ण रूप से साधक के ऊपर ही निर्भर हैं की वह तंत्र पद्धति से प्राप्त ज्ञान का किस प्रकार से उपयोग करता हैं।
कामिका तंत्र के अनुसार, तंत्र शब्द दो शब्दों के मेल से बना हैं पहला 'तन' तथा दूसरा 'त्र'। 'तन' शब्द बड़े पैमाने पर प्रचुर मात्रा में गहरे ज्ञान से हैं तथा 'त्र' शब्द का अर्थ सत्य से हैं। अर्थात प्रचुर मात्र में वह ज्ञान जिसका सम्बन्ध सत्य से है! वही तंत्र हैं। तंत्र संप्रदाय अनुसार वर्गीकृत हैं, भगवान विष्णु के अनुयायी! जो वैष्णव कहलाते हैं, इनका सम्बन्ध 'संहिताओं' से हैं तथा शैव तथा शक्ति के अनुयायी! जिन्हें शैव या शक्ति संप्रदाय के नाम से जाना जाता हैं, इनका सम्बन्ध क्रमशः आगम तथा तंत्र से हैं। आगम तथा तंत्र शास्त्र, भगवान शिव तथा पार्वती के परस्पर वार्तालाप से अस्तित्व में आये हैं तथा इनके गणो द्वारा लिपि-बद्ध किये गए हैं। ब्रह्मा जी से सम्बंधित तंत्रों को 'वैखानख' कहा जाता हैं।
तंत्र के प्रमुख विचार तथा विभाजन।
तंत्रो के अंतर्गत चार प्रकार के विचारों या उपयोगों को सम्मिलित किया गया हैं।
१. ज्ञान, तंत्र ज्ञान के अपार भंडार हैं।
२. योग, अपने स्थूल शारीरिक संरचना को स्वस्थ रखने हेतु।
३. क्रिया, भिन्न-भिन्न स्वरूप तथा गुणों वाले देवी-देवताओं से सम्बंधित पूजा विधान।
४. चर्या, व्रत तथा उत्सवों में किये जाने वाले कृत्यों का वर्णन।

इनके अतिरिक्त दार्शनिक दृष्टि से तंत्र तीन भागों में विभाजित हैं १. द्वैत २. अद्वैत तथा ३. द्वैता-द्वैत।


१. आगम २. यामल ३. डामर ४. तंत्र
वैचारिक मत से तंत्र शास्त्र चार भागों में विभक्त है

प्रथम तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ माने जाते हैं! आगम वे ग्रन्थ हैं जो भगवान शिव तथा पार्वती के परस्पर वार्तालाप के कारण अस्तित्व में आये हैं तथा भगवान विष्णु द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। भगवान शिव द्वारा कहा गया तथा पार्वती द्वारा सुना गया! आगम नाम से जाना जाता हैं; इसके विपरीत पार्वती द्वारा बोला गया तथा शिव जी के द्वारा सुना गया निगम के नाम से जाना जाता हैं। इन्हें सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा सुना गया हैं तथा उन्होंने ही आगम-निगमो को मान्यता प्रदान की हैं। भगवान विष्णु के द्वारा गणेश, गणेश द्वारा नंदी तथा नंदी द्वारा अन्य गणो को इन ग्रंथों का उपदेश दिया गया हैं।
आगम ग्रंथों के अनुसार शिव जी पंच-वक्त्र हैं, अर्थात इनके पाँच मस्तक हैं; १. ईशान २. तत्पुरुष ३. सद्योजात ४. वामदेव ५. अघोर। शिव जी के प्रत्येक मस्तक भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तिओं के प्रतीक हैं; क्रमशः सिद्धि, आनंद, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया हैं।

भगवान शिव मुख्यतः तीन अवतारों में अपने आपको प्रकट करते हैं १. शिव २. रुद्र तथा ३. भैरव, इन्हीं के अनुसार वे ३ श्रेणिओ के आगमों को प्रस्तुत करते हैं १. शैवागम २. रुद्रागम ३. भैरवागम। प्रत्येक आगम श्रेणी, स्वरूप तथा गुण के अनुसार हैं।

शैवागम : भगवान शिव ने अपने ज्ञान को १० भागों में विभक्त कर दिया तथा उन से सम्बंधित १० अगम शैवागम नाम से जाने जाते हैं।

१. प्रणव शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, कमिकागम नाम से जाना जाता है।

२. सुधा शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, योगजगाम नाम से जाना जाता है।

३. दीप्त शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, छन्त्यागम नाम से जाना जाता है।

४. कारण शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, करनागम नाम से जाना जाता है।

५. सुशिव शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, अजितागम नाम से जाना जाता है।

६. ईश शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सुदीप्तकागम नाम से जाना जाता है।

७. सूक्ष्म शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सूक्ष्मागम नाम से जाना जाता है।

८. काल शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सहस्त्रागम नाम से जाना जाता है।

९. धनेश शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सुप्रभेदागम नाम से जाना जाता है।

१०. अंशु शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, अंशुमानागम नाम से जाना जाता है।

   ।। रुद्रागम : १८ भागों में विभक्त हैं ।।

१. विजय रुद्रागम २. निश्वाश रुद्रागम ३. परमेश्वर रुद्रागम ४. प्रोद्गीत रुद्रागम ५. मुखबिम्ब रुद्रागम ६. सिद्ध रुद्रागम ७. संतान रुद्रागम ८. नरसिंह रुद्रागम ९. चंद्रान्शु रुद्रागम १०. वीरभद्र रुद्रागम ११. स्वयंभू रुद्रागम १२. विरक्त रुद्रागम १३. कौरव्य रुद्रागम १४. मुकुट और मकुट रुद्रागम १५. किरण रुद्रागम १६. गणित रुद्रागम १७. आग्नेय रुद्रागम १८. वतुल रुद्रागम

भैरवागम : भैरवागम के रूप में, यह ६४ भागों में विभाजित किया गया है।

१. स्वच्छ २. चंद ३. कोर्च ४. उन्मत्त ५. असितांग ६. महोच्छुष्मा ७. कंकलिश ८. ............ ९. ब्रह्मा १०. विष्णु ११. शक्ति १२. रुद्र १३. आथवर्ण १४. रुरु १५. बेताल १६. स्वछंद १७. रक्ताख्या १८. लम्पटाख्या १९. लक्ष्मी २०. मत २१. छलिका २२. पिंगल २३. उत्फुलक २४. विश्वधा २५. भैरवी २६. पिचू तंत्र २७. समुद्भव २८. ब्राह्मी कला २९. विजया ३०. चन्द्रख्या ३१. मंगला ३२. सर्व मंगला ३३. मंत्र ३४. वर्न ३५. शक्ति ३६. कला ३७. बिन्दू ३८. नाता ३९. शक्ति ४०. चक्र ४१. भैरवी ४२. बीन ४३. बीन मणि ४४. सम्मोह ४५. डामर ४६. अर्थवक्रा ४७. कबंध ४८. शिरच्छेद ४९. अंधक ५०. रुरुभेद ५१. आज ५२. मल ५३. वर्न कंठ ५४. त्रिदंग ५५. ज्वालालिन ५६. मातृरोदन ५७. भैरवी ५८. चित्रिका ५९. हंसा ६०. कदम्बिका ६१. हरिलेखा ६२. चंद्रलेखा ६३. विद्युलेखा ६४. विधुन्मन।

तंत्र में शाक्त शाखा के अनुसार ६४ तंत्र और ३२७ उप तंत्र, यमल, डामर और संहिताये हैं।

आगम ग्रंथों का सम्बन्ध वैष्णव संप्रदाय से भी हैं, वैष्णव आगम  दो भागों में विभक्त हैं  प्रथम बैखानक तथा दूसरा पंच-रात्र तथा संहिता। बैखानक एक ऋषि का नाम था तथा उसके नौ छात्र १. कश्यप २. अत्री ३. मरीचि ४. वशिष्ठ ५. अंगिरा ६. भृगु ७. पुलत्स्य ८. पुलह ९. क्रतु थें, यह नौ ऋषि बैखानक आगम के प्रवर्तक माने जाते हैं; वैष्णवों की पञ्च क्रियाओं के अनुसार पंच-रात्र आगम रचे गए हैं। वैष्णव संप्रदाय द्वारा भगवान विष्णु से सम्बंधित नाना प्रकार की धार्मिक क्रिया-कर्म! जो पाँच रात्रि या रात्रों में पूर्ण होते हैं, इनका वर्णन वैष्णव आगम ग्रंथों में समाहित हैं। १. ब्रह्मा-रात्र २. शिव-रात्र ३. इंद्र-रात्र ४. नाग-रात्र ५. ऋषि-रात्र! वैष्णव आगम के अंतर्गत आते हैं; सनत कुमार, नारद, मार्कण्डये, वसिष्ठ, विश्वामित्र, अनिरुध, ईश्वर तथा भारद्वाज मुनि! वैष्णव आगमो के प्रवर्तक थे।

यमला या यामल : साधारणतः यमल का अभिप्राय संधि से हैं तथा शास्त्रों के अनुसार दो देवताओं के वार्तालाप पर आधारित हैं। जैसे भैरव संग भैरवी, शिव संग ब्रह्मा, नारद संग महादेव इत्यादि के प्रश्न तथा उत्तर पर आधारित संवाद यामल कहलाता हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार शिव तथा शक्ति एक ही हैं, इनके एक दूसरे से प्रश्न करना तथा उत्तर देना भी यामलो की श्रेणी में आता हैं। वाराही तंत्र के अनुसार १. सृष्टी २. ज्योतिष ३. नित्य कृत वर्णन ४. क्रम ५. सूत्र ६. वर्ण भेद ७. जाती भेद ८. युग धर्मों का यामलो में व्यापक विवेचन हुआ हैं। भैरवागम में व्याप्त भैरवाष्टक के अनुसार यामल आठ हैं; ब्रह्म-यामल, विष्णु-यामल, शक्ति-यामल, रुद्र-यामल, आर्थवर्णा-यामल, रुरु-यामल, वेताल्य-यामल तथा स्वछंद-यामल।

यामिनी-विहितानी कर्माणि समाश्रीयन्ते तत् तन्त्रं नाम यामलम्।
इन संस्कृत पंक्तियों के अनुसार वे साधनायें या क्रियाएं जो रात के अंधेरे में गुप्त रूप से की जाती हैं उन्हें यामल कहा जाता हैं; जो अत्यंत डरावनी तथा विकट होती हैं। शिव और शक्ति से सम्बंधित समस्त रहस्य, गुप्त ज्ञान इन्हीं यामल तंत्रो के अंतर्गत प्रतिपादित होता हैं। मुख्य रूप से ६ यामल शास्त्र धाराएँ हैं १. ब्राह्म २. विष्णु ३. रुद्र ४. गणेश ५. रवि ६. आदित्य।

डामर : डामर ग्रन्थ केवल भगवान शिव द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं। डामरो की संख्या ६ हैं।
 १. योग २. शिव ३. दुर्गा ४. सरस्वती ५. ब्रह्मा ६. गंधर्व।

                         ।। तंत्र ।।

 तांत्रिक ग्रन्थ देवी पार्वती तथा भगवान शिव के परस्पर वार्तालाप के कारण प्रतिपादित हुए हैं। पार्वती द्वारा कहा गया तथा शिव जी द्वारा सुना गया! निगम ग्रन्थ नाम से जाना जाता हैं तथा शिव जी द्वारा बोला गया तथा देवी पार्वती द्वारा सुना गया! आगम ग्रंथ की श्रेणी में आता हैं; तथा यह सभी ग्रन्थ! तंत्र, रहस्य, अर्णव इत्यादि नाम से जाने जाते हैं। तंत्र मुख्यतः शिव तथा शक्ति से सम्बंधित हैं, इन्हीं से अधिकतर तंत्र ग्रंथों की उत्पत्ति हुई हैं। ऐसा नहीं है कि तंत्र ग्रंथों के अंतर्गत विभिन्न साधनाओं, पूजा पथ का ही वर्णन हैं। तंत्र अपने अंदर समस्त प्रकार का ज्ञान समाहित किया हुए हैं, इसी कारण ऋग्-वेद में तंत्र को ज्ञान का करघा कहा गया हैं, जो बुनने पर और बढ़ता ही जाता हैं।

तंत्र पद्धति में शैव, शाक्त, वैष्णव, पाशुपत, गणापत्य, लकुलीश, बौद्ध, जैन इत्यादि सम्प्रदायों का उल्लेख प्राप्त होता हैं, परन्तु शैव तथा शाक्त तंत्र ही जन सामान्य में प्रचलित हैं। यह दोनों तंत्र मूल रूप से या प्रकारांतर में एक ही हैं, केवल मात्र इनके नाम ही भिन्न हैं; ज्ञान भाव! शैव-तंत्र का मुख्य उद्देश्य हैं, वही क्रिया का वास्तविक निरूपण शाक्त तंत्रों में होता हैं। शैवागम या शैव तंत्र भेद, भेदा-भेद तथा अभेद्वाद के स्वरूप में तीन भागों में विभक्त हैं। भेद-वादी! शैवागम शैव सिद्धांत नाम जन सामान्य में विख्यात हैं, वीर-शैव को भेदा-भेद नाम से तथा अभेद्वाद को शिवाद्वयवाद नाम से जाने जाते हैं। माना जाता हैं कि समस्त प्रकार के शिव सूत्रों का उद्भव स्थल हिमालय कश्मीर में ही हैं।

मंत्र : देवता का विग्रह मंत्र के रूप में उपस्थित रहता हैं। देवताओं के तीन रूप होते हैं १. परा २. सूक्ष्म ३. स्थूल, सामान्यतः मनुष्य सर्वप्रथम स्थूल रूप की उपासना करते हैं तथा इसके सहारे वे सूक्ष्म रूप तक पहुँच जाते हैं। तंत्रों में अधिकतर कार्य मन्त्रों द्वारा ही होता हैं।

      ।।  शाक्त तंत्रों की संख्या ।।

महाकाल-तंत्र के अनुसार, शाक्त आगमों की संख्या ६४ हैं, उपतंत्र ३२१, संहिता ३०, चूड़ामणि १००, डामर चतुष्क, यामल अष्टक सूक्त २, पुराण ६, उपवेद १५, कक्ष पुती ३, कल्पाष्टक ८, कल्पलता २, चिंतामणी ३, अगस्त्य सूक्त, परशुराम सूक्त, दुर्वासा सूक्त, दत्त संहिता, प्रत्यभिज्ञा, शक्ति-सूत्र तथा श्री विद्यारत्न सूत्र हैं।
महाकाली प्राच्यविद्या शोध संस्थान
जय मॉ कामाख्या

maa saraswati ki puja upasana मां सरस्वती की पूजा-उपासना

मां सरस्वती को ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। देवी लक्ष्मी के साथ हमेशा ही सरस्वती की पूजा की जाती है, इसके पीछे का आधार यह है क्योंकि संपूर्ण जगत के प्राणी एक जीवन-चक्र से अवश्य जुड़े हैं किंतु बुद्धि केवल मनुष्य के पास ही है। इसी बुद्धि के आधार पर ज्ञान की प्राप्ति करते हुए इसने तरक्की की है।
शास्त्रों के अनुसार जिस भी मनुष्य के पास बुद्धि और ज्ञान है, इनकी मदद से वह अपने जीवन में सबकुछ पा सकता है, धन-संपत्ति और वैभव भी।
किंतु जिनके पास बुद्धि और ज्ञान नहीं है, अगर उसके पास संसार के सभी सुख और धन-संपत्ति हों तो वह स्वयं ही उसे गंवा बैठता है।
इसलिए वेदों और पुराणों में एक सुखी-संपन्न, खुशहाल जीवन के लिए बुद्धि तथा ज्ञान का होना मनुष्य के विकास हेतु अति आवश्यक माना गया है। प्रथम पूज्य गणपति की कृपा से जहां व्यक्ति संसार की बड़ी से बड़ी मुश्किल अपनी बुद्धि के बल पर पार कर सकता है, वहीं ज्ञानी मनुष्य हमेशा ही मनुष्यों में श्रेष्ठ और वंदनीय माने गये हैं।
शास्त्रानुसार जो भी स्त्री या पुरुष नित्य मां सरस्वती की पूजा-उपासना करता है, उसपर मां ज्ञान की कृपा बरसाती हैं। वह अपनी बुद्धि का सही जगह प्रयोग कर अपने ज्ञान के बल पर जगत में प्रसिद्धि और नाम कमाता है। उसके लिए सफलता की राहें हमेशा खुली रहती हैं और वह जो चाहे उसे पा सकता है।

यूं तो सभी देवों की तरह मां सरस्वती की पूजा-उपासना के भी कई नियम हैं, लेकिन मंत्रों का जाप करना इसमें सबसे आसान उपाय है। यहां हम आपको हर राशि के लिए एक सरस्वती मंत्र बता रहे हैं। अपनी राशि अनुसार नित्य प्रात:काल में स्नान-आदि से निवृत्त होकर 108 बार इसका जाप करें, धीरे-धीरे आप देखेंगे कि आपके ज्ञान का दायरा अपने आप ही बढ़ने लगा है और इसके दम पर आपके लिए लाभ की नई राहें भी खुलनी लगी हैं।

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।

हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥


भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूं

मेष राशि

ॐ वाग्देवी वागीश्वरी नम:

वृष राशि

ॐ कौमुदी ज्ञानदायनी नम:

मिथुन राशि

ॐ मां भुवनेश्वरी सरस्वत्यै नम:

कर्क राशि

ॐ मां चन्द्रिका दैव्यै नम:

सिंह राशि

ॐ मां कमलहास विकासिनी नम:

कन्या राशि

ॐ मां प्रणवनाद विकासिनी नम:

तुला राशि

ॐ मां हंससुवाहिनी नम:

वृश्चिक राशि

ॐ शारदै दैव्यै चंद्रकांति नम:

धनु राशि

ॐ जगती वीणावादिनी नम:

मकर राशि

ॐ बुद्धिदात्री सुधामूर्ति नम:

कुंभ राशि

ॐ ज्ञानप्रकाशिनि ब्रह्मचारिणी नम:

मीन राशि

ॐ वरदायिनी मां भारती नम:
🙏🏻जय 🙏🏻श्री 🙏🏻गुरवे नमः🙏🏻

Sunday, December 10, 2017

shree Shani and Shani Bharya Stotra श्रीशनि एवं शनिभार्या स्तोत्र

राज्य भी पुन: प्राप्त किया जा सकता है. राजा नल ने इस श्रीशनि एवं शनिभार्या स्तोत्र का नियमित रुप से पाठ किया और अपना छीना हुआ साम्राज्य पुन: पा लिया, इस तरह से उसके राज्य में राजलक्ष्मी ने फिर से कदम रखा.
स्तोत्र –
य: पुरा राज्यभ्रष्टाय नलाय प्रददो किल ।
स्वप्ने सौरि: स्वयं मन्त्रं सर्वकामफलप्रदम्।।1।।
क्रोडं नीलांजनप्रख्यं नीलजीमूत सन्निभम्।
छायामार्तण्ड-संभूतं नमस्यामि शनैश्चरम्।।2।।
ऊँ नमोSर्कपुत्रायशनैश्चराय नीहार वर्णांजननीलकाय ।
स्मृत्वा रहस्यं भुवि मानुषत्वे फलप्रदो मे भव सूर्यपुत्र ।।3।।
नमोSस्तु प्रेतराजाय कृष्ण वर्णाय ते नम: । शनैश्चराय क्रूराय सिद्धि बुद्धि प्रदायिने ।।4।।
य एभिर्नामभि: स्तौति तस्य तुष्टो भवाम्यहम्
मामकानां भयं तस्य स्वप्नेष्वपि न जायते ।।5।।
गार्गेय कौशिकस्यापि पिप्पलादो महामुनि: ।
शनैश्चर कृता पीड़ा न भवति कदाचन:।।6।।
क्रोडस्तु पिंगलो बभ्रु: कृष्णो रौद्रोSन्तको यम: ।
शौरि: शनैश्चरो मन्द: पिप्पलादेन संयुत:।।7।।
एतानि शनि नामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत्।
तस्य शौरे: कृता पीड़ा न भवति कदाचन ।।8।।
।।शनिभार्या नमामि-Shanibharya Namami।।
(शनि पत्नी के दस नाम-Ten Names Of Shani Wife)
ध्वजनी धामनी चैव कंकाली कलहप्रिया ।
क्लही कण्टकी चापि अजा महिषी तुरंगमा ।।9।।
नामानि शनि-भार्याया: नित्यं जपति य: पुमान्।
तस्य दु:खा: विनश्यन्ति सुखसौभाग्यं वर्द्धते ।।10।।
जो व्यक्ति इस स्तोत्र का पाठ करता है वह जीवन में सुख तथा शांति पाता है. शनि देव की पत्नी के नाम – ध्वजनी, धामनी, कंकाली, कलहप्रिया, कलही, कण्टकी, चापि, अजा, महिषी व तुरंगमा हैं. जो व्यक्ति शनिदेव जी की विस्तार से पूजा अर्चना नहीं कर पाता है वह शनिदेव के दस नामों के साथ शनि पत्नी के भी दस नामों का उच्चारण प्रतिदिन करे. सभी जानते हैं कि पत्नी के प्रसन्न होने पर पति भी खुश रहते हैं इसी प्रकार शनिदेव भी अपनी पत्नी के दस नामों का उच्चारण करने वाले व्यक्ति पर कृपादृष्टि रखते हैं. ऎसे व्यक्ति के निकट ना तो दुख ही आता है और ना ही दरिद्रता ही पास फटकती है.

Saturday, December 9, 2017

Nikhileshwaranand Panchak सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद पंचक


NIKHILESHWARANAND PANCHAK



Nikhileshwaranand Panchak is composed by Paramhans Swami Kinker-ji of Siddhashram, praising 21 divine qualities of Parampoojya Gurudev Nikhileshwaranandji Maharaj.When Dada Gurudev Sachichidanandji gave orders to Nikhil Gurudev to go to earth and spread the message of spirituality , it was known to the yogis of Siddhashram that Gurudev will take birth on earth on the 21st day of April. The panchak has got five shlokas pertaining to this 21 divine Qualities and three sholkas explaining the benefits of chanting this panchak.
When the sadhak remembers this panchak of Poojya Gurudev in reverence, then poornna gurutvamay swaroop of Gurudev appears clearly in the mind of the sadhak.
This panchak is taken from the book named " Nikhileshwaranand Rahasya "

OM NAMAH NIKHILESHWARYAYEI KALYANNYEI TE NAMO NAMAH
NAMASTE RUDRA ROOPINNYEI BRAHMA MOORTHYEI NAMO NAMAH

NAMASTE KLESH HAARINNYEI MANGALAAYEI NAMO NAMAH
HARATI SARVA VYAADHINAAM SHRESHTTA RISHYEI NAMO NAMAH

SHISHYATVA VISH NAASHINYEI POORNNATAAYEI NAMOSTU TE
TRIVIDH TAAP SAMHARTRYEI GYAN DATRYEI NAMO NAMAH

SHAANTI SOWBAAGHYA KAARINNYEI SHUDDH MOORTYEI NAMOSTU TE
KSHAMAAVATYEI SUDHAAVATYEI TEJOVATYEI NAMO NAMAH

NAMASTE MANTRA ROOPINNYEI TANTRA ROOPE NAMOSTU TE
JYOTISHAM GYAN VAIRAGYAM POORNNA DIVYEI NAMO NAMAH

YA IDHAM PADATHE STOTRAM SHRENNUYAATH SHRADHAYAANVITHAM
SARVA PAAP VIMUCHYANTE SIDDHA YOGISHCHA JAAYATE

ROGASTHO ROG TAM MUCHYET VIPADA TRAANNAYAADAPI
SARVA SIDDHIM BHAVETTASYA DIVYA DEHASCHA SAMBHAVE

NIKHILESHWARYA PANCHKAM NITYAM YO PADDATHE NARAH
SARVAAN KAAMAAN AVAAPNOTHI SIDDHASHRAMMAVAAPNUYAATH

सिद्धाश्रम सिद्धि दिवस के अवसर पर सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद पंचक का पाठ अवश्य करे।😊  किसी 
🔹निखिलेश्वरानन्द पंचक🔹
ॐ नम: निखिलेश्वर्यायै कल्याण्यै ते नमो नम: |
नमस्ते रूद्ररूपिण्यै ब्रह्म मूर्त्यै नमो नम: ||१||
नमस्ते क्लेश हारिण्यै मंगलायै नमो नम:|
हरति सर्व व्याधिनां श्रेष्ठ ऋष्यै नमो नम:||२||
शिष्यत्व विष नाशिन्यै पूर्णतायै नमोऽस्तु ते|
त्रिविध ताप संहत्र्यै ज्ञानदात्र्यै नमो नम:||३||
शान्ति सौभाग्य कारिण्यै शुद्ध मूर्त्यै नमोऽस्तु ते|
क्षमावत्यै सुधावत्यै तेजोवत्यै नमो नम:||४||
नमस्ते मंत्र रूपिण्यै तंत्र रूपिण्यै नमोऽस्तु ते|
ज्योतिषं ज्ञान वैराग्यं पूर्ण दिव्यै नमो नम:||५||
य इदं पठते स्तोत्रं श्रृणुयात् श्रद्धयान्वितं|
सर्व पाप विमुच्यन्ते सिद्धयोगिश्च जायते ||६||
रोगस्थो रोग तं मुच्येत् विपदा त्राणयादपि|
सर्व सिद्धिं भवेत्तस्य दिव्य देहस्य संभवे||७||
निखिलेश्वर्य पंचकं नित्य यो पठते नर:|
सर्वानकामानवाप्नोति सिद्धाश्रममवाप्नुयात्||८
"नमामि सदगुरूदेवं निखिलं नमामि"
🌷🌷🌷🌷
🙏जय सदगुरुदेव जी की🙏

Thursday, December 7, 2017

Praan Vikhandan Mantra and Para Vidya Surya Vigyan

प्राण विखंडन मंत्र
जय गुरुदेव
मित्रो बहुत वर्ष पूर्व ही पूज्य सदगुरुदेव जी {विद्रोहियों के सद्गुरु} ने इस फ़ालतू की कहावत का खंडन करते हुए हमें एक अद्भुत प्राण विखंडन मन्त्र प्रदान किया था। जिसके अल्प जप से ही आपके शरीर में ऊर्जा का अद्भुत प्रवाह शुरू हो जाता है। और आत्मिक ऊर्जा ही किसी प्रहार के संधान का आधार अथवा उससे रक्षा हेतु सुरक्षा कवच का कार्य करती है। मै ये नहीं कहता की उस ऊर्जा को प्राप्त करने के और माध्यम नहीं है परंतु ये भी जबरदस्त है अपने आप में -
प्राण विखंडन मन्त्र -
।। ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्‌ हूं फट् ।।
उच्चारण कैसे किया जाय इसके लिए तो किसी योग्य व्यक्ति से मार्गदर्शन लेना ही पडेगा।
उपरोक्त मन्त्र भी आजकल पत्रिका में जो छप रहा है वो अशुद्ध है और वो है -
।। ॐ तच्चक्षुर्देव तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्‌ हूं फट् ।।
ऐसा क्यों हुआ इसका उत्तर उस शिविर में है जिसमे पूज्य श्री ने ये मन्त्र दिया था उसमें उन्होंने साधको को स्पष्ट मात्र करने के लिए प्रथम शब्द दो बार बोल दिया था और गुरुभाइयों ने उसे ही मन्त्र बना दिया परंतु चमत्कार तो तब हुआ जब उसी रिपिटेड मन्त्र को कितने ही गुरुभाइयों ने जप कर आश्चर्य कारक परिणाम प्राप्त किये। वास्तव में ये दृढ़ता है शिष्य की वैचारिक दृढ़ता जिसके समक्ष समस्त नियम और कानून भी प्रणम्य हो जाया करते है।
शुरुआत में मुझे भी शंसय हुआ की आखिर सत्य क्या है कुछ समय उत्तर नहीं मिला पर फिर वेदोक्त गायत्री संध्या के सुर्योपस्थापन के चतुर्थ मन्त्र में ये रहस्य यो ही मिल गया।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्‌ । पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शत (गूं) श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात्‌ ।
अतः इसका लाभ लें इसकी ऑडियो भी मंत्र तंत्र यंत्र विज्ञान ग्रुप में डाला था हम लोगो ने।
सौजन्य . जय निखिलेश्वर
Gurudev Dr Narayan Dutt Shrimali explains about Para Vidya or Surya Vigyan, he explains the secret of his ability to chant whichever Shloka or Mantra he wants, from Lakhs of Shlokas of Vedas, Puranas, Upanishads etc. He also gives the Praan Vikhandan Mantra (प्राण विखंडन मंत्र) whose chanting gives immediate results & dares all present to test the powerful mantra. Jai Sadgurudev Bhagwan Nikhileshwaranand ji Maharaj ki 🙏 Visit website www.drnarayanduttshrimali.com for old books and magazines written by pujya Gurudev Dr Narayan Dutt Shrimali ji.

Monday, December 4, 2017

TRATAK SE DHYAN KI OR

TRATAK SE DHYAN KI OR




According to Yog Shastra, seven chakras are present in our body in form of bunch of nerves. It all depends on us whether we want to keep them in a dormant state or activate them and improve our lives by benefits arising out of this activation……This thing applies to each and every common person who does not have anything to do with sadhnas. But those who do sadhnas, they know that how much significant these chakras are in their spiritual lives.
Though each chakra has their own importance but Aagya Chakra situated in between two eyes has a lot to do with our spiritual lives. This is because it is located exactly in between our eyes where the third eye is present. How much concentration you have during sadhna or you are getting deviated, it all starts from here…..but if you remember, we learned a very abstruse fact in article related to mind that-
“If we have to save ourselves from illusion then we should abandon all the benefits and loss arising out of illusion”.
This quote simply means that the things which we do not know, it is useless to run after them…..but at the time of sadhana, it does not happen so…. At that time our mental condition is such that almighty has given the responsibility of entire universe on our shoulders and this state persists till the time we do not get up from sadhna. Such things happen, we all know. But we sparingly try to find out the reason behind this phenomenon. But in reality, it is subject to be pondered upon daily rather than occasionally. Sadhna or chanting of mantra means that the particular time belongs to us and our Isht. But if we are still thinking about worldly things at that time, then it is better not to sit on the aasan itself because just by chanting or by closing eyes, god does not get pleased…..and reason for such a state in sadhna is our mind….because
“Those who are knowledgeable, they know the fact that mind is neither a reliable friend nor an obedient servant. We can direct it but never control it”
……But those who are accomplished ascetic, their mind does not play such games with them because they are well aware of the fact that in reality, there is no such thing as mind….it is merely an illusion and if it is confirmed from scientific point of view then no doctor will tell you about a body part called “: mind”. Because such thing does not exist.
We have named a particular type of energy/vibration emitted from our brain as mind over which we do not have any control. Because energy remains uncontrolled until the time we do not understand its utilization. For controlling energy which is continuously created inside us, first of all we have to understand the roots from which this energy is created.
…….And our body contains three characteristics of Sat, Raj and tam in one proportion or other and our mind/orientation of thoughts and work-capability is always influenced by these three qualities. The time when there is a predominance of a particular quality, at that time, energy emitted from brain (which we have addressed as mind) will move towards that particular characteristic. It is because of natural law which says that energy always flows in direction of increasing density of Shakti (power). This is precisely the reason why we do not the same type of work every time…. Sometimes we are saintly and sometimes…..
In order to keep minds and thought stable in sadhna, thousands of ways have been told in Meditation and Yoga path. But above all those procedures, if there is any power/activity which takes us from darkness to light…..it is none but you because nobody knows you better then you yourself. It does not make any difference that which rules have been followed by you to concentrate your thoughts because all your activities have done become useless until the time your eyes do not become stable. And in order to stabilize the eyes, it is not necessary to tire yourself…..If anything is needed then it is to get rid of defects present inside you…
We all know that controlling mind or thoughts is very difficult task…..But we should also know the fact that consciousness never gets polluted; it is one of the vibrations of our soul which needs to be shown right direction. And we can show consciousness right direction only when we know the right path. In Hath Yoga, six different types of procedures have been told out of which Tratak is considered to be the best because it increases our spiritual peace along with the mental peace.
In our brain, thoughts come and go in form of vibrations but when we practice tratak then we recover 70% of energy lost by inflow and outflow of thoughts. This is because now we are trying to stabilize our eyes rather than catching our thoughts. If you will try then you will know that as compared to thoughts, stabilizing eye-balls is very easy and effective too. And it is activity experienced not only once but thousands of times that as your eye-balls get stabilized …..Your mind comes under your control. And we come to know about it by seeing dot present in the middle of Shakti Chakra getting stabilized.
Tratak can be done in two ways-
1)   External Tratak
2)   Internal Tratak
In external Tratak, you have to focus your attention on not present in the middle of Shakti chakra by which you learn the art of controlling your thoughts at the spiritual level and at the materialistic level, your eyes attain capability to hypnotize anyone.
In internal Tratak, you have to focus your attention on aagya Chakra…..and for it you have to focus your eyes balls in middle of two eyebrows. You may feel a little bit of pain in starting days. After successfully accomplishing this tratak, on one hand, your aagya chakra starts vibrating….and on the other hand, you attain the eligibility to do Kaal Vikhandan sadhna.
On the physical plane, regular practice of tratak increase your capability of thinking and comprehension multiple times and destroys negative energy present inside you…..Just you have to always keep in mind one thing that whenever practice of Tratak should be done in a peaceful environment. That’s why morning time is considered to be the best.
Mantra given here will help you in quickly attaining success in Tratak procedure. But mantra will work with competence only when you will regularly do the practice of this procedure that too for only 10-15 minutes. You just have to sit peacefully and do gunjaran of the below mantra given by Sadgurudev for 10-15 minutes. It will activate Sushumana and make the attainment of aim very easy.
OM KLEEM KLEEM KREEM KREEM HUM HUM PHAT



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योग शास्त्र के अनुसार हमारे शरीर में नाड़ियों के गुच्छों के रूप में सात चक्र स्थापित हैं जिन्हें सुप्त अवस्था में रहने देना है या जागृत करके उनसे मिलने वाले लाभों से खुद के जीवन को संवारना है यह स्वत: हम पर निर्भर करता है....यह बात हर उस आम व्यक्ति पर लागू होती है जिसे साधनाओं से कोई लेना देना नहीं होता पर जो व्यक्ति अपने जीवन में साधनाएं करते हैं वो जानते हैं की इन चक्रों की उन्के साधनात्मक जीवन में क्या महत्ता है|
वैसे तो हर चक्र का अपना एक विशेष महत्व है पर हमारे भूमध्य में स्थित आज्ञाचक्र का हमारे साधनात्मक जीवन से बड़ा लेनादेना है और वो इसलिए क्योंकि यह चक्र हमारी आँखों के बिलकुल मध्य में स्थित है जहाँ तीसरा नेत्र स्थापित होता है और साधना में आप कितनी तल्लीनता से बैठे हैं या आपका ध्यान कितना भटक रहा है ये सारा खेल यहीं से शुरू होता है ....पर यदि आपको याद हो तो मन से संबंधित लेख में हमने एक बहुत गुढ़ तथ्य को समझा था की –
     “ यदि भ्रम से बचना है तो भ्रम से होने वाले फायदों और नुक्सान को तिलांजली दे दो “
इस कथन का सरल सा अर्थ यह है की वो चीज़ जिसे आप जानते हो की नहीं है उसके पीछे भागना व्यर्थ है .....पर साधना के समय ऐसा नहीं हो पाता.....उस समय तो हमारी मानसिक स्थिति ऐसी होती है जैसे ईश्वर ने समस्त ब्रह्मांड का दायितत्व हमारे कंधो पर ड़ाल दिया हो और यह स्थिति तब तक ज्यों की त्यों रहती है जब तक हम साधना से उठ नहीं जाते, ऐसा होता है यह हम सब जानते हैं पर क्यों होता है इस पर यदा-कदा ही विचार करते हैं| पर असल में यह कभी-कभी नहीं बल्कि रोज विचारने वाला विषय है क्योंकि साधना या मंत्र जाप करने का अर्थ होता है की वो समय हमारा और हमारे इष्ट का है पर उस समय में भी अगर हम ज़माने भर की बातें सोच रहे हैं तो उससे अच्छा है हम आसन पर बैठे ही नहीं क्योंकि मात्र माला चला लेने से, या आँखें मूंद कर बैठ जाने से कोई भगवान कभी खुश नहीं होते ......और साधना में हमारी ऐसी दशा का कारण होता है हमारा मन ......क्योंकि   
 “ जो ज्ञानी होते है वो जानते हैं की मन ना तो भरोसेमंद मित्र है और ना ही आज्ञाकारी सेवक, हम इसे निर्देशित तो कर सकते हैं पर नियंत्रित कदापि नहीं “
.....पर जो सिद्ध सन्यासी होते हैं उनके साथ उनका मन ऐसा खेल कभी नहीं खेलता क्योंकि वो इस तथ्य से पूर्णतः परिचित होते हैं की असल में मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं....यह सिर्फ एक भ्रम है, छलावा है और अगर विज्ञान की दृष्टि से इस बात की पुष्टि की जाए तो आपको चिकित्सक कभी किसी ऐसे शारीरिक अंग के बारे में नहीं बताएंगे जिसका नाम “ मन “ हो क्योंकि ऐसा कुछ होता ही नहीं है|
 हमारे मस्तिष्क से निकलने वाली एक विशेष प्रकार की ऊर्जा या यूँ कहें की तरंग को हमने मन का नाम दे दिया है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं हैं क्योंकि ऊर्जा हमेशा तब तक अनियंत्रित रहती है जब तक आपको उसका सदुपयोग समझ में ना आ जाये| हमारे अंदर निरंतर बनने वाली ऊर्जा को नियंत्रण में करने के लिए पहले हमें इसके मूल को समझना पड़ेगा जहाँ से इस ऊर्जा का निर्माण होता है|
......हम शरीर में सत, रज, और तम तीनों गुण कम या अधिक अनुपात में मौजूद हैं और हमारे मन या विचारों की गति और कार्य करने की क्षमता इन तीनों गुणों से हमेशा प्रभावित होती है और जिस समय आपके अंदर जिस गुण की प्रधानता होगी उस समय मस्तिष्क से निकलने वाली ऊर्जा, जिसे हमने मन का संबोधन दिया है, उसी तरफ जायेगी क्योंकि यह एक प्राकृतिक नियम है की ऊर्जा का प्रवाह हमेशा शक्ति के घनत्व की तरफ ही होता है और यही कारण है की हम हमेशा एक जैसे काम कभी नहीं करते.....कभी हम साधू होते है तो कभी.....
साधना में मन या अपने विचारों को स्थिर रखने के लिए ध्यान मार्ग, योग मार्ग इत्यादि में हजारों तरीके बताए गए हैं पर उन सब विधियों से उपर अगर कोई शक्ति या क्रिया है जो आपको अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर करती सकती है...तो वो हैं आप खुद हो क्योंकि आपको आपसे ज्यादा अच्छे से ओर कोई नहीं जानता| इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की आपने आज तक अपने विचारों को एकाग्र करने के लिए किन-किन नियमों का पालन किया है क्योंकि आपके द्वारा किये गए सारे क्रिया कलाप व्यर्थ हो जाते हैं जब तक आपकी आँखे स्थिर नहीं हो जाती ओर आँखों को स्थिर करने के लिए आपको खुद को थकाने की कोई जरूरत नहीं है....यदि किसी चीज़ की जरूरत है तो वो है खुद को दोष मुक्त करने की....
 हम सब यह तो जानते हैं की मन या विचारों को नियंत्रित करना अत्यंत दुष्कर है....पर हमें यह तथ्य भी पता होना चाहिए की चेतना कभी मलीन या दूषित नहीं होती, ये तो हमारी आत्मा की एक तरंग है जिसे हमें बस सही दिशा दिखानी होती है और इस चेतना को हम सही दिशा तभी दिखा पायेंगे जब हमें इसका सही मार्ग पता हो| हठयोग में ६ तरह की अलग – अलग क्रियाएँ बताई गयी हैं जिनमें सेत्राटक को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह हमारी मानसिक शान्ति के साथ-साथ आध्यात्मिक शक्ति को भी बढ़ाता है|
हमारे मस्तिष्क में तरंगों के रूप में विचार हमेशा आते-जाते रहते हैं पर जब हम त्राटक का अभ्यास करते हैं तो इन विचारों के आने जाने से शतिग्र्स्त होने वाली ऊर्जा का ७० प्रतिशत हम पुन्ह: प्राप्त कर लेते हैं और वो इसलिए क्योंकि अब हमारी दौड़ विचारों को पकड़ने की ना होकर आँखों को स्थिर करने की है और यदि आप कोशिश करेंगे तो आप जानेंगे की विचारों की तुलना में आँखों की पुतलियों को स्थिर करना ज्यादा सहज भी है और कारागार भी| और यह एक बार नहीं हजारों बार अनुभूत की गयी क्रिया है की जैसे ही आपकी आँखों की पुतलियाँ स्थिर होती हैं...आपका मन भी आपके नियंत्रण में आ जाता है और इसका पता हमें चलता है शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु के स्थिर हो जाने से|
 त्राटक दो तरीकों से किया जा सकता है-
१) बाह्य त्राटक
२) आंतरिक त्राटक
बाह्य त्राटक में आपको अपना ध्यान शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु पर केंद्रित करना होता है जिससे आध्यात्मिक स्तर पर आप अपने विचारों पर नियंत्रण करने की कला सीखते हो और भौतिक स्तर पर आपकी आँखों में स्वत: ही किसी को भी सम्मोहित करने की क्षमता पैदा हो जाती है|
आंतरिक त्राटक में आपको अपने आज्ञाचक्र पर ध्यान केंद्रित करना होता है....और इस क्रिया में आपको अपनी आँखों की पुतलियों को भूमध्य में केंद्रित करना पड़ता है जिससे शुरूआती दिनों में थोड़ा दर्द हो सकता है| इस त्राटक को सफलतापूर्वक करने से जहाँ आपके आज्ञाचक्र में स्पंदन होना शुरू हो जाता है.....वहीँ आप काल विखंडन साधना को करने की पात्रता भी अर्जित कर लेते हो|
भौतिक स्तर पर त्राटक का नियमित अभ्यास आपके सोचने, समझने की क्षमता को कई गुना बढ़ा देता है और आपने अंदर नाकारात्मक ऊर्जा को नष्ट भी करता है.....बस आपको एक बात हमेशा ध्यान में रखनी है की आप जब भी त्राटक का अभ्यास करो तो आपके चारों तरफ शान्ति हो और इसीलिए सुबह का समय इसके लिए सबसे श्रेष्ठ माना जाता है|
 यहाँ दिया गया मंत्र त्राटक की इस क्रिया में शीघ्रातिशीघ्र सफल होने में आपकी सहायता करेगा पर मंत्र अपना काम तभी दक्षता से करेगा जब आप नियमित रूप से इस क्रिया का अभ्यास करेंगे वो भी बस १० से १५ मिनट तक|  आपको मात्र शांत बैठ कर सदगुरुदेव प्रदत्त निम्न मंत्र का १०-१५ मिनट गुंजरन करना है.ये सुषुम्ना को जाग्रत कर आपके लक्ष्य प्राप्ति को सरल और सुगम कर देता है.
ॐ क्लीं क्लीं क्रीं क्रीं हुं हुं फट् ||
(OM KLEEM KLEEM KREEM KREEM HUM HUM PHAT)