अपनी समस्याओं का दुखड़ा रोने वाले; छिपकर, पीठ पीछे वार करने वाले; इर्ष्यालू, लोभी, झूठे व अकर्मण्य व्यक्ति मेरे शिष्य नहीं हो सकते | मेरे शिष्य तो वो हैं जो पूर्णता की ओर अग्रसर हों | - परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद
Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Thursday, April 14, 2011
So that my disciples who are moves toward completion
I am a painter
मैंने चित्र बनाये है ,सैंकड़ो,हजारो,साधको के साधिकाओ के |
और प्रत्येक चित्र आपने आप में अलग है ,प्रत्येक चित्र में अलग प्रकार का रंग भरा हुआ है ,कोई भी दो चित्र सामान नहीं बनाए है |
क्योंकि मैं चित्रकार हूं और तुलिका और रंगों का मुझे भली प्रकार ज्ञान है ,मुझे ज्ञान है के कोन से चित्र में कोंन सा रंग भरना है |
पर ध्यान रखना परिवार का तूफ़ान चित्र को फाड़ न दे ,मोह माया के दीवारे चित्र के रंग को बदरंग न कर दे ,समाज के अंधड़ चित्र को अस्त व्यस्त न कर दे |
क्योंकि इन तुफानो,अंधड़ो ने यही किया है,धूल ,धक्कड़ फेंकने के अलावा इनके पास है ही क्या ,आलोचनाओ के बोछार से बदरंग करने के अलावा इनके पास युक्ति है भी क्या ?
मैंने तुम्हारे चित्र को अदभुत बनाने का प्रयत्न किया है,जरूरत है इसे बदरंग होने से बचाने के ,फटने से सुरक्षित रखने की
और यदि ऐसा हुआ तो यह चित्र इश्वर की कलाकृति से भी ज्यादा सुंदर ,ज्यादा पूजनीय हो सकेगा |
तुम्हारा सदगुरुदेव
और प्रत्येक चित्र आपने आप में अलग है ,प्रत्येक चित्र में अलग प्रकार का रंग भरा हुआ है ,कोई भी दो चित्र सामान नहीं बनाए है |
क्योंकि मैं चित्रकार हूं और तुलिका और रंगों का मुझे भली प्रकार ज्ञान है ,मुझे ज्ञान है के कोन से चित्र में कोंन सा रंग भरना है |
पर ध्यान रखना परिवार का तूफ़ान चित्र को फाड़ न दे ,मोह माया के दीवारे चित्र के रंग को बदरंग न कर दे ,समाज के अंधड़ चित्र को अस्त व्यस्त न कर दे |
क्योंकि इन तुफानो,अंधड़ो ने यही किया है,धूल ,धक्कड़ फेंकने के अलावा इनके पास है ही क्या ,आलोचनाओ के बोछार से बदरंग करने के अलावा इनके पास युक्ति है भी क्या ?
मैंने तुम्हारे चित्र को अदभुत बनाने का प्रयत्न किया है,जरूरत है इसे बदरंग होने से बचाने के ,फटने से सुरक्षित रखने की
और यदि ऐसा हुआ तो यह चित्र इश्वर की कलाकृति से भी ज्यादा सुंदर ,ज्यादा पूजनीय हो सकेगा |
तुम्हारा सदगुरुदेव
मैं एक चित्रकार हूँ
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Thursday, April 7, 2011
Ode Thu footer
गुरु पादुका स्तोत्र
ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यो नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः!
आचार्य सिद्धेश्वरपादुकाभ्यो नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्यो!!1!!
मैं पूज्य गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ, मेरी उच्चतम भक्ति गुरु चरणों और उनकी पादुका के प्रति हैं, क्योंकि गंगा -यमुना आदि समस्त नदियाँ और संसार के समस्त तीर्थ उनके चरणों में समाहित हैं, यह पादुकाएं ऐसे चरणों से आप्लावित रहती हैं, इसलिए मैं इस पादुकाओं को प्रणाम करता हु, यह मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, यह पूर्णता देने में सहायक हैं, ये पादुकाएं आचार्य और सिद्ध योगी के चरणों में सुशोभित रहती हैं, और ज्ञान के पुंज को अपने ऊपर उठाया हैं, इसीलिए ये पादुकाएं ही सही अर्थों में सिद्धेश्वर बन गई हैं, इसीलिए मैं इस गुरु पादुकाओं कोभक्ति भावः से प्रणाम करता हूँ!!1!!
ऐंकार ह्रींकाररहस्ययुक्त श्रींकारगूढार्थ महाविभूत्या!
ओंकारमर्म प्रतिपादिनीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!2!!
गुरुदेव "ऐंकार" रूप युक्त हैं, जो कि साक्षात् सरसवती के पुंज हैं, गुरुदेव "ह्रींकार" युक्त हैं, एक प्रकार से देखा जाये तो वे पूर्णरूपेण लक्ष्मी युक्त हैं, मेरे गुरुदेव "श्रींकार" युक्त हैं, जो संसार के समस्त वैभव, सम्पदा और सुख से युक्त हैं, जो सही अर्थों में महान विभूति हैं, मेरे गुरुदेव "ॐ" शब्द के मर्म को समझाने में सक्षम हैं, वे अपने शिष्यों को भी उच्च कोटि कि साधना सिद्ध कराने में सहायक हैं, ऐसे गुरुदेव के चरणों में लिपटी रहने वाली ये पादुकाएं साक्षात् गुरुदेव का ही विग्रह हैं, इसीलिए मैं इन पादुकाओं को श्रद्धा - भक्ति युक्त प्रणाम करता हूँ!!2!!
होत्राग्नि होत्राग्नि हविश्यहोतृ - होमादिसर्वाकृतिभासमानं !
यद् ब्रह्म तद्वोधवितारिणीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!3!!
ये पादुकाएं अग्नि स्वरूप हैं, जो मेरे समस्त पापो को समाप्त करने में समर्थ हैं, ये पादुकाएं मेरे नित्य प्रति के पाप, असत्य, अविचार, और अचिन्तन से युक्त दोषों को दूर करने में समर्थ हैं, ये अग्नि कि तरह हैं, जिनका पूजन करने से मेरे समस्त पाप एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं, इनके पूजन से मुझे करोडो यज्ञो का फल प्राप्त होता हैं, जिसकी वजह से मैं स्वयं ब्रह्म स्वरुप होकर ब्रह्म को पहिचानने कि क्षमता प्राप्त कर सका हूँ, जब गुरुदेव मेरे पास नहीं होते, तब ये पादुकाएं ही उनकी उपस्थिति का आभास प्रदान कराती रहती हैं, जो मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं पूर्णता के साथ प्रणाम करता हूँ!!3!!
कामादिसर्प वज्रगारूडाभ्याम विवेक वैराग्यनिधिप्रदाभ्याम.
बोधप्रदाभ्याम द्रुतमोक्षदाभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!4!!
मेरे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार के सर्प विचरते ही रहते हैं, जिसकी वजह से मैं दुखी हूँ, और साधनाओं में मैं पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता, ऐसी स्थिति में गुरु पादुकाएं गरुड़ के समान हैं, जो एक क्षण में ही ऐसे कामादि सर्पों को भस्म कर देती हैं, और मेरे ह्रदय में विवेक, वैराग्य, ज्ञान, चिंतन, साधना और सिद्धियों का बोध प्रदान करती हैं, जो मुझे उन्नति की ओर ले जाने में समर्थ हैं, जो मुझे मोक्ष प्रदान करने में सहायक हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं प्रणाम करता हूँ!!4!!
अनंतसंसार समुद्रतार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्यां!
जाड्याब्धिसंशोषणवाड्वाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम!!5!!
यह संसार विस्तृत हैं, इस भवसागर पार करने में ये पादुकाएं नौका की तरह हैं, जिसके सहारे मैं इस अनंत संसार सागर को पार कर सकता हूँ, जो मुझे स्थिर भक्ति देने में समर्थ हैं, मेरे अन्दर अज्ञान की घनी झाडियाँ हैं, उसे अग्नि की तरह जला कर समाप्त करने में सहायक हैं, ऐसी पादुकाओं को मैं भक्ति सहित प्रणाम करता हूँ!!5
आचार्य सिद्धेश्वरपादुकाभ्यो नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्यो!!1!!
मैं पूज्य गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ, मेरी उच्चतम भक्ति गुरु चरणों और उनकी पादुका के प्रति हैं, क्योंकि गंगा -यमुना आदि समस्त नदियाँ और संसार के समस्त तीर्थ उनके चरणों में समाहित हैं, यह पादुकाएं ऐसे चरणों से आप्लावित रहती हैं, इसलिए मैं इस पादुकाओं को प्रणाम करता हु, यह मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, यह पूर्णता देने में सहायक हैं, ये पादुकाएं आचार्य और सिद्ध योगी के चरणों में सुशोभित रहती हैं, और ज्ञान के पुंज को अपने ऊपर उठाया हैं, इसीलिए ये पादुकाएं ही सही अर्थों में सिद्धेश्वर बन गई हैं, इसीलिए मैं इस गुरु पादुकाओं कोभक्ति भावः से प्रणाम करता हूँ!!1!!
ऐंकार ह्रींकाररहस्ययुक्त श्रींकारगूढार्थ महाविभूत्या!
ओंकारमर्म प्रतिपादिनीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!2!!
गुरुदेव "ऐंकार" रूप युक्त हैं, जो कि साक्षात् सरसवती के पुंज हैं, गुरुदेव "ह्रींकार" युक्त हैं, एक प्रकार से देखा जाये तो वे पूर्णरूपेण लक्ष्मी युक्त हैं, मेरे गुरुदेव "श्रींकार" युक्त हैं, जो संसार के समस्त वैभव, सम्पदा और सुख से युक्त हैं, जो सही अर्थों में महान विभूति हैं, मेरे गुरुदेव "ॐ" शब्द के मर्म को समझाने में सक्षम हैं, वे अपने शिष्यों को भी उच्च कोटि कि साधना सिद्ध कराने में सहायक हैं, ऐसे गुरुदेव के चरणों में लिपटी रहने वाली ये पादुकाएं साक्षात् गुरुदेव का ही विग्रह हैं, इसीलिए मैं इन पादुकाओं को श्रद्धा - भक्ति युक्त प्रणाम करता हूँ!!2!!
होत्राग्नि होत्राग्नि हविश्यहोतृ - होमादिसर्वाकृतिभासमानं !
यद् ब्रह्म तद्वोधवितारिणीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!3!!
ये पादुकाएं अग्नि स्वरूप हैं, जो मेरे समस्त पापो को समाप्त करने में समर्थ हैं, ये पादुकाएं मेरे नित्य प्रति के पाप, असत्य, अविचार, और अचिन्तन से युक्त दोषों को दूर करने में समर्थ हैं, ये अग्नि कि तरह हैं, जिनका पूजन करने से मेरे समस्त पाप एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं, इनके पूजन से मुझे करोडो यज्ञो का फल प्राप्त होता हैं, जिसकी वजह से मैं स्वयं ब्रह्म स्वरुप होकर ब्रह्म को पहिचानने कि क्षमता प्राप्त कर सका हूँ, जब गुरुदेव मेरे पास नहीं होते, तब ये पादुकाएं ही उनकी उपस्थिति का आभास प्रदान कराती रहती हैं, जो मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं पूर्णता के साथ प्रणाम करता हूँ!!3!!
कामादिसर्प वज्रगारूडाभ्याम विवेक वैराग्यनिधिप्रदाभ्याम.
बोधप्रदाभ्याम द्रुतमोक्षदाभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!4!!
मेरे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार के सर्प विचरते ही रहते हैं, जिसकी वजह से मैं दुखी हूँ, और साधनाओं में मैं पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता, ऐसी स्थिति में गुरु पादुकाएं गरुड़ के समान हैं, जो एक क्षण में ही ऐसे कामादि सर्पों को भस्म कर देती हैं, और मेरे ह्रदय में विवेक, वैराग्य, ज्ञान, चिंतन, साधना और सिद्धियों का बोध प्रदान करती हैं, जो मुझे उन्नति की ओर ले जाने में समर्थ हैं, जो मुझे मोक्ष प्रदान करने में सहायक हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं प्रणाम करता हूँ!!4!!
अनंतसंसार समुद्रतार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्यां!
जाड्याब्धिसंशोषणवाड्वाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम!!5!!
यह संसार विस्तृत हैं, इस भवसागर पार करने में ये पादुकाएं नौका की तरह हैं, जिसके सहारे मैं इस अनंत संसार सागर को पार कर सकता हूँ, जो मुझे स्थिर भक्ति देने में समर्थ हैं, मेरे अन्दर अज्ञान की घनी झाडियाँ हैं, उसे अग्नि की तरह जला कर समाप्त करने में सहायक हैं, ऐसी पादुकाओं को मैं भक्ति सहित प्रणाम करता हूँ!!5
Tuesday, January 4, 2011
What's Narayanhtava Ahmatta initiation awakening?
क्या हैं नारायणतत्व आतमतत्व जागरण दीक्षा?
What's Narayanhtava Ahmatta initiation awakening?
ॐ जो सत् चित्त आनंद और अनंत हैं, असीम हैं! जो नित्य और सर्वव्यापी हैं वही हैं नारायन्तत्व आपका आत्मतत्व!
ॐ जो अद्वितीय, अखण्ड, नित्य और आनंद स्वरुप हैं! वेदों में जिसे अनित्य, विषयों के परे बताया गया हैं, वही हैं नारायणतत्व!
ॐ जिसकी प्राप्ति के बाद फिर अन्य कोई वस्तु प्राप्त करने को नहीं रह जाती! जिसके आनंद के बाद फिर किसी अन्य आनंद की कामना नहीं रहती! जिसे जान लेने के बाद फिर कुछ ज्ञातव्य नहीं रह जाता वही हैं नारायणतत्व!
ॐ जिसके दर्शन के बाद फिर कुछ और देखने की शेष नहीं रह जाता, जिसके साथ एकाकार हो जाने पर मनुष्य फिर जन्म-मरण के बंधन से छूट जाता हैं!
ॐ ब्रह्मा तथा इन्द्र आदि देवता भी जिस परब्रह्म के असीम आनंद का केवल एक कण मात्र प्राप्त कर धन्य हो चुके हैं और उसी में अपने भाग्य की सराहना करते हैं!
ॐ जो सभी वस्तुओं में व्याप्त हैं! सभी कर्म उस नारायणतत्व के कारण ही संभव हैं, जिस प्रकार से दूध में मक्खन व्याप्त हैं उसी प्रकार नारायणतत्व सर्व जगत में व्याप्त हैं!
ॐ जिसके प्रकाश से सूर्य, चंद्र और समस्त पृथ्वी मंडल आलोकित हैं किन्तु उनके प्रकाश से जो प्रकाशित नहीं हो सकता बल्कि जिसके प्रकाश से सभी प्रकाशित हैं उसे तू नारायणतत्व जान!
ॐ नारायणतत्व नित्य और शाश्वत हैं! अज्ञान के नष्ट हुए बिना, उसका साक्षात्कार अन्य किसी उपाय से संभव नहीं हैं!
ॐ नारायण जगत से पृथक हैं परन्तु नारायण से पृथक किसी वस्तु की कोई सत्ता नहीं! यदि नारायणतत्व के अतिरिकत किसी अन्य वस्तु का कोई अस्तित्व प्रतीत हो तो वह मृगतृष्णा के जल की तरह असत हैं!
ॐ जो कुछ हम देखते हैं, जो कुछ सुनते हैं यह हमारा नारायणतत्व आत्मतत्व ही हैं अन्य कुछ नहीं हैं और परम सत् का ज्ञान हो जाने पर समस्त विश्व अद्वैतपूर्ण एकरूप नारायण ही दिखाई देता हैं!
ॐ नारायणतत्व का ज्ञान ही आत्मतत्व का ज्ञान हैं, सम्पूर्ण जगत का ज्ञान हैं! इसके बाद कुछ शेष नहीं रहता!
ॐ नारायण अनंत आनंद का भण्डार हैं, फलतः जो सत् को जानने वाले हैं वह उन्हीं की शरण लेते हैं!
ॐ जिस प्रकार से नमक का ढेला जल में घुल जाने पर फिर नेत्रों से दिखायी नहीं देता केवल जिव्हा से हो चखा जा सकता हैं, उसी प्रकार हृदय के अंतर में प्रवाहित नारायणतत्व को बाह्य इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता! केवल गुरु के अनुग्रह से, उसकी कृपा से उस तत्व को जाना जा सकता हैं, उसे जाग्रत किया जा सकता हैं! अतः जो नारायणतत्व हैं उसे ही तू आत्मतत्व जान!
ॐ जो नम्र हो सकता हैं, वही बड़े-बड़े तूफ़ान झेल सकता हैं, क्योंकि तूफ़ान के बाद वही पेड़-पौधे शेष रहते हैं, जिनमें लचीलापन हैं! प्रेम, नम्रता एवं लचीलापन ही एक महापुरुष की पहचान हैं!
ॐ वह असीम, आनंद एवं परम सत्य हैं, वह महान हैं! इसीलिए उसे ब्रह्म कहा जाता हैं! उसे ही शक्तिपात द्वारा जगाने की क्रिया हैं नारायणतत्व आत्मतत्व जागरण दीक्षा!
“नारायण-मंत्र-साधना-विज्ञान” से साभार
ॐ जो सत् चित्त आनंद और अनंत हैं, असीम हैं! जो नित्य और सर्वव्यापी हैं वही हैं नारायन्तत्व आपका आत्मतत्व!
ॐ जो अद्वितीय, अखण्ड, नित्य और आनंद स्वरुप हैं! वेदों में जिसे अनित्य, विषयों के परे बताया गया हैं, वही हैं नारायणतत्व!
ॐ जिसकी प्राप्ति के बाद फिर अन्य कोई वस्तु प्राप्त करने को नहीं रह जाती! जिसके आनंद के बाद फिर किसी अन्य आनंद की कामना नहीं रहती! जिसे जान लेने के बाद फिर कुछ ज्ञातव्य नहीं रह जाता वही हैं नारायणतत्व!
ॐ जिसके दर्शन के बाद फिर कुछ और देखने की शेष नहीं रह जाता, जिसके साथ एकाकार हो जाने पर मनुष्य फिर जन्म-मरण के बंधन से छूट जाता हैं!
ॐ ब्रह्मा तथा इन्द्र आदि देवता भी जिस परब्रह्म के असीम आनंद का केवल एक कण मात्र प्राप्त कर धन्य हो चुके हैं और उसी में अपने भाग्य की सराहना करते हैं!
ॐ जो सभी वस्तुओं में व्याप्त हैं! सभी कर्म उस नारायणतत्व के कारण ही संभव हैं, जिस प्रकार से दूध में मक्खन व्याप्त हैं उसी प्रकार नारायणतत्व सर्व जगत में व्याप्त हैं!
ॐ जिसके प्रकाश से सूर्य, चंद्र और समस्त पृथ्वी मंडल आलोकित हैं किन्तु उनके प्रकाश से जो प्रकाशित नहीं हो सकता बल्कि जिसके प्रकाश से सभी प्रकाशित हैं उसे तू नारायणतत्व जान!
ॐ नारायणतत्व नित्य और शाश्वत हैं! अज्ञान के नष्ट हुए बिना, उसका साक्षात्कार अन्य किसी उपाय से संभव नहीं हैं!
ॐ नारायण जगत से पृथक हैं परन्तु नारायण से पृथक किसी वस्तु की कोई सत्ता नहीं! यदि नारायणतत्व के अतिरिकत किसी अन्य वस्तु का कोई अस्तित्व प्रतीत हो तो वह मृगतृष्णा के जल की तरह असत हैं!
ॐ जो कुछ हम देखते हैं, जो कुछ सुनते हैं यह हमारा नारायणतत्व आत्मतत्व ही हैं अन्य कुछ नहीं हैं और परम सत् का ज्ञान हो जाने पर समस्त विश्व अद्वैतपूर्ण एकरूप नारायण ही दिखाई देता हैं!
ॐ नारायणतत्व का ज्ञान ही आत्मतत्व का ज्ञान हैं, सम्पूर्ण जगत का ज्ञान हैं! इसके बाद कुछ शेष नहीं रहता!
ॐ नारायण अनंत आनंद का भण्डार हैं, फलतः जो सत् को जानने वाले हैं वह उन्हीं की शरण लेते हैं!
ॐ जिस प्रकार से नमक का ढेला जल में घुल जाने पर फिर नेत्रों से दिखायी नहीं देता केवल जिव्हा से हो चखा जा सकता हैं, उसी प्रकार हृदय के अंतर में प्रवाहित नारायणतत्व को बाह्य इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता! केवल गुरु के अनुग्रह से, उसकी कृपा से उस तत्व को जाना जा सकता हैं, उसे जाग्रत किया जा सकता हैं! अतः जो नारायणतत्व हैं उसे ही तू आत्मतत्व जान!
ॐ जो नम्र हो सकता हैं, वही बड़े-बड़े तूफ़ान झेल सकता हैं, क्योंकि तूफ़ान के बाद वही पेड़-पौधे शेष रहते हैं, जिनमें लचीलापन हैं! प्रेम, नम्रता एवं लचीलापन ही एक महापुरुष की पहचान हैं!
ॐ वह असीम, आनंद एवं परम सत्य हैं, वह महान हैं! इसीलिए उसे ब्रह्म कहा जाता हैं! उसे ही शक्तिपात द्वारा जगाने की क्रिया हैं नारायणतत्व आत्मतत्व जागरण दीक्षा!
“नारायण-मंत्र-साधना-विज्ञान” से साभार
Siddhashram
सिद्धाश्रम
संसार का सुविख्यात अद्वितीय साधना-तीर्थ तांत्रिकों, मांत्रिकों, योगियों, यतियों और सन्यासियों का दिव्यतम साकार स्वप्न “सिद्धाश्रम”, जिसमें प्रवेश पाने के लिए मनुष्य तो क्या देवता भी लालायित रहते हैं, हजारों वर्ष के आयु प्राप्त योगी जहाँ साधनारत हैं! सिद्धाश्रम एक दिव्या-भूखंड हैं, जो आध्यात्मिक पुनीत मनोरम स्थली हैं! मानसरोवर और हिमालय से उत्तर दिशा की और प्रकृति के गोद में स्थित वह दिव्य आश्रम – जिसकी ब्रह्मा जी के आदेश से विश्वकर्मा ने अपने हाथों से रचना की, विष्णु ने इसकी भूमि, प्रकृति और वायुमंडल को सजीव-सप्राण-सचेतना युक्त बनाया तथा भगवन शंकर की कृपा से यह अजर-अमर हैं! आज भी वहां महाभारत कालीन भगवान श्री कृष्ण, भीष्म, द्रौण आदि व्यक्तित्व विचरण करते हुए दिखाई दे जाते हैं!
संसार का सुविख्यात अद्वितीय साधना-तीर्थ तांत्रिकों, मांत्रिकों, योगियों, यतियों और सन्यासियों का दिव्यतम साकार स्वप्न “सिद्धाश्रम”, जिसमें प्रवेश पाने के लिए मनुष्य तो क्या देवता भी लालायित रहते हैं, हजारों वर्ष के आयु प्राप्त योगी जहाँ साधनारत हैं! सिद्धाश्रम एक दिव्या-भूखंड हैं, जो आध्यात्मिक पुनीत मनोरम स्थली हैं! मानसरोवर और हिमालय से उत्तर दिशा की और प्रकृति के गोद में स्थित वह दिव्य आश्रम – जिसकी ब्रह्मा जी के आदेश से विश्वकर्मा ने अपने हाथों से रचना की, विष्णु ने इसकी भूमि, प्रकृति और वायुमंडल को सजीव-सप्राण-सचेतना युक्त बनाया तथा भगवन शंकर की कृपा से यह अजर-अमर हैं! आज भी वहां महाभारत कालीन भगवान श्री कृष्ण, भीष्म, द्रौण आदि व्यक्तित्व विचरण करते हुए दिखाई दे जाते हैं!
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Siddhashram
Placed his hands on the hand you do not sit like that, think of the solstice is the time!
प्रिय मित्रों
आपको नव वर्ष २०११ के लिए हार्दिक-२ शुभकामनाएं.
यह नव वर्ष आपके जीवन में सुख, शांति, समृद्धि, सुस्वास्थ्य, प्रसन्नता और भी बहुत कुछ लेकर आये जो आपके जीवन को दिव्यता कि और ले चले.
यह समय बहुत ही कीमती है, क्योंकि समय ही जीवन का आधार है. यह समय कुछ कर गुजरने का है; अपने अन्तःकरण कि पुकार सुनिए और वह सब करिए जो आपको मनुष्य कहलाने योग्य बनाता है.जो जीवन का आधार बनाते है ऐसे गुरु ही क्रांति दूत है जिन्होंने अपने जीवन से लोगो को राह दिखलाई कि सच्चा मनुष्य क्या होता है. वह मनुष्य से ऋषि, देवता कैसे बनता है.
यह क्रांति गीत हमारे जीवन को दिशा दे, हम नव वर्ष को अपने जीवन का हर्ष बनाले! यही कामना!
हाथ पर यूँ हाथ रखकर तुम न बैठो , सोच लो यह समय संक्रांति का है !
सावधानी से तुम्हें हर पग बढ़ाना, यह समय हर ओर घोर अशांति का है .
हर तरफ है दृश्य ऐसा, इस समय की धार में बिगड़ा हुआ हर संतुलन है .
सब ढलानों पर फिसलते जा रहे हैं इस तरह निश्चित पराभव है पतन है .
सावधानी से तुम्हें हर पग बढ़ाना, यह समय हर ओर घोर अशांति का है !
हाथ पर यूँ हाथ रखकर तुम न बैठो , सोच लो यह समय संक्रांति का है !!
आत्म बल लेकर अगर तुम बढ़ सकोगे, लक्ष्य पर ही दृष्टि यदि हर पल रहेगी .
तो समझ लो इस भयंकर धार में भी, नाव मनचाही दिशा में ही बहेगी.
आज तो निश्चित अडिग संकल्प ले लो, यह समय बिलकुल न अब दिग्भ्रांति का है !..
हाथ पर यूँ हाथ रखकर तुम न बैठो , सोच लो यह समय संक्रांति का है !!
आपको नव वर्ष २०११ के लिए हार्दिक-२ शुभकामनाएं.
यह नव वर्ष आपके जीवन में सुख, शांति, समृद्धि, सुस्वास्थ्य, प्रसन्नता और भी बहुत कुछ लेकर आये जो आपके जीवन को दिव्यता कि और ले चले.
यह समय बहुत ही कीमती है, क्योंकि समय ही जीवन का आधार है. यह समय कुछ कर गुजरने का है; अपने अन्तःकरण कि पुकार सुनिए और वह सब करिए जो आपको मनुष्य कहलाने योग्य बनाता है.जो जीवन का आधार बनाते है ऐसे गुरु ही क्रांति दूत है जिन्होंने अपने जीवन से लोगो को राह दिखलाई कि सच्चा मनुष्य क्या होता है. वह मनुष्य से ऋषि, देवता कैसे बनता है.
यह क्रांति गीत हमारे जीवन को दिशा दे, हम नव वर्ष को अपने जीवन का हर्ष बनाले! यही कामना!
हाथ पर यूँ हाथ रखकर तुम न बैठो , सोच लो यह समय संक्रांति का है !
सावधानी से तुम्हें हर पग बढ़ाना, यह समय हर ओर घोर अशांति का है .
हर तरफ है दृश्य ऐसा, इस समय की धार में बिगड़ा हुआ हर संतुलन है .
सब ढलानों पर फिसलते जा रहे हैं इस तरह निश्चित पराभव है पतन है .
सावधानी से तुम्हें हर पग बढ़ाना, यह समय हर ओर घोर अशांति का है !
हाथ पर यूँ हाथ रखकर तुम न बैठो , सोच लो यह समय संक्रांति का है !!
आत्म बल लेकर अगर तुम बढ़ सकोगे, लक्ष्य पर ही दृष्टि यदि हर पल रहेगी .
तो समझ लो इस भयंकर धार में भी, नाव मनचाही दिशा में ही बहेगी.
आज तो निश्चित अडिग संकल्प ले लो, यह समय बिलकुल न अब दिग्भ्रांति का है !..
हाथ पर यूँ हाथ रखकर तुम न बैठो , सोच लो यह समय संक्रांति का है !!
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Friday, December 17, 2010
Nikhil Elements Overview
निखिल तत्त्व अवलोकन Nikhil Elements Overview
ल तत्वार्थ - लं बीज पृथ्वी तत्त्व का कारक है एवं उसका स्थान है मूलाधार। इसलिए "ल" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है इस संपूर्ण स्थूल चराचर जगत का।
खि तत्वार्थ - खं शब्द का अर्थ संस्कृत में है - आकाश (Ether) और इकार है आद्यशक्ति का द्योतक। जैसे, 'शव' में जब 'इकार' का योग होता है तब ही वह "शिव" मेंपरिवर्तित होता है। इसीलिए "खि" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है ब्रम्हाण्ड में स्थित उन सुक्ष्म शक्तियों का जिनकी परिपाटी पर कई अगम्य अगोचर जगत विद्यमान हैं।
नि तत्वार्थ - "नि" उपसर्ग एक "पर (BEYOND)" की स्थिति दर्शाता है। स्वार्थ, 'नि' से युक्त होकर निःस्वार्थ हो जाता है, आकार - निराकार, कलंक - निष्कलंक,आधार - निराधार, विकार - निर्विकार, द्वन्द - निर्द्वंद........."नि" उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है जो की स्थूल एवं सुक्ष्म दोनों से ही "पर" है।
नि-खि-ल प्रतिक है, इन सभी जगतों का...
स्थूल - ल (GROSS)...आधिभौतिक
सुक्ष्म - खि (SUBTLE)...आधिदैविक
परा - नि (BEYOND)...आध्यात्मिक
और जो सत्ता इन तीनों जगत का संचालक है, पालक-पोषक है, इश्वर है, वही सत्ता है "निखिलेश्वर", वही तत्त्व है - "निखिलेश्वरानंद"।
॥ निखिलं वंदे जगद्गुरुम्||
ल तत्वार्थ - लं बीज पृथ्वी तत्त्व का कारक है एवं उसका स्थान है मूलाधार। इसलिए "ल" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है इस संपूर्ण स्थूल चराचर जगत का।
खि तत्वार्थ - खं शब्द का अर्थ संस्कृत में है - आकाश (Ether) और इकार है आद्यशक्ति का द्योतक। जैसे, 'शव' में जब 'इकार' का योग होता है तब ही वह "शिव" मेंपरिवर्तित होता है। इसीलिए "खि" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है ब्रम्हाण्ड में स्थित उन सुक्ष्म शक्तियों का जिनकी परिपाटी पर कई अगम्य अगोचर जगत विद्यमान हैं।
नि तत्वार्थ - "नि" उपसर्ग एक "पर (BEYOND)" की स्थिति दर्शाता है। स्वार्थ, 'नि' से युक्त होकर निःस्वार्थ हो जाता है, आकार - निराकार, कलंक - निष्कलंक,आधार - निराधार, विकार - निर्विकार, द्वन्द - निर्द्वंद........."नि" उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है जो की स्थूल एवं सुक्ष्म दोनों से ही "पर" है।
नि-खि-ल प्रतिक है, इन सभी जगतों का...
स्थूल - ल (GROSS)...आधिभौतिक
सुक्ष्म - खि (SUBTLE)...आधिदैविक
परा - नि (BEYOND)...आध्यात्मिक
और जो सत्ता इन तीनों जगत का संचालक है, पालक-पोषक है, इश्वर है, वही सत्ता है "निखिलेश्वर", वही तत्त्व है - "निखिलेश्वरानंद"।
॥ निखिलं वंदे जगद्गुरुम्||
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