Friday, August 5, 2011

shri Narayan kavach

श्री नारायण कवच
न्यासः- सर्वप्रथम श्रीगणेश जी तथा भगवान नारायण को नमस्कार करके नीचे लिखे प्रकार से न्यास करें।
अगं-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — पादयोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों का स्पर्श करें)।
ॐ नं नमः — जानुनोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों घुटनों का स्पर्श करें )।
ॐ मों नमः — ऊर्वोः (दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों की जाँघ का स्पर्श करें)।
ॐ नां नमः — उदरे ( दाहिने हाथ की तर्जनी तथा अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर पेट का स्पर्श करे )
ॐ रां नमः — हृदि ( मध्यमा-अनामिका-तर्जनी से हृदय का स्पर्श करें )
ॐ यं नमः – उरसि ( मध्यमा- अनामिका-तर्जनी से छाती का स्पर्श करे )
ॐ णां नमः — मुखे ( तर्जनी – अँगुठे के संयोग से मुख का स्पर्श करे )
ॐ यं नमः — शिरसि ( तर्जनी -मध्यमा के संयोग से सिर का स्पर्श करे )
कर-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — दक्षिणतर्जन्याम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने तर्जनी के सिरे का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —-दक्षिणमध्यमायाम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ मों नमः —दक्षिणानामिकायाम् ( दहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ भं नमः —-दक्षिणकनिष्ठिकायाम् (दाहिने अँगुठे से हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ गं नमः —-वामकनिष्ठिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ वं नमः —-वामानिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाँथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ तें नमः —-वाममध्यमायाम् ( बाँये अँगुठे से बाये हाथ की मध्यमा का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ वां नमः —वामतर्जन्याम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की तर्जनी का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ सुं नमः —-दक्षिणाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ दें नमः —–दक्षिणाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
ॐ वां नमः —–वामाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये अँगुठे के ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ यं नमः ——वामाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
विष्णुषडक्षरन्यासः-
ॐ ॐ नमः ————हृदये ( तर्जनी – मध्यमा एवं अनामिका से हृदय का स्पर्श करे )
ॐ विं नमः ————-मूर्ध्नि ( तर्जनी मध्यमा के संयोग सिर का स्पर्श करे )
ॐ षं नमः —————भ्रुर्वोर्मध्ये ( तर्जनी-मध्यमा से दोनों भौंहों का स्पर्श करे )
ॐ णं नमः —————शिखायाम् ( अँगुठे से शिखा का स्पर्श करे )
ॐ वें नमः —————नेत्रयोः ( तर्जनी -मध्यमा से दोनों नेत्रों का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —————सर्वसन्धिषु ( तर्जनी – मध्यमा और अनामिका से शरीर के सभी जोड़ों — जैसे – कंधा, घुटना, कोहनी आदि का स्पर्श करे )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्राच्याम् (पूर्व की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् –आग्नेय्याम् ( अग्निकोण में चुटकी बजायें )
ॐ मः अस्त्राय फट् — दक्षिणस्याम् ( दक्षिण की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — नैऋत्ये (नैऋत्य कोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्रतीच्याम्( पश्चिम की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — वायव्ये ( वायुकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — उदीच्याम्( उत्तर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऐशान्याम् (ईशानकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऊर्ध्वायाम् ( ऊपर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — अधरायाम् (नीचे की ओर चुटकी बजाएँ )
श्री हरिः
अथ श्रीनारायणकवच
।।राजोवाच।।
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्।।१
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाssततायिनः शत्रून् येन गुप्तोsजयन्मृधे।।२
राजा परिक्षित ने पूछाः भगवन् ! देवराज इंद्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरङ्गिणी सेना को खेल-खेल में अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राज लक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को सुनाइये और यह भी बतलाईये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की ।।१-२
।।श्रीशुक उवाच।।
वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु।।३
श्रीशुकदेवजी ने कहाः परीक्षित् ! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण कवच का उपदेश दिया तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ।।३
विश्वरूप उवाचधौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः।।४
नारायणमयं वर्म संनह्येद् भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि।।५
मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा।।६
विश्वरूप ने कहा – देवराज इन्द्र ! भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिए उसकी विधि यह है कि पहले हाँथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथ में कुश की पवित्री धारण करके उत्तर मुख करके बैठ जाय इसके बाद कवच धारण पर्यंत और कुछ न बोलने का निश्चय करके पवित्रता से “ॐ नमो नारायणाय” और “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इन मंत्रों के द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि करन्यास करे पहले “ॐ नमो नारायणाय” इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करे अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ॐ कार तक आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ कर उन्हीं आठ अङ्गों में विपरित क्रम से न्यास करे ।।४-६
करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारन्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठ​पर्वसु।।७
तदनन्तर “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस द्वादशाक्षर -मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बाँयीं तर्जनी तक दोनों हाँथ की आठ अँगुलियों और दोनों अँगुठों की दो-दो गाठों में न्यास करे।।७
न्यसेद् हृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्।।८
वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः।।९
सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति ।।१०
फिर “ॐ विष्णवे नमः” इस मन्त्र के पहले के पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदय में, ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्र , में ‘ष’ का भौहों के बीच में, ‘ण’ का चोटी में, ‘वे’ का दोनों नेत्रों और ‘न’ का शरीर की सब गाँठों में न्यास करे तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्ध करे इस प्रकर न्यास करने से इस विधि को जानने वाला पुरूष मन्त्रमय हो जाता है ।।८-१०
आत्मानं परमं ध्यायेद ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत ।।११
इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या, तेज, और तपः स्वरूप इस कवच का पाठ करे ।।११
ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः ।।१२
भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं आठ हाँथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष, और पाश (फंदा) धारण किए हुए हैं वे ही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें।।१२
जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ।।१३
मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण के पाश से मेरी रक्षा करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें 13
दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ।।१४
जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ।।१४
रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद् भरताग्रजोsस्मान् ।।१५
अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुराम जी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगावन् रामचंद्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें ।।१५
मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।१६
भगवान् नारायण मारण – मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें ।।१६
सनत्कुमारो वतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ।।१७
परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ।।१७
धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ।।१८
भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों से मेरी रक्षा करें ।।१८
द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात्।
कल्किः कले कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः ।।१९
भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें धर्म-रक्षा करने वाले महान अवतार धारण करने वाले भगवान् कल्कि पाप-बहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें ।।१९
मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ।।२०
प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।२०
देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतु पद्मनाभः ।।२१
तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें सांयकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषिकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्ध रात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१
श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ।।२२
रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।२२
चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ।।२३
सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह है आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।।२३
गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि। कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्र​हांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ।।२४
कौमुद की गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ इसलिए आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर – चूर कर दिजिये ।।२४
त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्​रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ।।२५
शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से तुरन्त भगा दीजिये ।।२५
त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक​्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् २६
भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिजिये। भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ।।२६
यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ।।२७
सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ।।२८
सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हो और जो हमारे मङ्गल के विरोधी हों – वे सभी भगावान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें ।।२७-२८
गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ।।२९
बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरूड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें।।२९
सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ।।३०
श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ।।३०
यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत्।
सत्यनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपाद्रवाः ।।३१
जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है, वह वास्तव में भगवान् ही है इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें ।।३१
यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।।३२
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ।।३३
जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों से रहित है-भेदों से रहित हैं फिर भी वे अपनी माया शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें ।।३२-३३
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजाः ।।३४
जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में, नीचे -ऊपर, बाहर-भीतर – सब ओर से हमारी रक्षा करें ।।३४
मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ।।३५
देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया है इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य – यूथपतियों को जीत कर लोगे ।।३५
एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ।।३६
इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छू देता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है 36
न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ।।३७
जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता ।।३७
इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि ।।३८
देवराज! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया ।।३८
तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षयः ।।३९
जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके उपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठ कर निकले ।।३९
गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ।।४०
वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को चले गये ।।४०
।।श्रीशुक उवाच।।
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ।।४१
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परिक्षित् जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ।।४१
एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्यऽमृधेसुरान् ।।४२
परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे 42
।।इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्।।
( श्रीमद्भागवत स्कन्ध 6 , अ। 8 )

Narayana Kavacham

Narayana Kavacham

Om harir vidhadhyan mama sarva raksham.
Nyashngir padma padgendra prushte,
Dharari charmasi gadheshu chapa,
Pasan dadhano ashtaguno ashta bahu., 12
Jaleshu maam rakshathu mathsya moorthir,
Yadho ganebhyo varunasya pasad,
Sthaleshu maya vatu vamano avyal,
Trivikrama khevadu viswaroopa., 13
Durgesh atavyaji mukhadhishu Prabhu,
Payanrusimho asura yoodha pari,
Vimunchatho yasya mahattahasam,
Dhiso vinedhur anya pathangascha Garbha., 14
Rakshathwasou maadhwani Yajna Kalpa,
Swadamshtrayoth patha dharo varaha,
Ramo aadhrikooteshwadha vipravase,
Sa lakshmanovyadh bharathagrajo maam., 15
Mamugra dharmad akhilath pramadath,
Narayana pathu narascha hasath,
Dathaswa yogad adha Yoga natha,
Payadh Gunesa kapila Karma bandath., 16
Sanath kumaro aavathu Kama devath,
Hayanano maam padhi deva helanath,
Devarshi varya purusharcha nantharath,
Koormo harir maam nirayadh aseshath., 17
Dhanwandarir bhagawan pathway padhyath,
Dwandwadh bhayad rushabho nirjithama,
Yajnascha loka devathaa janandath,
Balo ganath krodha vasadh aheendra., 18
Dwaipayano bhagwan aprabhodhad,
Budhasthu pashanda ganath pramadhath,,
Kalki kale kala malath prapath,
Dharma vanayoru kruthavathara., 19
Maam kesavo gadhaya pratharavyad,
Govinda aasangava aartha venu,
Narayana prahana udatha shakthir,
Madhyandhine vishnurareendra pani., 20
Devo aparahne Madhu hogra dhanwa,
Sayam thridhamavathu Madhwao maam,
Doshe Hrishi kesa, uthardha rather,
Niseedha yekovathu Padmanabha., 21
Srivathsa dhamaapara rathra eesa,
Prathyoosha eesosidharo janardhana,
Dhamodharo avyad anusandhyam prabathe,
Visweswaro bhagwan kala moorthi., 22
Chakram yugantha analathigma nemi,
Bhramath samanthad Bhagvath prayuktham,
Dandhagdhi dangdhyari sainya masu,
Kaksham yadha vatha sakho huthasa., 23
Gadhe asani sparsana visphulinge,
Nishpindi nishpindyajitha priyasi,
Koosmanda vainayaka yaksha raksho,
Bhootha graham choornaya choornyarin., 24
Thwam yathu dhana pramadha pretha mathru,
Pisacha vipra graham gora drushteen,
Dharendra vidhravaya Krishna pooritho,
Bhima swano arer hrudhayani kambhayan., 25
Thwam thigma dharasi varari sainyam,
Eesa prayuktha mama chindhi, chindhi,
Chakshoomshi charman satha chandra chadhaya,
Dwishamaghonaam hara papa chakshusham., 26
Yanna bhayam grahebhyobhooth kethubhyo nrubhya eva cha,
Saree srupebhyo dhamshtribhyo bhoothabyohebhya yeva cha., 27
Sarvanyethani bhagavan nama roopasthra keerthanath,
Prayanthu samkshayam sadhyo ye na sreya pratheepika., 28
Garudo Bhagawan sthothra sthobha chandho maya Prabhu,
Rakshathwa sesha kruchsrebhyo vishwaksena swa namabhi., 29
Savapadbhyo harer nama roopayanaayudhani na.
Budheendriya mana praanan paanthu parshadha bhooshana., 30
Yadhahi bhagwan eva vasthutha sad sachayath,
Sathye nanena na sarve yanthu nasamupadrawa., 31
Yadaikathmanu bhavanam vikalpa rahitha swayam,
Bhooshanuyudha lingakhya dathe shakthi swa mayaya., 32
Thenaiva sathya manen sarvajno Bhagwan Hari,
Pathu sarvai swaroopairna sada sarvathra sarvaga., 33
Vidikshu dikshoordhwamadha Samantha,
Anthar bahir bhagwan narasimha,
Praha bhayam loka bhayam swanena,
Swathejasa grastha samastha theja., 34
Maghavan idham aakhyatham varma narayanathmakam,
Vijeshya syanjasa yena damsitho sura yoodhapan., 35
Yethad dharayamanasthu yam yam pasyathi chakshusha,
Pada vaa samsprusethsadhya saadvasath sa vimuchyathe., 36
Na kuthaschid bhayam thasya vidhyam dharayatho bhaved.,
Raja dasyu grahadhebhyo vyagradhibhyascha karhichith., 37
Imam vidhyam pura kaschid kaushiko dharayan dwija,
Yogadharanaya swa angam jahow marudhanwani., 38
Thasyopari vimanena gandharwa pathi rekhadha,
Yayou chithra radha sthreebhir vrutho yathra dwijakshaya., 39
Gagamam anya pada sadhya savimano hyavak sira,
Sa balakhilya vachanad asthhenyadhya vismitha,
Prasya prachee saraswathyam snathwa dhama swa manwagadh., 40

Guru Gita Mantra short

गुरुगीता लघु
गुरुगीता लघु
॥श्री गुरुपादुका पञ्चकम्॥


ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यो नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः।
आचार्य सिद्धेश्वर पादुकाभ्यो नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्यः॥

ऐङ्कार हृईङ्कार रहस्य युक्त श्रीङ्कार गूढार्थमहाविभूत्या॥१॥

ओङ्कार मर्म प्रतिपादिनीभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम्॥२॥

होत्राग्नि हौत्राग्नि हविष्यहोत्र होमादि सर्वाकृति भासमानाम्।
यद् ब्रह्म तद्बोध वितारिणीभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम्॥३॥

कामादि सर्पव्रज गारुडाभ्यां विवेक वैराग्य निधि प्रदाभ्याम्।
बोध प्रदाभ्यां दृतमोक्षदाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम्॥४॥

अनन्त संसार समुद्र तार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्याम्।
जाड्याब्धि संशोषण वाडवाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम्॥५॥

॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
॥अथ श्री गुरुगीता प्रारंभः॥

श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः। श्रीगुरुभ्यो नमः।

॥ॐ॥

अस्य श्रीगुरुगीतास्तोत्रमन्त्रस्य भगवान् सदाशिव ऋषिः।
नानाविधानि छन्दांसि। श्रीगुरुपरमात्मा देवता।
हं बीजं। सः शक्तिः। क्रों कीलकं।
श्रीगुरुप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।
॥अथ ध्यानम्॥

हंसाभ्यां परिवृत्तपत्रकमलैर्दिव्यैर्जगत्कारणै-
विर्श्वोत्कीर्णमनेकदेहनिलयैः स्वच्छंदमात्मेच्छया॥

तद्योतं पदशांभवं तु चरणं दीपाङ्कुर ग्राहिणम्।
प्रत्यक्षाक्षरविग्रहं गुरुपदं ध्यायेद्विभुं शाश्वतम्॥

मम चतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।

॥अथ श्रीगुरुगीता॥

सूत उवाच --

कैलासशिखरे रम्ये भक्ति संधान नायकम्।
प्रणम्य पार्वती भक्त्या शङ्करं पर्यपृच्छत॥१॥

श्री देव्युवाच --

ॐ नमो देव देवेश परात्पर जगद्गुरो।
सदाशिव महादेव गुरुदीक्षां प्रदेहि मे॥२॥

केन मार्गेण भो स्वामिन् देहि ब्रह्ममयो भवेत्।
त्वं कृपं कुरु मे स्वामिन् नमामि चरणौ तव॥३॥

ईश्वर उवाच --

मम रूपासि देवि त्वं त्वत्प्रीत्यर्थं वदाम्यहम्।
लोकोपकारकः प्रश्नो न केनापि कृतः पुरा॥४॥

दुर्लभं त्रिषु लोकेषु तच्छृणुष्व वदाम्यहम्।
गुरुं विना ब्रह्म नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने॥५॥

वेद शास्त्र पुराणानि इतिहासादिकानि च।
मन्त्र यन्त्रादि विद्याश्च स्मृतिरुच्चाटनादिकम्॥६॥

शैव शाक्तागमादीनि अन्यानि विविधानि च।
अपभ्रंशकराणीह जीवानां भ्रांत चेतसाम्॥७॥

यज्ञो व्रतं तपो दानं जपस्तीर्थं तथैव च।
गुरुतत्त्वमविज्ञाय मूढास्ते चरते जनाः॥८॥

गुरुबुद्ध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं न संशयः।
तल्लाभार्थं प्रयत्नस्तु कर्तव्यो हि मनीषिभिः॥९॥

गूढ विद्या जगन्माया देहे चाज्ञान संभवा।
उदयः यत्प्रकाशेन गुरुशब्देन कथ्यते॥१०॥

सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पादसेवनात्।
देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थं वदामि ते॥११॥

गुरुपादांबुजं स्मृत्वा जलं शिरसि धारयेत्।
सर्व तीर्थावगाहस्य संप्राप्नोति फलं नरः॥१२॥

शोषनं पाप पङ्कस्य दीपनं ज्ञान तेजसाम्।
गुरुपादोदकं सम्यक् संसारार्णव तारकम्॥१३॥

अज्ञान मूल हरणं जन्म कर्म निवारणम्।
ज्ञान वैराग्य सिद्ध्यर्थं गुरु पादोदकं पिबेत्॥१४॥

गुरोः पादोदकं पीत्वा गुरोरुच्छिष्टभोजनम्।
गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं गुरुमंत्रं सदा जपेत्॥१५॥

काशीक्षेत्रं तन्निवासो जाह्नवी चरणोदकम्।
गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्म निश्चितम्॥१६॥

गुरोः पादोदकं यत्तु गयाऽसौ सोऽक्षयो वटः।
तीर्थ राजः प्रयागश्च गुरुमूर्त्यै नमो नमः॥१७॥

गुरुमूर्तिं स्मरेन्नित्यं गुरु नाम सदा जपेत्।
गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यन्न भावयेत्॥१८॥

गुरुवक्त्र स्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः।
गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् कुलस्त्री स्वपतेर्यथा॥१९॥

स्वाश्रमं च स्वजातिं च स्वकीर्तिपुष्टि वर्धनम्।
एतत्सर्वं परित्यज्य गुरोरन्यन्न भावयेत्॥२०॥

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां सुलभं परमं पदम्।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन गुरोराराधनं कुरु॥२१॥

त्रैलोक्ये स्फुट वक्तारो देवाद्यसुर पन्नगाः।
गुरुवक्त्र स्थिता विद्या गुरुभक्त्ये तु लभ्यते॥२२॥

गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञान ग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः॥२३॥

गुकारः प्रथमो वर्णो मायादि गुण भासकः।
रुकारो द्वितीयो ब्रह्म माया भ्रान्ति विनाशनम्॥२४॥

एवं गुरुपदं श्रेष्ठं देवानामपि दुर्लभम्।
हाहा हूहू गणैश्चैव गन्धर्वैश्च प्रपूज्यते॥२५॥

ध्रुवं तेषां च सर्वेषां नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।
आसनं शयनं वस्त्रं भूशनं वाहनादिकम्॥२६॥

साधकेन प्रदातव्यम् गुरु संतोष कारकम्।
गुरोराराधनं कार्यं स्वजीवितं निवेदयेत्॥२७॥

कर्मणा मनसा वाचा नित्यमाराधयेद्गुरुम्।
दीर्घ दण्डं नमस्कृत्य निर्लज्जो गुरुसन्निधौ॥२८॥

शरीरं इन्द्रियं प्राणां सद्गुरुभ्यो निवेदयेत्।
आत्मदारादिकं सर्वं सद्गुरुभ्यो निवेदयेत्॥२९॥

कृमि कीट भस्म विष्ठा दुर्गन्धि मलमूत्रकम्।
श्लेष्म रक्तं त्वचा मांसं वञ्चयेन्न वरानने॥३०॥

संसारवृक्षमारूढाः पतन्तो नरकार्णवे।
येन चैवोद्धृताः सर्वे तस्मै श्री गुरवे नमः॥३१॥

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥३२॥

हेतवे जगतामेव संसारार्णव सेतवे।
प्रभवे सर्व विद्यानां शम्भवे गुरवे नमः॥३३॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥३४॥

त्वं पिता त्वं च मे माता त्वं बन्धुस्त्वं च देवता।
संसार प्रतिबोधार्थं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥३५॥

यत्सत्येन जगत्सत्यं यत्प्रकाशेन भाति तत्।
यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥३६॥

यस्य स्थित्या सत्यमिदं यद्भाति भानुरूपतः।
प्रियं पुत्रदी यत्प्रीत्या तस्मै श्री गुरवे नमः॥३७॥

येन चेतयते हीदं चित्तं चेतयते न यम्।
जाग्रत् स्वप्न सुषुप्त्यादि तस्मै श्री गुरवे नमः॥३८॥

यस्य ज्ञानादिदं विश्वं न दृश्यं भिन्नभेदतः।
सदेकरूपरूपाय तस्मै श्री गुरवे नमः॥३९॥

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अनन्य भाव भावाय तस्मै श्री गुरवे नमः॥४०॥

यस्य कारणरूपस्य कार्य रूपेण भाति यत्।
कार्य कारण रूपाय तस्मै श्री गुरवे नमः॥४१॥

नानारूपं इदं सर्वं न केनाप्यस्ति भिन्नता।
कार्य कारणता चैव तस्मै श्री गुरवे नमः॥४२॥

यदङ्घ्रि कमल द्वन्द्वं द्वन्द्वतापनिवारकम्।
तारकं सर्वदाऽपद्भ्यः श्रीगुरुं प्रणमाम्यहम्॥४३॥

शिवे क्रुद्धे गुरुस्त्राता गुरौ क्रुद्धे शिवो नहि।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन श्रीगुरुं शरणं व्रजेत्॥४४॥

वन्दे गुरुपदद्वन्द्वं वाङ्मनश्चित्तगोचरम्।
श्वेतरक्तप्रभाभिन्नं शिवशक्त्यात्मकं परम्॥४५॥

गुकारं च गुणातीतं रुकारं रूपवर्जितम्।
गुणातीतस्वरूपं च यो दद्यात्स गुरुः स्मृतः॥४६॥

अ-त्रिनेत्रः सर्वसाक्षी अ-चतुर्बाहुरच्युतः।
अ-चतुर्वदनो ब्रह्मा श्री गुरु कथितः प्रिये॥४७॥

अयं मयाञ्जलिर्बद्धो दया सागर वृद्धये।
यदनुग्रहतो जन्तुश्चित्रसंसारमुक्तिभाक्॥४८॥

श्रीगुरोः परमं रूपं विवेकचक्षुषोऽमृतम्।
मन्द भाग्या न पश्यन्ति अन्धाः सूर्योदयं यथा॥४९॥

श्रीनाथ चरण द्वन्द्वं यस्यां दिशि विराजते।
तस्यै दिशे नमस्कुर्याद् भक्त्या प्रतिदिनं प्रिये॥५०॥

तस्यै दिशे सततमञ्जलिरेश आर्ये
प्रक्षिप्यते मुखरितो मधुपैर्बुधैश्च।
जागर्ति यत्र भगवान् गुरुचक्रवर्ती
विश्वोदयप्रलयनाटकनित्यसाक्षी॥५१॥

श्रीनाथादि गुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवं
सिद्धौघं बटुकत्रयं पदयुगं दूतीत्रयं शांभवम्।
वीरेशाष्टचतुष्कषष्टिनवकं वीरावलीपञ्चकं
श्रीमन्मालिनिमंत्रराजसहितं वन्दे गुरोर्मण्डलम्॥५२॥

अभ्यस्तैः सकलैः सुदीर्घमनिलैर्व्याधिप्रदैर्दुष्करैः
प्राणायाम शतैरनेककरणैर्दुःखात्मकैर् दुर्जयैः।
यस्मिन्नभ्युदिते विनश्यति बली वायुः स्वयं तत्क्षणात्
प्राप्तुं तत्सहजं स्वभावमनिशं सेवध्वमेकं गुरुम्॥५३॥

स्वदेशिकस्यैव शरीरचिन्तनम्
भवेदनन्तस्य शिवस्य चिन्तनम्।
स्वदेशिकस्यैव च नामकीर्तनम्
[भवेदनन्तस्य शिवस्य कीर्तनम्॥५४॥

यत्पाद रेणु कणिका कापि संसारवारिधेः।
सेतुबन्धायते नाथं देशिकं तमुपास्महे॥५५॥

यस्मादनुग्रहं लब्ध्वा महदज्ञानमुत्सृजेत्।
तस्मै श्री देशिकेन्द्राय नमश्चाभीष्टसिद्धये॥५६॥

पादाब्जं सर्वसंसार-दावानलविनाशकम्।
ब्रह्मरन्ध्रे सितांभोज-मध्यस्थं चन्द्रमण्डले॥५७॥

अकथादि त्रिरेखाब्जे सहस्रदल मण्डले।
हंस पार्श्व त्रिकोणे च स्मरेत्तन्मध्यगं गुरुम्॥५८॥

सकल भुवन सृष्टिः कल्पिताशेषपुष्टि-
निर्खिल निगम दृष्टिः संपदं व्यर्थदृष्टिः।
अवगुण परिमार्ष्टिस्तत्पदार्थैक दृष्टि-
भर्व गुण परमेष्टिर्मोक्षमार्गैक दृष्टिः॥५९॥

सकलभुवनरङ्ग स्थापनास्तंभयष्टिः
सकरुणरसवृष्टिस्तत्त्वमालासमष्टिः।
सकलसमयसृष्टिः सच्चिदानन्द दृष्टि
निर्वसतु मयि नित्यं श्रीगुरोर्दिव्यदृष्टिः॥६०॥

अग्नि शुद्ध समन्तात ज्वाला परिचकाधिया।
मन्त्रराजमिमं मन्येऽहर्निशं पातु मृत्युतः॥६१॥

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तत्समीपके।
तदंतरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः॥६२॥

अजोऽहमजरोऽहं च अनादिनिधनः स्वयम्।
अविकारश्चिदानन्द अणीयान् महतो महान्॥६३॥

अपूर्वाणां परं नित्यं स्वयंज्योतिर्निरामयम्।
विरजं परमाकाशं ध्रुवमानन्दमव्ययम्॥६४॥

श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानश्चतुष्टयम्।
यस्य चात्मतपो वेद देशिकं च सदा स्मरेत्॥६५॥

मननं यद्भवं कार्यं तद्वदामि महामते।
साधुत्वं च मया दृष्ट्वा त्वयि तिष्ठति सांप्रतम्॥६६॥

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥६७॥

सर्व श्रुति शिरोरत्न विराजित पदांबुजः।
वेदान्तांबुज सूर्यो यस्तस्मै श्रीगुरवे नमः॥६८॥

यस्य स्मरणमात्रेण ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम्।
य एव सर्व संप्राप्तिस्तस्मै श्रीगुरवे नमः॥६९॥

चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरञ्जनम्।
नाद बिन्दु कलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७०॥

स्थावरं जङ्गमं चैव तथा चैव चराचरम्।
व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७१॥

ज्ञान शक्ति समारूढस्तत्त्वमाला विभूषितः।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता यस्तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७२॥

अनेकजन्मसंप्राप्त सर्वकर्मविदाहिने।
स्वात्मज्ञानप्रभावेण तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७३॥

न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः।
तत्त्वं ज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७४॥

मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरुस्त्रिजगद्गुरुः।
ममात्मा सर्व भूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७५॥

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।
मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७६॥

गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परम दैवतम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७७॥

सप्त सागर पर्यन्त तीर्थ स्नानादिकं फलम्।
गुरोरङ्घ्रिपयोबिन्दुसहस्रांशे न दुर्लभम्॥७८॥

हरौ रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्रीगुरुं शरणं व्रजेत्॥७९॥

गुरुरेव जगत्सर्वं ब्रह्म विष्णु शिवात्मकम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरुम्॥८०॥

ज्ञानं विज्ञानसहितं लभ्यते गुरुभक्तितः।
गुरोः परतरं नास्ति ध्येयोऽसौ गुरुमार्गिभिः॥८१॥

यस्मात्परतरं नास्ति नेति नेतीति वै श्रुतिः।
मनसा वचसा चैव नित्यमाराधयेद्गुरुम्॥८२॥

गुरोः कृपा प्रसादेन ब्रह्म विष्णु सदाशिवाः।
समर्थाः प्रभवादौ च केवलं गुरुसेवया॥८३॥

देव किन्नर गन्धर्वाः पितरो यक्षचारणाः।
मुनयोऽपि न जानन्ति गुरुशुश्रूषणे विधिम्॥८४॥

महाहङ्कारगर्वेण तपोविद्याबलान्विताः।
संसारकुहरावर्ते घट यन्त्रे यथा घटाः॥८५॥

न मुक्ता देवगन्धर्वाः पितरो यक्षकिन्नराः।
ऋषयः सर्वसिद्धाश्च गुरुसेवा पराङ्मुखः॥८६॥

ध्यानं शृणु महादेवि सर्वानन्द प्रदायकम्।
सर्वसौख्यकरं नित्यं भुक्तिमुक्तिविधायकम्॥८७॥

श्रीमत्परब्रह्म गुरुं स्मरामि श्रीमत्परब्रह्म गुरुं वदामि।
श्रीमत्परब्रह्म गुरुं नमामि श्रीमत्परब्रह्म गुरुं भजामि॥८८॥

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्।
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥८९

नित्यं शुद्धं निराभासं निराकारं निरञ्जनम्।
नित्यबोधं चिदानन्दं गुरुं ब्रह्म नमाम्यहम्॥९०॥

हृदंबुजे कर्णिकमध्यसंस्थे सिंहासने संस्थितदिव्यमूर्तिम्।
ध्यायेद्गुरुं चन्द्रकलाप्रकाशम् चित्पुस्तकाभीष्टवरं दधानम्॥९१॥

श्वेतांबरं श्वेतविलेपपुष्पं मुक्ताविभूषं मुदितं द्विनेत्रम्।
वामांकपीठस्थितदिव्यशक्तिं मंदस्मितं सांद्रकृपानिधानम्॥९२॥

आनंदमानंदकरं प्रसन्नं ज्ञानस्वरूपं निजबोधयुक्तम्।
योगींद्रमीड्यं भवरोगवैद्यं श्रीमद्गुरुं नित्यमहं नमामि॥९३॥

यस्मिन्सृष्टिस्थितिध्वंस-निग्रहानुग्रहात​्मकम्।
कृत्यं पंचविधं शश्वद्भासते तं नमाम्यहम्॥९४॥

प्रातः शिरसि शुक्लाब्जे द्विनेत्रं द्विभुजं गुरुम्।
वराभययुतं शांतं स्मरेत्तं नामपूर्वकम्॥९५॥

न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।
शिवशासनतः शिवशासनतः शिवशासनतः शिवशासनतः॥९६॥

इदमेव शिवं त्विदमेव शिवं त्विदमेव शिवं त्विदमेव शिवम्।
मम शासनतो मम शासनतो मम शासनतो मम शासनतः॥९७॥

एवंविधं गुरुं ध्यात्वा ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम्।
तत्सद्गुरुप्रसादेन मुक्तोऽहमिति भावयेत्॥९८॥

गुरुदर्शितमार्गेण मनःशुद्धिं तु कारयेत्।
अनित्यं खंडयेत्सर्वं यत्किंचिदात्मगोचरम्॥९९॥

ज्ञेयं सर्वस्वरूपं च ज्ञनं च मन उच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयसमं कुर्यान् नान्यः पंथा द्वितीयकः॥१००॥

एवं श्रुत्वा महादेवि गुरुनिंदां करोति यः।
स याति नरकं घोरं यावच्चंद्रदिवाकरौ॥१०१॥

यावत्कल्पांतको तेहस्तावदेव गुरुं स्मरेत्।
गुरुलोपो न कर्तव्यः स्वच्छंदो यदि वा भवेत्॥१०२॥

हुंकारेण न वक्तव्यं प्राज्ञैः शिष्यैः कथंचन।
गुरोरग्रे न वक्तव्यमसत्यं च कदाचन॥१०३॥

गुरुं त्वं कृत्य हुं कृत्य गुरुं निर्जित्य वादतः।
अरण्ये निर्जले देशे स भवेद् ब्रह्मराक्षसः॥१०४॥

मुनिभिः पन्नगैर्वाऽपि सुरैर्वा शापितो यदि।
कालमृत्युभयाद्वापि गुरू रक्षति पार्वति॥१०५॥

अशक्ता हि सुराद्याश्च अशक्ता मुनयस्तथा।
गुरुशापेन ते शीघ्रं क्षयं यांति न संशयः॥१०६॥

मंत्रराजमिदं देवि गुरुरित्यक्षरद्वयम्।
स्मृतिवेदार्थवाक्येन गुरुः साक्षात्परं पदम्॥१०७॥

श्रुति-स्मृती अविज्ञाय केवलं गुरु सेवकाः।
ते वै संन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः॥१०८॥

नित्यं ब्रह्म निराकारं निर्गुअणं बोधयेत्परम्।
सर्वं ब्रह्म निराभासं दीपो दीपान्तरं यथा॥१०९॥

गुरोः कृपाप्रसादेन आत्मारामं निरीक्षयेत्।
अनेन गुरुमार्गेण स्वात्मज्ञानं प्रवर्तते॥११०॥

आब्रह्मस्तंबपर्यंतं परमात्मस्वरूपकम्।
स्थावरं जंगमं चैव प्रणमामि जगन्मयम्॥१११॥

वंदेऽहं सच्चिदानंदं भेदातीतं सदा गुरुम्।
नित्यं पूर्णं निराकारं निर्गुणं स्वात्मसंस्थिकम्॥११२॥

परात्परतरं ध्येयं नित्यमानंदकारकम्।
हृदयाकाशमध्यस्थं शुद्धस्फटिकसन्निभम्॥११३॥

स्फटिकप्रतिमारूपं दृश्यते दर्पणे यथा।
तथात्मनि चिदाकारमानंदं सोऽहमित्युत॥११४॥

अंगुष्ठमात्रपुरुषं ध्यायतश्चिन्मयं हृदि।
तत्र स्फुरति भावो यः श्रुणु तं कथयाम्यहम्॥११५॥

अजोऽहममरोहऽहं च ह्यनादिनिधनोऽह्यहम्।
अविकारश्चिअदानन्दो ह्यणीयान्महतो महान्॥

अपूर्वमपरं नित्यं स्वयंज्योतिर्निरामयम्।
विरजं परमाकाशं ध्रुवमानन्दमव्ययम्॥

अगोचरं तथा गम्यं नामरूपविवर्जितम्।
निःशब्दं तद्विजानीयात् स्वभावं ब्रह्म पार्वति॥११६॥

यथा गंधः स्वभावेन कर्पूरकुसुमादिषु।
शीतोष्णादिस्वभावेन तथा ब्रह्म च शाश्वतम्॥११७॥

स्वयं तथाविदो भूत्वा स्थातव्यं यत्रकुत्रचित्।
कीटभ्रमरवत्तत्र ध्यानं भवति तादृशम्॥११८॥

गुरुध्यानं तथा कृत्वा स्वयं ब्रह्ममयो भवेत्।
पिंडे पदे तथा रूपे मुक्तोऽसौ नात्र संशयः॥११९॥

स्वयं सर्वमयो भूत्वा परं तत्त्वं विलोकयेत्।
परात्परतरं नान्यत् सर्वमेतन्निरालयम्॥१२०॥

तस्यावलोकनं प्राप्य सर्वसंगविवर्जितम्।
एकाकी निःस्पृहः शंतस्तिष्ठासेत्तत्प्रसादतः॥१२१॥

लब्धं वाऽथ न लब्ध्वं वा स्वल्पं वा बहुलं तथा।
निष्कामेनैव भोक्तव्यं सदा संतुष्टचेतसा॥१२२॥

सर्वज्ञपदमित्याहुर्देही सर्वमयो बुधाः।
सदानंदः सदा शांतो रमते यत्रकुत्रचित्॥१२३॥

यत्रैवे तिष्ठते सोऽपि स देशः पुण्यभाजनम्।
मुक्तस्य लक्षणं देवि तवाग्रे कथितं मया॥१२४॥

उपदेशस्तथा देवि गुरुमार्गेण मुक्तिदः।
गुरुभक्तिस्तथा ध्यानं सकलं तव कीर्तितम्॥१२५॥

अनेन यद्भवेत्कार्यं तद्वदामि महामते।
लोकोपकारकं देवि लौकिकं तु न भावयेत्॥१२६॥

लौकिकात्कर्मणो यांति ज्ञानहीना भवार्णवम्।
ज्ञानी तु भावयेत्सर्वं कर्म निष्कर्म यत्कृतम्॥१२७॥

इदं तु भक्तिभावेन पठते श्रुणुते यदि।
लिखित्वा तत्प्रदातव्यं दानं दक्षिणया सह॥१२८॥

गुरुगीतात्मकं देवि शुद्धतत्त्वं मयोदितम्।
भवव्याधिविनाशार्थं स्वयमेव जपेत्सदा॥१२९॥

गुरुगीताक्षरैकं तु मंत्रराजमिमं जपेत्।
अन्ये च विविधा मंत्राः कलां नार्हंति षोडशीम्॥१३०॥

अनंतफलमाप्नोति गुरुगीताजपेन तु।
सर्वपापप्रशमनं सर्वदारिद्र्यनाशनम्॥१३१॥

कालमृत्युभयहरं सर्वसंकटनाशनम्।
यक्षराक्षसभूतानां चोरव्याघ्रभयापहम्॥१३२॥

महाव्याधिहरं सर्वं विभूतिसिद्धिदं भवेत्।
अथवा मोहनं वश्यं स्वयमेव जपेत्सदा॥१३३॥

कुशैर्वा दूर्वया देवि आसने शुभ्रकंबले।
उपविश्य ततो देवि जपेदेकाग्रमानसः॥१३४॥

ध्येयं शुक्लं च शांत्यर्थं वश्ये रक्तासनं प्रिये।
अभिचारे कृष्णवर्णं पीतवर्णं धनागमे॥१३५॥

उत्तरे शांतिकामस्तु वश्ये पूर्वमुखो जपेत्।
दक्षिणे मारणं प्रोक्तं पश्चिमे च धनागमः॥१३६॥

आग्नेय्यं कर्षणं चैव वायव्यां शत्रुनाशनम्।
नैरर्ऋत्यां दर्शनं चैव ईशान्यं ज्ञानमेव च॥

वस्त्रासने च दारिद्र्यं पाषाणे रोगसंभवः।
मेदिन्यां दुःखमाप्नोति काष्ठे भवति निष्फलम्॥

कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिर्मोक्षश्रीर्व्याघ्रचर्मणि।
कुशासने ज्ञानसिद्धिः सर्वसिद्धिस्तु कम्बले॥

मोहनं सर्वभूतानां बंधमोक्षकरं भवेत्।
देवराजप्रियकरं सर्वलोकवशं भवेत्॥१३७॥

सर्वेषां स्तंभनकरं गुणानां च विवर्धनम्।
दुष्कर्मनाशनं चैव सुकर्म सिद्धिदं भवेत्॥१३८॥

असिद्धं साधयेत्कार्यं नवग्रहभयापहम्।
दुःस्वप्ननाशनं चैव सुस्वप्नफलदायकम्॥१३९॥

सर्वशांतिकरं नित्यं तथा वंध्या सुपुत्रदम्।
अवैधव्यकरं स्त्रीणां सौभाग्यदायकं सदा॥१४०॥

आयुरारोग्यमैश्वर्यं पुत्रपौत्रप्रवर्धनम्।
अकामतःस्त्री विधवा जपान्मोक्षमवाप्नुयात्॥१४१॥

अवैधव्यं सकामा तु लभते चान्यजन्मनि।
सर्वदुःखभयं विघ्नं नाशयेच्छापहारकम्॥१४२॥

सर्वबाधाप्रशमनं धर्मार्थकाममोक्षदम्।
यं यं चिंतयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्॥१४३॥

कामितस्य कामधेनुः कल्पनाकल्पपादपः।
चिन्तामणिश्चिन्तितस्य सर्व मंगलकारकम्॥१४४॥

मोक्षहेतुर्जपेन्नित्यं मोक्षश्रियमवाप्नुयात्।
भोगकामो जपेद्यो वै तस्य कामफलप्र्दम्॥१४५॥

जपेच्छाक्तस्य सौरश्च गाणपत्यश्च वैष्णव।
शैवश्च सिद्धिदं देवि सत्यं सत्यं न संशयः॥१४६॥

अथ काम्यजपे स्थानं कथयामि वरानने।
सागरे वा सरित्तीरेऽथवा हरिहरालये॥१४७॥

शक्तिदेवालये गोष्ठे सर्वदेवालये शुभे।
वटे च धात्रीमूले वा मठे वृन्दावने तथा॥१४८॥

पवित्रे निर्मले स्थाने नित्यानुष्ठानतोऽपि वा।
निर्वेदनेन मौनेन जपमेतं समाचरेत्॥१४९॥

स्मशाने भयभूमौ तु वटमूलान्तिके तथा।
सिद्ध्यन्ति धौतरे मूले चूतवृक्षस्य सन्निधौ॥१५०॥

गुरुपुत्रो वरं मूर्खस्तस्य सिद्ध्यन्ति नान्यथा।
शुभकर्माणि सर्वाणि दीक्षाव्रततपांसि च॥१५१॥

संसारमलनाशार्थं भवपाशनिवृत्तये।
गुरुगीताम्भसिस्नानं तत्त्वज्ञः कुरुते सदा॥१५२॥

स एव च गुरुः साक्षात् सदा सद् ब्रह्मवित्तमः।
तस्य स्थानानि सर्वाणि पवित्राणि न संशयः॥१५३॥

सर्वशुद्धः पवित्रोऽसौ स्वभावद्यत्र तिष्ठति।
तत्र देवगणाः सर्वे क्षेत्रे पीठे वसन्ति हि॥१५४॥

आसनस्थः शयानो वा गच्छंस्तिष्ठन् वदन्नपि।
अश्वारूढो गजारूढः सुप्तो वा जागृतोऽपि वा॥१५५॥

शुचिष्मांश्च सदा ज्ञानी गुरुगीताजपेन तु।
तस्य दर्शनमात्रेण पुनर्जन्म न विद्यते॥१५६॥

समुद्रे च यथा तोयं क्षीरे क्षीरं घृते घृतम्।
भिन्ने कुंभे यथाकाशस्तथात्मा परमात्मनि॥१५७॥

तथैव ज्ञन्नी जीवात्मा परमात्मनि लीयते।
ऐक्येन रमते ज्ञानी यत्र तत्र दिवानिशम्॥१५८॥

गुरो संतोषिने सर्वे मुक्तास्ते नात्र संशयः।
भुक्तिमुक्तिदयास्तेषां जिव्हाग्रे च सरस्वती॥

एवंविधो महामुक्तः सर्वदा वर्तते बुधः।
तस्य सर्व प्रयत्नेन भावभक्तिं करोति यः॥१५९॥

सर्वसन्देहरहितो मुक्तो भवति पार्वति।
भुक्तिमुक्तिद्वयं तस्य जिव्हाग्रे च सरस्वती॥१६०॥

अनेन प्राणिनः सर्वे गुरुगीता जपेन तु।
सर्वसिद्धिं प्राप्नुवन्ति भुक्तिं मुक्तिं न संशयः॥१६१॥

सत्यं सत्यं पुनः सत्यं धर्मं सांख्यं मयोदितम्।
गुरुगीतासमं नास्ति सत्यं सत्यं वरानने॥१६२॥

एको देव एक धर्म एकनिष्ठा परंतपः।
गुरोः परतरं नान्यन्नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥१६३॥

माता धन्या पिता धन्यो धन्यो वंशः कुलं तथा।
धन्या च वसुधा देवि गुरुभक्तिः सुदुर्लभा॥१६४॥

शरीरमिन्द्रियं प्राणश्चार्थः स्वजनबांधवाः।
माता पिता कुलं देवि गुरुरेव न संशयः॥१६५॥

आकल्पं जन्मना कोट्या जपव्रततपःक्रियाः।
तत्सर्वं सफलं देवि गुरुसंतोशमात्रतः॥१६६॥

विद्यातपोबलेनैव मंदभाग्याश्च ये नराः।
गुरुसेवा न कुर्वन्ति सत्यं सत्यं वरानने॥१६७॥

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च देवर्षिपितृकिन्नराः।
सिद्धचारणयक्षाश्च अन्येऽपि मुनयो जनाः॥१६८॥

संतुष्टः सुप्रसन्नाश्च गुरुभक्त्या भवंति हि।
फलपुष्पाणि संधत्ते मूले सिक्तं जलं यथा॥

गुरुभावः परं तीर्थमन्यतीर्थं निरर्थकम्।
सर्वतीर्थाश्रयं देवि पादाङ्गुष्ठं च वर्तते॥१६९॥

जपेन जयमाप्नोति चानन्तफलमाप्नुयात्।
हीनकर्म त्यजन्सर्वं स्थानानि चाधमानि च॥१७०॥

उग्रध्यानं कुक्कुटस्थं हीनकर्मफलप्रदम्।
गुरुगीतां प्रयाणे वा संग्रामे रिपुसंकटे॥१७१॥

जपते जयमाप्नोति मरणे मुक्तिदायकम्।
सर्वकर्म च सर्वत्र गुरुपुत्रस्य सिद्ध्यति॥१७२॥

इदं रहस्यं नो वाच्यं तवाग्रे कथितं मया।
सुगोप्यं च प्रयत्नेन मम त्वं च प्रियात्विति॥१७३॥

स्वामिमुख्यगणेषादिविष्ण्वादीनां च पार्वति।
मनसापि न वक्तव्यं सत्यं सत्यं वदाम्यहम्॥१७४॥

अतीवपक्वचित्ताय श्रद्धाभक्तियुताय च।
प्रवक्तव्यमिदं देवि ममात्माऽसि सदा प्रिये॥१७५॥

अभक्ते वंचके धूर्ते पाखंडे नास्तिके नरे।
मनसापि न वक्तव्या गुरुगीता कदाचन॥१७६॥

गुरवो बहवः संति शिष्यवित्तापहारकाः।
दुर्लभोऽयं गुरुर्देवि शिष्यसंतापहारकः॥

संसारसागरसमुद्धरणैकमंत्रम् ब्रह्मादिदेवमुनिपूजितसिद्धमंत्रम्॥

दारिद्र्यदुःखभयशोकविनाशमंत्रम् वन्दे महाभयहरं गुरुराजमन्त्रम्॥


॥इति श्रीस्कंदपुराणे उत्तरखंडे ईश्वरपार्वती संवादे गुरुगीता समाप्त॥

॥श्रीगुरुदत्तात्रेयार्पणमस्तु॥

Monday, August 1, 2011

Easy Way to Gain Guru Kripaa


Easy Way to Gain Guru Kripaa (अष्टोत्तर शत्नामानी )

Param Pujya Sadgurudev Nikhileswarananda Maharaj has many forms and appearances. Those Nikhil Bhakta or Nikhil Sishya who chant this 108 names or mantras of Sadgurudev Nikhil daily one time then he/she will surely gains full blessings or Guru Kripa.


Dr. Narayan Dutt Shrimali
  1.  ॐ नारायणाय गुरुभ्यो नम: 
  2.  ॐ आत्म स्वरुपाय नम: 
  3.  ॐ त्रिकाल ज्ञान संपन्नाय नम: 
  4.  ॐ दसमहाबिधा सिद्धीदाय नम: 
  5.  ॐ भगवती प्रियाय नम: 
  6.  ॐ बिज्ञान दिपाकुंराय नम: 
  7.  ॐ प्रेम स्वरुपाय नम:
  8.  ॐ तन मन रंजनाय नम:
  9.  ॐ भव भय भंजनाय नम:
  10.  ॐ असुर निखंडनाय नम: 
  11.  ॐ दिव्य हस्ताय नम:
  12.   ॐ गूढ स्वरुपाय नम: 
  13.  ॐ सौम्य स्वरुपाय नम:
  14.  ॐ गूढ चरित्राय नम:
  15.  ॐ दानी चरित्राय नम:
  16.  ॐ सर्वसम्पत्कराय नम:
  17.  ॐ जाग्रिती रचना सिक्त प्रदाय नम:
  18.  ॐ वेद भयाय नम:
  19.  ॐ करुणा कराय नम:
  20.  ॐ प्रत्यक्ष महेश्वराय नम:
  21.  ॐ सच्चिदानन्द श्रेष्ठ शिष्याय नम:
  22.  ॐ सिद्धाश्रम प्रतिकाय नम:
  23.  ॐ कैलाशाचल कन्दरालयकराय नम:
  24.  ॐ मोक्ष द्वार कपाट पाटन कराय नम:
  25.  ॐ सर्वानन्द कराय नम: 
  26.  ॐ भक्ताभिष्ट प्रदाय नम: 
  27.  ॐ कृपावलम्वनाय नम: 
  28.  ॐ कल्प तरवे नम: 
  29.  ॐ कोटी कोटी स्वरुपाय नम: 
  30.  ॐ महा अभयंकराय नम: 
  31.  ॐ साक्षान्मोक्षकराय नम: 
  32.  ॐ रक्षा कन्दकराय नम: 
  33.  ॐ निरामयाय नम: 
  34.  ॐ ज्ञान वैराग्य सिद्धयर्थाय नम: 
  35.  ॐ सोमाव्रित सोदराय नम:
  36.  ॐ दयानुपवना द्रविणाम्बु धाराय नम:
  37.  ॐ पुष्कर विस्टकराय नम: 
  38.  ॐ त्रिविष्ट सुलभ लभाय नम: 
  39.  ॐ समस्त जगतां महानिय मुर्तये नम:
  40.  ॐ आशा पुरकाय नम: 
  41.  ॐ सच्चिद सुखधाम्ने नम:
  42.  ॐ पुराण पुरुषाय नम: 
  43.  ॐ नाना क्रिडाकराय नम: 
  44.  ॐ चिदानन्द निर्विकाराय नम:
  45.  ॐ गुणातिताय नम: 
  46.  ॐ त्रिकाल दर्शनाय नम: 
  47.  ॐ सर्वबिघ्न हराय नम:
  48.  ॐ नानादैत्य निहन्त्ताय नम: 
  49.  ॐ नाना रुपधराय नम: 
  50.  ॐ सर्वशक्ती भयाय नम: 
  51.  ॐ सर्वरुप वैवभाय नम: 
  52.  ॐ सर्व विधा प्रवक्ताय नम: 
  53.  ॐ नित्य भक्तानन्द कराय नम:
  54.  ॐ सत्य ज्ञान रुपाय नम: 
  55.  ॐ अनंन्त विभवाय नम: 
  56.  ॐ अनेक कोटी ब्रह्माण्ड नायकाय नम: 
  57.  ॐ सर्ववशंकराय नम: 
  58.  ॐ आधीव्याधी हराय नम:
  59.  ॐ भुक्ती मुक्ती प्रदाय नम: 
  60.  ॐ सर्व सिद्धी कराय नम: 
  61.  ॐ सर्व सौख्य प्रदायिने नम:
  62.  ॐ दुष्टा रिष्ट विनाशाय नम: 
  63.  ॐ चिदानन्द स्वरुपाय नम: 
  64.  ॐ प्रपन्न जनपालनाय नम:
  65.  ॐ इन्दु शितलाय नम:
  66.  ॐ विभुतये नम: 
  67.  ॐ सुरभये नम: 
  68.  ॐ वाड्मयाय नम:
  69.  ॐ श्रद्धायै नम: 
  70.  ॐ आदित्यै नम: 
  71.  ॐ दित्यै नम:
  72.  ॐ दिपायै नम:
  73.  ॐ अनुग्रह रुपाय नम:
  74.  ॐ अशोकाय नम:
  75.  ॐ अमृताय नम:
  76.  ॐ धर्मनिलयाय नम:
  77.  ॐ महेश्वराय नम: 
  78.  ॐ भक्त वत्सलाय नम:
  79.  ॐ कपालिने नम:
  80.  ॐ शाश्वताय नम: 
  81.  ॐ अजेयाय नम:
  82.  ॐ दिव्याय नम:
  83.  ॐ कृपानिधानाय नम:
  84.  ॐ अव्यक्ताय नम:
  85.  ॐ जिवतत्व बोधकाय नम:
  86.  ॐ सहस्राक्षय नम: 
  87.  ॐ अनंताय नम: 
  88.  ॐ शिष्यवन सिञ्चिताय नम:
  89.  ॐ अनुग्रहाय नम:
  90.  ॐ निखिलेश्वरानंदाय नम:
  91.  ॐ गृहास्थ स्वरुपाय नम:
  92.  ॐ अनाथ नाथाय नम:
  93.  ॐ चित्त हराय नम: 
  94.  ॐ दुर्लभ गुरुवे नम:
  95.  ॐ सुक्ष्म रुपाय नम:
  96.  ॐ कालातीताय नम:
  97.  ॐ सौम्याम्बर धराय नम: 
  98.  ॐ निर्लिप्ताय नम: 
  99.  ॐ अखण्डानि सहस्रार जाग्रित कराय नम:
  100.  ॐ कुण्डलिनी सहस्रार जाग्रताय नम:
  101.  ॐ योगमय स्वरुपाय नम:
  102.  ॐ तपोमयाय नम:
  103.  ॐ मार्ग दर्शकाय नम:
  104.  ॐ मन्त्र तन्त्र यंत्र सिद्धिकरायय नम:
  105.  ॐ उर्ध्वमुखी जीवनंदकराय नम:
  106.  ॐ पतितोध्दारायय नम: 
  107.  ॐ भक्तवत्सल भोला शंकरायय नम:
  108.  ॐ नारायणदत्त तेजस्वीनं नम:  

Siddhashram is a boon

Siddhashram is a boon, bestowed upon mankind, from our ancestors, saints, sages & Yogis of high order. This is synonymous to a paradise on the earth and finds its mention in "Rigveda", the oldest scripture of human civilization. A saint, revealing his expressions in Rigvedic hymns says, "Sometime or the other, when the most auspicious moment of my life arrives, I will certainly be able to enter Siddhashram and to perform the Sadhna practices of high order by sitting on its sacred ground".

Siddhashram has been described in hundreds of ancient scriptures. Maharishi Vashistha called it the fortune of man whereas Vishwamitra termed it as the real beauty of life. According to Maharishi Chyavan, there is a natural characteristic in the soil of Siddhashram to eliminate spontaneously the ailments of the body. Maharishi Pulastya says it is the dream of life and Kanad praising it says,"Only one or two among a thousand saints are fortunate enough to get the privilege of entering into Siddhashram". Bhishma, lying on the bed of arrows expressed his last wish before Lord Krishna that he wanted to go to Siddhashram with his mortal body. Yudhistir also, after the end of Mahabharat war, requested, Lord Krishna with joined palms, "If some of the virtues of my life are left and if you bestow your grace upon me, I wish to spend some part of my life in Siddhashram". Gorakhnath, addressing his disciples said, "The ultimate of Tantra and Sadhnas is the entrance into Siddhashram". At one place, Bhagvatpad Shankaracharya has said, "The fulfillment of human life can only be attained when one goes to Siddhashram and takes a holy dip in Siddhyoga lake".

It is my most cherished dream that my disciples might reach the divine land of Siddhashram where life is really unique, where consciousness has reached amazing levels, where there is real purity and sacredness, where there is divine radiance all around. I want them to experience all this and return to the world and tell the common man about that great spiritual land. I want them to tell everyone how one can reach the highest spiritual planes by giving up one's material goals.

Your sadgurudev
Nikhilashweranand

Vivah Badha Nivarak Saabar Sadhna

Vivah Badha Nivarak Saabar Sadhna
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जन्मकुंडली में कई ऐसे योग होते हैं जिनकी वजह से किसी भी व्यक्ति फिर वो चाहे पुरुष हो या स्त्री अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशी विवाह से वंचित रह जाते हैं.... साथ ही कई बार ये रूकावट बाहरी बाधाओं या प्रारब्ध की वजह से भी आती हैं. फिर चाहे लाख प्रयास करते जाओ उम्र मानों पंख लगाकर उड़ते जाती है पर एक तो रिश्ते आते नहीं हैं,और यदि आते भी हैं तो अस्वीकृति के अलावा और कुछ प्राप्त नहीं होता है. लोग लाख उपाय करते रहते हैं पर समस्या का समुचित निदान नहीं हो पाता है.परन्तु निम्न प्रयोग नाथ सिद्धों की अद्भुत देन है समाज,को जिसके प्रयोग से कैसी भी विपरीत स्थिति की प्रतिकूलता अनुकूलता में परिवर्तित होती ही है और विवाह के लिए श्रेष्ट संबंधों की प्राप्ति होती ही है.
किसी भी शुभ दिवस पर मिटटी का एक नया कुल्हड़ लाए. उसमे एक लाल वस्त्र,सात काली मिर्च एवं सात ही नमक की साबुत कंकड़ी रख दें.हांडी का मुख कपडे से बंद कर दें.कुल्हड़ के बाहर कुमकुम की सात बिंदियाँ लगा दे.फिर उसे सामने रख कर निम्न मंत्र की ५ माला करे.मन्त्र जप के पश्चात हांडी को चौराहे पर रखवा दे. इस प्रयोग का असर देख कर आप आश्चर्यचकित रह जायेंगे.
मन्त्र-
गौरी आवे ,शिव जो ब्यावे.अमुक को विवाह तुरंत सिद्ध करे.देर ना करे,जो देर होए ,तो शिव को त्रिशूल पड़े,गुरु गोरखनाथ की दुहाई फिरै.
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A horoscope contains various calculations due to which any person whether male or female, the married life's greatest joy is missed.... They also often fail because of external constraints or by some destiny wish also. No matter, one works very hard to make it favorable the age just gets more and more but no one gets the right proposal and if they arrives one have no option left just to dismiss them. People work for lacs of the solutions but the problem remain unresolved…But the below mentioned devotional practice is the most divine and amazing gift to the society by which any of the unfavorable condition can be made favorable and the person gets the most best options for the marriage…

At any auspicious day, bring the Kulhad (Mud Pot)…Keep red cloth,7 black peeper and 7 pieces of Salt (raw salt) in that kulhad..Cover the open mouth of the pot by a cloth…Now, place 7 points of Kumkum on the exterior body of the pot…Perform the below mentioned Mantra 5 rounds and after the whole practice, place that handi (Pot) on a square (where the 4 diff.roads meet at a circle)….You will be amazed to see the results of this devotional practice…

Mantra: - Gauri Aave,Shiv Jo Byaave,Amuk Ko Vivaah Turant Siddh Kare,Der Na Kare,jo Der Hoye,To Shiv Ko Trishul Pade,Guru Gorakhnath Ki Duhaai Phirai.







ParamPujya Pratahsamaraniya Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji

Saturday, July 30, 2011

what is shradha?




श्रधा क्या होती है ? ,आपने देखा होगा की जब सर्दी का मौसम होता है तो मानसरोवर झील पूरी बर्फ से ढक जाती है ऐसा मैदान बन जाता है की वहा फूटबाल खेल सकते है ,उस समय हंस उस मानसरोवर से उड़ते हैं और 3000 मील दूर एक पेड़ का आश्रय लेते है तवांग झील का आश्रय लेते है और तवांग झील ही एक ऐसे झील है जिसका पानी सर्दियों में भी गर्म रहता है ,3000 मील दूर ,1-2 हजार नहीं ,कहाँ मानसरोवर कहाँ तवांग और वे हंस ३००० मील उड़कर तवांग झील में आश्रय लेते है और उसी पेड़ पर आश्रय लेते है पिछले वर्ष जिस पेड़ पर रुके थे ,उससे पिछले वर्ष जिस पेड़ पर रुके थे ,वे पेड़ नहीं बदलते अगर पेड़ हरा -भरा है तब भी और अगर सर्दियों में उस पेड़ के पत्ते पूरे जाध जाते है तब भी वे हंस उसी पेड़ का सहारा लेते है |पक्षियों में भी इतनी समझ होती है और हम इतने गए बीते है की आज इस गुरु को बनाते है ,कल उस गुरु को बनाते है.आज हरिद्वार में गुरुको बनाते है तो कल देहरादून में एक गुरु को बनाते है ,तो कभी लखनऊ में गुरु को बनाते है रोज एक -एक पेड़ बदलते रहते है और आपकी जिन्दगी भटकती रहती है |पर हँसे कभी पेड़ नहीं बदलते चाहे हरा भरा पेड़ है तब भी और यदि सूख कर डंठल ,पेड़ रह जाए तब भी क्योंकि वह जानता है की आश्रय मुझे मिलेगा तो बस यही मिलेगा ,इसको श्रधा कहते है.आपने आप को पूरी तरह गुरु में निमग्न कर देने की क्रिया ,गुरु ज्यादा जानता है क्योकि वह ज्यादा विवेकवान है ,बुद्धिमान और ज्ञानवान है और वह व्यक्ति इतना गया बीता नहीं है ki शिष्य ke rin ko pane उपर लेकर मरे और व्यक्ति की मुक्ति हो ही नहीं सकती अगर उस पर ऋण है और गुरु भी कभी सिद्धाश्रम नहीं जा सकता अगर उस पर शिष्य का ऋण है तो अगर तुम पानी का एक गिलास भी लाकर मुझे पिलाता है तो तुम्हारा मुझ पर ऋण चदता है और गुरु कुछ न कुछ अनुकूलता शिष्य के जीवन में देकर वह ऋण उतारता रहता है |इसलिए तुम्हे गुरु को जांचने की जरूरत नहीं है तुम्हे खुद को जाचने की जरूरत है क्या तुममे श्रधा है ,शिष्यत्व है,तुम सीधे ही गुरु बनने की कोशिश करते हो मैं सोचता हूँ पहले सही अर्थो में शिष्य तो तुम बन जाओ|जिसमे ज्ञान होगा वह सदा शिष्य ही बना रहना चाहेगा | आज भी मैं आपने गुरुदेव के लिय तड़पता हूँ,गुरु बन कर आपको ज्ञान देने की मेरे कोई इच्छा नहीं ,मैं तो चाहता हूँ की मैं शिष्यवत अपने गुरुदेव के चरणों में बैठू |जब मैं सिद्धाश्रम जाता हूँ तो वहा के सन्यासी शिष्य कहते है की गुरुदेव आप वहा क्या कर रहे है ,क्या वहा कोई शिष्य है क्या उन लोगो में आप के लिए श्रधा है? मैं उन लोगो को प्यार करता हूँ और उन लोगो से ज्यादा आप लोगो को भी प्यार करता हूँ इसलिए मैं आप लोगो के बीच में हूँ |आप के लिए मैं उन सिद्धाश्रम के योगियों से विद्रोह कर रहा हूँ की मैं उनको लेकर आउंगा | मैं यह प्रयत्न कर रहा हूँ तो गुरुदेव के साथ चलते रहना आपका भी कर्तव्य है ,उनके चरणों को आंसुओ से नहला देना भी आपका धर्म है |यही धर्म है न हिन्दू धर्म है न मुस्लिम न इसै धर्म है जब गुरु को आपने धारण कर लिय तो वाही आपका धर्म है ,उसके लिए मर मिटना आप का धर्म है ,मैं चाहता हूँ की आप पाखण्ड का डटकर विरोध करे अगर पाखंडी लोग इस तरहे से फैलते रहे तो आने वाले पीढ़िया दिग्भ्रमित हो जायेंगी की कहा जाए कहा ना जाए और नकली धातु पर अगर सोने का पानी चदा दे तो वह ज्यादा चमकती है वैसे ही तुम लोग भी पाखंडियो के चक्रव्यूह में फस जाते हो अगर तुम मेरा ऋण उतारना चाहते हो तो मैं तुम्हे आज्ञा देता हूँ की तुम पूरे भारत में फ़ैल जाओ ,पूरे भारत को एक परिवार बना देना है और पाखंडियो का जो मेरा नाम लेकर गुरु बनते है को जड़ से ख़त्म कर देना है तभी तुम अपने गुरु के ऋण को उतार पाओगे |

तुम्हारा गुरुदेव
निखिलश्वेरानंद