Tuesday, September 13, 2011

what means aghori

जय गुरुदेव.... "अघोरी " एक शब्द जो की सामान्य लोगों के मध्य एक अनजाने भय का परिचायक बना हुआ है.... वास्तव में कुछ ग्रहस्थ साधक भी अघोरी साधनाओ को करने की सोचते तक नहीं उन्हें लगता है की अघोरी साधक मात्र ऐसी किर्याएँ करते हैं जिन्हें करने की सामान्य मनुष्य सोच भी नहीं सकते... और फिर कुछ गलत प्रवति के तांत्रिको ने तंत्र, वाममार्ग, नाथपंथ जैसे नामो का इतना गलत पर्योग और परचार किया की सामान्य वर्ग के मध्य ये प्यारे नाम गालियाँ बन गये .. अघोर जैसा प्यारा शब्द गाली बन गया किसी को अघोरी कह दो तो वो लड़ने को तैयार हो जाये.. उसे लगता है की मुझे गाली दी गयी है..
जबकि अघोर शब्द का अर्थ होता है "सरल ". किसी को "घोरी" कहो तो गाली हो सकती है. घोर का अर्थ होता है जटिल. कहते हैं ना घोर-घमासान -- जटिल, उलझा हुआ तो घोर...I अघोर का अर्थ होता है सरल बच्चे जैसा निर्दोष! अघोर शब्द थोड़े से बुद्धो के लिए पर्योग में लाया जा सकता है जैसे गौतम बुद्ध- अघोरी, कृषण- अघोरी, क्रिस्ट-अघोरी, गोरख- अघोरी. सिर्फ ऐसे लोगों के लिए उपयोग में लाया जा सकता है सरल निर्दोष सीधे सादे..
नाथपंत..... गोरखनाथ और उनके गुरु मछिंदर नाथ के कारण तंत्र की ये शाखा नाथपंथ कहलाने लगी! बड़ा प्यारा भाव है नाथ का अर्थ होता है... मालिक. जिसको सूफी कहते हैं या मालिक. सब उसका है मालिक का है .. हम भी मालिक के संसार भी मालिक का.. जैसे उसकी मर्ज़ी जियेंगे.. जैसे जिलाएगा जियेंगे.. हम अपनी मर्ज़ी आरिपित ना करेंगे.. यह भाव है नाथपंथ का.. क्योंकि अगर हमारी मर्ज़ी आएगी तो अहंकार आएगा.. संकल्प आएगा.. अहंकार आया तो भटक जायेंगे...
जय गुरुदेव......

Agate Saraswati Sadhana

सुलेमानी सरस्वती साधना --
इस साधना के कई लाभ है जहाँ जे साधक को एक नये ज्ञान से जोडती है वही उसे पैसे अदि की कमी नहीं आने देती लोटरी अदि में विजय दिलाती है और उसे आने वाले समय से भी अवगत कराती है यह मेरी स्व की और कई साधको दुयारा परखी हुई है!यह आपके जीवन को एक नई सेध देती है इसे करना भी आसन है और सामग्री की भी सवर साधनायो में इतनी जरूरत नहीं होती बस जरूरत है तो पवित्रता की !
विधि -- सर्व पर्थम इशनान करके सफेद वस्त्र पहने और पशिम दिशा की तरफ मुख करके एक सफेद बस्तर विशा दे और आगे तिल के तेल का दिया लगा दे लोवान का धूफ दे सुघदित इतर छिडक दे और सफेद चमेली के फूल पास रखे ना मिले तो काली मोतिया भी रख सकते है अगर वोह भी ना मिले तो की भी सफेद कली ले ले जो दिए के पास रखे थोरे सत्हब को गोबर से लीप के उस जगा दिया लगा दे अगर स्थान पका हो तो उसे जल जा दूध से धो ले भोग कर लिए सफेद रंग की बर्फी जा पेडे ले सकते है !साधना की दिशा पशिम रहेगी और जप संख्य एक माला !माला सफेद हक़ीक किले सकदे है !जा एक सो एक वार जप कर ले !
जप काल में कई अनुभुतिया हो सकती है अपने मन को सथिर रखे किसी भी परकार की आवाज सुने तो मत बोले जब साधना पूरी हो जाये तो बात करे और अपनी अभिलाषा व्यक्त करे !यह एक तीक्षण साधना है इस लिए शुरू तभी करे अगर पूरी करनी हो!इस साधना में कई पर्ताक्ष अनुभव होते है कई वार सफेद वस्त्रो में कई लोग भी जो इस लाइन को मानते है दिख जाते है !अगर कोई दिक्त य़ा रही हो तो मुझे मेल कर सकते है मुझे आपकी मदद कर के ख़ुशी होगी आप पुरे मन से करे आपके लिए यह साधना नये आयाम पैदा करेगी !

साबर मंत्र ---
बिस्मिला घट में सृस्ती जुबाह पे तालीम ,
सिर पे पंजा पीर उस्ताद का साबित रख यकीन !
मुहम्द दे रसूल अला मरे जिन्दे फकरो को ऐश करन ला !
य़ा करीमा कर्म कर कर्म कर इलाही,
मुहम्द कल की बात बता दे मुहम्द तेरी पातशाही !

इस मन्त्र का जप पुरे मन से करे १०१ वार जा एक माला जप पर्याप्त है !आशा है आपके जीवन में यह साधना जरुर बदलाव लाएगी !
जय गुरुदेव !

Suede venerable saints Dyara Ganesh Saraswati Sadhana

संतो दयारा पूजित साबर गणेश सरस्वती साधना -
यह साधना बहुत ही खास है और हर इन्सान को अंधकार से परकाश की और ले जाती है !व्ही दिव्या दृष्टि पर्दान करने में भी सहायक है !इसे संत मत के कए सिद्ध पुरषों ने सिद्ध किया है !पिश्ले कुश दिनों से सरस्वती की साधना पे ही लेख दे रहा हू क्यों के ज्ञान की देवी के ८ स्वरुप की साधना है और उन में से ज्यादा कर जहा दे चूका हू साबर विधि से आज की साधना बहुत ही खास है और यह ऐसे ही प्राप्त नहीं होती आप आप परयत्न करे इन साधनायो को करने का मुझे विश्वाश है आप को गुरु किरपा से प्राप्ति जरुर होगी !यह साधना याद दस्त बढाने की बेजोड़ साधना है !
साधना काल- यह २१ दिन की साधना है !
माला ------सफेद हक़ीक की ले जा मोतियों की !
बस्तर------- सफेद!
आसन -----सफेद !
भोग --------खीर जा दूध का बना हुआ परशाद !
जप सख्या --एक माला !
समय -----सुभाह जा शाम ७ वजे संध्या का समय इस साधना के लिए उचित रहता है !
विधि --साधना के लिए सभ से पहले इशनान कर के सुध धुले बस्तर पहने और गुरु पूजन और गणेश पूजन कर मानसिक आज्ञा प्राप्त करे और मन को पर्सन रखते हुए सरस्वती का पूजन ज्योत पे ही कर सकते है मतलव ज्योत को ही सरस्वती का स्वरुप मन कर पूजन करे और माता का चीटर भी रख सकते है श्री यंत्र जा सरस्वती यन्त्र पे भी पूजा कर सकते है !एक चंडी की सिलाखा और शहत भी पास रख सकते है सिद्ध होने के बाद किसी भी पूर्णमा जा पंचमी जा बसंत पंचमी के दिन इस से मन्त्र पड़ते हू अपने बचो की जीभ पे ऐं बीज लिख के उन्हें मेघावी बना सकते हो !ना भी रख सको तो भी इसे सपन करे और एक ज्ञान से जोड़ देती है साधक को !जप धीरे धीरे मुख में जा अंतर में ही करे बोल के नहीं !साधना पूरी होने के बाद २१ दिन बाद माला को गले में धारण कर ले और इस तरह साधना सिद्ध हो जाती है आप अपने बच्चे को भी माला पहना सकते है यह साधना सभी परकार के तांत्रिक पर्योगो से भी रक्षा करती है उन पर्योगो को निष्फल कर देती है !इस वारे अगर कोई संका हो जा ना समझ आये तो मुझे मेल कर दीजिये जा नीचे कमेन्ट दे दे आप की जिज्ञाशा शांत कर दूंगा .!साधना समाप्ति के बाद चित्र को पूजा स्थान में स्थापित कर दे !ज्योत पुरे साधना काल में जलती रहे !

साबर मन्त्र ----
ॐ नमो सरस्वती मई स्वर्ग लोक बैकुंठ से आई !
शिव जी बैठे अंगुठ मरोड़!
देवता आया तैतिश करोड़!
संता को रखनी दंता को भक्षनी शिव शक्ति बिन कोन थी !
जीवा ज्वाला सरस्वती हिरदे बसे हमेश भूली वाणी कन्ठ करावे गोरी पुत्र गणेश !,

जय गुरुदेव

Friday, September 9, 2011

Guru Diksha is the spiritual path open for the seeker

गुरु दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का मार्ग साधना के क्षेत्र में खुल जाता है। साधनाओं की बात आते ही दस महाविद्या का नाम सबसे ऊपर आता है। प्रत्येक महाविद्या का अपने आप में अलग ही महत्त्व है। लाखों में कोई एक ही ऐसा होता है जिसे सदगुरू से महाविद्या दीक्षा प्राप्त हो पाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद सिद्धियों के द्वार एक के बाद एक कर साधक के लिए खुलते चले जाते है।

महाकाली महाविद्या दीक्षा
यह तीव्र प्रतिस्पर्धा का युग है। आप चाहे या न चाहे विघटनकारी तत्व आपके जीवन की शांति, सौहार्द भंग करते ही रहते हैं। एक दृष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्ति की अपेक्षा एक सरल और शांत प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के लिए अपमान, तिरस्कार के द्वार खुले ही रहते हैं। आज ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है, जिसका कोई शत्रु न हो ... और शत्रु का तात्पर्य मानव जीवन की शत्रुता से ही नहीं, वरन रोग, शोक, व्याधि, पीडा भी मनुष्य के शत्रु ही कहे जाते हैं, जिनसे व्यक्ति हर क्षण त्रस्त रहता है ... और उनसे छुटकारा पाने के लिए टोने टोटके आदि के चक्कर में फंसकर अपने समय और धन दोनों का ही व्यय करता है, परन्तु फिर भी शत्रुओं से छुटकारा नहीं मिल पाता।

महाकाली दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता है, चाहे वह शत्रु आभ्यांतरिक हों या बाहरी, इस दीक्षा के द्वारा उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, क्योंकि महाकाली ही मात्र वे शक्ति स्वरूपा हैं, जो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती हैं। जीवन में शत्रु बाधा एवं कलह से पूर्ण मुक्ति तथा निर्भीक होकर विजय प्राप्त करने के लिए यह दीक्षा अद्वितीय है। देवी काली के दर्शन भी इस दीक्षा के बाद ही सम्भव होते है, गुरु द्वारा यह दीक्षा प्राप्त होने के बाद ही कालिदास में ज्ञान का स्रोत फूटा था, जिससे उन्होंने 'मेघदूत' , 'ऋतुसंहार' जैसे अतुलनीय काव्यों की रचना की, इस दीक्षा से व्यक्ति की शक्ति भी कई गुना बढ़ जाती है।

तारा दीक्षा
तारा के सिद्ध साधक के बारे में प्रचिलित है, वह जब प्रातः काल उठाता है, तो उसे सिरहाने नित्य दो तोला स्वर्ण प्राप्त होता है। भगवती तारा नित्य अपने साधक को स्वार्णाभूषणों का उपहार देती हैं। तारा महाविद्या दस महाविद्याओं में एक श्रेष्ठ महाविद्या हैं। तारा दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक को जहां आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनने लगते हैं, वहीं उसके अन्दर ज्ञान के बीज का भी प्रस्फुटन होने लगता है, जिसके फलस्वरूप उसके सामने भूत भविष्य के अनेकों रहस्य यदा-कदा प्रकट होने लगते हैं। तारा दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का सिद्धाश्रम प्राप्ति का लक्ष्य भी प्रशस्त होता हैं।

षोडशी त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा
त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा प्राप्त होने से आद्याशक्ति त्रिपुरा शक्ति शरीर की तीन प्रमुख नाडियां इडा, सुषुम्ना और पिंगला जो मन बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती हैं, वह शक्ति जाग्रत होती है। भू भुवः स्वः यह तीनों इसी महाशक्ति से अद्भुत हुए हैं, इसीसलिए इसे त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है। इस दीक्षा के माध्यम से जीवन में चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही साथ आध्यात्मिक जीवन में भी सम्पूर्णता प्राप्त होती है, कोई भी साधना हो, चाहे अप्सरा साधना हो, देवी साधना हो, शैव साधना हो, वैष्णव साधना हो, यदि उसमें सफलता नहीं मिल रहीं हो, तो उसको पूर्णता के साथ सिद्ध कराने में यह महाविद्या समर्थ है, यदि इस दीक्षा को पहले प्राप्त कर लिया जाए तो साधना में शीघ्र सफलता मिलती है। गृहस्थ सुख, अनुकूल विवाह एवं पौरूष प्राप्ति हेतु इस दीक्षा का विशेष महत्त्व है। मनोवांछित कार्य सिद्धि के लिए भी यह दीक्षा उपयुक्त है। इस दीक्षा से साधक को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

भुवनेश्वरी दीक्षा
भूवन अर्थात इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरी, जो 'ह्रीं' बीज मंत्र धारिणी हैं, वे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी आधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती हैं। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता है, उस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्ति, चेतना-शक्ति, स्मरण-शक्ति अत्यन्त विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतधात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाश, कुबेर सिद्धि, रतिप्रीती प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उत्तम मानी है है। इस महाविद्या की आराधना एवं दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। इस महाविद्या की दीक्षा प्राप्त कर भुवनेश्वरी साधना संपन्न करने से साधक को चतुर्वर्ग लाभ प्राप्त होता ही है। यह दीक्षा प्राप्त कर यदि भुवनेश्वरी साधना संपन्न करें तो निश्चित ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है।

छिन्नमस्ता महाविद्या दीक्षा
भगवती छिन्नमस्ता के कटे सर को देखकर यद्यपि मन में भय का संचार अवश्य होता है, परन्तु यह अत्यन्त उच्चकोटि की महाविद्या दीक्षा है। यदि शत्रु हावी हो, बने हुए कार्य बिगड़ जाते हों, या किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग हो, तो यह दीक्षा अत्यन्त प्रभावी है। इस दीक्षा द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती है, आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं, साथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारम्भ हो जाता है। इस साधना द्वारा उच्चकोटि की साधनाओं का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, तथा उसे मौसम अथवा सर्दी का भी विशेष प्रभाव नहीं पङता है।

त्रिपुर भैरवी दीक्षा
भूत-प्रेत एवं इतर योनियों द्वारा बाधा आने पर जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ग्रामीण अंचलों में तथा पिछडे क्षेत्रों के साथ ही सभ्य समाज में भी इस प्रकार के कई हादसे सामने आते है, जब की पूरा का पूरा घर ही इन बाधाओं के कारण बर्बादी के कगार पर आकर खडा हो गया हो। त्रिपुर भैरवी दीक्षा से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्त होती है, वही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती है, व्यक्ति का स्वास्थ्य निखारने लगता है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक में आत्म शक्ति त्वरित रूप से जाग्रत होने लगती है, और बड़ी से बड़ी परिस्थियोंतियों में भी साधक आसानी से विजय प्राप्त कर लेता है, असाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्यों को भी पूर्ण कर लेता है। दीक्षा प्राप्त होने पर साधक किसी भी स्थान पर निश्चिंत, निर्भय आ जा सकता है, ये इतर योनियां स्वयं ही ऐसे साधकों से भय रखती है।

धूमावती दीक्षा
धूमावती दीक्षा प्राप्त होने से साधक का शरीर मजबूत व् सुदृढ़ हो जाता है। आए दिन और नित्य प्रति ही यदि कोई रोग लगा रहता हो, या शारीरिक अस्वस्थता निरंतर बनी ही रहती हो, तो वह भी दूर होने लग जाती है। उसकी आखों में प्रबल तेज व्याप्त हो जाता है, जिससे शत्रु अपने आप में ही भयभीत रहते हैं। इस दीक्षा के प्रभाव से यदि कीसी प्रकार की तंत्र बाधा या प्रेत बाधा आदि हो, तो वह भी क्षीण हो जाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद मन में अदभुद साहस का संचार हो जाता है, और फिर किसी भी स्थिति में व्यक्ति भयभीत नहीं होता है। तंत्र की कई उच्चाटन क्रियाओं का रहस्य इस दीक्षा के बाद ही साधक के समक्ष खुलता है।

बगलामुखी दीक्षा
यह दीक्षा अत्यन्त तेजस्वी, प्रभावकारी है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक निडर एवं निर्भीक हो जाता है। प्रबल से प्रबल शत्रु को निस्तेज करने एवं सर्व कष्ट बाधा निवारण के लिए इससे अधिक उपयुक्त कोई दीक्षा नहीं है। इसके प्रभाव से रूका धन पुनः प्राप्त हो जाता है। भगवती वल्गा अपने साधकों को एक सुरक्षा चक्र प्रदान करती हैं, जो साधक को आजीवन हर खतरे से बचाता रहता है।

मातंगी दीक्षा
आज के इस मशीनी युग में जीवन यंत्रवत, ठूंठ और नीरस बनकर रह गया है। जीवन में सरसता, आनंद, भोग-विलास, प्रेम, सुयोग्य पति-पत्नी प्राप्ति के लिए मातंगी दीक्षा अत्यन्त उपयुक्त मानी जाती है। इसके अलावा साधक में वाक् सिद्धि के गुण भी जाते हैं। उसमे आशीर्वाद व् श्राप देने की शक्ति आ जाती है। उसकी वाणी में माधुर्य और सम्मोहन व्याप्त हो जाता है और जब वह बोलता है, तो सुनने वाले उसकी बातों से मुग्ध हो जाते है। इससे शारीरिक सौन्दर्य एवं कान्ति में वृद्धि होती है, रूप यौवन में निखार आता है। इस दीक्षा के माध्यम से ह्रदय में जिस आनन्द रस का संचार होता है, उसके फलतः हजार कठिनाई और तनाव रहते हुए भी व्यक्ति प्रसन्न एवं आनन्द से ओत-प्रोत बना रहता है।

कमला दीक्षा
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थों को प्राप्त करना ही सांसारिक प्राप्ति का ध्येय होता है और इसमे से भी लोग अर्थ को अत्यधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। इसका कारण यह है की भगवती कमला अर्थ की आधिष्ठात्री देवी है। उनकी आकर्षण शक्ति में जो मात्रु शक्ति का गुण विद्यमान है, उस सहज स्वाभाविक प्रेम के पाश से वे अपने पुत्रों को बांध ही लेती हैं। जो भौतिक सुख के इच्छुक होते हैं, उनके लिए कमला सर्वश्रेष्ठ साधना है। यह दीक्षा सर्व शक्ति प्रदायक है, क्योंकि कीर्ति, मति, द्युति, पुष्टि, बल, मेधा, श्रद्धा, आरोग्य, विजय आदि दैवीय शक्तियां कमला महाविद्या के अभिन्न देवियाँ हैं।

प्रत्येक महाविद्या दीक्षा अपने आप में ही अद्वितीय है, साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक दीक्षा के महत्त्व का एक प्रतिशत भी वर्णन स्थानाभाव के कारण यहां नहीं हुआ है, वस्तुतः मात्र एक महाविद्या साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का मार्ग खुल जाता है, और एक-एक करके सभी साधनों में सफल होता हुआ वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है।

यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है, कि दीक्षा कोई जादू नहीं है, कोई मदारी का खेल नहीं है, कि बटन दबाया और उधर कठपुतली का नाच शुरू हो गया।

दीक्षा तो एक संस्कार है, जिसके माध्यम से कुस्नास्कारों का क्षय होता है, अज्ञान, पाप और दारिद्र्य का नाश होता है, ज्ञान शक्ति व् सिद्धि प्राप्त होती है और मन में उमंग व् प्रसन्नता आ पाती है। दीक्षा के द्वारा साधक की पशुवृत्तियों का शमन होता है ... और जब उसके चित्त में शुद्धता आ जाती है, उसके बाद ही इन दीक्षाओं के गुण प्रकट होने लगते हैं और साधक अपने अन्दर सिद्धियों का दर्शन कर आश्चर्य चकित रह जाता है।

जब कोई श्रद्धा भाव से दीक्षा प्राप्त करता है, तो गुरु को भी प्रसनता होती है, कि मैंने बीज को उपजाऊ भूमि में ही रोपा है। वास्तव में ही वे सौभाग्यशाली कहे जाते है, जिन्हें जीवन में योग्य गुरु द्वारा ऐसी दुर्लभ महाविद्या दीक्षाएं प्राप्त होती हैं, ऐसे साधकों से तो देवता भी इर्ष्या करते हैं।

- नवम्बर ९८ , मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान


Guru Diksha is the spiritual path open for the seeker

Parad lakshmi shadhna

पारद लक्ष्मी
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जीवन में मानसिक और भौतिक उन्नति के लिए धन की उपयोगिता को नकारा नही जा सकता. क्यूंकि कहावत है की “शत्रु को समाप्त करना हो तो उसकी आर्थिक प्रगति के स्रोत को ही ख़त्म कर दो वो ख़ुद ही ख़त्म हो जाएगा”.

सदगुरुदेव ने कभी भी यह नही कहा की दरिद्र रहने में महानता है. न ही जितना है उतने में सुखी रहो जैसे वाक्यों को अपने शिष्यों को ही कभी दिया .
भाग्य को सौभाग्य में बदलने और जीवन स्तर को उंचा उठाने के लिए ही उन्होंने प्रत्येक शिविर में धन व सौभाग्य से सम्बंधित साधनाएं शिष्यों और साधकों को करवाई.
इन्ही साधनों में पारद लक्ष्मी जो श्री का ही प्रतिक है का प्रयोग व स्थापन पूर्ण प्रभाव दायक है. जिस घर में भी पारदेश्वरी स्थापित होती हैं ,उस स्थान पर दरिद्रता रह ही नही सकती , ऐश्वर्य व सौभाग्य को वह पर आना ही पड़ता है , मुझे अपने जीवन में जो भी सफलता व उन्नति की प्राप्ति हुयी है ,उसके मूल में भगवती पारदेश्वरी की साधना और स्थापन का अभूतपूर्व योगदान है.

हमें पारदेश्वरी से और आर्थिक उन्नति से सम्बंधित कुछ बातो की जानकारी होनी चाहिए :

पारद लक्ष्मी का निर्माण विशुद्ध प्रद से होना चाहिए क्यूंकि पारद चंचल होता है और लक्ष्मी भी चंचल होती हैं , इस लिए पारद के बंधन के साथ लक्ष्मी भी अबाध होते जाती हैं.
पारदेश्वरी का निर्माण श्रेष्ठ व धन प्रदायक योग में होना चाहिए.

पारदेश्वरी के निर्माण के लिए पारद मर्दन करते समय तथा उनके अंगो को बनते समय "रजस मंत्र" का जप २०००० बार होना चाहिए इसमे १०००० मंत्र खरल करते हुए सामान्य रूप से तथा १०००० बार लोम विलोम रूप से मंत्र के प्रत्येक वर्ण का स्थापन उनके अंगों में करना चाहिए. "रजस मंत्र" जो की आधारभूत मंत्र या पूर्ण वर्णात्मक मंत्र कहलाता है के बिना इनका निर्माण करने पर चैतन्यता का अभाव रहता है तथा यह एक विग्रह मात्र होती हैं जिसे घर में रखने पर कोई लाभ नही होता . येही वजह है की जब आप किसी दुकान से इस प्रकार की मूर्ति खरीदते हैं तो कोई लाभ नही होता भले ही आप उनकी कितनी भी पूजा कर लें.

पारदेश्वरी का स्थापन आग्नेय दिशा में होना चाहिए.

इसके बाद आप सद्द गुरुदेव से इनका मंत्र प्राप्त कर प्रयोग करे , यदि प्रयोग नही भी कर पाते तब भी इनका स्थापन उन्नति के पथ पर आपको अग्रसर करता ही है.

आप इन बातो का ध्यान रखे और देखे की कैसे सम्पन्नता आपके गले में वरमाला डालती है।

Hell of the different speeds

‎" नरकों की विभिन्न गतियाँ "


राजा परीक्षित ने पूछा महर्षि! लोगों को जो ये ऊँची नीची गतियाँ प्राप्त होती है, उनमें इतनी विभिन्नता क्यों है श्री शुकदेव जी ने कहा राजन ! कर्म करने वाले पुरुष सात्विक, राजस और तामस तीन प्रकार के होते हैं तथा उनकी श्रद्धाओं में भी भेद रहता है। इस प्रकार स्वभाव और श्रद्धा के भेद से उनके कर्मो् की गतियाँ भी भिन्न भिन्न होती है और न्यूनाधिकरुप में ये सभी गतियाँ सभी कर्ताओ को प्राप्त होती है। इसी प्रकार निषिद्ध कर्मरुप पाप करने वालों को भी उनकी श्रद्धा की असमानता के कारण, समान फल नहीं मिलता। अतः अनादि अविघा के वशीभूत होकर कामना पूर्वक किये हुये उन निषिद्ध कर्मो् के परिणाम में जो हजारों तरह की नारकी गतियाँ होती है, उनका विस्तार से वर्णन करेंगे। राजा परिक्षित ने पूछा भगवान! आप जिनका वर्णन करना चाहते हैं। वे नरक इसी पृथ्वी के कोई देश विशेष हैं अथवा त्रिलोक से बाहर या इसी के भीतर किसी जगह है श्री शुकदेवजी ने कहा राजन ! वे त्रिलोक के भीतर ही हैं तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित हैं। इसी दिशा में अग्निषवात्ता आदि पितृगण रहते हैं, वे अत्यन्त एकाग्रता पूर्वक अपने सेवकों सहित रहते हैं तथा भगवान की आज्ञा का उल्लंघनकरते हुए, अपने दूतों द्वारा वहाँ लाये हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मो के अनुसार पाप का फल दण्ड देते है। परीक्षित ! कोई कोई लोग नरकों की संख्या इक्कीस बताते हैं, अब हम नाम, रूप और लक्षणों के अनुसार उनका क्रमशः वर्णन करते हैं।

उनके नाम हैं तामिस्त्र्, अन्धमिस्त्र्, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र्, आसिपत्र्वन, सकूरमुख, अन्धकूप, मिभोजन, सन्देश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशल्मली, वैतरणी, पुयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अयःपान। इनको मिलाकर कुल अटठाईस नरक तरह तरह की यातनाओं को भोगने के स्थान है।

जो पुरूष दूसरों के धन, सन्तान अथवा स्त्रियों का हरण करता है, उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाश में बांधकर बलात्कार से तामिस्त्र् नरक में गिरा देते हैं। उस अन्धकारमय नरक में उसे अन्न जल न देना, डंडे लगाना और भय दिखलाना आदि अनेक प्रकार के उपायों से पीडि़त किया जाता है। इससे अत्यन्त दुखी होकर वह एकाएक मूच्छिर्त हो जाता है। इसी प्रकार जो पुरूष किसी दूसरे को धोखा देकर उसकी स्त्री आदि को भोगता है, वह अन्धतमिस्त्र् नरक में पड़ता है। वहाँ की यातनाओं में पड़कर वह जड़ से कटे हुए वृक्ष के समान, वेदना के मारे सारी सुध बुध खो बैठता है और उसे कुछ भी नहीं सूझ पड़ता। इसी से इस नरक को अन्धतमिस्त्र् कहते है।जो क्रूर मनुष्य इस लोक में अपना पेट पालने के लिए जीवित पशु या पक्षियों को राँधता है, उस हृह्र्दयहीन, राक्षसों से भी गये बीते पुरूष को यमदूत कुम्भीपाक नरक में ले जाकर खौलते हुए तैल में राँधते हैं। जो मनुष्य इस लोक में माता पिता, ब्राहमण और वेद से विरोध करता है, उसे यमदूत कालसूत्र् नरक में ले जाते हैं। इसका घेरा दस हजार योजन है। इसकी भूमि ताँबे की है। इसमें जो तपा हुआ मैदान है, वह ऊपर से सूर्य और नीचे से अग्नि के दाह से जलता रहता है। वहाँ पहुंचाया हुआ पापी जीव भूख प्यास से व्याकुल हो जाता है और उसका शरीर बाहर भीतर से जलने लगता है। उसकी बैचेनी यहाँ तक बढ़ती है कि वह कभी बैठता है, कभी लेटता है, कभी छटपटाने लगता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर उधर दौड़ने लगता है। इस प्रकार उस नर पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने ही हजार वर्ष तक उसकी यह दुर्गति होती रहती है ।

राजन ! इस लोक में जो व्यक्ति चोरी या बरजोरी से ब्राह्मण अथवा आपत्ति का समय न होने पर भी किसी दूसरे पुरूष के सुवर्ण और रत्नादिका हरण करता है, उसे मरने पर यमदूत संदंश नामक नरक में ले जाकर तपाये हुए लोहे के गोलों से दागते हैं और सँडासी से उसकी खाल नोचते हैं। इस लोक में यदि कोई पुरूष अगम्या स्त्री के साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्या पुरूष से व्याभिचार करती है, तो यमदूत उसे तपतसूर्मि नाम नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते है तथा पुरूष को तपाये हुए लोहे की स्त्री मूर्ति से और स्त्री को तपायी हुई पुरूष प्रतिमा से अलिंगन कराते हैं।

जो पुरूष इस लोक में पशु आदि सभी के साथ व्याभिचार करता है, उसे मृत्यु के बाद यमदूत वज्र के समान कठोर काँटोवाले सेमर के वृक्ष पर चढ़ाकर फिर नीचे की ओर खींचते हैं। जो राजा या राजपुरूष इस लोक में श्रेष्ठ कुल में जन्म पाकर भी धर्म की मयार्दा का उच्छेद करते हैं, वे उस मयार्दातिक्रमण के कारण मरने पर वैतरणी नदी में पटके जाते हैं। यह नदी नरकों की खाई के समान है, उसमें मल, मूत्र्, पीब, रक्त, केश, नख हडडी, चर्बी्, मांस और मज्जा आदि गंदी चीजें भरी हुई हैं। वहाँ गिरने पर उन्हें इधर उधर से जल के जीव नोचते हैं। जो पाखण्डी लोग पाखण्ड पूर्ण यज्ञों में पशुओं का वध करते हैं, उन्हें परलोक में वैशस विशसनद्ध नरक में डालकर वहाँ के अधिकारी बहुत पीड़ा देकर काटते हैं।

जो कोई चोर अथवा राजा या राजपुरूष इस लोक में किसी के शरीर में आग लगा देते हैं, किसी को विष दे देते हैं अथवा गांवों या व्यापारियों की टोलियों को लूट लेते हैं, उन्हें मरने के पश्चात सारमेयादन नामक नरक में वज्र की सी दाड़ोंवाले सात सौ बीस यमदूत कुत्ते बनकर बड़े वेग से काटने लगते हैं। इस लोक में जो पुरुष किसी की झूठी गवाही देने में, व्यापार में अथवा दान के समय किसी भी तरह झूठ बोलता है, वह मरने पर आधार शून्य अवीचिमान नरक में पड़ता है। वहाँ उसे सौ योजन ऊँचे पहाड़ के शिखर से नीचे को सिर करके गिराया जाता है। उस नरक की पत्थर की भूमि जल के समान जान पड़ती है। इसीलिये इसका नाम अवीचमान है। वहाँ गिराये जाने से उसके शरीर के टुकडे टुकड़े हो जाने पर भी प्राण नहीं निकलते, इसलिये इसे बार बार ऊपर से जाकर पटकेा जाता है। जो ब्राह्मण या ब्राह्मणी अथवा व्रत में स्थित और कोई भी प्रमादवश मधपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान करता है, उन्हें यमदूत अयपान नाम के नरक में ले जाते हैं और उनकी छाती पर पैर रखकर उनके मुँह में आग से गलाया हुआ लोहा डालते हैं।

जो पुरुष इस लोक में निम्न श्रेणी के होकर भी अपने को बड़ा मानने के कारण जन्म, तप, विघा, आचार, वर्ण या आश्रम में अपने से बड़ों का विशेष सत्कार नहीं करता, वह जीता हुआ भी मरे के समान है। उसे मरने पर ज्ञारकदर्म नाम के नरक में नीचे को सिर करके गिराया जाता है और वहाँ उसे अनन्त पीड़ाएँ भोगनी पड़ती है। इस लोक में जो व्यक्ति अपने को बड़ा धनवान समझकर अभिमानवश सबको टेड़ी नजर से देखता है और सभी पर संदेह रखता है, धन के व्यय और नाश की चिन्ता से जिसके ह्र्दय और मुँह सूखे रहते हैं, अतः तनिक भी चैन न मानकर जो यक्ष के समान धन की रक्षा में ही लगा रहता है तथा पैसा पैदा करने, बढ़ाने और बचाने में जो तरह तरह के पाप करता है, वह नराधम मरने पर सूची मुख नरक में गिरता है। वहाँ उस अर्थपिशाच पापात्मा के सारे अंगों को यमराज के दूत दर्जियों के समान सुई धागे से सीते हैं।

राजन! यमलोक में इसी प्रकार के सैकड़ों हजारों नरक हैं। जिनमें जिनका यहाँ उल्लेख हुआ है और जिनके विषय में कुछ नहीं कहा गया, उन सभी में सब अधर्मपरायण जीव अपने कर्मो् के अनुसार बारी बारी से जाते हैं। इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष स्वगार्दि में जाते हैं। इस प्रकार नरक और स्वर्ग के भोग से जब इनके अधिकांश पाप और पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब बाकी बचे हुए पुण्यापरुप कर्मो् को लेकर ये फिर इसी लोक में जन्म लेने के लिये लौट आते हैं। इन धर्म और अधर्म दोनों से विलक्षण जो निवृत्ति मार्ग है, उसका तो पहले द्वितीय स्कन्ध में ही वर्णन हो चुका है। पुराणों में जिसका चौदह भुवनके रूप में वर्णन किया गया है, वह ब्रहामाण्ड कोश इतना ही है। यह साक्षात परम पुरुष श्री नारायण का अपनी माया के गुणों से युक्त अत्यन्त स्थूल स्वरूप है। इसका वर्णन मैंने तुम्हें सुना दिया। परमात्मा भगवान का उपनिषदों में वणिर्त निगुर्ण स्वरूप यघपि मन बुद्दि श्रद्धा और भक्ति के कारण शुद्द हो जाती है और वह उस सूक्ष्म रूप का भी अनुभव कर सकता है।

Tuesday, August 30, 2011

mantra mulam guru vakayam

"मन्त्र मुलं गुरु बाक्यम"
स्वामी विवेकानंद , के छोटे गुरु भाई स्वामी विज्ञाना नन्द (जोकि उम्र में स्वामी जी से बहुत ही छोटे थे ) बेलूर मठ में कुछ काम करा रहे थे , तभी स्वामी जी का वहां आगमन हुआ , पता नहीं बात चीत के सिलसिले में स्वामी विज्ञाना नन्द के मुह से निकल गया .आप तो गुरुदेव की बातों के विपरीत काम करते हैं , स्वामी विवेकानंद जी कदाचित कुछ गुस्से में आ गए बोले मैंने कौन सा काम विपरीत किया हैं .
विज्ञानं जी बोले ठाकुर का स्पस्ट आदेश था की कामिनी से दूर रहो पर जैसा की हमें पता चला हैं की आप इंग्लैंड और अमेरिका प्रवास में इन के के साथ ही रहते थे, यह तो विपरीत बात हैं .यह तो आपने ठीक नहीं किया . कदाचित गुरु आज्ञा का उल्लघन हैं
इस बात को सुनते हो स्वामी जी का चेहरा मानो क्रोध से लाल तप्त हो गया , यह देख कर विज्ञाना नन्द जी वहां से भाग निकले और स्वामी ब्रम्हानद जी के पीछे जा छुपे , और उन्हें सारी बात बता दी बोले की स्वामी जी मुझे ढूढ़ते आ रहे हैं मुझे बचाए ..
जब स्वामी जी , विज्ञाना नन्द जी को ढूढ़ते हुए वहां आये तो बोले सामने आ .
ब्रम्हानद जी बोले , नरेन्द्र वह बच्चा है न , कुछ बोलना चाहता था पर गलती से कुछ बोल गया , पर तुम तो समझदार हो , बच्चे को माफ़ करो .
यह सुनते ही स्वामी जी शांत हो गए ( परमहंस जी के इन दोनों शिष्यों में आपस में अपार स्नेह था ).
फिर शांत हो कर बोले विज्ञानं …यहाँ…. आ,,, .
देख बेटा ठाकुर ने तुम लोगों से जो बोला हैं उसका पालन तुम लोग करो . मेरे मन से ,ह्रदय से ,मेरी दृष्टी से उन्होंने स्त्री पुरुष की भेद दृष्टी ही अपनी महत कृपा से मिटा दी हैं अब मेरे लिए सब इश्वर कि संतान हैं ओर कोई भेद नहीं हैं इसलिए में वह करूँगा या आज तक किया हैं जो ठाकुर ने मुझे बोला हैं कहा हैं उनकी मनसा हैं , समझा तू .
स्वामी विज्ञानं ने स्वीकार कर लिया ,
(ध्यान रहे जब स्वामी जी ,विदेश प्रवास में थे तब उनके बारे में कुछ गलत सलत सुन कर दूसरों की कौन कहे, स्वयं मठ वासियों के मन में भी संदेह आ गया था , तब गिरीश चन्द्र घोष जो बंगाल के रंग मच के प्रख्यात कर्मी थे ओर सभी गुरु भाइयों मे वरिष्ठ थे , यह सब अनर्गल बाते उन्होंने सुन कर कहा था , मेरे नरेद्र तो प्रातः कालीन निकले मख्खन के सामान शुद्ध हैं , जिस दिन उसमे दोष देखूँगा उस दिन वह मेरी ही आखों का दोष होगा .)
इसलिए मित्रों ,सदगुरुदेव भगवान् ने किस किस शिष्य को क्या क्या आज्ञा दी , यह तो वहीँ जाने , क्योंकि उन्होंने अपने हीओ दिव्य कर कमलो से कितनो का जीवन पवित्र किया हैं वह सोचना या जानना हमारा कार्य नहीं हैं , पर एक बार अपने ह्रदय पर निष्पक्ष रूप से हाथ रख कर साफ़ मन से देखें ,उनकी क्रिया का कुछ तो समझ आ ही जायेगा,
यह सोचना की जो हम बच्चो को आज्ञा दी हैं क्या वही आज्ञा उन्होंने अपने सन्यासी शिष्यों को दी होगी सोच कर देखें ,फिर उनकी दिव्या बचनो मेसे हम कुछ अपनी पसंद के चुन चुनकर सभी के लिए कहना या सब पर मानदंड बनाना कितना सही हैं (पहले हम तो शिष्यता का पहला अक्षर पढ़ ले ,)वह तो हमारा ह्रदय ही समझ सकता हैं यदि हम समझना चाहे तो ..