SOOKSHM JEEVA PAARAD GUTIUKA
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रक्त बिंदु ,श्वेत बिंदु रहस्य को आत्मसात करने का प्रयत्न करते हुए मैं जब सदगुरुदेव के
चरण कमलो में पुनः उपस्थित हुआ ,तब सदगुरुदेव ने कहा की कैसी रही तेरी यात्रा ........
मैंने कहा -आपके आशीर्वाद से सभी कुछ अत्यंत सरल हो जाता है. मुझे उम्मीद नहीं थी की वे महानुभाव मुझे इतनी सहजता से इस रहस्यों को बता देंगे.( मुझे याद है की मैंने
इसी लेखश्रृंखला में श्वेत बिंदु और रक्त बिंदु से जुड़ेधातुवाद के रहस्यों और कुछ क्रियाओं का वर्णन करने के लिए कहा था , भविष्य में सदगुरुदेव की इच्छा से उन रहस्यों को अवश्य ही मैं आप सभी के समक्ष अवश्य ही उद्घाटित करूँगा . वास्तव में वे रहस्य ग्रंथों में हैं ही नहीं . और यदि किसी ग्रन्थ में हैं तो वे ग्रन्थ ही अप्रकाशित हैं. उन
सूत्रों का विवरण सिद्ध नागार्जुन प्रणीत "स्वर्ण प्रदीपिका" में है जो की अप्राप्य
ही है और सम्पूर्ण विश्व में उसग्रन्थ की मात्र तीन ही प्रतियाँ हैं.)
परन्तु मेरे बेटे क्या उस विषय से सम्बंधित सभी समस्याओं का समाधान हो गया है.... क्या कोई और जिज्ञासा नहीं है- मुझे देखते हुए सदगुरुदेव ने मुस्कुराकर पूछा.
हे मेरे प्राणाधार मैंअबोध बालकहूँ, आपकी कृपासेमुझेइस विषय काभान होता है. मुझे ये विषय समझ में तोआयापरन्तु कई जिज्ञासाऐसी भी हैंजिनकासमाधानआप ही कर सकते हैं.
वो क्या भला?????
विधि का अभ्यास तो मैंने उन महानुभावके निर्देशानुसार भी किया.और मुझे थोड़ी सफलता भी मिली, परन्तु कई बारमेरे मनमें काम भाव की प्रबलताभी हो जातीथी, और तामसिकभाव का प्रस्फुटन भी . जैसे ही ध्यानपथ पर सुषुम्नाआगे बढती थी तो अचानकऐसालगता थाकी जैसे किसीने उसकी गतिरोकदी हो ....... ऐसा क्यूँ
होता था.....?????
अच्छाये बताओ की चक्र भेदक सूत्र का संचरण पथ कहाँपर है???
जीमेरुदंड में .....
जब ये कुंडली भेदक नाडी मेरु दंड के मध्य से होकर गुजरती है तो इसका पथ बिलकुल स्पष्ट और सीधा होना चाहिए. इसी कारण साधक को या योग मार्ग के अभ्यासी को बिलकुल सीधा बैठने के लिए कहा जाता है .शास्त्रों का ये कथन अन्यथा नहीं है समझ गए.
जी बिलकुल.
हमारे मेरुदंड में ८४ मोती रूपी छिद्र युक्त अस्थियां होती हैं जिनके मध्य से ये चक्र भेदी नाडी होती है एक माला के समान ये सभी अस्थियों को जोड़ कर रखती है . जैसे हमारे शरीर की सभी ऐच्छिक क्रियाओं का नियंत्रण मस्तिष्क करता है वैसे ही ये नाडी सभी अनचाही पर शरीर रक्षक क्रियाओं का
नियंत्रण करती है .मूलाधार से निकलकर इसकी पूर्णता त्रिकुट से होते हुए अमृतछत्र पर होती है. सभी दिव्य शक्तियों को ये अपने आपमें समाहित किये हुए होती है.सप्त चक्र हमारे सप्त शरीरों के द्योतक होते हैं .प्रत्येक शरीर का अपना रंग होता है .और इसी आधार पर सप्त रंगों और उनके उपरंगों की कल्पना की गयी है. उस अद्विय्तीय महालिंग का समाहितिकरण इतना सहज है ही नहीं जितना की सुनने में
लगता है .पर ये उससे भी ज्यादा सहज है जितना की तुमने सुना है ...
हैं भला ये विरोधाभास कैसे ???????????
देखो तुम्हे ये तो पता है की वो मेरुदंड ८४ अस्थियों का संयुक्त रूप है ,पर क्या ये पता है की वो अस्थियां क्या बताती हैं या उनकी क्या विशेषता है. नहीं ना .... तो सुनो प्रत्येक अस्थि १-१ लाख योनियों का प्रतीक हैं उनके गुणों से युक्त हैं अर्थात भू तत्व के गुणों को लिए हुए या रेंगने वाले जीवों के गुणों से
उतरोत्तर बढते हुए आकाश तत्व के गुणों से युक्त या नभचर जीवों के गुणों युक्त योनियों की विशेषताओं को लिए हुए.प्रत्येक अस्थि एक दुसरे से संपृक्त होती है. जब हम साधना के लिए आसन लगते हैं तो मेरुदंड को सीधा रख कर मन्त्र करने पर उस कुंडलिनी शक्ति का स्फोट होता है और वो उर्ध्व गामी होती है तब चक्रों का भेदन करती हुयी त्रिकुटचक्र तक पहुचती है, पर ये तभी संभव हो पाता है जब कुंडलिनी
पथ में किसी प्रकार का अवरोध न हो और ये सूत्र मूलाधार से सीधे अन्य चक्रों का भेदन करता हुआ आज्ञा चक्र तक पहुचे. यदि इस यात्रा के मध्य हमारे आसन की स्थिति में या बैठने की स्थिति में कोई भी परिवर्तन आता है तो ये सूत्र जिस भी योनि के गुणों से भरे हुए अस्थि पिंड को स्पर्श करती है साधक में साधना काल के मध्य उन्ही गुणों का प्रस्फुटन होने लगता है और उसको वैसी ही अनुभूति होती है .
जैसे निम्न योनियों जो की पूर्णतः पृथ्वी तत्व से या भू-जल तत्व के गुणों से युक्त योनियों की उपस्थिति वाली अस्थि के अन्तः भाग से स्पर्श होने पर काम भाव का अधिक संचार होता है और ये काम भाव सम्बंधित शक्ति या देवी-देवता जिनकी आप साधना कर रहे हैं उनके लिए भी वासना युक्त विचारों के द्वारा दिखाई पड़ते हैं. इस लिए प्रत्येक साधना का अपना एक बैठने का तरीका होता है जो
उस तत्व विशेष के चक्रों को ही स्पर्श करता हुआ ऊपर अग्रसर करता है उस शक्ति को .
जैसे ही हम हिलते हैं या आसन बदलते हैं शक्ति का मार्ग भी उस सूत्र के हिलने से विकार युक्त हो जाता है.
मन्त्र जप के कारण आंतरिक उर्जा का निर्माण होता है जिससे निर्मित अग्नि उन चक्रों के नकारात्मक प्रभाव को समाप्त कर दिव्य गुणों को प्रस्फुटित करती है. और सभी तत्वों की शक्तियों से साधक अजेय ही हो जाता है .पूर्णता के पथ पर पहुच जाता है . यही ब्रह्माण्ड भेदन का मार्ग है जिसके द्वारा हम उस अमृतछत्र
से या त्रिकुट से हम वापस प्रत्यावर्तन कर मूलाधार तक आते हैं. और यही प्रत्यावर्तन साधक की कुंडलिनी यात्रा को पूर्ण करता है. जब आप कल्प्नायोग के माध्यम से उस उस महालिंग को परमाणु और विद्युत कणों में भी परिवर्तित कर आप श्वास पथ के द्वारा या ब्रह्माण्ड पथ के द्वारा आप महायोनि (त्रिकोण) या मूलाधार तक लाकर उस महालिंग का स्वशरीर में स्थित लिंग में स्थापन करते हैं तो इसी पथ के
द्वारा उसका पुनः पुनः बाह्य और अन्तः भौतिक प्राकट्य किया जा सकता है. समझ गए.
ह्म्म्म पर सदगुरुदेव यदि कोशिश करने पर भी वो कुंडलिनी प्राण सूत्र त्रिकुट तक बिना अवरोध के नहीं पहुच रहा हो तब क्या करना चाहिए???????
सिद्ध साधकों को बाह्य उपादानो की आवश्यकता नहीं होती है क्यूंकि वो अपने साधना जीवन का प्रारंभ ही आसन सिद्धि के बाद करते हैं. पर वे भी सुरक्षा के लिए पारद गुटिका को स्पर्श कराते रहते हैं अपने शरीर पर. जिससे उनका सूत्र उर्जा युक्त बना रहता है और बाह्य या आंतरिक परिवर्तन से वो मुक्त रहता है. साथ
ही सूक्ष्म शरीर की रक्षा भी करता है तथा अनंत शक्ति संपन्न भी बनाये रखता है ऐसा पारद मौक्तिक. पारद उर्ध्वगामी होता है अर्थात ऊष्मा पाकर ऊपर उठाना उसका स्वाभाव है . अतः वो उस सूत्र को भी उर्ध्वगामी बनाये रखता है.जब सन्यासियों के लिए ये इतना उपयोगी है तो भला सामान्य गृहस्थों के लिए तो ये वरदान ही है . अनेकानेक शक्तियों का
संयुक्त रूप ही होती है ये गुटिका. जो एक सामान्य साधक को भी अल्प प्रयास में आसन सिद्धि तथा सूक्ष्म शरीर सिद्धि तक पंहुचा देती है और अन्य कई भौतिक जीवन की उपलब्धियां भी भर देती है साधक की झोली में,
इस गुटिका का नाम क्या है गुरुदेव् और इसका निर्माण कैसे किया जाता है???????
इस गुटिका को सिद्ध समाज में सूक्ष्म जीवा पारद गुटिका के नाम से जाना जाता है. पारद से ही पूर्णता मिल सकती है समाज को ये हमें भली भांति समझ लेना चाहिए. सर्वप्रथम ११ संस्कार युक्त पारद लेकर उसका मर्दन सिद्ध मूलिकाओं तथा दिव्य औषधियों में करना चाहिए जिससे
की दिव्य गुणों से युक्त होकर वो हमारे सभी मनोरथ को पूर्ण कर सके . फिर विभिन्न रत्नों का ग्रास देना चाहिए. ये कोई प्रथा या ढकोसला नहीं है .बल्कि रत्न ग्रास के पीछे अत्यधिक सूक्ष्म रहस्य छुपा हुआ है रस तंत्र में . रत्न विभिन्न शक्तियों से युक्त होते हैं. जैसे माणिक्य शराब के नशे को समाप्त कर संक्रामक रोगों से भी मुक्त करता है और देता है भूख प्यास पर नियंत्रण की क्षमता तथा
हमेशा तरोताजगी . पन्ना नशे को बढ़ा देता और जहर के असर को दूर करता है.मोती और मूंगा लक्ष्मी के सहोदर हैं जो की सम्पन्नता युक्त कर नेत्र शक्ति में वृद्धि करते हैं,उर्जा को उर्ध्वगामी कर कुंडलिनी शक्ति के द्वारा चक्रों के भेदन में सहायक होते है. ये रत्न सौम्यता और विनम्रता के साथ मनोबल तथा साहस भी प्रदान करते हैं. यदि मात्र मूंगे को ही लक्ष्मी मन्त्र या यक्षिणी मन्त्रों से
सिद्ध कर धारण कर लिया जाये तो जीवन में भौतिक सुखों का आभाव रह ही नहीं सकता. नीलम शारीरिक बल में वृद्धि कर तंत्र बाधा से रक्षा करता है पुखराज रक्त विकार को दूर कर गुदा रोग तथा कुष्ट से भी मुक्त करता है साथ ही भाग्योदय भी करता है पन्ना वाक् सिद्धि में सहायक है.हीरा पूर्णता देता है और खेच्ररत्व में वातावरण के अनुकूल बनाकर कवचित भी करता है तो वैक्रान्त रस शास्त्र में पूर्णता
तथा प्रत्यावर्तन में सफलता भी चाहे वो धातुवाद हो या फिर हो देहवाद. इन रत्नों का ग्रास पारद तभी सहजता से ले पाता है जब गुरु अपने प्राणों का घर्षण कर शिष्य को बीज मन्त्र प्रदान करे तथा औषधियों के मर्दन से लेकर अंत तक इन बीज मन्त्रों का जप होना चाहिए तभी वो गुटिका फल प्रद होती है . यदि घाव के कारण खून बंद नहीं हो रहा हो या मवाद बन रहा हो तो ऐसी गुटिका को फेरने से
तत्काल लाभ होता है (प्रत्यक्षम किम प्रमाणं) ,तत्पश्चात गजपुट में पकाकर उस गुटिका को पूर्णता दी जाती है तथा रसेश्वरी मन्त्र का जप कर उसे सिद्ध कर दिया जाता है .अत्यंत सौभाग शाली व्यक्ति को ही ऐसी गुटिका प्राप्त होती है जिसके आगे सम्पूर्ण वैभव भी फीके पड़ जाते हैं. ऐसी गुटिका का स्पर्श ही आपको श्वेत बिंदु रक्त बिंदु और कई दिव्य क्रियाओं में सफलता देता है और
देता है धातुवाद में सफलता भी. जो किसी भी कीमियागर का लक्ष्य होत्ती है. सदगुरुदेव के निर्देशानुसार इस गुटिका का सफलतापूर्वक निर्माण कर मैंने उस सफलता को भी प्राप्त किया जो शायद बगैर उनके आशीर्वाद के संभव ही नहीं थी और ये तो नितांत सत्य है की बहुत से सूत्र ग्रंथों में हैं ही नहीं , यदि कही वे सुरक्षित हैं तो मात्र हमारे प्राणाधार सदगुरुदेव के कंठ में . ये हमारी जिम्मेदारी
है की उन सूत्रों को प्राप्त कर हम उनका संरक्षण करे आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी.यही हमारा शिष्य धर्म भी है.
मुझे याद है की ब्रह्मत्व साधना शिविर में सदगुरुदेव ने १९८७ में इस गुटिका पर करुणा के वशीभूत होकर सूक्ष्म शरीर सिद्धि क्रिया तथा चक्र जागरण क्रिया करवाई थी . इस गुटिका की प्राप्ति ही सौभाग्य दायक है . तथा निश्चिन्तता भी पूर्णता पाने की . और तभी तो श्वेत
बिंदु रक्त बिंदु की क्रिया सहजता से पूरी हो पाती है.
इस गुटिका को धारण कर हम अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकते हैं. यदि सच में जीवन को हीरे की कलम से संवारना है ,लिखना है अपने ललाट पर सौभाग्य तो आइये आगे बढे और ऐसी दिव्य गुटिका को प्राप्त कर दुर्भाग्य मिटा कर सफलता लिखें और इन सूत्रों को सदगुरुदेव से प्राप्त कर
अपने जीवन को पूर्णता दे.
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रक्त बिंदु ,श्वेत बिंदु रहस्य को आत्मसात करने का प्रयत्न करते हुए मैं जब सदगुरुदेव के
चरण कमलो में पुनः उपस्थित हुआ ,तब सदगुरुदेव ने कहा की कैसी रही तेरी यात्रा ........
मैंने कहा -आपके आशीर्वाद से सभी कुछ अत्यंत सरल हो जाता है. मुझे उम्मीद नहीं थी की वे महानुभाव मुझे इतनी सहजता से इस रहस्यों को बता देंगे.( मुझे याद है की मैंने
इसी लेखश्रृंखला में श्वेत बिंदु और रक्त बिंदु से जुड़ेधातुवाद के रहस्यों और कुछ क्रियाओं का वर्णन करने के लिए कहा था , भविष्य में सदगुरुदेव की इच्छा से उन रहस्यों को अवश्य ही मैं आप सभी के समक्ष अवश्य ही उद्घाटित करूँगा . वास्तव में वे रहस्य ग्रंथों में हैं ही नहीं . और यदि किसी ग्रन्थ में हैं तो वे ग्रन्थ ही अप्रकाशित हैं. उन
सूत्रों का विवरण सिद्ध नागार्जुन प्रणीत "स्वर्ण प्रदीपिका" में है जो की अप्राप्य
ही है और सम्पूर्ण विश्व में उसग्रन्थ की मात्र तीन ही प्रतियाँ हैं.)
परन्तु मेरे बेटे क्या उस विषय से सम्बंधित सभी समस्याओं का समाधान हो गया है.... क्या कोई और जिज्ञासा नहीं है- मुझे देखते हुए सदगुरुदेव ने मुस्कुराकर पूछा.
हे मेरे प्राणाधार मैंअबोध बालकहूँ, आपकी कृपासेमुझेइस विषय काभान होता है. मुझे ये विषय समझ में तोआयापरन्तु कई जिज्ञासाऐसी भी हैंजिनकासमाधानआप ही कर सकते हैं.
वो क्या भला?????
विधि का अभ्यास तो मैंने उन महानुभावके निर्देशानुसार भी किया.और मुझे थोड़ी सफलता भी मिली, परन्तु कई बारमेरे मनमें काम भाव की प्रबलताभी हो जातीथी, और तामसिकभाव का प्रस्फुटन भी . जैसे ही ध्यानपथ पर सुषुम्नाआगे बढती थी तो अचानकऐसालगता थाकी जैसे किसीने उसकी गतिरोकदी हो ....... ऐसा क्यूँ
होता था.....?????
अच्छाये बताओ की चक्र भेदक सूत्र का संचरण पथ कहाँपर है???
जीमेरुदंड में .....
जब ये कुंडली भेदक नाडी मेरु दंड के मध्य से होकर गुजरती है तो इसका पथ बिलकुल स्पष्ट और सीधा होना चाहिए. इसी कारण साधक को या योग मार्ग के अभ्यासी को बिलकुल सीधा बैठने के लिए कहा जाता है .शास्त्रों का ये कथन अन्यथा नहीं है समझ गए.
जी बिलकुल.
हमारे मेरुदंड में ८४ मोती रूपी छिद्र युक्त अस्थियां होती हैं जिनके मध्य से ये चक्र भेदी नाडी होती है एक माला के समान ये सभी अस्थियों को जोड़ कर रखती है . जैसे हमारे शरीर की सभी ऐच्छिक क्रियाओं का नियंत्रण मस्तिष्क करता है वैसे ही ये नाडी सभी अनचाही पर शरीर रक्षक क्रियाओं का
नियंत्रण करती है .मूलाधार से निकलकर इसकी पूर्णता त्रिकुट से होते हुए अमृतछत्र पर होती है. सभी दिव्य शक्तियों को ये अपने आपमें समाहित किये हुए होती है.सप्त चक्र हमारे सप्त शरीरों के द्योतक होते हैं .प्रत्येक शरीर का अपना रंग होता है .और इसी आधार पर सप्त रंगों और उनके उपरंगों की कल्पना की गयी है. उस अद्विय्तीय महालिंग का समाहितिकरण इतना सहज है ही नहीं जितना की सुनने में
लगता है .पर ये उससे भी ज्यादा सहज है जितना की तुमने सुना है ...
हैं भला ये विरोधाभास कैसे ???????????
देखो तुम्हे ये तो पता है की वो मेरुदंड ८४ अस्थियों का संयुक्त रूप है ,पर क्या ये पता है की वो अस्थियां क्या बताती हैं या उनकी क्या विशेषता है. नहीं ना .... तो सुनो प्रत्येक अस्थि १-१ लाख योनियों का प्रतीक हैं उनके गुणों से युक्त हैं अर्थात भू तत्व के गुणों को लिए हुए या रेंगने वाले जीवों के गुणों से
उतरोत्तर बढते हुए आकाश तत्व के गुणों से युक्त या नभचर जीवों के गुणों युक्त योनियों की विशेषताओं को लिए हुए.प्रत्येक अस्थि एक दुसरे से संपृक्त होती है. जब हम साधना के लिए आसन लगते हैं तो मेरुदंड को सीधा रख कर मन्त्र करने पर उस कुंडलिनी शक्ति का स्फोट होता है और वो उर्ध्व गामी होती है तब चक्रों का भेदन करती हुयी त्रिकुटचक्र तक पहुचती है, पर ये तभी संभव हो पाता है जब कुंडलिनी
पथ में किसी प्रकार का अवरोध न हो और ये सूत्र मूलाधार से सीधे अन्य चक्रों का भेदन करता हुआ आज्ञा चक्र तक पहुचे. यदि इस यात्रा के मध्य हमारे आसन की स्थिति में या बैठने की स्थिति में कोई भी परिवर्तन आता है तो ये सूत्र जिस भी योनि के गुणों से भरे हुए अस्थि पिंड को स्पर्श करती है साधक में साधना काल के मध्य उन्ही गुणों का प्रस्फुटन होने लगता है और उसको वैसी ही अनुभूति होती है .
जैसे निम्न योनियों जो की पूर्णतः पृथ्वी तत्व से या भू-जल तत्व के गुणों से युक्त योनियों की उपस्थिति वाली अस्थि के अन्तः भाग से स्पर्श होने पर काम भाव का अधिक संचार होता है और ये काम भाव सम्बंधित शक्ति या देवी-देवता जिनकी आप साधना कर रहे हैं उनके लिए भी वासना युक्त विचारों के द्वारा दिखाई पड़ते हैं. इस लिए प्रत्येक साधना का अपना एक बैठने का तरीका होता है जो
उस तत्व विशेष के चक्रों को ही स्पर्श करता हुआ ऊपर अग्रसर करता है उस शक्ति को .
जैसे ही हम हिलते हैं या आसन बदलते हैं शक्ति का मार्ग भी उस सूत्र के हिलने से विकार युक्त हो जाता है.
मन्त्र जप के कारण आंतरिक उर्जा का निर्माण होता है जिससे निर्मित अग्नि उन चक्रों के नकारात्मक प्रभाव को समाप्त कर दिव्य गुणों को प्रस्फुटित करती है. और सभी तत्वों की शक्तियों से साधक अजेय ही हो जाता है .पूर्णता के पथ पर पहुच जाता है . यही ब्रह्माण्ड भेदन का मार्ग है जिसके द्वारा हम उस अमृतछत्र
से या त्रिकुट से हम वापस प्रत्यावर्तन कर मूलाधार तक आते हैं. और यही प्रत्यावर्तन साधक की कुंडलिनी यात्रा को पूर्ण करता है. जब आप कल्प्नायोग के माध्यम से उस उस महालिंग को परमाणु और विद्युत कणों में भी परिवर्तित कर आप श्वास पथ के द्वारा या ब्रह्माण्ड पथ के द्वारा आप महायोनि (त्रिकोण) या मूलाधार तक लाकर उस महालिंग का स्वशरीर में स्थित लिंग में स्थापन करते हैं तो इसी पथ के
द्वारा उसका पुनः पुनः बाह्य और अन्तः भौतिक प्राकट्य किया जा सकता है. समझ गए.
ह्म्म्म पर सदगुरुदेव यदि कोशिश करने पर भी वो कुंडलिनी प्राण सूत्र त्रिकुट तक बिना अवरोध के नहीं पहुच रहा हो तब क्या करना चाहिए???????
सिद्ध साधकों को बाह्य उपादानो की आवश्यकता नहीं होती है क्यूंकि वो अपने साधना जीवन का प्रारंभ ही आसन सिद्धि के बाद करते हैं. पर वे भी सुरक्षा के लिए पारद गुटिका को स्पर्श कराते रहते हैं अपने शरीर पर. जिससे उनका सूत्र उर्जा युक्त बना रहता है और बाह्य या आंतरिक परिवर्तन से वो मुक्त रहता है. साथ
ही सूक्ष्म शरीर की रक्षा भी करता है तथा अनंत शक्ति संपन्न भी बनाये रखता है ऐसा पारद मौक्तिक. पारद उर्ध्वगामी होता है अर्थात ऊष्मा पाकर ऊपर उठाना उसका स्वाभाव है . अतः वो उस सूत्र को भी उर्ध्वगामी बनाये रखता है.जब सन्यासियों के लिए ये इतना उपयोगी है तो भला सामान्य गृहस्थों के लिए तो ये वरदान ही है . अनेकानेक शक्तियों का
संयुक्त रूप ही होती है ये गुटिका. जो एक सामान्य साधक को भी अल्प प्रयास में आसन सिद्धि तथा सूक्ष्म शरीर सिद्धि तक पंहुचा देती है और अन्य कई भौतिक जीवन की उपलब्धियां भी भर देती है साधक की झोली में,
इस गुटिका का नाम क्या है गुरुदेव् और इसका निर्माण कैसे किया जाता है???????
इस गुटिका को सिद्ध समाज में सूक्ष्म जीवा पारद गुटिका के नाम से जाना जाता है. पारद से ही पूर्णता मिल सकती है समाज को ये हमें भली भांति समझ लेना चाहिए. सर्वप्रथम ११ संस्कार युक्त पारद लेकर उसका मर्दन सिद्ध मूलिकाओं तथा दिव्य औषधियों में करना चाहिए जिससे
की दिव्य गुणों से युक्त होकर वो हमारे सभी मनोरथ को पूर्ण कर सके . फिर विभिन्न रत्नों का ग्रास देना चाहिए. ये कोई प्रथा या ढकोसला नहीं है .बल्कि रत्न ग्रास के पीछे अत्यधिक सूक्ष्म रहस्य छुपा हुआ है रस तंत्र में . रत्न विभिन्न शक्तियों से युक्त होते हैं. जैसे माणिक्य शराब के नशे को समाप्त कर संक्रामक रोगों से भी मुक्त करता है और देता है भूख प्यास पर नियंत्रण की क्षमता तथा
हमेशा तरोताजगी . पन्ना नशे को बढ़ा देता और जहर के असर को दूर करता है.मोती और मूंगा लक्ष्मी के सहोदर हैं जो की सम्पन्नता युक्त कर नेत्र शक्ति में वृद्धि करते हैं,उर्जा को उर्ध्वगामी कर कुंडलिनी शक्ति के द्वारा चक्रों के भेदन में सहायक होते है. ये रत्न सौम्यता और विनम्रता के साथ मनोबल तथा साहस भी प्रदान करते हैं. यदि मात्र मूंगे को ही लक्ष्मी मन्त्र या यक्षिणी मन्त्रों से
सिद्ध कर धारण कर लिया जाये तो जीवन में भौतिक सुखों का आभाव रह ही नहीं सकता. नीलम शारीरिक बल में वृद्धि कर तंत्र बाधा से रक्षा करता है पुखराज रक्त विकार को दूर कर गुदा रोग तथा कुष्ट से भी मुक्त करता है साथ ही भाग्योदय भी करता है पन्ना वाक् सिद्धि में सहायक है.हीरा पूर्णता देता है और खेच्ररत्व में वातावरण के अनुकूल बनाकर कवचित भी करता है तो वैक्रान्त रस शास्त्र में पूर्णता
तथा प्रत्यावर्तन में सफलता भी चाहे वो धातुवाद हो या फिर हो देहवाद. इन रत्नों का ग्रास पारद तभी सहजता से ले पाता है जब गुरु अपने प्राणों का घर्षण कर शिष्य को बीज मन्त्र प्रदान करे तथा औषधियों के मर्दन से लेकर अंत तक इन बीज मन्त्रों का जप होना चाहिए तभी वो गुटिका फल प्रद होती है . यदि घाव के कारण खून बंद नहीं हो रहा हो या मवाद बन रहा हो तो ऐसी गुटिका को फेरने से
तत्काल लाभ होता है (प्रत्यक्षम किम प्रमाणं) ,तत्पश्चात गजपुट में पकाकर उस गुटिका को पूर्णता दी जाती है तथा रसेश्वरी मन्त्र का जप कर उसे सिद्ध कर दिया जाता है .अत्यंत सौभाग शाली व्यक्ति को ही ऐसी गुटिका प्राप्त होती है जिसके आगे सम्पूर्ण वैभव भी फीके पड़ जाते हैं. ऐसी गुटिका का स्पर्श ही आपको श्वेत बिंदु रक्त बिंदु और कई दिव्य क्रियाओं में सफलता देता है और
देता है धातुवाद में सफलता भी. जो किसी भी कीमियागर का लक्ष्य होत्ती है. सदगुरुदेव के निर्देशानुसार इस गुटिका का सफलतापूर्वक निर्माण कर मैंने उस सफलता को भी प्राप्त किया जो शायद बगैर उनके आशीर्वाद के संभव ही नहीं थी और ये तो नितांत सत्य है की बहुत से सूत्र ग्रंथों में हैं ही नहीं , यदि कही वे सुरक्षित हैं तो मात्र हमारे प्राणाधार सदगुरुदेव के कंठ में . ये हमारी जिम्मेदारी
है की उन सूत्रों को प्राप्त कर हम उनका संरक्षण करे आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी.यही हमारा शिष्य धर्म भी है.
मुझे याद है की ब्रह्मत्व साधना शिविर में सदगुरुदेव ने १९८७ में इस गुटिका पर करुणा के वशीभूत होकर सूक्ष्म शरीर सिद्धि क्रिया तथा चक्र जागरण क्रिया करवाई थी . इस गुटिका की प्राप्ति ही सौभाग्य दायक है . तथा निश्चिन्तता भी पूर्णता पाने की . और तभी तो श्वेत
बिंदु रक्त बिंदु की क्रिया सहजता से पूरी हो पाती है.
इस गुटिका को धारण कर हम अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकते हैं. यदि सच में जीवन को हीरे की कलम से संवारना है ,लिखना है अपने ललाट पर सौभाग्य तो आइये आगे बढे और ऐसी दिव्य गुटिका को प्राप्त कर दुर्भाग्य मिटा कर सफलता लिखें और इन सूत्रों को सदगुरुदेव से प्राप्त कर
अपने जीवन को पूर्णता दे.