मृत्योर्मा अमृतं गमय - ४
जो झूठ और असत्य से, छल और कपट से परे रहते हो| जिनका जीवन अपने आप में सात्विक हो, जो अपने आप में देवात्मा हो, अपने आप में पवित्र हों, दिव्य हो, ऐसे स्त्री और पुरुष श्रेष्ठ युगल कहें जाते हैं और यदि ऐसे स्त्री और पुरुष के गर्भ में हम जन्म लें, तो अपने आप में अद्वितीयता होती है, क्या हम कल्पना कर सकते हैं की देवकी के अलावा श्रीकृष्ण भगवान् किसी ओर के गर्भ में जन्म ले सकते थे? क्या हम सोच सकते हैं कौशल्या के अलावा किसी के गर्भ में इतनी क्षमता थी की भगवान् राम को उनके गर्भ में स्थान दे सकें? नहीं| इसके लिए पवित्रता, दिव्यता, श्रेष्ठता, उच्चता जरूरी है| मगर प्रश्न यह उठाता है की क्या हम मृत्यु को प्राप्त होने के बाद, क्या हमारी चेतना बनी रह सकती है और क्या मृत्यु को प्राप्त होने के बाद ऐसी स्थिति, कोई ऐसी तरकीब, कोई ऐसी विशिष्टता है की हम श्रेष्ठ गर्भ का चुनाव कर सकें? वह चाहे किसी शहर में हो , वह चाहे किसी प्रांत में हो, वह चाहे किसी राष्ट्र में हो, जहां जिस राष्ट्र में चाहे, भारतवर्ष में चाहे, जिस शहर में चाहे, जिस स्त्री या पुरुष के गर्भ से जन्म लेना चाहे, हम जन्म ले सकें कोई ऐसी स्थिति है? यह प्रश्न हमारे सामने सीधा, दो टूक शब्दों में स्पष्ट खडा रहता है और इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान के पास नहीं है|
हमारे पास नहीं है मृत्यु को प्राप्त होने के बाद, हम विवश हो जाते हैं, मजबूर हो जाते हैं, लाचार हो जाते हैं, यह कोई स्पष्ट नहीं है की हम दो साल बाद, पांच साल बाद, दस साल बाद, पंद्रह या बीस साल बाद, पचास साल बाद उस पितृ लोक में भटकते हुए कहीं जन्म ले लें| हो सकता है किसी गरीब घराने में जन्म लें, कसाई के घर में जन्म ले, हम किसी दुष्ट आत्मा के घर में जन्म ले लें, हम किसी व्याभिचारी के घर में जन्म ले लें और हम किसी मां के घर में जन्म ले लें की भ्रूण ह्त्या हो जाए, गर्भपात हो जाए, हम पूरा जन्म ही नहीं ले सकें| आप कल्पना करें कितनी विवशता हो जायेगी हमारे जीवन की और हम इस जीवन में ही उस स्थिति को भी प्राप्त कर सकते हैं की हम मृत्यु के बाद भी उस प्राणी लोक में, जहां करोडो प्राणी हैं, करोडो आत्माएं है उन आत्माओं में भी हम खड़े हो सके और हमें इस बात का ज्ञान हो सके की हम कौन थे कहां थे किस प्रकार की साधनाएं संपन्न की और क्या करना है? और साथ ही साथ इतनी ताकत, इतनी क्षमता, इतनी तेजस्विता आ सके कि सही गर्भ का चुनाव कर सकें और फिर ऐसी स्थिति बन सके कि तुरन्त हम उस श्रेष्ठ गर्भ में प्रवेश कर सकें और जन्म ले सकें| चाहे उसमे कितनी भीड़, चाहे कितनी ही दुष्ट आत्माएं हमारे पीछे हो| हा उसके बीच में से रास्ता निकाल कर के उस श्रेष्ठ गर्भ का चयन कर सकें और ज्योंही गर्भ खुल जाए उसमें प्रवेश कर सके| इसको अमृत साधना कहा गया है और यह अपने अपने आप में अद्वितीय साधना है, यह विशिष्ट साधना| इसका मतलब है कि इस साधना को संपन्न करने के बाद हमारा यह जीवन हमारे नियंत्रण में रहता है, मृत्यु के बाद हम प्राणी बनकर के भी, जीवात्मा बनकर के भी हमारा नियंत्रण उस पर रहता है और उस जीवात्मा के बाद गर्भ में जन्म लेते हैं, गर्भ में प्रवेश करते हैं| तब भी हमारा नियंत्रण बना रहता है| यह पूरा हमारा सर्कल बन जाता है की हम हैं, हम बढें, हम मृत्यु को प्राप्त हुए, जीवात्मा बनें फिर गर्भ में प्रवेश किया| गर्भ में प्रवेश करने के बाद जन्म लिया और जन्म लेने के बाद खड़े हुए| ये पूरी एक स्टेज, एक पूरा वृत्त बनाता है| पुरे वृत्त का हमें भान रहता है और कई लोगों को ऐसे वृत्त का भान रहता है, ज्ञान रहता है कि प्रत्येक जीवन में हम कहां थे| किस प्रकार से हमने जन्म लिया? ऐसे कई अलौकिक घटनाएं समाज में फैलती हैं जिसको पुरे जन्म का ज्ञान रहता है| मगर कुछ समय तक रहता है|
प्रश्न तो यह है की हम ऐसी साधनाओं को संपन्न करें जो कि हमारे इस जीवन के लिए उपयोगी हो और मृत्यु के बाद हमारी प्राणात्मा इस वायुमंडल में विचरण करते रहती है तो प्राणात्मा पर भी हमारा नियंत्रण बना रहे| साधना के माध्यम से वह डोर टूटे नहीं, डोर अपने आप में जुडी रहे और जल्दी से जल्दी उच्चकोटि के गर्भ में हम प्रवेश कर सकें| ऐसा नहीं हो कि हम लेने के लिए ५० वर्षों तक इंतज़ार करते रहे| हम चाहते हैं कि हम वापिस जल्दी से जल्दी जन्म लें, हम चाहते हैं कि इस जीवन में जो की गई साधनाएं हैं वह सम्पूर्ण रहे और जितना ज्ञान हमने प्राप्त कर लिया उसके आगे का ज्ञान हम प्राप्त करें क्योंकि ज्ञान को तो एक अथाह सागर हैं, अनन्त पथ है| इस जीवन में हम पूर्ण साधनाएं संपन्न नहीं कर सकें, तो अगले जीवन में हमने जहां छोड़ा है उससे आगे बढ़ सकें, क्योंकि ये जो इस जीवन का ज्ञान है वह उस जीवन में स्मरण रहता है| यदि उस प्राणात्मा या जीवात्मा पर हमारा नियंत्रण रहता है, गर्भ पर हमारा नियंत्रण रहता है, गर्भ में जन्म लेने पर हमारा नियंत्रण रहता है| जन्म लेने के बाद गर्भ से बाहर आने कि क्रिया पर नियंत्रण रहता है, इसलिए इस अमृत साधना का भी हमारे जीवन में अत्यंत महत्त्व है क्योंकि अमृत साधना के माध्यम से हम जीवन को छोड़ नहीं पाते, जीवन पर हमारा पूर्ण अधिकार रहता है| जिस प्रकार क़ी सिद्धि को चाहे उस सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं|
प्रत्येक स्त्री और पुरुष को अपने जीवन काल में जब भी अवसर मिले, समय मिले अपने गुरु के पास जाना चाहिए| मैं गुरु शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूं, जिसको इस साधना का ज्ञान हो वह गुरु| हो सकता है, ऐसा गुरु आपका भाई हो, आपकी पत्नी हो, आपका पुत्र हो सकता है यदि उनको इस बात का ज्ञान है और यदि नहीं ज्ञान है जिस किसी गुरु के पास इस प्रकार का ज्ञान हो उसके पास हम जाए| उनके चरणों में बैठे, विनम्रता के साथ निवेदन करें कि हम उस अमृत साधना को प्राप्त करना चाहते हैं| क्योंकि इस जीवन को तो हम अपने नियंत्रण में रखें ही, उसके बाद हम जब भी जन्म लें तो उस प्राणात्मा या जीवात्मा पर भी हमारा नियंत्रण बना रहे और हम जल्दी से जल्दी उच्चकोटि के गर्भ को चुनें, श्रेष्टतम गर्भ को चुने, अद्वितीय उच्चकोटि क़ी मां को चुने, उस परिवार को चुने जहां हम जन्म लेना चाहते हैं| उस गर्भ में जन्म ले सके| हम एक उच्च कोटि के बालक बनें क्योंकि साधना से उच्च कोटि के मां-बाप का चयन भी कर सकते हैं और यदि हम चाहे अमुक मां-बाप के गर्भ से ही जन्म लेना है, तब भी ऐसा हो सकता है| यदि हम चाहे उस शहर के उस मां-बाप के यहां जन्म लेना है यदि वह गर्भ धारण करने क़ी क्षमता रखते हैं तो वापिस उसमें प्रवेश करके जन्म ले सकते हैं| ऐसे कई उदाहरण बने हैं| जिस मां के गर्भ से जन्म लिया और किसी कारणवश मृत्यु को प्राप्त हो गए, तो उस मां के गर्भ में वापिस भी जन्म लेने की स्थिति बन सकती है| खैर ये तो आगे क़ी स्थिति है, इस समय तो स्थिति है कि हम इस अमृत साधना के माध्यम से अपने वर्त्तमान जीवन को अपने नियंत्रण में रखे इस मृत्यु के बाद जीवात्मा क़ी स्थिति पर नियंत्रण रखें| हम जो गर्भ चाहे, श्रेष्टतम गर्भ में प्रवेश कर सकें, पूर्णता के साथ कर सकें और जन्म लेने के बाद विगत जन्म का स्मरण हमें पूर्ण तरह से रहे| जैसे कि उस जीवन में जो साधना क़ी है उस साधना को आगे बढ़ा सकें| उस जीवन जिस गुरु के चरणों में रहे हैं, उस गुरु के चरणों में वापिस जल्दी से जल्दी जा सकें, आगे क़ी साधना संपन्न कर सकें| ये चाहे स्त्री हो, पुरुष हो, साधक हो, साधिका हो प्रत्येक के जीवन क़ी यह मनोकामना है कि वह इस साधना को सपन्न कर सकता है| मैंने अपने इस प्रवचन में तीन साधनों का उल्लेख किया| मृत्योर्मा साधना, अमृत साधना और गमय साधना और इन तीनों साधनाओं को मिलाकर 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' शब्द विभूषित किया गया है| इसलिए इशावास्योपनिषद में और जिस उपनिषद् में इस बात क़ी चर्चा है वह केवल एक पंक्ति नहीं हैं, 'मृत्योर्मा अमृत गमयं '|
मृत्यु से अमृत्यु के ओर चले जाए, हम किस प्रकार से जाए, किस तरकीब से जाए इसलिए उन तीनों साधनाओं के नामकरण इसमें दिए हैं, इसको स्पष्ट किया| इन तीनों साधनाओं को सामन्जस्य से करना, इन तीनो साधनाओं को समझना हमारे जीवन में जरूरी है, आवश्यक है और हम अपने जीवन काल में ही इन तीनों साधनाओं को संपन्न करें, यह हमारे लिए जरूरी है, उतना ही आवश्यक है और जितना जल्दी हो सके अपने गुरु के चरणों में बैठे, जितना जल्दी हो सके उनके चरणों में अपने आप को निवेदित करें| अपनी बात को स्पष्ट करें की हम क्या चाहते हैं और वो जो समय दें, वह जो परीक्षा लें, वह परिक्षा हम दें| वह जिस प्रकार से हमारा उपयोग करना चाहे, हम उपयोग होने दें| मगर हम उनके चरणों में लिपटे रहे क्योंकि हमें उनसे प्राप्त करना है| अदभुद ज्ञान, अद्वितीय ज्ञान, श्रेष्टतम ज्ञान| बहुत कुछ खोने के बाद बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है| यदि आप कुछ खोना नहीं चाहें और बहुत कुछ प्राप्त करना चाहें तो तो ऐसा जीवन में संभव नहीं हो सकता| अपने जीवन को दांव पर लगा करके, प्राप्त किया जा सकता है| यदि आप जीवन को बचा रहे हैं, तो जीवन को बचाते रहे और बहुत कुछ प्राप्त करना चाहे तो ऐसा संभव नहीं हो सकता| इसीलिये इस उपनिषदकार ने इस मृत्योर्मा अमृतं गमयं से सम्बंधित कुछ विशिष्ट मंत्रो का प्रयोग किया| यद्यपि इसकी साधना पद्धति बहुत सरल है, सही है कोई भी स्त्री या पुरुष इस साधना को संपन्न कर सकता है| यद्यपि इस साधना के लिए गुरु के चरणों में पहुँचना आनिवार्य है, क्योंकि इसकी पेचीदगी गुरु के द्वारा ही समझी जा सकती है| उनके साथ, उनके द्वारा ही मन्त्रों को प्राप्त किया जा सकता है| यदि इन मन्त्रों को हम एक बार श्रवण करते हैं तब भी हमारे जीवन क़ी चैतन्यता बनती है, तब भे हम जीवन के उत्थान क़ी ओर अग्रसर होते हैं, तब ही हम मृत्यु पर विजय प्राप्त करने क़ी साहस और क्षमता प्राप्त कर सकते हैं और तभी हम मृत्यु से अमृत्यु की ओर अग्रसर होते हैं, जहां मृत्यु हम पर झपट्टा मार नहीं सकती, जहां मृत्यु हमको दबोच नहीं सकती, समाप्त नहीं कर सकती और हम जितने वर्ष चाहे जितने युगों चाहे जीवित रह सकते हैं|
-- सदगुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस