Saturday, December 31, 2011

Chinnmsta secret छिन्नमस्ता रहस्य

छिन्नमस्ता रहस्य
साधक और उसका आराध्य ये दोनों मिलकर एक ऐसी सत्ता का निर्माण करते है जिसका कण-कण लाखों करोड़ों ज्योतिपुन्जों से ज्यादा प्रकाशमान, शक्तिमान और ऊर्जावान होता है....ऐसी स्थिति में साधक का जीवन एक आम आदमी की तरह जन्म की किलकारी से शुरू होकर चिता की राख के साथ खत्म नहीं हो जाता क्योकि वो अपनी आखिरी नींद लेने से पहले ही परम-आनंद की अनुभूति कर चुका होता है....और ये आत्मा को तृप्त करने वाला आनंद उसे तब प्राप्त होता है जब दैवी शक्तियों के साथ उसका एकाकार हो जाता है.
किसी भी दिव्य सत्ता को आत्मसात करने के लिए तीन नियम हमेशा एक साधक को याद रखने चाहियें-
१-साधक को अपने आप को अपने इष्ट के चरणों में विसर्जित कर देना चाहिए.
२-उसका संकल्प पक्का होना चाहिए की चाहे पृथ्वी आपना मार्ग बदल दे पर मैं आपने अभीष्ट को पा कर ही रहूँगा.
३-अपने आराध्य के साथ साथ उसका खुद पर भी विशवास होना चाहिए की मैं ये कर सकता हूँ और करूँगा ही.
छिन्नमस्ता माँ की साधना को दसों महाविद्याओं में सबसे श्रेष्ठ माना गया है क्योकि एक तो ये शीघ्र फल देने वाली है और दूसरा ये दो तरह से आपने साधक के शत्रुओं का नाश करती है. अब हम सोचे की ये दो शत्रु कौन है तो-
१-बाहरी शत्रु- जैसे हमारे सब के कोई ना कोई होते ही हैं...
२-मानसिक शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार- ये जितने भी हमारे दुश्मन हो सकते हैं उनमें से सबसे खतरनाक श्रेणी है क्योकि जब ये शत्रुता निकालते है तो विनाश को कोई नहीं टाल सकता....सिर्फ एक पल के लिए मन में मोह आ जाए तो हम हाजारों मील अपने प्रेम से दूर हो जाते हैं और इससे बड़ी शत्रुता और क्या होगी की हमे हमारे लक्ष्य से कोई दूर कर दे.....सदगुरुदेव से प्रेम ही तो हम सब का लक्ष्य होना चाहिए.
इसमें कोई दो-राये नहीं है की ये साधना यदि हमें सिद्ध हो जाए तो हममें असंभव को संभव करने की क्षमता आ जाती है पर एक बात का हमेशा ख्याल रखना चाहिए की ये क्षमता हम में तभी आ पाएगी, हम तभी माँ छिन्नमस्ता को खुद में आत्मसात कर सकेंगे यदि हम वीर भाव के साधक है तो....गिदगिड़ाने से भीख अवश्य मिल सकती है पर उपलब्धि नहीं. उपलब्धि के लिए आँखों में विजय भाव दिखना चाहिए.
माँ छिन्नमस्ता के तीन नाम है-
१- छिन्नमस्ता “ ये साधारण साधको के लिए है”
२- प्रचंड चण्डिका “ ये वीर भाव युक्त साधको के लिए है”
३- छिन्नमस्तिका “ ये दिव्य भाव की साधना है”
और माँ का मस्तक कटा स्वरूप जो हम अक्सर चित्रों में देखते हैं वो माँ का ब्रह्मांडीय स्वरूप है जिसकी एक झलक भी दुर्लभ है.
इन तीनो भावो की साधना के लिए एक ही मंत्र है जिसका जप २१ दिनों तक रोज ११ माला करना होता है. ये रात्कालीन साधना है अर्थात रात को करनी चाहिए जब आपकी चेतना को कोई हिला ना सके, आसन लाल होना चाहिए और आपके वस्त्र भी लाल होने चाहिए. इस मंत्र को लाल हकीक, मूंगा या सांप की हड्डियों से बनी माला से करना चाहिए और दीपक तेल का जलाना चाहिए और आपकी दिशा दक्षिण होगी.
मंत्र-
ओम हुम वज्र वैरोच्नीये हुम फट
साधना शुरू करने से पहले सदगुरुदेव का आशीर्वाद लेना ना भूलें क्योकि हम सब की सफलता उन्ही की प्रसन्नता और आशीर्वाद पे टिकी है.

mangal your married life and home

आपका वैवाहिक जीवन और मंगल गृह

मंगल गृह को लेकर वैवाहिक जीवन मे अनेक प्रकार कि भ्रान्तिया फ़ैलि हुइ है।वर और वधू कि कुंडली मे यदि लग्न, चतुर्थ्, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव मे मंगल हो तो कुण्डली मंगली होती है। यदि वर या वधू कि कुण्डली मे उपर दोष कथित स्थानो मे केवल एक कुण्डली मे दोष होगा तो दुसरा साथी के जीवन के जीवन का भय हो जायेगा। मन्गली दोष को लग्न / चन्द्र तथा शुक्र तीनो स्थानो से देखना चाहिये ऐसा शास्त्रो मे निर्देश है। चुंकि पाञ्च स्थानो मे मंगल के रेह्ने के कुछः दोष होता है अतः यदि तीनो स्थानो (लग्न, चन्द्र, शुक्र) से देखा जाये तो ५ * ३ = १५ स्थानो पर मंगल दोष बनता है।

लग्न चक्र मे १२ भाव ही होते है और मंगल १५ भावो (स्थानो मे दोषपूर्ण है व इसका अर्थ यह होगा कि संसार मे शायद ही ऐसी कोइ कुण्डली मिले जो मंगल दोष से रहित हो। इसी कारण "एसट्रोलोजिकल मेगझिन" के संपादक डा बि वि रमन ने लिखा है कि मांगलि दोष का हौवा न जाने कितने ऐसे विवाह् को जो सुखमय दाम्पत्य जीवन मे परिवर्तित होते, उन्हे नष्ट कर देता है।

महर्षि पाराशर के अनुसार गृहो का शुभाशुभ जानने के दो आधार है।
पेह्ला नैसर्गिक शुभ या अशुभ जैसे शनि, मंगल, राहु इत्यादि नैसर्गिक शुभ गृह है।
दुसरा आधार शुभता तथा अशुभता का भावधिपत्य द्वारा बताया गया है जैसे केन्द्र तथा त्रिकोन के स्वामि शुभ तथा छटे, आठवे, बारह्वे भाव के स्वामि अशुभ होते है। इसका स्पष्ठ अर्थ है कि परिस्थितिवश एक ही गृह चाहे नैसर्गिक या अशुभ ही भावातिपत्य कि परिस्थिति के अनुसार वह शुभ या अशुभ हो जाते है।

अतः वर या कन्या का लग्न क्या है उसके लिये मंगल ग्रह है शुभ या अशुभ यह भूलकर पांच स्थानों में से किसी एक स्थान पर मंगल को देखकर, मंगली दोष कि घोषणा कर देना ज्योतिष के मूलभूत सिद्धातों के अवहेलना तथा ज्योतिष शास्त्र को बदनाम करना है।

तात्पर्य यह कदापि नही है मंगल दाम्पत्य जीवन के लिये हानिकारक नही होता। मंगल के साथ् शनि, राहु, केतु, सूर्य भी हानिकारक होते है। अशुभ भावों के स्वामि होकर बृहस्पति, शुक्र, चन्द्र इत्यादि भी यदि सप्तम भाव मे बैठ जाये तो व भी विघटनकारी होते है। वास्तव मे सप्तम या अष्टम भाव मे अशुभ ग्रह कि स्थिति हानिकारक है और यह ज्योतिष के सिद्धान्त के अनुकूल भी है। यहि कारण है कि दक्षिण भारत के ज्योतिषि वर, कन्या कि कुण्डली मे सप्तम अष्टम 'शुद्धम' को श्रेष्ठ मानते है।

महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन के 'साधन पाद' मे लिखा है ततः विपाको जाती अयुर्भोगाः अर्थात पूर्व जन्म के कर्मो के अनुसार प्राणी कि 'ततः विपाको जाति अयुर्भोगाः' अर्थात पूर्व जन्म के कर्मो के अनुसार प्राणी कि जाति (योनि जैसे मनुष्य योनि, पशु योनि, कीट योनि आदि) आयु और सुख-दुख प्राप्त होते है। ये गर्भ से ही निर्धारित होते है ज्योतिष मे सभी आचार्यो का स्पष्टः निर्देश है कि भविष्य बताने से पेहले आयु का विचार अवश्य कर लिया जाना चाहिये। अगर यह धारणा सही है कि पाति या पत्नी का मंगल एक-दुसरे को मार देता है तो एक समस्या उत्पन्न होगी, यदि कोइ अविवाहित व्यक्ति अपनी आयु के बारे मे जानना चाहे तो क्या ज्योतिषी उस यजमान कि आयु बताने के लिये यह कहेगा कि पेहले शादि कर लो फिर अपनी पत्नी कि कुण्डली लेकर आना तो आयु बतायेंगे?

ज्योतिषियो मे एक विचित्र सिद्धान्त प्रचलित है,वह यह कि यदि वर और कन्या मे से एक कि कुण्डली मंगली है और यदि दुसरे कि भी कुण्डली मे मंगल दोष है तो मांगलि का दोष दूर हो जाता है। यह कौन सा सिद्धान्त है शायद यह बात 'विषस्य विषमौषधम' आयुर्वेद के सिद्धान्त पर गढ ली गयी है। किन्तु आयुर्वेद विज्ञान के सिद्धान्त को ज्योतिष विज्ञान मे लागु करना वैसा ही है जैसे इनजीनियरिंग के सिद्धान्तों को मेदिचाल् साइंस मे थोप्ने का प्रयास।

ज्योतिष एक महाविज्ञान है हार विज्ञान मे जैसे सिद्धान्त होते है वैसे ही ज्योतिष के भी सिद्धान्त है। ज्योतिषीय समीक्षा के समक्ष उन सिद्धान्तों कि अवहेलना कर,मनमानि करने से ज्योतिष विज्ञान नही रुढिवाद हो जायेगा। यहि लांक्षन ज्योतिष पर लग रहा है अतः प्रत्येक विद्वान् ज्योतिषी का कर्तव्य है कि वह ज्योतिष से रुढिवादी लोगों का कोपभाजन बनना पडे। केहने का तात्पर्य यह है कि वर कन्या कि कुण्डली का मेलापक परम् आवश्यक है। मेलापक के अष्टकूट का वैज्ञानिक आधार है इस से वर कन्या का शारीरिक, मानसिक, भौतिक, आध्यात्मिक, संतान संबन्धी तालमेल की समीक्षा हो जाति है। इसके अलावा ग्रहो के आधार पर कन्या के आचरन कि समीक्षा, आयु समीक्षा, संतान भाव कि समीक्षा, क्षेत्र स्फ़ुट और बीज स्फ़ुट की समीक्ष, धन और भाग्य भाव की समीक्षा भी मेलापक मे तिहित है।

Mohini Devi मोहिनी देवी

मोहिनी देवी का अवतार भगवान विष्णु जी ने लिया था !जब शंकर जी ने भ्स्मा सुर को किसी को सिर पर हाथ रख कर भस्म करने की शक्ति प्रदान की तो वोह शंकर जी को कहने लगा के इस वारिदान का कैसे यकीन करू के यह शक्ति मुझ में आ गई है !तो शंकर जी ने कहा के परीक्षण करके देख लो तो उस ने कहा इस वक़्त तो आप ही पास हैं !इस लिए आप पर ही परीक्षण कर के देखता हु शंकर जी समझ गए और वहाँ से भैंसे का रूप धारण कर आगे आगे भागने लगे और एक परबत में टकर मार अपना सिर परबत में छुपा लिया जो के नेपाल जा कर निकला जहां भगवान पशुपति नाथ जी का मंदिर है !और जहां टकर मार के सिर छुपाया उस जगह को केदारनाथ जी के नाम से पुजा जाता है जहां पीठ पुजा होती है !और जब शंकर जी की आँख में अपनी यह साथिति देख आँसू टपक गए तो उन आंसूयों से रुद्राक्ष बृक्ष की उत्पाती हुई तब भगवान विष्णु जी ने मोहिनी अवतार लिया और भस्म सुर से कहाँ अब तो यह मर चुके है चलो इस का सोग मना लेते है फिर मैं तुम से शादी कर लूँगा तो वैन दल कर दोनों हाथो को पहले जंगों पे फिर छाती और अंत में सिर पर मार कर पीटने लगे जैसे आज भी औरते पीटती है तो सियापा (पीटना )वहाँ से शुरू हुया !जब भसमासुर का हाथ सिर पीआर गया तो भस्म हो गया इस तरहा इस अवतार में भगवान विष्णु जी ने शंकर जी को संकट से निकाला !
जब स्मून्दर मंथन के वक्त सूरो और असुरो में जंग होने लगी अमृत पाने के लिए तो भी भगवान इस रूप में आवृत हुए और अमृत का बंटन किया इस लिए मोहिनी एक श्रेष्ट विधा है !इस की ताव तो भगवान शंकर जी भी नहीं सहन कर पाये थे जब श्री भगवान शंकर जी ने मोहिनी रूप देखने की ईशा भगवान विष्णु जी से की तो भगवान ने सुंदर मोहिनी रूप धारा तो शंकर जी अपने आपको रूक नहीं पाये बीर्य पृथ्वी पे गिर गया !पृथ्वी उस की जलन से जलने लगी उस वक़्त अंजना माँ को एक ऋषि का श्राप मिला था के तुम कुमारी माँ बनोगी तो माँ अंजना ने अपने आपको एक बड़े से मटके में बंद कर लिया जिस में उपर एक छेद्ध था तो पवन देव ने उस वीर्य को उठा के व्हा ज्ञ तो आवाज की माँ अंजना उस छेद्ध में कान लगा कर सुनने लगी तो पवन देव ने उस वीर्य को उस छेद्ध के जरिए प्रवेश क्र दिया जिस से हनुमान जी का जन्म हुया और जेबी उन हाथो को गोबर में साफ किया तो उस में गुरु गोरख नाथ जी की उतपती बताई जाती है !यह कथा मैंने कुश सन्यासी लोगो से सुनी थी जो नाथ संपर्दय के थे ! इस लिए मोहनी अवतार श्रेष्ट है इस की साधना भी श्रेष्ठ है

Mysterious power of Mantra 1मंत्र शक्ति गूढ़ार्थ १

मंत्र शक्ति गूढ़ार्थ १
“शून्य” एक ऐसी सत्ता है जिसमें यदि पूरा ब्रह्मांड भी विलीन हो जाए तो उसे रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ेगा....पता है क्यों?? क्योकि ये एकमात्र ऐसी आधारभूत शक्ति है जिसके ना होने से पीछे कुछ बचेगा ही नहीं क्योकि अंत के लिए आरम्भ आवश्यक है. इसी तरह हमारे शास्त्रों में वर्णित मंत्रो का महत्व है....वो भी बिलकुल शून्य की तरह है. आप मंत्र को कैसे उपयोग कर रहे हो इससे मंत्र सत्ता को कोई फर्क नहीं पड़ता पर हाँ हमें इस बात से फर्क जरूर पड़ता है की वो मंत्र हमारे लिए कैसी स्थिति उत्पन्न कर रहे है या कर सकते है क्योकि हम जानते है की मंत्र शिव और शक्ति का मिलन है जो प्रतीक है उत्थान का और विध्वंस का भी .....
शिव और शक्ति की तरह मंत्र और सिद्धी भी एक साथ जुड़े हुए हैं....इसिलए यदि सिद्धी चाहिए तो इनसे जुड़े कुछ नियमों का पालन करना ही पड़ेगा क्योकि इनकी शक्ति अतुलनीय होती है. पिछले अंक में हमने जाना था कि मंत्र होते क्या है...इन्हें शक्ति कहाँ से प्राप्त होती है....उनका उच्चारण गोपन होना चाहिए या स्फुट. आज हम देखेंगे कि वेदोक्त और साबर मंत्रो को करने की विधि क्या होती है....और इनको करते समय किन तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है.
किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी भाव-भूमि का होना अति अनिवार्य है...क्योकि भाव से कल्पना जन्म लेती है और कल्पना से सच्चाई. ठीक इसी तरह किसी भी मंत्र को करने से पहले आपके भाव स्पष्ट होने चाहिए. श्मसान में यदि साधना के लिए बैठना है तो खुद मृत्यु बनना पड़ेगा तभी विजय हमारा वरण करेगी. ऐसी ही स्थिति होती है जब हम साबर मंत्रो को सिद्ध करने के लिए साधनारत होते है क्योकि इन मंत्रो को सिद्ध करना तलवार की धार पर चलने के समान है. जितनी सच्चाई इस बात में है कि ये मंत्र बहुत जल्दी सिद्ध होते है उतना ही बड़ा सच ये है कि किंचित मात्र भी यदि कहीं कोई त्रुटि रह गई तो.......तो खेल खत्म.
इसीलिए यदि आप पूरी तरह इनके प्रयोग के लिए सुनिश्चित नहीं हो तो इनका परीक्षण कभी ना करें और यदि कर रहे हो तो आपमें धैर्य होना अति आवश्य है.....तेज़ी आपके लिए हानिकारक हो सकती है. साबर मंत्रो में वाम मार्गी साधना का बहुत महत्व है पर वेदोक्त मंत्रो की तरह इनमें मांस और मदिरा का प्रयोग वर्जित है.....और एक और खास बात जहाँ साबर मंत्र सिद्ध किये जाए वहाँ वेदोक्त मंत्र कभी सिद्ध नहीं करने चाहिए. दोनों के लिए अलग अलग स्थान का चयन करना चाहिय क्योकि वेदोक्त मंत्रो के साथ साबर मंत्र कभी सिद्ध नहीं होते और कभी कभी तो विपरीत उर्जा के घर्षण से परिणाम विपरीत हो सकता है.
इसलिए इन मंत्रो को पुस्तकों से प्राप्त कर सिद्ध नहीं किया जा सकता.....इसके लिए आवश्कता होती है योग्य गुरु की क्योकि साधना का मार्ग कोई आसान मार्ग नहीं है.....इसमें बीच का कुछ नहीं होता ......या तो इस पार या उस पार.

मंत्र शक्ति गूढ़ार्थ
हमारे द्वारा बोले गये हर शब्द की अपनी एक सत्ता होती है क्योकि शब्द ब्रह्म होते है और ब्रह्म अटल होता है. जैसे एक एक वर्ण के सुमेल से एक निश्चित अर्थपूर्ण स्थति जन्म लेती है वैसे ही एक एक वर्ण के शिव और शक्ति के स्वरूप में मिलन से उत्पन होते हैं “ मंत्र “ जिनमें हमारे जीवन को बदलने की क्षमता होती है क्योकि मंत्र मात्र शब्दों की एक श्रंखला को नहीं कहते......इनमें प्राण ऊर्जा होती है क्योकि ये शिव,शक्ति और अणुओं के संयोजन से बनते हैं ,जो की आधार हैं सृजन और संहार का, इसी वजह से इनमें भोग और मोक्ष दोनों देने की क्षमता होती है.
अब प्रश्न आता है की मंत्रो का रूप कैसा होता है? ये आकारात्म्क होते हैं या निराकार? और कार्य को करने की शक्ति इन्हें कहाँ से प्राप्त होती है? तो सदगुरुदेव ने इन् प्रश्नों का उत्तर बहुत ही सरल भाषा में समझाया है की देह मलीनता युक्त होती है इसलिए दिव्यता इसमें वास नहीं कर सकती अब चूँकि मंत्र देव भूमि से संबंधित होते है तो ये आकार रहित होते हैं और इन्हें शक्ति मिलती है हमारे अन्तश्चेतन मन से क्योकि आसन पर बैठते ही साधक साधरण से खास और मनुष्य से देव और अंत में शव से शिव बन जाता है इसलिए जैसे ही साधक अपनी साधना प्रारम्भ करता है तो उसकी अन्तश्चेतना से एकाकार करके मंत्र प्राणमय हो जाता है.
पर इस बात को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए की हर किसी में अन्तश्चेतना एक जैसे जाग्रत नहीं होती. किसी में इसका स्तर कम होता है, किसी में ज्यादा तो किसी में ना के बराबर. तो क्या इसका अर्थ ये हुआ की जिसकी अन्तश्चेतना कम जाग्रत है वो मंत्र को प्राण ऊर्जा दे ही नहीं सकता?......नहीं, ऐसा नहीं है पर इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें मंत्रो की किस्मों और उच्चारण की विधि को समझना होगा. मंत्र आम तोर पर तीन किस्म के होते हैं –
वेदोक्त मंत्र, सर्वविदित मंत्र, और साबर मंत्र........पर इनमें से पहले और तीसरे क्रम को ज्यादा महत्व दिया जाता है. अब क्योकि साबर मंत्र “ मंत्र और तंत्र “ से मिलकर बनते है तो इन्हें सिद्ध करना आसान होता है पर इसके बिलकुल विपरीत वेदोक्त मंत्रो को सिद्ध करने के लिए साधक में धैर्य और विश्वास का होना अति आवश्यक है क्योकि इन मंत्रो का आधार ध्वनि होती है. उच्चारण ध्वनि में लेशमात्र भेदभाव इन्हें अर्थहीन बना देता है. इसीलिए इनमें ध्वनि के महत्व को समझते हुए हमारे ऋषिमुनियों ने ध्वनि के आधार पर इन मंत्रो को दो भागो में बांटा है- “गोपन मंत्र” अर्थात चित युक्त मंत्र और “स्फुट मंत्र” मतलब ध्वनि युक्त मंत्र. चित युक्त मंत्रो में साधक को मंत्र का उच्चारण मन ही मन में करना चाहिए पर ध्यान रखिये इसके लिए आपकी अन्तश्चेतना का पूरी तरह से जाग्रत होना अति आवश्यक है जिससे की आपकी आत्मा आपके मंत्र को सुन पाए. इसके उल्ट स्फुट मंत्रो में मंत्र का उच्चारण ध्वनि के साथ किया जाता है ताकि हम अपनी अंतर आत्मा के साथ मंत्र का सामंजस्य बिठा सकें और वो मंत्र हमें सिद्ध हो सके. इसीलिए ये जरूरी है की मंत्र हमेशा सदगुरुदेव से ही प्राप्त करना चाहिए जिससे की उसको विधिपूर्वक सिद्ध करके लाभ लिया जा सके

Happy new Year 2012

नव वर्ष पर आप सभी गुरुभाई और गुरुबहिनो को हार्दिक मंगलकामनायें....

!! श्री गुरु चरण कमलेभ्यो नमः !!
जय गुरुदेव!

आइये करे गुरु की खोज.....

जो हम ही में, हमारे हृदय में हैं.....

जिन खोजा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ...

आज शायद लोगो के लिए गुरु शब्द का अर्थ सिर्फ एक संत हो गया हैं. मगर गुरु की वास्तविकता तभी ही समझी जा सकती हैं, जब उस गुरु की शिष्यता में आकंठ डूब जाए. सब छोड़ कर गुरु ही याद रहे. मुझे सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी की इस सन्दर्भ में कुछ लाइने याद आती हैं....
जब गुरु गोरखनाथ से पहली बार उसके गुरु ने पूछा कि:
गुरु : "आपका काम क्या हैं?"
गोरखनाथ : "गुरु सेवा"
गुरु : "आपका नाम क्या हैं?"
गोरखनाथ : "शिष्य"

उन्होंने हर वो बात कहीं जो सिर्फ गुरु और शिष्य के रिश्ते पर आधारित होती थी.
मतलब वे गुरु के रंग में ही रंग गए थे, सब कुछ छोड़कर.

यह ही सदगुरुदेव का भी कहना हैं.... : "जो सब कुछ छोड़ सकता हैं, वही ही गुरु को पा सकता हैं."

और जो उसमें डूब जायेगा उसे पता होगा कि गुरु क्या हैं? कैसे हैं? क्या कर रहे हैं?

हकीकत तभी जानी जा सकती हैं जब उनके प्रेम में मीरा बन सकेंगे.

क्यूंकि समंदर की गहराई तो वही ही जान सकता हैं, जो समंदर में डुबकी लगा सकें.
जो गुरु के प्रेम में आकंठ नहीं डूबा वह नहीं जान सकता हैं.

तो सदगुरुदेव हम सभी को श्रेष्ठ बुद्धि दे कि हम सभी उनमें डूबता ही चले जायें.

क्यूंकि यही जिंदगी कि सबसे बड़ी सच्चाई होगी.

नव वर्ष पर आप सभी गुरुभाई और गुरुबहिनो को हार्दिक मंगलकामनायें....

आओ बनाये निखिल्मय, सिद्धाश्रम्मय इस जहाँ को.....Happy new Year 2012

Pupil guru the same way love used to love the way Shiva Markandeya

शिष्य गुरु से उसी प्रकार प्रेम करता है जिस प्रकार मार्कंडेय शिव से प्रेम करते थे | साधना का अर्थ ही है प्रेम ,आपने इष्ट से ,आपने गुरु से और उस प्रेम को व्यक्त करने की क्रिया में काल समय भी बाधक नहीं हो सकता ,ऐसा मार्कंडेय ने सिद्ध करके दिखा दिया |ऐसा ही प्रेम शिष्य का गुरु से हो |

शिष्य और गुरु के बीच में थोड़ी भी दूरी न हो | इतना शिष्य गुरु से एकाकार हो जाए कि कि फिर मुह से गुरु नाम या गुरु मंत्र का उच्चारण करना ही न पड़े | जिस प्रकार राधा के रोम-रोम में हमेशा कृष्ण -कृष्ण उच्चारित होता रहता था ,उसी प्रकार शिष्य के रोम-रोम से गुरु मंत्र उच्चारित होता रहे -सोते ,जागते ,चलते ,फिरते |

शिष्य को स्मरण रहे कि सदगुरुदेव सदा उसकी रक्षा के लिए तत्पर है |कोई क्षण नहीं जब सद्गुरु उसका ख़याल न रखते हो | जिस प्रकार हिरन्यकश्यप के लाख कुचक्रो के बाद भी प्रल्हाद का बाल भी बांका नहीं हुआ ,उसी प्रकार शिष्य के आस्था है तो कोई भी शक्ति उसका अहित नहीं कर सकती

संसार में सबकुछ क्षणभंगुर हैं ,सबकुछ नाशवान है केवल प्रेम ही शाश्वत है जो मरता नहीं जो जलता नहीं जो समाप्त नहीं होता |
जिसने प्रेम नहीं क्या उसका हृदय कमल विकसित हो ही नहीं सकता वह साधना कर ही नहीं सकता क्योंकि प्रेम ही जीवन का आधार है |
पर तुम्हारा प्रेम ,प्रेम नहीं ,वासना है ,क्षुद्रता है ,ओछापन है और फिर प्रेम शरीरगत नहीं आत्मगत होता है|
क्योंकि आत्मगत प्रेम ही प्रेम की पूर्णता ,सर्वोच्चता और श्रेष्ठता दे सकता है और ऐसा प्रेम सिर्फ गुरु से ही हो सकता है |
क्योंकि उसका और तुम्हारा सम्बन्ध शरीरगत नहीं विशुद्ध आत्मगत है |
यही साधना का पहला सोपान है |

गुरु और तुम में यही अंतर है की तुम हर हालत में दुखी होते हो जबकि गुरु को सुख दुःख दोनों ही व्याप्त नहीं होते ,वह दोनों से परे है और तुम्हे भी उस उच्चतम स्थिति पर ले जाकर खड़ा कर सकता है जहा दुःख ,पीडा तुम को प्रभावित कर ही न सके |

आप अपने को धन और वैभव पाकर सुखी मानने लगते है क्योंकि अभी आपने वास्तविक सुख को देखा ही नहीं |इन सुखो के पीछे भागकर आप अंत में दुःख ही पाते है |भोग से दुःख ही पैदा हो सकता है जबकि गुरु तुम्हे उस सुख से परिचित करना चाहता है जी आंतरिक है जो स्थायी है |

तुम सोचते हो की शादी करके सुखी होंगे या धन प्राप्त करके सुखी होंगे |सुख तो उसी क्षण पर संभव है वह धन पर निर्भर नहीं है |वह वास्तविक आनंद तुमने नहीं देखा इसलिए तुम धन को ही सुख मान बैठे हो जबकि उससे केवल दुःख ही प्राप्त होता है |

वास्तविक सुख तुम्हे तभी प्राप्त हो सकता है जब तुम अपने आप को पूर्ण रूप से गुरु में समाहित कर दोगे और वह हो गया तो फिर तुम्हारे जीवन में कोई अभाव रह ही नहीं सकता ,धन तो एक छोटी सी चीज है |पूर्णता तक तुम्हे कोई पहुंचा सकता है तो वह केवल गुरु है |

गुरु के सामने सभी देवी -देवता हाथ बांधे खड़े रहते है वह चाहे तो क्षण मात्र में तुम्हारे सभी कष्टों को दूर कर दे |??तो करता क्यों नहीं ?गुरु तो हर क्षण तैयार है तुममें ही समर्पण की कमी है ,जिस क्षण गुरु को तुमने अपने हृदय में स्थापित कर लिया उस क्षण से दुःख तुम्हारे जीवन में प्रवेश कर ही नहीं सकता |


तुम्हारा गुरुदेव,
नारायण दत्त श्रीमाली

Thursday, December 22, 2011