Friday, April 25, 2014

Meet and would miss the compulsion of life


मिलना और बिछुड़ना दोनों जीवन की मजबूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
शाखों से फूलों की बिछुड़न, फूलों से पंखुड़ियों की
आँखों से आँसू की बिछुड़न, होंठों से बाँसुरियों की
तट से नव लहरों की बिछुड़न, पनघट से गागरियों की
सागर से बादल की बिछुड़न, बादल से बीजुरियों की
जंगल जंगल भटकेगा ही जिस मृग पर कस्तूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
सुबह हुए तो मिले रात-दिन.. माना रोज बिछुड़ते हैं
धरती पर आते हैं पंछी.. चाहे ऊँचा उड़ते हैं
सीधे सादे रस्ते भी तो ..कहीं कहीं पर मुड़ते हैं
अगर हृदय में प्यार रहे तो..टूट टूटकर जुड़ते हैं
हमने देखा है बिछुड़ों को मिलना बहुत जरूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
hirendra jay sadgurudev

Must ask you this coming time


  • आने वाला समय तुमसे ये अवश्य पूछेगा Must ask you this coming time


    जीवन में ऊंचा उठना हैं और यदि नहीं उठते हैं तो यह जीवन व्यर्थ हैं, क्योंकि ऊंची सीढ़ी पर चढ़ना बहुत कठिन हैं, नीचे फिसलना बहुत आसान हैं ! दस सीढियों से नीचे उतरने में एक सेकंड लगता हैं, परन्तु दस सीढ़ी चढ़ने में आपको बीस सेकंड लगेंगे ! एक-एक सीढ़ी चढ़नी पड़ेगी, आपको नित्य बार-बार सोचना पड़ेगा कि :-



    मैं शिष्य बन रहा हूँ या नहीं बन रहा हूँ ! क्या मेरे अन्दर राक्षस वृत्ति पनप रही हैं या सदगुणों का विकास हो रहा हैं? मेरा जीवन कैसा व्यतीत हो रहा हैं – अपने आप में विश्लेषण करना जीवन की श्रेष्ठता हैं, महानता हैं, और यह वह व्यक्ति कर सकता हैं, जो अपने आप में बिल्कुल शिष्यवत बनकर गुरु के पास रहने का सामर्थ्य रखता हैं, और शंकराचार्य कहते हैं, ऐसे ही व्यक्ति गुलाब के फूल बनते हैं, जो सही अर्थों में गुरु के लिए अपने आपको समर्पित कर देते हैं !


    शंकराचार्य कहते हैं जीवन का श्रेष्ठतम शब्द “शिष्य” हैं और शिष्य वह होता हैं जो अपनी जान को हथेली पर लेकर चलता हैं ! दो तरह के व्यक्ति होते हैं – एक व्यक्ति सदगुणों का आगार होता हैं, भंडार होता हैं, एक व्यक्ति षडयंत्र का भंडार होता हैं ! जो कि चौबीसों घंटे यही सोचता कि मैं कैसे छल करूँ? कैसे झूठ बोलूं? कैसे प्रपंच रचूं, कैसे इनको फुसलाऊं? कैसे इनमें फ़ुट डालूं? कैसे इन दोनों को लडाऊं? कैसे अपने आप को श्रेष्ठ सिद्ध करूँ?


    परन्तु शिष्य के चित्त पर इन सबका प्रभाव नहीं पड़ता, वे समझते हैं कि मैं क्या हूँ ! जो सही अर्थों में शिष्य हैं और जिनके अन्दर सदगुण हैं, वे असदगुणों को तुंरत भांप लेते हैं, जो गुलाब के फूलों के बीच रहते हैं, जब थोडी सी भी नाली कि दुर्गन्ध आती हैं तो वे भांप लेते हैं कि यहाँ दुर्गन्ध हैं, कहाँ से नाली बह रही हैं, यह मालूम नहीं, पर दुर्गन्ध हैं अवश्य, और उन्हें एहसास होता हैं कि उन्हें दुर्गन्ध से दूर हट जाना हैं !


    ऐसा शिष्य या तो किनारा करके खड़ा हो जाता हैं या फिर उस सुगंध में स्वयं को व्याप्त करने के लिए तैयार हो जाता हैं ! मगर वह नाली का कीडा नहीं बनता, और नाली का कीडा बनकर हज़ार साल भी जीवित रहने की अपेक्षा दो दिन जीवित रहना ज्यादा अच्छा हैं ! वह अपने गुरु की रक्षा करने के लिए उनकी आज्ञा पालन करने के लिए, अपने जीवन को भी आत्मोत्सर्ग करने के लिए, वह तैयार रहता हैं – यही जीवन की श्रेष्ठता का एक मापदंड हैं !


    यदि हमने गुरु के लिए अपने आप को न्यौछावर ही नहीं किया, तो जीवन व्यर्थ हैं ! जीवन में एक तरफ ऐसे व्यक्ति हैं जो गुरु हैं और जीवन में गुलाब के फूल तो चार पॉँच ही खिलेंगे और यदि चार पॉँच फूल भी टूट गए तो फिर कांटे ही जीवन में रह जायेंगे ! जहाँ भी जाओगे, तुम्हें कांटे ही मिलेंगे ! उन काँटों के बीच जीवित नहीं रहना हैं, क्योंकि अगर उन फूलों को जीवित रखना हैं तो उन काँटों को तोड़ना ही पड़ेगा, उन काँटों को तोडेंगे तो फूल विकसित होंगे, आसपास की घास खोदेंगे तो फूल का विकास होगा !


    और हमने जीवन में काँटों का विकास किया, या फूलों का विकास किया, काँटों की रक्षा के लिए अपने क्षणों को व्यतीत किया या फूलों की रक्षा के लिए अपने क्षणों को व्यतीत किया, यह चिंतन का विषय हैं ! हमने अपने जीवन के कितने क्षण उस गुरु को दिए? कितना समय उनके लिए दिया? किस प्रकार से उनको बचाया? किस प्रकार से उनकी सेवा की, यह जीवन का एक उच्च स्तरीय सोपान हैं ! यह जीवन का एक उच्च स्तरीय मापदंड हैं, अपने आपको नापने की एक क्रिया हैं, और यही स्थिति शिष्यता कहलाती हैं ! शिष्य शब्द से ही सेवा शब्द बना हैं और सेवा का मतलब हैं उन गुलाब के फूलों को विकसित करने में सहयोग देना और सहयोग देने के लिए तूफ़ान आंधी के बीच में तन कर के खड़े हो जाना, क्योंकि अगर वे ही गिर गए तो चारों तरफ़ नाली के कीड़े बहने लग जायेंगे ! फिर हमारा जीवन अपने आप में व्यर्थ हो जाएगा, फिर हमारे जीवन का कोई अर्थ नहीं रह पायेगा !


    मैंने तो सैकडों प्रकार के जीवन जीये हैं, गृहस्थ शिष्यों के बीच में भी रहा हूँ, सन्यासी शिष्यों के बीच भी रहा हूँ ! सन्यासियों में भी कई हलके स्तर के भी होंगे, कुछ बहुत अच्छे स्तर के भी हैं, जिनके नाम आज भी मेरे चित्त पर बहुत गहरी स्याही से लिखे हैं और और आज भी मैं उनके संपर्क में हूँ !


    कृष्ण के भी तीर लगा तो उनको भी खून निकला ही निकला, राम को भी अगर रावण के तीर लगे तो उनके शरीर में भी कम से कम 108 छेद हो ही गए थे ! वह तो एक शरीर हैं, उस शरीर के अन्दर ईश्वरत्व हैं, उस शरीर के अन्दर गुरुत्व हैं, उस शरीर के अन्दर शिष्यत्व हैं !


    आपने अपना जीवन किस तरीके से व्यतीत किया हैं और गुरु ने अपना जीवन किस तरीके से व्यतीत किया यह महत्वपूर्ण हैं ! क्या गुरु तुम्हारे बराबर सहयोगी रहे? क्या गुरु तुम्हें बार-बार प्रेम से बोलते रहे? क्या गुरु ने तुम्हें कभी गालियाँ दी? क्या गुरु ने तुमसे कभी षड़यंत्र किया? नहीं किया! तो तुम्हें भी कोई अधिकार नहीं हैं कि उनके प्रति षडयंत्र करें, उनके प्रति झूठ बोलें, या उनके प्रति छल करें, उनके प्रति तूफ़ान को आने दें ! गुरु को मानसिक शांति मिले, यही हमारा धर्म काल गणना हो ! इसलिए शंकराचार्य कहते हैं कि जन्म से लेकर मृत्यु तक चाहे आप व्यापारी हैं, चाहे नौकरी पेशा हैं, चाहे आप किसी भी क्षेत्र में हैं, आप शिष्य हैं !


    मृत्यु के क्षण तक भी शिष्य हैं, शिष्य का अर्थ हैं कि आप क्या जीवन में सीख रहे हैं? आप क्या कर रहे हैं और आप किसके लिए क्या कर रहे हैं? क्या अपने लिए? हमने दूसरों के लिए क्या किया वह महत्वपूर्ण हैं !


    अपने आपको बलिदान नहीं कर दिया तो शिष्य कैसे हुए? आगे भी चाहे गुरु तुम्हारे पास नहीं होगा, परन्तु वह सुगंध तुम्हारे पास व्याप्त होगी कि हमने कुछ क्षण ऐसे व्यक्ति के साथ बिताये हैं जिनमें ज्ञान था, चेतना थी, जो सही अर्थों में व्यक्तित्व था, मगर जिसे तूफानों के बीच धकेल दिया हमने !


    और तूफ़ान के बीच तो अच्छे से अच्छा गुलाब भी मुरझाकर के टूटकर गिर जाता हैं, अच्छे से अच्छा राम भी बाणों का शिकार होकर गिर जाता हैं, अच्छे से अच्छा कृष्ण भी एक तीर लगने से मृत्यु को प्राप्त हो जाता हैं, लेकिन – नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि… ! !


    शंकराचार्य ने इस श्लोक में दूसरा शब्द लिया हैं प्रेम ! कि जिसके हृदय में प्रेम हैं वह गलती कर ही नहीं सकता ! और प्रेम केवल एक के साथ ही हो सकता हैं, दस लोगों के साथ नहीं हो सकता ! दस के साथ सहानुभूति हो सकती हैं, दस लोगों के साथ अटैचमेंट हो सकता हैं, चालीस लोगों के साथ परिचय आपका हो सकता हैं, प्रेम नहीं हो सकता ! प्रेम तो केवल एक व्यक्ति से होगा – या तो ईश्वर से होगा या गुरु से होगा या किसी से भी होगा और जिसके प्रति प्रेम हैं उसके प्रति जान न्यौछावर होती हैं ! भक्त अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर देता हैं !


    आपका प्रेम केवल एक के साथ हो सकता हैं – या तो काँटों के साथ हो सकता हैं या गुलाब के फूलों के साथ हो सकता हैं ! दोनों से एक साथ नहीं हो सकता ! यह आप पर निर्भर हैं कि आप काँटों के साथ प्रेम करते कि आप गुलाब के साथ प्रेम करते हैं ! मगर शंकराचार्य कहते हैं कि अपने जीवन को उच्चता तक पहुचाने के लिए आपको इसी क्षण से परिवर्तित होना पड़ेगा या तो आप नीचे धरातल पर चले जायेंगे, या फिर ऊंचाई पर चले जायेंगे ! यह फिर आपके हाथ में हैं या तो आप षडयंत्रकारी बन जायेंगे या गुलाब के फूल बन जायेंगे या तो कांटे बन जायेंगे !


    यह अपने आप में भगवान को धोखा देने की क्रिया हैं, अपने आप को धोखा देने की क्रिया हैं ! यदि आपके शरीर में सुगंध हैं आप में यदि प्रेम हैं तो आप वास्तव में उच्चता पर स्थित हैं ! प्रेम का अर्थ हैं अपने आप को मिटा देने की, फ़ना कर देने की क्रिया, उसके लिए अपने आपको न्यौछावर कर देने की क्रिया, तिल-तिल कर के जल जाने की क्रिया ! यदि ऐसा हैं तो जीवन की सार्थकता हैं !


    इतिहास नहीं क्षमा करेगा, फिर तुम्हारे जीवन का अर्थ क्या रहेगा? यदि तुम्हारे जीवन का मूल्य क्या रहेगा? फिर तुम शिष्य कैसे बनोगे? शिष्य वह तो हैं ही नहीं कि दीक्षा दी वही शिष्य हैं ! यह तो जन्म से लगाकर के मृत्यु तक की सारी क्रिया शिष्यता हैं, आप सीढियों पर चढ़ रहे हैं या उतर रहे हैं – यह शिष्यता हैं, आप तूफानों से टक्कर ले रहे हैं या तूफानों का शिकार हो रहे हैं – यह शिष्यता हैं, आप मन्दिर को गिरता देख रहे हैं या मन्दिर को बचाने में तत्पर हैं, यह शिष्यता हैं ! आपने गिरजाघर को गिरने दिया या बचाया, आपने गुरुद्वारे को समाप्त किया या बचाया, यह शिष्यता हैं !


    और गुरु की पहिचान तो अपने आप में मन की आंखों से ही सम्भव हैं ! अगर प्रेम का अंकुर फुटा ही नहीं, तो आपने गुरु को पहचाना ही नहीं ! पहचान ले जिससे प्रेम का वह अंकुर तेजी से बढ़ने लगे क्योंकि तुम्हारे अन्दर प्रेम हैं तो परन्तु तुमने उसे जागने नहीं दिया हैं ! इसलिए जागने नहीं दिया कि उसके ऊपर घृणा, बहार की हवा, तूफ़ान हावी हो गए ! तुम भाग बन गए उसके, और उस प्रेम को तुमने दबा दिया ! ज्योंही अंधेरे को हटाया, छल को हटाया तो प्रेम का अंकुर फूटा, फूटा और तुम्हारा चेहरा मुस्कराहट से खिल गया, तुम्हारे शरीर से सुगंध निकलने लगी, तुम्हारा शरीर सुगन्धित, सुवासित होने लगा, एक महक आने लगी, एक आंखों में सुरूर पैदा हुआ, एक जिंदगी की धड़कन पैदा हुयी और उसकी रक्षा के लिए अपने आप को तैयार कर दिया, उसके लिए अपने आपको न्यौछावर कर दिया, उसके लिए अपने आपको आत्मोत्सर्ग कर दिया !


    आपने क्या दिया, यह आपका अपना गणित हैं ! मैं आशीर्वाद देता हूँ कि आपके हृदय में प्रेम का अंकुर फूटे, आप किसी की ढाल बन सकें, आपके मन में जो घृणा दूसरो ने भर दी हैं, जो षडयंत्र, डर, भय, आतंक हैं उनको आप हटा कर निर्भीक हों ! आप निर्भीक है तो जीवित हैं, जाग्रत हैं, डरे हुए हैं तो आप अधम, गये बीते हैं ! जब भय रहित होंगे तब प्रेम व्याप्त हो पायेगा ! ऐसे ही आप भय रहित, निर्भय होकर के अपने अन्दर के गुलाब को, प्रेम को विकसित करें और आप आत्मोत्सर्ग हो सकें और एक ज्ञान के दीप को, एक गुलाब के फूल को जीवित, जाग्रत, चैतन्य बनाएं रख सकें, जिससे कि वह सुगंध चारों तरफ फ़ैल सकें ! यही आपके जीवन की क्रिया बने, ऐसे ही मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूँ, कल्याण कामना करता हूँ !


    गुरु वाणी, परमपूज्य गुरुदेव निखिलेश्वरानंद, Mantra Tantra Yantra Vigyan by Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji

Hirendra Pratap Singh


जीवन में तुम्हें रुकना नहीं है, निरंतर आगे बढ़ना है क्यूंकि जो साहसी होते हैं, जो दृढ़ निश्चयी होते हैं जिनके प्राणों में गुरुत्व का अंश होता है, वही आगे बढ़ सकता है.. और इस आगे बढ़ने में जो आनंद है, जो तृप्ति है, वह जीवन का सौभाग्य है.

***

गृहस्थ से भागने की जरुरत नहीं है, जरुरत है, एक तरफ खड़े होकर देखने की, तुम्हारी एक आँख गृहस्थ में हो, तो दूसरी आँख गुरु चरणों में नमन युक्त होनी चाहिए. तब तुम्हारे जीवन में कोई न्यूनता रहेगी ही नहीं क्यूंकि वह नमन युक्त आँख तुम्हारे जीवन को पूरी तरह से संवार देगी, सजग कर देगी, प्रकाशित कर देगी.

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उन सन्यासी शिष्यों ने मेरे आनंद का अमृत चखा है, और इसलिए वो मेरी उपस्थिति के बिना भी मस्त हैं, चैतन्य हैं, नृत्य युक्त हैं, और मैं वही अमृत बांटने आया हूँ, तुम इस अमृत को तृप्ति के साथ चखो, और तुम्हें एहसास होगा की तुम्हारा जीवन संवर गया है, तुम्हारा जीवन जगमगाहट देने लगा है.
***
पिछले जीवन में तुम्ही तो थे, जो मुझसे अलग हुए थे, मैं तुम्हें आवाज़ दे रहा था और तुम नकली स्वप्नों के पीछे पीठ मोड़कर भाग रहे थे, और तुमने अपने कान मेरी आवाज़ सुनने के लिए बंद कर दिए थे, और उसी का परिणाम तुम्हारी ये चिंताएं हैं, ये परेशानियाँ हैं, ये जीवन की बाधाएं हैं.


***


तुम्हें जीवन में कुछ भी विचार करने की जरुरत नहीं है, क्यूंकि मैं प्रतिक्षण प्रतिपल तुम्हारे साथ हूँ, मुझे मालुम है की तुम्हें किस लक्ष्य तक पहुँचाना है, तुम्हें तो चुपचाप अपना हाथ मुझे सौंप देना है आगे का कार्य तो मेरा है.


***


तुम्हें साधना के और सिद्धियों के मोती नहीं मिल रहे हैं, तो यह कसूर तो तुम्हारा ही है, क्यूंकि तुम्हें समुद्र में गहरायी के साथ उतरने की क्रिया नहीं आई, तुममे पूर्ण रूप से डूबने का भाव नहीं आया, गुरु के ह्रदय सागर में निश्चिंत होकर दुबकी लगाने की क्षमता नहीं आई, और जिस दिन तुम गहराई के साथ गुरु के ह्रदय में डूब सकोगे, तब वापिस बाहर आते समय तुम्हारी दोनों हथेलियाँ “सिद्धि” के मोतियों से भरी होंगी.


***


शिष्य का तात्पर्य नजदीक आना है, और ज्यादा नजदीक, इतना नजदीक, कि गुरु के प्राणों में समा जाये, एकाकार हो जाये, गुरु की धड़कनों में अपनी धडकनें मिला ले, और जब ऐसा होगा तो तुम्हारे अन्दर स्वतः गुरुत्व प्रारम्भ हो जायेगा, स्वतः दिव्यत्व प्रारम्भ हो जाएगा, और स्वतः सिद्धियाँ तुम्हारे सामने नृत्य करती सी प्रतीत होंगी.


".पहाड़ चढ़ने का एक उसूल है....झुक के चलो , दौड़ो मत ..... ज़िंदगी भी बस इतना ही मांगती है......... "ठोकरे खा कर भी ना संभले तो, मुसाफिर का नसीब। वरना पत्थरों ने तो, अपना फ़र्ज़ निभा दिया।

" तेरा इंतजार, किसी मुकदमें से कम नहीं... हर बार नई तारीख मिलती हो जैसे ========== ना डूबने देता है, ना उबरने देता है, उसकी आँखों का वो समंदर अजीब है... ..! "
  1. खुशियां कम और अरमान बहुत हैं, जिसे भी देखिए यहां हैरान बहुत हैं,, 
  2. करीब से देखा तो है रेत का घर, दूर से मगर उनकी शान बहुत हैं,, 
  3. कहते हैं सच का कोई सानी नहीं, आज तो झूठ की आन-बान बहुत हैं,, 
  4. मुश्किल से मिलता है शहर में आदमी, यूं तो कहने को इन्सान बहुत हैं,, 
  5. तुम शौक से चलो राहें-वफा लेकिन, जरा संभल के चलना तूफान बहुत हैं,, 
  6. वक्त पे न पहचाने कोई ये अलग बात, वैसे तो शहर में अपनी पहचान बहुत हैं।।। 

"कभी किसी दूसरे की मुस्कान की वजह भी बन कर देखें, ज़िन्दगी में कभी निराशा और उदासी आपके आस पास भी नहीं आ पाएगी.. "

Saturday, April 19, 2014

tantrot guru pojan nikhil jan utsav sadhana

‎-- तांत्रोक्त गुरु पूजन --निखिल जन्म उत्सव साधना

इस साधना के लिए प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर, स्नानादि करके, पीले या सफ़ेद आसन पर पूर्वाभिमुखी होकर बैठें| बाजोट पर पीला कपड़ा बिछा कर उसपर केसर से “ॐ” लिखी ताम्बे या स्टील की प्लेट रखें| उस पर पंचामृत से स्नान कराके “गुरु यन्त्र” व “कुण्डलिनी जागरण यन्त्र” रखें| सामने गुरु चित्र भी रख लें| अब पूजन प्रारंभ करें|

-- पवित्रीकरण --

बायें हाथ में जल लेकर दायें हाथ की उंगलियों से स्वतः पर छिड़कें -

ॐ अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोऽपि वा |यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ||

-- आचमन --

निम्न मंत्रों को पढ़ आचमनी से तीन बार जल पियें -

ॐ आत्म तत्त्वं शोधयामि स्वाहा |
ॐ ज्ञान तत्त्वं शोधयामि स्वाहा |
ॐ विद्या तत्त्वं शोधयामि स्वाहा |

१ माला जाप करे अनुभव करे हमरे पाप दोस समाप्त हो रहे है। .

ॐ ह्रौं मम समस्त दोषान निवारय ह्रौं फट
संकल्प ले फिर पूजन आरम्भ करे ।

-- सूर्य पूजन --

कुंकुम और पुष्प से सूर्य पूजन करें -

ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च |हिरण्येन सविता रथेन याति भुनानि पश्यन ||

ॐ पश्येन शरदः शतं श्रृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतं |जीवेम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात ||

-- ध्यान --

अचिन्त्य नादा मम देह दासं, मम पूर्ण आशं देहस्वरूपं |न जानामि पूजां न जानामि ध्यानं, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं ||

ममोत्थवातं तव वत्सरूपं, आवाहयामि गुरुरूप नित्यं |स्थायेद सदा पूर्ण जीवं सदैव, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं ||

-- आवाहन --

ॐ स्वरुप निरूपण हेतवे श्री निखिलेश्वरानन्दाय गुरुवे नमः आवाहयामि स्थापयामि |

ॐ स्वच्छ प्रकाश विमर्श हेतवे श्री सच्चिदानंद परम गुरुवे नमः आवाहयामि स्थापयामि |

ॐ स्वात्माराम पिंजर विलीन तेजसे श्री ब्रह्मणे पारमेष्ठि गुरुवे नमः आवाहयामि स्थापयामि |

-- स्थापन --

गुरुदेव को अपने षट्चक्रों में स्थापित करें -

श्री शिवानन्दनाथ पराशक्त्यम्बा मूलाधार चक्रे स्थापयामि नमः |

श्री सदाशिवानन्दनाथ चिच्छक्त्यम्बा स्वाधिष्ठान चक्रे स्थापयामि नमः |

श्री ईश्वरानन्दनाथ आनंद शक्त्यम्बा मणिपुर चक्रे स्थापयामि नमः |

श्री रुद्रदेवानन्दनाथ इच्छा शक्त्यम्बा अनाहत चक्रे स्थापयामि नमः |

श्री विष्णुदेवानन्दनाथ क्रिया शक्त्यम्बा सहस्त्रार चक्रे स्थापयामि नमः |

-- पाद्य --

मम प्राण स्वरूपं, देह स्वरूपं समस्त रूप रूपं गुरुम् आवाहयामि पाद्यं समर्पयामि नमः |

-- अर्घ्य --

ॐ देवो तवा वई सर्वां प्रणतवं परी संयुक्त्वाः सकृत्वं सहेवाः |अर्घ्यं समर्पयामि नमः |

-- गन्ध --

ॐ श्री उन्मनाकाशानन्दनाथ – जलं समर्पयामि |

ॐ श्री समनाकाशानन्दनाथ – स्नानं समर्पयामि |

ॐ श्री व्यापकानन्दनाथ – सिद्धयोगा जलं समर्पयामि |

ॐ श्री शक्त्याकाशानन्दनाथ – चन्दनं समर्पयामि |

ॐ श्री ध्वन्याकाशानन्दनाथ – कुंकुमं समर्पयामि |

ॐ श्री ध्वनिमात्रकाशानन्दनाथ – केशरं समर्पयामि |

ॐ श्री अनाहताकाशानन्दनाथ – अष्टगंधं समर्पयामि |

ॐ श्री विन्द्वाकाशानन्दनाथ – अक्षतां समर्पयामि |

ॐ श्री द्वन्द्वाकाशानन्दनाथ – सर्वोपचारां समर्पयामि |

-- पुष्प, बिल्व पत्र --

तमो स पूर्वां एतोस्मानं सकृते कल्याण त्वां कमलया सशुद्ध बुद्ध प्रबुद्ध स चिन्त्य अचिन्त्य वैराग्यं नमितांपूर्ण त्वां गुरुपाद पूजनार्थंबिल्व पत्रं पुष्पहारं च समर्पयामि नमः |

-- दीप --

श्री महादर्पनाम्बा सिद्ध ज्योतिं समर्पयामि |

श्री सुन्दर्यम्बा सिद्ध प्रकाशम् समर्पयामि |

श्री करालाम्बिका सिद्ध दीपं समर्पयामि |

श्री त्रिबाणाम्बा सिद्ध ज्ञान दीपं समर्पयामि |

श्री भीमाम्बा सिद्ध ह्रदय दीपं समर्पयामि |

श्री कराल्याम्बा सिद्ध सिद्ध दीपं समर्पयामि |

श्री खराननाम्बा सिद्ध तिमिरनाश दीपं समर्पयामि |

श्री विधीशालीनाम्बा पूर्ण दीपं समर्पयामि |

-- नीराजन --

ताम्रपात्र में जल, कुंकुम, अक्षत अवं पुष्प लेकर यंत्रों पर समर्पित करें -

श्री सोममण्डल नीराजनं समर्पयामि |

श्री सूर्यमण्डल नीराजनं समर्पयामि |

श्री अग्निमण्डल नीराजनं समर्पयामि |

श्री ज्ञानमण्डल नीराजनं समर्पयामि |

श्री ब्रह्ममण्डल नीराजनं समर्पयामि |

-- पञ्च पंचिका --

अपने दोनों हाथों में पुष्प लेकर निम्न पञ्च पंचिकाओं का उच्चारण करते हुए इन दिव्य महाविद्याओं की प्राप्ति हेतु गुरुदेव से निवेदन करें -

-- पञ्चलक्ष्मी --

श्री विद्या लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री एकाकार लक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री महालक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री त्रिशक्तिलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री सर्वसाम्राज्यलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- पञ्चकोश --

श्री विद्या कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री परज्योति कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री परिनिष्कल शाम्भवी कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री अजपा कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री मातृका कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- पञ्चकल्पलता --

श्री विद्या कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री त्वरिता कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री पारिजातेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री त्रिपुटा कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री पञ्च बाणेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- पञ्चकामदुघा --

श्री विद्या कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री अमृत पीठेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री सुधांशु कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री अमृतेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री अन्नपूर्णा कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- पञ्चरत्न विद्या --

श्री विद्या रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री सिद्धलक्ष्मी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री मातंगेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री भुवनेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री वाराही रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री मन्मालिनी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- श्री मन्मालिनी --

अंत में तीन बार श्री मन्मालिनी का उच्चारण करना चाहिए जिससे गुरुदेव की शक्ति, तेज और सम्पूर्ण साधनाओं की प्राप्ति हो सके -

ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ल्रृं एं ऐँ ओं औं अं अः |
कं खं गं घं ङं |
चं छं जं झं ञं |
टं ठं डं ढं णं |
तं थं दं धं नं |
पं फं बं भं मं |
यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं हंसः सोऽहं गुरुदेवाय नमः |

-- मूल मंत्र --

ॐ निं निखिलेश्वरायै ब्रह्म ब्रह्माण्ड वै नमः |

इस मंत्र का मूंगा माला से १०१, ५१  माला जप करें |

-- प्रार्थना --

लोकवीरं महापूज्यं सर्वरक्षाकरं विभुम् |शिष्य हृदयानन्दं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||

त्रिपूज्यं विश्व वन्द्यं च विष्णुशम्भो प्रियं सुतं |क्षिप्र प्रसाद निरतं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||

मत्त मातंग गमनं कारुण्यामृत पूजितं |सर्व विघ्न हरं देवं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||

अस्मत् कुलेश्वरं देवं सर्व सौभाग्यदायकं |अस्मादिष्ट प्रदातारं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||

यस्य धन्वन्तरिर्माता पिता रुद्रोऽभिषक् तमः |तं शास्तारमहं वंदे महावैद्यं दयानिधिं ||

-- समर्पण --

ॐ सहनावतु सह नौ भुनत्तु सहवीर्यं करवावहै,तेजस्विनां धीतमस्तु मा विद्विषावहै |

ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतं |

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना |

ॐ शान्तिः | शान्तिः || शान्तिः |||

सौजन्य – श्री राम चैतन्य शास्त्री कृत तांत्रोक्त गुरु पूजन

Tuesday, April 15, 2014

Master interaction of pupil गुरु - शिष्य का पारस्परिक संबंध


गुरु - शिष्य का पारस्परिक संबंध
अयोग्य व्यक्ति ( दुर्गुणों से युक्त ) न तो गुरु से दीक्षा पाने का अधिकारी है और न ही वह दीक्षित होने पर साधना के क्षेत्र में कोई उपलब्धि ही हासिल कर पाता है । यही कारण है कि प्रायः संत - महात्मा हरेक किसी को शिष्य नहीं बनाते । कुपात्रजनों को दिया जाने वाला ज्ञानोपदेश , आध्यात्मिक - संकेत , साधना - परामर्श और मंत्र - दीक्षा आदि सब निरर्थक होते हैं ।
गुरु और शिष्य के बीच पारस्परिक संबंध बहुत शुचिता और परख के आधार पर स्थापित होना चाहिए , तभी उसमें स्थायित्व आ पाता है । इसलिए गुरुजनों को भी निर्दिष्ट किया गया है कि वे किसी को शिष्य बनाने , उसे दीक्षा देने से पूर्व उसकी पात्रता को भली - भांति परख लें । शास्त्रों का कथन हैं -
मंत्री द्वारा किए गए दुष्कृत्य का पातक राजा को लगता है और सेवक द्वारा किए गए पाप का भागी स्वामी बनता है । स्वयंकृत पाप अपने को और शिष्य द्वारा किए गए अपराध का पाप गुरु को लगता है ।
दीक्षा और साधना के लिए अयोग्य व्यक्तियों के लक्षणों को शास्त्रकारों ने इस प्रकार स्पष्ट किया है -
ऐसा व्यक्ति जो अपराधी - मनोवृत्ति का हो अथवा क्रूर , पापी , हिंसक हो , वह न तो दीक्षा पाने का अधिकारी है और न वह साधना में ही सफल हो सकता है । कारण कि उसकी तामसिक - मनोवृत्ति उसे सदैव अस्थिर और असंतुलित बनाए रखती है ।
इसी प्रकार बकवादी , कुतर्क करने वाला , मिथ्याभाषी , अहंकारग्रस्त , लोभी , लम्पट , विषयी , चोर , दुर्व्यसनी , परस्त्रीगामी , मूर्ख , जड़ - बुद्धि , क्रोधी , द्वेषलु , ईर्ष्या अथवा अतिमोह से ग्रस्त , शास्त्र निंदक , आस्थाहीन , दुराचारी , वंचक , पाखंडी और न साधना करने योग्य । ऐसे लोगों को जन्मजात पापी , अपवित्र , दुर्भाग्यग्रस्त और कुपात्र माना गया है

Specific Siddhian by sadguru

These powers can be achieved even stronger इन सिद्धियों को हासिल कर आप भी बन सकते हैं शक्तिमान - परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी
हमारे पूर्वजों और ऋषियों के पास विशिष्ट सिद्धियां थी, परन्तु उनमें से काल के प्रवाह में बहु कुछ लुप्त हो गईं| उनमें भी बारह सिद्धियां तो सर्वथा लोप हो गईं थी, जिनका केवल नामोल्लेख इधर उधर पढ़ने को मिल जाता था पर उसके बारे में न तो किसी को प्रामाणिक ज्ञान था और न उन्हें ऐसी सिद्धि प्राप्त ही थी| ये इस प्रकार हें -
१.परकाया सिद्धि
२.आकाश गमन सिद्धि
३.जल गमन प्रक्रिया सिद्ध
४.हादी विद्या - जिसके माध्यम से साधक बिना कुछ आहार ग्रहण किये वर्षों जीवित रह सकता है|
५. कादी विद्या- जिसके माध्यम से साधक या योगी कैसी भी परिस्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है| उस पर सर्दी, गर्मी, बरसात, आग हिमपात आदि का कोई प्रभाव नहीं होता|
६.काली सिद्धि- जिसके माध्यम से हजारों वर्ष पूर्व के क्षण को या घटना को पहिचाना जा सकता है, देखा जा सकता है और समझा जा सकता है| साठ ही आने वाले हजार वर्षों के कालखण्ड को जाना जा सकता है कि भविष्य में कहां क्या घटना घटित होगी और किस प्रकार से घटित होगी इसके बारे में प्रामाणिक ज्ञान एक ही क्षण में हो जाता है| यही नहीं अपितु इस साधना के माध्यम से भविष्य में होने वाली घटना को ठीक उसी प्रकार से देखा जा सकता है, जिस प्रकार से व्यक्ति टेलेवीजन पर कोई फिल्म देख रहा हों|
७. संजीवनी विद्या, जो शुक्राचार्य या कुछ ऋषियों को ही ज्ञात थी जिसके माध्यम से मृत व्यक्ति को भी जीवन दान दिया जा सकता है|
८. इच्छा मृत्यु साधना- जिसके माध्यम से काल पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है और साधक चाहे तो सैकड़ो-हजारों वर्षों तक जीवित रह सकता है|
९. काया कल्प साधना - जिसके माध्यम से व्यक्ति के शरीर में पूर्ण परिवर्तन लाया जा सकता है और ऐसा परिवर्तन होने पर वृद्ध व्यक्ति का भी काया कल्प होकर वह स्वस्थ सुन्दर युवक बन सकता है, रोग रही ऐसा व्यक्तित्व कई वर्षों तक स्वस्थ रहकर अपने कार्यों में सफलता पा सकता है|
१०. लोक गमन सिद्धि-जिसके माध्यम से पृथ्वी लोक में ही नहीं अपितु अन्य लोकों में भी उसी प्रकार से विचरण कर सकता है जिस प्रकार से हम कार के द्वारा एक स्थान से दुसरे स्थान या एक नगर से दुसरे नगर जाते हें| इस साधना के माध्यम से भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, चंद्रलोक, सूर्यलोक और वायु लोक में भी जाकर वहां के निवासियों से मिल सकता, वहां की श्रेष्ठ विद्याओं को प्राप्त कर सकता है और जब भी चाहे एक लोक से दुसरे लोक तक जा सकता है|
११. शुन्य साधना - जिसके माध्यम से प्रकृति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है| खाद्य पदार्थ, भौतिक वस्तुएं और सम्पन्नता अर्जित की जा सकती है|
१२. सूर्य विज्ञान- जिसके माध्यम से एक पदार्थ को दुसरे पदार्थ में रूपांतरित किया जा सकता है|
अपने तापोबल से पूज्य निखिलेश्वरानन्द जी ने इन सिद्धियों को उन विशिष्ट ऋषियों और योगियों से प्राप्त किया जो कि इसके सिद्ध हस्त आचार्य थे| मुझे भली भांति स्मरण है कि परकाया प्रवेश साधना, इन्होनें सीधे विश्वामित्र से प्राप्त की थी| साधना के बल पर उन्होनें महर्षि विश्वामित्र को अपने सामने साकार किया और उनसे ही परकाया प्रवेश की उन विशिष्ट साधनाओं सिद्धियों को सीखा जो कि अपने आप में अन्यतम है| शंकराचार्य के समय तक तो परकाया प्रवेश की एक ही विधि प्रचिलित थी जिसका उपयोग भगवदपाद शंकराचार्य ने किया था परन्तु योगिराज निखिलेश्वरानन्द जी ने विश्वामित्र से उन छः विधियों को प्राप्त किया जो कि परकाया प्रवेश से सम्बंधित है| परकाया प्रवेश केवल एक ही विधि से संभव नहीं है अपितु कई विधियों से परकाया प्रवेश हो सकता है|
यह निखिलेश्वरानन्द जी ने सैकड़ो योगियों के सामने सिद्ध करके दिखा दिया| परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी इन बारहों सिद्धियों के सिद्धहस्त आचार्य है| कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे यह अलौकिक और दुर्लभ सिद्धियां नहीं उनके हाथ में खिलौने हें, जब भी चाहे वे प्रयोग और उपयोग कर लेते हें| इन समस्त विधियों कों उन्होनें उन महर्षियों से प्राप्त किया है जो इस क्षेत्र के सिद्धहस्त आचार्य और योगी रहे हें|उन्होनें हिमालय स्थित योगियों, संन्यासियों और सिद्धों के सम्मलेन में दो टूक शब्दों में कहा था कि तुम्हें इन कंदराओं में निवास नहीं करना हें और जंगल में नहीं भटकना हें, इसकी अपेक्षा समाज के बीच जाकर तुम्हें रहना है| उनके दुःख दर्द कों बांटना है, समझना है और दूर करना है|
मैंने कई बार अनुभव किया है, कि उनके दरवाजे से कोई खाली हाथ नहीं लौटा| जिस शिष्य, साधक, योगी या संन्यासी ने जो भी चाहा है उनके यहां से प्राप्त हुआ| गोपनीय से गोपनीय साधनाएं देने भी वे हिचकिचाये नहीं| साधना के मूल रहस्य स्पष्ट करते, अपने अनुभवों कों सुनाते, उन्हें धैर्य बंधाते, पीठ पर हाथ फेरते और उनमें जोश तथा आत्मविश्वास भर देते, कि वह सब कुछ कर सकता है और यही गुण उनकी महानता का परिचय है| सूर्य सिद्धांत के आचार्य पतंजलि ने अपने सूत्रों में बताया है, कि सूर्य की किरणों में विभिन्न रंगों की रश्मियों हें और इनका समन्वित रूप ही श्वेत है| इन्हीं रश्मियों के विशेष संयोजन से योगी किसी भी पदार्थ कों सहज ही शुन्य में से निर्मित कर सकता है, या एक पदार्थ कों दुसरे पदार्थ में परिवर्तित कर सकता है| मैंने स्वयं ही गुरुदेव कों अपने संन्यास जीवन में चौबीस वर्तुल वाले एक स्फटिक लेंस से प्रकाश रश्मियों कों परिवर्तित करते देखा है| और पुनः उस स्फटिक वर्तुल हीरक खण्ड कों शुन्य में वापस कर देते हुए देखा है, क्योंकि ये उन्हीं का कथन है, कि योगी अपने पास कुछ भी नहीं रखता| जब जरूरत होती है, तब प्रकृति से प्राप्त कर लेता है और कार्य समाप्त होने पर वह वस्तु प्रकृति कों ही लौट देता है|शिष्य ज्ञान मैंने स्वयं ही उन्हें अनेक अवसरों पर अपने पूर्व जन्म के शिष्य-शिष्याओं कों खोजकर पुनः साधनात्मक पथ पर सुदृढ़ करते हुए देखा है| एक बार नैनीताल के किसी पहाड़ी गाँव के निकट हम कुछ शिष्य जा रहे थे|
गुरुदेव हम सभी कों लेकर गाँव के एक ब्राह्मण के छोटे से घर में पहुंचे और ब्राह्मण से बोले - 'क्या आठ साल पहले तुम्हारे घर में किसी कन्या ने जन्म लिया था? ब्राह्मण ने आश्चर्यचकित होकर अपनी पुत्री सत्संगा को बुलाया, जिसे देखकर हम सभी चौंक गए| उसका चेहरा थी मां अनुरक्ता की तरह था| यद्यपि मां के चहरे पर झुर्रियां पड़ गई थी और यह अभी बालिका थी, परन्तु चेहरे में बहुत कुछ साम्य साफ-साफ दिखाई दे रहा था| सत्संगा ने गुरुदेव के सामने आते ही दोनों हाथ जोड़ लिए और ठीक मां की तरह चरणों में झुक गई|गुरुदेव ने बताया कि किस तरह उनकी शिष्या मां अनुरक्ता ने अपने मृत्यु के क्षणों में उनसे वचन लिया था, कि अगले जन्म में बाल्यावस्था होते ही गुरुदेव उसे ढूंढ निकालेंगे और साधनात्मक पथ पर अग्रसर कर देंगे| यह कन्या सत्संगा वही मां अनुरक्ता हें| गुरुदेव ने उसे दीक्षा प्रदान की, अपने गले की माला उतार कर उसे दी और गुरु मंत्र दे कर वहां से पुनः रवाना हो गए| अपने प्रत्येक शिष्य-शिष्याओं का उन्हें प्रतिपल जन्म से लेकर मृत्यु तक ध्यान रहता हें और उनका प्रत्येक क्षण ही शिष्य के कल्याण के चिन्तन में ही बीतता हें| धन्य हें वे जिनको कि उनका शिष्यत्व प्राप्त हुआ है|तंत्र मार्ग का सिद्ध पुरुष सही अर्थों में देखा जाय तो तंत्र भारतवर्ष का आधार रहा है| तंत्र का तात्पर्य व्यवस्थित तरीके से कार्य संपन्न होना|
प्रारम्भ में तो तंत्र भारतवर्ष की सर्वोच्च पूंजी बनी रही बाद में धेरे-धीरे कुछ स्वार्थी और अनैतिक तत्व इसमें आ गए, जिन्हें न तो तंत्र का ज्ञान था और न इसके बारे में कुछ विशेष जानते ही थे| देह सुख और भोग को ही उन्होनें तंत्र मां लिया था| तंत्र तो भगवान् शिव का आधार है| उन्हें द्वारा तंत्र का प्रस्फुटन हुआ| जो कार्य मन्त्रों के माध्यम से संपादित नहीं हो सकता, तंत्र के द्वारा उस कार्य को निश्चित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है|
मंत्र का तात्पर्य है प्रकृति की उस विशेष सत्ता को अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्न करना और अनुकूल बनाकर कार्य संपादित करना| पर तंत्र के क्षेत्र में यह स्थिति सर्वथा विपरीत है| यदि सीधे-सीधे तरीके से प्रकृति वशवर्ती नहीं होती, तो बलपूर्वक उसे वश में किया जाता है और इसी क्रिया को तंत्र कहते हैं| तंत्र तलवार की धार की तरह है| यदि इसका सही प्रकार से प्रयोग किया जाय, तो प्रांत अचूक सिद्धाप्रद है पर इसके विपरीत यदि थोड़ी भी असावधानी और गफलत कर दी जाय तो तंत्र प्रयोग स्वयं करता को ही समाप्त कर देता है| ऐसी कठिन चुनौती को निखिलेश्वरानन्द ने स्वीकार किया और तंत्र के क्षेत्र में उन स्थितियों को स्पष्ट किया जो कि अपने-आप में अब तक गोपनीय रही है|उन्होनें दुर्गम और कठिन साधनाओं को तंत्र के माध्यम से सिद्ध करके दिखा दिया कि यह मार्ग अपेक्षाकृत सुगम और सरल है|
स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी तंत्र के क्षेत्र की सभी कसौटिया में खरे उतारे तथा उनमें अद्वितीयता प्राप्त की| त्रिजटा अघोरी तंत्र का एक परिचित नाम है| पर गुरुदेव का शिष्यत्व पाकर उसने यह स्वाकार किया कि यदि सही अर्थों में कहा जाय तो स्वामी निखिलेश्वरानन्द तंत्र के क्षेत्र में अंतिम नाम है| न तो उनका मुकाबला किया जा सकता है और न ही इस क्षेत्र में उन्हें परास्त किया जा सकता है| एक प्रकार से देखा जाय तो सही अर्थों में वह शिव स्वरुप हैं, जिनका प्रत्येक शब्द अपनी अर्थवत्ता लिए हुई है, जिन्होनें तंत्र के माध्यम से उन गुप्त रहस्यों को उजागर किया है जो अभी तक गोपनीय रहे है|
---योगी विश्वेश्रवानंद

Friday, March 14, 2014

About Bhairavi Sadhana

भैरवी - भाग १
स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते हैं।

तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है। यह तंत्र एक निश्चित मर्यादा है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो, अथवा वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी 'शक्ति' का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, 'शक्ति' पर आधारित है। कदाचित इसका रहस्य यही है, कि साधक को इस बात का साक्षात करना होता है, कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते है, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं व् संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारणवश तंत्र के क्षेत्र में तो पग-पग पर गुरु साहचर्य की आवश्यकता पड़ती है, अन्य मार्गों की अपेक्षा कहीं अधिक।

जब इस मर्यादा का किसी कारणवश लोप हो गया और समाज की स्मृति में केवल इतना ही शेष रह गया, कि तंत्र के क्षेत्र में भैरवी का साहचर्य करना होता है, तभी व्यभिचार का जन्म हुआ, क्योंकि ऐसी स्थिति में पग-पग संभालने के लिए सदगुरुदेव की वह चैतन्य शक्ति नहीं रही। यह भी संभव है, कि कुछ दूषित प्रवृत्तियों के व्यक्तियों ने एक श्रेष्ठ परम्परा को अपनी वासनापूर्ति के रूप में अपना लिया हो, किन्तु यह तो प्रत्येक दशा में सत्य है ही, कि इस मार्ग में सदगुरु की महत्ता को विस्मृत कर दिया गया।

जो श्रेष्ठ साधक है, वे जानते है, कि तंत्र के क्षेत्र में प्रवेश के पूर्व श्मशान पीठ एवं श्यामा पीठ की परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी होती हैं, तभी साधक उच्चकोटि के रहस्यों को जानने का सुपात्र बन पाता है। भैरवी साधना इसी श्रेणी की साधना है, किन्तु श्यामा पीठ साधना से कुछ कम स्तर की। वस्तुतः जब भैरवी साधना का संकेत सदगुरुदेव से प्राप्त हो जाय, तब साधक को यह समझ लेना चाहिए, कि वे उसे तंत्र की उच्च भावभूमि पर ले जाने का मन बना चुके हैं। भैरवी साधना, भैरवी साधना के उपरांत श्यामा साधना और तब वास्तविक तंत्र की साधना का प्रारम्भ होता है, जहां साधक अपने ही शरीर के तंत्र को समझता हुआ, अपनी ही अनेक अज्ञात शक्तियों से परिचय प्राप्त करता हुआ न केवल अपने ही जीवन को धन्य कर लेता है, वरन सैकडों-हजारों के जीवन को भी धन्य कर देता है।

व्यक्ति के अनेक बंधनों में से सर्वाधिक कठिन बंधन है उसकी दैहिक वासनाओं का - और तंत्र इसी पर आघात कर व्यक्ति को एक नया आयाम दे देता है। वास्तविक तंत्र केवल वासना पर आघात करता है, न कि व्यक्ति की मूल चेतना पर। इसी कारणवश एक तांत्रिक किसी भी अन्य योगी या यति से अधिक तीव्र एवं प्रभावशाली होता है।

'भैरवी' के विषय में समाज की आज जो धारणा है, उसे अधिक वर्णित करने की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु मैंने अपने जीवन में भैरवी का जो स्वरुप देखा, उसे भी वर्णित कर देना अपना धर्म समझता हूं। शेष तो व्यक्ति की अपनी भावना पर निर्भर करता है, कि वह इसे कितना सत्य मानता है अथवा उसे अपनी धारणाओं के विपरीत कितना स्वीकार्य होता है।

आज से कई वर्ष पूर्व मैं अपने सन्यस्त जीवन में साधना के कठोर आयामों से गुजर रहा था, उसी मध्य मुझे भैरवी-साहचर्य का अनुभव मिल सका। संन्यास का मार्ग एक कठोर मार्ग तो होता ही है, साथ ही उसकी कुछ ऐसी जटिलताएं होती हैं, जिसे यदि मैं चाहूं, तो वर्णित नहीं कर सकता, क्योंकि वे भावगत स्थितियां होती हैं, जिन्हें योग की भाषा में आलोडन-विलोडन कहते हैं। संन्यास केवल बाह्य रूप से ही एक कठोर दिनचर्या नहीं है, वरन उससे कहीं अधिक आतंरिक कठोरता की दूःसाध्य स्थिति भी है। कब किस समय गुरुदेव का कौन सा आदेश मिल जाय और बिना किसी हाल-हवाले या ना-नुच के उसे तत्क्षण पूर्ण भी करना पड़े, इसको तो केवल सन्यस्त गुरु भाई-बहन समझ सकते हैं।


भैरवी - भाग २
इसी प्रकार, इसी क्रम में एक दिन मुझे सहसा एक गुरु भाई के द्वारा आज्ञा मिली, कि पूज्य गुरुदेव (निखिलेश्वरानंदजी) ने तत्क्षण एक विशिष्ठ स्थान पर जाने की बात कही है और वहां जाकर एक विशिष्ट साधिका के पास तब तक उसकी अनुज्ञा में रहना होगा, तब तक कि मुझे अगली आज्ञा न मिले। मैंने ऐसा ही किया और दो दिवस बाद एक विशिष्ट स्थान पर पहुंच गया, जहां मुझे किसी विशिष्ट साधिका से भेंट करनी थी।

उस गहन वन-प्रांत में मानों मेरे आने का समाचार किसी दूरसंचार के द्वारा ही पहले पहुंच गया था और एक प्रकार से स्वागत के लिए वह विशिष्ट साधिका पहले से ही तत्पर थी।

- किन्तु यह क्या ??

मैं उसकी वेशभूषा देखकर आश्चर्य से भूमि पर ठोकर खाकर गिरते-गिरते ही बचा। लगभग तीस-पैंतीस वर्ष के एक स्वस्थ एवं प्रायः काली महिला, जो मेरे 'स्वागत' में सामने आयी थी, वह पूर्णतया निर्वस्त्र ही थी ... उसकी सपूर्ण देहयष्टि पर एक आभूषण तक भी नहीं था, जिसे मैं उसके वस्त्र मानकर उसे आच्छादित कल्पित भी कर लेता। मैंने अपने सम्पूर्ण संन्यस्त जीवन में कभी इस प्रकार किसी स्त्री को सर्वथा नग्न नहीं देखा था, अतः मेरे संस्कारों एवं वास्तविकता के मध्य द्वन्द्व उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही था।

कुछ आश्चर्य, कुछ लज्जा और किसी अंश तक जुगुप्सा से भर कर मैंने अपने नेत्र नीचे कर लिए, किन्तु इसके उपरांत भी मेरे मन में वासना का लेशमात्र भी संचार नहीं हो सका था। यह कहकर में अपनी प्रशंसा करने का इच्छुक नहीं हूं, क्योंकि अपनी दृष्टि की स्वछता तो प्रत्येक व्यक्ति अपने मन में जानता ही है।

इसके पीछे उसके व्यक्तित्व का कोई विलक्षण प्रभाव एवं उसके तप की गरिमा का आभामंडल था, इसे स्वीकार करने में मुझे कोई भी संकोच नहीं।

मैं पता नहीं उस दशा में कब तक संकुचित सा खडा रहता, किन्तु उसकी गुरु-गंभीर वाणी से सचेतन हो गया -

'चलो' के संक्षिप्त सम्बोधन से उसने मुझे तर्जनी से एक और इंगित किया और मैं सम्मोहन सा उसका अनुसरण करने लगा। अपने मन के संकोच एवं संस्कारों के द्वन्द्व से उबरने के लिए मैंने वार्तालाप का एक क्रम प्रारम्भ करना चाहा और अपना परिचय देने का प्रयास किया, किन्तु उसके तो कानों में कोई ध्वनि जैसे जा ही नहीं रही थी और में झेंप कर चुप हो गया।

अपने निवास स्थान पर पहुंचकर (जो कि एक छोटी सी झोपडी ही थी) उसने मुझे एक ओर बैठने की आज्ञा दी और चुपचाप भीतर से जाकर एक मिट्टी के पात्र में कोई जंगली साग और किसी जंगली दाने की मोटी-मोटी रोटियों के साथ एक पात्र में जल भी लेती आयी। मेरा हाथ-पांव धुलवा कर उसने मुझे भोजन करने की आज्ञा दी। उसकी प्रत्येक बात संक्षिप्त एवं आज्ञात्मक स्वर में ही संपन्न हो रही थी तथा मैं अपना सारा विज्ञान भूला कर उसकी आज्ञा का बिना किसी चूं-चपड़ के पालन भी करता जा रहा था ...

किन्तु भोजन करने के नाम पर मैं झिझक से भर गया, क्योंकि विगत कई वर्षों से मैं अपना भोजन स्वयं ही बनाता आया था और किसी विशेष परिस्थिति में केवल किसी गुरु भाई के हाथ का बना भोजन ग्रहण करता था।

- क्योंकि स्त्रियों के साथ उनकी शारीरिक शुचिता का एक अनिवार्य लक्षण जुडा ही होता है तथा वर्त्तमान युग में उस विशेष काल में सभी कार्यों से विरत रहना हास्यास्पद माना जाने लगा है। केवल सामान्य स्त्रियां ही नहीं, वरन साधिकाएं भी इस प्रकार की बातों को ढकोसला मानती हैं, जबकि ऐसा उनके प्रति किसी अपमानवश अथवा द्वेषवश नहीं वरन मर्यादावश ही निर्धारित किया गया है।

मेरा संकोच उसके सामने तब एक और ही धरा रह गया, जब उसने थाली को मेरे सामने सरकाते हुए पुनः आज्ञा दी - 'खाओ'।

भैरवी - भाग ३
मैं चुपचाप उस भोजन को ग्रहण करने लगा, जो आश्चर्यजनक रूप से अत्यन्त स्वादिष्ट एवं क्षुधावर्धक था। भोजन प्रारम्भ करने के उपरांत पुनः वही मौन व्याप्त हो गया और इस विचित्र स्थिति से बचने के लिए मैंने जब अपना सर उठा कर कुछ बात प्रारम्भ करनी चाही, तो देखा, कि उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसी तरलता आ गई है, जो कि किसी मां के चेहरे पर अपनी संतान को भोजन कराते सायं आ जाती है और वह स्वयं को ही तृप्त अनुभव करती है। फिर तो वह उसी स्निग्धता से भरी मुझे खिलाती रही और मैं सब कुछ भूलकर पता नहीं कितना अधिक भोजन ग्रहण कर गया।

भोजन के उपरांत उसने उसी झोपडी में एक ओर बीछे पुआल की ओर संकेत कर दिया और मैं दो दिनों की थकान व भोजन से बोझिल होकर उस पर जा गिरा और तत्क्षण ही निद्रा की गोद में चला गया। उस समय सायंकाल की समाप्ति होकर रात्रि का प्रथम प्रहार आरम्भ हो रहा था।

... संभवतः रात्री का मध्य काल रहा होगा, जब मेरी आंख खुली। झोपडी में एक ओर जलती किसी तैलयुक्त जंगली जडी के प्रकाश में पूरी झोपडी ही मंद प्रकाश से आलोकित हो रही थी और एक कोने में वही भैरवी अपने आसन पर मेरी ओर पीठ करके आसीन थी। उसने अपने घने काले केशों को खोलकर पूरी पीठ पर फैला दिया था और आखे बंद कर पता नहीं किस क्रिया में तल्लीन थी।

यहां मैं इस बात का उल्लेख करना चाहूंगा, कि उसकी झोपडी में न कहीं कोई यज्ञकुंड था, न तरह-तरह के फूल बिखरे थे, न कहीं सिन्दूर पुता हुआ था और न ही किसी धुप या लोबान की मादक गंध थी - जैसा कि अनेक साधक 'भैरवी' शब्द सुनकर कल्पित कर लेते हैं। नितांत एक सामान्य गृहस्थ महिला की ही भांति उसका सम्पूर्ण आचरण था, केवल इस अन्तर से, कि वह वस्त्रादि की आवश्यकता से सर्वथा मुक्त थी।

पूज्यपाद गुरुदेव ने कभी बताया था, कि साधना की एक दशा ऐसी भी आ जाती है, कि साधक को स्वयं की देह का बोध ही नहीं रहता और फलस्वरूप वह नग्न ही रहने लग जाता है, कदाचित वह भैरवी उसी का जीता-जागता प्रमाण थी। मुझे पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीमुख से सुनी एक एनी घटना का स्मरण हो आया। घटना यह थी, कि -

महावीर स्वामी कभी अपनी वस्त्रहीनता की स्थिति में कहीं पहुंचे तो लोगों ने उनसे पूछा - 'आप नग्न क्यों हैं?'

उत्तर में उन्होंने कहा - 'नग्न मैं नहीं हूं, आप हैं, क्योंकि आपकी आंखों में 'नग्नता' अनुभव करने का भाव है।'

मैं जितनी बार उस भैरवी को 'नग्न' देखता, उतनी ही बार मुझे पूज्यपाद गुरुदेव की उक्त बात स्मरण आ जाती और मुझे एक तमाचा सा लगता। इन्हीं उहापोहों में मैं पुनः निद्रामग्न हो गया।

दुसरे दिन की प्रातः से मेरे पास कोई भी काम नहीं था, क्योंकि पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा था, कि साधना का अगला क्रम वे वहीं आकर बतायेंगे। कोई गृहकार्य भी नहीं था, फलतः मैं घूमने निकल पडा और प्रकृति के विविध रूपों को निहारता रहा। दोपहर हो जाने पर आकर भोजन किया और पुनः वही घूमना व् प्रकृति को निहारना। रात्रि में पुनः भोजन और विश्राम। धीरे-धीरे यही मेरी दिनचर्या हो गई। मुझे लगने लगा, कि मेरा बचपन ही वापस आ गया है। कोई चिंता नहीं, कोई दायित्व नहीं और धीरे-धीरे मैं पुनः किलकारी मार कर हंसने की अपनी पुरानी आदत में लौट आया।

भैरवी के चेहरे पर निरन्तर बनी रहती एक गरिमामय स्मित मुझे एक अभय देती थी। वह साक्षात मातृस्वरूपा ही थी। मैंने अपने साधक जीवन में ऐसी भी स्त्रियां एवं साधिकाएं देखी थी, जो तथाकथित रूप से नारी सुलभ लज्जा ढोते हुए भी घोर कामुक एवं घृणित लगती थीं दूसरी और यह भैरवी थी, जो पूर्णतया नग्न होते हुए भी गरिमामय और मातृवत थीं। मेरा उससे कोई वार्तालाप नहीं होता था, और ऐसा ही लगता था, कि मैं कोई अबोध शिशु हूं, जो बोलना नहीं सीख पाया हो, इसके उपरांत भी 'संवाद' हो ही जाता था।

भैरवी - भाग ४
मेरे संस्कार यद्यपि प्रबल होते थे। वह 'स्त्री' है मन में ऐसा भी भाव आता था, उसके स्पर्शित भोजन को ग्रहण करने में भी संकोच होता था, किन्तु उसके सामने मैं सब कुछ भूल जाता था। मन में मैंने मान लिया था, कि इस स्थिति में पूज्य गुरुदेव ने ही रखा है, अतः उचित-अनुचित का निर्धारण भी वे ही कर लेंगे और मैं सर्वथा द्वन्द्व रहित हो गया।

इन्हीं दिनों के बीच जब एक दिन मैं कहीं से घूम कर लौटा, तो पाया, कि पूज्यपाद गुरुदेव उस भैरवी के समक्ष विद्यमान हैं और उस दिन उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था, जैसे कोई छः-सात माह की बच्ची अपनी माता को पास पाकर दुबक जाती है। मैंने उन्हें प्रणाम किया और एक ओर हट कर बैठ गया।

दोनों में पता नहीं क्या मूक संभाषण हो रहा था, कि सहसा जैसे कोई सम्मोहन टूटा और पूज्यपाद गुरुदेव की गुरु गंभीर वाणी गूंज उठी- "अच्छा अनुगुज्जनी! मैं इसे लेकर जा रहा हूं।" उसने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और मैं पूज्यपाद गुरुदेव के साथ वापस आ गया।

कई दिनों तक मेरे मन में यह रहस्य बना रहा, कि इस प्रकार मुझे उस भैरवी के सान्निध्य में रखने का पूज्यपाद गुरुदेव का क्या अभिप्राय हो सकता है, किन्तु समझ न सका, अंततोगत्वा मैंने एक दिन साहस करके पूछ ही लिया। उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव के मुख मण्डल पर एक स्निग्ध स्मित छा गई।

उन्होनें बताया- वह वास्तव में श्यामा साधना का प्रथम चरण था और यह अनुभव कराना था, कि स्त्री का एक पक्ष मातृरूपेण भी होता है।

मैंने हलके से प्रतिरोधात्मक स्वर में कहा - "किन्तु गुरुदेव! उन पूर्व के दृढ़ नियमों के उपरांत इतनी बन्धनहीनता? मैंने इतने दिन पता नहीं क्या-क्या भक्ष्य-अभक्ष्य खाया होगा, उसका कैसे प्रायश्चित करूं?"

उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव केवल एक सूत्र बोलकर मौन हो गए - "जब तू पालने में पडा रहता, तो क्या अपनी मां से उसकी शुचिता-अशुचिता का प्रश्न पूछता?"

उनके एक ही वाक्य से मेरे मस्तिक्ष के सभी बंद कपाट खुल गए। यह केवल मातृत्व का अनुभव कराना ही नहीं था, अपितु इस बात का भी बोध कराना था, कि अंततोगत्वा मैं वही अशक्त बालक ही हूं। मैंने तत्क्षण इस बात को स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि पिछले कई दिनों में मैं समझ ही गया था, कि पोषण तो वही जगज्जननी ही करती है, भले ही किसी भी रूप में करे। अतः मन में किसी भ्रम अथवा आचार-विचार का दृढ़ धारण रखने से कोई लाभ नहीं।

पूज्यपाद गुरुदेव के इस सूत्र को आधार बनाकर जब मैंने आत्मविवेचन किया, तो मेरे समक्ष साधना जगत के कई रहस्य इस प्रकार खुलते चले गए, जिस प्रकार किसी ग्रन्थ के पन्ने एक हल्के से स्पर्श से ही खुलते चले जाते हैं। इस गहन आत्मविवेचन के पश्चात मेरे समक्ष उनके चरणों में लौट जाने के अतिरिक्त न तो कोई प्रणाम-मुद्रा थी और न ही अश्रु-प्रवाह के अतिरिक्त कोई पूजन सामग्री। ऐसे अर्ध्य निवेदन के पश्चात जब मैंने उनसे निवेदन किया, कि वे कृपा करके इस ज्ञान को सार्वजनिक क्यों नहीं करते, जिससे अनेक साधक अपने जीवन को धन्य कर सकें, तो उत्तर में उनका पुनः संक्षिप्त वचन था- "मैं किसी नूतन विवाद को जन्म नहीं देना चाहता।"

पूज्यपाद गुरुदेव के इस कथन में वेदना छूपी थे, क्योंकि समाज अपनी आघातकारी प्रवृत्ति के सामने उनके ज्ञान का मूल्यांकन करने की धारणा तक नहीं बना पा रहा है, जिसका और कोई परिणाम हो या न हो, किन्तु साधना के अनेक रहस्य, अनेक भावभूमियां लुप्त हो जायेंगी, इसका ही खेद है। जब उनकी सामान्य क्रियायों पर ही आलोचना-प्रत्यालोचना की बाढ़ आती रहती है, तो इस प्रकार की क्रियायों का सार्वजनकीकरण करने पर तो पता नहीं क्या-क्या आरोप लग जायेंगे! महावीर स्वामी की वाणी में कहें, तो सत्य यही है, कि नग्न तो समाज है।"

मुझे एक घटना याद आती है, कि जब वर्ष १९९० में वाराणसी नगर में महाशिवरात्रि पर्व का आयोजन एवं शिविर लगा था, तब वहां के कुछ बुद्धिजीवियों ने कैसा विरोध प्रकट किया था। यज्ञ स्थल को घेर कर प्रदर्शन, गुरुदेव के निवास स्थान पर जाकर अपशब्द कथन एवं धमकियों के बाद भी जब वे साधना शिविर को भंग करने में असफल रहे, तो उन्होनें स्थानीय अखबारों का सहारा लिया, जिसमें अत्यन्त अश्लील भाषा में जो कुछ छापा, उसे मैं यहां वर्णित कर ही नहीं सकता। यह वही नगर है, जिसने युगपुरुष परमहंस स्वामी विशुध्वानन्द जी पर वेश्यागामी होने तक का आरोप लगाया था।

किन्तु यह भी सत्य है, कि समाज जब तक भैरवी साधना या श्यामा साधना जैसी उच्चतम साधनाओं की वास्तविकता नहीं समझेगा, तब तक वह तंत्र को भी नहीं समझ सकेगा, तथा, केवल कुछ धर्मग्रंथों पर प्रवचन सुनकर अपने आपको बहलाता ही रहेगा।

पूज्यपाद गुरुदेव की आज्ञा को ध्यान में रखकर इसी कारणवश मैं भैरवी साधना की पूर्ण एवं प्रामाणिक साधना विधि प्रस्तुत करने में असमर्थ हूं, किन्तु मेरा विश्वास है, कि कुछ साधक ऐसे होंगे ही, जो साधना के मर्म को समझते होंगे तथा व्यक्तिगत रूप से आगे बढकर उन साधनाओं को सुरक्षीत कर सकेंगे, जो हमारे देश की अनमोल थाती हैं।

साधनाएं केवल साधकों के शरीरों के माध्यम से संरक्षित होती है, उन्हें संजो लेने के लिए किसी भी कैसेट या फ्लापी या डिस्क न तो बन सकी है, न बनेगी। आशा है, गंभीर साधक इस बात को विवेचानापूर्वक आत्मसात करेंगे।

- एक शिष्य
-मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका, अप्रैल १९९६

shiv shakti sadhana part1

साधना मंत्र और सफलता भाग ४

हमारे जीवन मैं बहुत से साधना का ज्ञान मिला पर फिर भी असफलता मिली तो हम निराश हो जाते और पर आपने कमी को हम पहचान नहीं सके कमी बस प्रयास मैं थी मंत्र और साधना मैं कमी नहीं थी , आप के पूर्व जन्म के पाप दोस इतने जादा हो सकते है की आप को सफलता तो मिला पर वो सफलता आप के क़र्ज़ रूपी पाप दोस मैं ख़तम करने मैं चला जाता है। जिस से आप को लगता है कुच्छ मिला नहीं एस साधना से ..

जीवन मैं सफल वही हो सका है जिस ने प्रयास किया है। .
गुरु पूजन कर आप गुरु मंत्र जाप करे गायत्री मंत्र चेतना मंत्र जाप के बाद

१/२ घंटे जाप करे रुदाक्ष की माला से kare। . ये साधना आप पारद शिव लिंग पर पूजा कर
जाप करे तो आप की हर मनोकामना सहित अजर अमर भी बन सकते है। .
ये शिव शक्ति का गोपनीय मंत्र जिस के जाप से पाप समाप्त होता ही है साथ मैं मनोकामना भी पुण्य होता है.

दिशा उतर १/२ घंटे जाप करे रुदाक्ष की माला ,आज्ञा चक्र ध्यान कर जाप करे २१ दिन या ४० दिन तक उस के बाद इसी मंत्र से १/२ घंटे तक इसी मंत्र हवन कर लिया जाये तो १००% उस के भाग्य खुल जाते है। .

ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं !

ये साधना गुरु के आज्ञा के अनुसार करना चहिये। . नहीं तो  शक्ति के आ जाने आप आपना ही अहित कर लेगे।