Monday, September 29, 2014

शिव सहस्त्रनाम Shiv Sahatranaam


शिव सहस्त्रनाम


ऊँ स्थिराय नमःऊँ स्थाणवे नमःऊँ प्रभवे नमःऊँ भीमाय नमःऊँ प्रवराय नमःऊँ वरदाय नमःऊँ वराय नमःऊँ सर्वात्मने नमःऊँ सर्वविख्याताय नमःऊँ सर्वस्मै नमः ऊँ सर्वकाराय नमःऊँ भवाय नमःऊँ जटिने नमःऊँ चर्मिणे नमः,ऊँ शिखण्डिने नमःऊँ सर्वांङ्गाय नमःऊँ सर्वभावाय नमःऊँ हराय नमःऊँ हरिणाक्षाय नमःऊँ सर्वभूतहराय नमः ऊँ प्रभवे नमःऊँ प्रवृत्तये नमःऊँ निवृत्तये नमःऊँ नियताय नमःऊँ शाश्वताय नमःऊँ ध्रुवाय नमःऊँ श्मशानवासिने नमःऊँ भगवते नमःऊँ खेचराय नमःऊँ गोचराय नमः ऊँ अर्दनाय नमःऊँ अभिवाद्याय नमःऊँ महाकर्मणे नमःऊँ तपस्विने नमःऊँ भूतभावनाय नमःऊँ उन्मत्तवेषप्रच्छन्नाय नमःऊँ सर्वलोकप्रजापतये नमःऊँ महारूपाय नमःऊँ महाकायाय नमःऊँ वृषरूपाय नमः ऊँ महायशसे नमःऊँ महात्मने नमःऊँ सर्वभूतात्मने नमःऊँ विश्वरूपाय नमःऊँ महाहनवे नमःऊँ लोकपालाय नमःऊँ अंतर्हितात्मने नमःऊँ प्रसादाय नमःऊँ हयगर्दभाय नमःऊँ पवित्राय नमः (50)
ऊँ महते नमःऊँ नियमाय नमःऊँ नियमाश्रिताय नमःऊँ सर्वकर्मणे नमःऊँ स्वयंभूताय नमःऊँ आदये नमःऊँ आदिकराय नमःऊँ निधये नमःऊँ सहस्राक्षाय नमःऊँ विशालाक्षाय नमःऊँ सोमाय नमःऊँ नक्षत्रसाधकाय नमःऊँ चंद्राय नमःऊँ सूर्याय नमःऊँ शनये नमःऊँ केतवे नमःऊँ ग्रहाय नमःऊँ ग्रहपतये नमःऊँ वराय नमःऊँ अत्रये नमःऊँ अत्र्यानमस्कर्त्रे नमःऊँ मृगबाणार्पणाय नमःऊँ अनघाय नमः,ऊँ महातपसे नमःऊँ घोरतपसे नमःऊँ अदीनाय नमःऊँ दीनसाधककराय नमःऊँ संवत्सरकराय नमःऊँ मंत्राय नमःऊँ प्रमाणाय नमःऊँ परमन्तपाय नमःऊँ योगिने नमःऊँ योज्याय नमःऊँ महाबीजाय नमःऊँ महारेतसे नमःऊँ महाबलाय नमःऊँ सुवर्णरेतसे नमःऊँ सर्वज्ञाय नमःऊँ सुबीजाय नमःऊँ बीजवाहनाय नमःऊँ दशबाहवे नमःऊँ अनिमिषाय नमःऊँ नीलकण्ठाय नमःऊँ उमापतये नमःऊँ विश्वरूपाय नमःऊँ स्वयंश्रेष्ठाय नमःऊँ बलवीराय नमःऊँ अबलोगणाय नमःऊँ गणकर्त्रे नमःऊँ गणपतये नमः (100)
ऊँ दिग्वाससे नमःऊँ कामाय नमःऊँ मंत्रविदे नमःऊँ परममन्त्राय नमःऊँ सर्वभावकराय नमःऊँ हराय नमःऊँ कमण्डलुधराय नमःऊँ धन्विते नमःऊँ बाणहस्ताय नमःऊँ कपालवते नमःऊँ अशनिने नमःऊँ शतघ्निने नमःऊँ खड्गिने नमःऊँ पट्टिशिने नमःऊँ आयुधिने नमःऊँ महते नमःऊँ स्रुवहस्ताय नमःऊँ सुरूपाय नमःऊँ तेजसे नमःऊँ तेजस्करनिधये नमः ऊँ उष्णीषिणे नमःऊँ सुवक्त्राय नमःऊँ उदग्राय नमःऊँ विनताय नमःऊँ दीर्घाय नमःऊँ हरिकेशाय नमःऊँ सुतीर्थाय नमःऊँ कृष्णाय नमःऊँ श्रृगालरूपाय नमः,ऊँ सिद्धार्थाय नमः ऊँ मुण्डाय नमःऊँ सर्वशुभंकराय नमःऊँ अजाय नमःऊँ बहुरूपाय नमःऊँ गन्धधारिणे नमःऊँ कपर्दिने नमःऊँ उर्ध्वरेतसे नमःऊँ उर्ध्वलिंगाय नमःऊँ उर्ध्वशायिने नमःऊँ नभस्थलाय नमःऊँ त्रिजटाय नमःऊँ चीरवाससे नमः,ऊँ रूद्राय नमःऊँ सेनापतये नमःऊँ विभवे नमःऊँ अहश्चराय नमःऊँ नक्तंचराय नमःऊँ तिग्ममन्यवे नमःऊँ सुवर्चसाय नमःऊँ गजघ्ने नमः (150)
ऊँ दैत्यघ्ने नमःऊँ कालाय नमःऊँ लोकधात्रे नमःऊँ गुणाकराय नमःऊँ सिंहसार्दूलरूपाय नमःऊँ आर्द्रचर्माम्बराय नमःऊँ कालयोगिने नमःऊँ महानादाय नमःऊँ सर्वकामाय नमःऊँ चतुष्पथाय नमःऊँ निशाचराय नमःऊँ प्रेतचारिणे नमःऊँ भूतचारिणे नमःऊँ महेश्वराय नमःऊँ बहुभूताय नमः,ऊँ बहुधराय नमःऊँ स्वर्भानवे नमःऊँ अमिताय नमःऊँ गतये नमःऊँ नृत्यप्रियाय नमःऊँ नृत्यनर्ताय नमःऊँ नर्तकाय नमःऊँ सर्वलालसाय नमःऊँ घोराय नमःऊँ महातपसे नमः,ऊँ पाशाय नमःऊँ नित्याय नमःऊँ गिरिरूहाय नमःऊँ नभसे नमःऊँ सहस्रहस्ताय नमःऊँ विजयाय नमःऊँ व्यवसायाय नमःऊँ अतन्द्रियाय नमःऊँ अधर्षणाय नमःऊँ धर्षणात्मने नमःऊँ यज्ञघ्ने नमःऊँ कामनाशकाय नमःऊँ दक्षयागापहारिणे नमःऊँ सुसहाय नमःऊँ मध्यमाय नमःऊँ तेजोपहारिणे नमःऊँ बलघ्ने नमःऊँ मुदिताय नमःऊँ अर्थाय नमःऊँ अजिताय नमःऊँ अवराय नमःऊँ गम्भीरघोषाय नमःऊँ गम्भीराय नमःऊँ गंभीरबलवाहनाय नमःऊँ न्यग्रोधरूपाय नमः (200)
ऊँ न्यग्रोधाय नमःऊँ वृक्षकर्णस्थितये नमःऊँ विभवे नमःऊँ सुतीक्ष्णदशनाय नमःऊँ महाकायाय नमःऊँ महाननाय नमः,ऊँ विश्वकसेनाय नमःऊँ हरये नमःऊँ यज्ञाय नमःऊँ संयुगापीडवाहनाय नमःऊँ तीक्ष्णतापाय नमःऊँ हर्यश्वाय नमःऊँ सहायाय नमःऊँ कर्मकालविदे नमःऊँ विष्णुप्रसादिताय नमःऊँ यज्ञाय नमःऊँ समुद्राय नमःऊँ वडमुखाय नमःऊँ हुताशनसहायाय नमःऊँ प्रशान्तात्मने नमः,ऊँ हुताशनाय नमःऊँ उग्रतेजसे नमःऊँ महातेजसे नमःऊँ जन्याय नमःऊँ विजयकालविदे नमःऊँ ज्योतिषामयनाय नमःऊँ सिद्धये नमःऊँ सर्वविग्रहाय नमःऊँ शिखिने नमःऊँ मुण्डिने नमःऊँ जटिने नमःऊँ ज्वालिने नमःऊँ मूर्तिजाय नमःऊँ मूर्ध्दगाय नमःऊँ बलिने नमःऊँ वेणविने नमःऊँ पणविने नमःऊँ तालिने नमःऊँ खलिने नमःऊँ कालकंटकाय नमःऊँ नक्षत्रविग्रहमतये नमःऊँ गुणबुद्धये नमःऊँ लयाय नमःऊँ अगमाय नमःऊँ प्रजापतये नमःऊँ विश्वबाहवे नमः,ऊँ विभागाय नमःऊँ सर्वगाय नमःऊँ अमुखाय नमःऊँ विमोचनाय नमः (250)
ऊँ सुसरणाय नमःऊँ हिरण्यकवचोद्भाय नमःऊँ मेढ्रजाय नमःऊँ बलचारिणे नमःऊँ महीचारिणे नमःऊँ स्रुत्याय नमः,ऊँ सर्वतूर्यनिनादिने नमःऊँ सर्वतोद्यपरिग्रहाय नमःऊँ व्यालरूपाय नमःऊँ गुहावासिने नमःऊँ गुहाय नमःऊँ मालिने नमःऊँ तरंगविदे नमःऊँ त्रिदशाय नमःऊँ त्रिकालधृगे नमः,ऊँ कर्मसर्वबन्ध-विमोचनाय नमःऊँ असुरेन्द्राणां बन्धनाय नमःऊँ युधि शत्रुवानाशिने नमःऊँ सांख्यप्रसादाय नमःऊँ दुर्वाससे नमःऊँ सर्वसाधुनिषेविताय नमःऊँ प्रस्कन्दनाय नमःऊँ विभागज्ञाय नमःऊँ अतुल्याय नमःऊँ यज्ञविभागविदे नमःऊँ सर्वचारिणे नमःऊँ सर्ववासाय नमःऊँ दुर्वाससे नमः,ऊँ वासवाय नमःऊँ अमराय नमःऊँ हैमाय नमःऊँ हेमकराय नमःऊँ अयज्ञसर्वधारिणे नमःऊँ धरोत्तमाय नमःऊँ लोहिताक्षाय नमःऊँ महाक्षाय नमःऊँ विजयाक्षाय नमःऊँ विशारदाय नमःऊँ संग्रहाय नमःऊँ निग्रहाय नमःऊँ कर्त्रे नमःऊँ सर्पचीरनिवसनाय नमःऊँ मुख्याय नमःऊँ अमुख्याय नमःऊँ देहाय नमःऊँ काहलये नमःऊँ सर्वकामदाय नमःऊँ सर्वकालप्रसादाय नमःऊँ सुबलाय नमःऊँ बलरूपधृगे नमः(300)
ऊँ सर्वकामवराय नमःऊँ सर्वदाय नमःऊँ सर्वतोमुखाय नमः,ऊँ आकाशनिर्विरूपाय नमःऊँ निपातिने नमःऊँ अवशाय नमः,ऊँ खगाय नमःऊँ रौद्ररूपाय नमःऊँ अंशवे नमःऊँ आदित्याय नमःऊँ बहुरश्मये नमःऊँ सुवर्चसिने नमःऊँ वसुवेगाय नमः,ऊँ महावेगाय नमःऊँ मनोवेगाय नमःऊँ निशाचराय नमःऊँ सर्ववासिने नमःऊँ श्रियावासिने नमःऊँ उपदेशकराय नमःऊँ अकराय नमःऊँ मुनये नमःऊँ आत्मनिरालोकाय नमःऊँ संभग्नाय नमःऊँ सहस्रदाय नमःऊँ पक्षिणे नमःऊँ पक्षरूपाय नमःऊँ अतिदीप्ताय नमःऊँ विशाम्पतये नमःऊँ उन्मादाय नमःऊँ मदनाय नमःऊँ कामाय नमःऊँ अश्वत्थाय नमःऊँ अर्थकराय नमःऊँ यशसे नमःऊँ वामदेवाय नमःऊँ वामाय नमःऊँ प्राचे नमःऊँ दक्षिणाय नमःऊँ वामनाय नमःऊँ सिद्धयोगिने नमःऊँ महर्षये नमःऊँ सिद्धार्थाय नमःऊँ सिद्धसाधकाय नमःऊँ भिक्षवे नमःऊँ भिक्षुरूपाय नमःऊँ विपणाय नमःऊँ मृदवे नमःऊँ अव्ययाय नमःऊँ महासेनाय नमःऊँ विशाखाय नमः (350) 
ऊँ षष्टिभागाय नमःऊँ गवाम्पतये नमःऊँ वज्रहस्ताय नमः,ऊँ विष्कम्भिने नमःऊँ चमुस्तंभनाय नमःऊँ वृत्तावृत्तकराय नमःऊँ तालाय नमःऊँ मधवे नमःऊँ मधुकलोचनाय नमःऊँ वाचस्पतये नमःऊँ वाजसनाय नमःऊँ नित्यमाश्रमपूजिताय नमःऊँ ब्रह्मचारिणे नमःऊँ लोकचारिणे नमःऊँ सर्वचारिणे नमःऊँ विचारविदे नमःऊँ ईशानाय नमःऊँ ईश्वराय नमःऊँ कालाय नमःऊँ निशाचारिणे नमःऊँ पिनाकधृगे नमःऊँ निमितस्थाय नमःऊँ निमित्ताय नमःऊँ नन्दये नमःऊँ नन्दिकराय नमःऊँ हरये नमःऊँ नन्दीश्वराय नमःऊँ नन्दिने नमःऊँ नन्दनाय नमःऊँ नंन्दीवर्धनाय नमःऊँ भगहारिणे नमःऊँ निहन्त्रे नमःऊँ कालाय नमःऊँ ब्रह्मणे नमःऊँ पितामहाय नमःऊँ चतुर्मुखाय नमःऊँ महालिंगाय नमःऊँ चारूलिंगाय नमःऊँ लिंगाध्यक्षाय नमःऊँ सुराध्यक्षाय नमः,ऊँ योगाध्यक्षाय नमःऊँ युगावहाय नमःऊँ बीजाध्यक्षाय नमः,ऊँ बीजकर्त्रे नमःऊँ अध्यात्मानुगताय नमःऊँ बलाय नमःऊँ इतिहासाय नमःऊँ सकल्पाय नमःऊँ गौतमाय नमःऊँ निशाकराय नमः (400)   ऊँ दम्भाय नमःऊँ अदम्भाय नमःऊँ वैदम्भाय नमःऊँ वश्याय नमःऊँ वशकराय नमःऊँ कलये नमःऊँ लोककर्त्रे नमःऊँ पशुपतये नमःऊँ महाकर्त्रे नमःऊँ अनौषधाय नमःऊँ अक्षराय नमःऊँ परब्रह्मणे नमःऊँ बलवते नमःऊँ शक्राय नमःऊँ नीतये नमःऊँ अनीतये नमःऊँ शुद्धात्मने नमःऊँ मान्याय नमःऊँ शुद्धाय नमःऊँ गतागताय नमःऊँ बहुप्रसादाय नमःऊँ सुस्पप्नाय नमःऊँ दर्पणाय नमःऊँ अमित्रजिते नमःऊँ वेदकराय नमःऊँ मंत्रकराय नमःऊँ विदुषे नमःऊँ समरमर्दनाय नमःऊँ महामेघनिवासिने नमःऊँ महाघोराय नमःऊँ वशिने नमःऊँ कराय नमःऊँ अग्निज्वालाय नमःऊँ महाज्वालाय नमःऊँ अतिधूम्राय नमःऊँ हुताय नमःऊँ हविषे नमःऊँ वृषणाय नमःऊँ शंकराय नमःऊँ नित्यंवर्चस्विने नमःऊँ धूमकेताय नमःऊँ नीलाय नमःऊँ अंगलुब्धाय नमःऊँ शोभनाय नमःऊँ निरवग्रहाय नमःऊँ स्वस्तिदायकाय नमःऊँ स्वस्तिभावाय नमःऊँ भागिने नमःऊँ भागकराय नमःऊँ लघवे नमः(450)ऊँ उत्संगाय नमःऊँ महांगाय नमःऊँ महागर्भपरायणाय नमः,ऊँ कृष्णवर्णाय नमःऊँ सुवर्णाय नमःऊँ सर्वदेहिनामिनिन्द्राय नमःऊँ महापादाय नमःऊँ महाहस्ताय नमःऊँ महाकायाय नमःऊँ महायशसे नमःऊँ महामूर्धने नमःऊँ महामात्राय नमः,ऊँ महानेत्राय नमःऊँ निशालयाय नमःऊँ महान्तकाय नमःऊँ महाकर्णाय नमःऊँ महोष्ठाय नमःऊँ महाहनवे नमःऊँ महानासाय नमःऊँ महाकम्बवे नमःऊँ महाग्रीवाय नमःऊँ श्मशानभाजे नमःऊँ महावक्षसे नमःऊँ महोरस्काय नमःऊँ अंतरात्मने नमःऊँ मृगालयाय नमःऊँ लंबनाय नमःऊँ लम्बितोष्ठाय नमःऊँ महामायाय नमःऊँ पयोनिधये नमःऊँ महादन्ताय नमःऊँ महाद्रष्टाय नमःऊँ महाजिह्वाय नमःऊँ महामुखाय नमःऊँ महारोम्णे नमःऊँ महाकोशाय नमःऊँ महाजटाय नमःऊँ प्रसन्नाय नमःऊँ प्रसादाय नमःऊँ प्रत्ययाय नमःऊँ गिरिसाधनाय नमःऊँ स्नेहनाय नमःऊँ अस्नेहनाय नमःऊँ अजिताय नमःऊँ महामुनये नमःऊँ वृक्षाकाराय नमःऊँ वृक्षकेतवे नमःऊँ अनलाय नमःऊँ वायुवाहनाय नमः (500) ऊँ गण्डलिने नमः, ऊँ मेरूधाम्ने नमः, ऊँ देवाधिपतये नमः, ऊँ अथर्वशीर्षाय नमः, ऊँ सामास्या नमः, ऊँ ऋक्सहस्रामितेक्षणाय नमः, ऊँ यजुः पादभुजाय नमः, ऊँ गुह्याय नमः, ऊँ प्रकाशाय नमः, ऊँ जंगमाय नमः, ऊँ अमोघार्थाय नमः, ऊँ प्रसादाय नमः, ऊँ अभिगम्याय नमः, ऊँ सुदर्शनाय नमः, ऊँ उपकाराय नमः, ऊँ प्रियाय नमः, ऊँ सर्वाय नमः, ऊँ कनकाय नमः, ऊँ काञ्चनवच्छये नमः, ऊँ नाभये नमः, ऊँ नन्दिकराय नमः, ऊँ भावाय नमः, ऊँ पुष्करथपतये नमः, ऊँ स्थिराय नमः, ऊँ द्वादशाय नमः, ऊँ त्रासनाय नमः, ऊँ आद्याय नमः, ऊँ यज्ञाय नमः, ऊँ यज्ञसमाहिताय नमः, ऊँ नक्तंस्वरूपाय नमः, ऊँ कलये नमः, ऊँ कालाय नमः, ऊँ मकराय नमः, ऊँ कालपूजिताय नमः, ऊँ सगणाय नमः, ऊँ गणकराय नमः, ऊँ भूतवाहनसारथये नमः, ऊँ भस्मशयाय नमः, ऊँ भस्मगोप्त्रे नमः, ऊँ भस्मभूताय नमः, ऊँ तरवे नमः, ऊँ गणाय नमः, ऊँ लोकपालाय नमः, ऊँ आलोकाय नमः, ऊँ महात्मने नमः, ऊँ सर्वपूजिताय नमः, ऊँ शुक्लाय नमः, ऊँ त्रिशुक्लाय नमः, ऊँ संपन्नाय नमः, ऊँ शुचये नमः (550) ऊँ भूतनिशेविताय नमः, ऊँ आश्रमस्थाय नमः, ऊँ क्रियावस्थाय नमः, ऊँ विश्वकर्ममतये नमः, ऊँ वराय नमः, ऊँ विशालशाखाय नमः, ऊँ ताम्रोष्ठाय नमः, ऊँ अम्बुजालाय नमः, ऊँ सुनिश्चलाय नमः, ऊँ कपिलाय नमः, ऊँ कपिशाय नमः, ऊँ शुक्लाय नमः, ऊँ आयुषे नमः, ऊँ पराय नमः, ऊँ अपराय नमः, ऊँ गंधर्वाय नमः, ऊँ अदितये नमः, ऊँ ताक्ष्याय नमः, ऊँ सुविज्ञेयाय नमः, ऊँ सुशारदाय नमः, ऊँ परश्वधायुधाय नमः, ऊँ देवाय नमः, ऊँ अनुकारिणे नमः, ऊँ सुबान्धवाय नमः, ऊँ तुम्बवीणाय नमः, ऊँ महाक्रोधाय नमः, ऊँ ऊर्ध्वरेतसे नमः, ऊँ जलेशयाय नमः, ऊँ उग्राय नमः, ऊँ वंशकराय नमः, ऊँ वंशाय नमः, ऊँ वंशानादाय नमः, ऊँ अनिन्दिताय नमः, ऊँ सर्वांगरूपाय नमः, ऊँ मायाविने नमः, ऊँ सुहृदे नमः, ऊँ अनिलाय नमः, ऊँ अनलाय नमः, ऊँ बन्धनाय नमः, ऊँ बन्धकर्त्रे नमः, ऊँ सुवन्धनविमोचनाय नमः, ऊँ सयज्ञयारये नमः, ऊँ सकामारये नमः, ऊँ महाद्रष्टाय नमः, ऊँ महायुधाय नमः, ऊँ बहुधानिन्दिताय नमः, ऊँ शर्वाय नमः, ऊँ शंकराय नमः, ऊँ शं कराय नमः, ऊँ अधनाय नमः (600)  ऊँ अमरेशाय नमः, ऊँ महादेवाय नमः, ऊँ विश्वदेवाय नमः, ऊँ सुरारिघ्ने नमः, ऊँ अहिर्बुद्धिन्याय नमः,  ऊँ अनिलाभाय नमः, ऊँ चेकितानाय नमः, ऊँ हविषे नमः, ऊँ अजैकपादे नमः, ऊँ कापालिने नमः, ऊँ त्रिशंकवे नमः, ऊँ अजिताय नमः, ऊँ शिवाय नमः, ऊँ धन्वन्तरये नमः, ऊँ धूमकेतवे नमः, ऊँ स्कन्दाय नमः, ऊँ वैश्रवणाय नमः, ऊँ धात्रे नमः, ऊँ शक्राय नमः, ऊँ विष्णवे नमः, ऊँ मित्राय नमः, ऊँ त्वष्ट्रे नमः, ऊँ ध्रुवाय नमः, ऊँ धराय नमः, ऊँ प्रभावाय नमः, ऊँ सर्वगोवायवे नमः, ऊँ अर्यम्णे नमः, ऊँ सवित्रे नमः, ऊँ रवये नमः, ऊँ उषंगवे नमः, ऊँ विधात्रे नमः, ऊँ मानधात्रे नमः, ऊँ भूतवाहनाय नमः, ऊँ विभवे नमः, ऊँ वर्णविभाविने नमः, ऊँ सर्वकामगुणवाहनाय नमः, ऊँ पद्मनाभाय नमः, ऊँ महागर्भाय नमः, चन्द्रवक्त्राय नमः, ऊँ अनिलाय नमः, ऊँ अनलाय नमः, ऊँ बलवते नमः, ऊँ उपशान्ताय नमः, ऊँ पुराणाय नमः, ऊँ पुण्यचञ्चवे नमः, ऊँ ईरूपाय नमः, ऊँ कुरूकर्त्रे नमः, ऊँ कुरूवासिने नमः, ऊँ कुरूभूताय नमः, ऊँ गुणौषधाय नमः (650) ऊँ सर्वाशयाय नमः, ऊँ दर्भचारिणे नमः, ऊँ सर्वप्राणिपतये नमः, ऊँ देवदेवाय नमः, ऊँ सुखासक्ताय नमः, ऊँ सत स्वरूपाय नमः, ऊँ असत् रूपाय नमः, ऊँ सर्वरत्नविदे नमः, ऊँ कैलाशगिरिवासने नमः, ऊँ हिमवद्गिरिसंश्रयाय नमः, ऊँ कूलहारिणे नमः, ऊँ कुलकर्त्रे नमः, ऊँ बहुविद्याय नमः, ऊँ बहुप्रदाय नमः, ऊँ वणिजाय नमः, ऊँ वर्धकिने नमः, ऊँ वृक्षाय नमः, ऊँ बकुलाय नमः, ऊँ चंदनाय नमः, ऊँ छदाय नमः, ऊँ सारग्रीवाय नमः, ऊँ महाजत्रवे नमः, ऊँ अलोलाय नमः, ऊँ महौषधाय नमः, ऊँ सिद्धार्थकारिणे नमः, ऊँ छन्दोव्याकरणोत्तर-सिद्धार्थाय नमः, ऊँ सिंहनादाय नमः, ऊँ सिंहद्रंष्टाय नमः, ऊँ सिंहगाय नमः, ऊँ सिंहवाहनाय नमः, ऊँ प्रभावात्मने नमः, ऊँ जगतकालस्थालाय नमः, ऊँ लोकहिताय नमः, ऊँ तरवे नमः, ऊँ सारंगाय नमः, ऊँ नवचक्रांगाय नमः, ऊँ केतुमालिने नमः, ऊँ सभावनाय नमः, ऊँ भूतालयाय नमः, ऊँ भूतपतये नमः, ऊँ अहोरात्राय नमः, ऊँ अनिन्दिताय नमः, ऊँ सर्वभूतवाहित्रे नमः, ऊँ सर्वभूतनिलयाय नमः, ऊँ विभवे नमः, ऊँ भवाय नमः, ऊँ अमोघाय नमः, ऊँ संयताय नमः, ऊँ अश्वाय नमः, ऊँ भोजनाय नमः, (700)ऊँ प्राणधारणाय नमः, ऊँ धृतिमते नमः, ऊँ मतिमते नमः, ऊँ दक्षाय नमःऊँ सत्कृयाय नमः, ऊँ युगाधिपाय नमः, ऊँ गोपाल्यै नमः, ऊँ गोपतये नमः, ऊँ ग्रामाय नमः, ऊँ गोचर्मवसनाय नमः, ऊँ हरये नमः, ऊँ हिरण्यबाहवे नमः, ऊँ प्रवेशिनांगुहापालाय नमः, ऊँ प्रकृष्टारये नमः, ऊँ महाहर्षाय नमः, ऊँ जितकामाय नमः, ऊँ जितेन्द्रियाय नमः, ऊँ गांधाराय नमः, ऊँ सुवासाय नमः, ऊँ तपःसक्ताय नमः, ऊँ रतये नमः, ऊँ नराय नमः, ऊँ महागीताय नमः, ऊँ महानृत्याय नमः, ऊँ अप्सरोगणसेविताय नमः, ऊँ महाकेतवे नमः, ऊँ महाधातवे नमः, ऊँ नैकसानुचराय नमः, ऊँ चलाय नमः, ऊँ आवेदनीयाय नमः, ऊँ आदेशाय नमः, ऊँ सर्वगंधसुखावहाय नमः, ऊँ तोरणाय नमः, ऊँ तारणाय नमः, ऊँ वाताय नमः, ऊँ परिधये नमः, ऊँ पतिखेचराय नमः, ऊँ संयोगवर्धनाय नमः, ऊँ वृद्धाय नमः, ऊँ गुणाधिकाय नमः, ऊँ अतिवृद्धाय नमः, ऊँ नित्यात्मसहायाय नमः, ऊँ देवासुरपतये नमः, ऊँ पत्ये नमः, ऊँ युक्ताय नमः, ऊँ युक्तबाहवे नमः, ऊँ दिविसुपर्वदेवाय नमः, ऊँ आषाढाय नमः, ऊँ सुषाढ़ाय नमः, ऊँ ध्रुवाय नमः (750)ऊँ हरिणाय नमः, ऊँ हराय नमः, ऊँ आवर्तमानवपुषे नमः, ऊँ वसुश्रेष्ठाय नमः, ऊँ महापथाय नमः, ऊँ विमर्षशिरोहारिणे नमः, ऊँ सर्वलक्षणलक्षिताय नमः, ऊँ अक्षरथयोगिने नमः, ऊँ सर्वयोगिने नमः, ऊँ महाबलाय नमः, ऊँ समाम्नायाय नमः, ऊँ असाम्नायाय नमः, ऊँ तीर्थदेवाय नमः, ऊँ महारथाय नमः, ऊँ निर्जीवाय नमः, ऊँ जीवनाय नमः, ऊँ मंत्राय नमः, ऊँ शुभाक्षाय नमः, ऊँ बहुकर्कशाय नमः, ऊँ रत्नप्रभूताय नमः, ऊँ रत्नांगाय नमः, ऊँ महार्णवनिपानविदे नमः, ऊँ मूलाय नमः, ऊँ विशालाय नमः, ऊँ अमृताय नमः, ऊँ व्यक्ताव्यवक्ताय नमः, ऊँ तपोनिधये नमः, ऊँ आरोहणाय नमः, ऊँ अधिरोहाय नमः, ऊँ शीलधारिणे नमः, ऊँ महायशसे नमः, ऊँ सेनाकल्पाय नमः, ऊँ महाकल्पाय नमः, ऊँ योगाय नमः, ऊँ युगकराय नमः, ऊँ हरये नमः, ऊँ युगरूपाय नमः, ऊँ महारूपाय नमः, ऊँ महानागहतकाय नमः, ऊँ अवधाय नमः, ऊँ न्यायनिर्वपणाय नमः, ऊँ पादाय नमः, ऊँ पण्डिताय नमः, ऊँ अचलोपमाय नमः, ऊँ बहुमालाय नमः, ऊँ महामालाय नमः, ऊँ शशिहरसुलोचनाय नमः, ऊँ विस्तारलवणकूपाय नमः, ऊँ त्रिगुणाय नमः, ऊँ सफलोदयाय नमः (800)ऊँ त्रिलोचनाय नमः, ऊँ विषण्डागाय नमः, ऊँ मणिविद्धाय नमः, ऊँ जटाधराय नमः, ऊँ बिन्दवे नमः, ऊँ विसर्गाय नमः, ऊँ सुमुखाय नमः, ऊँ शराय नमः, ऊँ सर्वायुधाय नमः, ऊँ सहाय नमः, ऊँ सहाय नमः, ऊँ निवेदनाय नमः, ऊँ सुखाजाताय नमः, ऊँ सुगन्धराय नमः, ऊँ महाधनुषे नमः, ऊँ गंधपालिभगवते नमः,  ऊँ सर्वकर्मोत्थानाय नमः, ऊँ मन्थानबहुलवायवे नमः, ऊँ सकलाय नमः, ऊँ सर्वलोचनाय नमः, ऊँ तलस्तालाय नमः, ऊँ करस्थालिने नमः, ऊँ ऊर्ध्वसंहननाय नमः, ऊँ महते नमः, ऊँ छात्राय नमः, ऊँ सुच्छत्राय नमः, ऊँ विख्यातलोकाय नमः, ऊँ सर्वाश्रयक्रमाय नमः, ऊँ मुण्डाय नमः, ऊँ विरूपाय नमः, ऊँ विकृताय नमः, ऊँ दण्डिने नमः, ऊँ कुदण्डिने नमः, ऊँ विकुर्वणाय नमः, ऊँ हर्यक्षाय नमः, ऊँ ककुभाय नमः, ऊँ वज्रिणे नमः, ऊँ शतजिह्वाय नमः, ऊँ सहस्रपदे नमः, ऊँ देवेन्द्राय नमः, ऊँ सर्वदेवमयाय नमः, ऊँ गुरवे नमः, ऊँ सहस्रबाहवे नमः, ऊँ सर्वांगाय नमः, ऊँ शरण्याय नमः, ऊँ सर्वलोककृते नमः, ऊँ पवित्राय नमः, ऊँ त्रिककुन्मंत्राय नमः, ऊँ कनिष्ठाय नमः, ऊँ कृष्णपिंगलाय नमः (850)ऊँ ब्रह्मदण्डविनिर्मात्रे नमः, ऊँ शतघ्नीपाशशक्तिमते नमः, ऊँ पद्मगर्भाय नमः, ऊँ महागर्भाय नमः, ऊँ ब्रह्मगर्भाय नमः, ऊँ जलोद्भावाय नमः, ऊँ गभस्तये नमः, ऊँ ब्रह्मकृते नमः, ऊँ ब्रह्मिणे नमः, ऊँ ब्रह्मविदे नमः, ऊँ ब्राह्मणाय नमः, ऊँ गतये नमः, ऊँ अनंतरूपाय नमः, ऊँ नैकात्मने नमः, ऊँ स्वयंभुवतिग्मतेजसे नमः, ऊँ उर्ध्वगात्मने नमः, ऊँ पशुपतये नमः, ऊँ वातरंहसे नमः, ऊँ मनोजवाय नमः, ऊँ चंदनिने नमः, ऊँ पद्मनालाग्राय नमः, ऊँ सुरभ्युत्तारणाय नमः, ऊँ नराय नमः, ऊँ कर्णिकारमहास्रग्विणमे नमः, ऊँ नीलमौलये नमः, ऊँ पिनाकधृषे नमः, ऊँ उमापतये नमः, ऊँ उमाकान्ताय नमः, ऊँ जाह्नवीधृषे नमः, ऊँ उमादवाय नमः, ऊँ वरवराहाय नमः, ऊँ वरदाय नमः, ऊँ वरेण्याय नमः, ऊँ सुमहास्वनाय नमः, ऊँ महाप्रसादाय नमः, ऊँ दमनाय नमः, ऊँ शत्रुघ्ने नमः, ऊँ श्वेतपिंगलाय नमः, ऊँ पीतात्मने नमः, ऊँ परमात्मने नमः, ऊँ प्रयतात्मने नमः, ऊँ प्रधानधृषे नमः, ऊँ सर्वपार्श्वमुखाय नमः, ऊँ त्रक्षाय नमः, ऊँ धर्मसाधारणवराय नमः, ऊँ चराचरात्मने नमः, ऊँ सूक्ष्मात्मने नमः, ऊँ अमृतगोवृषेश्वराय नमः, ऊँ साध्यर्षये नमः, ऊँ आदित्यवसवे नमः (900)ऊँ विवस्वत्सवित्रमृताय नमः, ऊँ व्यासाय नमः, ऊँ सर्गसुसंक्षेपविस्तराय नमः, ऊँ पर्ययोनराय नमः, ऊँ ऋतवे नमः, ऊँ संवत्सराय नमः, ऊँ मासाय नमः, ऊँ पक्षाय नमः, ऊँ संख्यासमापनाय नमः, ऊँ कलायै नमः, ऊँ काष्ठायै नमः, ऊँ लवेभ्यो नमः, ऊँ मात्रेभ्यो नमः, ऊँ मुहूर्ताहःक्षपाभ्यो नमः, ऊँ क्षणेभ्यो नमः, ऊँ विश्वक्षेत्राय नमः, ऊँ प्रजाबीजाय नमः, ऊँ लिंगाय नमः, ऊँ आद्यनिर्गमाय नमः, ऊँ सत् स्वरूपाय नमः, ऊँ असत् रूपाय नमः, ऊँ व्यक्ताय नमः, ऊँ अव्यक्ताय नमः, ऊँ पित्रे नमः, ऊँ मात्रे नमः, ऊँ पितामहाय नमः, ऊँ स्वर्गद्वाराय नमः, ऊँ प्रजाद्वाराय नमः, ऊँ मोक्षद्वाराय नमः, ऊँ त्रिविष्टपाय नमः, ऊँ निर्वाणाय नमः, ऊँ ह्लादनाय नमः, ऊँ ब्रह्मलोकाय नमः, ऊँ परागतये नमः, ऊँ देवासुरविनिर्मात्रे नमः, ऊँ देवासुरपरायणाय नमः, ऊँ देवासुरगुरूवे नमः, ऊँ देवाय नमः, ऊँ देवासुरनमस्कृताय नमः, ऊँ देवासुरमहामात्राय नमः, ऊँ देवासुरमहामात्राय नमः, ऊँ देवासुरगणाश्रयाय नमः, ऊँ देवासुरगणाध्यक्षाय नमः, ऊँ देवासुरगणाग्रण्ये नमः, ऊँ देवातिदेवाय नमः, ऊँ देवर्षये नमः, ऊँ देवासुरवरप्रदाय नमः, ऊँ विश्वाय नमः, ऊँ देवासुरमहेश्वराय नमः, ऊँ सर्वदेवमयाय नमः(950) ऊँ अचिंत्याय नमः, ऊँ देवात्मने नमः, ऊँ आत्मसंबवाय नमः, ऊँ उद्भिदे नमः, ऊँ त्रिविक्रमाय नमः, ऊँ वैद्याय नमः, ऊँ विरजाय नमः, ऊँ नीरजाय नमः, ऊँ अमराय नमः, ऊँ इड्याय नमः, ऊँ हस्तीश्वराय नमः, ऊँ व्याघ्राय नमः, ऊँ देवसिंहाय नमः, ऊँ नरर्षभाय नमः, ऊँ विभुदाय नमः, ऊँ अग्रवराय नमः, ऊँ सूक्ष्माय नमः, ऊँ सर्वदेवाय नमः, ऊँ तपोमयाय नमः, ऊँ सुयुक्ताय नमः, ऊँ शोभनाय नमः, ऊँ वज्रिणे नमः, ऊँ प्रासानाम्प्रभवाय नमः, ऊँ अव्ययाय नमः, ऊँ गुहाय नमः, ऊँ कान्ताय नमः, ऊँ निजसर्गाय नमः, ऊँ पवित्राय नमः, ऊँ सर्वपावनाय नमः, ऊँ श्रृंगिणे नमः, ऊँ श्रृंगप्रियाय नमः, ऊँ बभ्रवे नमः, ऊँ राजराजाय नमः, ऊँ निरामयाय नमः, ऊँ अभिरामाय नमः, ऊँ सुरगणाय नमः, ऊँ विरामाय नमः, ऊँ सर्वसाधनाय नमः, ऊँ ललाटाक्षाय नमः, ऊँ विश्वदेवाय नमः, ऊँ हरिणाय नमः, ऊँ ब्रह्मवर्चसे नमः, ऊँ स्थावरपतये नमः, ऊँ नियमेन्द्रियवर्धनाय नमः, ऊँ सिद्धार्थाय नमः, ऊँ सिद्धभूतार्थाय नमः, ऊँ अचिन्ताय नमः, ऊँ सत्यव्रताय नमः, ऊँ शुचये नमः, ऊँ व्रताधिपाय नमः, ऊँ पराय नमः, ऊँ ब्रह्मणे नमः, ऊँ भक्तानांपरमागतये नमः, ऊँ विमुक्ताय नमः, ऊँ मुक्ततेजसे नमः, ऊँ श्रीमते नमः, ऊँ श्रीवर्धनाय नमः, ऊँ श्री जगते नमः (1008)

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।
ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः

shree sarasvati stotram श्रीसरस्वती स्तोत्रम्




या कुन्देन्दु-तुषारहार-धवला या शुभ्र-वस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमन्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत-शंकर-प्रभृतिभिर्देवैः सदा पूजिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥१॥


दोर्भिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिकमणिमयीमक्षमालां दधाना
हस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं पुस्तकं चापरेण।
भासा कुन्देन्दु-शंखस्फटिकमणिनिभा भासमानाऽसमाना
सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥२॥


आशासु राशी भवदंगवल्लि भासैव दासीकृत-दुग्धसिन्धुम्।
मन्दस्मितैर्निन्दित-शारदेन्दुं वन्देऽरविन्दासन-सुन्दरि त्वाम् ॥३॥


शारदा शारदाम्बोजवदना वदनाम्बुजे।
सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात् ॥४॥


सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृ-देवताम्।
देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जनाः ॥५॥


पातु नो निकषग्रावा मतिहेम्नः सरस्वती।
प्राज्ञेतरपरिच्छेदं वचसैव करोति या ॥६॥


शुद्धां ब्रह्मविचारसारपरमा-माद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्पाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥७॥




वीणाधरे विपुलमंगलदानशीले
भक्तार्तिनाशिनि विरिंचिहरीशवन्द्ये।
कीर्तिप्रदेऽखिलमनोरथदे महार्हे
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥८॥


श्वेताब्जपूर्ण-विमलासन-संस्थिते हे
श्वेताम्बरावृतमनोहरमंजुगात्रे।
उद्यन्मनोज्ञ-सितपंकजमंजुलास्ये

विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥९॥


मातस्त्वदीय-पदपंकज-भक्तियुक्ता
ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण
भूवह्नि-वायु-गगनाम्बु-विनिर्मितेन ॥१०॥


मोहान्धकार-भरिते हृदये मदीये
मातः सदैव कुरु वासमुदारभावे।
स्वीयाखिलावयव-निर्मलसुप्रभाभिः
शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥११॥



ब्रह्मा जगत् सृजति पालयतीन्दिरेशः
शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावैः।
न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे
न स्युः कथंचिदपि ते निजकार्यदक्षाः ॥१२॥



लक्ष्मिर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी तृष्टिः प्रभा धृतिः।
एताभिः पाहि तनुभिरष्टभिर्मां सरस्वती ॥१३॥


सरसवत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नमः।
वेद-वेदान्त-वेदांग-विद्यास्थानेभ्य एव च ॥१४॥


सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने।
विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोस्तु ते ॥१५॥


यदक्षर-पदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत्।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥१६॥


सरस्वती मया दृष्टा वीणापुस्तकधारिणी
हंसवाहनसंयुक्ता विद्यादानं करोतु मे
प्रथमं भारती नाम द्वितीयञ्च सरस्वती
तृतीयं शारदा देवी चतुर्थ हंसवाहिनी
पञ्चमं तु जगन्माता षष्ठं वागीश्वरी तथा
सप्तमं चैव कौमारी अष्टमं वरदायिनी
नवमं बुद्धिदात्री च दशमं ब्रह्मचारिणी
एकादशं चन्द्रघण्टा द्वादशं भुवनेश्वरी
द्वादशै तानि नामानि त्रिसन्ध्यं य पठेन्नरः
जिह्वाग्रे वसते तस्य ब्रह्मरूपा सरस्वती ||


॥श्रीसरस्वती स्तोत्रम् संपूर्णं॥

shree arjun krit durga stavan श्री अर्जुन कृत श्रीदुर्गा स्तवन






श्री अर्जुन-कृत श्रीदुर्गा-स्तवन

विनियोग - ॐ अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिः, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता, ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यास-


श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिभ्यो नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीदुर्गा देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ऐं शक्त्यै नमः पादयो, श्रीं कीलकाय नमः नाभौ, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।

कर न्यास - ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्याम नमः, ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्याम वषट्, ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं, ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्, ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां फट्।

अंग-न्यास -ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसें स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचायं हुं, ॐ ह्रौं नैत्र-त्रयाय वौष्ट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।



ध्यान -

सिंहस्था शशि-शेखरा मरकत-प्रख्या चतुर्भिर्भुजैः,

शँख चक्र-धनुः-शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता।

आमुक्तांगद-हार-कंकण-रणत्-कांची-क्वणन् नूपुरा,

दुर्गा दुर्गति-हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्-कुण्डला।।



मानस पूजन - ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः रं वहृ्यात्मकं दीपं दर्शयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।



श्रीअर्जुन उवाच -

नमस्ते सिद्ध-सेनानि, आर्ये मन्दर-वासिनी,

कुमारी कालि कापालि, कपिले कृष्ण-पिंगले।।1।।

भद्र-कालि! नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते।

चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।2।।

कात्यायनि महा-भागे, करालि विजये जये,

शिखि पिच्छ-ध्वज-धरे, नानाभरण-भूषिते।।3।।

अटूट-शूल-प्रहरणे, खड्ग-खेटक-धारिणे,

गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे, नन्द-गोप-कुलोद्भवे।।4।।

महिषासृक्-प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि,

अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।5।।

उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि,

हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्राप्ति नमोऽस्तु ते।।6।।

वेद-श्रुति-महा-पुण्ये, ब्रह्मण्ये जात-वेदसि,

जम्बू-कटक-चैत्येषु, नित्यं सन्निहितालये।।7।।

त्वं ब्रह्म-विद्यानां, महा-निद्रा च देहिनाम्।

स्कन्ध-मातर्भगवति, दुर्गे कान्तार-वासिनि।।8।।

स्वाहाकारः स्वधा चैव, कला काष्ठा सरस्वती।

सावित्री वेद-माता च, तथा वेदान्त उच्यते।।9।।

स्तुतासि त्वं महा-देवि विशुद्धेनान्तरात्मा।

जयो भवतु मे नित्यं, त्वत्-प्रसादाद् रणाजिरे।।10।।

कान्तार-भय-दुर्गेषु, भक्तानां चालयेषु च।

नित्यं वससि पाताले, युद्धे जयसि दानवान्।।11।।

त्वं जम्भिनी मोहिनी च, माया ह्रीः श्रीस्तथैव च।

सन्ध्या प्रभावती चैव, सावित्री जननी तथा।।12।।

तुष्टिः पुष्टिर्धृतिदीप्तिश्चन्द्रादित्य-विवर्धनी।

भूतिर्भूति-मतां संख्ये, वीक्ष्यसे सिद्ध-चारणैः।।13।।

।। फल-श्रुति ।।

यः इदं पठते स्तोत्रं, कल्यं उत्थाय मानवः।

यक्ष-रक्षः-पिशाचेभ्यो, न भयं विद्यते सदा।।1।।

न चापि रिपवस्तेभ्यः, सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः।

न भयं विद्यते तस्य, सदा राज-कुलादपि।।2।।

विवादे जयमाप्नोति, बद्धो मुच्येत बन्धनात्।

दुर्गं तरति चावश्यं, तथा चोरैर्विमुच्यते।।3।।

संग्रामे विजयेन्नित्यं, लक्ष्मीं प्राप्न्नोति केवलाम्।

आरोग्य-बल-सम्पन्नो, जीवेद् वर्ष-शतं तथा।।4।।



प्रयोग विधि -

उक्त स्तोत्र ‘महाभारत’ के ‘भीष्म पर्व’ से उद्धृत है।

१॰ इसकी साधना भगवती के मन्दिर अथवा घर में एकान्त में करनी चाहिये। ‘घी’ के दीपक में बत्ती के लिये अपनी नाप के बराबर रूई के सूत को 5 बार मोड़कर बटे तथा बटी हुई बत्ती को कुंकुम से रंगकर भगवती के सामने दीपक जलायें।

नवरात्र या सर्व सिद्धि योग से पाठ का प्रारम्भ करें कुल 9 या 21 दिन पाठ करें तथा प्रतिदिन 9 या 21 बार आवृत्ति करें। पाठ के बाद हवन करें। लाल वस्त्र तथा आसन प्रशस्त है। साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन करें।

इससे सभी प्रकार की बाधाएं समाप्त होती है तथा दरिद्रता का नाश होता है। शासकीय संकट, शत्रु बाधा की समाप्ति के लिये अनुभूत सिद्ध प्रयोग है।



२॰ नित्य दुर्गा-पूजा (सप्तशती-पाठ) के बाद उक्त स्तव के ३१ पाठ १ महिने तक किए जाएँ। या

३॰ नवरात्र काल में १०८ पाठ नित्य किए जाएँ, तो उक्त “दुर्गा-स्तवन” सिद्ध हो जाता है।

mahishasur mardani strotam महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम



महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १ ॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥

अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥

अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥

अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥

सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥
अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥
सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२ ॥
अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥
कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४ ॥
करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते ।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥
कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥
विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥
कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥
अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते ।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २१ ॥

Saturday, September 6, 2014

kahi Vidhi karu upasana काही विधि करूं उपासना

काही विधि करूं उपासना

उपासना का मतलब है नजदीक जाना... इतना नजदीक की उसके अन्दर जाना, विस्मृत कर देना अपने-आप को, भूल जाना अपने स्वत्व को।

और यह भूलने का भाव, एकाकार हो जाने का भाव प्रेम के द्वारा ही सम्भव है...प्रेम के द्वारा ही जीने और मरने का सलीका आता है, प्रेम के द्वारा ही मर मिटने की उपासना सम्भव है।

और जो मरा नहीं, वह क्या ख़ाक जिया, जिसने विरह के तीर खाए ही नहीं, वह गुरु से क्या एकाकार हो सकेगा, क्या ख़ाक उपासना कर सकेगा -


किसूं काम के थे नहीं, कोई न कौडी देह।
गुरुदेव किरपा करी भाई अमोलक देह ॥
सतगुरु मेरा सुरमा, करे सबद की चोट।
मारे गोला प्रेम का, ढहे भरम का कोट ॥
सतगुरु सबदी तीर है कियो तन मन छेद।
बेदरदी समझे नहीं, विरही पावे भेद

प्रेम, एक धधकता हुआ अंगारा है, जिस पर मोह की राख पड़ गई है... सदगुरु उस पर फूंक मारता है, राख उड़ जाती है, और नीचे से उपासना का अंगार चमकता हुआ निकल आता है।

इसलिए तो खाली प्रार्थना से कुछ भी होना नहीं है, कोरी आंख मूंद लेने से उपासना में सफलता प्राप्ति नहीं हो सकती, इसके लिए जरूरी है गुरु के पास जाना, उनकी उठी हुई बाहों में अपने-आप को समा लेना...तभी आनन्द के अंकुर फुटेंगे, उपासना का राजपथ प्राप्त होगा, और तभी से एकाकार होने की क्रिया संपन्न होगी।

गुरु कहै सो कीजिये, करै सो कीजै नांहि ।
चरनदास की सीख सुन, यही राख मन मांहि ॥
जप- तप- पूजा - पाठ सब, गुरु चरनण के मांहि ।
निस दिन गुरु सेवा करै, फिरू उपासना कांहि ॥
का तपस्या उपासना, जोग जग्य अरु दान ।
चरण दास यों कहत है, सब ही थोथे जान ॥
गुरु ही जप - तप - ध्यान है, गुरु ही मोख निर्वाण ।
चरणदास गुरु नाम ते, नांहि उपासन ज्ञान ॥

श्राद्ध और पितरेश्वर तर्पण srad aur pitesvar tarpan

श्राद्ध और पितरेश्वर तर्पण


मातृ पितृ चरण कमलेभ्यो नमः
सर्व पितरेश्वर चरण कमलेभ्यो नमः


प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता,पूर्वजों को नमस्कार प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं।
इसलिए हमारे ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध,तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि कोई कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है इसीलिए आवश्यक है -


श्राद्धऔर
पितरेश्वर तर्पण मुक्ति विधान-साधना
पितरेश्वर दोष निवारण विधान-साधना


श्राद्ध का अर्थ है - श्रद्धापूर्वक कुछ देना या स्वयं को विनम्रतापूर्वक श्रद्धज्ञ व्यक्त करना। अपने मृत पूर्वजों के लिए कृतज्ञता ज्ञापन करना ही श्राद्ध है, क्योंकि भारतीय मान्यता के अनुसार मृत जीवात्मा विभिन्न लोकों में भटकती हुई दुःखदायी योनियों में प्रविष्ट होती है, तथा अनन्त दुःखों को भोगती है... । शास्त्रीय परम्परानुसार श्राद्ध के माध्यम से दिवंगत आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है।

पितरेश्वर का सामान्य अर्थ यह माना गया है की व्यक्ति विशेष के वे पूर्वज जिन्होंने इस संसार को त्याग दिया है लेकिन प्रेत शब्द का भी अपभ्रंश पितर है अर्थात वे आत्माएं जिन्हें मुक्ति नहीं मिलाती। वे आत्माएं प्रेत योनी में होने के कारण सामान्य भाषा में पितृ अवश्य कहा जाता है लेकिन यह आवश्यक नहीं की इन पितरों का अथवा प्रेतों का आपसे कोई सीधा सम्बन्ध हो। ये प्रेत आत्माएं किसी भी बालक स्त्री, कमजोर व्यक्ति पर अधिकार जमा सकती है। जिसके चलते मरणांतक पीडा होती है। ऐसी प्रेत बाधा से मुक्ति पितृ-पक्ष में, श्राद्ध पक्ष में इस लेख में दी गई है।

परिवार की शुभचिन्तक आत्माएं: भोग अथवा लालसा के कारण आत्मा की मुक्ति नहीं हो पाती है और इसी कारण जब तक कोई नया शरीर न मिले तब तक भटकते रहना एक प्रकार से उसकी विवशता होती है। परन्तु कई बार आत्मा की मुक्ति अपने पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति के कारण भी नहीं हो पाती है। ऐसे कई कारण हो सकते है, जैसे उसने अपनी वसीयत कहीं गुप्त रूप से रख दी हो अथवा धन संचय कर कहीं छिपा दिया हो और अपने परिवार जनों को देना चाहता हो। ये भी हो सकता है, की परिवार जनों के ऊपर कोई विपत्ति आने वाली हो अथवा पुत्री का विवाह जहां तय किया जा रहा हों वह परिवार ठीक न हो, आदि बातों को अपने परिवार जनों को बताना चाहती है। इस दशा में रहकर उस मृतात्मा को जब तक की इन बातों को अपने परिवार जनों से नही कह देती तब तक वह निरंतर एक दबाव में रहती है, उसकी मुक्ति नहीं हो पाती, इसलिए अपनी परिचित मृतात्माओं से सम्पर्क साधक के लिए सदैव कल्याणकारी होता है। पितरों के आशीर्वाद प्राप्ति हेतु पितरेश्वर साधना का इसलिए भारतीय चिन्तन में प्रावधान है।

सृष्टि का क्रम जिस प्रकार निर्धारित समयानुसार संपन्न होता रहता है, उसी प्रकार मनुष्य के निर्धारण भी विभिन्न निश्चित कर्मों से गुजरता हुआ जन्म से मृत्यु और पुंसवन से जन्म की ओर गतिशील होता है।

विश्वनियन्ता के इस निर्धारित क्रम के अनुसार ही हमारे ऋषियों-महर्षियों ने सम्पूर्ण मानव-जीवन को अर्थात गर्भ में आगमन से लेकर जन्म और मृत्यु तक, पूर्ण कालचक्र को विभिन्न खंडों में विभाजित कर दिया है। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, जिससे मनुष्य एक अनुशासित और सुव्यवस्थित तरीके से अपने जीवन को व्यतीत करे और साथ ही प्रत्येक कार्य के साथ, वे कार्य, जो मानव-जीवन को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वूर्ण होते है, उनके हेतु परम पिता परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर, उनकी प्रसन्नता और आशीर्वाद प्राप्त कर सके।

सनातन धर्म में इस निर्धारित कार्य को 'संस्कार' के नाम से संबोधित किया गया है। बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं ये संस्कार योग्य पुत्र अथवा पुत्री की प्राप्ति हेतु। गर्भ में आगमन के समय 'पुंसवन संस्कार' सम्पन्न किया जाता है, तो जन्म लेने के उपरांत 'नामकरण', 'चूडामणि संस्कार' संपन्न किया जाता है, अर्थात पांच से पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक उसका 'उपनयन संस्कार' कर, उसे द्वीज बनाकर पूर्ण विद्यार्जन का अधिकार प्रदान किया जाता है।

यौवन का पदार्पण होने पर 'विवाह संस्कार' किया जाता है और इस प्रकार विभिन्न संस्कारों से गुजरता हुआ व्यक्ति जब वृद्धावस्था को प्राप्त कर अपने जर्जर और रोगग्रस्त शरीर का त्याग कर किसी अन्य शरीर को धारण करने के लिए प्रस्थान करता है, तो उसके द्वारा त्यागे गए शरीर को हिंदू धर्मानुसार अग्नि में समर्पित कर 'कपाल क्रिया संस्कार' सम्पन्न किया जाता है।

अत्यधिक व्यवस्थित है हमारी सनातन धर्म की संस्कृति और अत्यधिक उदार व सहृदय भी। मृत्यु के बाद भी हमारा रिश्ता उस हुतात्मा से जुडा रहता है, समाप्त नहीं होता और उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही बनाया गया है 'श्राद्ध' नामक संस्कार।
श्राद्ध का महत्त्व सर्वविदित है। इसके बारे में कोई आवश्यक नहीं है की विस्तृत विवेचना की जाय, किन्तु यह बहुत ही कम लोगों को ज्ञात होगा, की श्राद्ध बारह प्रकार के होते है: -
  1. नित्य श्राद्ध - जो श्राद्ध प्रतिदिन किया जाय, वह नित्य श्राद्ध है। तिल, धान्य, जल, दूध, फल, मूल, शाक आदि से पितरों की संतुष्टि के लिए प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिए।

  2. नैमित्तिक-श्राद्ध - 'एकोद्दिष्ट-श्राद्ध' के नाम से भी इसे जाना जाता है। इसे विधिपूर्वक सम्पन्न कर विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

  3. काम्य-श्राद्ध - जो श्राद्ध कामना युक्त होता है, उसे काम्य श्राद्ध कहते है।

  4. वृद्धि-श्राद्ध - यह श्राद्ध धन-धान्य तथा वंश-वृद्धि के लिए किया जाता है, इसे उपनयन संस्कार सम्पन्न व्यक्ति को ही करना चाहिए।

  5. सपिन्डन श्राद्ध - इस श्राद्ध को सम्पन्न करने के लिए चार शुद्ध पत्र लेकर उनमे गंध, जल और तिल मिला कर रखा जाता है, फिर प्रेत पात्र का जल पितृ पात्र में छोडा जाता है। चारों पात्र प्रतीक होते है - प्रेतात्मा, पितृत्मा, देवात्मा और उन अज्ञात आत्माओं के, जिनके बारे में हमे ज्ञान नही है।

  6. पार्वण श्राद्ध - अमावास्या अथवा किसी पर्व विशेष पर किया गया श्राद्ध पार्वण-श्राद्ध कहलाता है।

  7. गोष्ठ-श्राद्ध - गौओं कर्मांग गर्भादान सिमान्तोय जाने वाला श्राद्ध कर्म गोष्ठ-श्राद्ध कहलाता है।

  8. शुद्धयर्थ-श्राद्ध - विद्वानों की संतुष्टि, पितरों की तृप्ति, सुख-संपत्ति की प्राप्ति के निमित्त ब्राहमणों द्वारा कराया जाने वाला कर्म शुद्धयर्थ-श्राद्ध है

  9. कर्मांग-श्राद्ध - यह श्राद्ध गर्भाधान, सिमान्तोन्नयन तथा पुंसवन संस्कार के समय सम्पन्न होता है।

  10. दैविक-श्राद्ध - देवाताओं के निमित्त घी से किया गया हवानादी कार्य, जो यात्रादी के दिन संपन्न किया जाता है, उसे दैविक-श्राद्ध कहते है।
  11. औपचारिक-श्राद्ध - यह श्राद्ध शरीर की वृद्धि और पुष्टि के लिए किया जाता है।
  12. सांवत्सरिक-श्राद्ध - यह श्राद्ध सभी श्राद्धों में श्रेष्ठ कहलाता है, और इसे मृत व्यक्ति की पुण्य तिथि पर सम्पन्न किया जाता है। इसके महत्त्व का आभास 'भविष्य पुराण' में वर्णित इस बात से हो जाता है, जब भगवान सूर्य स्वयं कहते है - 'जो व्यक्ति सांवत्सरिक-श्राद्ध नहीं करता है, उसकी पूजा न तो मै स्वीकार करता हूं न ही विष्णु, ब्रम्हा, रुद्र और अन्य देवगण ही ग्रहण करते है।' अतः व्यक्ति को पर्यंत करके प्रति वर्ष मृत व्यक्ति की पुण्य तिथि पर इस श्राद्ध को सम्पन्न करना ही चाहिए।
जो व्यक्ति माता-पिता का वार्षिक श्राद्ध नहीं करता है, उसे घोर नरक की प्राप्ति होती है, और अंत में उसका जन्म 'सूकर योनी' में होता है। श्राद्ध पक्ष में व्यक्ति को अपने घर में निर्धारित तिथि के अनुसार श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना ही चाहिए।
कुछ व्यक्तियों के सम्मुख यह प्रश्न होगा कि उन्हें अपने माता पिता की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं है, तो वे किस दिन श्राद्ध सम्पन्न करें?
- ऐसे व्यक्ति को श्राद्ध पक्ष की अमावास्या को श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिए। सौभाग्यवती स्त्रियों का श्राद्ध यथा - मां, दादी, परदादी आदि का श्राद्ध मातृ नवमी को करना चाहिए।
श्राद्ध कर्म केवल मृत माता-पिता के लिए ही सम्पन्न किया जाता है, ऐसी बात नहीं है, यह कर्म तो मृत पूर्वजों के प्रति आदर का सूचक है, और उनके आशीर्वाद को प्राप्त कराने का सुअवसर है, अतः श्राद्ध कर्म प्रत्येक साधक और पाठक को सम्पन्न करना ही चाहिए।

Aryan culture protector, आर्य संस्कृति के रक्षक


आर्य संस्कृति के रक्षक



प्रिया आत्मीय बंधुओं,




समय का चक्र अपनी गति से चलता रहता है। उस गति में हर क्षण नित्य नवीन होता है। पुराने क्षण से अलग कुछ नया करने का आह्वान करता है। जीवन को लम्बी यात्रा न मानकर क्षण-क्षण जीने में ही आनन्द है और जो जीवन को भार समझाते हैं, यह कि जीवन में केवल बाधाएं और परेशानियां ही हैं तो उनके लिए यह भार बढ़ता ही जाता है। जो साधक है, जो शिष्य है वह अपने मन से एक-एक कर भार का बोझ फेकता रहता है। अपने मार्ग में आने वाले कांटे पत्थरों को स्वयं हटाता है। स्वयं के प्रयत्नों से इस यात्रा में एक विशेष आनन्द की अनुभूति होती है। इस आनन्द में पूर्ण आत्म साक्षात्कार कराने हेतु सदगुरुदेव हर समय ह्रदय में विराजमान रहते ही हैं, केवल आवश्यकता इस बात की है की हम मन मंथन हर समय करते रहे। अपने आप को समय के तराजू पर तोलते रहें, समाज आवश्यक है लेकिन समाज की चिंताओं में इतना भी अधिक जकड नहीं जाएं कि समाज हमारे मन पर हावी हो जाएं।




जीवन के अज्ञान अंधकार को मिटाने के लिए यह आवश्यक है कि हमें अपने अन्दर विखण्डन प्रक्रिया प्रारम्भ करनी ही पड़ेगी। इसके लिए कोई समय मूहूर्त की आवश्यकता नहीं है। सदगुरुदेव कहते हैं कि जीवन का आधार विचार, विवेक और वैराग्य है। साधक का प्रथम कर्तव्य विचारशील होना है और यह विचार विवेक से युक्त होने चाहिए। लाखों प्रकार की बातें हम सुनते हैं, लाखों प्रकार के मंत्र हैं, लाखों प्रकार के अन्य कार्य हैं, लाखों प्रकार के मोह है। लेकिन जब हम अपने विवेक स्थान, जिसका प्रारम्भ ह्रदय से है, जिसका भाव आज्ञा चक्र मस्तिष्क में है उस विवेक स्थान पर सदगुरुदेव स्थापित हो जाएं तो श्रेष्ठ विचार ही उत्पन्न होते हैं। विचार ही महाशक्ति है, विचार ही आद्या दुर्गा शक्ति है, महाकाली है, महाविद्याएं है, विचार ही भाग्य का निर्माण करती है। विचार का तात्पर्य है संकल्प और चिंतन। जब चिंतन के साथ संकल्प प्रारम्भ होता है तो जीवन की समस्याएं लघु लगने लगती हैं और इसी से जीवन में एक निःस्पृह योगी का भाव आता है। आप साधक है, शिष्य है और शक्ति के उपासक हैं। सदगुरुदेव रूपी शिव आपके साथ है फिर जीवन में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।




जब हम गुरु से मिलते है तो हमारा नया जन्म होता है और जीवन का हर क्षण एक उज्जवल भविष्य की सम्भावना लेकर आता है। हर घड़ी एक महान मोड़ का समय हो सकती है। क्या पता जिस क्षण को हम समझकर बरबाद कर रहे हैं, वही हमारे लिए अपनी झोली में सुंदर सौभाग्य की सफलता लाया हो। समय की चूक पश्चाताप की हूक बन जाती है। जीवन में कुछ करने की इच्छा रखने वालों को चाहिए कि वे अपने किसी भी ऐसे कर्तव्य को भूलकर भी कलपर न टालें, जो आज किया जाना चाहिए। आज के मन के लिए आज का ही दिन निश्चित है और हमें हर समय वर्त्तमान में ही जीवन जीना है।




गुरुदेव चाहे तो एक क्षण में वरदान देकर जीवन को परिवर्तित कर सकते हैं लेकिन गुरुदेव तो जीवन को तपाते है, साधक में अग्नि तत्व का संचार करते हैं और जब यह अग्नि तत्व संचालित हो जाता है तो साधक आत्म ज्ञान का पहला अध्याय पूरा करता है। इसलिए सदगुरुदेव सदैव संस्कृति और संस्कार पर बल देते हैं। संस्कार एक दिन में ही जाग्रत हो जाते हैं इसे बदलने के लिए मन के हजार-हजार बंधनों को तोड़ना पङता हैं।




जब नदी कई धाराओं में बट जाती है तो वह नदी न बनकर एक नहर बन जाती है और नहरें समुद्र को पा नहीं सकती हैं। वे छोटे-छोटे टुकडों में बटी हुई अपने अस्तित्व को समाप्त कर देती हैं और केवल स्थान भर के लिए थोडी उपयोगी रह जाती है। शिष्य भी नदी की तरह ही जब वह ज्ञान के मार्ग पर जीवन की यात्रा करता है तो उसमें दृढ़ निश्चय संकल्प होना आवश्यक है क्योंकि उसका लक्ष्य यह होना चाहिए कि मुझे अपने सागर रुपी गुरु से मिलना है। गुरु ही विराट है उसी में अपने अस्तित्व का मिलन करना है।




सिद्धाश्रम साधक परिवार की इस यात्रा में जब मैं कई शिष्यों को अपने मार्ग से थोडा भटकते हुए देखता हूं आश्चर्य होता है मन व्यथित होता है, जब लोगों को सदगुरु के नाम पर ढोंग करने वाले शिष्यों के सामने नमन करते देखता हूं, जब कुछ शिष्यों को क्षणिक, भौतिक सुविधाओं के लिए ऐसे लोगों के पास भटकते देखता हूं जो उन्हें जीवन की सारी भौतिक बाधाओं को पूर्ण करने का छलावा दिखाते हैं। कोई तथाकथित गुरु गडा धन बताने की बात करता है तो कोई तथाकथित गुरु भूत-प्रेत भगाने का दावा करता है तो कोई मां काली के दर्शन कराने का भ्रम दिखाता है। इन छोटे-छोटे स्थानिक गुरुओं को देखकर आश्चर्य होता है कि सदगुरु के शिष्य ऐसे भ्रम में कैसे पड़ जाते हैं? और मेरे सामने इनका उत्तर ना मिलने पर सदगुरुदेव निखिल के सामने बैठकर प्रार्थना करता हूं कि हे! गुरुदेव यह कैसी लीला है तो गुरुदेव कहते हैं कि चिंता करने की कोई बात नहीं है घासफूस, खतपतवार, मौसमी फल थोड़े समय के लिए सबको अच्छे लगते हैं लेकिन खतपतवार, मौसमी फल-फूल का जीवन स्थाई नहीं रहता। जो शिष्य इन मार्गों पर जा रहे हैं वे वापस सिद्धाश्रम की मुख्य धारा में अवश्य आयेंगे।




इसलिए मुझे आज यह उदघोष करना है कि आप सिद्धाश्रम साधक परिवार के प्रहरी हैं। सदगुरुदेव के मानस पुत्र हैं, दीक्षा प्राप्त शिष्य हैं, आर्य संस्र्कुती के रक्षक हैं तो आपका यह कर्तव्य कि सदगुरुदेव के नाम पर पड़ने वाली इस खतपतवार को समाप्त कर दें। इन ढोंगियों को ऐसी सजा दे कि पूरा समाज देख सके और पत्थर और हीरे में अनुभव अन्तर कर सकें। कृत्रिम चमक कुछ समय के लिए लुभा सकती है लेकिन हीरा तो हीरा ही है। हमारे सदगुरुदेव तो हीरे से भी अधिक मूल्यवान, सागर से भी

विशाल, हिमालय से भी उंचे, शिवरूपी निखिल हैं और जिन्हें प्राप्त करना सहज है।




इसी उद्देश्य से यह अंक भगवती मां दुर्गा को समर्पित है, महाविद्याओं को समर्पित है जिनकी साधना आराधना कर हम जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकते हैं।




इस बार बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में फिर महाशिवरात्रि पर्व "हर-हर महादेव" का उदघोष करेंगे। शिव और शक्ति से अपने जीवन को भर देंगे क्योंकि हमारा एक ही मूल सुत्र है -








एकोही नामं एकोहि कार्यं, एकोहि ध्यानं एकोहि ज्ञानं ।


आज्ञा सदैवं परिपालयन्ति; त्वमेवं शरण्यं त्वमेव शरण्यं ॥





आपका अपना


नन्द किशोर श्रीमाली


मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका , फरवरी 2006