Wednesday, August 25, 2010

सिकंदर - गुरु के प्रति सच्ची भक्ति

सिकंदर - गुरु के प्रति सच्ची भक्ति

विश्व विजयी सिकंदर अपने गुरु अरस्तु का बहुत सम्मान करता था! उनकी दी हुयी शिक्षाओं का सदैव अमल भी करता! अरस्तु के आदेश उसके लिए पत्थर की लकीर होते और कभी वह उनके विपरीत आचरण नहीं करता था!
एक दिन वह अरस्तु के साथ कहीं से लौट रहा था! उस दिन गुरु-शिष्य पैदल ही थे! ऊंची-ऊंची पहाड़ियों व सघन वन के प्राकृतिक माहौल में दोनों वार्तालाप करते हुए चल रहे थे!
सहसा सामने एक गहरा नाला आ गया! अरस्तु के मन में अपने प्रिय शिष्य के प्रति प्रेम उमड़ गया!
वे बोले : “सिकंदर इस नाले को पहले मैं पार करूँगा, फिर तुम करना! पहले मैं इसकी गहराई देख लूँ!”
किन्तु आज सिकंदर के मन में कुछ और ही था! उसने जीवन में प्रथम बार गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया और गुरु से पहले ही नाला पार कर लिया!
सिकंदर के इस कृत्य पर अरस्तु ने नाराज होकर पूछा –
“तुमने आज तक मेरी आगया को सिर-आँखों पर लिया हैं! फिर आज क्यों नहीं माना?"
सिकंदर ने विनय पूर्वक कहा :
“गुरुदेव! नाला  पार करते समय यदि आपके साथ कोई अनहोनी घट जाती तो मैं आपके जैसा दूसरा गुरु कहाँ खोजता? और यदि मैं डूब जाता तो आप अपने ज्ञान
से सैकड़ों सिकंदर बनाने में समर्थ हैं!"

यही थी सिकंदर की गुरुभक्ति, जो सिखाती हैं कि अपने ज्ञान व अनुभव से जो हमारी आत्मा को समृद्ध बनता हैं, उस व्यक्तित्व के प्रति पूर्ण आदरभाव रखना चाहिए और अवसर आने पर उसके लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने से भी नहीं चूकना चाहिए! यही गुरु ऋण से मुक्त होने का तरीका हैं और हमारे आद्य भारतीय संस्कारों का अभिन्न अंग भी हैं!
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
पेज न. : 04.
दिसम्बर : 2009

गुरु मंत्र से सिद्धि

कालिदास विश्व के विख्यात कवि थे, परन्तु प्रारंभ में ये सर्वथा मूर्ख, निरक्षर व अबोध व्यक्ति थे, जब पत्नी ने महल से धक्का देकर उन्हें  बाहर निकल दिया तो संयोगवश मार्ग में ही विख्यात योगी कालीचरण मिल गए, उन्होंने साधना के बल पर सब कुछ जान लिया, बोले : "तुम निरक्षर हो, अतः साधना तो कर नहीं सकते पर मैं तुम्हें अपना
शिष्य बनाकर 'गुरु मंत्र' दे देता हूँ.और यदि निरंतर गुरु सेवा और गुरु मंत्र जप करोगे तो निश्चय ही तुम जीवन में वह सब कुछ पा सकोगे जो कि तुम्हारा अभीष्ट हैं."
             युवक कालिदास ने गुरु की बात अपने हृदय में उतार ली और निरंतर गुरु मंत्र का जप करने लगा,वह सोते, बैठते, उठाते, जागते, खाते, पीते गुरु का ही चिंतन करता, गुरु उसके इष्ट और भगवान बन गए, सामने कलि की मूर्ति में भी उसे गुरु के दर्शन होते, गुरु को उदास देखकर वह झुंझला जाता, गुरु को प्रसन्न मुद्रा में देखकर वह खिल उठता, चौबीस घंटे वह गुरु के ध्यान में ही डूबा रहता और इसी प्रयत्न में रहता कि गुरु उसे आज्ञा दे और वह प्राणों की बजी लगाकर भी उसे पूरा करे, वह हर क्षण ऐसे मौके की तलाश में रहता, जब उसे गुरु सेवा करने का अवसर प्राप्त हो सके.
             इस प्रकार कालिदास ने अपने आपको पूरी तरह से गुरुमय बना दिया था. 90 दिन के बाद स्वामी कालीचरण ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर "शाम्भवी दीक्षा" दी और ऐसा होते ही उसके अन्तर का ज्ञान दीप प्रदीप्त हो उठा, कंठ से वाग्देवी प्रगट हुयी और स्वतः काव्य उच्चरित होने लगा.
आगे चलकर बिना अन्य कोई साधना किये केवल गुरु साधना और शाम्भवी दीक्षा के बल पर कालिदास अद्वितीय कवि बन कुमार संभव,मेघदूत और ऋतुसंहार जैसे काव्य ग्रंथों की रचना कर विश्व विख्यात बन सकें.

 -मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान.
जुलाई 2006, पेज न. : 4.

गुरु सेवा

गुरु सेवा

 

 गंगा नदी के किनारे स्वामी जी का आश्रम था! स्वामी जी की दिनचर्या नियमित
थी, जो प्रातः काल स्नान से प्रारंभ होती थी! उनके सभी शिष्य भी जल्दी
उठकर अपने कार्यों से निवृत्त होते और फिर गुरु सेवा में लग जाते! उनके
स्नान-ध्यान से लेकर अध्यापन कक्ष की सफाई व आश्रम के छोटे-मोटे कार्य
शिष्यगण ही करते थे!
            एक सुबह स्वामी जी एक संत के साथ गंगा-स्नान कर रहे थे! तभी स्वामीजी
अपने शिष्य को गंगाजी में खड़े-खड़े ही आवाज लगायी!
शिष्य दौड़ा-दौड़ा चला गया!
स्वामीजी ने उससे कहा : "बेटा! मुझे गंगाजल पीना हैं!"
शिष्य आश्रम के भीतर से लोटा लेकर आया और उसे बालू से मांजकर चमकाया! फिर
गंगाजी में उतरकर पुनः लोटा धोकर गंगाजल भरकर गुरूजी को थमाया! स्वामी जी
ने अंजलि भरकर लोटे से जल पिया!
इसके बाद शिष्य खली लोटा लेकर लौट गया!
यह सब देखकर साथ नहा रहे संत ने हैरान होते हुए पूछा :
"स्वामी जी जब आपको गंगाजल हांथों से ही पीना था तो शिष्य से व्यर्थ
परिश्रम क्यों करवाया? आप यहीं से जल लेकर पी लेते!"

इस पर स्वामी जी बोले : "यह तो उस शिष्य को सेवा देने का बहाना भर था!
सेवा इसीलिए दी जाती हैं की व्यक्ति का अंत:करण शुद्ध हो जाये और वह
विद्या का सच्चा अधिकारी बन सके, क्योंकि बिना गुरु सेवा के शिक्षा
प्राप्त नहीं की जा सकती!

चाणक्य नीति में कहा गया हैं की जिस प्रकार कुदाल से मनुष्य जमीन को
खोदकर जल निकल लेता हैं उसी प्रकार गुरु की सेवा करने वाला शिष्य गुरु के
अंतर में दबी शिक्षा को प्राप्त कर सकता हैं!
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
पेज नं. 4 : अगस्त 2009

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शिष्य का यही कर्त्तव्य होता हैं, कि वह गुरु के द्वारा दीक्षा प्राप्त
करें, ज्ञान प्राप्त करे और उनकी सेवा में निरंतर लगा रहे.  
       -
सदगुरुदेव, दीक्षा संस्कार, पेज नं. 23.
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तुमने एक शरीर को गुरु मान लिया हैं, गुरु तो वह तत्व हैं, जिससे जुड़कर
तुम उन आयामों को स्पर्श कर सकते हो, जिनको शाश्त्रों ने पूर्णमिदः
पूर्णमिदं कहा हैं! उसके लिए गुरु के शरीर को बांहों में लेने की जरुरत
नहीं! आवश्यकता हैं की तुम अपना मन उनके चरण कमलों में समर्पित करो…. और वह हो पायेगा केवल और केवल मात्र गुरु सेवा से और गुरु मंत्र जप से!

-सदगुरुदेव, गुरु वाणी. पेज : 45, मई 2009.

 

जैसी रही भावना जिसकी

जैसी रही भावना जिसकी

एक प्रसिद्द वेश्यालय था, जो किसी मंदिर के सामने ही स्थित था. वेश्यालय में नित्य प्रति गायन-वादन-नृत्य आदि होता रहता था, जो की वह वेश्या अपने ग्राहकों की प्रसन्नता के लिए प्रस्तुत करती थी और बदले में बहुत सारा धन व कीमती उपहार उनसे प्राप्त करती थी. इस प्रकार उसकी समस्त भौतिक इच्छाएं तो पूर्ण थी, लेकिन कठोर मनुवादी व्यवस्था के अंतर्गत उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित था और उसे वहां पूजा-पाठ आदि करने की अनुमति नहीं थी. वेश्यालय में तो उसे ग्राहकों से ही फुर्सत नहीं थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार मंदिर में स्थापित देव मूर्ति का दर्शन कर ले और धीरे-धीरे समय के साथ उसकी यह इच्छा एक प्रकार की व्याकुलता में बदल गयी. जब मंदिर में आरती के समय बजने वाली घंटियों की आवाज उसके कानों में पड़ती, तो वह अत्यंत व्यग्र हो उठती, उसका हृदय रूदन कर उठता और भगवान् दर्शन की उत्कंठा उसके नेत्रों से बरसने लगती.

वेश्या के गायन-नृत्य आदि की स्वर लहरिया मंदिर तक भी पहुंचती थी. मंदिर का पुजारी कभी तो अत्यंत क्रोधित होता, कि उस नीच कर्मों में रत स्त्री की आवाज़ से मंदिर के वातावरण की पवित्रता में विघ्न उपस्थित हो रहा हैं और कभी वासना के वशीभूत उसी वेश्या के आगोश में पहुँच कर उसके रूप-रस का पान करने की कल्पना में डूब जाता, लेकिन मनुवादी स्समजिक मर्यादा के कारन ऐसा संभव नहीं था.

संयोगवश उस वेश्या और पुजारी, दोनों की मृत्यु एक ही समय हुयी. यमराज उस पुजारी को नरक के द्वार पर छोड़ कर वेश्या को स्वर्ग की और ले जाने लगे.

पुजारी को इस पर बहुत क्रोध आया और उसने यमराज से पूछा – “मैं जीवन भर मंदिर में देव मूर्तियों का पूजन करता रहा, फिर भी मुझे  नरक में जगह दी जा रही हैं और यह वेश्या जीवन भर पाप कर्मों में लिप्त रही, फिर भी इसे स्वर्ग ले जाया जा रहा हैं. ऐसा क्यों?”

यमराज ने उत्तर दिया – “देव मूर्तियों की पूजा करते हुए भी तुम्हारा चित्त सदा इस वेश्या में ही लगा रहा, जबकि पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए भी इसका चित्त देव मूर्ति में ही लगा रहा. यही वजह हैं, कि इसे स्वर्ग मिल रहा हैं और तुम्हें नरक.

वस्तुतः कर्म के साथ विचारों का भी जीवन में अत्यधिक महत्त्व हैं. जब तक चित्त वेश्यागामी रहेगा (अर्थात भौतिक भोगों में लिप्त रहेगा), तब तक देव पूजन, जप, साधना आदि के उपरांत भी स्वर्ग (अर्थात देवत्व. श्रेष्ठता, सफलता, पूर्णता) की प्राप्ति संभव नहीं हैं.

किसी साधना आदि में असफलता प्राप्त होने के पीछे कारन ही यही होता हैं, कि कहीं न कहीं उसके विश्वास, श्रद्धा, समर्पण आदि में न्यूनता रहती हैं एवं चित्त साधनात्मक चिंतन से न्यून हो कर भोगेच्छाओं में लिप्त होता हैं.

अतः साधक का यह पहला कर्त्तव्य हैं, कि वह प्रतिक्षण गुरु या इष्ट चिंतन करता हुआ, मन को नियंत्रित करें, तभी श्रेष्ठता की और अग्रसर होने की क्रिया संभव हो पायेगी.

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान अप्रैल 1997 : पेज 03.

16 कलाये

16 कलाये

 

16 कलाये

  1. वाक् सिद्धि : जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं!

  1. दिव्य दृष्टि: दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं!

  1. प्रज्ञा सिद्धि : प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें!

  1. दूरश्रवण : इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता!

  1. जलगमन : यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो!

  1. वायुगमन : इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं!

  1. अदृश्यकरण : अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं!

  1. विषोका : इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं!

  1. देवक्रियानुदर्शन : इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं!

  1. कायाकल्प : कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव तोग्मुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं!

  1. सम्मोहन : सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं!

  1. गुरुत्व : गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं!

  1. पूर्ण पुरुषत्व : इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की!

  1. सर्वगुण संपन्न : जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं!

  1. इच्छा मृत्यु : इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं!

  1. अनुर्मि : अनुर्मि का अर्थ हैं-जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो!

यह समस्त संसार द्वंद्व धर्मों से आपूरित हैं, जितने भी यहाँ प्राणी हैं, वे सभी इन द्वंद्व धर्मों के वशीभूत हैं, किन्तु इस कला से पूर्ण व्यक्ति प्रकृति के इन बंधनों से ऊपर उठा हुआ होता हैं!

 

कामाख्या का तांत्रिक सम्मलेन

1. कामाख्या का तांत्रिक सम्मलेन

कामाख्या तांत्रिक सम्मलेन (तांत्रिक सिद्धियाँ)
कितना अद्भुत था कामाख्या का तांत्रिक सम्मलेन! इस सम्मलेन में माँ कपाली भैरवी, पिशाच सिद्धियों के स्वामी, कंकाल भैरवी, त्रिजटा अघोरी, बाबा भैरवनाथ, पगला बाबा, आदि विश्व विख्यात तांत्रिक आये हुए थे!
सभापति कौन बनेगा, इस बात पर सभी एकमत नहीं हो पा रहे थे, कि तभी त्रिजटा अघोरी ने अत्यंत मेघ गर्जना के साथ परम पूज्य गुरुदेव निखिलेश्वरानंदजी महाराज (सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी) का नाम प्रस्तावित किया और घोषणा की:
यही एकमात्र ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो साधना के प्रत्येक क्षेत्र, चाहे वह तंत्र का हो, या मंत्र का हो, कृत्या साधना हो, चाहे भैरव साधना हो, या किसी भी तरह की कोई भी साधना हो, पूर्णतः सिद्धहस्त हैं!
भुर्भुआ बाबा ने भी इस बात का अनुमोदन किया! जब सबने पूज्य गुरुदेव को देखा, तो उन्हें सहज में विश्वास नहीं हुआ, कि धोती-कुरता पहना हुआ यह व्यक्ति क्या वास्तव में इतने अधिक शक्तियों का स्वामी हैं. इसी भ्रमवश कपाली बाबा ने गुरुदेव को चुनौती दे दी!
        कपाली बाबा ने कहा तुम्हारा अस्तित्व मेरे एक छोटे से प्रयोग से ही समाप्त हो जायेगा, अतः पहले तुम ही मेरे पर वार करके अपनी शक्ति का प्रदर्शन करो!
        गुरुदेव ने अत्यंत विनम्र भाव से उसकी चुनौती को स्वीकार करते हुए कहा आपको अपनी कृत्याओं पर भरोसा करना चाहिए, किन्तु यह भी ध्यान रखना चाहिए, कि दूसरा व्यक्ति भी कृत्याओं से संपन्न हो सकता हैं!.
        मुस्कुराते हुए गुरुदेव ने कहा मैं आपका सम्मान करते हुए आपको सावधान करता हूँ कि आपके प्रयोग से मेरा कुछ नहीं बिगडेगा. यदि आप को अहं हैं कि आप मुझे समाप्त कर देंगे! तो पहले आप ही अपने सबसे शक्तिशाली या संहारक अस्त्र का प्रयोग कर सकते हैं!
        इतना सुनते ही कपाली बाबा ने अत्यंत तीक्ष्ण संहारिणी कृत्या का आवाहन करके सरसों के दानों को गुरुदेव की तरफ फेंकते हुए कहा लें! अपनी करनी का फल भुगत!
        संहारिणी कृत्या का प्रहार यानि विशाल पर्वत का नमो-निशान समाप्त हो जाये! अत्यंत उत्सुक और भयभीत नजरों से अन्य साधक मंत्र की ओर देख रहे थे, किन्तु आश्चर्य की पूज्य गुरुदेव अपने स्थान से दो-चार कदम पीछे हटकर वापिस उसी स्थान पर आकर खड़े हो गए! कपाली बाबा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा! उन्हें तो उम्मीद ही नहीं थी, कि यह साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति संहारिणी कृत्या का सामना कर सकेगा! इसके बाद कपाली बाबा ने बावन भैरवों का एक साथ प्रहार किया! लेकिन उनका यह प्रहार भी पूज्य गुरुदेव का बाल-बांका न कर सका!
        कपाली भैरवी तथा अन्य तांत्रिकों ने गुरुदेव को प्रयोग करने के लिए कहा! गुरुदेव ने कपाली बाबा से कहा मैं एक ही प्रयोग करूँगा, यदि तुम इस प्रयोग से बच गए, तो मैं तुम्हारा शिष्यत्व स्वीकार कर लूँगा!
        गुरुदेव ने दो क्षण के बाद ही अपनी मुट्ठी कपाली बाबा की तरफ करके खोल दी और इसी समय कपाली बाबा लड़खडा कर गिर पड़े, उनके मुंह से खून की धारा बह निकली! पूज्य गुरुदेव ने कहा यदि कपाली बाबा क्षमा मांग ले, तो मैं उन्हें दया करके जीवनदान दे सकता हूँ!
        कपाली बाबा के मुंह से खून निकल रहा था! फिर भी उनमें चेतना बाकी थी. उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर क्षमा मांगी! गुरुदेव ने अत्यंत कृपा करके अपना प्रयोग वापिस लिया और वहां उपस्थित साधकों के अनुग्रह पर कपाली बाबा के सिर से दो-चार बाल उखाड कर उनको अपना शिष्यत्व प्रदान किया और तांत्रिक सम्मलेन का सभापति बनें.

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान आध्यात्मिक पत्रिका से.
पृष्ठ नं. : 42, जुलाई 2005

नोट : यह घटना विस्तार में गुरुदेव के ग्रन्थ तांत्रिक सिद्धियाँ में पूर्ण रूप से दी हुयी हैं!
साथ ही कामाख्या का तांत्रिक सम्मलेन वह सम्मलेन हैं, जिसमें सम्मिलित होने हेतु हमारे देश के साथ ही समस्त विश्व (पृथ्वी) से तंत्र के उच्चकोटि के व्यक्तित्वों को आमंत्रित किया गया था! इस सम्मलेन में सम्मिलित होने के लिए यह आवश्यक था कि उसे कम से कम दो महाविद्या सिद्ध होनी ही चाहिए... और साथ ही तंत्र की उच्चकोटि की अन्य क्रियाओं आदि की जानकारी होना आवश्यक था!
इसका सभापति सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी महाराज (डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी) का होना इस बात की और इंगित करता हैं, कि तंत्र में गुरुदेव के समकक्ष कोई भी व्यक्तित्व नहीं हैं!

India ke सर्वश्रेष्ठ एवं ऋषियों में भी परम वन्दनीय ऋषिगण

सर्वश्रेष्ठ एवं ऋषियों में भी परम वन्दनीय ऋषिगण निम्नवत हैं, जिनका उल्लेख कूर्म पुराण, वायु पुराण तथा विष्णु पुराण में भी प्राप्त होता है! इन ऋषियों ने समय-समय पर शास्त्र तथा सनातन धर्म की मर्यादा बनाये रखने के लिए सतत प्रयास किया हैं! अतः ये आज भी हम लोगों के लिए वन्दनीय हैं -
स्वयंभू,
मनु,
भारद्वाज,
वशिष्ठ,
वाचश्रवस नारायण,
कृष्ण द्वैपायन,
पाराशर,
गौतम,
वाल्मीकि,
सारस्वत,
यम,
आन्तरिक्ष धर्म,
वपृवा,
ऋषभ,
सोममुख्यायन,
विश्वामित्र,
मुद्गल,