Wednesday, August 25, 2010

ध्यान रहे, केवल वही महत्वपूर्ण है

"ध्यान रहे, केवल वही महत्वपूर्ण है जो कि तुम शरीर को छोड़ते समय अपने साथ ले जा सकते हो। इसका मतलब है, ध्यान को छोड़कर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। जागरूकता के अलावा कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि केवल जागरूकता को मौत नहीं ले जा सकती। बाकी सब कुछ छीन लिया जाएगा, क्योंकि सब कुछ बाहर से आता है। केवल जागरूकता भीतर से उमगती है। इसे छीना नहीं जा सकता। और जागरूकता की छाया - करुणा, प्रेम - वे भी छीने नहीं जा सकते। वे जागरूकता के आंतरिक हिस्से हैं। तुम अपने साथ सिर्फ जागरूकता ले जाओगे।

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान

एक याचक कभी साधक नहीं बन सकता इसलिए किसी से कुछ न मांगें |
 मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान काय है

वशिष्ठ ने कात्यायनी से कहा : "यदि तुम्हें जीवन में आनंद प्राप्त करना हैं, सब्भी रोगों से मुक्त होना हैं, चिरयौवनमय बने रहना हैं और सिद्धाश्रम के मार्ग में पूर्णता प्राप्त करनी हैं तो तुम्हें मंत्र-तंत्र और यंत्र का समन्वय करना होगा!" और कात्यायनी ने वशिष्ठ को पति नहीं गुरु रूप में स्वीकार कर ऐसा किया और अपने जीवन को उच्चता पर पहुँचाया!

इसलिए जीवन में मंत्र-तंत्र-यंत्र का परस्पर सम्बन्ध हैं, इनके द्वारा ही जीवन ऊपर की और उठ सकता हैं! मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान का प्रकाशन ही इसलिए किया हैं.... कोई आवश्यकता नहीं थी, मगर आवश्यकता इस बात की थी कि इस समय सारा संसार भौतिक बंधनों में बंधा हुआ हैं, और बन्धनों में बंधने के कारन व्यक्ति अन्दर से छटपटाता रहता हैं, वह चाहता हैं मैं मुक्त हवा में साँस ले सकूँ, मैं कुछ आगे बढ़ सकूँ, मैं जीवन में बहुत कुछ कर सकूँ..... मगर इसके लिए कोई रास्ता नहीं हैं, उसको कोई समझाने वाला नहीं हैं!

ऐसी स्थिति में पत्रिका का प्रकाशन किया गया और इस पत्रिका में मंत्र-तंत्र और यंत्र तीनों का समन्वय किया गया हैं! इसमें उच्चकोटि के मंत्रों का चिंतन दिया गया हैं! यह पत्रिका केवल कागज के कोरे पन्ने नहीं हैं! यदि बाजार से कागजों का एक बण्डल लाया जायें, तो वह सौ रूपये में प्राप्त हो सकता हैं, मगर जब उन कागजों पर उच्चकोटि के मंत्र और साधना विधियां लिख दी जाती हैं, तो वह पुस्तक अमूल्य हो जाती हैं! ज्ञान को मूल्य के तराजू में नहीं तौला जा सकता, ज्ञान को इस बात से भी नहीं देखा जाता हैं कि इस पत्रिका का मूल्य पांच रूपये या पच्चीस रूपये हैं, ज्ञान का मूल्य तो अनन्त होता हैं!

इसलिए हमने इस श्रेष्ठतम पत्रिका का प्रकाशन किया! इसके माध्यम से हम अपने पूर्वजों के ज्ञान को, पूर्वजों के साहित्य को, जो लुप्त होता जा रहा हैं, जो समाप्त होता जा रहा हैं, उसे सुरक्षित कर सकें, क्योंकि कुछ समय और बीत गया, तो हम इन मंत्रों के, तंत्रों के बारे में कुछ जान ही नहीं सकेंगे! उन सबको सुरक्षित रखने के लिए इस पत्रिका का प्रकाशन किया...... इसके पीछे कोई व्यापर की आकांक्षा और इच्छा नहीं हैं, इसके पीछे जीवन का कोई ऐसा चिंतन नहीं हैं कि इसके माध्यम से धनोपार्जन किया जायें, चिंतन तो इस बात के लिए हैं कि हम पूर्वजों की थाती को, पूर्वजों के ज्ञान को सुरक्षित रख सकें!

और पिछले कई वर्षों से इस पत्रिका का प्रकाशन इस बात का प्रमाण हैं कि आज भी समाज में चेतना हैं, जो इस प्रकार का ज्ञान चाहती हैं! अगर नहीं चाहती, तो पत्रिका कभी भी बंद हो चुकी होती! ऐसे व्यक्ति हैं जो इस प्रकार की साधनाओं के लिए लालायित हैं,  उनको इस प्रकार की साधनाएं देने के लिए, वे समयानुसार किस प्रकार की साधनाएं करें , उनको मार्गदर्शन देने के लिए ही इस पत्रिका का प्रकाशन किया गया हैं!

और सही कहूँ तो यह पत्रिका नहीं कलयुग की श्रीमदभगवदगीता हैं, जिसका एक-एक पन्ना आने वाले समय के लिए, आने वाली पीढ़ी के लिए धरोहर हैं, उच्चता तक ले जाने की सीढ़ी हैं!

-पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी.
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान.
जनवरी 2000, पेज 31.

धरती पर ही होता हैं स्वर्ग और नर्क

धरती पर ही होता हैं स्वर्ग और नर्क

            एक बार एक शिष्य को समझ नहीं आ रहा था कि स्वर्ग-नर्क मृत्यु के बाद ही प्राप्त होते हैं या जीते जी भी मिलते हैं.
            पूछने पर गुरुदेव उसे समझाने की बजे साथ लेकर एक शिकारी के यहाँ गयें! शिकारी कुछ पक्षियों को पकड़कर लाया और उन्हें काटने लगा. शिष्य शिकारी के इस कृत्य को देखकर ही घबरा गया. उसने गुरुदेव से कहा : गुरूजी! यहाँ
से चलिए, यह तो नर्क हैं.


              गुरुदेव ने कहा : इस शिकारी ने कितने जीवो को मारा होगा इसे ज्ञात नहीं. लेकिन फिर भी इसके पास कुछ नहीं हैं. अतः इसके लिए तो यहाँ भी नर्क हैं और मृत्यु के बाद भी.


           फिर गुरुदेव शिष्य को एक वेश्या के यहाँ ले जाने लगे. यह देख शिष्य चिल्लाया, गुरूजी! आप मुझे कहाँ लेकर जा रहे हैं.

              गुरुदेव ने कहा : यहाँ के वैभव को देख. मनुष्य किस तरह अपना शरीर, शील और चरित्र बेचकर सुखी हो रहा हैं, पर शरीर का सौन्दर्य नाश्ता होते ही यहाँ कोई नहीं आता. इनके लिए संसार स्वर्ग की तरह हैं, पर अंत वही शिकारी के समान हैं.
              इसके पश्चात् गुरु और शिष्य एक गृहस्थ व्यक्ति के यहाँ गए. गृहस्थ परिश्रमी, संयमशील, नेक और ईमानदार था. इस कारण उसके पास कोई दुःख नहीं था. गुरुदेव ने कहा : यही वह व्यक्ति हैं जिसके लिए जीवित रहते हुए इस पृथ्वी पर स्वर्ग हैं और मृत्यु के उपरान्त भी स्वर्ग प्राप्त होगा.
             शिष्य को अच्छी तरह समझ आ गया और इस संसार में रहते हुए ही हमें कर्मों को भुगतना पड़ता हैं. कर्मों के फलस्वरूप ही स्वर्ग और नर्क की प्राप्ति होती हैं. किन्तु स्वर्ग-नर्क प्राप्ति मृत्यु के बाद ही नहीं, मनुष्य के जीवित रहते हुए भी हो जाती हैं.

-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान 
नवम्बर 2009 - पेज : 4.

सिकंदर - गुरु के प्रति सच्ची भक्ति

सिकंदर - गुरु के प्रति सच्ची भक्ति

विश्व विजयी सिकंदर अपने गुरु अरस्तु का बहुत सम्मान करता था! उनकी दी हुयी शिक्षाओं का सदैव अमल भी करता! अरस्तु के आदेश उसके लिए पत्थर की लकीर होते और कभी वह उनके विपरीत आचरण नहीं करता था!
एक दिन वह अरस्तु के साथ कहीं से लौट रहा था! उस दिन गुरु-शिष्य पैदल ही थे! ऊंची-ऊंची पहाड़ियों व सघन वन के प्राकृतिक माहौल में दोनों वार्तालाप करते हुए चल रहे थे!
सहसा सामने एक गहरा नाला आ गया! अरस्तु के मन में अपने प्रिय शिष्य के प्रति प्रेम उमड़ गया!
वे बोले : “सिकंदर इस नाले को पहले मैं पार करूँगा, फिर तुम करना! पहले मैं इसकी गहराई देख लूँ!”
किन्तु आज सिकंदर के मन में कुछ और ही था! उसने जीवन में प्रथम बार गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया और गुरु से पहले ही नाला पार कर लिया!
सिकंदर के इस कृत्य पर अरस्तु ने नाराज होकर पूछा –
“तुमने आज तक मेरी आगया को सिर-आँखों पर लिया हैं! फिर आज क्यों नहीं माना?"
सिकंदर ने विनय पूर्वक कहा :
“गुरुदेव! नाला  पार करते समय यदि आपके साथ कोई अनहोनी घट जाती तो मैं आपके जैसा दूसरा गुरु कहाँ खोजता? और यदि मैं डूब जाता तो आप अपने ज्ञान
से सैकड़ों सिकंदर बनाने में समर्थ हैं!"

यही थी सिकंदर की गुरुभक्ति, जो सिखाती हैं कि अपने ज्ञान व अनुभव से जो हमारी आत्मा को समृद्ध बनता हैं, उस व्यक्तित्व के प्रति पूर्ण आदरभाव रखना चाहिए और अवसर आने पर उसके लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने से भी नहीं चूकना चाहिए! यही गुरु ऋण से मुक्त होने का तरीका हैं और हमारे आद्य भारतीय संस्कारों का अभिन्न अंग भी हैं!
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
पेज न. : 04.
दिसम्बर : 2009

गुरु मंत्र से सिद्धि

कालिदास विश्व के विख्यात कवि थे, परन्तु प्रारंभ में ये सर्वथा मूर्ख, निरक्षर व अबोध व्यक्ति थे, जब पत्नी ने महल से धक्का देकर उन्हें  बाहर निकल दिया तो संयोगवश मार्ग में ही विख्यात योगी कालीचरण मिल गए, उन्होंने साधना के बल पर सब कुछ जान लिया, बोले : "तुम निरक्षर हो, अतः साधना तो कर नहीं सकते पर मैं तुम्हें अपना
शिष्य बनाकर 'गुरु मंत्र' दे देता हूँ.और यदि निरंतर गुरु सेवा और गुरु मंत्र जप करोगे तो निश्चय ही तुम जीवन में वह सब कुछ पा सकोगे जो कि तुम्हारा अभीष्ट हैं."
             युवक कालिदास ने गुरु की बात अपने हृदय में उतार ली और निरंतर गुरु मंत्र का जप करने लगा,वह सोते, बैठते, उठाते, जागते, खाते, पीते गुरु का ही चिंतन करता, गुरु उसके इष्ट और भगवान बन गए, सामने कलि की मूर्ति में भी उसे गुरु के दर्शन होते, गुरु को उदास देखकर वह झुंझला जाता, गुरु को प्रसन्न मुद्रा में देखकर वह खिल उठता, चौबीस घंटे वह गुरु के ध्यान में ही डूबा रहता और इसी प्रयत्न में रहता कि गुरु उसे आज्ञा दे और वह प्राणों की बजी लगाकर भी उसे पूरा करे, वह हर क्षण ऐसे मौके की तलाश में रहता, जब उसे गुरु सेवा करने का अवसर प्राप्त हो सके.
             इस प्रकार कालिदास ने अपने आपको पूरी तरह से गुरुमय बना दिया था. 90 दिन के बाद स्वामी कालीचरण ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर "शाम्भवी दीक्षा" दी और ऐसा होते ही उसके अन्तर का ज्ञान दीप प्रदीप्त हो उठा, कंठ से वाग्देवी प्रगट हुयी और स्वतः काव्य उच्चरित होने लगा.
आगे चलकर बिना अन्य कोई साधना किये केवल गुरु साधना और शाम्भवी दीक्षा के बल पर कालिदास अद्वितीय कवि बन कुमार संभव,मेघदूत और ऋतुसंहार जैसे काव्य ग्रंथों की रचना कर विश्व विख्यात बन सकें.

 -मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान.
जुलाई 2006, पेज न. : 4.

गुरु सेवा

गुरु सेवा

 

 गंगा नदी के किनारे स्वामी जी का आश्रम था! स्वामी जी की दिनचर्या नियमित
थी, जो प्रातः काल स्नान से प्रारंभ होती थी! उनके सभी शिष्य भी जल्दी
उठकर अपने कार्यों से निवृत्त होते और फिर गुरु सेवा में लग जाते! उनके
स्नान-ध्यान से लेकर अध्यापन कक्ष की सफाई व आश्रम के छोटे-मोटे कार्य
शिष्यगण ही करते थे!
            एक सुबह स्वामी जी एक संत के साथ गंगा-स्नान कर रहे थे! तभी स्वामीजी
अपने शिष्य को गंगाजी में खड़े-खड़े ही आवाज लगायी!
शिष्य दौड़ा-दौड़ा चला गया!
स्वामीजी ने उससे कहा : "बेटा! मुझे गंगाजल पीना हैं!"
शिष्य आश्रम के भीतर से लोटा लेकर आया और उसे बालू से मांजकर चमकाया! फिर
गंगाजी में उतरकर पुनः लोटा धोकर गंगाजल भरकर गुरूजी को थमाया! स्वामी जी
ने अंजलि भरकर लोटे से जल पिया!
इसके बाद शिष्य खली लोटा लेकर लौट गया!
यह सब देखकर साथ नहा रहे संत ने हैरान होते हुए पूछा :
"स्वामी जी जब आपको गंगाजल हांथों से ही पीना था तो शिष्य से व्यर्थ
परिश्रम क्यों करवाया? आप यहीं से जल लेकर पी लेते!"

इस पर स्वामी जी बोले : "यह तो उस शिष्य को सेवा देने का बहाना भर था!
सेवा इसीलिए दी जाती हैं की व्यक्ति का अंत:करण शुद्ध हो जाये और वह
विद्या का सच्चा अधिकारी बन सके, क्योंकि बिना गुरु सेवा के शिक्षा
प्राप्त नहीं की जा सकती!

चाणक्य नीति में कहा गया हैं की जिस प्रकार कुदाल से मनुष्य जमीन को
खोदकर जल निकल लेता हैं उसी प्रकार गुरु की सेवा करने वाला शिष्य गुरु के
अंतर में दबी शिक्षा को प्राप्त कर सकता हैं!
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
पेज नं. 4 : अगस्त 2009

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शिष्य का यही कर्त्तव्य होता हैं, कि वह गुरु के द्वारा दीक्षा प्राप्त
करें, ज्ञान प्राप्त करे और उनकी सेवा में निरंतर लगा रहे.  
       -
सदगुरुदेव, दीक्षा संस्कार, पेज नं. 23.
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तुमने एक शरीर को गुरु मान लिया हैं, गुरु तो वह तत्व हैं, जिससे जुड़कर
तुम उन आयामों को स्पर्श कर सकते हो, जिनको शाश्त्रों ने पूर्णमिदः
पूर्णमिदं कहा हैं! उसके लिए गुरु के शरीर को बांहों में लेने की जरुरत
नहीं! आवश्यकता हैं की तुम अपना मन उनके चरण कमलों में समर्पित करो…. और वह हो पायेगा केवल और केवल मात्र गुरु सेवा से और गुरु मंत्र जप से!

-सदगुरुदेव, गुरु वाणी. पेज : 45, मई 2009.

 

जैसी रही भावना जिसकी

जैसी रही भावना जिसकी

एक प्रसिद्द वेश्यालय था, जो किसी मंदिर के सामने ही स्थित था. वेश्यालय में नित्य प्रति गायन-वादन-नृत्य आदि होता रहता था, जो की वह वेश्या अपने ग्राहकों की प्रसन्नता के लिए प्रस्तुत करती थी और बदले में बहुत सारा धन व कीमती उपहार उनसे प्राप्त करती थी. इस प्रकार उसकी समस्त भौतिक इच्छाएं तो पूर्ण थी, लेकिन कठोर मनुवादी व्यवस्था के अंतर्गत उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित था और उसे वहां पूजा-पाठ आदि करने की अनुमति नहीं थी. वेश्यालय में तो उसे ग्राहकों से ही फुर्सत नहीं थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार मंदिर में स्थापित देव मूर्ति का दर्शन कर ले और धीरे-धीरे समय के साथ उसकी यह इच्छा एक प्रकार की व्याकुलता में बदल गयी. जब मंदिर में आरती के समय बजने वाली घंटियों की आवाज उसके कानों में पड़ती, तो वह अत्यंत व्यग्र हो उठती, उसका हृदय रूदन कर उठता और भगवान् दर्शन की उत्कंठा उसके नेत्रों से बरसने लगती.

वेश्या के गायन-नृत्य आदि की स्वर लहरिया मंदिर तक भी पहुंचती थी. मंदिर का पुजारी कभी तो अत्यंत क्रोधित होता, कि उस नीच कर्मों में रत स्त्री की आवाज़ से मंदिर के वातावरण की पवित्रता में विघ्न उपस्थित हो रहा हैं और कभी वासना के वशीभूत उसी वेश्या के आगोश में पहुँच कर उसके रूप-रस का पान करने की कल्पना में डूब जाता, लेकिन मनुवादी स्समजिक मर्यादा के कारन ऐसा संभव नहीं था.

संयोगवश उस वेश्या और पुजारी, दोनों की मृत्यु एक ही समय हुयी. यमराज उस पुजारी को नरक के द्वार पर छोड़ कर वेश्या को स्वर्ग की और ले जाने लगे.

पुजारी को इस पर बहुत क्रोध आया और उसने यमराज से पूछा – “मैं जीवन भर मंदिर में देव मूर्तियों का पूजन करता रहा, फिर भी मुझे  नरक में जगह दी जा रही हैं और यह वेश्या जीवन भर पाप कर्मों में लिप्त रही, फिर भी इसे स्वर्ग ले जाया जा रहा हैं. ऐसा क्यों?”

यमराज ने उत्तर दिया – “देव मूर्तियों की पूजा करते हुए भी तुम्हारा चित्त सदा इस वेश्या में ही लगा रहा, जबकि पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए भी इसका चित्त देव मूर्ति में ही लगा रहा. यही वजह हैं, कि इसे स्वर्ग मिल रहा हैं और तुम्हें नरक.

वस्तुतः कर्म के साथ विचारों का भी जीवन में अत्यधिक महत्त्व हैं. जब तक चित्त वेश्यागामी रहेगा (अर्थात भौतिक भोगों में लिप्त रहेगा), तब तक देव पूजन, जप, साधना आदि के उपरांत भी स्वर्ग (अर्थात देवत्व. श्रेष्ठता, सफलता, पूर्णता) की प्राप्ति संभव नहीं हैं.

किसी साधना आदि में असफलता प्राप्त होने के पीछे कारन ही यही होता हैं, कि कहीं न कहीं उसके विश्वास, श्रद्धा, समर्पण आदि में न्यूनता रहती हैं एवं चित्त साधनात्मक चिंतन से न्यून हो कर भोगेच्छाओं में लिप्त होता हैं.

अतः साधक का यह पहला कर्त्तव्य हैं, कि वह प्रतिक्षण गुरु या इष्ट चिंतन करता हुआ, मन को नियंत्रित करें, तभी श्रेष्ठता की और अग्रसर होने की क्रिया संभव हो पायेगी.

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान अप्रैल 1997 : पेज 03.