Saturday, September 6, 2014

Some specific disease prevention spells, कुछ विशेष रोग निवारण मंत्र

कुछ विशेष रोग निवारण मंत्र
यों तो किसी भी समस्या के समाधान हेतु अनेको उपाय हैं। परन्तु मंत्रों के माध्यम से समस्या के निवारण के पीछे धारणा यह है कि मंत्र शक्ति एवं दैवी शक्ति के द्वारा साधक को वह बल प्राप्त होता है जिससे कि किसी भी समस्या का समाधान सहज हो जाता है। उदाहरण के लिए माना जाता है कि सभी रोगों का उदभाव मनुष्य के मन से ही होता है। मन पर पड़े दुष्प्रभावों को यदि मंत्र द्वारा नियंत्रित कर लिया जाए, तो रोग स्थाई रूप से शांत हो जाते हैं। उसी प्रकार मन को सुदृढ़ करके किसी भी समस्या पर आप विजय प्राप्त कर सकते हैं।

ब्लड प्रेशर तो स्थाई रूप से नियंत्रित हो सकता है... आप ख़ुद परख लीजिये न
क्या आप ब्लड प्रेशर के रोगी है, तो आप परेशान न हों, क्योंकि आपके पास स्वयं इसका इलाज है। यदि थोड़ी सी सावधानी बरत लें, तो फिर इसे आप आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं। आप दवाओं के साथ यदि इस प्रयोग को भी संपन्न करें, तो फिर यह स्थाई रूप से नियंत्रित हो सकता है। मंत्रों में इतनी क्षमता होती है, कि यदि आप उनका प्रयोग उचित विधि से करें, तो वे पूर्ण फलप्रद होते ही हैं।

आप 'रोग निवारक मधूरूपेन रूद्राक्ष' लेकर उसे किसी ताम्रपात्र में केसर से स्वस्तिक बनाकर स्थापित करें। उसके समक्ष ४० दिन तक नित्य ७५ बार निम्न मंत्र का जाप करें, नित्य मंत्र जप समाप्ति के बाद रूद्राक्ष धारण कर लें -
मंत्र
॥ ॐ क्षं पं क्षं ॐ ॥
प्रयोग समाप्त होने के बाद रूद्राक्ष को नदी में प्रवाहित कर दें।

सबसे खतरनाक बिमारी है डायबिटीज और इसका समाधान यह भी है
डायबिटीज रोग कैसा होता है, यह तो इससे पीड़ित रोगी ही अच्छी तरह समझ सकते हैं। दिखने में तो यह सामान्य है, लेकिन जब यह उग्र रूप धारण कर लेता है, तो व्यक्ति अनेक प्रकार की बिमारियों से घिर जाता है तथा मृत्यु के समान कष्ट पाता है। इसी कारण इसको खतरनाक बिमारी कहा गया है। आप इस रोग का पूर्ण समाधान प्राप्त कर सकते है, यदि आप दवाओं के साथ साथ इस प्रयोग को भी संपन्न कर लें।

रविवार के दिन पूर्व दिशा की ओर मुख कर सफेद आसन पर बैठ जाएं। सर्वप्रथम गुरु पूजन संपन्न करे तथा गुरूजी से पूर्ण स्वास्थ्य का आशीर्वाद प्राप्त करें। इसके पश्चात सफेद रंग के वस्त्र पर कुंकुम से स्वस्तिक बनाकर उस पर 'अभीप्सा' को स्थापित करे दें, फिर उसके समक्ष १५ दिन तक नित्य मंत्र का ८ बार उच्चारण करें -
मंत्र
॥ ॐ ऐं ऐं सौः क्लीं क्लीं ॐ फट ॥
प्रयोग समाप्ति के बाद 'अभीप्सा' को नदी मैं प्रवाहित कर देन

आपने मस्तिष्क की क्षमता को पूर्ण विकसित करिए

आज का भौतिक युग प्रतियोगिताओं का युग है, जीवन के प्रत्येक क्षण मैं आपको अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कराने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रतियोगी परिस्थितियों का सामना करना पङता है जिस व्यक्ति का मस्तिष्क जितना अधिक क्रियाशील, क्षमतावान होता है, वह उतना ही श्रेष्टता अर्जित कर लेता है आप भी आपने मस्तिष्क की क्षमता को पूर्ण विकसित कर सकते हैं इस प्रयोग के माध्यम से -'चैत्यन्य यंत्र' को किसी भी श्रेष्ठ समय मैं धारण कर लें एवं नित्य पराठा काल आपने इष्ट का स्मरण कर निम्न मंत्र का १५ मिनट तक जप करें -
मंत्र
॥ ॐ श्रीं चैतन्यं चैतन्यं सदीर्घ ॐ फट ॥
यंत्र को ४० दिनों तक धारण किए रहे ४० दिन के पश्चात उसे नदी मैं प्रवाहित कर दे।

आपने अनिद्रा के रोग को इस प्रकार से समाप्त करिए

क्या कहा आपने, आप को नींद नहीं आती और और इसके लिए आपको रोज रात को नींद की गोली लेनी आवश्यक हो जाती है और फिर भी आप चाहते हुए चैन की नींद नहीं ले पाते आपको स्वाभाविक नींद लिए हुए कई माह बीत चुके हैं कहीं इस रोग के कारण आपका स्वास्थ्य तो प्रभावित नहीं हो रहा है आपका सौन्दर्य कहीं डालने तो नहीं लगा यह रोग आपके लिए हानिकारक, तो नहीं साबित हो रहा है यदि ऐसा है तो आप शीघ्र ही इससे छुटकारा प्राप्त कर लीजिये

आप किसी भी रात्री को स्नान कर सफेद वस्त्र मैं कुंकुम से द्विदल कमल बनाए, अपना नाम कुंकुम से लिखकर उस पर उस पर 'रोग मुक्ति गुटिका' को स्थापित करें नोऊ दिन तक गुटिका के समक्ष निम्न मंत्र का ग्यारह बार जप एकाग्र चित्त हो कर करें -
मंत्र
॥ ॐ अं अनिद्रा नाशाय अं ॐ फट ॥
जप समाप्ति के बाद शांत मन से लेट जायें और नौ दिन के पश्चात गुटिका को नदी में प्रवाहित करें।
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जुलाई २००५

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Silence Ashta Ykshini, Lakshmi receipt twenty formula, अष्ट यक्षिणी साधना, लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र


अष्ट यक्षिणी साधना


जीवन में रस आवश्यक है
जीवन में सौन्दर्य आवश्यक ह
जीवन में आहलाद आवश्यक है
जीवन में सुरक्षा आवश्यक है

ऐसे श्रेष्ठ जीवन के लिए संपन्न करें

अष्ट यक्षिणी साधना

बहुत से लोग यक्षिणी का नाम सुनते ही डर जाते हैं कि ये बहुत भयानक होती हैं, किसी चुडैल कि तरह, किसी प्रेतानी कि तरह, मगर ये सब मन के वहम हैं। यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर स्वयं भी यक्ष जाती के ही हैं। यक्षिणी साधना का साधना के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ है। यक्षिणी प्रेमिका मात्र ही होती है, भोग्या नहीं, और यूं भी कोई स्त्री भोग कि भावभूमि तो हो ही नहीं सकती, वह तो सही अर्थों में सौन्दर्य बोध, प्रेम को जाग्रत करने कि भावभूमि होती है। यद्यपि मन का प्रस्फुटन भी दैहिक सौन्दर्य से होता है किन्तु आगे चलकर वह भी भावनात्मक रूप में परिवर्तित होता है या हो जाना चाहिए और भावना का सबसे श्रेष्ठ प्रस्फुटन तो स्त्री के रूप में सहगामिनी बना कर एक लौकिक स्त्री के सन्दर्भ में सत्य है तो क्यों नहीं यक्षिणी के संदर्भ में सत्य होगी? वह तो प्रायः कई अर्थों में एक सामान्य स्त्री से श्रेष्ठ स्त्री होती है।

तंत्र विज्ञान के रहस्य को यदि साधक पूर्ण रूप से आत्मसात कर लेता है, तो फिर उसके सामाजिक या भौतिक समस्या या बाधा जैसी कोई वस्तु स्थिर नहीं रह पाती। तंत्र विज्ञान का आधार ही है, कि पूर्ण रूप से अपने साधक के जीवन से सम्बन्धित बाधाओं को समाप्त कर एकाग्रता पूर्वक उसे तंत्र के क्षेत्र में बढ़ने के लिए अग्रसर करे।

साधक सरलतापूर्वक तंत्र कि व्याख्या को समझ सके, इस हेतु तंत्र में अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनमे अत्यन्त गुह्य और दुर्लभ साधानाएं वर्णित है। साधक यदि गुरु कृपा प्राप्त कर किसी एक तंत्र का भी पूर्ण रूप से अध्ययन कर लेता है, तो उसके लिए पहाड़ जैसी समस्या से भी टकराना अत्यन्त लघु क्रिया जैसा प्रतीत होने लगता है।

साधक में यदि गुरु के प्रति विश्वास न हो, यदि उसमे जोश न हो, उत्साह न हो, तो फिर वह साधनाओं में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। साधक तो समस्त सांसारिक क्रियायें करता हुआ भी निर्लिप्त भाव से अपने इष्ट चिन्तन में प्रवृत्त रहता है।

ऐसे ही साधकों के लिए 'उड़ामरेश्वर तंत्र' मे एक अत्यन्त उच्चकोटि कि साधना वर्णित है, जिसे संपन्न करके वह अपनी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है तथा अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख-सम्पदा का पूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकता है।

'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों, जो साधक के जीवन में सम्पूर्णता का उदबोध कराती हैं, की ये है।

ये प्रमुख यक्षिणियां है -


1. सुर सुन्दरी यक्षिणी २. मनोहारिणी यक्षिणी 3. कनकावती यक्षिणी 4. कामेश्वरी यक्षिणी
5. रतिप्रिया यक्षिणी 6. पद्मिनी यक्षिणी 6. नटी यक्षिणी 8. अनुरागिणी यक्षिणी


प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध कर लें।

सुर सुन्दरी यक्षिणी
यह सुडौल देहयष्टि, आकर्षक चेहरा, दिव्य आभा लिये हुए, नाजुकता से भरी हुई है। देव योनी के समान सुन्दर होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है। सुर सुन्दरी कि विशेषता है, कि साधक उसे जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होता ही है - चाहे वह माँ का स्वरूप हो, चाहे वह बहन का या पत्नी का, या प्रेमिका का। यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है।

मनोहारिणी यक्षिणी

अण्डाकार चेहरा, हरिण के समान नेत्र, गौर वर्णीय, चंदन कि सुगंध से आपूरित मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहन बना देती है, कि वह कोई भी, चाहे वह पुरूष हो या स्त्री, उसके सम्मोहन पाश में बंध ही जाता है। वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट कराती है।

कनकावती यक्षिणी
रक्त वस्त्र धारण कि हुई, मुग्ध करने वाली और अनिन्द्य सौन्दर्य कि स्वामिनी, षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा कनकावती यक्षिणी है। कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने कि क्षमता प्राप्त कर लेता है। यह साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है।

कामेश्वरी यक्षिणी
सदैव चंचल रहने वाली, उद्दाम यौवन युक्त, जिससे मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है। साधक का हर क्षण मनोरंजन करती है कामेश्वरी यक्षिणी। यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख कि कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में साधक कि कामना करती है। साधक को जब भी द्रव्य कि आवश्यकता होती है, वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है।

रति प्रिया यक्षिणी
स्वर्ण के समान देह से युक्त, सभी मंगल आभूषणों से सुसज्जित, प्रफुल्लता प्रदान करने वाली है रति प्रिया यक्षिणी। रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है। साधक और साधिका यदि संयमित होकर इस साधना को संपन्न कर लें तो निश्चय ही उन्हें कामदेव और रति के समान सौन्दर्य कि उपलब्धि होती है।

पदमिनी यक्षिणी
कमल के समान कोमल, श्यामवर्णा, उन्नत स्तन, अधरों पर सदैव मुस्कान खेलती रहती है, तथा इसके नेत्र अत्यधिक सुन्दर है। पद्मिनी यक्षिणी साधना साधक को अपना सान्निध्य नित्य प्रदान करती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि यह अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान कराती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति कि और अग्रसर करती है।

नटी यक्षिणी
नटी यक्षिणी को 'विश्वामित्र' ने भी सिद्ध किया था। यह अपने साधक कि पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार कि विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है।

अनुरागिणी यक्षिणी
अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है। साधक पर प्रसन्न होने पर उसे नित्य धन, मान, यश आदि प्रदान करती है तथा साधक की इच्छा होने पर उसके साथ उल्लास करती है।

अष्ट यक्षिणी साधना को संपन्न करने वाले साधक को यह साधना अत्यन्त संयमित होकर करनी चाहिए। समूर्ण साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है। साधक यह साधना करने से पूर्व यदि सम्भव हो तो 'अष्ट यक्षिणी दीक्षा' भी लें। साधना काल में मांस, मदिरा का सेवन न करें तथा मानसिक रूप से निरंतर गुरु मंत्र का जप करते रहे। यह साधना रात्रिकाल में ही संपन्न करें। साधनात्मक अनुभवों की चर्चा किसी से भी नहीं करें, न ही किसी अन्य को साधना विषय में बतायें। निश्चय ही यह साधना साधक के जीवन में भौतिक पक्ष को पूर्ण करने मे अत्यन्त सहायक होगी, क्योंकि अष्ट यक्षिणी सिद्ध साधक को जीवन में कभी भी निराशा या हार का सामना नहीं करना पड़ता है। वह अपने क्षेत्र में अद्वितीयता प्राप्त करता ही है।

साधना विधान

इस साधना में आवश्यक सामग्री है - ८ अष्टाक्ष गुटिकाएं तथा अष्ट यक्षिणी सिद्ध यंत्र एवं 'यक्षिणी माला'। साधक यह साधना किसी भी शुक्रवार को प्रारम्भ कर सकता है। यह तीन दिन की साधना है। लकड़ी के बजोट पर सफेद वस्त्र बिछायें तथा उस पर कुंकुम से निम्न यंत्र बनाएं। (इस यंत्र की फोटो आपको मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका में मिलेगी)

फिर उपरोक्त प्रकार से रेखांकित यंत्र में जहां 'ह्रीं' बीज अंकित है वहां एक-एक अष्टाक्ष गुटिका स्थापित करें। फिर अष्ट यक्षिणी का ध्यान कर प्रत्येक गुटिका का पूजन कुंकूम, पुष्प तथा अक्षत से करें। धुप तथा दीप लगाएं। फिर यक्षिणी से निम्न मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमानुसार दिए गए हुए आठों यक्षिणियों के मंत्रों की एक-एक माला जप करें। प्रत्येक यक्षिणी मंत्र की एक माला जप करने से पूर्व तथा बाद में मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें। उदाहरणार्थ पहले मूल मंत्र की एक माला जप करें, फिर सुर-सुन्दरी यक्षिणी मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमशः प्रत्येक यक्षिणी से सम्बन्धित मंत्र का जप करना है। ऐसा तीन दिन तक नित्य करें।

मूल अष्ट यक्षिणी मंत्र
॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि नमः ॥

सुर सुन्दरी मंत्र
॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥

मनोहारिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥

कनकावती मंत्र
॥ ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥

कामेश्वरी मंत्र
॥ ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥

रति प्रिया मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥

पद्मिनी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥

नटी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥
अनुरागिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥
मंत्र जप समाप्ति पर साधक साधना कक्ष में ही सोयें। अगले दिन पुनः इसी प्रकार से साधना संपन्न करें, तीसरे दिन साधना साधना सामग्री को जिस वस्त्र पर यंत्र बनाया है, उसी में बांध कर नदी में प्रवाहित कर दें।

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Silence of raajyalakshmee; Lakshmi receipt twenty formula राज्यलक्ष्मी की साधना; लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

यह साधना राज्य पक्ष को अपने अनुकूल करने की साधना है। राज्य का तात्पर्य व्यक्ति के जीवन में कर, मुकदमा इत्यादि से आने वाली बाधाओं से है। हर व्यक्ति का नित्य राज्य -पक्ष के पचास कार्यालयों में कार्य पड़ता है और यदि ये कार्य सरल रूप से हो जाए तो व्यक्ति अपने जीवन में शीघ्र उन्नति कर सकता है और इसका एक ही उपाय है, राज्य लक्ष्मी महायोग मांत्रोक्त साधना।

केवल व्यापारी ही नहीं, सामान्य वर्ग भी राज्यपक्ष से विवाद में फंसना नहीं चाहता क्योंकि सामान्य व्यक्ति के पास इतने साधन नहीं होते, जिससे वह पुरे राजतंत्र और उसकी जटिलताओं से बच कर निकल सके। ऐसे में क्या उपाय शेष रह जाता है? क्या व्यक्ति ऐसे ही विभिन्न कार्यालयों के चक्कर काटता रहे और अपने जीवन के सुख-चैन, शांति के क्षण दिन-दिन भर कोर्ट कचहरी के जटिल और उबाऊ कार्य पद्धति में खपा दे? क्या वह एक सामान्य से कार्य के लिए अधिकारियों के दरवाजे पर नाक घिसता रहे और अपने स्वाभिमान व आत्मसम्मान को गिरवी रख दे? निश्चित रूप से नहीं। ऐसी दशा में तो एक ही प्रयोग शेष रह जाता है, की वह अपने जीवन में पूर्णता से राज्यलक्ष्मी की साधना सम्पन्न करे। इस लेख में दिए गए अन्य प्रयोगों की भांति यह भी तांत्रोक्त प्रयोग है।

जीवन में व्याप्त ऐसी प्रत्येक कटु व अपमानजनक स्थितियों के निवारण की व्यावहारिक विधि है। निवारण का तात्पर्य यह नहीं होता हम किसी का विनाश कर देंगे, अपितु यह होता है कि दुर्भाग्यवश जो हमारे जीवन में प्रतिकूल स्थिति है वह समाप्त हो, तथा अनुकूलता प्रारम्भ हो। राज्यलक्ष्मी प्रयोग ऐसा ही प्रयोग है, राज्य पक्ष में मधुरता व सहजता की स्थिति निर्मित करने का प्रयोग है।

साधक के लिए आवश्यक है कि वे पूर्ण रूप से सिद्ध लक्ष्मी लघु शंख प्राप्त करें और उसे पूरी तरह से काजल में रंग दे तथा मूंगे की माला द्वारा निम्न मंत्र का पांच माला मंत्र जप करें।

यह प्रयोग मंगलवार के दिन ही किया जा सकता है। मंत्र जप की समाप्ति पर साधक मूंगे की माला को स्वयं धारण करें तथा शंख को काले कपड़े में लपेट कर जेब अथवा बैग में रखें जिस पर किसी कि नजर न पड़े।

मंत्र
॥ ॐ श्रीं श्रीं राज्यलक्ष्म्यै नमः ॥


जब भी आवश्यकता हो, तब उपरोक्त शंख को वार्तालाप करते समय अपने साथ ले जाएं और आप पाएंगे कि स्थितियां आपके अनुकूल हो रही हैं। अनावश्यक रूप से लगने वाली बाधाएं और अड़चनें समाप्त हो रही हैं तथा आपके प्रति सहयोग का वातावरण बनने लगा है। सामान्य साधक भी ऐसे शंख को अपने साथ रखकर जिस दिन मुकदमों में पेशी हो या कहीं अन्य कोई महत्वपूर्ण कार्य हो तो इसका प्रभाव प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं।

-मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका, फरवरी २००८

Lakshmi spiritual redemption of debt; Lakshmi receipt twenty formula ऋण मोचन लक्ष्मी साधना; लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र


ऋण मोचन लक्ष्मी साधना; लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

ऋण मोचन लक्ष्मी साधना

कर्ज का भार व्यक्ति के जीवन में अभिशाप की तरह होता है, जो व्यक्ति की हंसती हुई जिन्दगी में एक विष की भांति चुभ जाता है, जो निकाले नहीं निकलता और व्यक्ति को त्रस्त कर देता है। ऋण का ब्याज अदा करते-करते लम्बी अवधि हो जाती है, पर मूल राशी वैसी की वैसे बनी रहती है। नवरात्रि में ऋण मोचन लक्ष्मी की साधना करने से व्यक्ति कितना भी अधिक ऋणभार युक्त क्यों न हो, उसकी ऋण मुक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

नवरात्री में अथवा इस काल में संकल्प लेकर किसी भी सप्तमी से नवमी के बीच साधना कर सकता है। इस प्रयोग के लिए प्राणप्रतिष्ठायुक्त 'ऋण मुक्ति यंत्र' और 'ऋण मोचन लक्ष्मी तंत्र फल' की आवश्यकता होती है। साधना वाले दिन साधक प्रातः काल स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मुख कर अपने पवित्र आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक बाजोट पर लाल रंग का कपडा बिछाकर उस पर किसी पात्र में यंत्र स्थापित कर दें, यंत्र के ऊपर कुंकुम से अपना नाम अंकित कर दें, उस पर तंत्र फल को रख दें। धुप-दीप से संक्षिप्त पूजन करें। वातावरण शुद्ध एवं पवित्र हो। फिर निम्न मंत्र का डेढ़ घंटे जप करें -

मंत्र
॥ ॐ नमो ह्रीं श्रीं क्रीं श्रीं क्लीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मम गृहे धनं देही चिन्तां दूरं करोति स्वाहा ॥

अगले दिन यंत्र को जल मे विसर्जीत कर दें तथा, ऋण मोचन फल को प्रयोगकर्ता स्वयं अपने हाथों से किसी गरीब या भिखारी को अतिरिक्त दान-दक्षिणा, फल-फूल आदि के साथ दें। कहा जाता है, की ऐसा करने से उस तंत्र फल के साथ ही व्यक्ति की ऋण बाधा तथा दरिद्रता भी दान में चली जाती है और उसके घर में भविष्य में फिर किसी प्रकार की दरिद्रता का वास नहीं रहता।

यदि दान लेने वाला नहीं मिले, तो प्रयोगकर्ता स्वयं किसी मन्दिर में जाकर दक्षिणा के साथ उस तंत्र फल को भेट चढ़ा दे। इस प्रयोग को संपन्न करने के बाद तथा तंत्र फल दान कर पुनः घर आने पर लक्ष्मी आरती अवश्य संपन्न करें। इस प्रकार प्रयोग पूर्ण हो जाता है।

लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

सदगुरुदेव की वाणी से लक्ष्मी साधना के अद्वितीय

बीस सूत्र

प्रत्येक गृहस्थ इन सूत्रों-नियमों का पालन कर जीवन में लक्ष्मी को स्थायित्व प्रदान कर सकता है। आप भी अवश्य अपनाएं -

1. जीवन में सफल रहना है या लक्ष्मी को स्थापित करना है तो प्रत्येक दशा में सर्वप्रथम दरिद्रता विनाशक प्रयोग करना ही होगा। यह सत्य है की लक्ष्मी धनदात्री हैं, वैभव प्रदायक हैं, लेकिन दरिद्रता जीवन की एक अलग स्थिति होती है और उस स्थिति का विनाश अलग ढंग से सर्वप्रथम करना आवश्यक होता है।

2. लक्ष्मी का एक विशिष्ट स्वरूप है "बीज लक्ष्मी"। एक वृक्ष की ही भांति एक छोटे से बीज में सिमट जाता है - लक्ष्मी का विशाल स्वरूप। बीज लक्ष्मी साधना में भी उतर आया है भगवती महालक्ष्मी के पूर्ण स्वरूप के साथ-साथ जीवन में उन्नति का रहस्य।

3. लक्ष्मी समुद्र तनया है, समुद्र से उत्पत्ति है उनकी, और समुद्र से प्राप्त विविध रत्न सहोदर हैं उनके, चाहे वह दक्षिणवर्ती शंख हो या मोती शंख, गोमती चक्र, स्वर्ण पात्र, कुबेर पात्र, लक्ष्मी प्रकाम्य क्षिरोदभव, वर-वरद, लक्ष्मी चैतन्य सभी उनके भ्रातृवत ही हैं और इनकी गृह में उपस्थिति आह्लादित करती है, लक्ष्मी को विवश कर देती है उन्हें गृह में स्थापित कर देने को।

4. समुद्र मंथन में प्राप्त कर रत्न "लक्ष्मी" का वरण यदि किसी ने किया तो वे साक्षात भगवान् विष्णु। आपने पति की अनुपस्थिति में लक्ष्मी किसी गृह में झांकने तक की भी कल्पना नहीं कर करतीं और भगवान् विष्णु की उपस्थिति का प्रतीक है शालिग्राम, अनंत महायंत्र एवं शंख। शंख, शालिग्राम एवं तुलसी का वृक्ष - इनसे मिलकर बनता है पूर्ण रूप से भगवान् लक्ष्मी - नारायण की उपस्थिति का वातावरण।

5. लक्ष्मी का नाम कमला है। कमलवत उनकी आंखे हैं अथवा उनका आसन कमल ही है और सर्वाधिक प्रिय है - लक्ष्मी को पदम। कमल - गट्टे की माला स्वयं धारण करना आधार और आसन देना है लक्ष्मी को आपने शरीर में लक्ष्मी को समाहित करने के लिए।

6. लक्ष्मी की पूर्णता होती है विघ्न विनाशक श्री गणपति की उपस्तिथि से जो मंगल कर्ता है और प्रत्येक साधना में प्रथम पूज्य। भगवान् गणपति के किसी भी विग्रह की स्थापना किए बिना लक्ष्मी की साधना तो ऐसी है, ज्यों कोई अपना धन भण्डार भरकर उसे खुला छोड़ दे।

7. लक्ष्मी का वास वही सम्भव है, जहां व्यक्ति सदैव सुरुचिपूर्ण वेशभूषा में रहे, स्वच्छ और पवित्र रहे तथा आन्तरिक रूप से निर्मल हो। गंदे, मैले, असभ्य और बक्वासी व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी का वास संभव ही नहीं।

8. लक्ष्मी का आगमन होता है, जहां पौरुष हो, जहां उद्यम हो, जहां गतिशीलता हो। उद्यमशील व्यक्तित्व ही प्रतिरूप होता है भगवान् श्री नारायण का, जो प्रत्येक क्षण गतिशील है, पालन में संलग्न है, ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में संलग्न है। ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी गृहलक्ष्मी बनकर, संतान लक्ष्मी बनकर आय, यश, श्री कई-कई रूपों मे प्रकट होती है।

9. जो साधक गृहस्थ है, उन्हें अपने जीवन मे हवन को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए और प्रत्येक माह की शुक्ल पंचमी को श्री सूक्त के पदों से एक कमल गट्टे का बीज और शुद्ध घृत के द्वारा आहुति प्रदान करना फलदायक होता है।

10. आपने दैनिक जीवन क्रम में नित्य महालक्ष्मी की किसी ऐसी साधना - विधि को सम्मिलित करना है, जो आपके अनुकूल हो, और यदि इस विषय में निर्णय - अनिर्णय की स्थिति हो तो नित्य प्रति, सूर्योदय काल में निम्न मन्त्र की एक माला का मंत्र जप तो कमल गट्टे की माला से अवश्य करना चाहिए।
मंत्र: ॐ श्रीं श्रीं कमले कमलालाये प्रसीद प्रसीद मम गृहे आगच्छ आगच्छ महालक्ष्म्यै नमः

11. किसी लक्ष्मी साधना को आपने जीवन में अपनायें और उसे किस मन्त्र से संपन्न करे उसका उचित ज्ञान तो केवल आपके गुरुदेव के पास ही है, और योग्य गुरुदेव अपने शिष्य की प्रार्थना पर उसे महालक्ष्मी दीक्षा से विभूषित कर वह गृह्य साधना पद्धति स्पष्ट करते है, जो सम्पूर्ण रूप से उसके संस्कारों के अनुकूल हो।

12. अनुभव से यह ज्ञात होता है की बड़े-बड़े अनुष्ठान की अपेक्षा यदि छोटी साधानाए, मंत्र-जप और प्राण प्रतिष्ठायुक्त यंत्र स्थापित किए जाएं तो जीवन में अनुकूलता तीव्रता से आती है और इसमें हानि की भी कोई संभावना नहीं होती।

13. जीवन में नित्य महालक्ष्मी के चिंतन, मनन और ध्यान के साथ-साथ यंत्रों का स्थापन भी, केवल महत्वपूर्ण ही नहीं, आवश्यक है। श्री यंत्र, कनक धारा यंत्र और कुबेर यंत्र इन तीनों के समन्वय से एक पूर्ण क्रम स्थापित होता है।

14. जब कोई छोटे-छोटे प्रयोग और साधनाएं सफल न हो रही हों तब भी लक्ष्मी की साधना बार-बार अवश्य ही करनी चाहिए।

15. पारद निर्मित प्रत्येक विग्रह आपने आप में सौभाग्यदायक होता है, चाहे वह पारद महालक्ष्मी हो या पारद शंख अथवा पारद श्रीयंत्र। पारद शिवलिंग और पारद गणपति भी आपने आप में लक्ष्मी तत्व समाहित किए होते हैं।

16. जीवन में जब भी अवसर मिले, तब एक बार भगवती महालक्ष्मी के शक्तिमय स्वरूप, कमला महाविद्या की साधना अवश्य ही करनी चाहिए, जिससे जीवन में धन के साथ-साथ पूर्ण मानसिक शांति और श्री का आगमन हो सके।

17. धन का अभाव चिंता जनक स्थिति में पहुंच जाय और लेनदारों के तानों और उलाहनों से जीना मुश्किल हो जाता है, तब श्री महाविद्या साधना साधना करना ही एक मात्र उपाय शेष रह जाता है।

18. जब सभी प्रयोग असफल हो जाएं, तब अघोर विधि से लक्ष्मी प्राप्ति का उपाय ही अंतिम मार्ग शेष रह जाता है, लेकिन इस विषय में एक निश्चित क्रम अपनाना पड़ता है।

19. कई बार ऐसा होता है की घर पर व्याप्त किसी तांत्रिक प्रयोग अथवा गृह दोष या अतृप्त आत्माओं की उपस्थिति के कारण भी वह सम्पन्नता नहीं आ पाती, जो की अन्यथा संभव होती है। ऐसी स्थिति को समझ कर "प्रेतात्मा शांति" पितृ दोष शान्ति करना ही बुद्धिमत्ता है।

20. उपरोक्त सभी उपायों के साथ-साथ सीधा सरल और सात्विक जीवन, दान की भावना, पुण्य कार्य करने में उत्साह, घर की स्त्री का सम्मान और प्रत्येक प्रकार से घर में मंगलमय वातावरण बनाए रखना ही सभी उपायों का पूरक है क्योंकि इसके अभाव में यदि लक्ष्मी का आगमन हो भी जाता है तो स्थायित्व संदिग्ध रह जाता है।

Thursday, August 21, 2014

Seeker and master साधक और सदगुरु पहचान

Seeker and master (साधक और सदगुरु)
२१ तारीख है सद्गुरु की पहचान नए साधक केसे करे ?
आप को समझने के लिए ही सद्गुरु का उत्तर आप के लिए ...

प्रश्न: सदगुरु मिल गए। साधक को इसकी प्रत्यभिज्ञा, पहचान कैसे हो?
साधक और सदगुरु

साधक हो, तो क्षणभर की देर नहीं लगती। साधक ही न हो, तो प्रत्यभिज्ञा का कोई उपाय नहीं। प्यासा हो, तो पानी मिल गया--क्या इसे किसी और से पूछने जाना पड़ेगा? प्यास ही प्रत्यभिज्ञा बन जाएगी। कंठ की तृप्ति ही प्रमाण हो जाएगी।

लेकिन प्यास ही न हो, जल का सरोवर भरा रहे और तुम्हारे कंठ ने प्यास न जानी हो, तो जल की पहचान न हो सकेगी। पानी तो प्यास से पहचाना जाता है, शास्त्रों में लिखी परिभाषाओं से नहीं।

अगर साधक है कोई--साधक का अर्थ क्या है? साधक का अर्थ है कि खोजी है, आकांक्षी है, अभीप्सा से भरा है। साधक का अर्थ है, कि प्यासा है सत्य के लिए।

सौ साधकों में निन्यानवे साधक होते नहीं, फिर भी साधन की दुनिया में उतर जाते हैं। इससे सारी उलझन खड़ी होती है।

तुम्हें प्यास न लगी हो और किसी दूसरे ने जिसने प्यास को जानी है, प्यास की पीड़ा जानी है और फिर जल के पीने की तृप्ति जानी है, तुमसे अपनी तृप्ति की बात कही: बात-बात में तुम प्रभावित हो गए। तुम्हारे मन में भी लोभ जगा। तुमने भी सोचा, कि ऐसा आनंद हमें भी मिले, ऐसी तृप्ति हमें भी मिले। तुम यह भूल ही गए, कि बिना प्यास के तृप्ति का कोई आनंद संभव नहीं है।

उस आदमी ने जो तृप्ति जानी है, वह प्यास की पीड़ा के कारण जानी है। जितनी गहरी होती है पीड़ा, उतनी ही गहरी होती है तृप्ति। जितनी छिछली होती है पीड़ा, उतनी ही छिछली होती है तृप्ति। और पीड़ा हो ही न, और तुम लोभ के कारण निकल गए पानी पीने, तो प्यास तो है ही नहीं। पहचानोगे कैसे, कि पानी हैं?

शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार समझ लिया कि पानी होगा, तो हमेशा संदेह बना रहेगा। क्योंकि अपने भीतर तो कोई भी प्रमाण नहीं है। तुम्हारा कोई संसर्ग तो हुआ नहीं जल से। जलधार से तुम्हारे प्राण तो जुड़े नहीं। तुम तो दूर से ही दूर बने रहे हो। और तुम पानी पी भी लो बिना प्यास के और ठीक असली पानी हो, तो भी तो आनंद उपलब्ध न होगा। उलटा भी हो सकता है। कि वमन की इच्छा हो जाए, उलटी हो जाए।

प्यास न हो, तो पानी पीना खतरनाक है। भूख न हो, तो भोजन कर लेना मंहगा पड़ सकता है। सत्य को चाहा ही न हो, तो सदगुरु का मिलना खतरनाक हो सकता है।

सौ में से निन्यानवे लोग तो लोभ के कारण उत्सुक हो जाते हैं। उपनिषद गीत गाते हैं। दादू, कबीर उस परम आनंद की चर्चा करते हैं। सदियों-सदियों में मीरा और नानक, चैतन्य नाचे हैं। उनका नाच तुम्हें छू जाता है। उनके गीत की भनक तुम्हारे कान में पड़ जाती है। उन्हें देखकर तुम्हारा हृदय लोलुप हो उठता है। तुम भी ऐसे होना चाहोगे।

बुद्ध के पास जाकर किसका मन नहीं हो उठता, कि ऐसी शांति हमें भी मिले! लेकिन उतनी अशांति तुमने जानी है, जो बुद्ध ने जानी? वही अशांति तो तुम्हारी शांति का द्वार बनेगी। तुमने उस पीड़ा को झेला है, जो बुद्ध ने झेली? तुम उस मार्ग से गुजरे हो--कंटकाकीर्ण--जिससे बुद्ध गुजरे? तो मंजिल पर आकर जो वे नाच रहे हैं, वह उस मार्ग के सारे के सारे दुख अनुभव के कारण।

तुम सीधे मंजिल पर पहुंच जाते हो; मार्ग का तुम्हें कोई पता नहीं। मंजिल भी मिल जाए, तो मिली हुई नहीं मालूम पड़ती। और संदेह तो बना ही रहेगा।

इसलिए यह तो पूछो ही मत, कि सदगुरु मिल गए, इसकी साधक को प्रत्यभिज्ञा कैसे हो, पहचान कैसे हो?
सदगुरु की फिक्र छोड़ो। पहली फिक्र यह कर लो, कि साधक हो? पहले तो इसकी ही प्रत्यभिज्ञा कर लो, कि साधक हो?

अगर साधक हो, तो जैसे ही गुरु मिलेगा, प्राण जुड़ जाएंगे; तार मिल जाएगा। कोई बताने की जरूरत न पड़ेगी। अगर उजाला आ जाए, तो क्या कोई तुम्हें बताने आएगा, तब तुम पहचानोगे कि यह अंधेरा नहीं, उजाला है? अंधे की आंख खुल जाए, तो क्या अंधे को दूसरों को बताना पड़ेगा, कि अब तेरी आंख खुल गई, अब तू देख सकता है देख। आंख खुल गई, कि अंधा देखने लगता है। रोशनी आ गई कि पहचान ली जाती है, स्वतः प्रमाण है।

सदगुरु का मिलन भी स्वतः प्रमाण है। नहीं तो आखिर में तुम सवाल पूछोगे, कि जब परमात्मा मिलेगा तो कैसे प्रत्यभिज्ञा होगी, कैसे पहचानेंगे कि यही परमात्मा है? कोई जरूरत ही नहीं है।

जब तुम्हारे सिर में दर्द होता है, तब तुम पहचान लेते हो दर्द। और जब दर्द चला जाता है तब भी तुम पहचान लेते हो, कि अब सब ठीक हो गया--स्वस्थ। दोनों तुम पहचान लेते हो। जब प्राणों में पीड़ा होती है, तब भी तुम पहचान लेते हो; जब प्राण तृप्त हो जाते हैं, तब भी पहचान लेते हो।

नहीं, कोई प्रत्यभिज्ञा का शास्त्र नहीं है। जरूरत ही नहीं है।
लेकिन भूल पहली जगह हो जाती है। लोभ के कारण बहुत लोग साधना में प्रविष्ट हो जाते हैं। और अगर लोभ के कारण प्रविष्ट न हों, तो भय के कारण प्रविष्ट हो जाते हैं। वह एक ही बात है। लोभ और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कोई इसलिए परमात्मा की प्रार्थना कर रहा है कि डर हुआ है, भयभीत है। कोई इसलिए प्रार्थना कर रहा है कि लोभातुर है। पर दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। दोनों में कोई भी साधक नहीं है। साधक का तो अर्थ ही यह है, कि जीवन के अनुभव से जाना, कि जीवन व्यर्थ है। जीवन से गुजरकर पहचाना, कि कोई सार नहीं है। हाथ सिवाय राख लगी कुछ भी न लगा। सब जीवन के अनुभव देख लिए और खाली पाए; पानी के बबूले सिद्ध हुए। जब सारा जीवन राख हो जाता है, जो भी तुम चाह सकते थे, जो भी तुम मांग सकते थे, जो भी तुम्हारी वासना थी, सब व्यर्थ हो जाती है, सब इंद्रधनुष टूट जाते हैं, खंडहर रह जाता है जीवन का--उस अनुभूति के क्षण में खोज शुरू होती है, कि फिर सत्य क्या है? सब जीवन तो सपना हो गया। न केवल सपना, बल्कि दुख-सपना हो गया; अब सत्य क्या है?

जब तुम ऐसी उत्कंठा से भरते हो, तब गुरु को पहचानना न पड़ेगा। गुरु के पैरों की आवाज सुनकर तुम्हारे हृदय के घूंघर बज उठेंगे। गुरु की आंख में आंख पड़ते ही सदा के बंद द्वार खुल जाएंगे। गुरु का स्पर्श तुम्हें नचा देगा। उसका एक शब्द--और तुम्हारे भीतर ऐसी ओंकार की ध्वनि गूंजने लगेगी, जो तुमने कभी नहीं जानी थी। तुम एक नई पुलक, एक नए संगीत और नए जीवन से आपूरित हो उठोगे।

नहीं, कोई पहचानने की जरूरत न पड़ेगी। तुम पूछोगे नहीं। और सारी दुनिया भी कहती हो, कि यह आदमी सतगुरु नहीं तो भी कोई तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा तुम्हारे हृदय ने जान लिया। और हृदय की पहचान ही एकमात्र पहचान है।

इसलिए पहले तुम खोज कर लो, कि साधक हो? वहीं भूल हो गई, तो फिर मैं तुम्हें सारा शास्त्र भी बता दूं, कि इस-इस भांति पहचानना गुरु को, कुछ काम न आएगा।

क्योंकि जितने गुरु हैं उतने ही प्रकार के हैं। कोई परिभाषा काम नहीं आ सकती। महावीर अपने ढंग के हैं, बुद्ध अपने ढंग के, कृष्ण अपने ढंग के, क्राइस्ट अपने ढंग के, मुहम्मद की बात ही और है। सब अनूठे हैं। अगर तुमने कोई परिभाषा बनाई तो वह किसी एक ही गुरु के आधार पर बनेगी। और वैसा गुरु दुबारा पैदा होने वाला नहीं है। इसलिए तुम्हारी परिभाषा में कभी कोई गुरु बैठेगा नहीं।

जो गुरु पैदा होंगे, वे तुम्हारी परिभाषा में न बैठेंगे। और जिसकी तुम परिभाषा लेकर चल रहे हो, वह दुबारा पैदा नहीं होता। कहीं दुबारा बुद्ध होते हैं! कहीं दुबारा महावीर होते हैं! नाटक करना एक बात है, दुबारा महावीर होना तो बहुत मुश्किल है। अभिनय और बात है। रामलीला की बात मत उठाओ, राम होना बहुत मुश्किल है।

अगर तुमने किसी की परिभाषा पकड़ ली, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे क्योंकि उस परिभाषा को पूरा करने वाला दुबारा न आएगा। वह आ चुका और जा चुका। और जब वह आया था, तब तुम पहचान न सके क्योंकि तब तुम कोई दूसरी पुरानी परिभाषा लिए बैठे थे।

महावीर जब मौजूद थे, तब तुम्हारे पास कृष्ण की परिभाषा थी। महावीर बिलकुल बैठे न उस परिभाषा में। हिंदू-शास्त्रों ने महावीर का उल्लेख ही नहीं किया। इतना महिमावान पुरुष पैदा हुआ और इस देश का बड़े से बड़ा धर्म, इस देश की बहुसंख्या के शास्त्र उसका उल्लेख भी नहीं करते। क्या बात हो गई होगी? एक बार महावीर का नाम नहीं लेते। पक्ष की तो छोड़ दो, विपक्ष में भी कुछ नहीं कहते। प्रशंसा न करो, कम से कम निंदा तो करते!

नहीं, उतना भी ध्यान न दिया। परिभाषा में ही न बैठा यह आदमी। परमात्मा की परिभाषा उनकी और थी। उन्होंने देखा था कृष्ण को मोरमुकुट बांधे, यह आदमी नग्न खड़ा था। इससे कहीं मेल नहीं बैठता था। उन्होंने कृष्ण को देखा था बांसुरी बजाते। इस आदमी की अगर कोई बांसुरी थी, तो इतनी अदृश्य थी, कि किसी को दिखाई नहीं पड़ी। यह इस आदमी के पास कोई बांसुरी ही न थी, यह आदमी उनकी भाषा में कहीं आया नहीं। सब पुराने संकेतों, कसौटियों का कसा नहीं जा सका। तब महावीर चूक गए।

महावीर को जिन थोड़े से लोगों ने समझा, जिनकी प्यास थी, जिन्होंने पहचाना, जो बिना परिभाषा के पहचानने को राजी थे, वे वे ही लोग थे, जिनकी प्यास थी। अब वे दूसरी परिभाषा बना गए। अब उनके अनुयायी उस परिभाषा को ढो रहे हैं। अब बहुत अड़चन है। अगर वे मुझे बैठे इस कुर्सी पर देख लें, अड़चन है। महावीर कुर्सी पर कभी बैठे नहीं। यह आदमी गलत है। कपड़ा पहने देख लें, मुश्किल। क्योंकि महावीर तो नग्न थे। दिगंबरत्व तो लक्षण है।

अभी तो मुझे वे ही लोग पहचान सकते हैं, जिनकी प्यास है। और खतरा उनके साथ भी यही रहेगा, कि मेरे जाने के बाद वे कोई परिभाषा बना लेंगे, जो दूसरों को उलझाएगी क्योंकि फिर दुबारा कोई आता नहीं।

मेरी बात ठीक से समझ लो। जब तक तुम परिभाषा बनाते हो, आदमी चला जाता है। जब तुम्हारी परिभाषा बनकर तैयार हो जाती है, बिलकुल सुनिश्चित हो जाती है, तब दुबारा वैसा आदमी पैदा नहीं होता। धर्म की सारी विडंबना यही है। इसलिए तुम कृपा करो, परिभाषाएं मत पूछो। प्यास पूछो। अपनी प्यास टटोलो।

अगर प्यास न हो, धर्म की बात ही छोड़ दो। अभी धर्म का क्षण नहीं आया। अभी थोड़े और भटको। अभी थोड़ा और दुख पाओ। अभी दुख को तुम्हें मांजने दो। अभी दुख तुम्हें और निखारेगा। अभी जल्दी मत करो। अभी बाजार में ही रहो। अभी मंदिर की तरफ पीठ रखो। क्योंकि जब तक तुम ठीक से पीड़ा से न भर जाओ, लाख बार मंदिर आओ, आना न हो पाएगा। हर बार खाली हाथ आओगे, खाली हाथ लौट जाओगे।

मंदिर तो उसी दिन आओगे, जिस दिन बाजार की तरफ पीठ ही हो जाए। तुम जान ही लो कि सब व्यर्थ है। उस दिन तुम बाजार में बैठे-बैठे पाओगे, मंदिर ने तुम्हें घेर लिया। उस दिन तुम्हें गुरु खोजने न जाना पड़ेगा, वह तुम्हारे द्वार पर आकर दस्तक देगा। अपनी प्यास को परख लो।

मगर बड़ा मजा है, लोग प्यास का सवाल ही नहीं उठाते; पूछते हैं, सदगुरु की परीक्षा क्या? तुम अपनी परीक्षा कर लो। तुम तक तुम्हारी परीक्षा काफी है; उससे आगे मत जाओ। तुम्हें प्रयोजन भी क्या है सदगुरु से? तुम अपनी प्यास को पहचान लो। अगर प्यास है, तो तुम जल की खोज कर लोगे--करनी ही पड़ेगी मरुस्थल में भी आदमी जल खोज लेता है, प्यास होनी चाहिए।

और प्यास न हो, तो सरोवर के किनारे बैठा रहता है। जल दिखाई ही नहीं पड़ता। जल के होने से थोड़े ही जल दिखाई पड़ता है! भीतर की प्यास होने से दिखाई पड़ता है।

कभी उपवास करके बाजार गए? उस दिन फिर कपड़े की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सोने चांदी की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सिर्फ रेस्ट्रां, होटल! उपवास करके बाजार में जाओ, सब तरफ से भोजन की गंध आती मालूम पड़ती है, जो पहले कभी नहीं मालूम पड़ी थी। सब तरफ भोजन ही बनता हुआ दिखाई पड़ता है। वह पहले भी बन रहा था, लेकिन तब तुम भूखे न थे।

भूखे को भोजन दिखाई पड़ता है।

प्यासे को पानी दिखाई पड़ता है।

साधक को सदगुरु दिखाई पड़ जाता है।

Tuesday, August 12, 2014

Realization of God is possible only by the grace of Guru गुरु की कृपा से ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है।

गुरु की कृपा से ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है। गुरु ज्ञान की वह दिव्य ज्योति है जिसके द्वारा ही परमात्मा के दर्शन हो सकते है।
" मन के अंदर छिपे दुगुर्णो को दूर करने के लिये हमें गुरु की शरण लेनी चाहिए, क्योंकि गुरु का दर्जा परमात्मा से भी बड़ा होता है। क्योंकि गुरु ही ज्ञान की वह ज्योति होती है जिसके सहारे ही हमें परमात्मा की प्राप्ति संभव है। गुरु की कृपा के बिना किसी भी कार्य में सफलता हासिल नही होती है, चाहे वह परिवार में सुख-शांति की हो या फिर व्यापार में सफलता हासिल करने की हो। हर क्षेत्र में गुरु की कृपा आवश्यक होती है। कलयुग में भी गुरु कृपा के बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नही है। उन्होंने कहा कि हमें नियमित रूप से परमात्मा की साधना और भक्ति करनी चाहिए। ईश्वर साधना और भक्ति के बिना यह जीवन अधूरा है। गुरु की कृपा से भक्तों के सारे कष्टों को पल भर में ही दूर कर देता है।"

क्योकि गुरु ही साकार रूप मैं हमरे सामने होता है और वो हमारी सारी इच्छा पूरा करने मैं समर्थ है | इस लिए गुरु की किरपा अगर जीवन मैं हो गया तो सब कुच्छ मिल सकता है | पर गुरु भी देख समझ कर ही बनाना चहिये |
बिना जाने समझे गुरु बना लेने उस के बाद उस की निदा करना महा पाप कहा गया जो ऐसा करता है उसे कही शरण नहीं मिलती है | गुरु ही शिव है शिव ही गुरु है ऐसा मानने वाले ही मोक्ष के अधिकारी होते है | शिष्य बनाना जीवन की बहुत बड़ी उपलधि है | जिसे आप पैसे से नहीं खरीद सकते है ये बाज़ार मैं नहीं मिलती है | मैं आप को ये आशीर्वाद देता हूँ की आप के जीवन मैं साद गुरु मिले और और आप एक शिष्य बन सके |

Dr. Narayan Dutt Shrimali

जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, That humans are not the same, who Terrified of the system,

जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! 


तंत्र शास्त्र भारत की एक प्राचीन विद्या है। तंत्र ग्रंथ भगवान शिव के मुख से आविर्भूत हुए हैं। उनको पवित्र और प्रामाणिक माना गया है। भारतीय साहित्य में 'तंत्र' की एक विशिष्ट स्थिति है, पर कुछ साधक इस शक्ति का दुरुपयोग करने लग गए, जिसके कारण यह विद्या बदनाम हो गई।
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥
जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! गुरु गोरखनाथ के समय में तंत्र अपने आप में एक सर्वोत्कृष्ट विद्या थी और समाज का प्रत्येक वर्ग उसे अपना रहा था! जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझाने में केवल तंत्र ही सहायक हो सकता हैं! परन्तु गोरखनाथ के बाद में भयानन्द आदि जो लोग हुए उन्होंने तंत्र को एक विकृत रूप दे दिया! उन्होंने तंत्र का तात्पर्य भोग, विलास, मद्य, मांस, पंचमकार को ही मान लिया ।
“मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च, मकार पंचवर्गस्यात सह तंत्रः सह तान्त्रिकां”

जो व्यक्ति इन पांच मकारो में लिप्त रहता हैं वही तांत्रिक हैं, भयानन्द ने ऐसा कहा! उसने कहा की उसे मांस, मछली और मदिरा तो खानी ही चाहिए, और वह नित्य स्त्री के साथ समागम करता हुआ साधना करे! ये ऐसी गलत धरना समाज में फैली की जो ढोंगी थे, जो पाखंडी थे, उन्होंने इस श्लोक को महत्वपूर्ण मान लिया और शराब पीने लगे, धनोपार्जन करने लगे, और मूल तंत्र से अलग हट गए, धूर्तता और छल मात्र रह गया! और समाज ऐसे लोगों से भय खाने लगे! और दूर हटने लगे! लोग सोचने लगे कि ऐसा कैसा तंत्र हैं, इससे समाज का क्या हित हो सकता हैं? लोगों ने इन तांत्रिकों का नाम लेना बंद कर दिया, उनका सम्मान करना बंद कर दिया, अपना दुःख तो भोगते रहे परन्तु अपनी समस्याओं को उन तांत्रिकों से कहने में कतराने लगे, क्योंकि उनके पास जाना ही कई प्रकार की समस्याओं को मोल लेना था! और ऐसा लगने लगा कि तंत्र समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं।
परन्तु दोष तंत्र का नहीं, उन पथभ्रष्ट लोगों का रहा, जिनकी वजह से तंत्र भी बदनाम हो गया! सही अर्थों में देखा जायें तो तंत्र का तात्पर्य तो जीवन को सभी दृष्टियों से पूर्णता देना हैं!
जब हम मंत्र के माध्यम से देवता को अनुकूल बना सकते हैं, तो फिर तंत्र की हमारे जीवन में कहाँ अनुकूलता रह जाती हैं? मंत्र का तात्पर्य हैं, देवता की प्रार्थना करना, हाथ जोड़ना, निवेदन करना, भोग लगाना, आरती करना, धुप अगरबत्ती करना, पर यह आवश्यक नहीं कि लक्ष्मी प्रसन्ना हो ही और हमारा घर अक्षय धन से भर दे! तब दुसरे तरीके से यदि आपमें हिम्मत हैं, साहस हैं, हौसला हैं, तो क्षमता के साथ लक्ष्मी की आँख में आँख डालकर आप खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं यह तंत्र साधना कर रहा हूँ, मैं तुम्हें तंत्र में आबद्ध कर रहा हूँ और तुम्हें हर हालत में सम्पन्नता देनी हैं, और देनी ही पड़ेगी।
पहले प्रकार से स्तुति या प्रार्थना करने से देवता प्रसन्ना न भी हो परन्तु तंत्र से तो देवता बाध्य होते ही हैं, उन्हें वरदान देना ही पड़ता हैं! मंत्र और तंत्र दोनों ही पद्धतियों में साधना विधि, पूजा का प्रकार, न्यास सभी कुछ लगभग एक जैसा ही होता हैं, बस अंतर होता हैं, तो दोनों के मंत्र विन्यास में, तांत्रोक्त मंत्र अधिक तीक्ष्ण होता हैं! जीवन की किसी भी विपरीत स्थिति में तंत्र अचूक और अनिवार्य विधा हैं।
आज के युग में हमारे पास इतना समय नहीं हैं, कि हम बार-बार हाथ जोड़े, बार-बार घी के दिए जलाएं, बार-बार भोग लगायें, लक्ष्मी की आरती उतारते रहे और बीसों साल दरिद्री बने रहे, इसलिए तंत्र ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, कि लक्ष्मी बाध्य हो ही जायें और कम से कम समय में सफलता मिले! बड़े ही व्यवस्थित तरीके से मंत्र और साधना करने की क्रिया तंत्र हैं! किस ढंग से मंत्र का प्रयोग किया जायें, साधना को पूर्णता दी जायें, उस क्रिया का नाम तंत्र हैं! और तंत्र साधना में यदि कोई न्यूनता रह जायें, तो यह तो हो सकता हैं, कि सफलता नहीं मिले परन्तु कोई विपरीत परिणाम नहीं मिलता! तंत्र के माध्यम से कोई भी गृहस्थ वह सब कुछ हस्तगत कर सकता हैं, जो उसके जीवन का लक्ष्य हैं! तंत्र तो अपने आप में अत्यंत सौम्य साधना का प्रकार हैं, पंचमकार तो उसमें आवश्यक हैं ही नहीं! बल्कि इससे परे हटकर जो पूर्ण पवित्रमय सात्विक तरीके, हर प्रकार के व्यसनों से दूर रहता हुआ साधना करता हैं तो वह तंत्र साधना हैं।
जनसाधारण में इसका व्यापक प्रचार न होने का एक कारण यह भी था कि तंत्रों के कुछ अंश समझने में इतने कठिन हैं कि गुरु के बिना समझे नहीं जा सकते । अतः ज्ञान का अभाव ही शंकाओं का कारण बना।
तंत्र शास्त्र वेदों के समय से हमारे धर्म का अभिन्न अंग रहा है। वैसे तो सभी साधनाओं में मंत्र, तंत्र एक-दूसरे से इतने मिले हुए हैं कि उनको अलग-अलग नहीं किया जा सकता, पर जिन साधनों में तंत्र की प्रधानता होती है, उन्हें हम 'तंत्र साधना' मान लेते हैं। 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' की उक्ति के अनुसार हमारे शरीर की रचना भी उसी आधार पर हुई है जिस पर पूर्ण ब्रह्माण्ड की।
तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अन्तर्मुखी होकर साधनाएँ की जाती हैं। तांत्रिक साधना को साधारणतया तीन मार्ग : वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग व मधयम मार्ग कहा गया है।
श्मशान में साधना करने वाले का निडर होना आवश्यक है। जो निडर नहीं हैं, वे दुस्साहस न करें। तांत्रिकों का यह अटूट विश्वास है, जब रात के समय सारा संसार सोता है तब केवल योगी जागते हैं।
तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। यह एक अत्यंत ही रहस्यमय शास्त्र है ।
चूँकि इस शास्त्र की वैधता विवादित है अतः हमारे द्वारा दी जा रही सामग्री के आधार पर किसी भी प्रकार के प्रयोग करने से पूर्व किसी योग्य तांत्रिक गुरु की सलाह अवश्य लें। अन्यथा किसी भी प्रकार के लाभ-हानि की जिम्मेदारी आपकी होगी।
परस्पर आश्रित या आपस में संक्रिया करने वाली चीजों का समूह, जो मिलकर सम्पूर्ण बनती हैं, निकाय, तंत्र, प्रणाली या सिस्टम (System) कहलातीं हैं। कार है और चलाने का मन्त्र भी आता है, यानी शुद्ध आधुनिक भाषा मे ड्राइविन्ग भी आती है, रास्ते मे जाकर कार किसी आन्तरिक खराबी के कारण खराब होकर खडी हो जाती है, अब उसके अन्दर का तन्त्र नही आता है, यानी कि किस कारण से वह खराब हुई है और क्या खराब हुआ है, तो यन्त्र यानी कार और मन्त्र यानी ड्राइविन्ग दोनो ही बेकार हो गये, किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान, और समय का अन्दरूनी ज्ञान रखने वाले को तान्त्रिक कहा जाता है, तो तन्त्र का पूरा अर्थ इन्जीनियर या मैकेनिक से लिया जा सकता है जो कि भौतिक वस्तुओं का और उनके अन्दर की जानकारी रखता है, शरीर और शरीर के अन्दर की जानकारी रखने वाले को डाक्टर कहा जाता है, और जो पराशक्तियों की अन्दर की और बाहर की जानकारी रखता है, वह ज्योतिषी या ब्रह्मज्ञानी कहलाता है, जिस प्रकार से बिजली का जानकार लाख कोशिश करने पर भी तार के अन्दर की बिजली को नही दिखा सकता, केवल अपने विषेष यन्त्रों की सहायता से उसकी नाप या प्रयोग की विधि दे सकता है, उसी तरह से ब्रह्मज्ञान की जानकारी केवल महसूस करवाकर ही दी जा सकती है।
जो वस्तु जितने कम समय के प्रति अपनी जीवन क्रिया को रखती है वह उतनी ही अच्छी तरह से दिखाई देती है और अपना प्रभाव जरूर कम समय के लिये देती है मगर लोग कहने लगते है, कि वे उसे जानते है, जैसे कम वोल्टेज पर वल्व धीमी रोशनी देगा, मगर अधिक समय तक चलेगा, और जो वल्व अधिक रोशनी अधिक वोल्टेज की वजह से देगा तो उसका चलने का समय भी कम होगा, उसी तरह से जो क्रिया दिन और रात के गुजरने के बाद चौबीस घंटे में मिलती है वह साक्षात समझ मे आती है कि कल ठंड थी और आज गर्मी है, मगर मनुष्य की औसत उम्र अगर साठ साल की है तो जो जीवन का दिन और रात होगी वह उसी अनुपात में लम्बी होगी, और उसी क्रिया से समझ में आयेगा.जितना लम्बा समय होगा उतना लम्बा ही कारण होगा, अधिकतर जीवन के खेल बहुत लोग समझ नही पाते, मगर जो रोजाना विभिन्न कारणों के प्रति अपनी जानकारी रखते है वे तुरत फ़ुरत में अपनी सटीक राय दे देते है.यही तन्त्र और और तान्त्रिक का रूप कहलाता है.

तन्त्र परम्परा से जुडे हुए आगम ग्रन्थ हैं। इनके वक्ता साधारणतयः शिवजी होते हैं।
तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है - “तनोति त्रायति तन्त्र” । जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय "गुह्य या गूढ़ साधनाओं" से किया जाता रहा है।
तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है और साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्रचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं।