Monday, March 2, 2015

Guru Purnima,V.CE 2056-July -1998


ये पत्र गुरूजी ने अपने जाने से पहले ही लिख दिया था
.....
जब जब इसको पड़ता हु रोना अता है।....आप भी  एक एक शब्द पढ़े  इसे  ..

गुरु पूर्णिमा, वि॰ संवत् 2056,
मेरे परम आतमीय पुत्रों,
तुम क्यों निराश हो जाते हो, मुझे ना पाकर अपने बीच ? मगर मैं तो तुम्हारे बिलकुल बीच ही हूँ, क्या तुमने अपने ह्रदय की आवाज़ को ध्यान से कान लगाकर नहीं सुना है ?शायद नहीं भी सुन पा रहे होगे..... और मुझे मालूम था, कि एक दिन यह स्थिति आएगी, इसीलिए ये पत्र मैंने पहले ही लिखकर रख दिया था, कि अगली गुरु पूर्णिमा में शिष्यों के लिए पत्रिका में दिया जा सके... परन्तु मैं तुमसे दूर हुआ ही कहाँ हूँ ! तुमको लगता है, कि मैं चला गया हूँ, परन्तु एक बार फिर अपने ह्रदय को टहोक कर देखो, पूछ कर देखो तो सही एक बार कि क्या वास्तव में गुरुदेव चले गये हैं ? ऐसा हो ही नहीं सकता, कि तुम्हारा ह्रदय इस बात को मान ले, क्यूंकि उस ह्रदय में मैंने प्राण भरे हैं, मैंने उसे सींचा है खुद अपने रक्त कणों से ! तो फिर उसमें से ऐसी आवाज़ भला आ भी कैसे सकेगी ?


जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा है ही नहीं, और जब तुम तुम हो ही नहीं, तो फिर तुम्हारा जो ये शरीर है, जो ह्रदय है, तुम्हारी आँखों में छलछलाते जो अश्रुकण हैं, वो मैं ही नहीं हूँ तो और कौन है ? तुम्हारे अन्दर ही तो बैठा हुआ हूँ मैं, इस बात को तुम समझ नहीं पाते हो, और कभी-कभी समझ भी लेते हो, परन्तु दूसरे व्यक्ति अवश्य ही इस बात को समझते हैं, अनुभव करते हैं, की कुछ न कुछ विशेष तुम्हारे अन्दर है तो जरूर.. और वो विशेष मैं ही तो हूँ, जो तुममें हूँ !

......और फिर अभी तो मेरे काफी कार्य शेष पड़े हैं, इसीलिए तो अपने खून से सींचा है तुम्हें, सींचकर अपनी तपस्या को तुममें डालकर तैयार किया है तुम सबको, उन कार्यों को तुम्हें ही पूर्णता देनी है ! मेरे कार्यों को मेरे ही तो मानस पुत्र परिणाम दे सकते हैं, अन्य किसमें वह पात्रता है, अन्य किसी में वह सामर्थ्य हो भी नहीं सकता, क्यूंकि वह योग्यता मैंने किसी अन्य को दी भी तो नहीं है ?

उस नित्य लीला विहारिणी को एक कार्य मुझसे कराना था, इसलिए देह का अवलम्बन लेकर मैं उपस्थित हुआ तुम्हारे मध्य !...... और वह कारण था - तुम्हारा निर्माण ! तुमको गढ़ना था और जब मुझे विश्वास हो गया कि अपने मानस पुत्रों को ऊर्जा प्रदान कर दी है, चेतना प्रदान कर दी है ! तुम्हें तैयार कर दिया है, तो मेरे कार्य का वह भाग समाप्त हो गया, परन्तु अभी तो मेरे अवशिष्ट कार्यों को पूर्णता नहीं मिल पायी है, वे सब मैंने तुम्हारे मजबूत कन्धों पर छोड़ दिया है ! ये कौन से कार्य तुम्हें अभी करने हैं, किस प्रकार से करने हैं, इसके संकेत तुम्हें मिलते रहेंगे !

तुम्हें तो प्रचण्ड दावानल बनकर समाज में व्याप्त अविश्वास, अज्ञानता, कुतर्क, पाखण्ड, ढोंग और मिथ्या अहंकार के खांडव वन को जलाकर राख कर देना है ! और उन्हीं में से कुछ ज्ञान के पिपासु भी होंगे, सज्जन भी होंगे, हो सकता है वो कष्टों से ग्रस्त हों, परन्तु उनमें ह्रदय हो और वो ह्रदय की भाषा को समझते हों, तो ऐसे लोगों पर प्रेम बनकर भी तुम बरस जाना ! और गुरुदेव का सन्देश देकर उनको भी प्रेम का एक मेघ बना देना !

फिर वो दिन दूर नहीं होगा जब इस धरती पर प्रेम के ही बादल बरसा करेंगे, और उन जल बूंदों से जो पौधे पनपेंगे, उस हरियाली से भारतवर्ष झूम उठेगा ! फिर हिमालय का एक छोटा स भू-भाग ही नहीं पूरा भारत ही सिद्धाश्रम बन जायेगा, और पूरा भारत ही क्यूं, पूरा विश्व ही सिद्धाश्रम बन सकेगा !

कौन कहता है, ये सब संभव नहीं है ? एक अकेला मेघ खण्ड नहीं कर सकता ये सब, पूरी धरती को एक अकेला मेघ खण्ड नहीं सींच सकता अपनी पावन फुहारों से ..... परन्तु जब तुम सभी मेघ खण्ड बनकर एक साथ उड़ोगे, तो उस स्थान पर जहाँ प्रचण्ड धूप में धरती झुलस रही होगी, वहां पर एकदम से मौसम बदल जायेगा !

“अलफांसो” अव्वल दर्जे के आम होते हैं, उन्हें भारत में नहीं रखा जाता, उन्हें तो विदेश में भेज दिया जाता है, नियात कर दिया जाता है, और भारत विदेशों में इन्हीं आमों से भारत की छवि बनती है !
तुम भी अव्वल दर्जे के मेरे शिष्य हो, तुम्हें भी फैल जाना है, मेरे प्रतीनिधी बनकर और सुगंध को बिखेर देना है, सुवासित कर देना है पुरे विश्व को, उस गंध से, जिसको तुमने एहसास किया है !

गुरु नानक एक गाँव में गए, उस गाँव के लोगों ने उनका खूब सत्कार किया ! जब वे गाँव से प्रस्थान करने लगे, तो गाँव के सब लोग उनको विदाई देने के लिए एकात्र हुए ! वे सब गुरूजी के आगे हाँथ जोड़कर और शीश झुकाकर खाए हो गए ! नानक ने कहा – “आप सब बड़े नेक और उपकारी हैं, इसीलिए आपका गाँव और आप सब उजड़ जायें !”

इस प्रकार आशीर्वा देकर आगे चल दिए और एक दूसरे गाँव पहुंचे ! दूसरे गाँव के लोगों ने गुरु नानक के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया ! नानक जी ने वहाँ से प्रस्थान करते समय वहाँ के लोगों को आशीर्वाद देते हुए कहा – “तुम्हारा गाँव और तुम सदा बसे रहो !”

मरदाना जो उनका सेवक था, उसने नानक से पूछा – “आपने अछे लोगों को बुरा, और बुरे लोगों को अच्छा आशीर्वाद दिया, ऐसा क्यों ?”

नानक मुस्कुराए और बोले – “तुम इस बात को नहीं समझे, तो सुनो ! जो लोग बुरे हैं, उन्हें एक ही स्थान पर बने रहना चाहिए, जिससे वे अपनी बुराई से दूसरों को हानि नहीं पहुँचा सकें ! परन्तु जो लोग अछे हैं उन्हें एक जगह नहीं रहना चाहिए ! उन्हें सब जगह फैल जाना चाहिए जिससे उनके गुण और आदर्श दूसरे लोग भी सीखकर अपना सकें !

इसीलिए मैं तुम्हें कह रहा हूँ, की तुम्हें किसी एक जगह ठहरकर नहीं रहना है, तुम्हें तो गतिशील रहना है, खलखल करती नदी की तरेह, जिससे तुम्हारे जल से कई और भी कई प्यास बुह सकें, क्यूंकि वह जल तुम्हारा नहीं है, वह तो मेरा दिया हुआ है ! इसलिए तुम्हें फैल जाना है पूरे भारत में, पूरे विश्व में......

..... और यूँ ही निकल पड़ना घर से निहत्थे एक दिन प्रातः को नित्य के कार्यों को एक तरफ रखकर, हाँथ में दस-बीस पत्रिकाएँ लेकर.... और घर वापिस तभी लौटना जब उन पत्रिकाओं को किसी सुपात्र के हाथों पर अर्पित कर तुमने यह समझ लिया हो, कि वह तुम्हारे सद्गुरुदेव का और उनके इस ज्ञान का अवश्य सम्मान करेगा !

...... और फिर देख लेना कैसे नहीं सद्गुरुदेव की कृपा बरसती है ! तुम उसमें इतने अधिक भींग जाओगे, कि तुम्हें अपनी सुध ही नहीं रहेगी !

एक बार बगावत करके तो देखो, एक बार अपने अन्दर तूफ़ान लाकर तो देखो ! देखो तो सही एक बार गुरुदेव का हाँथ बनकर ! फिर तुम्हें खुद कुछ करना भी नहीं पड़ेगा ! सबकुछ स्वतः ही होता चला जायेगा, पर पहला कदम तो तुम्हें उठाना ही होगा, एक बार प्रयास तो करना ही होगा ! निकल के देखो तो सही घर के बंद दरवाज़ों से बाहर समाज में और फैल जाओ बुद्ध के श्रमणों की तरेह पूरे भारतवर्ष में और पूरे विश्व में भी !

फिर देखना कैसे नहीं गुरुदेव का वरद्हस्त तुम्हें अपने सिर पर अनुभव होता है और छोटी समस्याओं से घबराना नहीं, डरना नहीं ! समुद्र में अभी इतना जल नहीं है की वह निखिलेश्वरानंद के शिष्यों को डुबो सके ! क्योंकि तुम्हारे पीछे हमेशा से ही मैं खड़ा हूँ और खड़ा रहूँगा भी !

तुम मुझसे न कभी अलग थे और ना ही हो सकते हो ! दीपक की लौ से प्रकाश को अलग नहीं किया जा सकता और ना ही किया जा सकता है पृथक सूर्य की किरणों को सूर्य से ही ! तुम तो मेरी किरणें हो, मेरा प्रकाश हो, मेरा सृजन हो, मेरी कृति हो, मेरी कल्पना हो, तुमसे भला मैं कैसे अलग हो सकता हूँ !

‘तुम भी तो....’ (जुलाई-98 के अंक में) मैंने तुम्हें पत्र दिया था यही तो उसका शीर्षक था, लेकिन अब ‘तुम भी तो’ नहीं, वरण ‘तुम ही तो’ मेरे हाँथ-पाँव हो, और फिर कौन कहता है, कि मैं शरीर रूप में उपस्थित नहीं हूँ ! मैं तो अब पहले से भी अधिक उपस्थित हूँ ! और अभी इसका एहसास शायद नहीं भी हो, की मेरा तुमसे कितना अटूट सम्बन्ध है, क्योंकि अभी तो मैंने इस बात का तुम्हें पूरी तरह एहसास होने भी तो नहीं दिया है !

पर वो दिन भी अवश्य आएगा, जब तुम रोम-रोम में अपने गुरुदेव को, माताजी को अनुभव कर सकोगे, शीग्र ही आ सके, इसी प्रयास में हूँ और शीघ्र ही आयेगा !

मैंने तुम्हें बहुत प्यार से, प्रेम से पाला-पोसा है, कभी भी निखिलेश्वरानंद कि कठोर कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा नहीं ली है, हर बार नारायणदत्त श्रीमाली बनकर ही उपस्थित हुआ हूँ, तुम्हारे मध्य ! और परीक्षा नहीं ली, तो इसलिए कि तुम इस प्यार को भुला न सको, और न ही भुला सको इस परीवार को जो तुम्हारे ही गुरु भाई-बहनों का है, तुम्हें इसी परिवार में प्रेम से रहना है !

समय आने पर यह तो मेरा कार्य है, मैं तुम्हें गढ़ता चला जाऊंगा, और मैंने जो-जो वायदे तुमसे किये हैं, उन्हें मैं किसी भी पल भूला नहीं हूँ, तुम उन सब वायदों को अपने ही नेत्रों से अपने सामने साकार होते हुए देखते रहोगे ! तुम्हारे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के अलावा और किसी सिद्धि की चाह बचेगी ही नहीं, क्योंकि मेरा सब कुछ तो तुम्हारा हो चुका होगा, क्यूंकि ‘तुम ही तो मेरे हो..’
सदा की ही भांति स्नेहासिक्त आशीर्वाद




नारायणदत्त श्रीमाली

Tuesday, January 13, 2015

गुरु मंत्र - मूल तत्त्व दुर्लभ स्तोत्र - त्रिजटा अघोरी


गुरु मंत्र - मूल तत्त्व दुर्लभ स्तोत्र - त्रिजटा अघोरी
"गुरु मंत्र का अर्थ " ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः

" परम पूज्य सदगुरुदेव द्वारा प्रदत गुरु मंत्र का क्या अर्थ है ?" मैंने बीच में ही टोकते हुए पूछा ।
एक लम्बी खामोसी.........जो इतनी लम्बी हो गयी थी, कि खलने लगी थी......उनके चेहरे के भावो से मुझे अनुभव हुआ, की वे निश्चय और अनिश्चय के बीच झूल रहे हैं । अंततः उनका चेहरा कुछ कठोर हुआ , मानो कोई निर्णय ले लिया हो । अगले ही क्षण उन्होंने अपने नेत्र मूंद लिये, शायद वे टेलीपैथी के माध्यम से गुरुदेव से संपर्क कर रहे थे, लगभग दो मिनट के उपरांत मुस्कुराते हुए उन्होंने आंखें खोल दीं । "इस मंत्र के मूल तत्त्व की तुम्हारे लिये उपयोगिता ही क्या है?
मंत्र तो तुम जानते ही हो, इसके मूल तत्त्व को छोड़ कर इसकी अपेक्षा मुझसे आकाश गमन सिद्धि,संजीवनी विद्या अथवा अटूट लक्ष्मी ले लो, अनंत सम्पदा ले लो, जिससे तुम संपूर्ण जीवन में भोग और विलास प्राप्त करते रहोगे....ऐसी सिद्धि ले लो, जिससे किसी भी नर अथवा नारी को वश में कर सकोगे ।"
एक क्षण तो मुझे लगा, की उनके दिमाग का कोई पेंच ढीला है, पर मेरा अगला विचार इससे बेहतर था । मैंने सुना था, कि उच्चकोटि के योगी या तांत्रिक साधक को श्रेष्ठ , उच्चकोटि का ज्ञान देने से पूर्व उसकी परीक्षा लेने हेतु कई प्रकार के प्रलोभन देते है, कई प्रकार के चकमे देते है..... वे भी अपना कर्त्तव्य बड़ी खूबसूरती से निभा रहे थे....
करीब पांच मिनट तक उनकी मुझे बहकाने की चेष्टा पर भी मैं अपने निश्चय पर दृढ़ रहा, तो उन्होंने एक लम्बी सांस ली और कहा "अच्छा ठीक है । बोलो क्या जानना चाहते हो?" "सब कुछ " मैं चहक उठा "सब कुछ अपने गुरु मंत्र एवं उसके मूल तत्त्व के बारे में ।
मित्रो, इसके बाद आप जानते ही है कि त्रिजटा अघोरी ने अपने वरिष्ठ गुरु भाई के सामने जो गुरु मंत्र का ब्रह्माण्डीय रहस्योद्घाटन किया..........................
अतः आप गुरु मंत्र कि महत्वता तो जानते ही है ,पर क्या आप जानते है कि जिस तरह शिव पंचाक्षरी मंत्र " नमः शिवाय " के प्रत्येक बीज से आदि शंकराचार्य ने शिव पंचाक्षर स्तोत्र कि रचना कि उसी तरह ऋषियों ने गुरु मंत्र के प्रत्येक बीज से भी एक अत्यंत दुर्लभ स्तोत्र कि रचना कि है...........................


ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः

" प "
पकार पुण्यं परमार्थ चिन्त्यं, परोपकारं परमं पवित्रं ।
परम हंस रूपं प्रणवं परेशं, प्रणम्यं प्रणम्यं निखिलं त्वमेवं ।। १ ।।
" र "
रम्य सुवाणी दिव्यंच नेत्र, अग्निं त्रिरुपं भवरोग वैद्यं ।
लक्ष्मी च लाभं भवति प्रदोषे, श्री राजमान्य निखिलं शरण्यम् ।। २ ।।
" म "
महामानदं च महामोह निभं , महोच्चं पदं वै प्रदानं सदैवं ।
महनिय रूपं मधुराकुतिं तं, महामण्डलं तं निखिलं नमामि ।। ३ ।।
" त "
तत्व स्वरूपं तपः पुतदानं , तारुण्य युक्ति शक्तिं ददाति ।
तापत्रयं दुरयति तत्त्वगर्भः , तमेव तत्पुरुषमहं प्रणम्यं ।। ४ ।।
" त्वा "
विभाति विश्वेश्वर विश्वमूर्ति , ददाति विविधोत्सव सत्व रूपं ।
प्राणालयं योग क्रिया निदानं , विस्वात्मकम तं निखिलं विधेयम् ।। ५ ।।
" य "
यशस्करं योग क्षेम प्रदं वै , योगश्रियं शुभ्रमनन्तवीर्यं ।
यज्ञान्त कार्य निरतं सुखं च , योगेश्वरं तं निखिलं वदेन्यम् ।। ६ ।।
" ना "
निरामयं निर्मल भात भाजनं , नारायणस्य पदवीं सामुदारभावं ।
नवं नवं नित्य नवोदितं तं , नमामि निखिलं नवकल्प रूपम् ।। ७ ।।
" रा "
रासं महापूरित रामणीयं , महालयं योगिजनानु मोदितं ।
श्री कृष्ण गोपीजन वल्लभं च , रसं रसज्ञं निखिलं वरेण्यम् ।। ८ ।।
" य "
यां यां विधेयां मायार्थ रूपां , ज्ञात्वा पुनर्मुच्यति शिष्य वर्गः ।
सर्वार्थ सिद्धिदं प्रददाति शुभ्रां , योगेन गम्यं निखिलं प्रणम्यम् ।। ९ ।।
" णा "
निरंजनं निर्गुण नित्य रूपं , अणोरणीयं महतो महन्तं ।
ब्रह्मा स्वरूपं विदितार्थ नित्यं , नारायणं च निखिलं त्वमेवम् ।। १० ।।
" य "
यज्ञ स्वरूपं यजमान मूर्ति , यज्ञेश्वरं यज्ञ विधि प्रदानं ।
ज्ञानाग्नि हूतं कर्मादि जालं , याजुष्यकं तं निखिलं नमामि ।। ११ ।।
" गु "
गुत्वं गुरुत्वं गत मोह रूपं , गुह्याति गुह्य गोप्तृत्व ज्ञानं ।
गोक्षीर धवलं गूढ़ प्रभावं , गेयं च निखिलं गुण मन्दिरं तम् ।। १२ ।।
" रु "
रुद्रावतारं शिवभावगम्यं , योगाधिरुढिं ब्रह्माण्ड सिद्धिं ।
प्रकृतिं वसित्वं स्नेहालयं च , प्रसाद चितं निखिलं तु ध्येयम् ।। १३ ।।
" भ्यों "
योगाग्निना दग्ध समस्त पापं , शुभा शुभं कर्म विशाल जालं ।
शिवा शिवं शक्ति मयं शुभं च , योगेश्वरं च निखिलं प्रणम्यं ।। १४ ।।
" न "
नित्यं नवं नित्य विमुक्त चितं , निरंजनं च नरचित मोदं ।
उर्जस्वलं निर्विकारं नरेशं , निरत्रपं वै निखिलं प्रणम्यं ।। १५ ।।
" म "
मातु स्वरूपं ममतामयं च , मृत्युंजयं मानप्रदं महेशं ।
सन्मंगलं शोक हरं विभुं तं , नारायणमहं निखिलं प्रणम्यं ।। १६ ।।

अतः आप इस स्तोत्र कि महत्वता स्वयं समझ सकते हैं............

गुरु mantra की सिद्धि से सभी साधना सिद्धि अपने आप हो जाता है फिर किसी साधना की अवसकता नहीं होती है | वह शिव तुल्य बन जाता है |

नोट

श्री कृष्ण , श्री राम जिस प्रकार नारायण के अवतार बताये जाते है, उसी प्रकार मानव जीवन की रक्षा के लिए, भारत को आजादी दिलाने के लिए ऋषि युग का प्रारम्भ करने के लिए जन्म लिए और भारत उसी प्रकार बनाया औरबना रहे है ..............वासे जब तक पास आ के किसी केबारे मैंजानेगेनहीं पता ही नहीं चल सकता है .....वेसे अप को पता नहीं होगा ये गुरु mantra............ Swami Nikhileswrananda जी तपस्या कर पुन : सिद्धास्रम आनेपर येगुरुmantra आपने सिद्धास्रम गुंजरन हूया औरउनको शिष्य अधिपति बनाया गया वो शिष्य सभी परीक्षा पास किया था और भगवान सचिदानन्द (त्रिदेव, त्रिशक्ति) सबसे प्रिय शिष्य बनसके थे ये mantra के जब से आप कोवही लाभ होगा जो त्रिदेव, त्रिशक्ति से मिलताहै

गुरु ब्रम्हा गुरु बिष्णु गुरुदेवो महेश्वर:,गुरु साक्षात परब्रम्ह तस्मैश्री गुरुवे नम: !!!

आप अधिक जानकारी निखिल स्तवन, निखिल सहत्र नामसे पा सकतेहै ........................या आप खुद mantra कोजाप कर देखले आप पता चल जायेगा ................निखिल नाम का जाप से कितने ब्रम्ह ऋषि बन गए कितने ऋषि सिद्धास्रम मैं जा सके इनकिरपा से ....

वन्दे निखिलं जगद्गुरुम

NARAYAN MANTRA SADHANA VIGYAN, GURUDHAM JODHPUR Feb 2015

NARAYAN MANTRA SADHANA VIGYAN, GURUDHAM JODHPUR


मैं आपको बगावत करना सीखा रहा हूँ !
शायद आपको मेरी बात तीखी लगे ,शायद आपको मेरी बात क्रोधमय हो गई हैं !
मगर जो क्रोध नही करता हैं उससे घटिया कोई आदमी नहीं होता, सबसे मरा हुआ जीव होता हैं जिसे क्रोध आता ही नही !
और हमारा देश बर्बाद इसलिए हो गया कि अहिंसा परमो धर्म : कोई थप्पड़ मारे तो दो चार थप्पड़ और खा लीजिये !
मैं कहता हूँ कि थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठे उससे पहले चालीस थप्पड़ मार दीजिये !
मैं आपको यह कह रहा हूँ काहे को हम थप्पड़ खाएं ?
जो लात मारता ,हैं वह जीतता ,यह ध्यान रखिये !
कोई लात लगा देगा तो दूसरा गिर जाएगा, दूसरा लात लगेगी तो उठेगा ही नहीं ! उसको 2 चार थप्पड़ और पड़ेंगे तो वह कहेगा गलती हो गई !
और तुम हाथ जोड़ो तो तुम्हारी हार निश्चित हैं !
गांधी जी ने यह कह दिया अहिंसा परमो धर्म :उस जमाने में जरूरी होगा ,यह उनकी धारणा थी विचार था ! उस जमाने में बुद्ध ने जो कहा सत्य कहा होगा !
मगर वह उस जमाने में था आज वह चीज नहीं ! उस समय बम विस्फोट नही हो रहे थे ,उस समय गोलिया नही चल रही थी Ak-47 रायफल उस समय नही थी आज वर्तमान में बच्चो के हाथो में भी यह सब हैं !
जहाँ भी व्यक्ति अपने धर्म को भूल जाएगा ,जब भारत की हानी होने लगेगी, जब भारत के टुकड़े होने की स्थिति हो जाएगी आर्यावर्त के टुकड़े होने संभावनाए तेज हो जाएंगी तब तब एक व्यक्ति पैदा होगा जो अपने शिष्यों को ज्ञान चेतना देगा ! उनको अहसास कराएगा कि तुम कायर नहीं हो ,बूढ़े नही हो ,तुममे ताकत हैं क्षमता हैं !
अत :आप सभी तैयार होना हैं अर्जुन बनाना होगा आप अपने जीवन में उच्च साधनाए ,आत्मसात कर सके ,ऐसा मैं आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूँ !
~सदगुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद !

Identify your character !! अपने स्वरूप को पहचानिए !!

यदि आप मरना = माने अपने साथ सब ख़त्म हो जाना ) सोचते हैं तो आप बहुत भारी भ्रम में जी रहे हैं , क्योंकि मरने पर तो अगले जीवन की शुरुआत होती है !!
.......अपने स्वरूप को पहचानिए !!
जो अपने इस वास्तविक, नित्य , अमर-स्वरूप को अनुभव करता है , वो दरअसल मरता ही नहीं !!
.........यही मृत्युंजय बनना है !!!
जो मृत्यु को जीत लेता है , वही अभय पद प्राप्त करता है !!!
आपको जान कर आश्चर्य होगा -ये सब आसानी से जीते- जी प्राप्त हो सकता है !!!
....बस आपको जरूरत है तो एक सही संगत की !!!

काम ।क्रोध।मद ।मोह।और लोभ छोड़ने के चक्कर में रहेंगे ।तो ये जीवन भर नहीं छुटता ।छोड़ना भी पकड़ने जैसा ही है ।क्योकि स्मरण पहले बनता था ।ये विकार है अब स्मरण बनी रहेगी छोड़ना है।
है वही के वाही ।एक उपाय है नाम जाप या मन्त्र जाप करते रहने से इन विकारो को पकड़ने और छोड़ने की बात नहीं चलती ये स्वतः ही समाप्त हो जाते है।
वो कहते है न पायोजी मैंने राम रतन धन पायो।बस्तु अमोलक दिन्ह मेरे सतगुरु विरथा कुछ छोड़ना पकड़ना नहीं है ।वस उनकी स्मरण बनी रहे ।

I am in love You मैं तुम्हें अत्यधिक प्रेम करता हूं

जीवन का लक्षय प्राप्त किये बिना ही जीवन बीत गया। अभी भी समय है, उठो,जागो
भक्त से शिष्य बनने का सद्अवसर है , उठो,जागो सोचो मत।
केवल "पुरूशार्थ करो, केवल "पुरूशार्थ
बिना कुछ किये ही आशीर्वाद मत मांगो। तुम मेरे हो, अतिशय प्रिय हो। मैं तुम्हें अत्याधिक प्रेम करता हूं।

पल प्रतिपल तेरी हर प्रकार से सहायता करने को तत्पर हूं। आज से, अभी से
अब तो मेरे आश्वासन का, मेरी कृपा का एवं इस अनमोल अवसर का सदुपयोग करो। मैं हर प्रकार से तुम्हारे साथ हूँ। सांसारिक सुख के पीछे मत भटकते रहो,उसकी चाह को ही मिटा दो।
अविनाशी सुख, परम शांति अर्थात परमानंद की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है। तू एक बूंद पानी, मेरा ही अंश, मुझ अंशी सागर को प्राप्त हो।
यही है मिलन, जीव का अपने घर लौटना। जल्दी करो। मैं दोनो नही, असंख्य हाथ... बांहे फैलाये तेरी प्रतीक्षा कर रहा हूं।
मेरा ह्रदय तेरे लिये व्याकुल है, मिलन के लिये तड़प रहा है। जल्दी लौट आओ।

अगर आप दुनिया की भीड़ से बचना चाहते हो बस एक काम करना, प्रेमके रास्ते पर
चलना शुरू कर देना। यहाँ बहुत कम भीड़ है और इस रास्ते पर चलने के लिए हर कोई तैयार नहीं होता। यद्यपि व्यर्थ के लोगों से बचने के और भी कई तरीके हैं मगर प्रेम पर चलने से व्यर्थ अपने आप छूट जाता है और श्रेष्ठ प्राप्त हो जाता है।
गलत दिशा की ओर हजारों कदम चलने की अपेक्षा लक्ष्य की ओर चार कदम चलना कई
गुना महत्वपूर्ण है। तुम प्रेम को जितना जल्दी हो चुन लो ताकि परम प्रेम भी तुम्हें चुन सके।
प्रेम के मार्ग पर चलना ही सबसे बड़ा साहसिक कार्य है। प्रेम के मार्ग पर चलने ही सृजन
होता है। प्रेम के मार्ग पर चलने से ही आत्मा का कल्याण होता है। हो सकता है
प्रेम से सत्ता ना मिले पर सच्चिनानंद अवश्य मिल जाता है।

When you come out of vanity? आपने घमंड से कब बाहर आओगे ?



अब अपनी बुद्धि को किनारे रख दो l अब बहुत हो गया तुम कितनी भी खोपड़ी खुजा लो , अब तुम्हारी समझ में कुछ आने वाला नहीं l मैंने जितना समझाना था समझा दिया l मै तो अपना काम कर ही लूँगा l तुम अपनी सोचो l बड़े चालाक बनते हो , बहुत बुद्धि लगाते हो l कुछ भी कर लो अपनी बुद्धि से मेरे खेल को नहीं समझ सकते l अरे मै तो जिसे चाहूं समझा दूँ , जिस भाषा में चाहूँ समझा दूं लेकिन पहले तुम अपना अहंकार तो छोड़ो l खुद को बहुत बुद्धिमान समझते हो ,सोचते हो तुम्ही बस सही हो और बाकी सब गलत l अरे अपनी बुद्धि और घमंड से बाहर आओगे तब दुनिया देखोगे l अभी तुमने देखा ही क्या है l
पूरे देश के लोग मुझे सुनते हैं चाहे किसी भी भाषा को बोलने वाले क्यूँ न हों l सब समझते हैं मेरी बात l तो तुम ये न जानो कि मैं किसी को समझा नहीं सकता l जब मेरे बच्चे निकल पड़ेंगे तो तुम्हारी बुद्धि फेल हो जाएगी l तब समझ ही नहीं आएगा कि क्या सही और क्या गलत l जिसे पीछे लगना है वो मेरे पीछे लग चुका है l मेरा सारा काम हो रहा है l कोई इसे रोक नहीं सकता l l तुम्हारा बना कुछ नहीं, बिगड़ जरुर गया l मैं अपनी संख्या पूरी कर लूँगा l तुम क्या समझते हो मेरे जीवों को तोड़कर अपना बना लोगे l अरे! काल का ग्रास तो तुम्हें बनना ही होगा l अब बहुत हो गया l तुमने जो करना था कर लिया l अब मैं करूँगा l
मेरे अपने बच्चे मेरे साथ हैं और मेरा काम कर रहे हैं l अब ये बोध में आ चुके हैं l इन्हें बच्चा समझने की भूल मत करना l इनके पास वो अपार शक्ति है जो ऊपर से आती है l
मेरे सत्संग वचनों को तुमने बहुत सुना किन्तु गुना नहीं l यदि एक भी वचन ढंग से पकड़ लेते तो आज गिरते नहीं l खुद को बड़ा ऊंचा जीव समझते हो , कुछ दिखाई सुनाई तो देता नहीं l अहंकार में दूसरे की सुनते नहीं l अब तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता l जब घमंड छोड़ोगे तभी कुछ समझ आएगा l जो साधक हैं वो सब जानते हैं l वो तुम्हें भेद बता सकते हैं , मुझसे मिलवा सकते हैं l साधकों की सुनने के लिए दीनता जरूरी है l दीनता होगी तो उनसे पूछ लोगे , नहीं तो घमंड में बैठे रह जाओगे l अब आगे तुम जानो तुम्हारा काम जाने l
मेरे गुरु महराज ने इसी समय के लिए कहा था कि पीछे मुड़कर नहीं देखना l कोई गिर जाएगा तो अब उसे उठाने का वक़्त नहीं है l
सच्ची साधना में लगे रहो l अभी काम आगे बहुत करना है l जो नए लोग आयेंगे उन्हें बताना समझाना है l जो नए हैं वो कर ले जायेंगे ,पुराने अपने को पुराना समझ बैठे ही रहेंगे
अब मेरे पास वक़्त ज्यादा नहीं है l तुम लोगों को लग कर काम करना होगा l मेरी बात को ध्यान से सुनना l संकेत तो मैं बहुतों को देता हूँ पर सब बुद्धि लगाते हैं इसलिए कुछ समझ नहीं पाते l जब समर्पण का भाव होगा तो धीरे धीरे सब समझ आ जायेगा l
मैं कोई शरीर नहीं हूँ , न ही तुम लोग मेरे लिए शरीर हो l तुम तो वो सुरतें हो जिन्हें मैंने कई जन्मों से अपने साथ जोड़ रखा है l तुम्हें शरीर देता रहा ताकि तुम उससे अपना काम कर सको l मेरे लिए मेरा शरीर सिर्फ एक मर्यादा है , तुम्हारे समीप रहने का l मेरे शरीर से प्रेम मत करो, मुझसे करो , वैसे ही जैसे मैं अपनी सुरतों से करता हूँ l तुम सब मेरे बच्चे हो l जब मेरे जीवों को कष्ट होता है तो मुझे दुःख होता है l मैं चाहता हूँ तुम्हारा कष्ट सदा के लिए मिट जाए और तुम अपने धाम चले जाओ l
सतगुरु के मिलने के लिए तड़प जरुरी होती है जिन्हें तड़प होती है वो मुझतक पहुँच ही जाते हैं l मार्ग मैं बना देता हूँ l अब भी संभल जाते हो तो ये मदद कर देंगे l बाद में पछताना पड़ेगा l समय रहते काम कर लो तो अच्छी बात है l तुम्हारा भी काम हो जाएगा और मेरा भी l तुम तो सिर्फ दिखावा करते हो l भाव एक कौड़ी का नहीं और चाहते हो घर बैठे सब मिल जाए l ऐसा नहीं होता l वो तुम्हारी मेहनत लगन और भाव के बदले ही कुछ देता है l मुझे तो अपना काम करना ही है , तुम नहीं कोई और सही पर अब काम रुकने वाला नहीं है l
जिसने जिसने जो भविष्यवाणीयां की वो सब मैंने काट दी l तुम सोचते हो मेरी नक़ल कर कुछ पा लोगे तो वो संभव नहीं l अब मैं ऐसा नहीं होने दूंगा l जब आऊंगा तो विश्व हिलाकर रख दूंगा l तब समझ जाना मेरा काम चरम पर है l मेरे ये बच्चे बहुत शक्तिशाली हैं l जो खून इनकी रगों में दौड़ रहा है वो गरम है l इसी गर्म जोशी में सब काम कर ले जायेंगे l जब तुम पीछे रह जाओगे तब तुम्हें दुःख होगा l याद आएगा कि इसने बताया समझाया था |
श्री सदगुरुजी चरनार्पणमस्तू

GoD comes in the form of the master himself परमपिता स्वयं गुरु का रूप धारण कर के आता है



परमपिता स्वयं गुरु का रूप धारण कर के आता है
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जब परमपिता परमात्मा हमारी फिल्म बनाता है तो हमारे इस जन्म का बजट पूंजी देखता है की कितनी है और वह फिल्म पूरी करता है । फिर वह हमारे पिछले जन्म में किये गए पाप - पुण्य के आधार पर जीवन की स्टोरी लिखता है ।
हमारे पूर्व कर्मों के कारण ही हमें सुख - दुःख मिलते है । कोई भी निर्देशक ये नहीं चाहता की उसकी फिल्म सफल न हो सभी ये चाहते की फिल्म को पसंद करें और उसकी यादें उनके दिल में बसी रहे । फिर हम उस परमपिता परमात्मा जो हम सबके जीवन की फिल्म का निर्देशक है उस पर क्यों इल्जाम लगाते है की वह हमारे जीवन की फिल्म दुःख से भरी बना रहा है । देखो जब हम कोई फिल्म या नाटक देखते है तो उसमे जब नायक या नायिका के साथ गलत होता है तो हमें बुरा लगता है लेकिन फिल्म का निर्देशक जानता है की इन मुस्किल परिस्थितयों के साथ लड़ते हुए नायक या नायिका का चरित्र उभर कर आएगा और अंत में नायक जीतेगा तो सब लोग खुश हो जाएंगे और बीच की सारी मुस्किल परिस्थियों आने का कारन समझ जायेंगे की ये सब निर्देशक ने फिल्म को रोमांचक बनाने के लिए किया था ।
निर्देशक लोगों को फिल्म के प्रति खींचने के लिए फिल्म में संगीत डालता है जिसकी धुन में मस्त होकर लोग सिनेमा में खींचे चले आते हैं ।
ऐसे ही परमपिता ने मनुष्य को अपने निजधाम में लाने के लिए मनुष्य के अंदर नाद, धुन, रखी हुई है । इस को पकड़ कर हम पहुँच सकते है ।
हमें अपने निज धाम ले जाने के लिए वो सच्चा निर्देशक परमपिता स्वयं गुरु का रूप धारण कर के आता है और हमें उस धुन का ज्ञान देता है । जैसे फिल्म से पहले उस फिल्म में काम करने वालों के नाम स्क्रीन पर आते है ऐसे ही गुरु हमें ऊपर के मंडल में काम करने वाली शक्तियों के नाम व् उनकी पहचान हमें बताते है ।
फिल्म का आखरी हिस्सा सबसे महत्वपूर्ण होता है किसी ने सच ही कहा है की ' अंत भला तो सब भला ' ऐसे ही अगर हमारे जीवन के अंत समय में हमारा ध्यान गुरु के चरणों में लगा रहता है तो हमारी आत्मा उस परमपिता परमात्मा में जा मिलती है जहाँ पहुंचकर फिर जन्म मरण नहीं होता ।










अब मेरी बात मान लो | अब नहीं सुनोगे तो कब सुनोगे | अब तो समय ख़त्म होने जा रहा है | बाद में पछताओगे | जिन्होंने मुझे चाहा उन्होंने मुझे पा लिया | तुम्हें अगर नहीं मिला तो कुछ न कुछ तो कमी थी | अपनी कमी पहचान लोगे तो सब ठीक हो जायेगा | वैसे भी अब मैं किसी के लिए बैठने वाला नहीं हूँ | मुझे तो अपना काम करना ही है | तुम आ जाओगे तो अच्छा होगा , नहीं तो जिसे चलना है वो साथ चल रहा |
ये मन बड़ा बैरी है | इसे रस नहीं मिलता तो इस पर विकार अत्यधिक हावी हो जाते हैं | अहंकार ईर्ष्या द्वेष और सर्वाधिक मान सम्मान जागृत होता है | ये तुम्हें सतगुरु मिलन से रोक देता है |
तुम ये न समझो की तुम इससे अछूते हो | ये तुम पर भी कार्य करने की कोशिश करता है और तुम्हें भी गिराने का पूरा प्रयास करता है | एक साधक को सदैव सचेत रहना पड़ता है | ये तुम्हारे लिए चेतावनी है | संभल कर रहो |
|| बड़ा बैरी ये मन घट में , इसी को जीतना कठिना ||
मैंने जितने को लिया था उसमे से बहुत कम ही आ पाये | अगर तुम आ जाओगे तो तुम्हारा ही भला होगा | अपनी गिनती मैं बाहर से पूरी कर रहा हूँ | मुझे अपना काम करने से कोई नहीं रोक सकता | मैं तो अपना काम कर लूँगा , तुम अपनी तो सोचो |
अब काम पूरा करने के लिए इंतज़ार नहीं करूँगा |
अब सब बढे चलो | आगे आगे चलो | तुम सबके लिए ही तो मैं आया था |




दुनिया में कोशिश करके तो देख :
... रोक सकता है तू लहरों को, .. लौटा सकता है तू तूफ़ां को,
यह दुनिया जो कोसती है रात-दिन तुझे,
सीने से लगायेगी एक दिन, ...... कोशिश करके तो देख
क्यूँ फंसता है संभव-असंभव के फेर में,
कर सकता है सब कुछ, ...... कोशिश करके तो देख
मुसीबतें खड़ी है जो सीना ताने तेरे सामने,
सर झुकायेगी एक दिन, ....... कोशिश करके तो देख
अपनों की दूरियाँ क्यों कचौटती हैं तुमको,
दुश्मन भी हाथ मिलायेंगे, ..... कोशिश करके तो देख
ग़म के अंधियारे तो खुद डरते हैं तुझसे,
उजाले की बस एक किरण, तू लाकर तो देख
कर सकता है सब कुछ, ....कोशिश करके तो देख !!