Monday, September 29, 2014

shree arjun krit durga stavan श्री अर्जुन कृत श्रीदुर्गा स्तवन






श्री अर्जुन-कृत श्रीदुर्गा-स्तवन

विनियोग - ॐ अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिः, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता, ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यास-


श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिभ्यो नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीदुर्गा देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ऐं शक्त्यै नमः पादयो, श्रीं कीलकाय नमः नाभौ, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।

कर न्यास - ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्याम नमः, ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्याम वषट्, ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं, ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्, ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां फट्।

अंग-न्यास -ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसें स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचायं हुं, ॐ ह्रौं नैत्र-त्रयाय वौष्ट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।



ध्यान -

सिंहस्था शशि-शेखरा मरकत-प्रख्या चतुर्भिर्भुजैः,

शँख चक्र-धनुः-शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता।

आमुक्तांगद-हार-कंकण-रणत्-कांची-क्वणन् नूपुरा,

दुर्गा दुर्गति-हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्-कुण्डला।।



मानस पूजन - ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः रं वहृ्यात्मकं दीपं दर्शयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।



श्रीअर्जुन उवाच -

नमस्ते सिद्ध-सेनानि, आर्ये मन्दर-वासिनी,

कुमारी कालि कापालि, कपिले कृष्ण-पिंगले।।1।।

भद्र-कालि! नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते।

चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।2।।

कात्यायनि महा-भागे, करालि विजये जये,

शिखि पिच्छ-ध्वज-धरे, नानाभरण-भूषिते।।3।।

अटूट-शूल-प्रहरणे, खड्ग-खेटक-धारिणे,

गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे, नन्द-गोप-कुलोद्भवे।।4।।

महिषासृक्-प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि,

अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।5।।

उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि,

हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्राप्ति नमोऽस्तु ते।।6।।

वेद-श्रुति-महा-पुण्ये, ब्रह्मण्ये जात-वेदसि,

जम्बू-कटक-चैत्येषु, नित्यं सन्निहितालये।।7।।

त्वं ब्रह्म-विद्यानां, महा-निद्रा च देहिनाम्।

स्कन्ध-मातर्भगवति, दुर्गे कान्तार-वासिनि।।8।।

स्वाहाकारः स्वधा चैव, कला काष्ठा सरस्वती।

सावित्री वेद-माता च, तथा वेदान्त उच्यते।।9।।

स्तुतासि त्वं महा-देवि विशुद्धेनान्तरात्मा।

जयो भवतु मे नित्यं, त्वत्-प्रसादाद् रणाजिरे।।10।।

कान्तार-भय-दुर्गेषु, भक्तानां चालयेषु च।

नित्यं वससि पाताले, युद्धे जयसि दानवान्।।11।।

त्वं जम्भिनी मोहिनी च, माया ह्रीः श्रीस्तथैव च।

सन्ध्या प्रभावती चैव, सावित्री जननी तथा।।12।।

तुष्टिः पुष्टिर्धृतिदीप्तिश्चन्द्रादित्य-विवर्धनी।

भूतिर्भूति-मतां संख्ये, वीक्ष्यसे सिद्ध-चारणैः।।13।।

।। फल-श्रुति ।।

यः इदं पठते स्तोत्रं, कल्यं उत्थाय मानवः।

यक्ष-रक्षः-पिशाचेभ्यो, न भयं विद्यते सदा।।1।।

न चापि रिपवस्तेभ्यः, सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः।

न भयं विद्यते तस्य, सदा राज-कुलादपि।।2।।

विवादे जयमाप्नोति, बद्धो मुच्येत बन्धनात्।

दुर्गं तरति चावश्यं, तथा चोरैर्विमुच्यते।।3।।

संग्रामे विजयेन्नित्यं, लक्ष्मीं प्राप्न्नोति केवलाम्।

आरोग्य-बल-सम्पन्नो, जीवेद् वर्ष-शतं तथा।।4।।



प्रयोग विधि -

उक्त स्तोत्र ‘महाभारत’ के ‘भीष्म पर्व’ से उद्धृत है।

१॰ इसकी साधना भगवती के मन्दिर अथवा घर में एकान्त में करनी चाहिये। ‘घी’ के दीपक में बत्ती के लिये अपनी नाप के बराबर रूई के सूत को 5 बार मोड़कर बटे तथा बटी हुई बत्ती को कुंकुम से रंगकर भगवती के सामने दीपक जलायें।

नवरात्र या सर्व सिद्धि योग से पाठ का प्रारम्भ करें कुल 9 या 21 दिन पाठ करें तथा प्रतिदिन 9 या 21 बार आवृत्ति करें। पाठ के बाद हवन करें। लाल वस्त्र तथा आसन प्रशस्त है। साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन करें।

इससे सभी प्रकार की बाधाएं समाप्त होती है तथा दरिद्रता का नाश होता है। शासकीय संकट, शत्रु बाधा की समाप्ति के लिये अनुभूत सिद्ध प्रयोग है।



२॰ नित्य दुर्गा-पूजा (सप्तशती-पाठ) के बाद उक्त स्तव के ३१ पाठ १ महिने तक किए जाएँ। या

३॰ नवरात्र काल में १०८ पाठ नित्य किए जाएँ, तो उक्त “दुर्गा-स्तवन” सिद्ध हो जाता है।

mahishasur mardani strotam महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम



महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १ ॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥

अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥

अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥

अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥

सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥
अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥
सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२ ॥
अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥
कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४ ॥
करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते ।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥
कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥
विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥
कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥
अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते ।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २१ ॥

Saturday, September 6, 2014

kahi Vidhi karu upasana काही विधि करूं उपासना

काही विधि करूं उपासना

उपासना का मतलब है नजदीक जाना... इतना नजदीक की उसके अन्दर जाना, विस्मृत कर देना अपने-आप को, भूल जाना अपने स्वत्व को।

और यह भूलने का भाव, एकाकार हो जाने का भाव प्रेम के द्वारा ही सम्भव है...प्रेम के द्वारा ही जीने और मरने का सलीका आता है, प्रेम के द्वारा ही मर मिटने की उपासना सम्भव है।

और जो मरा नहीं, वह क्या ख़ाक जिया, जिसने विरह के तीर खाए ही नहीं, वह गुरु से क्या एकाकार हो सकेगा, क्या ख़ाक उपासना कर सकेगा -


किसूं काम के थे नहीं, कोई न कौडी देह।
गुरुदेव किरपा करी भाई अमोलक देह ॥
सतगुरु मेरा सुरमा, करे सबद की चोट।
मारे गोला प्रेम का, ढहे भरम का कोट ॥
सतगुरु सबदी तीर है कियो तन मन छेद।
बेदरदी समझे नहीं, विरही पावे भेद

प्रेम, एक धधकता हुआ अंगारा है, जिस पर मोह की राख पड़ गई है... सदगुरु उस पर फूंक मारता है, राख उड़ जाती है, और नीचे से उपासना का अंगार चमकता हुआ निकल आता है।

इसलिए तो खाली प्रार्थना से कुछ भी होना नहीं है, कोरी आंख मूंद लेने से उपासना में सफलता प्राप्ति नहीं हो सकती, इसके लिए जरूरी है गुरु के पास जाना, उनकी उठी हुई बाहों में अपने-आप को समा लेना...तभी आनन्द के अंकुर फुटेंगे, उपासना का राजपथ प्राप्त होगा, और तभी से एकाकार होने की क्रिया संपन्न होगी।

गुरु कहै सो कीजिये, करै सो कीजै नांहि ।
चरनदास की सीख सुन, यही राख मन मांहि ॥
जप- तप- पूजा - पाठ सब, गुरु चरनण के मांहि ।
निस दिन गुरु सेवा करै, फिरू उपासना कांहि ॥
का तपस्या उपासना, जोग जग्य अरु दान ।
चरण दास यों कहत है, सब ही थोथे जान ॥
गुरु ही जप - तप - ध्यान है, गुरु ही मोख निर्वाण ।
चरणदास गुरु नाम ते, नांहि उपासन ज्ञान ॥

श्राद्ध और पितरेश्वर तर्पण srad aur pitesvar tarpan

श्राद्ध और पितरेश्वर तर्पण


मातृ पितृ चरण कमलेभ्यो नमः
सर्व पितरेश्वर चरण कमलेभ्यो नमः


प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता,पूर्वजों को नमस्कार प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं।
इसलिए हमारे ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध,तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि कोई कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है इसीलिए आवश्यक है -


श्राद्धऔर
पितरेश्वर तर्पण मुक्ति विधान-साधना
पितरेश्वर दोष निवारण विधान-साधना


श्राद्ध का अर्थ है - श्रद्धापूर्वक कुछ देना या स्वयं को विनम्रतापूर्वक श्रद्धज्ञ व्यक्त करना। अपने मृत पूर्वजों के लिए कृतज्ञता ज्ञापन करना ही श्राद्ध है, क्योंकि भारतीय मान्यता के अनुसार मृत जीवात्मा विभिन्न लोकों में भटकती हुई दुःखदायी योनियों में प्रविष्ट होती है, तथा अनन्त दुःखों को भोगती है... । शास्त्रीय परम्परानुसार श्राद्ध के माध्यम से दिवंगत आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है।

पितरेश्वर का सामान्य अर्थ यह माना गया है की व्यक्ति विशेष के वे पूर्वज जिन्होंने इस संसार को त्याग दिया है लेकिन प्रेत शब्द का भी अपभ्रंश पितर है अर्थात वे आत्माएं जिन्हें मुक्ति नहीं मिलाती। वे आत्माएं प्रेत योनी में होने के कारण सामान्य भाषा में पितृ अवश्य कहा जाता है लेकिन यह आवश्यक नहीं की इन पितरों का अथवा प्रेतों का आपसे कोई सीधा सम्बन्ध हो। ये प्रेत आत्माएं किसी भी बालक स्त्री, कमजोर व्यक्ति पर अधिकार जमा सकती है। जिसके चलते मरणांतक पीडा होती है। ऐसी प्रेत बाधा से मुक्ति पितृ-पक्ष में, श्राद्ध पक्ष में इस लेख में दी गई है।

परिवार की शुभचिन्तक आत्माएं: भोग अथवा लालसा के कारण आत्मा की मुक्ति नहीं हो पाती है और इसी कारण जब तक कोई नया शरीर न मिले तब तक भटकते रहना एक प्रकार से उसकी विवशता होती है। परन्तु कई बार आत्मा की मुक्ति अपने पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति के कारण भी नहीं हो पाती है। ऐसे कई कारण हो सकते है, जैसे उसने अपनी वसीयत कहीं गुप्त रूप से रख दी हो अथवा धन संचय कर कहीं छिपा दिया हो और अपने परिवार जनों को देना चाहता हो। ये भी हो सकता है, की परिवार जनों के ऊपर कोई विपत्ति आने वाली हो अथवा पुत्री का विवाह जहां तय किया जा रहा हों वह परिवार ठीक न हो, आदि बातों को अपने परिवार जनों को बताना चाहती है। इस दशा में रहकर उस मृतात्मा को जब तक की इन बातों को अपने परिवार जनों से नही कह देती तब तक वह निरंतर एक दबाव में रहती है, उसकी मुक्ति नहीं हो पाती, इसलिए अपनी परिचित मृतात्माओं से सम्पर्क साधक के लिए सदैव कल्याणकारी होता है। पितरों के आशीर्वाद प्राप्ति हेतु पितरेश्वर साधना का इसलिए भारतीय चिन्तन में प्रावधान है।

सृष्टि का क्रम जिस प्रकार निर्धारित समयानुसार संपन्न होता रहता है, उसी प्रकार मनुष्य के निर्धारण भी विभिन्न निश्चित कर्मों से गुजरता हुआ जन्म से मृत्यु और पुंसवन से जन्म की ओर गतिशील होता है।

विश्वनियन्ता के इस निर्धारित क्रम के अनुसार ही हमारे ऋषियों-महर्षियों ने सम्पूर्ण मानव-जीवन को अर्थात गर्भ में आगमन से लेकर जन्म और मृत्यु तक, पूर्ण कालचक्र को विभिन्न खंडों में विभाजित कर दिया है। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, जिससे मनुष्य एक अनुशासित और सुव्यवस्थित तरीके से अपने जीवन को व्यतीत करे और साथ ही प्रत्येक कार्य के साथ, वे कार्य, जो मानव-जीवन को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वूर्ण होते है, उनके हेतु परम पिता परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर, उनकी प्रसन्नता और आशीर्वाद प्राप्त कर सके।

सनातन धर्म में इस निर्धारित कार्य को 'संस्कार' के नाम से संबोधित किया गया है। बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं ये संस्कार योग्य पुत्र अथवा पुत्री की प्राप्ति हेतु। गर्भ में आगमन के समय 'पुंसवन संस्कार' सम्पन्न किया जाता है, तो जन्म लेने के उपरांत 'नामकरण', 'चूडामणि संस्कार' संपन्न किया जाता है, अर्थात पांच से पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक उसका 'उपनयन संस्कार' कर, उसे द्वीज बनाकर पूर्ण विद्यार्जन का अधिकार प्रदान किया जाता है।

यौवन का पदार्पण होने पर 'विवाह संस्कार' किया जाता है और इस प्रकार विभिन्न संस्कारों से गुजरता हुआ व्यक्ति जब वृद्धावस्था को प्राप्त कर अपने जर्जर और रोगग्रस्त शरीर का त्याग कर किसी अन्य शरीर को धारण करने के लिए प्रस्थान करता है, तो उसके द्वारा त्यागे गए शरीर को हिंदू धर्मानुसार अग्नि में समर्पित कर 'कपाल क्रिया संस्कार' सम्पन्न किया जाता है।

अत्यधिक व्यवस्थित है हमारी सनातन धर्म की संस्कृति और अत्यधिक उदार व सहृदय भी। मृत्यु के बाद भी हमारा रिश्ता उस हुतात्मा से जुडा रहता है, समाप्त नहीं होता और उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही बनाया गया है 'श्राद्ध' नामक संस्कार।
श्राद्ध का महत्त्व सर्वविदित है। इसके बारे में कोई आवश्यक नहीं है की विस्तृत विवेचना की जाय, किन्तु यह बहुत ही कम लोगों को ज्ञात होगा, की श्राद्ध बारह प्रकार के होते है: -
  1. नित्य श्राद्ध - जो श्राद्ध प्रतिदिन किया जाय, वह नित्य श्राद्ध है। तिल, धान्य, जल, दूध, फल, मूल, शाक आदि से पितरों की संतुष्टि के लिए प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिए।

  2. नैमित्तिक-श्राद्ध - 'एकोद्दिष्ट-श्राद्ध' के नाम से भी इसे जाना जाता है। इसे विधिपूर्वक सम्पन्न कर विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

  3. काम्य-श्राद्ध - जो श्राद्ध कामना युक्त होता है, उसे काम्य श्राद्ध कहते है।

  4. वृद्धि-श्राद्ध - यह श्राद्ध धन-धान्य तथा वंश-वृद्धि के लिए किया जाता है, इसे उपनयन संस्कार सम्पन्न व्यक्ति को ही करना चाहिए।

  5. सपिन्डन श्राद्ध - इस श्राद्ध को सम्पन्न करने के लिए चार शुद्ध पत्र लेकर उनमे गंध, जल और तिल मिला कर रखा जाता है, फिर प्रेत पात्र का जल पितृ पात्र में छोडा जाता है। चारों पात्र प्रतीक होते है - प्रेतात्मा, पितृत्मा, देवात्मा और उन अज्ञात आत्माओं के, जिनके बारे में हमे ज्ञान नही है।

  6. पार्वण श्राद्ध - अमावास्या अथवा किसी पर्व विशेष पर किया गया श्राद्ध पार्वण-श्राद्ध कहलाता है।

  7. गोष्ठ-श्राद्ध - गौओं कर्मांग गर्भादान सिमान्तोय जाने वाला श्राद्ध कर्म गोष्ठ-श्राद्ध कहलाता है।

  8. शुद्धयर्थ-श्राद्ध - विद्वानों की संतुष्टि, पितरों की तृप्ति, सुख-संपत्ति की प्राप्ति के निमित्त ब्राहमणों द्वारा कराया जाने वाला कर्म शुद्धयर्थ-श्राद्ध है

  9. कर्मांग-श्राद्ध - यह श्राद्ध गर्भाधान, सिमान्तोन्नयन तथा पुंसवन संस्कार के समय सम्पन्न होता है।

  10. दैविक-श्राद्ध - देवाताओं के निमित्त घी से किया गया हवानादी कार्य, जो यात्रादी के दिन संपन्न किया जाता है, उसे दैविक-श्राद्ध कहते है।
  11. औपचारिक-श्राद्ध - यह श्राद्ध शरीर की वृद्धि और पुष्टि के लिए किया जाता है।
  12. सांवत्सरिक-श्राद्ध - यह श्राद्ध सभी श्राद्धों में श्रेष्ठ कहलाता है, और इसे मृत व्यक्ति की पुण्य तिथि पर सम्पन्न किया जाता है। इसके महत्त्व का आभास 'भविष्य पुराण' में वर्णित इस बात से हो जाता है, जब भगवान सूर्य स्वयं कहते है - 'जो व्यक्ति सांवत्सरिक-श्राद्ध नहीं करता है, उसकी पूजा न तो मै स्वीकार करता हूं न ही विष्णु, ब्रम्हा, रुद्र और अन्य देवगण ही ग्रहण करते है।' अतः व्यक्ति को पर्यंत करके प्रति वर्ष मृत व्यक्ति की पुण्य तिथि पर इस श्राद्ध को सम्पन्न करना ही चाहिए।
जो व्यक्ति माता-पिता का वार्षिक श्राद्ध नहीं करता है, उसे घोर नरक की प्राप्ति होती है, और अंत में उसका जन्म 'सूकर योनी' में होता है। श्राद्ध पक्ष में व्यक्ति को अपने घर में निर्धारित तिथि के अनुसार श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना ही चाहिए।
कुछ व्यक्तियों के सम्मुख यह प्रश्न होगा कि उन्हें अपने माता पिता की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं है, तो वे किस दिन श्राद्ध सम्पन्न करें?
- ऐसे व्यक्ति को श्राद्ध पक्ष की अमावास्या को श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिए। सौभाग्यवती स्त्रियों का श्राद्ध यथा - मां, दादी, परदादी आदि का श्राद्ध मातृ नवमी को करना चाहिए।
श्राद्ध कर्म केवल मृत माता-पिता के लिए ही सम्पन्न किया जाता है, ऐसी बात नहीं है, यह कर्म तो मृत पूर्वजों के प्रति आदर का सूचक है, और उनके आशीर्वाद को प्राप्त कराने का सुअवसर है, अतः श्राद्ध कर्म प्रत्येक साधक और पाठक को सम्पन्न करना ही चाहिए।

Aryan culture protector, आर्य संस्कृति के रक्षक


आर्य संस्कृति के रक्षक



प्रिया आत्मीय बंधुओं,




समय का चक्र अपनी गति से चलता रहता है। उस गति में हर क्षण नित्य नवीन होता है। पुराने क्षण से अलग कुछ नया करने का आह्वान करता है। जीवन को लम्बी यात्रा न मानकर क्षण-क्षण जीने में ही आनन्द है और जो जीवन को भार समझाते हैं, यह कि जीवन में केवल बाधाएं और परेशानियां ही हैं तो उनके लिए यह भार बढ़ता ही जाता है। जो साधक है, जो शिष्य है वह अपने मन से एक-एक कर भार का बोझ फेकता रहता है। अपने मार्ग में आने वाले कांटे पत्थरों को स्वयं हटाता है। स्वयं के प्रयत्नों से इस यात्रा में एक विशेष आनन्द की अनुभूति होती है। इस आनन्द में पूर्ण आत्म साक्षात्कार कराने हेतु सदगुरुदेव हर समय ह्रदय में विराजमान रहते ही हैं, केवल आवश्यकता इस बात की है की हम मन मंथन हर समय करते रहे। अपने आप को समय के तराजू पर तोलते रहें, समाज आवश्यक है लेकिन समाज की चिंताओं में इतना भी अधिक जकड नहीं जाएं कि समाज हमारे मन पर हावी हो जाएं।




जीवन के अज्ञान अंधकार को मिटाने के लिए यह आवश्यक है कि हमें अपने अन्दर विखण्डन प्रक्रिया प्रारम्भ करनी ही पड़ेगी। इसके लिए कोई समय मूहूर्त की आवश्यकता नहीं है। सदगुरुदेव कहते हैं कि जीवन का आधार विचार, विवेक और वैराग्य है। साधक का प्रथम कर्तव्य विचारशील होना है और यह विचार विवेक से युक्त होने चाहिए। लाखों प्रकार की बातें हम सुनते हैं, लाखों प्रकार के मंत्र हैं, लाखों प्रकार के अन्य कार्य हैं, लाखों प्रकार के मोह है। लेकिन जब हम अपने विवेक स्थान, जिसका प्रारम्भ ह्रदय से है, जिसका भाव आज्ञा चक्र मस्तिष्क में है उस विवेक स्थान पर सदगुरुदेव स्थापित हो जाएं तो श्रेष्ठ विचार ही उत्पन्न होते हैं। विचार ही महाशक्ति है, विचार ही आद्या दुर्गा शक्ति है, महाकाली है, महाविद्याएं है, विचार ही भाग्य का निर्माण करती है। विचार का तात्पर्य है संकल्प और चिंतन। जब चिंतन के साथ संकल्प प्रारम्भ होता है तो जीवन की समस्याएं लघु लगने लगती हैं और इसी से जीवन में एक निःस्पृह योगी का भाव आता है। आप साधक है, शिष्य है और शक्ति के उपासक हैं। सदगुरुदेव रूपी शिव आपके साथ है फिर जीवन में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।




जब हम गुरु से मिलते है तो हमारा नया जन्म होता है और जीवन का हर क्षण एक उज्जवल भविष्य की सम्भावना लेकर आता है। हर घड़ी एक महान मोड़ का समय हो सकती है। क्या पता जिस क्षण को हम समझकर बरबाद कर रहे हैं, वही हमारे लिए अपनी झोली में सुंदर सौभाग्य की सफलता लाया हो। समय की चूक पश्चाताप की हूक बन जाती है। जीवन में कुछ करने की इच्छा रखने वालों को चाहिए कि वे अपने किसी भी ऐसे कर्तव्य को भूलकर भी कलपर न टालें, जो आज किया जाना चाहिए। आज के मन के लिए आज का ही दिन निश्चित है और हमें हर समय वर्त्तमान में ही जीवन जीना है।




गुरुदेव चाहे तो एक क्षण में वरदान देकर जीवन को परिवर्तित कर सकते हैं लेकिन गुरुदेव तो जीवन को तपाते है, साधक में अग्नि तत्व का संचार करते हैं और जब यह अग्नि तत्व संचालित हो जाता है तो साधक आत्म ज्ञान का पहला अध्याय पूरा करता है। इसलिए सदगुरुदेव सदैव संस्कृति और संस्कार पर बल देते हैं। संस्कार एक दिन में ही जाग्रत हो जाते हैं इसे बदलने के लिए मन के हजार-हजार बंधनों को तोड़ना पङता हैं।




जब नदी कई धाराओं में बट जाती है तो वह नदी न बनकर एक नहर बन जाती है और नहरें समुद्र को पा नहीं सकती हैं। वे छोटे-छोटे टुकडों में बटी हुई अपने अस्तित्व को समाप्त कर देती हैं और केवल स्थान भर के लिए थोडी उपयोगी रह जाती है। शिष्य भी नदी की तरह ही जब वह ज्ञान के मार्ग पर जीवन की यात्रा करता है तो उसमें दृढ़ निश्चय संकल्प होना आवश्यक है क्योंकि उसका लक्ष्य यह होना चाहिए कि मुझे अपने सागर रुपी गुरु से मिलना है। गुरु ही विराट है उसी में अपने अस्तित्व का मिलन करना है।




सिद्धाश्रम साधक परिवार की इस यात्रा में जब मैं कई शिष्यों को अपने मार्ग से थोडा भटकते हुए देखता हूं आश्चर्य होता है मन व्यथित होता है, जब लोगों को सदगुरु के नाम पर ढोंग करने वाले शिष्यों के सामने नमन करते देखता हूं, जब कुछ शिष्यों को क्षणिक, भौतिक सुविधाओं के लिए ऐसे लोगों के पास भटकते देखता हूं जो उन्हें जीवन की सारी भौतिक बाधाओं को पूर्ण करने का छलावा दिखाते हैं। कोई तथाकथित गुरु गडा धन बताने की बात करता है तो कोई तथाकथित गुरु भूत-प्रेत भगाने का दावा करता है तो कोई मां काली के दर्शन कराने का भ्रम दिखाता है। इन छोटे-छोटे स्थानिक गुरुओं को देखकर आश्चर्य होता है कि सदगुरु के शिष्य ऐसे भ्रम में कैसे पड़ जाते हैं? और मेरे सामने इनका उत्तर ना मिलने पर सदगुरुदेव निखिल के सामने बैठकर प्रार्थना करता हूं कि हे! गुरुदेव यह कैसी लीला है तो गुरुदेव कहते हैं कि चिंता करने की कोई बात नहीं है घासफूस, खतपतवार, मौसमी फल थोड़े समय के लिए सबको अच्छे लगते हैं लेकिन खतपतवार, मौसमी फल-फूल का जीवन स्थाई नहीं रहता। जो शिष्य इन मार्गों पर जा रहे हैं वे वापस सिद्धाश्रम की मुख्य धारा में अवश्य आयेंगे।




इसलिए मुझे आज यह उदघोष करना है कि आप सिद्धाश्रम साधक परिवार के प्रहरी हैं। सदगुरुदेव के मानस पुत्र हैं, दीक्षा प्राप्त शिष्य हैं, आर्य संस्र्कुती के रक्षक हैं तो आपका यह कर्तव्य कि सदगुरुदेव के नाम पर पड़ने वाली इस खतपतवार को समाप्त कर दें। इन ढोंगियों को ऐसी सजा दे कि पूरा समाज देख सके और पत्थर और हीरे में अनुभव अन्तर कर सकें। कृत्रिम चमक कुछ समय के लिए लुभा सकती है लेकिन हीरा तो हीरा ही है। हमारे सदगुरुदेव तो हीरे से भी अधिक मूल्यवान, सागर से भी

विशाल, हिमालय से भी उंचे, शिवरूपी निखिल हैं और जिन्हें प्राप्त करना सहज है।




इसी उद्देश्य से यह अंक भगवती मां दुर्गा को समर्पित है, महाविद्याओं को समर्पित है जिनकी साधना आराधना कर हम जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकते हैं।




इस बार बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में फिर महाशिवरात्रि पर्व "हर-हर महादेव" का उदघोष करेंगे। शिव और शक्ति से अपने जीवन को भर देंगे क्योंकि हमारा एक ही मूल सुत्र है -








एकोही नामं एकोहि कार्यं, एकोहि ध्यानं एकोहि ज्ञानं ।


आज्ञा सदैवं परिपालयन्ति; त्वमेवं शरण्यं त्वमेव शरण्यं ॥





आपका अपना


नन्द किशोर श्रीमाली


मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका , फरवरी 2006

Mantra power and influence - their rules मंत्र शक्ति और प्रभाव - उनके नियम

मंत्र शक्ति और प्रभाव - उनके नियम

मंत्र शक्ति आज के युग में भी पूर्ण सत्य एवं प्रत्येक कसौटी पर खरी हैहमारे ऋषियों ने जब वेद और मंत्रों की रचना की तो उनका उद्देश्य मंत्र और साधना को जीवन में जोड़ना था।
ऋषि केवल साधना करने वाले अथवा जंगलों में आश्रम बनाकर रहने वाले व्यक्ति नही थे, वे उस युग के वैज्ञानिक, चिकित्सक, अध्यापक, राजनीतिज्ञ, कलाकार व्यक्तित्व थे। उन्होंने जो लिखा वह पूर्ण शोध और अनुसंधान से युक्त था।

किसी भी मंत्र का अभ्यास करते समय यदि कुछ नियमों का पालन किया जाये, तो साधक को सफलता निश्चित रूप में मिल सकती है -

सर्वप्रथम आपने जिस मंत्र का भी चयन किया है, उसकी सम्पूर्ण साधना-प्रक्रिया की जानकारी होना नितांत आवश्यक है। यह सत्य है की साधनाओं की जो शास्त्र वर्णित विधि है, उसमे रंचमात्र त्रुटी भी विनाशकारी हो सकती है, साथ ही इस शास्त्र वर्णित विधि में किसी प्रकार का संशोधन स्वयं करना भी उचित नहीं है।

वैसे अधिकतर साधनाओं में पूर्ण शुद्धता, सात्विकता तथा प्राण प्रतिष्ठित सामग्री के प्रयोग का विधान होता है, जबकि कुछ साधनाओं जैसे कर्णपिशाचिनि साधना, घन्टाकर्ण साधना, स्वप्न कर्णपिशाचिनि साधना तथा श्मशान में की जाने वाली समस्त प्रकार की साधनाओं में कुछ क्रियाओं का निषेध व कुछ का विशेष विधान है। इस प्रकार मंत्र साधना की असफलता का सर्वप्रथम कारण सही विधि का निर्धारित ज्ञान न होना है।

एक अन्य ध्यान देने योग्य विषय है - मंत्र का सही व शुद्ध उच्चारण। किसी भी मंत्र का जप प्रारम्भ करने से पूर्व समस्त संधियों को अच्छी प्रकार समझ लें। उच्चारण शुद्ध न होने पर मंत्र शक्ति का वांछित लाभ प्राप्त नहीं होता। मंत्र का जप पूर्ण स्पष्ट व दृढ़ स्वर में किया जाना चाहिए।

जहा तक संभव हो, पूजा-स्थल एकांत में होना चाहिये, जहां की साधना काल में कोई व्यवधान न पड़े।

एक बात सदैव याद रखें, की जिस किसी भी मंत्र का जप आप करते हैं, तो उस पर आस्था, पूर्ण विश्वास रखें। यदि आपको मंत्र और इसकी शक्ति में लेश मात्र भी शंका है व इसकी शक्ति पर पूर्ण आस्था नहीं है, तो आप निर्धारित जप संख्या का दस गुना रूप भी कर लें, तब भी यह निष्फल ही रहेगा।

मंत्र के उच्चारण के समय को एकाग्र रखने की परम आवश्यकता होती है। यदि मंत्र जपते समय विचार स्थिर है, ध्यान पूर्ण एकाग्र है और मंत्र की शक्ति पर पूर्ण आस्था है, तो असफलता का कोई कारण निर्मित ही नहीं होता है।

मंत्र जप आरम्भ करते समय पहले से ही साधना का उद्देश्य मन में रहना चाहिए। साधना के उद्देश्य को बराबर परिवर्तित करना सर्वथा अनुचित है।

उद्देश्य के साथ ही जप जप की संख्या का संकल्प भी प्रारम्भ में लेना चाहिये। जप की संख्या को पहले दिन से दूसरे दिन अधिक किया जा सकता है, किन्तु इसे कभी भी घटाना नहीं चाहिये। अपवाद स्वरुप एक-दो प्रकार की साधनाओं को छोड़कर।

एक ही मंत्र का जप लगातार करने से सम्बन्धित शक्ति जाग्रत रहती है। थोड़े समय तक एक मंत्र छोड़ देने और नये मंत्र प्रारंभ करने से पहले वाले मंत्र की शक्ति का ह्रास तो होता ही है और नये मंत्र को आपको फिर नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है। पहले एक मंत्र को सिद्ध करना चाहिये, उसके पश्चात किसी अन्य को। एक मंत्र सिद्ध कर लेने पश्चात किसी दूसरे मंत्र को सिद्ध करना पहले मंत्र की तुलना में ज्यादा सरल होता है।

ज्यों-ज्यों आपकी साधना का स्तर बढ़ता जायेगा, सिद्धि की दुरुहता स्वतः ही कम होती जायेगी। किसी भी मंत्र की सिद्धि हेतु अव्रुतियों की जो शास्त्र वर्णित संख्या होती है, वह पहले से ही साधना की उत्तम पृष्ठभूमि रखने वाले साधकों के लिए ही मान्य है, नये साधक को इसका तिन गुना, चार गुना या इससे भी अधिक जप करना पड़ सकता है।

अंत में एक महत्वपूर्ण व ध्यान देने योग्य बात है की मंत्र साधना सही मुहूर्त में की जानी चाहिये। विभिन्न साधनाओं के लिए विभिन्न मुहूर्त निर्धारित है।

...किन्तु मुहूर्त की जटिलताओं से बचने के लिए कुछ मुहूर्त जिनको निश्चित रूप से समस्त साधनाओं हेतु उत्तम माना गया है, वे हैं - होली, दिपावली, शिवरात्री, नवरात्री। आप जिस किसी मंत्र का जप आरम्भ करना चाहते है, उसे इन अवसरों पर निर्धारित संख्या में जप कर उसका दशांश हवन कर लें।

इसके पश्चात् अपनी सुविधा के अनुसार जप कर सकते है। वैसे तो वर्षभर जप करना श्रेष्ठ है, किन्तु एक बार सिद्ध करने के पश्चात ११, २१, ५१ या १०८ की संख्या में जप करने से भी तुरन्त मनोवांछित फल प्राप्त होता है। आप किसी भी मंत्र का जप करते है, उसे वर्ष में एक बार उपरोक्त वर्णित अवसरों पर जाग्रत अवश्य करना चाहिये।

वैसे तो प्रत्येक साधना अपने-आप में अत्यन्त जटिल होती है, किन्तु यदि इन जटिलताओं से साधक बचना चाहे, तो सर्वश्रेष्ठ मार्ग है - 'योग्य गुरु का आश्रय प्राप्त करना'। गुरु के निर्देशानुसार साधना करते समय साधना की सफलता की संभावना शतप्रतिशत रहती है।

Some specific disease prevention spells, कुछ विशेष रोग निवारण मंत्र

कुछ विशेष रोग निवारण मंत्र
यों तो किसी भी समस्या के समाधान हेतु अनेको उपाय हैं। परन्तु मंत्रों के माध्यम से समस्या के निवारण के पीछे धारणा यह है कि मंत्र शक्ति एवं दैवी शक्ति के द्वारा साधक को वह बल प्राप्त होता है जिससे कि किसी भी समस्या का समाधान सहज हो जाता है। उदाहरण के लिए माना जाता है कि सभी रोगों का उदभाव मनुष्य के मन से ही होता है। मन पर पड़े दुष्प्रभावों को यदि मंत्र द्वारा नियंत्रित कर लिया जाए, तो रोग स्थाई रूप से शांत हो जाते हैं। उसी प्रकार मन को सुदृढ़ करके किसी भी समस्या पर आप विजय प्राप्त कर सकते हैं।

ब्लड प्रेशर तो स्थाई रूप से नियंत्रित हो सकता है... आप ख़ुद परख लीजिये न
क्या आप ब्लड प्रेशर के रोगी है, तो आप परेशान न हों, क्योंकि आपके पास स्वयं इसका इलाज है। यदि थोड़ी सी सावधानी बरत लें, तो फिर इसे आप आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं। आप दवाओं के साथ यदि इस प्रयोग को भी संपन्न करें, तो फिर यह स्थाई रूप से नियंत्रित हो सकता है। मंत्रों में इतनी क्षमता होती है, कि यदि आप उनका प्रयोग उचित विधि से करें, तो वे पूर्ण फलप्रद होते ही हैं।

आप 'रोग निवारक मधूरूपेन रूद्राक्ष' लेकर उसे किसी ताम्रपात्र में केसर से स्वस्तिक बनाकर स्थापित करें। उसके समक्ष ४० दिन तक नित्य ७५ बार निम्न मंत्र का जाप करें, नित्य मंत्र जप समाप्ति के बाद रूद्राक्ष धारण कर लें -
मंत्र
॥ ॐ क्षं पं क्षं ॐ ॥
प्रयोग समाप्त होने के बाद रूद्राक्ष को नदी में प्रवाहित कर दें।

सबसे खतरनाक बिमारी है डायबिटीज और इसका समाधान यह भी है
डायबिटीज रोग कैसा होता है, यह तो इससे पीड़ित रोगी ही अच्छी तरह समझ सकते हैं। दिखने में तो यह सामान्य है, लेकिन जब यह उग्र रूप धारण कर लेता है, तो व्यक्ति अनेक प्रकार की बिमारियों से घिर जाता है तथा मृत्यु के समान कष्ट पाता है। इसी कारण इसको खतरनाक बिमारी कहा गया है। आप इस रोग का पूर्ण समाधान प्राप्त कर सकते है, यदि आप दवाओं के साथ साथ इस प्रयोग को भी संपन्न कर लें।

रविवार के दिन पूर्व दिशा की ओर मुख कर सफेद आसन पर बैठ जाएं। सर्वप्रथम गुरु पूजन संपन्न करे तथा गुरूजी से पूर्ण स्वास्थ्य का आशीर्वाद प्राप्त करें। इसके पश्चात सफेद रंग के वस्त्र पर कुंकुम से स्वस्तिक बनाकर उस पर 'अभीप्सा' को स्थापित करे दें, फिर उसके समक्ष १५ दिन तक नित्य मंत्र का ८ बार उच्चारण करें -
मंत्र
॥ ॐ ऐं ऐं सौः क्लीं क्लीं ॐ फट ॥
प्रयोग समाप्ति के बाद 'अभीप्सा' को नदी मैं प्रवाहित कर देन

आपने मस्तिष्क की क्षमता को पूर्ण विकसित करिए

आज का भौतिक युग प्रतियोगिताओं का युग है, जीवन के प्रत्येक क्षण मैं आपको अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कराने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रतियोगी परिस्थितियों का सामना करना पङता है जिस व्यक्ति का मस्तिष्क जितना अधिक क्रियाशील, क्षमतावान होता है, वह उतना ही श्रेष्टता अर्जित कर लेता है आप भी आपने मस्तिष्क की क्षमता को पूर्ण विकसित कर सकते हैं इस प्रयोग के माध्यम से -'चैत्यन्य यंत्र' को किसी भी श्रेष्ठ समय मैं धारण कर लें एवं नित्य पराठा काल आपने इष्ट का स्मरण कर निम्न मंत्र का १५ मिनट तक जप करें -
मंत्र
॥ ॐ श्रीं चैतन्यं चैतन्यं सदीर्घ ॐ फट ॥
यंत्र को ४० दिनों तक धारण किए रहे ४० दिन के पश्चात उसे नदी मैं प्रवाहित कर दे।

आपने अनिद्रा के रोग को इस प्रकार से समाप्त करिए

क्या कहा आपने, आप को नींद नहीं आती और और इसके लिए आपको रोज रात को नींद की गोली लेनी आवश्यक हो जाती है और फिर भी आप चाहते हुए चैन की नींद नहीं ले पाते आपको स्वाभाविक नींद लिए हुए कई माह बीत चुके हैं कहीं इस रोग के कारण आपका स्वास्थ्य तो प्रभावित नहीं हो रहा है आपका सौन्दर्य कहीं डालने तो नहीं लगा यह रोग आपके लिए हानिकारक, तो नहीं साबित हो रहा है यदि ऐसा है तो आप शीघ्र ही इससे छुटकारा प्राप्त कर लीजिये

आप किसी भी रात्री को स्नान कर सफेद वस्त्र मैं कुंकुम से द्विदल कमल बनाए, अपना नाम कुंकुम से लिखकर उस पर उस पर 'रोग मुक्ति गुटिका' को स्थापित करें नोऊ दिन तक गुटिका के समक्ष निम्न मंत्र का ग्यारह बार जप एकाग्र चित्त हो कर करें -
मंत्र
॥ ॐ अं अनिद्रा नाशाय अं ॐ फट ॥
जप समाप्ति के बाद शांत मन से लेट जायें और नौ दिन के पश्चात गुटिका को नदी में प्रवाहित करें।
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जुलाई २००५

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Silence Ashta Ykshini, Lakshmi receipt twenty formula, अष्ट यक्षिणी साधना, लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र


अष्ट यक्षिणी साधना


जीवन में रस आवश्यक है
जीवन में सौन्दर्य आवश्यक ह
जीवन में आहलाद आवश्यक है
जीवन में सुरक्षा आवश्यक है

ऐसे श्रेष्ठ जीवन के लिए संपन्न करें

अष्ट यक्षिणी साधना

बहुत से लोग यक्षिणी का नाम सुनते ही डर जाते हैं कि ये बहुत भयानक होती हैं, किसी चुडैल कि तरह, किसी प्रेतानी कि तरह, मगर ये सब मन के वहम हैं। यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर स्वयं भी यक्ष जाती के ही हैं। यक्षिणी साधना का साधना के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ है। यक्षिणी प्रेमिका मात्र ही होती है, भोग्या नहीं, और यूं भी कोई स्त्री भोग कि भावभूमि तो हो ही नहीं सकती, वह तो सही अर्थों में सौन्दर्य बोध, प्रेम को जाग्रत करने कि भावभूमि होती है। यद्यपि मन का प्रस्फुटन भी दैहिक सौन्दर्य से होता है किन्तु आगे चलकर वह भी भावनात्मक रूप में परिवर्तित होता है या हो जाना चाहिए और भावना का सबसे श्रेष्ठ प्रस्फुटन तो स्त्री के रूप में सहगामिनी बना कर एक लौकिक स्त्री के सन्दर्भ में सत्य है तो क्यों नहीं यक्षिणी के संदर्भ में सत्य होगी? वह तो प्रायः कई अर्थों में एक सामान्य स्त्री से श्रेष्ठ स्त्री होती है।

तंत्र विज्ञान के रहस्य को यदि साधक पूर्ण रूप से आत्मसात कर लेता है, तो फिर उसके सामाजिक या भौतिक समस्या या बाधा जैसी कोई वस्तु स्थिर नहीं रह पाती। तंत्र विज्ञान का आधार ही है, कि पूर्ण रूप से अपने साधक के जीवन से सम्बन्धित बाधाओं को समाप्त कर एकाग्रता पूर्वक उसे तंत्र के क्षेत्र में बढ़ने के लिए अग्रसर करे।

साधक सरलतापूर्वक तंत्र कि व्याख्या को समझ सके, इस हेतु तंत्र में अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनमे अत्यन्त गुह्य और दुर्लभ साधानाएं वर्णित है। साधक यदि गुरु कृपा प्राप्त कर किसी एक तंत्र का भी पूर्ण रूप से अध्ययन कर लेता है, तो उसके लिए पहाड़ जैसी समस्या से भी टकराना अत्यन्त लघु क्रिया जैसा प्रतीत होने लगता है।

साधक में यदि गुरु के प्रति विश्वास न हो, यदि उसमे जोश न हो, उत्साह न हो, तो फिर वह साधनाओं में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। साधक तो समस्त सांसारिक क्रियायें करता हुआ भी निर्लिप्त भाव से अपने इष्ट चिन्तन में प्रवृत्त रहता है।

ऐसे ही साधकों के लिए 'उड़ामरेश्वर तंत्र' मे एक अत्यन्त उच्चकोटि कि साधना वर्णित है, जिसे संपन्न करके वह अपनी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है तथा अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख-सम्पदा का पूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकता है।

'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों, जो साधक के जीवन में सम्पूर्णता का उदबोध कराती हैं, की ये है।

ये प्रमुख यक्षिणियां है -


1. सुर सुन्दरी यक्षिणी २. मनोहारिणी यक्षिणी 3. कनकावती यक्षिणी 4. कामेश्वरी यक्षिणी
5. रतिप्रिया यक्षिणी 6. पद्मिनी यक्षिणी 6. नटी यक्षिणी 8. अनुरागिणी यक्षिणी


प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध कर लें।

सुर सुन्दरी यक्षिणी
यह सुडौल देहयष्टि, आकर्षक चेहरा, दिव्य आभा लिये हुए, नाजुकता से भरी हुई है। देव योनी के समान सुन्दर होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है। सुर सुन्दरी कि विशेषता है, कि साधक उसे जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होता ही है - चाहे वह माँ का स्वरूप हो, चाहे वह बहन का या पत्नी का, या प्रेमिका का। यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है।

मनोहारिणी यक्षिणी

अण्डाकार चेहरा, हरिण के समान नेत्र, गौर वर्णीय, चंदन कि सुगंध से आपूरित मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहन बना देती है, कि वह कोई भी, चाहे वह पुरूष हो या स्त्री, उसके सम्मोहन पाश में बंध ही जाता है। वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट कराती है।

कनकावती यक्षिणी
रक्त वस्त्र धारण कि हुई, मुग्ध करने वाली और अनिन्द्य सौन्दर्य कि स्वामिनी, षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा कनकावती यक्षिणी है। कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने कि क्षमता प्राप्त कर लेता है। यह साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है।

कामेश्वरी यक्षिणी
सदैव चंचल रहने वाली, उद्दाम यौवन युक्त, जिससे मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है। साधक का हर क्षण मनोरंजन करती है कामेश्वरी यक्षिणी। यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख कि कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में साधक कि कामना करती है। साधक को जब भी द्रव्य कि आवश्यकता होती है, वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है।

रति प्रिया यक्षिणी
स्वर्ण के समान देह से युक्त, सभी मंगल आभूषणों से सुसज्जित, प्रफुल्लता प्रदान करने वाली है रति प्रिया यक्षिणी। रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है। साधक और साधिका यदि संयमित होकर इस साधना को संपन्न कर लें तो निश्चय ही उन्हें कामदेव और रति के समान सौन्दर्य कि उपलब्धि होती है।

पदमिनी यक्षिणी
कमल के समान कोमल, श्यामवर्णा, उन्नत स्तन, अधरों पर सदैव मुस्कान खेलती रहती है, तथा इसके नेत्र अत्यधिक सुन्दर है। पद्मिनी यक्षिणी साधना साधक को अपना सान्निध्य नित्य प्रदान करती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि यह अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान कराती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति कि और अग्रसर करती है।

नटी यक्षिणी
नटी यक्षिणी को 'विश्वामित्र' ने भी सिद्ध किया था। यह अपने साधक कि पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार कि विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है।

अनुरागिणी यक्षिणी
अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है। साधक पर प्रसन्न होने पर उसे नित्य धन, मान, यश आदि प्रदान करती है तथा साधक की इच्छा होने पर उसके साथ उल्लास करती है।

अष्ट यक्षिणी साधना को संपन्न करने वाले साधक को यह साधना अत्यन्त संयमित होकर करनी चाहिए। समूर्ण साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है। साधक यह साधना करने से पूर्व यदि सम्भव हो तो 'अष्ट यक्षिणी दीक्षा' भी लें। साधना काल में मांस, मदिरा का सेवन न करें तथा मानसिक रूप से निरंतर गुरु मंत्र का जप करते रहे। यह साधना रात्रिकाल में ही संपन्न करें। साधनात्मक अनुभवों की चर्चा किसी से भी नहीं करें, न ही किसी अन्य को साधना विषय में बतायें। निश्चय ही यह साधना साधक के जीवन में भौतिक पक्ष को पूर्ण करने मे अत्यन्त सहायक होगी, क्योंकि अष्ट यक्षिणी सिद्ध साधक को जीवन में कभी भी निराशा या हार का सामना नहीं करना पड़ता है। वह अपने क्षेत्र में अद्वितीयता प्राप्त करता ही है।

साधना विधान

इस साधना में आवश्यक सामग्री है - ८ अष्टाक्ष गुटिकाएं तथा अष्ट यक्षिणी सिद्ध यंत्र एवं 'यक्षिणी माला'। साधक यह साधना किसी भी शुक्रवार को प्रारम्भ कर सकता है। यह तीन दिन की साधना है। लकड़ी के बजोट पर सफेद वस्त्र बिछायें तथा उस पर कुंकुम से निम्न यंत्र बनाएं। (इस यंत्र की फोटो आपको मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका में मिलेगी)

फिर उपरोक्त प्रकार से रेखांकित यंत्र में जहां 'ह्रीं' बीज अंकित है वहां एक-एक अष्टाक्ष गुटिका स्थापित करें। फिर अष्ट यक्षिणी का ध्यान कर प्रत्येक गुटिका का पूजन कुंकूम, पुष्प तथा अक्षत से करें। धुप तथा दीप लगाएं। फिर यक्षिणी से निम्न मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमानुसार दिए गए हुए आठों यक्षिणियों के मंत्रों की एक-एक माला जप करें। प्रत्येक यक्षिणी मंत्र की एक माला जप करने से पूर्व तथा बाद में मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें। उदाहरणार्थ पहले मूल मंत्र की एक माला जप करें, फिर सुर-सुन्दरी यक्षिणी मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमशः प्रत्येक यक्षिणी से सम्बन्धित मंत्र का जप करना है। ऐसा तीन दिन तक नित्य करें।

मूल अष्ट यक्षिणी मंत्र
॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि नमः ॥

सुर सुन्दरी मंत्र
॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥

मनोहारिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥

कनकावती मंत्र
॥ ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥

कामेश्वरी मंत्र
॥ ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥

रति प्रिया मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥

पद्मिनी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥

नटी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥
अनुरागिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥
मंत्र जप समाप्ति पर साधक साधना कक्ष में ही सोयें। अगले दिन पुनः इसी प्रकार से साधना संपन्न करें, तीसरे दिन साधना साधना सामग्री को जिस वस्त्र पर यंत्र बनाया है, उसी में बांध कर नदी में प्रवाहित कर दें।

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Silence of raajyalakshmee; Lakshmi receipt twenty formula राज्यलक्ष्मी की साधना; लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

यह साधना राज्य पक्ष को अपने अनुकूल करने की साधना है। राज्य का तात्पर्य व्यक्ति के जीवन में कर, मुकदमा इत्यादि से आने वाली बाधाओं से है। हर व्यक्ति का नित्य राज्य -पक्ष के पचास कार्यालयों में कार्य पड़ता है और यदि ये कार्य सरल रूप से हो जाए तो व्यक्ति अपने जीवन में शीघ्र उन्नति कर सकता है और इसका एक ही उपाय है, राज्य लक्ष्मी महायोग मांत्रोक्त साधना।

केवल व्यापारी ही नहीं, सामान्य वर्ग भी राज्यपक्ष से विवाद में फंसना नहीं चाहता क्योंकि सामान्य व्यक्ति के पास इतने साधन नहीं होते, जिससे वह पुरे राजतंत्र और उसकी जटिलताओं से बच कर निकल सके। ऐसे में क्या उपाय शेष रह जाता है? क्या व्यक्ति ऐसे ही विभिन्न कार्यालयों के चक्कर काटता रहे और अपने जीवन के सुख-चैन, शांति के क्षण दिन-दिन भर कोर्ट कचहरी के जटिल और उबाऊ कार्य पद्धति में खपा दे? क्या वह एक सामान्य से कार्य के लिए अधिकारियों के दरवाजे पर नाक घिसता रहे और अपने स्वाभिमान व आत्मसम्मान को गिरवी रख दे? निश्चित रूप से नहीं। ऐसी दशा में तो एक ही प्रयोग शेष रह जाता है, की वह अपने जीवन में पूर्णता से राज्यलक्ष्मी की साधना सम्पन्न करे। इस लेख में दिए गए अन्य प्रयोगों की भांति यह भी तांत्रोक्त प्रयोग है।

जीवन में व्याप्त ऐसी प्रत्येक कटु व अपमानजनक स्थितियों के निवारण की व्यावहारिक विधि है। निवारण का तात्पर्य यह नहीं होता हम किसी का विनाश कर देंगे, अपितु यह होता है कि दुर्भाग्यवश जो हमारे जीवन में प्रतिकूल स्थिति है वह समाप्त हो, तथा अनुकूलता प्रारम्भ हो। राज्यलक्ष्मी प्रयोग ऐसा ही प्रयोग है, राज्य पक्ष में मधुरता व सहजता की स्थिति निर्मित करने का प्रयोग है।

साधक के लिए आवश्यक है कि वे पूर्ण रूप से सिद्ध लक्ष्मी लघु शंख प्राप्त करें और उसे पूरी तरह से काजल में रंग दे तथा मूंगे की माला द्वारा निम्न मंत्र का पांच माला मंत्र जप करें।

यह प्रयोग मंगलवार के दिन ही किया जा सकता है। मंत्र जप की समाप्ति पर साधक मूंगे की माला को स्वयं धारण करें तथा शंख को काले कपड़े में लपेट कर जेब अथवा बैग में रखें जिस पर किसी कि नजर न पड़े।

मंत्र
॥ ॐ श्रीं श्रीं राज्यलक्ष्म्यै नमः ॥


जब भी आवश्यकता हो, तब उपरोक्त शंख को वार्तालाप करते समय अपने साथ ले जाएं और आप पाएंगे कि स्थितियां आपके अनुकूल हो रही हैं। अनावश्यक रूप से लगने वाली बाधाएं और अड़चनें समाप्त हो रही हैं तथा आपके प्रति सहयोग का वातावरण बनने लगा है। सामान्य साधक भी ऐसे शंख को अपने साथ रखकर जिस दिन मुकदमों में पेशी हो या कहीं अन्य कोई महत्वपूर्ण कार्य हो तो इसका प्रभाव प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं।

-मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका, फरवरी २००८

Lakshmi spiritual redemption of debt; Lakshmi receipt twenty formula ऋण मोचन लक्ष्मी साधना; लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र


ऋण मोचन लक्ष्मी साधना; लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

ऋण मोचन लक्ष्मी साधना

कर्ज का भार व्यक्ति के जीवन में अभिशाप की तरह होता है, जो व्यक्ति की हंसती हुई जिन्दगी में एक विष की भांति चुभ जाता है, जो निकाले नहीं निकलता और व्यक्ति को त्रस्त कर देता है। ऋण का ब्याज अदा करते-करते लम्बी अवधि हो जाती है, पर मूल राशी वैसी की वैसे बनी रहती है। नवरात्रि में ऋण मोचन लक्ष्मी की साधना करने से व्यक्ति कितना भी अधिक ऋणभार युक्त क्यों न हो, उसकी ऋण मुक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

नवरात्री में अथवा इस काल में संकल्प लेकर किसी भी सप्तमी से नवमी के बीच साधना कर सकता है। इस प्रयोग के लिए प्राणप्रतिष्ठायुक्त 'ऋण मुक्ति यंत्र' और 'ऋण मोचन लक्ष्मी तंत्र फल' की आवश्यकता होती है। साधना वाले दिन साधक प्रातः काल स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मुख कर अपने पवित्र आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक बाजोट पर लाल रंग का कपडा बिछाकर उस पर किसी पात्र में यंत्र स्थापित कर दें, यंत्र के ऊपर कुंकुम से अपना नाम अंकित कर दें, उस पर तंत्र फल को रख दें। धुप-दीप से संक्षिप्त पूजन करें। वातावरण शुद्ध एवं पवित्र हो। फिर निम्न मंत्र का डेढ़ घंटे जप करें -

मंत्र
॥ ॐ नमो ह्रीं श्रीं क्रीं श्रीं क्लीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मम गृहे धनं देही चिन्तां दूरं करोति स्वाहा ॥

अगले दिन यंत्र को जल मे विसर्जीत कर दें तथा, ऋण मोचन फल को प्रयोगकर्ता स्वयं अपने हाथों से किसी गरीब या भिखारी को अतिरिक्त दान-दक्षिणा, फल-फूल आदि के साथ दें। कहा जाता है, की ऐसा करने से उस तंत्र फल के साथ ही व्यक्ति की ऋण बाधा तथा दरिद्रता भी दान में चली जाती है और उसके घर में भविष्य में फिर किसी प्रकार की दरिद्रता का वास नहीं रहता।

यदि दान लेने वाला नहीं मिले, तो प्रयोगकर्ता स्वयं किसी मन्दिर में जाकर दक्षिणा के साथ उस तंत्र फल को भेट चढ़ा दे। इस प्रयोग को संपन्न करने के बाद तथा तंत्र फल दान कर पुनः घर आने पर लक्ष्मी आरती अवश्य संपन्न करें। इस प्रकार प्रयोग पूर्ण हो जाता है।

लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

सदगुरुदेव की वाणी से लक्ष्मी साधना के अद्वितीय

बीस सूत्र

प्रत्येक गृहस्थ इन सूत्रों-नियमों का पालन कर जीवन में लक्ष्मी को स्थायित्व प्रदान कर सकता है। आप भी अवश्य अपनाएं -

1. जीवन में सफल रहना है या लक्ष्मी को स्थापित करना है तो प्रत्येक दशा में सर्वप्रथम दरिद्रता विनाशक प्रयोग करना ही होगा। यह सत्य है की लक्ष्मी धनदात्री हैं, वैभव प्रदायक हैं, लेकिन दरिद्रता जीवन की एक अलग स्थिति होती है और उस स्थिति का विनाश अलग ढंग से सर्वप्रथम करना आवश्यक होता है।

2. लक्ष्मी का एक विशिष्ट स्वरूप है "बीज लक्ष्मी"। एक वृक्ष की ही भांति एक छोटे से बीज में सिमट जाता है - लक्ष्मी का विशाल स्वरूप। बीज लक्ष्मी साधना में भी उतर आया है भगवती महालक्ष्मी के पूर्ण स्वरूप के साथ-साथ जीवन में उन्नति का रहस्य।

3. लक्ष्मी समुद्र तनया है, समुद्र से उत्पत्ति है उनकी, और समुद्र से प्राप्त विविध रत्न सहोदर हैं उनके, चाहे वह दक्षिणवर्ती शंख हो या मोती शंख, गोमती चक्र, स्वर्ण पात्र, कुबेर पात्र, लक्ष्मी प्रकाम्य क्षिरोदभव, वर-वरद, लक्ष्मी चैतन्य सभी उनके भ्रातृवत ही हैं और इनकी गृह में उपस्थिति आह्लादित करती है, लक्ष्मी को विवश कर देती है उन्हें गृह में स्थापित कर देने को।

4. समुद्र मंथन में प्राप्त कर रत्न "लक्ष्मी" का वरण यदि किसी ने किया तो वे साक्षात भगवान् विष्णु। आपने पति की अनुपस्थिति में लक्ष्मी किसी गृह में झांकने तक की भी कल्पना नहीं कर करतीं और भगवान् विष्णु की उपस्थिति का प्रतीक है शालिग्राम, अनंत महायंत्र एवं शंख। शंख, शालिग्राम एवं तुलसी का वृक्ष - इनसे मिलकर बनता है पूर्ण रूप से भगवान् लक्ष्मी - नारायण की उपस्थिति का वातावरण।

5. लक्ष्मी का नाम कमला है। कमलवत उनकी आंखे हैं अथवा उनका आसन कमल ही है और सर्वाधिक प्रिय है - लक्ष्मी को पदम। कमल - गट्टे की माला स्वयं धारण करना आधार और आसन देना है लक्ष्मी को आपने शरीर में लक्ष्मी को समाहित करने के लिए।

6. लक्ष्मी की पूर्णता होती है विघ्न विनाशक श्री गणपति की उपस्तिथि से जो मंगल कर्ता है और प्रत्येक साधना में प्रथम पूज्य। भगवान् गणपति के किसी भी विग्रह की स्थापना किए बिना लक्ष्मी की साधना तो ऐसी है, ज्यों कोई अपना धन भण्डार भरकर उसे खुला छोड़ दे।

7. लक्ष्मी का वास वही सम्भव है, जहां व्यक्ति सदैव सुरुचिपूर्ण वेशभूषा में रहे, स्वच्छ और पवित्र रहे तथा आन्तरिक रूप से निर्मल हो। गंदे, मैले, असभ्य और बक्वासी व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी का वास संभव ही नहीं।

8. लक्ष्मी का आगमन होता है, जहां पौरुष हो, जहां उद्यम हो, जहां गतिशीलता हो। उद्यमशील व्यक्तित्व ही प्रतिरूप होता है भगवान् श्री नारायण का, जो प्रत्येक क्षण गतिशील है, पालन में संलग्न है, ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में संलग्न है। ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी गृहलक्ष्मी बनकर, संतान लक्ष्मी बनकर आय, यश, श्री कई-कई रूपों मे प्रकट होती है।

9. जो साधक गृहस्थ है, उन्हें अपने जीवन मे हवन को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए और प्रत्येक माह की शुक्ल पंचमी को श्री सूक्त के पदों से एक कमल गट्टे का बीज और शुद्ध घृत के द्वारा आहुति प्रदान करना फलदायक होता है।

10. आपने दैनिक जीवन क्रम में नित्य महालक्ष्मी की किसी ऐसी साधना - विधि को सम्मिलित करना है, जो आपके अनुकूल हो, और यदि इस विषय में निर्णय - अनिर्णय की स्थिति हो तो नित्य प्रति, सूर्योदय काल में निम्न मन्त्र की एक माला का मंत्र जप तो कमल गट्टे की माला से अवश्य करना चाहिए।
मंत्र: ॐ श्रीं श्रीं कमले कमलालाये प्रसीद प्रसीद मम गृहे आगच्छ आगच्छ महालक्ष्म्यै नमः

11. किसी लक्ष्मी साधना को आपने जीवन में अपनायें और उसे किस मन्त्र से संपन्न करे उसका उचित ज्ञान तो केवल आपके गुरुदेव के पास ही है, और योग्य गुरुदेव अपने शिष्य की प्रार्थना पर उसे महालक्ष्मी दीक्षा से विभूषित कर वह गृह्य साधना पद्धति स्पष्ट करते है, जो सम्पूर्ण रूप से उसके संस्कारों के अनुकूल हो।

12. अनुभव से यह ज्ञात होता है की बड़े-बड़े अनुष्ठान की अपेक्षा यदि छोटी साधानाए, मंत्र-जप और प्राण प्रतिष्ठायुक्त यंत्र स्थापित किए जाएं तो जीवन में अनुकूलता तीव्रता से आती है और इसमें हानि की भी कोई संभावना नहीं होती।

13. जीवन में नित्य महालक्ष्मी के चिंतन, मनन और ध्यान के साथ-साथ यंत्रों का स्थापन भी, केवल महत्वपूर्ण ही नहीं, आवश्यक है। श्री यंत्र, कनक धारा यंत्र और कुबेर यंत्र इन तीनों के समन्वय से एक पूर्ण क्रम स्थापित होता है।

14. जब कोई छोटे-छोटे प्रयोग और साधनाएं सफल न हो रही हों तब भी लक्ष्मी की साधना बार-बार अवश्य ही करनी चाहिए।

15. पारद निर्मित प्रत्येक विग्रह आपने आप में सौभाग्यदायक होता है, चाहे वह पारद महालक्ष्मी हो या पारद शंख अथवा पारद श्रीयंत्र। पारद शिवलिंग और पारद गणपति भी आपने आप में लक्ष्मी तत्व समाहित किए होते हैं।

16. जीवन में जब भी अवसर मिले, तब एक बार भगवती महालक्ष्मी के शक्तिमय स्वरूप, कमला महाविद्या की साधना अवश्य ही करनी चाहिए, जिससे जीवन में धन के साथ-साथ पूर्ण मानसिक शांति और श्री का आगमन हो सके।

17. धन का अभाव चिंता जनक स्थिति में पहुंच जाय और लेनदारों के तानों और उलाहनों से जीना मुश्किल हो जाता है, तब श्री महाविद्या साधना साधना करना ही एक मात्र उपाय शेष रह जाता है।

18. जब सभी प्रयोग असफल हो जाएं, तब अघोर विधि से लक्ष्मी प्राप्ति का उपाय ही अंतिम मार्ग शेष रह जाता है, लेकिन इस विषय में एक निश्चित क्रम अपनाना पड़ता है।

19. कई बार ऐसा होता है की घर पर व्याप्त किसी तांत्रिक प्रयोग अथवा गृह दोष या अतृप्त आत्माओं की उपस्थिति के कारण भी वह सम्पन्नता नहीं आ पाती, जो की अन्यथा संभव होती है। ऐसी स्थिति को समझ कर "प्रेतात्मा शांति" पितृ दोष शान्ति करना ही बुद्धिमत्ता है।

20. उपरोक्त सभी उपायों के साथ-साथ सीधा सरल और सात्विक जीवन, दान की भावना, पुण्य कार्य करने में उत्साह, घर की स्त्री का सम्मान और प्रत्येक प्रकार से घर में मंगलमय वातावरण बनाए रखना ही सभी उपायों का पूरक है क्योंकि इसके अभाव में यदि लक्ष्मी का आगमन हो भी जाता है तो स्थायित्व संदिग्ध रह जाता है।

Thursday, August 21, 2014

Seeker and master साधक और सदगुरु पहचान

Seeker and master (साधक और सदगुरु)
२१ तारीख है सद्गुरु की पहचान नए साधक केसे करे ?
आप को समझने के लिए ही सद्गुरु का उत्तर आप के लिए ...

प्रश्न: सदगुरु मिल गए। साधक को इसकी प्रत्यभिज्ञा, पहचान कैसे हो?
साधक और सदगुरु

साधक हो, तो क्षणभर की देर नहीं लगती। साधक ही न हो, तो प्रत्यभिज्ञा का कोई उपाय नहीं। प्यासा हो, तो पानी मिल गया--क्या इसे किसी और से पूछने जाना पड़ेगा? प्यास ही प्रत्यभिज्ञा बन जाएगी। कंठ की तृप्ति ही प्रमाण हो जाएगी।

लेकिन प्यास ही न हो, जल का सरोवर भरा रहे और तुम्हारे कंठ ने प्यास न जानी हो, तो जल की पहचान न हो सकेगी। पानी तो प्यास से पहचाना जाता है, शास्त्रों में लिखी परिभाषाओं से नहीं।

अगर साधक है कोई--साधक का अर्थ क्या है? साधक का अर्थ है कि खोजी है, आकांक्षी है, अभीप्सा से भरा है। साधक का अर्थ है, कि प्यासा है सत्य के लिए।

सौ साधकों में निन्यानवे साधक होते नहीं, फिर भी साधन की दुनिया में उतर जाते हैं। इससे सारी उलझन खड़ी होती है।

तुम्हें प्यास न लगी हो और किसी दूसरे ने जिसने प्यास को जानी है, प्यास की पीड़ा जानी है और फिर जल के पीने की तृप्ति जानी है, तुमसे अपनी तृप्ति की बात कही: बात-बात में तुम प्रभावित हो गए। तुम्हारे मन में भी लोभ जगा। तुमने भी सोचा, कि ऐसा आनंद हमें भी मिले, ऐसी तृप्ति हमें भी मिले। तुम यह भूल ही गए, कि बिना प्यास के तृप्ति का कोई आनंद संभव नहीं है।

उस आदमी ने जो तृप्ति जानी है, वह प्यास की पीड़ा के कारण जानी है। जितनी गहरी होती है पीड़ा, उतनी ही गहरी होती है तृप्ति। जितनी छिछली होती है पीड़ा, उतनी ही छिछली होती है तृप्ति। और पीड़ा हो ही न, और तुम लोभ के कारण निकल गए पानी पीने, तो प्यास तो है ही नहीं। पहचानोगे कैसे, कि पानी हैं?

शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार समझ लिया कि पानी होगा, तो हमेशा संदेह बना रहेगा। क्योंकि अपने भीतर तो कोई भी प्रमाण नहीं है। तुम्हारा कोई संसर्ग तो हुआ नहीं जल से। जलधार से तुम्हारे प्राण तो जुड़े नहीं। तुम तो दूर से ही दूर बने रहे हो। और तुम पानी पी भी लो बिना प्यास के और ठीक असली पानी हो, तो भी तो आनंद उपलब्ध न होगा। उलटा भी हो सकता है। कि वमन की इच्छा हो जाए, उलटी हो जाए।

प्यास न हो, तो पानी पीना खतरनाक है। भूख न हो, तो भोजन कर लेना मंहगा पड़ सकता है। सत्य को चाहा ही न हो, तो सदगुरु का मिलना खतरनाक हो सकता है।

सौ में से निन्यानवे लोग तो लोभ के कारण उत्सुक हो जाते हैं। उपनिषद गीत गाते हैं। दादू, कबीर उस परम आनंद की चर्चा करते हैं। सदियों-सदियों में मीरा और नानक, चैतन्य नाचे हैं। उनका नाच तुम्हें छू जाता है। उनके गीत की भनक तुम्हारे कान में पड़ जाती है। उन्हें देखकर तुम्हारा हृदय लोलुप हो उठता है। तुम भी ऐसे होना चाहोगे।

बुद्ध के पास जाकर किसका मन नहीं हो उठता, कि ऐसी शांति हमें भी मिले! लेकिन उतनी अशांति तुमने जानी है, जो बुद्ध ने जानी? वही अशांति तो तुम्हारी शांति का द्वार बनेगी। तुमने उस पीड़ा को झेला है, जो बुद्ध ने झेली? तुम उस मार्ग से गुजरे हो--कंटकाकीर्ण--जिससे बुद्ध गुजरे? तो मंजिल पर आकर जो वे नाच रहे हैं, वह उस मार्ग के सारे के सारे दुख अनुभव के कारण।

तुम सीधे मंजिल पर पहुंच जाते हो; मार्ग का तुम्हें कोई पता नहीं। मंजिल भी मिल जाए, तो मिली हुई नहीं मालूम पड़ती। और संदेह तो बना ही रहेगा।

इसलिए यह तो पूछो ही मत, कि सदगुरु मिल गए, इसकी साधक को प्रत्यभिज्ञा कैसे हो, पहचान कैसे हो?
सदगुरु की फिक्र छोड़ो। पहली फिक्र यह कर लो, कि साधक हो? पहले तो इसकी ही प्रत्यभिज्ञा कर लो, कि साधक हो?

अगर साधक हो, तो जैसे ही गुरु मिलेगा, प्राण जुड़ जाएंगे; तार मिल जाएगा। कोई बताने की जरूरत न पड़ेगी। अगर उजाला आ जाए, तो क्या कोई तुम्हें बताने आएगा, तब तुम पहचानोगे कि यह अंधेरा नहीं, उजाला है? अंधे की आंख खुल जाए, तो क्या अंधे को दूसरों को बताना पड़ेगा, कि अब तेरी आंख खुल गई, अब तू देख सकता है देख। आंख खुल गई, कि अंधा देखने लगता है। रोशनी आ गई कि पहचान ली जाती है, स्वतः प्रमाण है।

सदगुरु का मिलन भी स्वतः प्रमाण है। नहीं तो आखिर में तुम सवाल पूछोगे, कि जब परमात्मा मिलेगा तो कैसे प्रत्यभिज्ञा होगी, कैसे पहचानेंगे कि यही परमात्मा है? कोई जरूरत ही नहीं है।

जब तुम्हारे सिर में दर्द होता है, तब तुम पहचान लेते हो दर्द। और जब दर्द चला जाता है तब भी तुम पहचान लेते हो, कि अब सब ठीक हो गया--स्वस्थ। दोनों तुम पहचान लेते हो। जब प्राणों में पीड़ा होती है, तब भी तुम पहचान लेते हो; जब प्राण तृप्त हो जाते हैं, तब भी पहचान लेते हो।

नहीं, कोई प्रत्यभिज्ञा का शास्त्र नहीं है। जरूरत ही नहीं है।
लेकिन भूल पहली जगह हो जाती है। लोभ के कारण बहुत लोग साधना में प्रविष्ट हो जाते हैं। और अगर लोभ के कारण प्रविष्ट न हों, तो भय के कारण प्रविष्ट हो जाते हैं। वह एक ही बात है। लोभ और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कोई इसलिए परमात्मा की प्रार्थना कर रहा है कि डर हुआ है, भयभीत है। कोई इसलिए प्रार्थना कर रहा है कि लोभातुर है। पर दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। दोनों में कोई भी साधक नहीं है। साधक का तो अर्थ ही यह है, कि जीवन के अनुभव से जाना, कि जीवन व्यर्थ है। जीवन से गुजरकर पहचाना, कि कोई सार नहीं है। हाथ सिवाय राख लगी कुछ भी न लगा। सब जीवन के अनुभव देख लिए और खाली पाए; पानी के बबूले सिद्ध हुए। जब सारा जीवन राख हो जाता है, जो भी तुम चाह सकते थे, जो भी तुम मांग सकते थे, जो भी तुम्हारी वासना थी, सब व्यर्थ हो जाती है, सब इंद्रधनुष टूट जाते हैं, खंडहर रह जाता है जीवन का--उस अनुभूति के क्षण में खोज शुरू होती है, कि फिर सत्य क्या है? सब जीवन तो सपना हो गया। न केवल सपना, बल्कि दुख-सपना हो गया; अब सत्य क्या है?

जब तुम ऐसी उत्कंठा से भरते हो, तब गुरु को पहचानना न पड़ेगा। गुरु के पैरों की आवाज सुनकर तुम्हारे हृदय के घूंघर बज उठेंगे। गुरु की आंख में आंख पड़ते ही सदा के बंद द्वार खुल जाएंगे। गुरु का स्पर्श तुम्हें नचा देगा। उसका एक शब्द--और तुम्हारे भीतर ऐसी ओंकार की ध्वनि गूंजने लगेगी, जो तुमने कभी नहीं जानी थी। तुम एक नई पुलक, एक नए संगीत और नए जीवन से आपूरित हो उठोगे।

नहीं, कोई पहचानने की जरूरत न पड़ेगी। तुम पूछोगे नहीं। और सारी दुनिया भी कहती हो, कि यह आदमी सतगुरु नहीं तो भी कोई तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा तुम्हारे हृदय ने जान लिया। और हृदय की पहचान ही एकमात्र पहचान है।

इसलिए पहले तुम खोज कर लो, कि साधक हो? वहीं भूल हो गई, तो फिर मैं तुम्हें सारा शास्त्र भी बता दूं, कि इस-इस भांति पहचानना गुरु को, कुछ काम न आएगा।

क्योंकि जितने गुरु हैं उतने ही प्रकार के हैं। कोई परिभाषा काम नहीं आ सकती। महावीर अपने ढंग के हैं, बुद्ध अपने ढंग के, कृष्ण अपने ढंग के, क्राइस्ट अपने ढंग के, मुहम्मद की बात ही और है। सब अनूठे हैं। अगर तुमने कोई परिभाषा बनाई तो वह किसी एक ही गुरु के आधार पर बनेगी। और वैसा गुरु दुबारा पैदा होने वाला नहीं है। इसलिए तुम्हारी परिभाषा में कभी कोई गुरु बैठेगा नहीं।

जो गुरु पैदा होंगे, वे तुम्हारी परिभाषा में न बैठेंगे। और जिसकी तुम परिभाषा लेकर चल रहे हो, वह दुबारा पैदा नहीं होता। कहीं दुबारा बुद्ध होते हैं! कहीं दुबारा महावीर होते हैं! नाटक करना एक बात है, दुबारा महावीर होना तो बहुत मुश्किल है। अभिनय और बात है। रामलीला की बात मत उठाओ, राम होना बहुत मुश्किल है।

अगर तुमने किसी की परिभाषा पकड़ ली, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे क्योंकि उस परिभाषा को पूरा करने वाला दुबारा न आएगा। वह आ चुका और जा चुका। और जब वह आया था, तब तुम पहचान न सके क्योंकि तब तुम कोई दूसरी पुरानी परिभाषा लिए बैठे थे।

महावीर जब मौजूद थे, तब तुम्हारे पास कृष्ण की परिभाषा थी। महावीर बिलकुल बैठे न उस परिभाषा में। हिंदू-शास्त्रों ने महावीर का उल्लेख ही नहीं किया। इतना महिमावान पुरुष पैदा हुआ और इस देश का बड़े से बड़ा धर्म, इस देश की बहुसंख्या के शास्त्र उसका उल्लेख भी नहीं करते। क्या बात हो गई होगी? एक बार महावीर का नाम नहीं लेते। पक्ष की तो छोड़ दो, विपक्ष में भी कुछ नहीं कहते। प्रशंसा न करो, कम से कम निंदा तो करते!

नहीं, उतना भी ध्यान न दिया। परिभाषा में ही न बैठा यह आदमी। परमात्मा की परिभाषा उनकी और थी। उन्होंने देखा था कृष्ण को मोरमुकुट बांधे, यह आदमी नग्न खड़ा था। इससे कहीं मेल नहीं बैठता था। उन्होंने कृष्ण को देखा था बांसुरी बजाते। इस आदमी की अगर कोई बांसुरी थी, तो इतनी अदृश्य थी, कि किसी को दिखाई नहीं पड़ी। यह इस आदमी के पास कोई बांसुरी ही न थी, यह आदमी उनकी भाषा में कहीं आया नहीं। सब पुराने संकेतों, कसौटियों का कसा नहीं जा सका। तब महावीर चूक गए।

महावीर को जिन थोड़े से लोगों ने समझा, जिनकी प्यास थी, जिन्होंने पहचाना, जो बिना परिभाषा के पहचानने को राजी थे, वे वे ही लोग थे, जिनकी प्यास थी। अब वे दूसरी परिभाषा बना गए। अब उनके अनुयायी उस परिभाषा को ढो रहे हैं। अब बहुत अड़चन है। अगर वे मुझे बैठे इस कुर्सी पर देख लें, अड़चन है। महावीर कुर्सी पर कभी बैठे नहीं। यह आदमी गलत है। कपड़ा पहने देख लें, मुश्किल। क्योंकि महावीर तो नग्न थे। दिगंबरत्व तो लक्षण है।

अभी तो मुझे वे ही लोग पहचान सकते हैं, जिनकी प्यास है। और खतरा उनके साथ भी यही रहेगा, कि मेरे जाने के बाद वे कोई परिभाषा बना लेंगे, जो दूसरों को उलझाएगी क्योंकि फिर दुबारा कोई आता नहीं।

मेरी बात ठीक से समझ लो। जब तक तुम परिभाषा बनाते हो, आदमी चला जाता है। जब तुम्हारी परिभाषा बनकर तैयार हो जाती है, बिलकुल सुनिश्चित हो जाती है, तब दुबारा वैसा आदमी पैदा नहीं होता। धर्म की सारी विडंबना यही है। इसलिए तुम कृपा करो, परिभाषाएं मत पूछो। प्यास पूछो। अपनी प्यास टटोलो।

अगर प्यास न हो, धर्म की बात ही छोड़ दो। अभी धर्म का क्षण नहीं आया। अभी थोड़े और भटको। अभी थोड़ा और दुख पाओ। अभी दुख को तुम्हें मांजने दो। अभी दुख तुम्हें और निखारेगा। अभी जल्दी मत करो। अभी बाजार में ही रहो। अभी मंदिर की तरफ पीठ रखो। क्योंकि जब तक तुम ठीक से पीड़ा से न भर जाओ, लाख बार मंदिर आओ, आना न हो पाएगा। हर बार खाली हाथ आओगे, खाली हाथ लौट जाओगे।

मंदिर तो उसी दिन आओगे, जिस दिन बाजार की तरफ पीठ ही हो जाए। तुम जान ही लो कि सब व्यर्थ है। उस दिन तुम बाजार में बैठे-बैठे पाओगे, मंदिर ने तुम्हें घेर लिया। उस दिन तुम्हें गुरु खोजने न जाना पड़ेगा, वह तुम्हारे द्वार पर आकर दस्तक देगा। अपनी प्यास को परख लो।

मगर बड़ा मजा है, लोग प्यास का सवाल ही नहीं उठाते; पूछते हैं, सदगुरु की परीक्षा क्या? तुम अपनी परीक्षा कर लो। तुम तक तुम्हारी परीक्षा काफी है; उससे आगे मत जाओ। तुम्हें प्रयोजन भी क्या है सदगुरु से? तुम अपनी प्यास को पहचान लो। अगर प्यास है, तो तुम जल की खोज कर लोगे--करनी ही पड़ेगी मरुस्थल में भी आदमी जल खोज लेता है, प्यास होनी चाहिए।

और प्यास न हो, तो सरोवर के किनारे बैठा रहता है। जल दिखाई ही नहीं पड़ता। जल के होने से थोड़े ही जल दिखाई पड़ता है! भीतर की प्यास होने से दिखाई पड़ता है।

कभी उपवास करके बाजार गए? उस दिन फिर कपड़े की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सोने चांदी की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सिर्फ रेस्ट्रां, होटल! उपवास करके बाजार में जाओ, सब तरफ से भोजन की गंध आती मालूम पड़ती है, जो पहले कभी नहीं मालूम पड़ी थी। सब तरफ भोजन ही बनता हुआ दिखाई पड़ता है। वह पहले भी बन रहा था, लेकिन तब तुम भूखे न थे।

भूखे को भोजन दिखाई पड़ता है।

प्यासे को पानी दिखाई पड़ता है।

साधक को सदगुरु दिखाई पड़ जाता है।

Tuesday, August 12, 2014

Realization of God is possible only by the grace of Guru गुरु की कृपा से ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है।

गुरु की कृपा से ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है। गुरु ज्ञान की वह दिव्य ज्योति है जिसके द्वारा ही परमात्मा के दर्शन हो सकते है।
" मन के अंदर छिपे दुगुर्णो को दूर करने के लिये हमें गुरु की शरण लेनी चाहिए, क्योंकि गुरु का दर्जा परमात्मा से भी बड़ा होता है। क्योंकि गुरु ही ज्ञान की वह ज्योति होती है जिसके सहारे ही हमें परमात्मा की प्राप्ति संभव है। गुरु की कृपा के बिना किसी भी कार्य में सफलता हासिल नही होती है, चाहे वह परिवार में सुख-शांति की हो या फिर व्यापार में सफलता हासिल करने की हो। हर क्षेत्र में गुरु की कृपा आवश्यक होती है। कलयुग में भी गुरु कृपा के बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नही है। उन्होंने कहा कि हमें नियमित रूप से परमात्मा की साधना और भक्ति करनी चाहिए। ईश्वर साधना और भक्ति के बिना यह जीवन अधूरा है। गुरु की कृपा से भक्तों के सारे कष्टों को पल भर में ही दूर कर देता है।"

क्योकि गुरु ही साकार रूप मैं हमरे सामने होता है और वो हमारी सारी इच्छा पूरा करने मैं समर्थ है | इस लिए गुरु की किरपा अगर जीवन मैं हो गया तो सब कुच्छ मिल सकता है | पर गुरु भी देख समझ कर ही बनाना चहिये |
बिना जाने समझे गुरु बना लेने उस के बाद उस की निदा करना महा पाप कहा गया जो ऐसा करता है उसे कही शरण नहीं मिलती है | गुरु ही शिव है शिव ही गुरु है ऐसा मानने वाले ही मोक्ष के अधिकारी होते है | शिष्य बनाना जीवन की बहुत बड़ी उपलधि है | जिसे आप पैसे से नहीं खरीद सकते है ये बाज़ार मैं नहीं मिलती है | मैं आप को ये आशीर्वाद देता हूँ की आप के जीवन मैं साद गुरु मिले और और आप एक शिष्य बन सके |

Dr. Narayan Dutt Shrimali

जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, That humans are not the same, who Terrified of the system,

जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! 


तंत्र शास्त्र भारत की एक प्राचीन विद्या है। तंत्र ग्रंथ भगवान शिव के मुख से आविर्भूत हुए हैं। उनको पवित्र और प्रामाणिक माना गया है। भारतीय साहित्य में 'तंत्र' की एक विशिष्ट स्थिति है, पर कुछ साधक इस शक्ति का दुरुपयोग करने लग गए, जिसके कारण यह विद्या बदनाम हो गई।
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥
जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! गुरु गोरखनाथ के समय में तंत्र अपने आप में एक सर्वोत्कृष्ट विद्या थी और समाज का प्रत्येक वर्ग उसे अपना रहा था! जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझाने में केवल तंत्र ही सहायक हो सकता हैं! परन्तु गोरखनाथ के बाद में भयानन्द आदि जो लोग हुए उन्होंने तंत्र को एक विकृत रूप दे दिया! उन्होंने तंत्र का तात्पर्य भोग, विलास, मद्य, मांस, पंचमकार को ही मान लिया ।
“मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च, मकार पंचवर्गस्यात सह तंत्रः सह तान्त्रिकां”

जो व्यक्ति इन पांच मकारो में लिप्त रहता हैं वही तांत्रिक हैं, भयानन्द ने ऐसा कहा! उसने कहा की उसे मांस, मछली और मदिरा तो खानी ही चाहिए, और वह नित्य स्त्री के साथ समागम करता हुआ साधना करे! ये ऐसी गलत धरना समाज में फैली की जो ढोंगी थे, जो पाखंडी थे, उन्होंने इस श्लोक को महत्वपूर्ण मान लिया और शराब पीने लगे, धनोपार्जन करने लगे, और मूल तंत्र से अलग हट गए, धूर्तता और छल मात्र रह गया! और समाज ऐसे लोगों से भय खाने लगे! और दूर हटने लगे! लोग सोचने लगे कि ऐसा कैसा तंत्र हैं, इससे समाज का क्या हित हो सकता हैं? लोगों ने इन तांत्रिकों का नाम लेना बंद कर दिया, उनका सम्मान करना बंद कर दिया, अपना दुःख तो भोगते रहे परन्तु अपनी समस्याओं को उन तांत्रिकों से कहने में कतराने लगे, क्योंकि उनके पास जाना ही कई प्रकार की समस्याओं को मोल लेना था! और ऐसा लगने लगा कि तंत्र समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं।
परन्तु दोष तंत्र का नहीं, उन पथभ्रष्ट लोगों का रहा, जिनकी वजह से तंत्र भी बदनाम हो गया! सही अर्थों में देखा जायें तो तंत्र का तात्पर्य तो जीवन को सभी दृष्टियों से पूर्णता देना हैं!
जब हम मंत्र के माध्यम से देवता को अनुकूल बना सकते हैं, तो फिर तंत्र की हमारे जीवन में कहाँ अनुकूलता रह जाती हैं? मंत्र का तात्पर्य हैं, देवता की प्रार्थना करना, हाथ जोड़ना, निवेदन करना, भोग लगाना, आरती करना, धुप अगरबत्ती करना, पर यह आवश्यक नहीं कि लक्ष्मी प्रसन्ना हो ही और हमारा घर अक्षय धन से भर दे! तब दुसरे तरीके से यदि आपमें हिम्मत हैं, साहस हैं, हौसला हैं, तो क्षमता के साथ लक्ष्मी की आँख में आँख डालकर आप खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं यह तंत्र साधना कर रहा हूँ, मैं तुम्हें तंत्र में आबद्ध कर रहा हूँ और तुम्हें हर हालत में सम्पन्नता देनी हैं, और देनी ही पड़ेगी।
पहले प्रकार से स्तुति या प्रार्थना करने से देवता प्रसन्ना न भी हो परन्तु तंत्र से तो देवता बाध्य होते ही हैं, उन्हें वरदान देना ही पड़ता हैं! मंत्र और तंत्र दोनों ही पद्धतियों में साधना विधि, पूजा का प्रकार, न्यास सभी कुछ लगभग एक जैसा ही होता हैं, बस अंतर होता हैं, तो दोनों के मंत्र विन्यास में, तांत्रोक्त मंत्र अधिक तीक्ष्ण होता हैं! जीवन की किसी भी विपरीत स्थिति में तंत्र अचूक और अनिवार्य विधा हैं।
आज के युग में हमारे पास इतना समय नहीं हैं, कि हम बार-बार हाथ जोड़े, बार-बार घी के दिए जलाएं, बार-बार भोग लगायें, लक्ष्मी की आरती उतारते रहे और बीसों साल दरिद्री बने रहे, इसलिए तंत्र ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, कि लक्ष्मी बाध्य हो ही जायें और कम से कम समय में सफलता मिले! बड़े ही व्यवस्थित तरीके से मंत्र और साधना करने की क्रिया तंत्र हैं! किस ढंग से मंत्र का प्रयोग किया जायें, साधना को पूर्णता दी जायें, उस क्रिया का नाम तंत्र हैं! और तंत्र साधना में यदि कोई न्यूनता रह जायें, तो यह तो हो सकता हैं, कि सफलता नहीं मिले परन्तु कोई विपरीत परिणाम नहीं मिलता! तंत्र के माध्यम से कोई भी गृहस्थ वह सब कुछ हस्तगत कर सकता हैं, जो उसके जीवन का लक्ष्य हैं! तंत्र तो अपने आप में अत्यंत सौम्य साधना का प्रकार हैं, पंचमकार तो उसमें आवश्यक हैं ही नहीं! बल्कि इससे परे हटकर जो पूर्ण पवित्रमय सात्विक तरीके, हर प्रकार के व्यसनों से दूर रहता हुआ साधना करता हैं तो वह तंत्र साधना हैं।
जनसाधारण में इसका व्यापक प्रचार न होने का एक कारण यह भी था कि तंत्रों के कुछ अंश समझने में इतने कठिन हैं कि गुरु के बिना समझे नहीं जा सकते । अतः ज्ञान का अभाव ही शंकाओं का कारण बना।
तंत्र शास्त्र वेदों के समय से हमारे धर्म का अभिन्न अंग रहा है। वैसे तो सभी साधनाओं में मंत्र, तंत्र एक-दूसरे से इतने मिले हुए हैं कि उनको अलग-अलग नहीं किया जा सकता, पर जिन साधनों में तंत्र की प्रधानता होती है, उन्हें हम 'तंत्र साधना' मान लेते हैं। 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' की उक्ति के अनुसार हमारे शरीर की रचना भी उसी आधार पर हुई है जिस पर पूर्ण ब्रह्माण्ड की।
तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अन्तर्मुखी होकर साधनाएँ की जाती हैं। तांत्रिक साधना को साधारणतया तीन मार्ग : वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग व मधयम मार्ग कहा गया है।
श्मशान में साधना करने वाले का निडर होना आवश्यक है। जो निडर नहीं हैं, वे दुस्साहस न करें। तांत्रिकों का यह अटूट विश्वास है, जब रात के समय सारा संसार सोता है तब केवल योगी जागते हैं।
तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। यह एक अत्यंत ही रहस्यमय शास्त्र है ।
चूँकि इस शास्त्र की वैधता विवादित है अतः हमारे द्वारा दी जा रही सामग्री के आधार पर किसी भी प्रकार के प्रयोग करने से पूर्व किसी योग्य तांत्रिक गुरु की सलाह अवश्य लें। अन्यथा किसी भी प्रकार के लाभ-हानि की जिम्मेदारी आपकी होगी।
परस्पर आश्रित या आपस में संक्रिया करने वाली चीजों का समूह, जो मिलकर सम्पूर्ण बनती हैं, निकाय, तंत्र, प्रणाली या सिस्टम (System) कहलातीं हैं। कार है और चलाने का मन्त्र भी आता है, यानी शुद्ध आधुनिक भाषा मे ड्राइविन्ग भी आती है, रास्ते मे जाकर कार किसी आन्तरिक खराबी के कारण खराब होकर खडी हो जाती है, अब उसके अन्दर का तन्त्र नही आता है, यानी कि किस कारण से वह खराब हुई है और क्या खराब हुआ है, तो यन्त्र यानी कार और मन्त्र यानी ड्राइविन्ग दोनो ही बेकार हो गये, किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान, और समय का अन्दरूनी ज्ञान रखने वाले को तान्त्रिक कहा जाता है, तो तन्त्र का पूरा अर्थ इन्जीनियर या मैकेनिक से लिया जा सकता है जो कि भौतिक वस्तुओं का और उनके अन्दर की जानकारी रखता है, शरीर और शरीर के अन्दर की जानकारी रखने वाले को डाक्टर कहा जाता है, और जो पराशक्तियों की अन्दर की और बाहर की जानकारी रखता है, वह ज्योतिषी या ब्रह्मज्ञानी कहलाता है, जिस प्रकार से बिजली का जानकार लाख कोशिश करने पर भी तार के अन्दर की बिजली को नही दिखा सकता, केवल अपने विषेष यन्त्रों की सहायता से उसकी नाप या प्रयोग की विधि दे सकता है, उसी तरह से ब्रह्मज्ञान की जानकारी केवल महसूस करवाकर ही दी जा सकती है।
जो वस्तु जितने कम समय के प्रति अपनी जीवन क्रिया को रखती है वह उतनी ही अच्छी तरह से दिखाई देती है और अपना प्रभाव जरूर कम समय के लिये देती है मगर लोग कहने लगते है, कि वे उसे जानते है, जैसे कम वोल्टेज पर वल्व धीमी रोशनी देगा, मगर अधिक समय तक चलेगा, और जो वल्व अधिक रोशनी अधिक वोल्टेज की वजह से देगा तो उसका चलने का समय भी कम होगा, उसी तरह से जो क्रिया दिन और रात के गुजरने के बाद चौबीस घंटे में मिलती है वह साक्षात समझ मे आती है कि कल ठंड थी और आज गर्मी है, मगर मनुष्य की औसत उम्र अगर साठ साल की है तो जो जीवन का दिन और रात होगी वह उसी अनुपात में लम्बी होगी, और उसी क्रिया से समझ में आयेगा.जितना लम्बा समय होगा उतना लम्बा ही कारण होगा, अधिकतर जीवन के खेल बहुत लोग समझ नही पाते, मगर जो रोजाना विभिन्न कारणों के प्रति अपनी जानकारी रखते है वे तुरत फ़ुरत में अपनी सटीक राय दे देते है.यही तन्त्र और और तान्त्रिक का रूप कहलाता है.

तन्त्र परम्परा से जुडे हुए आगम ग्रन्थ हैं। इनके वक्ता साधारणतयः शिवजी होते हैं।
तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है - “तनोति त्रायति तन्त्र” । जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय "गुह्य या गूढ़ साधनाओं" से किया जाता रहा है।
तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है और साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्रचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं।

Saturday, July 12, 2014

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी About Swami Nikhileshwaranand ji

आप सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाए | हम सभी आपस मे प्रेम करे ज्ञान चर्चा करे और निखिल संदेश को जन जन तक पहुंचाए |


धरती सब कागद करूं, लेखनी सब बनराय। 
साह सुमुंद्र की मसि करूं, गुरू गुण लिखा न जाय़।।

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी About Swami Nikhileshwaranand ji

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी एक ऐसे उदात्ततम व्यक्तित्व हें, जिनके चिन्तन मात्र से ही दिव्यता का बोध होने लगता हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत को अपने भीतर समाहित किए हुए महात्मा हिरण्यगर्भ की तरह शांत और सौम्य हैं। व्यवहारिक क्षेत्र में स्वच्छ धौत वस्त्र में सुसज्जित ये जितने सीधे-सादे से दिखाई देते हैं, इससे हट कर कुछ और भी हैं, जो सर्वसाधारण गम्य नहीं हैं। साधनाओं के उच्चतम सोपान पर स्थित विश्व के जाने-मने सम्मानित व्यक्तित्व हैं। इनका साधनात्मक क्षेत्र इतना विशालतम है, कि इसे सह्ब्दों के माध्यम से आंका नहीं जा सकता। किसी भी
प्रदर्शन से दूर हिमालय की तरह अडिग, सागर की तरह गंभीर, पुष्पों की तरह सुकोमल और आकाश की तरह निर्मल हैं।

इनके संपर्क में आया हुआ व्यक्ति एक बार तो इन्हें देखकर अचम्भे में पड़ जाता हैं, कि ये तो महर्षि जह्रु की तरह अपने अन्तस में ज्ञान गंगा के असीम प्रवाह को समेटे हुए हैं।

पूज्य गुरुदेव ऋषिकालीन भारतीय ज्ञान परम्परा की अद्वितीय कड़ी हैं। जो ज्ञान मध्यकाल में अनेक-प्रतिघात के कारण अविच्छिन्न हो, निष्प्राण हो गया था, जिस दिव्य ज्ञान की छाया तले समस्त जाति ने सुख, शान्ति एवं आनंद का अनुभव किया था, जिसे ज्ञान से संबल पाकर सभी गौरवान्वित हुए थे। तथा समस्त विसंगतियों को परास्त करने में सक्षम हुए थे, जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों ने अपनी तपः ऊर्जा से सबल एवं परिपुष्ट करके जन कल्याण के हितार्थ स्वर्णिम स्वप्न देखे थे... पूज्यपाद सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी ने समाज की प्रत्येक विषमताओं से जूझते हुए, अपने को तिल-तिल जलाकर उसी ज्ञान परम्परा को पुनः जाग्रत किया है, समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर उन्होनें पुनः उस ज्ञान प्रवाह को साधनाओं के माध्यम से आप्लावित किया है। मानव कल्याण के लिए अपनी आंखों में अथाह करुणा लिए उन्होनें मंत्र और तंत्र के माध्यम से, ज्योतिष, कर्मकाण्डएवं यज्ञों के माध्यम से, शिविरों तथा साधनाओं के माध्यम से उन्होनें इस ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाया हैं।

ऐसे महामानव, के लिए कुछ कहने और लिखने से पूर्व बहुत कुछ सोचना पङता है। जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं। निखिल स्तवन के एक-एक श्लोक उनके इसी सन्यासी स्वरुप का वर्णन हैं।

बाहरी शरीर से भले ही वे गृहस्थ दिखाई दें, बाहरी शरीर से वे सुख और दुःख का अनुभव करते हुए, हंसते हुए, उसास होते हुए, पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए या शिष्यों के साथ जीवन का क्रियाकलाप संपन्न करते हों, परन्तु यह तो उनका बाहरी शरीर है। उनका आभ्यंतरिक शरीर तो अपने-आप में चैतन्य, सजग, सप्राण, पूर्ण योगेश्वर का है, जिनको एक-एक पल का ज्ञान है और उस दृष्टि से वे हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगीश्वर हैं, जिनका यदा-कदा ही जन्म पृथ्वी पर हुआ करता है।

एक ही जीवन में उन्होनें प्रत्येक युग को देखा है, त्रेता को, द्वापर को, और इससे भी पहले वैदिक काल को। उनको वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हैं, त्रेता के प्रत्येक क्षण के वे साक्षी रहे हैं।

लगभग १५०० वर्षों का मैं साक्षीभूत शिष्य हूँ, और मैंने इन १५०० वर्षों में उन्हें चिर यौवन, चिर नूतन एक सन्यासी रूम में देखा है। बाहरी रूप में उन्होनें कई चोले बदले, कई स्थानों में जन्म लिया, पर यह मेरा विषय नहीं था, मेरा विषय तो यह था, कि मैं उनके आभ्यन्तरिक जीवन से साक्षीभूत रहूं, एक संन्यासी जीवन के संसर्ग में रहूं और वह संन्यासी जीवन अपन-आप उच्च, उदात्त, दिव्य और अद्वितीय रहा हैं।

उन्होनें जो साधनाएं संपन्न की हैं, वे अपने-आप में अद्वितीय हैं, हजारों-हजारों योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, क्योंकि वे योगी उनके आभ्यन्तरिक जीवन से परिचित हैं, वे समझते हैं कि यह व्यक्तित्व अपने-आप में अद्वितीय हैं, अनूठा हैं, इनके पास साधनात्मक ज्ञान का विशाल भण्डार हैं, इतना विशाल भण्डार, कि वे योगी कई सौ वर्षों तक उनके संपर्क और साहचर्य में रहकर भी वह ज्ञान पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक वेद, पुराण , स्मृति उन्हें स्मरण हैं, और जब वे बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ब्रह्मा अपने मुख से वेद उच्चारित कर रहे हों, क्योंकि मैंने उनके ब्रह्म स्वरुप को भी देखा हैं, रुद्र स्वरुप को भी देखा है, और रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहां हू।

आज भी सिद्धाश्रम का प्रत्येक योगी इस बात को अनुभव करता है, की 'निखिलेश्वरानंद' जी नहीं है, तो सिद्धाश्रम भी नहीं है, क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी उस सिद्धाश्रम के कण-कण में व्याप्त है। वे किसी को दुलारते हैं, किसी को झिड करते हैं, किसी को प्यार करते हैं, तो केवल इसलिए की वे कुछ सीख लें, केवल इसलिए की वे कुछ समझ ले, केवल इसलिए कि वह
जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ले, और योगीजन उनके पास बैठ कर के अत्यन्त शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है, कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास बैठे हों, एक साथ हिमालय के आगोश में बैठे हों, एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समेटे हुए जो व्यक्तित्व हैं, उनके पास बैठे हों। वास्तव में 'योगीश्वर निखिलेश्वरानन्द' इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय
विभूति हैं।

राम के समय राम को पहिचाना नहीं गया, उस समय का समाज राम की कद्र, उनका मूल्यांकन नहीं कर पाया, वे जंगल-जंगल भटकते रहे। कृष्ण के साथ भी ऐसा हुआ, उनको पीड़ित करने की कोई कसार बाकी नहीं राखी और एक क्षण ऐसा भी आया, जब उनको मथुरा छोड़ कर द्वारिका में शरण लेनी पडी और उस समय के समाज ने भी उनकी कद्र नहीं की। बुद्ध के समय में जीतनी वेदना बुद्ध ने झेली, समाज ने उनकी परवाह नहीं की। महावीर के कानों में कील ठोक दी गईं, उन्हें भूकों मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने उनके महत्त्व को आँका नहीं।

यदि सही अर्थों में 'सदगुरुदेव जी' को समझना है, तो उनके निखिलेश्वरानन्द स्वरुप समझना पडेगा। इन चर्म चक्षुओं से उन्हें नहीं पहिचान सकते, उसके लिए, तो आत्म-चक्षु या दिव्या चक्षु की आवश्यकता हैं।

मैंने ही नहीं हजारों संन्यासियों ने उनके विराट स्वरुप को देखा है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च और अद्वितीय ब्रह्माण्ड स्वरुप मैंने उनका देखा है, और एहेसास किया है कि
वे वास्तव में चौसष्ट कला पूर्ण एक अद्वितीय युग-पुरूष हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पृथ्वी गृह पर आए हैं। मैं अकेला ही साक्षी नहीं हूं, मेरे जैसे हजारों संन्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि उन्हें अभूतपूर्व सिद्धियां प्राप्त हैं। भले ही वे अपने -आप को छिपाते हों, भले ही वे सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते हों, मगर उनके अन्दर जो शक्तियां और सिद्धियां निहित हैं, वे अपने-आप में अन्यतम और अद्वितीय हैं।

एक जगह उन्होनें अपनी डायरी में लिखा हैं --

"मैं तो एक सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करता रहा, लोगों ने मुझे भगवान् कहा, संन्यासी कहा, महात्मा कहा, योगीश्वर कहा, मगर मैं तो अपने आपको एक सामान्य मानव ही समझता हूँ। मैं उसी रूप में गतिशील हूं, लोग कहें तो मैं उनका मुहबन्द नहीं सकता, क्योंकि जो जीतनी गहराई में है, वह उसी रूप में मुझे पहिचान करके अपनी धारणा बनाता हैं। जो मुझे उपरी तलछट में देखता है, वह मुझे सामान्य मनुष्य के रूप में देखता हैं, और जो मेरे आभ्यंतरिक जीवन को देखता है, वह मुझे 'योगीश्वर' कहता है, 'संन्यासी' कहता है। यह उनकी धारणा है, यह उनकी दृष्टि है, यह उनकी दूरदर्शिता है। जो मेरी आलोचना करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, क्योंकि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबसे सर्वथा परे हूं।

मैंने कोई दावा नहीं किया, कि मैं दस हजार वर्षों की आयु प्राप्त योगी हूं, और न ही मैं ऐसा दावा करता हूं, कि मैंने भगवे वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में विचरण किया, हिमालय गया, सिद्धियां प्राप्त कीं, या मैं कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व या मैं कोई अद्वितीय कार्य संपन्न किया है। मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं और सामान्य मनुष्य की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।" डायरी के ये अंश उनकी विनम्रता है, यह उनकी सरलता है, परन्तु जो पहिचानने की क्षमता रखते हैं - उनसे यह छिपा नहीं है, के वे ही वह अद्वितीय पुरूष हैं, तो कई हजार वर्षों बाद पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
------योगी विश्वेश्रवानंद copy right MTYV

Saturday, July 5, 2014

Aab To Jag Guru Purnima Mahotsava Camp


अब तो जाग 

जीवन मैं सफलता सद्गुरु के सिवा कोई नहीं दे सकता है|चाहे भोतिक जीवन हो या अधय्त्मिक जीवन हो , मानव आदिकाल से ही सद्गुरु के असरे ही सब कुच्छ पता रहा है| आज हम जिस जीवन के आनंद को पाने के लिए सब कुच्छ कर रहे है, पर आनंद दूर दूर तक नजर नहीं आती है. झूठे सपने बन के रह गया है ?मानव को समझ ही नहीं आ रहा है भोतिकता की चकाचोध ने उसे अंधकार मैं ले कर खड़ा कर रहा है , उसे कुच्छ सूझ ही नहीं कर वो के करना चाहता है , उस की मंजिल कहा है, वो गुम हो गया है, भोतिकता की साडी चीज़े होते हूया भी , परेशान है , दुबिधा मैं जी रहा है, क्या करे क्या न करे, 

उस के पास पूरा परिवार भी है , समाज है , जीने के लिए सरे साजो सामान है 
किसी के पास नहीं भी है, पर उस का चिंतन हमेशा आनंद को पाने की लालशा बनी होई होती है, 

समय समय पर सिद्धास्रम के ऋषि यहाँ आते रहे है मानव को नया चिंतन देते रहे वेदों, (Upanishad )उपनिषद् के ज्ञान को सरलता से समझने की कोसिस किया और साधना का ज्ञान दिया, जिस मानव के जीवन मैं समस्त इच्छा पूर्ति के बाद उसे वो ज्ञान चिंतन मिल सके जिस के लिए उसे मानव जीवन मिला उसे सार्थक बना सके , और एस जीवन के कर्म बन्धन (माया) से दूर हो कर गुरुमय हो सके |

एस लिए गुरु के मिलने का एक उत्सव बनाया गया जो शिष्य के लिए परम ज्ञान को पाने के लिए गुरु से एकाकार हो सके उस उत्सव का नाम गुरु पूणिमा का नाम दिया गया, वेसे गुरु से कभी भी एकाकार हो सकते है, पर ये दिवश मैं जो विशेषता है उसे शब्दों मैं नहीं बताया जा सकता है,वो तो आप जाब गुरु से मिल के उन के सानिध्य मैं आपने आप को पुण्य विसर्जित करते होए आपने आंसुओ से उन के चरणों मैं समर्पित करते हूया सब कुच्छ दे देना ही गुरु पूणिमा का उत्सव बन जाता है, गुरु पूणिमा गुरु के लिए नहीं होता ! अपितु शिष्य के लिए होता है, एस लिए शिष्य एस महोत्सव की साल भर प्रतीक्षा करता है,
आब वो दिन आ रहा है आप जाग जाये और उस महोत्सव मैं सामिल होने के लिए सद्गुरु से मिलने के लिए छुटी के लिए आभी आवेदन कर ले और भारत से कोने कोने से शिष्य जाग जाये, और सद्गुरु से मिलने जाये 

"राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥"
11-12 July,Haridwar.अब की बार-हरिद्वार Click Here:http://youtu.be/1XVq4RcD8xU
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं।यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।व्यास जयन्ती ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। 
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

ये बहुत ही सोभाग्य होगा उन शिष्यों के लिए जो गुरु के प्रति समर्पित है

जो प्रेम मैं फ़ना होना जानते है, जो मिटना जानते है सही मायने मैं गुरुमय बन सकेगे |

आप का सिद्धास्रम साधक परिवार गुरु पूणिमा पर आप का इन्तजार करेगा आप ११,१२ जुलाई को त्रिमूर्ति गुरु से मिल कर आपनी समस्या को सुलझते हूए गुरुमय ,प्रेममय बन कर आनंद की प्राप्ति कर सके ऐसा ही सद्गुरु देव से निवेदन है

सिद्धास्रम साधक परिवार जोधपुर

Dikshas Granted by Pujya Gurudev

11-12 July 2014
SADHNA DATE CAMP (SHIVIR)
LOCATION & CONTACT

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Nikhil Mantra Vigyan

Guru Purnima Mahotsava Camp Shree Prem Nagar Ashram, Jwalapur Road, Haridwar, Uttarakhand

11-12 July 2014, Haridwar (UK)
Organisers
Ashok Khurana : 094160-84960

Gopal Ji : 098961-87061

Suresh Bhardwaj : 094160-31474

Ashok Sharma : 098888-39585

Avinash : 088728-10008

Rajneesh Sharma : 097799-74542

Dr.M.K. Tiwari : 098916-04043

Indra Pal Singh : 098183-83931
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Narayan Mantra Sadhana Vigyan

10-11-12 July 2014 Guru Purnima Sadhana Camp Ramadheen Singh Utsav Bhawan, Babu Ganj, Near I.T. Chowk, Lucknow, Uttar Pradesh

10-11-12 July 2014, Lucknow (UP)
Organisers
Ajay Kumar Singh : 9415116998

D.K. Singh : 9532040013

Pradeep Shukla : 94152-66543

Satish Tandon : 9336150802

Harish Chandra Pandey : 94544-12737

Jayant Mishra : 9125980014

Santosh Naik : 9125238618

T.N.Pandey : 9415342272

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KAILASH SIDDHASHRAM -
PRACHEEN MANTRA YANTRA VIGYAN

परमपूज्य सदगुरुदेव निखिल के आशीर्वाद से पूज्य कैलाश गुरूजी के दिव्य सानिध्य में "अहं ब्रम्हास्मि शक्ति गुरु पूर्णिमा महोत्सव" इनडोर स्टेडियम ,बूढ़ा तालाब , रायपुर ,छत्तीसगढ़ में सम्पन्न होगा ।

शिष्य पूर्णिमा के महापर्व पर स्वयं को अहं ब्रम्हास्मि शक्ति से युक्त करने हेतु इन्द्राक्षी धन वैभव लक्ष्मी दीक्षा , प्रत्यंगिरा उर्वशी आकर्षण दीक्षा , सर्व पीड़ा हरण संहार दीक्षा प्राप्त कर अपने आप को प्रेम ,हर्ष ,आनंद और हर्षयुक्त बनाने हेतु क्रियाए सम्पन्न होगी ।

सदगुरूदेव के निर्देशानुसार गुरुपूर्णिमा 12 जुलाई के दिन आप सभी प्रात: उठ जाए और स्नान आदि कर स्वच्छ वस्त्र धारण कर ब्रम्ह मुहूर्त में सदगुरुदेव का पूजन ,ध्यान-चिंतन करे । शिष्य पूर्णिमा के महापर्व पर स्वयं को अहं ब्रम्हास्मि शक्ति से युक्त करने हेतु अपने समस्त पाप दोषो के शमन हेतु प्रात:5:26 से 7:42 के बीच गुरुत्व ध्यान स्थिति में बैठ जाए सदगुरुदेव द्वारा आप सभी को ब्रम्ह वर्चस्व स्वरूप शिष्याभिषेक दीक्षा प्रदान की जाएगी | यदि किसी कारणवश आप शिविर में नहीं आ पा रहे है तब भी आप अपने घर के पूजा स्थान में यह क्रिया सम्पन्न करें । आप स्वयं महसूस करेंगे की सदगुरुदेव की ऊर्जा ,चेतना आप में व्याप्त हो रही है ,आपके जीवन में धीरे-धीरे अनुकूलता आ रही है ।

न्यौछावर -1100/-

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें -
0291-2517025, 07568939648, 08769442398

Kailash Siddhashram, Delhi (91) 11-27351006

GIVE ME FAITH AND DEVOTION, AND I WILL GIVE YOU FULFILMENT & COMPLETENESS 

- ParamPujya Pratahsamaraniya Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji