Jay Gurudev….
Jaisa ki aapsavi ko pata hai ki kuch karno se MANTRA TATRA YANTRA VIGYAN patrika ka prasashan avi nahi ho pa raha hai……….
Par jald hai aapke intijar ki ye gadhia smapt ho gae aur SADGURUDEV NIKHIL JI ki yah patrika aapko prapt ho gae……par is karan se hui yeh asudhida ke lye kheed hai ki ham savi shiyesho ko gurudham(Mataji,Kailash Guruji aurArvindGuruji) aur shivero ke koi Jankari nahi mil pa rahi hai…….
Aur hum avi gurubhai/behen apne aas pass ke shivero ki jankari prapt nahi ho pane ke karan is shobhayg ke charo se vanchit na ho jye Islye yeh ham savi gurubhai/behno ka kartabye hai ki ape pass ke sthano me ho rahe karyakaram ki jankarri apne level best se savi gurubhai/behno tak jaroor pahuchaye….
Apni jankari tak aap savi ki jankari ke lye SHIVERO ke announce date aapko bata raha hu….
Date 3 OCTOBER’10 MUMBAI me Pujye Arvind Guruji ka shiver hai……address aur details ke liye waha ke aayagoko se sampark kare(FEB’10 ki magsine,pg no. 84)……..aur shiver sthal ki jankari samay rahte prapt kar lae…………..
Jay Gurudev…
Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Wednesday, September 22, 2010
Shiver in mumbai on 3rr oct
मेरे गुरुदेव, मेरा सौभाग्य.मेरी
फिर वो दिन दूर नहीं होगा जब इस धरती पर प्रेम के ही बादल बरसा करेंगे, और उन जल बूंदों से जो पौधे पनपेगी, उस हरियाली से भारत वर्ष झूम उठेगा. फिर हिमालय का एक छोटा सा भू-भाग ही नहीं पूरा भारत ही सिद्धाश्रम बन जायेगा, और पूरा भारत ही क्यों, पूरा विश्व ही सिद्धाश्रम बन सकेगा! कौन कहता हैं, कि यह संभव नहीं हैं? एक अकेला मेघ खण्ड नहीं कर सकता यह सब, पूरी धरती को एक अकेला मेघ खण्ड नहीं सींच सकता अपनी पावन फुहारों से ….. परन्तु जब तुम सभी मेघ खण्ड बनकर एक साथ उड़ोगे, तो उस स्थान पर जहाँ प्रचंड धुप में धरती झुलस रही होगी, वहां पर बरसोगे तो एकदम से वहां का मौसम बदल जायेगा!
इसीलिए मैं तुम्हें कह रहा हूँ, की तुम्हें किसी एक जगह ठहर कर नहीं रहना हैं, तुम्हें तो गतिशील रहना हैं, खलखल बहती नदी की तरह, जिससे तुम्हारे जल से कई और भी प्यास बुझा सकी, क्योंकि वह जल तुम्हारा नहीं हैं, वह तो मेरा दिया हुआ हैं! इसलिए तुम्हें फ़ैल जाना हैं पुरे भारत में, पुरे विश्व में..... ...... और यूँ ही निकल पड़ना घर से निहत्थे एक दिन प्रातः को नित्य के कार्यों को एक तरफ रखकर, हाथ में दस-बीस पत्रिकाएँ लेकर..... और घर वापिस तभी लौटना जब उन पत्रिकाओं को किसी सुपात्र के हाथों में अर्पित कर तुमने यह समझ लिया हो, कि वह तुम्हारे सदगुरुदेव का और उनके इस ज्ञान का अवश्य सम्मान करेगा! ...... और फिर देख लेना कैसे नहीं सदगुरुदेव की कृपा बरसती हैं! तुम उसमें इतने अधिक भीग जाओगे, कि तुम्हें अपनी सुध ही नहीं रहेगी!
तुम भी तो....' (जुलाई-98 के अंक में मैंने तुम्हें पत्र दिया था यही तो उसका शीर्षक था) लेकिन अब 'तुम भी तो' नहीं वरन 'तुम ही तो' मेरे हाथ पैर हो, और फिर कौन कहता हैं, कि मैं शरीर रूप में उपस्थित नहीं हूँ! मैं तो अब पहले से भी अधिक उपस्थित हूँ! और अभी तुम्हें इसका एहसास शायद नहीं भी हो, कि मेरा तुमसे कितना अटूट सम्बन्ध हैं, क्योंकि अभी तो मैंने इस बात का तुम्हें पूरी तरह एहसास होने भी तो नहीं दिया हैं! पर वो दिन भी अवश्य आएगा, जब तुम रोम-रोम में अपने गुरुदेव को, माताजी को अनुभव कर सकोगे, शीघ्र ही आ सके, इसी प्रयास में हूँ और शीघ्र ही आएगा! मैंने तुम्हें बहुत प्यार से, प्रेम से पाला-पोसा हैं, कभी भी निखिलेश्वरानंद की कठोर कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा नहीं ली हैं, हर बार नारायणदत्त श्रीमाली बनकर ही उपस्थित हुआ हूँ, तुम्हारे मध्य! और परीक्षा नहीं ली, तो इसीलिए कि तुम इस प्यार को भुला न सको, और न ही भुला सको इस परिवार को जो तुम्हरे ही गुरु भाई-बहिनों का हैं, तुम्हें उसी परिवार में प्रेम से रहना हैं!
समय आने पर, यह तो मेरा कार्य हैं, मैं तुम्हें गढ़ता चला जाऊंगा, और मैंने जो-जो वायदे तुमसे किये हैं, उन्हें मैं किसी भी पल भुला नहीं हूँ, तुम उन सब वायदों को अपने ही नेत्रों से अपने सामने साकार होते हुए देखते रहोगे! तुम्हारे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के अलावा और किसी सिद्धि की छह बचेगी ही नहीं, क्योंकि मेरा सब कुछ तो तुम्हारा हो चूका होगा, क्योंकि 'तुम्ही तो हो मेरे हो' -सदा की ही भांति स्नेहसिक्त आशीर्वाद. -तुम्हारा गुरुदेव. नारायणदत्त श्रीमाली. जुलाई 1999, पेज नं : 18-20
जो मैं जानती प्रीत किये दुःख होय! नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत कियो नहीं कोय!!
मेरे गुरुदेव, मेरा सौभाग्य.... मेरी...
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय. ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय. गुरु जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य. सबसे सौभाग्यशाली बाते: 1 सदगुरु का मिलना, उनके चरणों से लिपटना. 2 सदगुरु के उद्धेश्य उनके कार्य की पूर्ति में सहायक होना. 3 सदगुरु के कार्य, उनके प्रहार, उनके प्रेम का मिलना. 4 सदगुरु का सर पर हाथ फेरना और विकारों को खत्म करना. 5 नाम नहीं, उनका काम चाहना..... नाम तो सभी चाहते हैं, मगर उनका कार्य करना. और नाम होकर भी उसमें निर्लिप्त न रहना... सबसे सौभाग्यदायक बात हैं.... आयोजक बनना, दीक्षा लेना, शिविर लगाना, पढाई करना, यह कोई श्रेष्ठता नहीं हैं. वरन श्रेष्ठता तो यह हैं की शिष्य अपने गुरु का परिचय हैं या नहीं. और हैं तो किस तरह का.... शिष्य के कार्यों को देखकर कोई क्या कहता हैं? उसके गुरु को जानना चाहता हैं. या उसके गुरु की आलोचना करता हैं.... आइये हम बने अपने गुरु के परिचय बने. शिष्य बने. आयोजक नहीं, कार्यकर्त्ता नहीं. शिष्य/शिष्या जो देवताओं से भी बड़े होते हैं. और देवता भी जिनके समक्ष छोटे होते हैं.
डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली
डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली
त्वदीयं वस्तु गोविन्दं
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षों बाद जब निखिलेश्वरानंद की सेवा, एक निष्ठता एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामीजी प्रभावित हुए, तो एक दिन पूछा –
“निखिल! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ, तुम जो कुछ भी चाहो, मांग सकते हो, असंभव मांग भी पूरी कर सकूँगा, मांगों?”
निखिलेश्वरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे, बोले –
“त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेवम समर्पयेत”
जब ‘मेरा’ कहने लायक मेरे पास कुछ हैं ही नहीं, तो मैं क्या मांगूं, किसके लिए मांगू, मेरा मन, प्राण रोम प्रतिरोम तो आपका हैं, आपका ही तो आपको समर्पित हैं, मेरा अस्तित्व ही कहाँ हैं?
उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सद्दश गुरु की आँखें डबडबा आई और शिष्य को अपने हांथों से उठाकर सीने से चिपका दिया, एकाकार कर दिया, पूर्णत्व दे दिया.
कुण्डलिनी - दर्शन
उस दिन रविवार था, हम सब शिष्य गुरुदेव (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के सामने गंगोत्री के तट पर बैठे हुए थे, सामने चट्टान पर अधलेटे से स्वामी जी (गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे.
बात चल पड़ी कुण्डलिनी पर. गुरुभाई कार्तिकेय ने पूछा –
"गुरुवर कुण्डलिनी से सम्बंधित चक्र, दल आदि का विवरण हैं, यही नहीं अपितु दल की पंखुडियां और रंग तक बताया गया हैं, क्या यह सब ठीक हैं?"
गुरुदेव मुस्कुराये, बोले - देखना चाहते हो, और वे सामने सीधे बैठ गए, श्वासोत्थान कर उन्होंने ज्योहीं प्राणों को सहस्त्रार में स्थित किया, की हम लोगों ने कमल मूलाधार से लगाकर आज्ञाचक्र तक के सभी चक्र, कमल और प्रस्फुटन साफ - साफ देखे, सभी कमल विकसित थे और योग ग्रंथों में जिस प्रकार से इन चक्रों और कमलों के रंग, बीज ब्रह्म आदि वर्णित हैं, उन्हीं रंगों में वे उत्थित चक्र देखकर आश्चर्यचकित रह गए... सब कुछ साफ - साफ शीशे की तरह दिखाई दे रहा था.
पूज्य गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी के इस कुण्डलिनी दिग्दर्शन पर हम सब आश्चर्य के साथ - साथ श्रद्धानत थे
मेरे गुरुदेव के शारीर से महकता हैं चन्दन
हिमालय के समस्त सन्यासियों की दबी – ढकी वह इच्छा बराबर रहती हैं की वे योगिराज निखिलेश्वरानंद जी (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के साथ कुछ क्षण रहे, बातचीत करें, आशीर्वाद प्राप्त करें, पर ऐसा सौभाग्य तो तब मिलता हैं, जब सात जन्म के पुन्य उदय हो.
मेरा सौभाग्य हैं की मैं उनका शिष्य हूँ और उनके द्वारा “लोकोत्तर साधना” में सफलता प्राप्त कर सका, उनके साथ मनोवेग से कई बार अन्य ग्रहों की यात्रा कर देखने – जानने का अवसर मिला.
“लोकोत्तर - साधना” के अद्वितीय योगी निखिलेश्वरानंद जी के पास क्षण भर बैठने से ही चन्दन की महक सी अनुभव होती हैं, उनके शरीर से चन्दन महकता रहता हैं, वे सही अर्थों में आज के युग के अद्वितीय तपोपुन्ज हैं.
मेरे गुरुदेव क्यों छिपाएं रखते हैं अपने आपको?
मुझे यह फक्र हैं की मेरे गुरु पूज्य श्रीमालीजी (डॉ. नायारण दत्त श्रीमालीजी) हैं, मुझे उनके चरणों में बैठने का मौका मिला हैं, और यथा संभव उन्हें निकट से देखने का प्रयास किया हैं.
उस दिन वे अपने अंडर ग्राउंड में स्थित साधना स्थल पर बैठे हुए थे, अचानक निचे चला गया और मैंने देखा उनका विरत व्यक्तित्व, साधनामय तेजस्वी शरीर और शरीर से झरता हुआ प्रकाश.... ललाट से निकलता हुआ ज्योति पुंज और साधना की तेजस्विता से ओतप्रोत उस समय का वह साधना कक्ष.... जब की उस साधनात्मक विद्युत् प्रवाह से पूरा कक्ष चार्ज था, ऊष्णता से दाहक रहा था और मात्र एक मिनट खडा रहने पर मेरा शरीर फूंक सा रहा था, कैसे बैठे रहते हैं, गुरुदेव घंटों इस कक्ष में?
बाहर जन सामान्य में गुरुदेव कितने सरल और सामान्य दिखाई देते हैं, कब पहिचानेंगे हम सब लोग उन्हें? उस अथाह समुद्र में से हम क्या ले पाएं हैं अब तक...... क्यों छिपाएं रखते हैं, वे अपने आपको?
-सेवानंद ज्ञानी १९८४ जन. - फर.
अंतर
कहाँ आपका सन्यासी प्रचंड उद्वर्ष रूप, कि ऊंचे से ऊंचा योगी भी कुछ क्षण पास बैठने के लिए तरसता हैं, हम इतने वर्षों से आपके सन्यासी शिष्य हैं आपके साथ रहे हैं, आपका क्रोध देखा हैं, प्रचंड उग्र रूप देखा हैं और यहाँ आपका गृहस्थ रूप देख रहे हैं, आश्चर्य होता हैं, आपकर इन दोनों रूपों को देखकर.
हम सन्यासी शिष्यों में इतने वर्षों तक साथ रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने खड़े होकर, सामने देखकर कुछ बोल सकें... पर यहाँ तो गृहस्थ शिष्यों के साथ आप बैठते हैं हंसी-मजाक करते हैं, और वे आपके सामने बैठकर बतियाने लगते हैं, और आप हैं कि सुनते रहते हैं.... इतना समय हैं क्या आपके पास?
ये कैसे शिष्य हैं, कि सामने देखकर बतियाते रहे... यह सब क्या हैं? - पूंछ रहे थे सनाय्सी गुरुभाई रविन्द्र स्वामी, गुरूजी से.
"तुम नहीं समझते रविन्द्र. यह गृहस्थ संसार हैं, जंगल और हिमालय का प्रांतर नहीं..... ये गृहस्थ शिष्य हैं, इनकी दृष्टि स्थूल हैं ये धन, पुत्र, सुख मांगकर ही प्रसन्न ही जाते हैं, शिष्यत्व क्या हैं? इसे पहिचानने और समझने के लिए बहुत बड़े त्याग कि जरूरत हैं और जहाँ तक मेरा प्रश्न हैं मैं इन पर आवरण डाले रखता हूँ, जो इस आवरण को भेदकर मुझ तक पहुंचता हैं, अपने "स्व" ko मिटाकर लीन होता हैं, वही शिष्य बन सकता हैं वही बनता हैं."
-समाधान किया गुरुदेव ने.
त्वदीयं वस्तु गोविन्दं
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षों बाद जब निखिलेश्वरानंद की सेवा, एक निष्ठता एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामीजी प्रभावित हुए, तो एक दिन पूछा –
“निखिल! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ, तुम जो कुछ भी चाहो, मांग सकते हो, असंभव मांग भी पूरी कर सकूँगा, मांगों?”
निखिलेश्वरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे, बोले –
“त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेवम समर्पयेत”
जब ‘मेरा’ कहने लायक मेरे पास कुछ हैं ही नहीं, तो मैं क्या मांगूं, किसके लिए मांगू, मेरा मन, प्राण रोम प्रतिरोम तो आपका हैं, आपका ही तो आपको समर्पित हैं, मेरा अस्तित्व ही कहाँ हैं?
उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सद्दश गुरु की आँखें डबडबा आई और शिष्य को अपने हांथों से उठाकर सीने से चिपका दिया, एकाकार कर दिया, पूर्णत्व दे दिया.
कुण्डलिनी - दर्शन
उस दिन रविवार था, हम सब शिष्य गुरुदेव (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के सामने गंगोत्री के तट पर बैठे हुए थे, सामने चट्टान पर अधलेटे से स्वामी जी (गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे.
बात चल पड़ी कुण्डलिनी पर. गुरुभाई कार्तिकेय ने पूछा –
"गुरुवर कुण्डलिनी से सम्बंधित चक्र, दल आदि का विवरण हैं, यही नहीं अपितु दल की पंखुडियां और रंग तक बताया गया हैं, क्या यह सब ठीक हैं?"
गुरुदेव मुस्कुराये, बोले - देखना चाहते हो, और वे सामने सीधे बैठ गए, श्वासोत्थान कर उन्होंने ज्योहीं प्राणों को सहस्त्रार में स्थित किया, की हम लोगों ने कमल मूलाधार से लगाकर आज्ञाचक्र तक के सभी चक्र, कमल और प्रस्फुटन साफ - साफ देखे, सभी कमल विकसित थे और योग ग्रंथों में जिस प्रकार से इन चक्रों और कमलों के रंग, बीज ब्रह्म आदि वर्णित हैं, उन्हीं रंगों में वे उत्थित चक्र देखकर आश्चर्यचकित रह गए... सब कुछ साफ - साफ शीशे की तरह दिखाई दे रहा था.
पूज्य गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी के इस कुण्डलिनी दिग्दर्शन पर हम सब आश्चर्य के साथ - साथ श्रद्धानत थे
मेरे गुरुदेव के शारीर से महकता हैं चन्दन
हिमालय के समस्त सन्यासियों की दबी – ढकी वह इच्छा बराबर रहती हैं की वे योगिराज निखिलेश्वरानंद जी (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के साथ कुछ क्षण रहे, बातचीत करें, आशीर्वाद प्राप्त करें, पर ऐसा सौभाग्य तो तब मिलता हैं, जब सात जन्म के पुन्य उदय हो.
मेरा सौभाग्य हैं की मैं उनका शिष्य हूँ और उनके द्वारा “लोकोत्तर साधना” में सफलता प्राप्त कर सका, उनके साथ मनोवेग से कई बार अन्य ग्रहों की यात्रा कर देखने – जानने का अवसर मिला.
“लोकोत्तर - साधना” के अद्वितीय योगी निखिलेश्वरानंद जी के पास क्षण भर बैठने से ही चन्दन की महक सी अनुभव होती हैं, उनके शरीर से चन्दन महकता रहता हैं, वे सही अर्थों में आज के युग के अद्वितीय तपोपुन्ज हैं.
मेरे गुरुदेव क्यों छिपाएं रखते हैं अपने आपको?
मुझे यह फक्र हैं की मेरे गुरु पूज्य श्रीमालीजी (डॉ. नायारण दत्त श्रीमालीजी) हैं, मुझे उनके चरणों में बैठने का मौका मिला हैं, और यथा संभव उन्हें निकट से देखने का प्रयास किया हैं.
उस दिन वे अपने अंडर ग्राउंड में स्थित साधना स्थल पर बैठे हुए थे, अचानक निचे चला गया और मैंने देखा उनका विरत व्यक्तित्व, साधनामय तेजस्वी शरीर और शरीर से झरता हुआ प्रकाश.... ललाट से निकलता हुआ ज्योति पुंज और साधना की तेजस्विता से ओतप्रोत उस समय का वह साधना कक्ष.... जब की उस साधनात्मक विद्युत् प्रवाह से पूरा कक्ष चार्ज था, ऊष्णता से दाहक रहा था और मात्र एक मिनट खडा रहने पर मेरा शरीर फूंक सा रहा था, कैसे बैठे रहते हैं, गुरुदेव घंटों इस कक्ष में?
बाहर जन सामान्य में गुरुदेव कितने सरल और सामान्य दिखाई देते हैं, कब पहिचानेंगे हम सब लोग उन्हें? उस अथाह समुद्र में से हम क्या ले पाएं हैं अब तक...... क्यों छिपाएं रखते हैं, वे अपने आपको?
-सेवानंद ज्ञानी १९८४ जन. - फर.
अंतर
कहाँ आपका सन्यासी प्रचंड उद्वर्ष रूप, कि ऊंचे से ऊंचा योगी भी कुछ क्षण पास बैठने के लिए तरसता हैं, हम इतने वर्षों से आपके सन्यासी शिष्य हैं आपके साथ रहे हैं, आपका क्रोध देखा हैं, प्रचंड उग्र रूप देखा हैं और यहाँ आपका गृहस्थ रूप देख रहे हैं, आश्चर्य होता हैं, आपकर इन दोनों रूपों को देखकर.
हम सन्यासी शिष्यों में इतने वर्षों तक साथ रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने खड़े होकर, सामने देखकर कुछ बोल सकें... पर यहाँ तो गृहस्थ शिष्यों के साथ आप बैठते हैं हंसी-मजाक करते हैं, और वे आपके सामने बैठकर बतियाने लगते हैं, और आप हैं कि सुनते रहते हैं.... इतना समय हैं क्या आपके पास?
ये कैसे शिष्य हैं, कि सामने देखकर बतियाते रहे... यह सब क्या हैं? - पूंछ रहे थे सनाय्सी गुरुभाई रविन्द्र स्वामी, गुरूजी से.
"तुम नहीं समझते रविन्द्र. यह गृहस्थ संसार हैं, जंगल और हिमालय का प्रांतर नहीं..... ये गृहस्थ शिष्य हैं, इनकी दृष्टि स्थूल हैं ये धन, पुत्र, सुख मांगकर ही प्रसन्न ही जाते हैं, शिष्यत्व क्या हैं? इसे पहिचानने और समझने के लिए बहुत बड़े त्याग कि जरूरत हैं और जहाँ तक मेरा प्रश्न हैं मैं इन पर आवरण डाले रखता हूँ, जो इस आवरण को भेदकर मुझ तक पहुंचता हैं, अपने "स्व" ko मिटाकर लीन होता हैं, वही शिष्य बन सकता हैं वही बनता हैं."
-समाधान किया गुरुदेव ने.
Monday, September 20, 2010
गुरु की क्रिया
गुरु की क्रिया
तीन लोक नव खण्ड में गुरु ते बड़ा न कोय।
करता करे न कर सकें, गुरु करे सो होय।।
पुराने समय की बात हैं, एक व्यक्ति अत्यंत ही निर्धन था, बड़ी मुश्किल से अपना जीवनयापन कर पाता था। परिवार में वह, पत्नी और कन्या के अतिरिक्त एनी कोई नहीं था।
समय के साथ कन्या धीरे-धीरे युवा होती गई, जब उसके विवाह का समय आया, तो उसके सामने यह परेशानी आई कि : “पुत्री के विवाह हेतु धन कहाँ से लाया जायें।“
ऐसे समय में किसी परिचित से उसे ज्ञात हुआ, कि कुछ दुरी पर ही एक श्रेष्ठ, तपस्वी व्यक्तित्व का निवास हैं, और वह उसकी समस्या का समाधान कर सकता हैं, उसे उसके परिचितों ने भी यही सलाह दी कि वह उस दिव्य व्यक्तित्व से जाकर अपनी समस्या के समाधान हेतु उनसे निवेदन करें।
जब अत्यंत ही व्यथित हो गया, तो उसने उस व्यक्तित्व के पास जाने का निर्णय कर लिया।
वह अपने घर से उसके आश्रम की ओर प्रस्थान करता हैं और उस उच्चकोटि के व्यक्तित्व के आश्रम में पहुँच जाता हैं। वहाँ वह उन गुरुदेव के कुटिया में जाता हैं, तो देखता हैं कि वह एक कोने में बैठे हैं, व गुरुदेव उसे देखकर उसे आने का कारण पूछते हैं।
मनुष्य अपनी व्यथा उनसे कहता हैं।
पूरी बात सुनकर गुरुदेव मुस्कुराते हुए उसे कहते हैं : “वत्स! वो मेरी चरणपादुका हैं, उसे तुम अपने सिर पर रखकर ले जाओ।“
मनुष्य को समझ नहीं आया कि यह पादुका भला मुझे इतनी धन-सम्पदा कैसे प्रदान कर सकती हैं, जिससे मैं अपनी पुत्री का विवाह कर सकूँ, मगर उनके आदेश कि अवहेलना करना उनके बस में नहीं था।
उस मनुष्य ने उन गुरु महाराज जी को प्रणाम किया और उनकी चरण पादुका को अपने सिर पर रखकर अत्यंत ही व्यथित मन से अपने घर को प्रस्थान किया।
कुछ समय की यात्रा के पश्चात ही उसे सामने से एक जत्था आता दिखाई दिया। उसमें एक राजा कहीं से युद्ध जीतकर बहुत सा धन-सम्पदा लेकर लौट रहा था, जब उसने उस मनुष्य को यूँ चरण पादुका लेकर जाते देखा तो सिपाहियों को आदेश देकर बुलाया।
राजा : “तुम कौन हो और तुम्हारे सिर पर यह किसकी चरण पादुका हैं।“
मनुष्य राजा को देखकर ही डर गया था, उसने उसे सारी कहानी कह सुनाई।
सारी बात सुनाने के बाद राजा ने खुश होकर कहा : “तुम मेरे साथ लायी हुयी सारी धन-सम्पदा को लिए जाओ, और अपनी कन्या का विवाह किसी संपन्न घराने में करना और खुद का जीवन भी श्रेष्ठता से व्यतीत करना और यह चरण पादुका मुझे दे दो।“
मनुष्य वह चरण पादुका राजा को दे देता हैं और उसे अपने सिर पर रख लेता हैं। मनुष्य उससे कारण जानना चाहता हैं, तो वह बताता हैं कि ये चरणपादुका जिनकी हैं, वे मेरे गुरुदेव हैं! आज तक जो भी मैं प्राप्त कर सका, उसके पीछे परोक्ष-अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से वही ही हैं। यह ज्ञान, चिंतन, ध्यान, धारणा, समाधि, मंत्र-तंत्र-यंत्र, आदि सब कुछ तो उन्हीं की दें हैं। मैं तो मिटटी का लौंदा हूँ, मुझे तो किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं हैं।
सीख : “गुरु क्या करता हैं? कब करता हैं? क्यूँ करता हैं? इसका ज्ञान सिर्फ गुरु को ही होता हैं, शिष्य या आम व्यक्ति इस बात को नहीं समझ सकते हैं। काल का एक चक्र बीतने पर ही मनुष्य को गुरु के हर कदम का एहसास होता हैं। तब तक मनुष्य किसी भी प्रकार से किसी बात को समझने में उतना ही समर्थ होता हैं, जितना कि उसके अंदर ज्ञान और चेतना की आग होती हैं, और शिष्य का यह धर्म हैं कि वह इस आग को हमेशा जलाते और बढ़ाते रहे, क्यूंकि जिस दिन यह आग धधकना बंद हो जायेगी, उस दिन वह शिष्यता के सारे स्तरों से नीचे उतरना शुरू कर देता हैं।“
आपका ही.
राज निखिल.
Mob. : 097521-05080.
rajbankar1981@gmail.com
mtyvmagzine@gmail.com
________________________________________________________
तीन लोक नव खण्ड में गुरु ते बड़ा न कोय।
करता करे न कर सकें, गुरु करे सो होय।।
पुराने समय की बात हैं, एक व्यक्ति अत्यंत ही निर्धन था, बड़ी मुश्किल से अपना जीवनयापन कर पाता था। परिवार में वह, पत्नी और कन्या के अतिरिक्त एनी कोई नहीं था।
समय के साथ कन्या धीरे-धीरे युवा होती गई, जब उसके विवाह का समय आया, तो उसके सामने यह परेशानी आई कि : “पुत्री के विवाह हेतु धन कहाँ से लाया जायें।“
ऐसे समय में किसी परिचित से उसे ज्ञात हुआ, कि कुछ दुरी पर ही एक श्रेष्ठ, तपस्वी व्यक्तित्व का निवास हैं, और वह उसकी समस्या का समाधान कर सकता हैं, उसे उसके परिचितों ने भी यही सलाह दी कि वह उस दिव्य व्यक्तित्व से जाकर अपनी समस्या के समाधान हेतु उनसे निवेदन करें।
जब अत्यंत ही व्यथित हो गया, तो उसने उस व्यक्तित्व के पास जाने का निर्णय कर लिया।
वह अपने घर से उसके आश्रम की ओर प्रस्थान करता हैं और उस उच्चकोटि के व्यक्तित्व के आश्रम में पहुँच जाता हैं। वहाँ वह उन गुरुदेव के कुटिया में जाता हैं, तो देखता हैं कि वह एक कोने में बैठे हैं, व गुरुदेव उसे देखकर उसे आने का कारण पूछते हैं।
मनुष्य अपनी व्यथा उनसे कहता हैं।
पूरी बात सुनकर गुरुदेव मुस्कुराते हुए उसे कहते हैं : “वत्स! वो मेरी चरणपादुका हैं, उसे तुम अपने सिर पर रखकर ले जाओ।“
मनुष्य को समझ नहीं आया कि यह पादुका भला मुझे इतनी धन-सम्पदा कैसे प्रदान कर सकती हैं, जिससे मैं अपनी पुत्री का विवाह कर सकूँ, मगर उनके आदेश कि अवहेलना करना उनके बस में नहीं था।
उस मनुष्य ने उन गुरु महाराज जी को प्रणाम किया और उनकी चरण पादुका को अपने सिर पर रखकर अत्यंत ही व्यथित मन से अपने घर को प्रस्थान किया।
कुछ समय की यात्रा के पश्चात ही उसे सामने से एक जत्था आता दिखाई दिया। उसमें एक राजा कहीं से युद्ध जीतकर बहुत सा धन-सम्पदा लेकर लौट रहा था, जब उसने उस मनुष्य को यूँ चरण पादुका लेकर जाते देखा तो सिपाहियों को आदेश देकर बुलाया।
राजा : “तुम कौन हो और तुम्हारे सिर पर यह किसकी चरण पादुका हैं।“
मनुष्य राजा को देखकर ही डर गया था, उसने उसे सारी कहानी कह सुनाई।
सारी बात सुनाने के बाद राजा ने खुश होकर कहा : “तुम मेरे साथ लायी हुयी सारी धन-सम्पदा को लिए जाओ, और अपनी कन्या का विवाह किसी संपन्न घराने में करना और खुद का जीवन भी श्रेष्ठता से व्यतीत करना और यह चरण पादुका मुझे दे दो।“
मनुष्य वह चरण पादुका राजा को दे देता हैं और उसे अपने सिर पर रख लेता हैं। मनुष्य उससे कारण जानना चाहता हैं, तो वह बताता हैं कि ये चरणपादुका जिनकी हैं, वे मेरे गुरुदेव हैं! आज तक जो भी मैं प्राप्त कर सका, उसके पीछे परोक्ष-अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से वही ही हैं। यह ज्ञान, चिंतन, ध्यान, धारणा, समाधि, मंत्र-तंत्र-यंत्र, आदि सब कुछ तो उन्हीं की दें हैं। मैं तो मिटटी का लौंदा हूँ, मुझे तो किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं हैं।
सीख : “गुरु क्या करता हैं? कब करता हैं? क्यूँ करता हैं? इसका ज्ञान सिर्फ गुरु को ही होता हैं, शिष्य या आम व्यक्ति इस बात को नहीं समझ सकते हैं। काल का एक चक्र बीतने पर ही मनुष्य को गुरु के हर कदम का एहसास होता हैं। तब तक मनुष्य किसी भी प्रकार से किसी बात को समझने में उतना ही समर्थ होता हैं, जितना कि उसके अंदर ज्ञान और चेतना की आग होती हैं, और शिष्य का यह धर्म हैं कि वह इस आग को हमेशा जलाते और बढ़ाते रहे, क्यूंकि जिस दिन यह आग धधकना बंद हो जायेगी, उस दिन वह शिष्यता के सारे स्तरों से नीचे उतरना शुरू कर देता हैं।“
आपका ही.
राज निखिल.
Mob. : 097521-05080.
rajbankar1981@gmail.com
mtyvmagzine@gmail.com
________________________________________________________
give ordeal
Give Ordeal
।। श्री गुरु चरण कमलेभ्यो नमः ।।
अग्निपरीक्षा
सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था, किन्तु वेदना से भरपूर... उसके मन में छटपटाहट थी – मेरे जाने के बाद कौन इस धरा के अंधकार को दूर करेगा?
मन की बेचैनी जब बहुत अधिक बढ़ गई, तो उसने यह बात अपने निकटस्थ लोगों के सामने रखी, सभी मौन रह गए, क्योंकि वे जानते थे, कि हमारे अंदर इतनी क्षमता नहीं हैं, कि इस गहन अंधकार को दूर कर सकें।
थोड़ी देर प्रतीक्षा करते-करते सूर्य को हताशा होने लगी, उसने पुनः अपनी बात रखी – कल प्रातः जब मैं आऊंगा, तब तक कोई तो एक ऐसा व्यक्तित्व मेरे सामने आये, जो इस धरा के अंधकार को दूर कर सकें, क्या प्रातः से सायं तक किया गया मेरा अथक परिश्रम व्यर्थ हो जायेगा?
तभी एक नन्हा सा दीप खड़ा हुआ और बोला – आपको निराश और चिंतित होने की आवश्यकता नहीं हैं, मैं हूँ न! जब तक मेरे अंदर सामर्थ्य हैं तब तक, अपनी आखरी सांस तक इस अंधकार को दूर करूँगा ही।
-हाँ! यह अवश्य हैं कि मेरे अंदर आपके जितनी प्रचंडता, दुर्धर्षिता एवं तेजोमयता नहीं हैं, किन्तु आपको यह वचन देता हूँ, कि अंधकार का साम्राज्य इस धरा पर पूरी तरह से होने नहीं दूँगा।
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
अक्टूबर 1998 : पृष्ठ 29.
______________________________ ______________________________ ______________________________ ______________________________ ______________________________ __________
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
Labels:
give ordeal
Tuesday, September 14, 2010
Our Desires
संसार में प्रत्येक व्यक्ति सदैव यही कामना करता रहता है कि उसे मन फल मिले| उसे उसकी इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो| जो वह सोचता है कल्पना करता है, वह उसे मिल जाये| भगवान् से जब यह प्रार्थना करते है तो यही कहते हैं, कि हमें यह दे वह दे| प्रार्थना और भजनों में ऐसे भाव छुपे होते हैं, जिनमें इश्वर से बहुत कुछ मांगा ही जाता है| यह तो ठीक है कि कोई या आप इश्वर से कुछ मंगाते है; प्रार्थना करते हैं| लेकिन इसके साथ ही यदि आप उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करते और अपनी असफलताओं; गरीबी या परेशानियों के विषय में सोच-सोचकर इश्वर की मूर्ती के सामने रोते-गिडगिडाते हैं उससे कुछ होने वाला नहीं है| क्योंकि आपके मन में गरीबी के विचार भरे हैं, असफलता भरी है, आपके ह्रदय में परेशानियों के भाव भरे हैं और उस असफलता को आप किसी दैवी चमत्कार से दूर भगाना चाहते हैं| जो कभी संभव नहीं है|
आपके पास जो कुछ है, वह क्यों है? वह इसलिए तो हैं कि मन में उनके प्रति आकर्षण है| आप उन सब चीजों को चाहते हैं| जो आपके पास हैं| मन में जिन चीजों के प्रति आकर्षण होता है, उन्हें मनुष्य पा लेता है| किन्तु शर्त यह भी है कि वह मनुष्य उसी विषय पर सोचता है, उसके लिये प्रयास करता हो और आत्मविश्वास भी हो| जो वह पाना चाहता है उसके प्रति आकर्षण के साथ-साथ वह उसके बारे में गंभीरता से सोचता भी हो|
दृढ आत्मविश्वास और परिश्रम की शक्ति से आप भी सफलता को अपनी ओर खींच सकते हैं| ईश्वरीय प्रेरणाओं से आप शक्ति ले सकते हैं और अपनी अभिलाषाओं को पुरी कर सकते हैं|
आप अपने जीवन स्वप्न को पूरा करते की दिशा में प्रयास करें| उसे ईश्वरीय प्रेरणा मानकर आगे बढे|
-सदगुरुदेव
आपके पास जो कुछ है, वह क्यों है? वह इसलिए तो हैं कि मन में उनके प्रति आकर्षण है| आप उन सब चीजों को चाहते हैं| जो आपके पास हैं| मन में जिन चीजों के प्रति आकर्षण होता है, उन्हें मनुष्य पा लेता है| किन्तु शर्त यह भी है कि वह मनुष्य उसी विषय पर सोचता है, उसके लिये प्रयास करता हो और आत्मविश्वास भी हो| जो वह पाना चाहता है उसके प्रति आकर्षण के साथ-साथ वह उसके बारे में गंभीरता से सोचता भी हो|
दृढ आत्मविश्वास और परिश्रम की शक्ति से आप भी सफलता को अपनी ओर खींच सकते हैं| ईश्वरीय प्रेरणाओं से आप शक्ति ले सकते हैं और अपनी अभिलाषाओं को पुरी कर सकते हैं|
आप अपने जीवन स्वप्न को पूरा करते की दिशा में प्रयास करें| उसे ईश्वरीय प्रेरणा मानकर आगे बढे|
-सदगुरुदेव
युग परिवर्तन
युग परिवर्तन
संसार निरन्तर परिवर्तनशील है और समय के साथ-साथ व्यक्ति की मान्यताएं, भावनाएं और इच्छाएं बदलती रही हैं; कुछ समय पूर्व सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी, जब व्यक्ति की आवश्यकताएं न्यून थीं और वे परस्पर मिल कर अपनी आवश्यकाओं की पूर्ति कर लेते थे, किसान अपना अनाज मोची को देता था और बदले में जूते बनवा लेता था, मोची चमड़े का काम करके दर्जी को देता था, और बदले में अपने कपडे सिलवा लेता था, इस प्रकार वे परस्पर एक-दुसरे के सहयोग से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे|
परन्तु धीरे-धीरे युग में परिवर्तन आया और व्यक्ति के मन में एक-दुसरे के प्रति सन्देह का भाव बढ़ा; उसने सोचा, कि मैं अनाज दे रहा हूं, वह ज्यादा कीमती है, इसकी अपेक्षा यह जो मोची मुझे काम करके देता है, उसका मूल्य कम है, ऐसी स्थिति आने पर मुद्रा का विनिमय प्रारम्भ हुआ, तब जीवन में एक-दुसरे के कार्य की पूर्ति में मुद्रा मुख्य आधार बन गया|
लेकिन समय परिवर्तन के साथ ही साथ सामाजिक जीवन ज्यादा से ज्यादा जटिल होता गया, एक-दुसरे से आगे बढ़ने की होड़ लग गई और जल्दी से जल्दी अपने लक्ष्य तक पहुंचने की भावना तीव्र हो गई, प्रत्येक व्यक्ति इस प्रयत्न में लग गया, कि जल्दी से जल्दी उस गंतव्य स्थल पर पहुंच जाय, जो कि उसका लक्ष्य है; फलस्वरूप उसमें प्रतिस्पर्धा, द्वेष और एक-दुसरे को पछाड़ने की प्रवृत्ति बढ़ गई, व्यापारी जल्दी से जल्दी लखपति बनने की फिराक में मशगूल हो गए, अधिकारियों ने अपने विभाग में सबसे ऊँचे पद पर पहुंचने के लिए जी-तोड़ प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार एक ऐसी होड़ लग गई, जिसके रहते किसी प्रकार की शान्ति नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक छटपटाहट, एक बेचैनी, एक असंतोष की भावना बढ़ने लगी .. परन्तु इससे एक लाभ यह भी हुआ, कि व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा सक्रीय हो गया और इस प्रकार इस प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप उन्नति के द्वार सभी के लिए सामान रूप से खुल गए|
परन्तु जब एक लक्ष्य हो और प्रतिस्पर्धी ज्यादा हों, तो एक विशेष प्रकार की होड़ व्यक्ति के मन में जम जाती है, वह अपने भौतिक प्रयत्नों के साथ-साथ भारत की प्राचीन विद्याओं की तरफ भी उन्मुख होने लगा और उनके माध्यम से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी प्रयत्नशील बना, उसने इस सम्बन्ध में प्रयत्न भी किये और जब उसने अनुभव किया, कि अन्य भौतिक प्रयत्नों की अपेक्षा इनसे जल्दी और निश्चित सफलता मिलती है, तब वह इसकी खोज में ज्यादा प्रयत्नशील बना, वह ऐसे मन्त्रों व् साधना विधियों की खोज में बढ़ा, जिससे उसकी इच्छा पूर्ति सहजता से और शीघ्र हो सके|
मंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ आदि हमारी प्राचीन संस्कृति का मजबूत आधार है| एक ऐसा समय भी था, जब हम इनकी बदौलत संसार में अग्रगण्य थे और हमने समस्त भौतिक सुविधाओं को सुलभ कर लिया था, जिस समय पूरा संसार अज्ञान और अशिक्षा के अन्धकार में डूबा था, उस समय भी हमने प्रकृति को अपने नियंत्रण में सफलतापूर्वक ले लिया था, लंकाधिपति रावण ने पवन, अग्नि और अन्य प्राकृतिक तत्वों को मन्त्रों की सहायाता से इतना आधिक नियंत्रण में कर लिया था, कि वे उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करते थे, हमारे पूर्वज त्रिकालदर्शी थे और अपने स्थान पर बैठे-बैठे हजारों-लाखों मील दूर घटित घटनाओं को अपनी आँखों से देखने में समर्थ थे - ये सारे तथ्य इस बात को स्पष्ट करते हैं, कि हमारी परम्परा अत्यंत समृद्ध रही है और हमने इन मंत्र, तंत्र, यंत्रों के माध्यम से अदभुत सफलताएं प्राप्त की हैं|
कालांतर में हम पर विदेशी आक्रमण होते गए और उन लोगों ने हमारे उच्चकोटि के ग्रन्थ जला कर राख कर दिए, इस प्रकार से हम एक समृद्ध परम्परा से वंचित हो गए, हममे वह क्षमता नहीं रही, जो कि हमारे पूर्वजों में थी|
फिर समय बदला और लोगों ने यह महसूस किया, कि बिना इन मंत्र-तंत्रों की सहायता से हम अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते; इस संघर्ष में यदि हमें टिके रहना है, तो यह जरूरी है, कि इस उच्चकोटि की विद्या को पुनः प्राप्त कर योग्य गुरु से भली प्रकार समझा जाय, उन सारे नियमों-उपनियमों का पालन कर इन साधनाओं में सफलता प्राप्त की जाय, जिससे कि हमारा जीवन सुखमय, उन्नतिदायक और परिपूर्ण हो|
परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है, ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ मंत्र मर्मज्ञ प्रकाश में नहीं आये; जिनको ज्ञान है, वे स्वान्तः सुखाय पद्धति में विश्वास करते हैं और हिमालय के उन स्थानों पर तपस्यारत हैं, जहां आम आदमी का जाना संभव नहीं है| जो गृहस्थ जीवन में उच्चकोटि के अध्येता हैं, वे अपनी ही साधना में लीन हैं, उन्हें स्वार्थ का, छल-कपट का ज्ञान नहीं है, इसकी अपेक्षा नकली चमक-दमक वाले साधू-सन्तों और संन्यासियों की भीड़ एकत्र हो गई, जो आडम्बर से तो परिपूर्ण थे, लेकिन उनमे ठोस ज्ञान का सर्वथा अभाव था| सामान्य जन श्रेष्ठ और नकली साधू-सन्तों में भेद या अन्तर नहीं कर पाता, फ़लस्वरूप वे कई स्थानों पर धोके के शिकार हुए और इस प्रकार धीरे-धीरे जब उनका कार्य नहीं हुआ तो उनका विश्वास डगमगाने लगा, उन्हें आशंका होने लगी - ये मंत्र-तंत्र वास्तविक है भी या नहीं?
और इस प्रकार के विचारों ने उनकी आस्था की नींव हिला दी| परन्तु नकली चमक-दमक के बीच में ऐसे भी साधू, योगी या गृहस्थ गुरु विद्यमान रहे, जो निःस्वार्थ भाव से अपने रास्ते पर निरन्तर गतिशील बने रहे, चमक-दमक को देखने के बाद वे उस नकली जमात में नहीं मिले, जो स्वार्थ पर आधारित थी, क्योंकि उनके पास ठोस ज्ञान था, एक समृद्ध परम्परा थी, जिससे माध्यम से असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता था|
जब सामान्य जनता उन नकली लोगों से उब गई, तो उन्हें अपनी गलती महसूस और वे इस खोज में लगे, कि हमारे पूर्वजों की यह समृद्ध परम्परा गलत नहीं हो सकती, अवश्य ही इन नकली लोगों में ही त्रुटी है या इन्हें इस सम्बन्ध में पूरा ज्ञान नहीं है, जिससे कि मनोकामना सिद्धि हो सके|
आज का मानव-समाज इतना अधिक जटिल हो गया है, कि मानव की समस्याओं का कोई अंत नहीं है, आगे बढ़ने में पग-पग पर कठिनाइयां और समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है, जिससे उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है|
आर्थिक समस्या, पुत्र न होने की समस्या, पुत्र प्राप्त होने पर भी कुपुत्र होने की समस्या, दुराचारी पत्नी की समस्या, पति-पत्नी में अनबन की समस्या, व्यर्थ में मुकदमे और बाधाओं की समस्या, रोजी की समस्या, व्यापार प्रारंभ न होने की समस्या, व्यापार वृद्धि की समस्या, विभिन्न रोगों से ग्रसित होने की समस्या, मानसिक चिंता दूर न होने की समस्या, पुत्री के लिये उपयुक्त वर न मिलने की समस्या, पुत्री का विवाह होने के बाद उसका वैवाहिक जीवन सुखी न होने की समस्या, नौकरी की समस्या, प्रमोशन की समस्या, घर में सुख शान्ति की समस्या, अधिकारीयों से मतभेद होने की समस्या, आकस्मिक मृत्यु की समस्या, भाग्योदय न होने की समस्या, जरूरत से ज्यादा कर्जा बढ़ जाने की समस्या, समय पर उच्च सम्मान प्राप्त न होने की समस्या, भूत-प्रेत-पिशाच बाधा, घर में सुख-शान्ति न रहने की समस्या|
-- और इस प्रकार की सैंकड़ों-हजारों समस्याएं हैं, जिनसे पग-पग पर व्यक्ति को जूझना पड़ता है, जिससे उनका अत्यधिक श्रम और शक्ति इन्हीं समस्याओं को हल करने में लग जाती हैं|
इन समस्याओं का समाधान सामाजिक कार्यों के माध्यम से संभव नहीं है और ना ही विज्ञान के पास इसका कोई हल है, इनके लिये कुछ आधार या कुछ ऐसी विद्याओं की जरूरत है, जो गूढ़ विद्याएं कही जाती हैं, इन विद्याओं के अन्तर्गत यंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ मंत्र जप आदि जरूरी है|
अभी तक ये कार्य विशेष पंडित वर्ग ही संपन्न करता रहा, परन्तु धीरे-धीरे इन पंडितों के स्तर में भी न्यूनता आ गई, उनकी आगे की पीढ़ी इतनी योग्य न हो सकी, जो दुसरे लोगों की समस्याओं को इन विद्याओं के माध्यम से दूर कर सकें; तब वे व्यक्ति अपने गुरु के समीप बैठ कर उन उपायों की खोज करने लगे, जिसके माध्यम से वे स्वयं इस प्रकार की साधनाएं संपन्न कर समस्याओं से मुक्ति पा सके| आपके भी जीवन में ऐसे गुरु का आगमन हो यही आपको आशीर्वाद|
- श्री नारायण दत्त श्रीमाली
संसार निरन्तर परिवर्तनशील है और समय के साथ-साथ व्यक्ति की मान्यताएं, भावनाएं और इच्छाएं बदलती रही हैं; कुछ समय पूर्व सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी, जब व्यक्ति की आवश्यकताएं न्यून थीं और वे परस्पर मिल कर अपनी आवश्यकाओं की पूर्ति कर लेते थे, किसान अपना अनाज मोची को देता था और बदले में जूते बनवा लेता था, मोची चमड़े का काम करके दर्जी को देता था, और बदले में अपने कपडे सिलवा लेता था, इस प्रकार वे परस्पर एक-दुसरे के सहयोग से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे|
परन्तु धीरे-धीरे युग में परिवर्तन आया और व्यक्ति के मन में एक-दुसरे के प्रति सन्देह का भाव बढ़ा; उसने सोचा, कि मैं अनाज दे रहा हूं, वह ज्यादा कीमती है, इसकी अपेक्षा यह जो मोची मुझे काम करके देता है, उसका मूल्य कम है, ऐसी स्थिति आने पर मुद्रा का विनिमय प्रारम्भ हुआ, तब जीवन में एक-दुसरे के कार्य की पूर्ति में मुद्रा मुख्य आधार बन गया|
लेकिन समय परिवर्तन के साथ ही साथ सामाजिक जीवन ज्यादा से ज्यादा जटिल होता गया, एक-दुसरे से आगे बढ़ने की होड़ लग गई और जल्दी से जल्दी अपने लक्ष्य तक पहुंचने की भावना तीव्र हो गई, प्रत्येक व्यक्ति इस प्रयत्न में लग गया, कि जल्दी से जल्दी उस गंतव्य स्थल पर पहुंच जाय, जो कि उसका लक्ष्य है; फलस्वरूप उसमें प्रतिस्पर्धा, द्वेष और एक-दुसरे को पछाड़ने की प्रवृत्ति बढ़ गई, व्यापारी जल्दी से जल्दी लखपति बनने की फिराक में मशगूल हो गए, अधिकारियों ने अपने विभाग में सबसे ऊँचे पद पर पहुंचने के लिए जी-तोड़ प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार एक ऐसी होड़ लग गई, जिसके रहते किसी प्रकार की शान्ति नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक छटपटाहट, एक बेचैनी, एक असंतोष की भावना बढ़ने लगी .. परन्तु इससे एक लाभ यह भी हुआ, कि व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा सक्रीय हो गया और इस प्रकार इस प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप उन्नति के द्वार सभी के लिए सामान रूप से खुल गए|
परन्तु जब एक लक्ष्य हो और प्रतिस्पर्धी ज्यादा हों, तो एक विशेष प्रकार की होड़ व्यक्ति के मन में जम जाती है, वह अपने भौतिक प्रयत्नों के साथ-साथ भारत की प्राचीन विद्याओं की तरफ भी उन्मुख होने लगा और उनके माध्यम से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी प्रयत्नशील बना, उसने इस सम्बन्ध में प्रयत्न भी किये और जब उसने अनुभव किया, कि अन्य भौतिक प्रयत्नों की अपेक्षा इनसे जल्दी और निश्चित सफलता मिलती है, तब वह इसकी खोज में ज्यादा प्रयत्नशील बना, वह ऐसे मन्त्रों व् साधना विधियों की खोज में बढ़ा, जिससे उसकी इच्छा पूर्ति सहजता से और शीघ्र हो सके|
मंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ आदि हमारी प्राचीन संस्कृति का मजबूत आधार है| एक ऐसा समय भी था, जब हम इनकी बदौलत संसार में अग्रगण्य थे और हमने समस्त भौतिक सुविधाओं को सुलभ कर लिया था, जिस समय पूरा संसार अज्ञान और अशिक्षा के अन्धकार में डूबा था, उस समय भी हमने प्रकृति को अपने नियंत्रण में सफलतापूर्वक ले लिया था, लंकाधिपति रावण ने पवन, अग्नि और अन्य प्राकृतिक तत्वों को मन्त्रों की सहायाता से इतना आधिक नियंत्रण में कर लिया था, कि वे उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करते थे, हमारे पूर्वज त्रिकालदर्शी थे और अपने स्थान पर बैठे-बैठे हजारों-लाखों मील दूर घटित घटनाओं को अपनी आँखों से देखने में समर्थ थे - ये सारे तथ्य इस बात को स्पष्ट करते हैं, कि हमारी परम्परा अत्यंत समृद्ध रही है और हमने इन मंत्र, तंत्र, यंत्रों के माध्यम से अदभुत सफलताएं प्राप्त की हैं|
कालांतर में हम पर विदेशी आक्रमण होते गए और उन लोगों ने हमारे उच्चकोटि के ग्रन्थ जला कर राख कर दिए, इस प्रकार से हम एक समृद्ध परम्परा से वंचित हो गए, हममे वह क्षमता नहीं रही, जो कि हमारे पूर्वजों में थी|
फिर समय बदला और लोगों ने यह महसूस किया, कि बिना इन मंत्र-तंत्रों की सहायता से हम अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते; इस संघर्ष में यदि हमें टिके रहना है, तो यह जरूरी है, कि इस उच्चकोटि की विद्या को पुनः प्राप्त कर योग्य गुरु से भली प्रकार समझा जाय, उन सारे नियमों-उपनियमों का पालन कर इन साधनाओं में सफलता प्राप्त की जाय, जिससे कि हमारा जीवन सुखमय, उन्नतिदायक और परिपूर्ण हो|
परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है, ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ मंत्र मर्मज्ञ प्रकाश में नहीं आये; जिनको ज्ञान है, वे स्वान्तः सुखाय पद्धति में विश्वास करते हैं और हिमालय के उन स्थानों पर तपस्यारत हैं, जहां आम आदमी का जाना संभव नहीं है| जो गृहस्थ जीवन में उच्चकोटि के अध्येता हैं, वे अपनी ही साधना में लीन हैं, उन्हें स्वार्थ का, छल-कपट का ज्ञान नहीं है, इसकी अपेक्षा नकली चमक-दमक वाले साधू-सन्तों और संन्यासियों की भीड़ एकत्र हो गई, जो आडम्बर से तो परिपूर्ण थे, लेकिन उनमे ठोस ज्ञान का सर्वथा अभाव था| सामान्य जन श्रेष्ठ और नकली साधू-सन्तों में भेद या अन्तर नहीं कर पाता, फ़लस्वरूप वे कई स्थानों पर धोके के शिकार हुए और इस प्रकार धीरे-धीरे जब उनका कार्य नहीं हुआ तो उनका विश्वास डगमगाने लगा, उन्हें आशंका होने लगी - ये मंत्र-तंत्र वास्तविक है भी या नहीं?
और इस प्रकार के विचारों ने उनकी आस्था की नींव हिला दी| परन्तु नकली चमक-दमक के बीच में ऐसे भी साधू, योगी या गृहस्थ गुरु विद्यमान रहे, जो निःस्वार्थ भाव से अपने रास्ते पर निरन्तर गतिशील बने रहे, चमक-दमक को देखने के बाद वे उस नकली जमात में नहीं मिले, जो स्वार्थ पर आधारित थी, क्योंकि उनके पास ठोस ज्ञान था, एक समृद्ध परम्परा थी, जिससे माध्यम से असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता था|
जब सामान्य जनता उन नकली लोगों से उब गई, तो उन्हें अपनी गलती महसूस और वे इस खोज में लगे, कि हमारे पूर्वजों की यह समृद्ध परम्परा गलत नहीं हो सकती, अवश्य ही इन नकली लोगों में ही त्रुटी है या इन्हें इस सम्बन्ध में पूरा ज्ञान नहीं है, जिससे कि मनोकामना सिद्धि हो सके|
आज का मानव-समाज इतना अधिक जटिल हो गया है, कि मानव की समस्याओं का कोई अंत नहीं है, आगे बढ़ने में पग-पग पर कठिनाइयां और समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है, जिससे उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है|
आर्थिक समस्या, पुत्र न होने की समस्या, पुत्र प्राप्त होने पर भी कुपुत्र होने की समस्या, दुराचारी पत्नी की समस्या, पति-पत्नी में अनबन की समस्या, व्यर्थ में मुकदमे और बाधाओं की समस्या, रोजी की समस्या, व्यापार प्रारंभ न होने की समस्या, व्यापार वृद्धि की समस्या, विभिन्न रोगों से ग्रसित होने की समस्या, मानसिक चिंता दूर न होने की समस्या, पुत्री के लिये उपयुक्त वर न मिलने की समस्या, पुत्री का विवाह होने के बाद उसका वैवाहिक जीवन सुखी न होने की समस्या, नौकरी की समस्या, प्रमोशन की समस्या, घर में सुख शान्ति की समस्या, अधिकारीयों से मतभेद होने की समस्या, आकस्मिक मृत्यु की समस्या, भाग्योदय न होने की समस्या, जरूरत से ज्यादा कर्जा बढ़ जाने की समस्या, समय पर उच्च सम्मान प्राप्त न होने की समस्या, भूत-प्रेत-पिशाच बाधा, घर में सुख-शान्ति न रहने की समस्या|
-- और इस प्रकार की सैंकड़ों-हजारों समस्याएं हैं, जिनसे पग-पग पर व्यक्ति को जूझना पड़ता है, जिससे उनका अत्यधिक श्रम और शक्ति इन्हीं समस्याओं को हल करने में लग जाती हैं|
इन समस्याओं का समाधान सामाजिक कार्यों के माध्यम से संभव नहीं है और ना ही विज्ञान के पास इसका कोई हल है, इनके लिये कुछ आधार या कुछ ऐसी विद्याओं की जरूरत है, जो गूढ़ विद्याएं कही जाती हैं, इन विद्याओं के अन्तर्गत यंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ मंत्र जप आदि जरूरी है|
अभी तक ये कार्य विशेष पंडित वर्ग ही संपन्न करता रहा, परन्तु धीरे-धीरे इन पंडितों के स्तर में भी न्यूनता आ गई, उनकी आगे की पीढ़ी इतनी योग्य न हो सकी, जो दुसरे लोगों की समस्याओं को इन विद्याओं के माध्यम से दूर कर सकें; तब वे व्यक्ति अपने गुरु के समीप बैठ कर उन उपायों की खोज करने लगे, जिसके माध्यम से वे स्वयं इस प्रकार की साधनाएं संपन्न कर समस्याओं से मुक्ति पा सके| आपके भी जीवन में ऐसे गुरु का आगमन हो यही आपको आशीर्वाद|
- श्री नारायण दत्त श्रीमाली
Labels:
युग परिवर्तन
Subscribe to:
Posts (Atom)