गुरु गीता
गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।
गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।
वह सद्गुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।
[संपादित करें]गुरु
गुरु गीता में ऐसे सभी गुरुओं का कथन है जिनकों 'सूचक गुरु' ,'वाचक गुरु', बोधक गुरु', 'निषिद्ध गुरु', 'विहित गुरु', 'कारणाख्य गुरु', तथा 'परम गुरु' कहा जाता है।
इनमें निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं वही सद्गुरु हैं।
गुरु गीता
न जानन्ति परम तत्त्वं गुरुदीक्षा परान्ग्मुखा:|
भ्रांत पशुसमा हेय्ता: स्वपरिज्ञान वर्जिता ||
अतार्थ गुरु दीक्षा के बिना परम तत्व को नहीं जाना जा सकता और परमतत्व को जाने बिना मनुष्य भ्रांत पशु के सामान होता है |दीक्षा का तात्पर्य है पशुत्व से मानत्व और मानत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने की क्रिया |दीक्षा ही ऐसे प्रक्रिया है ,जिसके माध्यम से गुरु अपना तपस्यांश प्रदान कर शिष्य को देवत्व की ओर बढ़ाते है ,उसके जीवन की समस्त कमियों को समाप्त करते हुए शिष्य को पूर्णत्व देने के लिए तत्पर होते है | इसलिए गुरु के महिमा को कभी नहीं भूलना चाहिए |
गुरुभाव परम तीर्थम अनयेतीर्थ नीरार्थकम |
सर्वेतीर्थमयम देवी श्रीगुरो शेचर्नाम्बुजम||
अतार्थ हे पार्वती |गुरु ही सर्वश्रेष्ट तीर्थ है अन्य तीर्थ निरर्थक है |श्री गुरु के चरण कमल ही सर्व तीर्थमय है |जितने भी तीर्थ है कांची ,काशी ,गया ,अवंतिका आदि वहा कुछ पाने के लिए जाना आयास मात्रे है ,वे निर्जीव है ,निरर्थक है वे आपने उपासक को कोई चेतेन्यता नहीं दे सकते ,इसके अपेक्षा जीवित जाग्रत गुरु के चरणों में बैठकर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है इसलिए गुरु चरणों को तीर्थराज माना गया है जो श्रेय और प्रेय दोनों देने में समर्थ है |
गुरु गीता
हृद्याम्बुजे कर्निक्मध्येसंस्थं सिंहासने गुरुम संस्थितामदिव्येमुर्तिम |
ध्यायेद गुरुम चन्द्रकलाप्रकाषम चित्पुस्ताकाभिश्त्वरम दधानम ||
अतार्थ ह्रदय कमल के मध्ये में विराजमान दिव्य मूर्ति वाले ,चंद्रमा की कलाओं के सामान प्रकाशवान,वेद ज्ञान से युक्त ,शिष्यों को अभीष्ट वरदान देने वाले गुरुदेव का मैं अत्यंत भाव भेरे हृदये से ध्यान करता हूं |गुरु मूर्ति को आपने हृदय में ध्यान करना चाह्हिये इस प्रक्रियानुसार साधक द्वारा हृदय कमल के आसन पर गुरु के स्वरूप को स्थापित करके ,ध्यानावस्था में उनका चिंतन करने से ,विशेषकर उनके चरणों का ध्यान करने से चित्त के एकाग्रता बढती है |
गुरु गीता
नमस्ते नाथ भगवन शिवाय गुरुरूपिने |
विद्यावतारम संसिद्द्ये स्वीकृतानेक विग्रह :||
अतार्थ शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के लिए ज्ञान स्वरूप ,अनेकविध शरीर धारण करने वाले शिव स्वरूप सदगुरु को बारम्बार नमस्कार है |जब शिष्य के अज्ञान विशिप्त के अवस्था आती है तब शिव ही शिष्य को ज्ञान देने के लिए मानव शरीर धारेण कर उसे पूर्णता प्रदान करते है क्योंकि शिष्य जिस धरातल पर खड़ा होता है ,उसकी बराबर अवस्था में आकर ही ज्ञान प्रदान किया जा सकता है ,अत: शिष्य जिस स्थिति में होता है गुरु भी उसी स्थिति में आते है |
गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।
गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।
वह सद्गुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।
[संपादित करें]गुरु
गुरु गीता में ऐसे सभी गुरुओं का कथन है जिनकों 'सूचक गुरु' ,'वाचक गुरु', बोधक गुरु', 'निषिद्ध गुरु', 'विहित गुरु', 'कारणाख्य गुरु', तथा 'परम गुरु' कहा जाता है।
इनमें निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं वही सद्गुरु हैं।
गुरु गीता
न जानन्ति परम तत्त्वं गुरुदीक्षा परान्ग्मुखा:|
भ्रांत पशुसमा हेय्ता: स्वपरिज्ञान वर्जिता ||
अतार्थ गुरु दीक्षा के बिना परम तत्व को नहीं जाना जा सकता और परमतत्व को जाने बिना मनुष्य भ्रांत पशु के सामान होता है |दीक्षा का तात्पर्य है पशुत्व से मानत्व और मानत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने की क्रिया |दीक्षा ही ऐसे प्रक्रिया है ,जिसके माध्यम से गुरु अपना तपस्यांश प्रदान कर शिष्य को देवत्व की ओर बढ़ाते है ,उसके जीवन की समस्त कमियों को समाप्त करते हुए शिष्य को पूर्णत्व देने के लिए तत्पर होते है | इसलिए गुरु के महिमा को कभी नहीं भूलना चाहिए |
गुरुभाव परम तीर्थम अनयेतीर्थ नीरार्थकम |
सर्वेतीर्थमयम देवी श्रीगुरो शेचर्नाम्बुजम||
अतार्थ हे पार्वती |गुरु ही सर्वश्रेष्ट तीर्थ है अन्य तीर्थ निरर्थक है |श्री गुरु के चरण कमल ही सर्व तीर्थमय है |जितने भी तीर्थ है कांची ,काशी ,गया ,अवंतिका आदि वहा कुछ पाने के लिए जाना आयास मात्रे है ,वे निर्जीव है ,निरर्थक है वे आपने उपासक को कोई चेतेन्यता नहीं दे सकते ,इसके अपेक्षा जीवित जाग्रत गुरु के चरणों में बैठकर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है इसलिए गुरु चरणों को तीर्थराज माना गया है जो श्रेय और प्रेय दोनों देने में समर्थ है |
गुरु गीता
हृद्याम्बुजे कर्निक्मध्येसंस्थं सिंहासने गुरुम संस्थितामदिव्येमुर्तिम |
ध्यायेद गुरुम चन्द्रकलाप्रकाषम चित्पुस्ताकाभिश्त्वरम दधानम ||
अतार्थ ह्रदय कमल के मध्ये में विराजमान दिव्य मूर्ति वाले ,चंद्रमा की कलाओं के सामान प्रकाशवान,वेद ज्ञान से युक्त ,शिष्यों को अभीष्ट वरदान देने वाले गुरुदेव का मैं अत्यंत भाव भेरे हृदये से ध्यान करता हूं |गुरु मूर्ति को आपने हृदय में ध्यान करना चाह्हिये इस प्रक्रियानुसार साधक द्वारा हृदय कमल के आसन पर गुरु के स्वरूप को स्थापित करके ,ध्यानावस्था में उनका चिंतन करने से ,विशेषकर उनके चरणों का ध्यान करने से चित्त के एकाग्रता बढती है |
गुरु गीता
नमस्ते नाथ भगवन शिवाय गुरुरूपिने |
विद्यावतारम संसिद्द्ये स्वीकृतानेक विग्रह :||
अतार्थ शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के लिए ज्ञान स्वरूप ,अनेकविध शरीर धारण करने वाले शिव स्वरूप सदगुरु को बारम्बार नमस्कार है |जब शिष्य के अज्ञान विशिप्त के अवस्था आती है तब शिव ही शिष्य को ज्ञान देने के लिए मानव शरीर धारेण कर उसे पूर्णता प्रदान करते है क्योंकि शिष्य जिस धरातल पर खड़ा होता है ,उसकी बराबर अवस्था में आकर ही ज्ञान प्रदान किया जा सकता है ,अत: शिष्य जिस स्थिति में होता है गुरु भी उसी स्थिति में आते है |