Wednesday, September 8, 2010

Guru Mantra Mystery Part -1

ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः

Guru Mantra Mystery Part -1

नए-नए साधक के मन में कुछ संशयात्मक प्रश्न, जो सहज ही घर कर बैठते हैं, वे हैं - मैं किस मंत्र को साधू? कौन सी साधना मेरे लिए अनुकूल रहेगी? किस देवता को मैं अपने ह्रदय में इष्ट का स्थान दूं?
ये प्रश्न सहज हैं, परन्तु इनके उत्तर इतने सहज प्रतीत नहीं होते, क्योंकि प्रथम तो इनके उत्तर कहीं भी स्पष्ट भाषा में नहीं मिलते, साथ ही यह बात भी निश्चित है, कि जब तक आप अत्यधिक व्यग्र हो कर जी-जान से चेष्टा नहीं करते, तब तक योग्य गुरु का सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकते| क्या इसका अर्थ यह निकाला जाय, कि अज्ञान के तिमिर में जीना ही हम सब का प्रारब्ध है? क्या इस दुविधाजनक स्थिति से निकलने का कोई उपाय नहीं?
यह शायद मेरा सुनहरा सौभाग्य ही था, कि हिमालय विचरण के दौरान मुझे विश्व प्रसिद्ध तंत्र शिरोमणि त्रिजटा अघोरी के दर्शन हुए| मैंने उनके बारे में कई आश्चर्यजनक तथ्य सुन रखे थे और इस बात से भी मैं परिचित था, कि वे गुरुदेव के प्रिय शिष्य हैं|
उस पहाड़ देहधारी मनुष्य के प्रथम दर्शन से ही मेरा शरीर रोमांचित हो उठा था.... मैं हर्षातिरेक एवं एक अवर्णनीय भय से थरथरा उठा, मेरे पाँव मानो जमीन पर कीलित हो गए, मेरा मुह आश्चर्य से खुल गया और एक क्षण मुझे ऐसा लगा मानो मेरी सांस रुक गई है .... इस स्थिति में मैं कितनी देर रहा, मुझे याद नहीं...हां! इतना अवश्य है, कि जब मैं प्रकृतिस्थ हुआ, तो वे मुस्कराहट बिखेरते हुए मेरे सामने थे, जबकि मैं एक चट्टान पर बैठा था ...
मैं दावे के साथ कह सकता हूं, कि कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि तथाकथित 'सिंह के सामान निडर' पुरुष भी अकेले में उनके सामने प्रस्तुत होने में संकोच करेगा .... इतना अधिक तेजस्वी एवं भयावह स्वरुप है उनका| शायद मैं यह जानता था, कि वे मेरे गुरु भाई हैं, या शायद उनके चेहरे पर उस समय ममत्व के भाव थे, जो मैं उनके सामने बैठा रह सका... थोड़ी देर उनसे बात हुई, तो मेरा रहा-सहा संकोच भी जाता रहा...उन्हें गुरुदेव द्वारा 'टेलीपैथी' से मुझसे मिलने का आदेश मिला था (इस भ्रमण के दौरान यह मेरी आतंरिक इच्छा थी, कि मैं त्रिजटा से मिलूं और शायद गुरुदेव ने इसे जान लिया था) और उन्हें मेरा मार्गदर्शन करने को कहा था|
उस समय मेरा मन भी इस प्रकार के संशयात्मक प्रश्नों से ग्रस्त था और उन पर विजय प्राप्त करने के लिए मैं उनसे जूझता रहता था| पर मुझे जल्दी ही इस बात का अहेसास हो गया था, कि मैं एक हारती हुई बाजी खेल रहा हूं और मेरे मस्तिष्क-पटल पर कई नवीन प्रश्न दस्तक देने लगे - मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मुझे क्या करना चाहिए? मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ पथ कौन सा है? आदि-आदि|
जब मैंने अपनी दुविधा त्रिजटा के समक्ष राखी, तो वे ठहाका लगा कर हंसाने लगे, मानो मेरी अज्ञानता पर उन्हें दया आई हो...और फिर उन्होनें जो कुछ भी तथ्य मेरे आगे स्पष्ट किये, उनके आगे तो तीनों लोक की निधियां भी तुच्छ हैं|
उन्होनें कहां - 'प्रत्येक मनुष्य इस प्रकार की समस्या का सामना कभी न कभी करता ही है, परन्तु केवल प्रज्ञावान एवं सूक्ष्म विवेचन युक्त व्यक्ति ही इससे पार हो सकता है; बाकी व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और जीवन का एक स्वर्णिम क्षण अवसर गँवा देते हैं, अत्यंत सामान्य रूप से जीवन व्यतीत कर देते हैं|
'हमारे शास्त्रों में तैंतीस करोड़ देव-देवताओं की उपस्थिति स्वीकार की गई और उन सबके एकत्व रूप को ही 'परम सत्य' या 'परब्रह्म' कहा गया है, कि यदि साधक को पूर्णता प्राप्त करनी है, तो उस इन ३३ करोड़ देवी-देवताओं को सिद्ध करना पडेगा; परन्तु यह तभी संभव है, जब व्यक्ति लगातार पृथ्वी पर अपने पूर्व जन्मों की स्मृति के साथ हजारों जन्म ले अथवा वह हमेशा के लिए अजर-अमर हो जाये....'

'परन्तु ये दोनों ही रस्ते बड़े पेचीदा और असंभव सी लगने वाली कठिनाइयों से युक्त हैं| इसके अलावा तुम्हें ज्ञान नहीं होता, कि कब तुम्हारी छोटी सी त्रुटी की वजह से तुम्हारी वर्षों की तपस्या नष्ट हो जायेगी और तुम उंचाई से वापस साधारण स्थिति में आ गिरोगे|

'मैं अत्यधिक लम्बे समय से हिमालय में तपस्यारत हूं और असंभव कही जाने वाली साधनाएं भी सिद्ध कर चुका हूं| इतने वर्षों के अनुभव के बाद यह मेरी धारणा है कि सभी मन्त्रों में 'गुरु मंत्र' सर्वश्रेष्ठ मंत्र है, सभी साधनाओं में 'गुरु साधना' अद्वितीय है और गुरु ही सभी देवताओं के सिरमौर हैं| वे इस समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने वाली आदि शक्ति हैं और कुछ शब्दों में कहा जाय, तो वे - 'साकार ब्रह्म' हैं|




मेरे चहरे पर आश्चर्य की लकीरें उभर आईं, जिसे देखकर उन्होनें कहा- 'तुम्हें यों अवाक होनी की जरूरत नहीं, मुझे इस बात का पूरा ज्ञान है, कि मैं क्या कह रहा हूं| भ्रमित तो तुम लोग हुए हो, तुम हर चीज को बिना गूढता से निरिक्षण किये ही मान लेते हो, तभी तो आज विभिन्न देवी-देवताओं की साधनाएं तुम्हारे मन-मस्तिष्क को इतना लुभाती हैं| तुम्हारी स्थिति उस मछली की तरह है, जो की नदी को ही सक्षम और अनंत समझती है, क्योंकि सागर की विशालता से अनभिज्ञ होती हैं|




'भगवान् शिव के अनुसार सभी देवी-देवताओं, पवित्र नदियां एवं तीर्थ गुरु के दक्षिण चरण के अंगुष्ठ में स्थित हैं, वे ही अध्यात्म के आदि , मध्य एवं अंत है, वे ही निर्माण, पालन, संहार एवं दर्शन, योग, तंत्र-मंत्र आदि के स्त्रोत्र हैं| वे सभी प्रकार की उपमाओं से परे हैं... इसीलिए यदि कोई पूर्णता प्राप्त करने का इच्छुक है, यदि कोई इमानदारी से 'दिव्य बोध' प्राप्त करने की शरण ग्रहण कर लेनी चाहिए और उनकी साधना एवं मंत्र को जीवन में उतारने की चेष्टा करनी चाहिए|'




'गुरु मंत्र' शब्दों का समूह मात्र न होकर समस्त ब्रह्माण्ड के विभिन्न आयों से युक्त उसका मूल तत्व होता है| अतः गुरु साधना में प्रवृत्त होने से पहले यह उपयुक्त होगा, कि हम गुरु मंत्र का बाह्य और गुह्य दोनों ही अर्थ भली प्रकार से समझ लें|




'पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र का क्या अर्थ है?- मैंने बीच में टोकते हुए पूछा| एक लम्बी खामोशी...जो इतनी लम्बी हो गई थी, कि खिलने लगती थी... उनके चहरे के भावों से मुझे अनुभव हुआ, कि वे निश्चय और अनिश्चय के बीच झूल रहे हैं| अंततः उनका चेहरा कुछ कठोर हुआ, मानो कोई निर्णय ले लिया हो| अगले ही क्षण उन्होनें अपने नेत्र मूंद लिये, शायद वे टेलीपैथी के माध्यम से गुरुदेव से संपर्क कर रहे थे; लगभग दो मिनिट के उपरांत मुस्कुराते हुए उन्होनें आंखे खोल दीं|




'उस मंत्र के मूल तत्व की तुम्हारे लिये उपयोगिता ही क्या हैं? मंत्र तो तुम जानते ही हो, इसके मूल तत्व को छोड़ कर इसकी अपेक्षा मुझसे आकाश गमन सिद्धि, संजीवनी विद्या अथवा अटूट लक्ष्मी ले लो, अनंत संपदा ले लो, जिससे तुम सम्पूर्ण जीवन में भोग और विलाद प्राप्त करते रहोगे... ऐसी सिद्धि ले लो, जिससे किसी भी नर अथवा नारी को वश में कर सकोगे|




एक क्षण तो मुझे ऐसा लगा, कि उनके दिमाग का कोई पेंच ढीला है, पर मेरा अगला विचार इससे बेहतर था| मैंने सूना था, कि उच्चकोटि के योगी या तांत्रिक साधक को श्रेष्ठ, उच्चकोटि का ज्ञान देने से पूर्व उसकी परिक्षा लेने, हेतु कई प्रकार के प्रलोभन देते हैं, कई प्रकार के चकमे देते हैं... वे भी अपना कर्त्तव्य बड़ी खूबसूरती से निभा रहे थे ...




करीब पांच मिनुत तक उनकी मुझे बहकाने की चेष्टा पर भी मैं अपने निश्चय पर दृढ़ रहा, तो उन्होनें एक लम्बी श्वास ली और कहा - 'अच्छा ठीक है, बोलो क्या जनता चाहते हो?'




'सब कुछ' - मैं चहक उठा - 'सब कुछ अपने गुरु मंत्र एवं उसके मूल तत्व के बारे में मेरा नम्र निवेदन है' कि आप कुछ भी छिपाइयेगा नहीं|'


मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान जुलाई 2010



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Saturday, September 4, 2010

मेरे गुरूजी को भला किसी परिचय की क्या आवश्यकता ?

मेरे गुरूजी ...
मेरे गुरूजी को भला किसी परिचय की क्या आवश्यकता ? वे कोई सूर्य थोड़े ही हैं जो रात्रिकाल में लुप्त हो जायें; वे चन्द्रमा भी नहीं जो मात्र रात्रि में ही दृष्टिगोचर हों | वे देव भी नहीं हैं क्योंकि वे कथाओं, शास्त्रों, मान्यताओं तक ही सीमित नहीं हैं और वे साधारण मनुष्य भी नहीं हैं क्योंकि वे सिद्ध हैं, ज्ञानी हैं, पूर्ण पुरुष हैं |
मेरे गुरूजी तो मात्र मेरे गुरूजी हैं | वे मेरी माता भी हैं, पिता भी और मार्गदर्शक भी | वे मेरे सर्वोत्तम मित्र हैं तथा मेरी सर्वाधिक मूल्यवान निजी संपत्ति भी | वे मेरे प्राण हैं अतैव मेरी अजरता, अमरता के स्रोत हैं | सारांश यह है की वे मेरे जीवन का सार हैं | जैसे मैं उनका परिचय हूँ वे मेरा परिचय हैं |
मेरे गुरूजी सहीं अर्थों में भारतीय ऋषि हैं, जिनके चरणों में बैठना ही एक सुखद अनुभव है, जीवन की पूर्णता है | वे तपस्वी हैं, सन्यासी हैं, गृहस्थ हैं, विद्वान हैं, श्रेष्ठतम शिष्य हैं, महानतम गुरु हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वस्व हैं फिर भी निरहंकार हैं, निर्विकार हैं |
मेरे गुरूजी तो केवल मेरे गुरूजी हैं ...
ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः
-- गुरूजी के श्री चरणों में नतमस्तक एक शिष्य --

Monday, August 30, 2010

जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा हैं ही नही!




जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा हैं ही नहीं और जब तुम हो ही नहीं, तो फिर तुम्हारा जो ये शरीर हैं, जो हृदय हैं, तुम्हारी आँखों में छलछलाते जो अश्रुकण हैं, वो मैं ही नहीं हूँ तो और कौन हैं? तुम्हारे अन्दर ही तो बैठा हुआ हूँ मैं, इस बात को तुम समझ नहीं पाते हो, और कभी कभी समझ भी लेते हो, परन्तु दुसरे व्यक्ति अवश्य ही इस बात को समझते हैं, अनुभव करते हैं, कि कुछ न कुछ विशेष तुम्हारे अन्दर हैं जरुर, और वह विशेष मैं ही तो हूँ, जो तुममें हूँ! ...... और फिर अभी तो मेरे काफी कार्य शेष पड़े हैं, इसीलिए तो अपने खून से सींचा हैं तुम सींच कर अपनी तपस्या को तुममें डालकर तैयार किया हैं तुम सब को, उन कार्यों को तुम्हें ही पूर्णता देनी हैं! मेरे कार्यों को मेरे ही तो मानस पुत्र परिणाम दे सकते हैं, अन्य किस्में वह पात्रता हैं, अन्य किसी में वह सामर्थ्य हो भी नहीं सकती, क्योंकि वह योग्यता मैंने किसी अन्य को दी भी तो नहीं हैं?
परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंदजी महाराज डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी

मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं हैं, जिनमें कायरता हो, विरोध सहने की क्षमता न हो.





"मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं हैं, जिनमें कायरता हो, विरोध सहने की क्षमता न हो. जो जरा सी विपरीत स्थिति प्राप्त होते ही विचलित हो जाते हो. मुझे तो वे शिष्य प्रिय हैं, जिनमें बाधाओं को ठोकर मारने का हौसला होता हैं. जो विपरीत परिस्थितियों पर छलांग लगाकर भी मेरी आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करने की क्रिया करते हैं, जो समस्त बंधनों को झटक कर भी मेरी आवाज़ को सुनते हैं.... और ऐसे शिष्य स्वत: ही मेरी आत्मा का अंश बन जाते हैं, उनका नाम स्वत: ही मेरे होंठों से उच्चरित होने लगता हैं और वे मेरे हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं. वास्तव में जो दृढ निश्चयी होते हैं, वे समाज को ठोकर मार कर, सभी बंधनों को तोड़ते हुए एवं सभी बाधाओं को पार करते हुए गुरु चरणों का सानिध्य प्राप्त कर ही लेते हैं और सेवा व 

साधनाओं को अपने जीवन में स्थान देकर परम सत्य के मार्ग पर गतिशील हो जाते हैं. - परमहंस स्वामी

अनंत देवी देवता हैं, अनंत उपासना पद्धति है, कहाँ कहाँ जाकर सिर झुकाओगे, किन किन दरवाज़ों पर जाकर नाक रगडोगे, जीवन के दिन तो थोड़े से ही हैं, गिनती के हैं. वे तो ऐसे ही समाप्त हो जायेंगे, फिर क्या मिलेगा? जीवन यूँ ही भटकते हुए मंदिरों में , तीर्थों में, साधू सन्यासियों के पास समाप्त हो जायेगा. यदि तुम्हें सदगुरु मिल गये हैं, तो सब कुछ छोड़कर उनके चरण क्यूँ नहीं पकड़ लेते.

निखिलेश्वरानंदजी महाराज डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी

मुझे वे शिष्य अत्यंत प्रिय हैं, जो अपने स्तर के अनुसार सेवा कार्य में रत हैं




मुझे वे शिष्य अत्यंत प्रिय हैं, जो अपने स्तर के अनुसार सेवा कार्य में रत हैं और समाज के नवनिर्माण में अपना योगदान प्रस्तुत कर रहे हैं. जब मैं एक, पॉँच, दस, पचास, सौ, पॉँच सौ व्यक्तियों व् परिवारों में अध्यात्मिक चेतना की लहर फैलाकर, उन्हें पत्रिका सदस्य बनाकर आर्य संस्कृति से उनका पुनर्परिचय करने वाले शिष्यों के नामों को पड़ता हूँ, तो उन पर मुझे गर्व हो आता हैं, ऐसा लगता हैं, कि मेरा एक प्रयास कुछ सार्थक हुआ हैं और मानव कल्याण को समर्पित कुछ रत्नों का चुनाव हो पाया हैं. ऐसे गृहस्थ शिष्य मुझे सन्यासी शिष्यों से अधिक प्रिय हैं, क्योंकि सन्यासी शिष्यों द्वारा कि गयी सेवा से सिर्फ उनका ही कल्याण होता हैं, जबकि इन गृहस्थ शिष्यों द्वारा कि जाने वाली सेवा से पुरे समाज का भी कल्याण होता हैं. ऐसे शिष्यों के नाम स्वत: ही मेरे ह्रदय पटल पर अंकित हो जाते हैं और मैं अपनी करुणा और आशीर्वाद की अमृत वर्षा से उन्हें सराबोर कर देने के लिए व्यग्र हो उठता हूँ.” -Sadgurudev

Friday, August 27, 2010

साधनाओं के नियम

साधनाओं के नियम

•साधनाओं को कोई भी गृहस्थ संपन्न कर सकता है, इसके लिये किसी भी विशेष वर्ग या जाति के आधार पर कोई बन्धन नहीं है, जिसको भी इस प्रकार की साधनाओं में आस्था हो, वह इन साधनाओं को संपन्न कर सकता है



•इस प्रकार की साधनाओं में पुरुष या स्त्री, युवा या वृद्ध, विवाहित या अविवाहित जैसा कोई भेद नहीं है, कोई भी साधना संपन्न कर सकता है
महिलाओं के लिये रजस्वला-समय किसी भी प्रकार की साधना के लिए वर्जित है, जिस दिन रजस्वला हो उस दिन से अगले पांच दिनों तक वह किसी भी प्रकार की साधना या पूजा अनुष्ठान संपन्न न करे, परन्तु यदि उसने अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया हो और बीच में रजस्वला हो गयी हो, तो उस अनुष्ठान या साधना को पांच दिनों के लिये छोड़ दे और छटे दिन स्नान कर, सर को धो कर, पवित्र होकर पुनः साधना या अनुष्ठान प्रारम्भ कर सकती है, ऐसा होने पर साधना में व्यवधान नहीं माना जाता
पीछे जहां तक साधना की है या जीतनी संख्या में जप कर ली है, उसके आगे की गणना की जा सकती है


•प्रत्येक साधना की जप संख्या, दिनों की संख्या निश्चित होती है; तब तक साधना चलती रहे, उस अवधि में साधक को चाहिए कि एक समय भोजन करें और सात्त्विक आहार ग्रहण करें, मांस, शराब, प्याज, लहसुन आदि वर्जित है; भोजन का सीधा सम्बन्ध है, अतः शुद्ध खान-पान के मामले में सतर्कता बरतें, होटल में खाना यथासंभव टालें, क्योंकि वहां पर शुद्धता का पूरा ध्यान नहीं रह पाता, जो कि इस कार्य के लिये आवश्यक होता है


• साधना करते समय किसी भी प्रकार की वस्तु खाना या सेवन करना अनुकूल नहीं हैं, व्यक्ति मंत्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व दूध, चाय या भोजन ले सकता है
जब मंत्र जप चालू हो तब चाय, जल, भी पीना वर्जित है, यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न भी हो जाये, तो इसके बाद पवित्रीकरण करने के उपरांत ही पुनः मंत्र जप प्रारम्भ करना चाहिए


• साधनाकाल में यथासंभव भूमि पर सोना उचित रहता है, भूमि पर किसी भी प्रकार का बिछौना सो सकते हैं, विशेष परिस्थितियों में पलंग आदि का उपयोग कर सकते हैं, परन्तु जहां तक संभव हो भूमि शयन ही करें


• साधनाकाल में स्त्री संसर्ग सर्वथा वर्जित है, इस अवधि में पूरी तरह से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें, इस अवधि में फ़िल्मी पत्रिकाएं पढ़ना, सिनेमा देखना, अन्य स्त्रियों से लम्बिई बातचीत करना आदि निषेध है, यथासंभव मन को संयत और शांत बनाए रखें


• साधना प्रारम्भ करने से पूर्व स्नान कर लेता उचित रहता है, यदि बीमार हो या अशक्त हो, तो ऐसी परिस्थिति में कपड़ा भिगोकर पुरे शरीर को पौंछ लेता चाहिए, परन्तु जहां तक हो सके स्नान करना ही उत्तम माना जाता है


•पैंट, निकर या पायजामा पहन कर साधना नहीं की जा सकती, इसके लिये धोती पहनना उचित माना गया है


• एक धोती कमर के नीची पहिन लें और गुरु पीताम्बर ओढ़ लें, परन्तु यदि सर्दी का मौसम हो, तो उनी कम्बल भी ओढ़ सकता है, धोती हमेशा धूलि हुई स्वच्छ हो


• साधना काल में क्षौर कर्म नहीं करवाना चाहिए, अर्थात सर के या दाढ़ी के बाल नहीं कटावें


• साधना काल में बीडी-सिगरेट, तम्बाकू, पान आदि का सेवन वर्जित है, जितने दिन तक साधना चले उतने दिन तक किसी प्रकार का व्यसन न करें


• साधना काल में स्नान करते समय साबुन का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु इत्र आदि का प्रयोग न करें, साधना के बाद कहीं बहार जाते समय जूतों का प्रयोग किया जा सकता है


•यदि साधक नौकरी या व्यापार कर रहा हो और रात्रिकालीन साधना हो, तो दिन में नौकरी कर सकतें, यदि साधना पूरी होने तक व्यापार अथवा नौकरी से अवकाश ले लें, तो ज्यादा उचित रहता है


• साधना काल में सिनेमा देखना या किसी राग-रंग, गायन, संगीत महफिल आदि में भाग लेता वर्जित है


• साधना काल में कम से कम बोलें, बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही बातचीत करें और उतनी ही बातचीत करें, जीतनी जरूरी है, व्यर्थ में गप्पे लगाना बहस करना सर्वथा वर्जित हैं


• साधना घर के एकांत कक्ष में, किसी मन्दिर, नदी तट आदि स्थान पर जाकर की जा सकती है, पर इस बात का ध्यान रखें कि साधना स्थल ऐसा हो, जो शांत और कोलाहल से दूर हो; वह स्थान ऐसा होना चाहिए, जहां किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थित न होता हो


• साधना प्रारंभ करने से पूर्व साधना संबंदी सारे उपकरण चित्र, यंत्र, माला आदि एक स्थान पर एकत्र कर लेनी चाहिए, पूजन सामग्री की व्यवस्था भी पहले से ही कर लेनी चाहिए, साथ ही साथ अपने गुरु या साधना बताने वाले व्यक्ति से साधना से सम्बंधित सरे तथ्य पहले से ही भली प्रकार समझ लेने चाहिए


• कभी-कभी साधना काल में आखोने के सामने कई अजीबोगरीब दृश्य दिखाई पड़ते हैं, कई बार विचित्र आवाजें सुनाई पड़ती है, कई बार ऐसा भी अनुभव होता है, कि जैसे आपको कोई आवाज दे रहा हो, परन्तु इन बातों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए और बराबर अपनी साधना में लगे रहना चाहिए


• साधना काल में अपने सामने जल का लोटा भर रख देना चाहिए, उबासी, जम्भाई या अपां वायु के निकलने पर जल को कानों से स्पर्श कर लेने से यह दोष मिट जाता है; यदि बीच में लघुशंका तेवर हो जाय, तो उठ कर लघुशंका कर लेता चाहिए, पर इसके बाद पुनः स्नान कर दूसरी धोती पहिन कर ही साधना में बैठना चाहिए


• साधनाकाल में माला हाथ से गिरानी नहीं चाहिए, इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखें, यदि गिर जाय, तो पुनः प्रारम्भ से मंत्र जप करना चाहिए, ज्यादा अच्छा यह होगा कि गौमुखी (माला रखने का वस्त्र) में माला रख कर मंत्र जप करें, जिससे कि माला गिरने की समस्या नहीं रहे, गौमुखी किसी भी प्रकार के कपडे की हो सकती हैं


• किसी भी प्रकार की साधना या मंत्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व दीक्षित होना जरूरी है, क्योंकि दीक्षा प्राप्त साधक ही अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता हैं; इसके बाद साधना प्रारम्भ करें, तो सबसे पहले एक माला गुरु मंत्र की जप कर, गुरु की पूजा कर उनके सामने निवेदन कर मंत्र जप प्रारम्भ करें, ऐसा क्रम नित्य रखना चाहिए, जिससे कि अप्रत्यक्ष रूप से गुरु सहायक बने रहे


•मंत्र जप के बीच में कैसी भी परिस्थिति आ जाय, उठाना नहीं चाइए, किसी से बातचीत होठों या संकेतों से नहीं करना चाहिए, यदि ऐसी परिस्थिति आ भी जाय तो उठ कर आचमन तथा पवित्रिकर्ण कर पुनः साधना में बैठे


•साधना के प्रति साधक को पूरा विश्वास और श्रद्धा होनी चाहिए, बिना आस्था, विश्वास के कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती


•साधक सर्वथा शांत बने रहे, किसी भी प्रकार का सन्देह मन में नहीं आवें और न उग्रता अथावा क्रोध ही प्रदर्शित करें, साधना की अवधि में अशुद्ध भाषण न करें, असत्य न बोलें और कोई ऐसा कार्य न करें जो निति के विरुद्ध हो, पूरी निष्ठा और गुरु आशीर्वाद लेकर साधना में प्रवृत्त होने से निश्चय ही सफलता प्राप्त होती है


--- ये किसी भी प्रकार की साधना के आधारभूत तथ्य है, जो साधक को अपनाने चाहिए, ऐसा करने पर उसे सफलता स्वाभाविक रूप में मिल जाती है



- सदगुरुदेव श्री अरविन्द श्रीमालीजी

Wednesday, August 25, 2010

ध्यान रहे, केवल वही महत्वपूर्ण है

"ध्यान रहे, केवल वही महत्वपूर्ण है जो कि तुम शरीर को छोड़ते समय अपने साथ ले जा सकते हो। इसका मतलब है, ध्यान को छोड़कर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। जागरूकता के अलावा कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि केवल जागरूकता को मौत नहीं ले जा सकती। बाकी सब कुछ छीन लिया जाएगा, क्योंकि सब कुछ बाहर से आता है। केवल जागरूकता भीतर से उमगती है। इसे छीना नहीं जा सकता। और जागरूकता की छाया - करुणा, प्रेम - वे भी छीने नहीं जा सकते। वे जागरूकता के आंतरिक हिस्से हैं। तुम अपने साथ सिर्फ जागरूकता ले जाओगे।