Saturday, April 19, 2014

tantrot guru pojan nikhil jan utsav sadhana

‎-- तांत्रोक्त गुरु पूजन --निखिल जन्म उत्सव साधना

इस साधना के लिए प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर, स्नानादि करके, पीले या सफ़ेद आसन पर पूर्वाभिमुखी होकर बैठें| बाजोट पर पीला कपड़ा बिछा कर उसपर केसर से “ॐ” लिखी ताम्बे या स्टील की प्लेट रखें| उस पर पंचामृत से स्नान कराके “गुरु यन्त्र” व “कुण्डलिनी जागरण यन्त्र” रखें| सामने गुरु चित्र भी रख लें| अब पूजन प्रारंभ करें|

-- पवित्रीकरण --

बायें हाथ में जल लेकर दायें हाथ की उंगलियों से स्वतः पर छिड़कें -

ॐ अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोऽपि वा |यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ||

-- आचमन --

निम्न मंत्रों को पढ़ आचमनी से तीन बार जल पियें -

ॐ आत्म तत्त्वं शोधयामि स्वाहा |
ॐ ज्ञान तत्त्वं शोधयामि स्वाहा |
ॐ विद्या तत्त्वं शोधयामि स्वाहा |

१ माला जाप करे अनुभव करे हमरे पाप दोस समाप्त हो रहे है। .

ॐ ह्रौं मम समस्त दोषान निवारय ह्रौं फट
संकल्प ले फिर पूजन आरम्भ करे ।

-- सूर्य पूजन --

कुंकुम और पुष्प से सूर्य पूजन करें -

ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च |हिरण्येन सविता रथेन याति भुनानि पश्यन ||

ॐ पश्येन शरदः शतं श्रृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतं |जीवेम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात ||

-- ध्यान --

अचिन्त्य नादा मम देह दासं, मम पूर्ण आशं देहस्वरूपं |न जानामि पूजां न जानामि ध्यानं, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं ||

ममोत्थवातं तव वत्सरूपं, आवाहयामि गुरुरूप नित्यं |स्थायेद सदा पूर्ण जीवं सदैव, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं ||

-- आवाहन --

ॐ स्वरुप निरूपण हेतवे श्री निखिलेश्वरानन्दाय गुरुवे नमः आवाहयामि स्थापयामि |

ॐ स्वच्छ प्रकाश विमर्श हेतवे श्री सच्चिदानंद परम गुरुवे नमः आवाहयामि स्थापयामि |

ॐ स्वात्माराम पिंजर विलीन तेजसे श्री ब्रह्मणे पारमेष्ठि गुरुवे नमः आवाहयामि स्थापयामि |

-- स्थापन --

गुरुदेव को अपने षट्चक्रों में स्थापित करें -

श्री शिवानन्दनाथ पराशक्त्यम्बा मूलाधार चक्रे स्थापयामि नमः |

श्री सदाशिवानन्दनाथ चिच्छक्त्यम्बा स्वाधिष्ठान चक्रे स्थापयामि नमः |

श्री ईश्वरानन्दनाथ आनंद शक्त्यम्बा मणिपुर चक्रे स्थापयामि नमः |

श्री रुद्रदेवानन्दनाथ इच्छा शक्त्यम्बा अनाहत चक्रे स्थापयामि नमः |

श्री विष्णुदेवानन्दनाथ क्रिया शक्त्यम्बा सहस्त्रार चक्रे स्थापयामि नमः |

-- पाद्य --

मम प्राण स्वरूपं, देह स्वरूपं समस्त रूप रूपं गुरुम् आवाहयामि पाद्यं समर्पयामि नमः |

-- अर्घ्य --

ॐ देवो तवा वई सर्वां प्रणतवं परी संयुक्त्वाः सकृत्वं सहेवाः |अर्घ्यं समर्पयामि नमः |

-- गन्ध --

ॐ श्री उन्मनाकाशानन्दनाथ – जलं समर्पयामि |

ॐ श्री समनाकाशानन्दनाथ – स्नानं समर्पयामि |

ॐ श्री व्यापकानन्दनाथ – सिद्धयोगा जलं समर्पयामि |

ॐ श्री शक्त्याकाशानन्दनाथ – चन्दनं समर्पयामि |

ॐ श्री ध्वन्याकाशानन्दनाथ – कुंकुमं समर्पयामि |

ॐ श्री ध्वनिमात्रकाशानन्दनाथ – केशरं समर्पयामि |

ॐ श्री अनाहताकाशानन्दनाथ – अष्टगंधं समर्पयामि |

ॐ श्री विन्द्वाकाशानन्दनाथ – अक्षतां समर्पयामि |

ॐ श्री द्वन्द्वाकाशानन्दनाथ – सर्वोपचारां समर्पयामि |

-- पुष्प, बिल्व पत्र --

तमो स पूर्वां एतोस्मानं सकृते कल्याण त्वां कमलया सशुद्ध बुद्ध प्रबुद्ध स चिन्त्य अचिन्त्य वैराग्यं नमितांपूर्ण त्वां गुरुपाद पूजनार्थंबिल्व पत्रं पुष्पहारं च समर्पयामि नमः |

-- दीप --

श्री महादर्पनाम्बा सिद्ध ज्योतिं समर्पयामि |

श्री सुन्दर्यम्बा सिद्ध प्रकाशम् समर्पयामि |

श्री करालाम्बिका सिद्ध दीपं समर्पयामि |

श्री त्रिबाणाम्बा सिद्ध ज्ञान दीपं समर्पयामि |

श्री भीमाम्बा सिद्ध ह्रदय दीपं समर्पयामि |

श्री कराल्याम्बा सिद्ध सिद्ध दीपं समर्पयामि |

श्री खराननाम्बा सिद्ध तिमिरनाश दीपं समर्पयामि |

श्री विधीशालीनाम्बा पूर्ण दीपं समर्पयामि |

-- नीराजन --

ताम्रपात्र में जल, कुंकुम, अक्षत अवं पुष्प लेकर यंत्रों पर समर्पित करें -

श्री सोममण्डल नीराजनं समर्पयामि |

श्री सूर्यमण्डल नीराजनं समर्पयामि |

श्री अग्निमण्डल नीराजनं समर्पयामि |

श्री ज्ञानमण्डल नीराजनं समर्पयामि |

श्री ब्रह्ममण्डल नीराजनं समर्पयामि |

-- पञ्च पंचिका --

अपने दोनों हाथों में पुष्प लेकर निम्न पञ्च पंचिकाओं का उच्चारण करते हुए इन दिव्य महाविद्याओं की प्राप्ति हेतु गुरुदेव से निवेदन करें -

-- पञ्चलक्ष्मी --

श्री विद्या लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री एकाकार लक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री महालक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री त्रिशक्तिलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री सर्वसाम्राज्यलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- पञ्चकोश --

श्री विद्या कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री परज्योति कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री परिनिष्कल शाम्भवी कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री अजपा कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री मातृका कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- पञ्चकल्पलता --

श्री विद्या कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री त्वरिता कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री पारिजातेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री त्रिपुटा कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री पञ्च बाणेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- पञ्चकामदुघा --

श्री विद्या कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री अमृत पीठेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री सुधांशु कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री अमृतेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री अन्नपूर्णा कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- पञ्चरत्न विद्या --

श्री विद्या रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री सिद्धलक्ष्मी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री मातंगेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री भुवनेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री वाराही रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

श्री मन्मालिनी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |

-- श्री मन्मालिनी --

अंत में तीन बार श्री मन्मालिनी का उच्चारण करना चाहिए जिससे गुरुदेव की शक्ति, तेज और सम्पूर्ण साधनाओं की प्राप्ति हो सके -

ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ल्रृं एं ऐँ ओं औं अं अः |
कं खं गं घं ङं |
चं छं जं झं ञं |
टं ठं डं ढं णं |
तं थं दं धं नं |
पं फं बं भं मं |
यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं हंसः सोऽहं गुरुदेवाय नमः |

-- मूल मंत्र --

ॐ निं निखिलेश्वरायै ब्रह्म ब्रह्माण्ड वै नमः |

इस मंत्र का मूंगा माला से १०१, ५१  माला जप करें |

-- प्रार्थना --

लोकवीरं महापूज्यं सर्वरक्षाकरं विभुम् |शिष्य हृदयानन्दं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||

त्रिपूज्यं विश्व वन्द्यं च विष्णुशम्भो प्रियं सुतं |क्षिप्र प्रसाद निरतं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||

मत्त मातंग गमनं कारुण्यामृत पूजितं |सर्व विघ्न हरं देवं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||

अस्मत् कुलेश्वरं देवं सर्व सौभाग्यदायकं |अस्मादिष्ट प्रदातारं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||

यस्य धन्वन्तरिर्माता पिता रुद्रोऽभिषक् तमः |तं शास्तारमहं वंदे महावैद्यं दयानिधिं ||

-- समर्पण --

ॐ सहनावतु सह नौ भुनत्तु सहवीर्यं करवावहै,तेजस्विनां धीतमस्तु मा विद्विषावहै |

ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतं |

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना |

ॐ शान्तिः | शान्तिः || शान्तिः |||

सौजन्य – श्री राम चैतन्य शास्त्री कृत तांत्रोक्त गुरु पूजन

Tuesday, April 15, 2014

Master interaction of pupil गुरु - शिष्य का पारस्परिक संबंध


गुरु - शिष्य का पारस्परिक संबंध
अयोग्य व्यक्ति ( दुर्गुणों से युक्त ) न तो गुरु से दीक्षा पाने का अधिकारी है और न ही वह दीक्षित होने पर साधना के क्षेत्र में कोई उपलब्धि ही हासिल कर पाता है । यही कारण है कि प्रायः संत - महात्मा हरेक किसी को शिष्य नहीं बनाते । कुपात्रजनों को दिया जाने वाला ज्ञानोपदेश , आध्यात्मिक - संकेत , साधना - परामर्श और मंत्र - दीक्षा आदि सब निरर्थक होते हैं ।
गुरु और शिष्य के बीच पारस्परिक संबंध बहुत शुचिता और परख के आधार पर स्थापित होना चाहिए , तभी उसमें स्थायित्व आ पाता है । इसलिए गुरुजनों को भी निर्दिष्ट किया गया है कि वे किसी को शिष्य बनाने , उसे दीक्षा देने से पूर्व उसकी पात्रता को भली - भांति परख लें । शास्त्रों का कथन हैं -
मंत्री द्वारा किए गए दुष्कृत्य का पातक राजा को लगता है और सेवक द्वारा किए गए पाप का भागी स्वामी बनता है । स्वयंकृत पाप अपने को और शिष्य द्वारा किए गए अपराध का पाप गुरु को लगता है ।
दीक्षा और साधना के लिए अयोग्य व्यक्तियों के लक्षणों को शास्त्रकारों ने इस प्रकार स्पष्ट किया है -
ऐसा व्यक्ति जो अपराधी - मनोवृत्ति का हो अथवा क्रूर , पापी , हिंसक हो , वह न तो दीक्षा पाने का अधिकारी है और न वह साधना में ही सफल हो सकता है । कारण कि उसकी तामसिक - मनोवृत्ति उसे सदैव अस्थिर और असंतुलित बनाए रखती है ।
इसी प्रकार बकवादी , कुतर्क करने वाला , मिथ्याभाषी , अहंकारग्रस्त , लोभी , लम्पट , विषयी , चोर , दुर्व्यसनी , परस्त्रीगामी , मूर्ख , जड़ - बुद्धि , क्रोधी , द्वेषलु , ईर्ष्या अथवा अतिमोह से ग्रस्त , शास्त्र निंदक , आस्थाहीन , दुराचारी , वंचक , पाखंडी और न साधना करने योग्य । ऐसे लोगों को जन्मजात पापी , अपवित्र , दुर्भाग्यग्रस्त और कुपात्र माना गया है

Specific Siddhian by sadguru

These powers can be achieved even stronger इन सिद्धियों को हासिल कर आप भी बन सकते हैं शक्तिमान - परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी
हमारे पूर्वजों और ऋषियों के पास विशिष्ट सिद्धियां थी, परन्तु उनमें से काल के प्रवाह में बहु कुछ लुप्त हो गईं| उनमें भी बारह सिद्धियां तो सर्वथा लोप हो गईं थी, जिनका केवल नामोल्लेख इधर उधर पढ़ने को मिल जाता था पर उसके बारे में न तो किसी को प्रामाणिक ज्ञान था और न उन्हें ऐसी सिद्धि प्राप्त ही थी| ये इस प्रकार हें -
१.परकाया सिद्धि
२.आकाश गमन सिद्धि
३.जल गमन प्रक्रिया सिद्ध
४.हादी विद्या - जिसके माध्यम से साधक बिना कुछ आहार ग्रहण किये वर्षों जीवित रह सकता है|
५. कादी विद्या- जिसके माध्यम से साधक या योगी कैसी भी परिस्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है| उस पर सर्दी, गर्मी, बरसात, आग हिमपात आदि का कोई प्रभाव नहीं होता|
६.काली सिद्धि- जिसके माध्यम से हजारों वर्ष पूर्व के क्षण को या घटना को पहिचाना जा सकता है, देखा जा सकता है और समझा जा सकता है| साठ ही आने वाले हजार वर्षों के कालखण्ड को जाना जा सकता है कि भविष्य में कहां क्या घटना घटित होगी और किस प्रकार से घटित होगी इसके बारे में प्रामाणिक ज्ञान एक ही क्षण में हो जाता है| यही नहीं अपितु इस साधना के माध्यम से भविष्य में होने वाली घटना को ठीक उसी प्रकार से देखा जा सकता है, जिस प्रकार से व्यक्ति टेलेवीजन पर कोई फिल्म देख रहा हों|
७. संजीवनी विद्या, जो शुक्राचार्य या कुछ ऋषियों को ही ज्ञात थी जिसके माध्यम से मृत व्यक्ति को भी जीवन दान दिया जा सकता है|
८. इच्छा मृत्यु साधना- जिसके माध्यम से काल पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है और साधक चाहे तो सैकड़ो-हजारों वर्षों तक जीवित रह सकता है|
९. काया कल्प साधना - जिसके माध्यम से व्यक्ति के शरीर में पूर्ण परिवर्तन लाया जा सकता है और ऐसा परिवर्तन होने पर वृद्ध व्यक्ति का भी काया कल्प होकर वह स्वस्थ सुन्दर युवक बन सकता है, रोग रही ऐसा व्यक्तित्व कई वर्षों तक स्वस्थ रहकर अपने कार्यों में सफलता पा सकता है|
१०. लोक गमन सिद्धि-जिसके माध्यम से पृथ्वी लोक में ही नहीं अपितु अन्य लोकों में भी उसी प्रकार से विचरण कर सकता है जिस प्रकार से हम कार के द्वारा एक स्थान से दुसरे स्थान या एक नगर से दुसरे नगर जाते हें| इस साधना के माध्यम से भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, चंद्रलोक, सूर्यलोक और वायु लोक में भी जाकर वहां के निवासियों से मिल सकता, वहां की श्रेष्ठ विद्याओं को प्राप्त कर सकता है और जब भी चाहे एक लोक से दुसरे लोक तक जा सकता है|
११. शुन्य साधना - जिसके माध्यम से प्रकृति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है| खाद्य पदार्थ, भौतिक वस्तुएं और सम्पन्नता अर्जित की जा सकती है|
१२. सूर्य विज्ञान- जिसके माध्यम से एक पदार्थ को दुसरे पदार्थ में रूपांतरित किया जा सकता है|
अपने तापोबल से पूज्य निखिलेश्वरानन्द जी ने इन सिद्धियों को उन विशिष्ट ऋषियों और योगियों से प्राप्त किया जो कि इसके सिद्ध हस्त आचार्य थे| मुझे भली भांति स्मरण है कि परकाया प्रवेश साधना, इन्होनें सीधे विश्वामित्र से प्राप्त की थी| साधना के बल पर उन्होनें महर्षि विश्वामित्र को अपने सामने साकार किया और उनसे ही परकाया प्रवेश की उन विशिष्ट साधनाओं सिद्धियों को सीखा जो कि अपने आप में अन्यतम है| शंकराचार्य के समय तक तो परकाया प्रवेश की एक ही विधि प्रचिलित थी जिसका उपयोग भगवदपाद शंकराचार्य ने किया था परन्तु योगिराज निखिलेश्वरानन्द जी ने विश्वामित्र से उन छः विधियों को प्राप्त किया जो कि परकाया प्रवेश से सम्बंधित है| परकाया प्रवेश केवल एक ही विधि से संभव नहीं है अपितु कई विधियों से परकाया प्रवेश हो सकता है|
यह निखिलेश्वरानन्द जी ने सैकड़ो योगियों के सामने सिद्ध करके दिखा दिया| परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी इन बारहों सिद्धियों के सिद्धहस्त आचार्य है| कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे यह अलौकिक और दुर्लभ सिद्धियां नहीं उनके हाथ में खिलौने हें, जब भी चाहे वे प्रयोग और उपयोग कर लेते हें| इन समस्त विधियों कों उन्होनें उन महर्षियों से प्राप्त किया है जो इस क्षेत्र के सिद्धहस्त आचार्य और योगी रहे हें|उन्होनें हिमालय स्थित योगियों, संन्यासियों और सिद्धों के सम्मलेन में दो टूक शब्दों में कहा था कि तुम्हें इन कंदराओं में निवास नहीं करना हें और जंगल में नहीं भटकना हें, इसकी अपेक्षा समाज के बीच जाकर तुम्हें रहना है| उनके दुःख दर्द कों बांटना है, समझना है और दूर करना है|
मैंने कई बार अनुभव किया है, कि उनके दरवाजे से कोई खाली हाथ नहीं लौटा| जिस शिष्य, साधक, योगी या संन्यासी ने जो भी चाहा है उनके यहां से प्राप्त हुआ| गोपनीय से गोपनीय साधनाएं देने भी वे हिचकिचाये नहीं| साधना के मूल रहस्य स्पष्ट करते, अपने अनुभवों कों सुनाते, उन्हें धैर्य बंधाते, पीठ पर हाथ फेरते और उनमें जोश तथा आत्मविश्वास भर देते, कि वह सब कुछ कर सकता है और यही गुण उनकी महानता का परिचय है| सूर्य सिद्धांत के आचार्य पतंजलि ने अपने सूत्रों में बताया है, कि सूर्य की किरणों में विभिन्न रंगों की रश्मियों हें और इनका समन्वित रूप ही श्वेत है| इन्हीं रश्मियों के विशेष संयोजन से योगी किसी भी पदार्थ कों सहज ही शुन्य में से निर्मित कर सकता है, या एक पदार्थ कों दुसरे पदार्थ में परिवर्तित कर सकता है| मैंने स्वयं ही गुरुदेव कों अपने संन्यास जीवन में चौबीस वर्तुल वाले एक स्फटिक लेंस से प्रकाश रश्मियों कों परिवर्तित करते देखा है| और पुनः उस स्फटिक वर्तुल हीरक खण्ड कों शुन्य में वापस कर देते हुए देखा है, क्योंकि ये उन्हीं का कथन है, कि योगी अपने पास कुछ भी नहीं रखता| जब जरूरत होती है, तब प्रकृति से प्राप्त कर लेता है और कार्य समाप्त होने पर वह वस्तु प्रकृति कों ही लौट देता है|शिष्य ज्ञान मैंने स्वयं ही उन्हें अनेक अवसरों पर अपने पूर्व जन्म के शिष्य-शिष्याओं कों खोजकर पुनः साधनात्मक पथ पर सुदृढ़ करते हुए देखा है| एक बार नैनीताल के किसी पहाड़ी गाँव के निकट हम कुछ शिष्य जा रहे थे|
गुरुदेव हम सभी कों लेकर गाँव के एक ब्राह्मण के छोटे से घर में पहुंचे और ब्राह्मण से बोले - 'क्या आठ साल पहले तुम्हारे घर में किसी कन्या ने जन्म लिया था? ब्राह्मण ने आश्चर्यचकित होकर अपनी पुत्री सत्संगा को बुलाया, जिसे देखकर हम सभी चौंक गए| उसका चेहरा थी मां अनुरक्ता की तरह था| यद्यपि मां के चहरे पर झुर्रियां पड़ गई थी और यह अभी बालिका थी, परन्तु चेहरे में बहुत कुछ साम्य साफ-साफ दिखाई दे रहा था| सत्संगा ने गुरुदेव के सामने आते ही दोनों हाथ जोड़ लिए और ठीक मां की तरह चरणों में झुक गई|गुरुदेव ने बताया कि किस तरह उनकी शिष्या मां अनुरक्ता ने अपने मृत्यु के क्षणों में उनसे वचन लिया था, कि अगले जन्म में बाल्यावस्था होते ही गुरुदेव उसे ढूंढ निकालेंगे और साधनात्मक पथ पर अग्रसर कर देंगे| यह कन्या सत्संगा वही मां अनुरक्ता हें| गुरुदेव ने उसे दीक्षा प्रदान की, अपने गले की माला उतार कर उसे दी और गुरु मंत्र दे कर वहां से पुनः रवाना हो गए| अपने प्रत्येक शिष्य-शिष्याओं का उन्हें प्रतिपल जन्म से लेकर मृत्यु तक ध्यान रहता हें और उनका प्रत्येक क्षण ही शिष्य के कल्याण के चिन्तन में ही बीतता हें| धन्य हें वे जिनको कि उनका शिष्यत्व प्राप्त हुआ है|तंत्र मार्ग का सिद्ध पुरुष सही अर्थों में देखा जाय तो तंत्र भारतवर्ष का आधार रहा है| तंत्र का तात्पर्य व्यवस्थित तरीके से कार्य संपन्न होना|
प्रारम्भ में तो तंत्र भारतवर्ष की सर्वोच्च पूंजी बनी रही बाद में धेरे-धीरे कुछ स्वार्थी और अनैतिक तत्व इसमें आ गए, जिन्हें न तो तंत्र का ज्ञान था और न इसके बारे में कुछ विशेष जानते ही थे| देह सुख और भोग को ही उन्होनें तंत्र मां लिया था| तंत्र तो भगवान् शिव का आधार है| उन्हें द्वारा तंत्र का प्रस्फुटन हुआ| जो कार्य मन्त्रों के माध्यम से संपादित नहीं हो सकता, तंत्र के द्वारा उस कार्य को निश्चित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है|
मंत्र का तात्पर्य है प्रकृति की उस विशेष सत्ता को अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्न करना और अनुकूल बनाकर कार्य संपादित करना| पर तंत्र के क्षेत्र में यह स्थिति सर्वथा विपरीत है| यदि सीधे-सीधे तरीके से प्रकृति वशवर्ती नहीं होती, तो बलपूर्वक उसे वश में किया जाता है और इसी क्रिया को तंत्र कहते हैं| तंत्र तलवार की धार की तरह है| यदि इसका सही प्रकार से प्रयोग किया जाय, तो प्रांत अचूक सिद्धाप्रद है पर इसके विपरीत यदि थोड़ी भी असावधानी और गफलत कर दी जाय तो तंत्र प्रयोग स्वयं करता को ही समाप्त कर देता है| ऐसी कठिन चुनौती को निखिलेश्वरानन्द ने स्वीकार किया और तंत्र के क्षेत्र में उन स्थितियों को स्पष्ट किया जो कि अपने-आप में अब तक गोपनीय रही है|उन्होनें दुर्गम और कठिन साधनाओं को तंत्र के माध्यम से सिद्ध करके दिखा दिया कि यह मार्ग अपेक्षाकृत सुगम और सरल है|
स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी तंत्र के क्षेत्र की सभी कसौटिया में खरे उतारे तथा उनमें अद्वितीयता प्राप्त की| त्रिजटा अघोरी तंत्र का एक परिचित नाम है| पर गुरुदेव का शिष्यत्व पाकर उसने यह स्वाकार किया कि यदि सही अर्थों में कहा जाय तो स्वामी निखिलेश्वरानन्द तंत्र के क्षेत्र में अंतिम नाम है| न तो उनका मुकाबला किया जा सकता है और न ही इस क्षेत्र में उन्हें परास्त किया जा सकता है| एक प्रकार से देखा जाय तो सही अर्थों में वह शिव स्वरुप हैं, जिनका प्रत्येक शब्द अपनी अर्थवत्ता लिए हुई है, जिन्होनें तंत्र के माध्यम से उन गुप्त रहस्यों को उजागर किया है जो अभी तक गोपनीय रहे है|
---योगी विश्वेश्रवानंद

Friday, March 14, 2014

About Bhairavi Sadhana

भैरवी - भाग १
स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते हैं।

तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है। यह तंत्र एक निश्चित मर्यादा है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो, अथवा वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी 'शक्ति' का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, 'शक्ति' पर आधारित है। कदाचित इसका रहस्य यही है, कि साधक को इस बात का साक्षात करना होता है, कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते है, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं व् संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारणवश तंत्र के क्षेत्र में तो पग-पग पर गुरु साहचर्य की आवश्यकता पड़ती है, अन्य मार्गों की अपेक्षा कहीं अधिक।

जब इस मर्यादा का किसी कारणवश लोप हो गया और समाज की स्मृति में केवल इतना ही शेष रह गया, कि तंत्र के क्षेत्र में भैरवी का साहचर्य करना होता है, तभी व्यभिचार का जन्म हुआ, क्योंकि ऐसी स्थिति में पग-पग संभालने के लिए सदगुरुदेव की वह चैतन्य शक्ति नहीं रही। यह भी संभव है, कि कुछ दूषित प्रवृत्तियों के व्यक्तियों ने एक श्रेष्ठ परम्परा को अपनी वासनापूर्ति के रूप में अपना लिया हो, किन्तु यह तो प्रत्येक दशा में सत्य है ही, कि इस मार्ग में सदगुरु की महत्ता को विस्मृत कर दिया गया।

जो श्रेष्ठ साधक है, वे जानते है, कि तंत्र के क्षेत्र में प्रवेश के पूर्व श्मशान पीठ एवं श्यामा पीठ की परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी होती हैं, तभी साधक उच्चकोटि के रहस्यों को जानने का सुपात्र बन पाता है। भैरवी साधना इसी श्रेणी की साधना है, किन्तु श्यामा पीठ साधना से कुछ कम स्तर की। वस्तुतः जब भैरवी साधना का संकेत सदगुरुदेव से प्राप्त हो जाय, तब साधक को यह समझ लेना चाहिए, कि वे उसे तंत्र की उच्च भावभूमि पर ले जाने का मन बना चुके हैं। भैरवी साधना, भैरवी साधना के उपरांत श्यामा साधना और तब वास्तविक तंत्र की साधना का प्रारम्भ होता है, जहां साधक अपने ही शरीर के तंत्र को समझता हुआ, अपनी ही अनेक अज्ञात शक्तियों से परिचय प्राप्त करता हुआ न केवल अपने ही जीवन को धन्य कर लेता है, वरन सैकडों-हजारों के जीवन को भी धन्य कर देता है।

व्यक्ति के अनेक बंधनों में से सर्वाधिक कठिन बंधन है उसकी दैहिक वासनाओं का - और तंत्र इसी पर आघात कर व्यक्ति को एक नया आयाम दे देता है। वास्तविक तंत्र केवल वासना पर आघात करता है, न कि व्यक्ति की मूल चेतना पर। इसी कारणवश एक तांत्रिक किसी भी अन्य योगी या यति से अधिक तीव्र एवं प्रभावशाली होता है।

'भैरवी' के विषय में समाज की आज जो धारणा है, उसे अधिक वर्णित करने की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु मैंने अपने जीवन में भैरवी का जो स्वरुप देखा, उसे भी वर्णित कर देना अपना धर्म समझता हूं। शेष तो व्यक्ति की अपनी भावना पर निर्भर करता है, कि वह इसे कितना सत्य मानता है अथवा उसे अपनी धारणाओं के विपरीत कितना स्वीकार्य होता है।

आज से कई वर्ष पूर्व मैं अपने सन्यस्त जीवन में साधना के कठोर आयामों से गुजर रहा था, उसी मध्य मुझे भैरवी-साहचर्य का अनुभव मिल सका। संन्यास का मार्ग एक कठोर मार्ग तो होता ही है, साथ ही उसकी कुछ ऐसी जटिलताएं होती हैं, जिसे यदि मैं चाहूं, तो वर्णित नहीं कर सकता, क्योंकि वे भावगत स्थितियां होती हैं, जिन्हें योग की भाषा में आलोडन-विलोडन कहते हैं। संन्यास केवल बाह्य रूप से ही एक कठोर दिनचर्या नहीं है, वरन उससे कहीं अधिक आतंरिक कठोरता की दूःसाध्य स्थिति भी है। कब किस समय गुरुदेव का कौन सा आदेश मिल जाय और बिना किसी हाल-हवाले या ना-नुच के उसे तत्क्षण पूर्ण भी करना पड़े, इसको तो केवल सन्यस्त गुरु भाई-बहन समझ सकते हैं।


भैरवी - भाग २
इसी प्रकार, इसी क्रम में एक दिन मुझे सहसा एक गुरु भाई के द्वारा आज्ञा मिली, कि पूज्य गुरुदेव (निखिलेश्वरानंदजी) ने तत्क्षण एक विशिष्ठ स्थान पर जाने की बात कही है और वहां जाकर एक विशिष्ट साधिका के पास तब तक उसकी अनुज्ञा में रहना होगा, तब तक कि मुझे अगली आज्ञा न मिले। मैंने ऐसा ही किया और दो दिवस बाद एक विशिष्ट स्थान पर पहुंच गया, जहां मुझे किसी विशिष्ट साधिका से भेंट करनी थी।

उस गहन वन-प्रांत में मानों मेरे आने का समाचार किसी दूरसंचार के द्वारा ही पहले पहुंच गया था और एक प्रकार से स्वागत के लिए वह विशिष्ट साधिका पहले से ही तत्पर थी।

- किन्तु यह क्या ??

मैं उसकी वेशभूषा देखकर आश्चर्य से भूमि पर ठोकर खाकर गिरते-गिरते ही बचा। लगभग तीस-पैंतीस वर्ष के एक स्वस्थ एवं प्रायः काली महिला, जो मेरे 'स्वागत' में सामने आयी थी, वह पूर्णतया निर्वस्त्र ही थी ... उसकी सपूर्ण देहयष्टि पर एक आभूषण तक भी नहीं था, जिसे मैं उसके वस्त्र मानकर उसे आच्छादित कल्पित भी कर लेता। मैंने अपने सम्पूर्ण संन्यस्त जीवन में कभी इस प्रकार किसी स्त्री को सर्वथा नग्न नहीं देखा था, अतः मेरे संस्कारों एवं वास्तविकता के मध्य द्वन्द्व उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही था।

कुछ आश्चर्य, कुछ लज्जा और किसी अंश तक जुगुप्सा से भर कर मैंने अपने नेत्र नीचे कर लिए, किन्तु इसके उपरांत भी मेरे मन में वासना का लेशमात्र भी संचार नहीं हो सका था। यह कहकर में अपनी प्रशंसा करने का इच्छुक नहीं हूं, क्योंकि अपनी दृष्टि की स्वछता तो प्रत्येक व्यक्ति अपने मन में जानता ही है।

इसके पीछे उसके व्यक्तित्व का कोई विलक्षण प्रभाव एवं उसके तप की गरिमा का आभामंडल था, इसे स्वीकार करने में मुझे कोई भी संकोच नहीं।

मैं पता नहीं उस दशा में कब तक संकुचित सा खडा रहता, किन्तु उसकी गुरु-गंभीर वाणी से सचेतन हो गया -

'चलो' के संक्षिप्त सम्बोधन से उसने मुझे तर्जनी से एक और इंगित किया और मैं सम्मोहन सा उसका अनुसरण करने लगा। अपने मन के संकोच एवं संस्कारों के द्वन्द्व से उबरने के लिए मैंने वार्तालाप का एक क्रम प्रारम्भ करना चाहा और अपना परिचय देने का प्रयास किया, किन्तु उसके तो कानों में कोई ध्वनि जैसे जा ही नहीं रही थी और में झेंप कर चुप हो गया।

अपने निवास स्थान पर पहुंचकर (जो कि एक छोटी सी झोपडी ही थी) उसने मुझे एक ओर बैठने की आज्ञा दी और चुपचाप भीतर से जाकर एक मिट्टी के पात्र में कोई जंगली साग और किसी जंगली दाने की मोटी-मोटी रोटियों के साथ एक पात्र में जल भी लेती आयी। मेरा हाथ-पांव धुलवा कर उसने मुझे भोजन करने की आज्ञा दी। उसकी प्रत्येक बात संक्षिप्त एवं आज्ञात्मक स्वर में ही संपन्न हो रही थी तथा मैं अपना सारा विज्ञान भूला कर उसकी आज्ञा का बिना किसी चूं-चपड़ के पालन भी करता जा रहा था ...

किन्तु भोजन करने के नाम पर मैं झिझक से भर गया, क्योंकि विगत कई वर्षों से मैं अपना भोजन स्वयं ही बनाता आया था और किसी विशेष परिस्थिति में केवल किसी गुरु भाई के हाथ का बना भोजन ग्रहण करता था।

- क्योंकि स्त्रियों के साथ उनकी शारीरिक शुचिता का एक अनिवार्य लक्षण जुडा ही होता है तथा वर्त्तमान युग में उस विशेष काल में सभी कार्यों से विरत रहना हास्यास्पद माना जाने लगा है। केवल सामान्य स्त्रियां ही नहीं, वरन साधिकाएं भी इस प्रकार की बातों को ढकोसला मानती हैं, जबकि ऐसा उनके प्रति किसी अपमानवश अथवा द्वेषवश नहीं वरन मर्यादावश ही निर्धारित किया गया है।

मेरा संकोच उसके सामने तब एक और ही धरा रह गया, जब उसने थाली को मेरे सामने सरकाते हुए पुनः आज्ञा दी - 'खाओ'।

भैरवी - भाग ३
मैं चुपचाप उस भोजन को ग्रहण करने लगा, जो आश्चर्यजनक रूप से अत्यन्त स्वादिष्ट एवं क्षुधावर्धक था। भोजन प्रारम्भ करने के उपरांत पुनः वही मौन व्याप्त हो गया और इस विचित्र स्थिति से बचने के लिए मैंने जब अपना सर उठा कर कुछ बात प्रारम्भ करनी चाही, तो देखा, कि उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसी तरलता आ गई है, जो कि किसी मां के चेहरे पर अपनी संतान को भोजन कराते सायं आ जाती है और वह स्वयं को ही तृप्त अनुभव करती है। फिर तो वह उसी स्निग्धता से भरी मुझे खिलाती रही और मैं सब कुछ भूलकर पता नहीं कितना अधिक भोजन ग्रहण कर गया।

भोजन के उपरांत उसने उसी झोपडी में एक ओर बीछे पुआल की ओर संकेत कर दिया और मैं दो दिनों की थकान व भोजन से बोझिल होकर उस पर जा गिरा और तत्क्षण ही निद्रा की गोद में चला गया। उस समय सायंकाल की समाप्ति होकर रात्रि का प्रथम प्रहार आरम्भ हो रहा था।

... संभवतः रात्री का मध्य काल रहा होगा, जब मेरी आंख खुली। झोपडी में एक ओर जलती किसी तैलयुक्त जंगली जडी के प्रकाश में पूरी झोपडी ही मंद प्रकाश से आलोकित हो रही थी और एक कोने में वही भैरवी अपने आसन पर मेरी ओर पीठ करके आसीन थी। उसने अपने घने काले केशों को खोलकर पूरी पीठ पर फैला दिया था और आखे बंद कर पता नहीं किस क्रिया में तल्लीन थी।

यहां मैं इस बात का उल्लेख करना चाहूंगा, कि उसकी झोपडी में न कहीं कोई यज्ञकुंड था, न तरह-तरह के फूल बिखरे थे, न कहीं सिन्दूर पुता हुआ था और न ही किसी धुप या लोबान की मादक गंध थी - जैसा कि अनेक साधक 'भैरवी' शब्द सुनकर कल्पित कर लेते हैं। नितांत एक सामान्य गृहस्थ महिला की ही भांति उसका सम्पूर्ण आचरण था, केवल इस अन्तर से, कि वह वस्त्रादि की आवश्यकता से सर्वथा मुक्त थी।

पूज्यपाद गुरुदेव ने कभी बताया था, कि साधना की एक दशा ऐसी भी आ जाती है, कि साधक को स्वयं की देह का बोध ही नहीं रहता और फलस्वरूप वह नग्न ही रहने लग जाता है, कदाचित वह भैरवी उसी का जीता-जागता प्रमाण थी। मुझे पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीमुख से सुनी एक एनी घटना का स्मरण हो आया। घटना यह थी, कि -

महावीर स्वामी कभी अपनी वस्त्रहीनता की स्थिति में कहीं पहुंचे तो लोगों ने उनसे पूछा - 'आप नग्न क्यों हैं?'

उत्तर में उन्होंने कहा - 'नग्न मैं नहीं हूं, आप हैं, क्योंकि आपकी आंखों में 'नग्नता' अनुभव करने का भाव है।'

मैं जितनी बार उस भैरवी को 'नग्न' देखता, उतनी ही बार मुझे पूज्यपाद गुरुदेव की उक्त बात स्मरण आ जाती और मुझे एक तमाचा सा लगता। इन्हीं उहापोहों में मैं पुनः निद्रामग्न हो गया।

दुसरे दिन की प्रातः से मेरे पास कोई भी काम नहीं था, क्योंकि पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा था, कि साधना का अगला क्रम वे वहीं आकर बतायेंगे। कोई गृहकार्य भी नहीं था, फलतः मैं घूमने निकल पडा और प्रकृति के विविध रूपों को निहारता रहा। दोपहर हो जाने पर आकर भोजन किया और पुनः वही घूमना व् प्रकृति को निहारना। रात्रि में पुनः भोजन और विश्राम। धीरे-धीरे यही मेरी दिनचर्या हो गई। मुझे लगने लगा, कि मेरा बचपन ही वापस आ गया है। कोई चिंता नहीं, कोई दायित्व नहीं और धीरे-धीरे मैं पुनः किलकारी मार कर हंसने की अपनी पुरानी आदत में लौट आया।

भैरवी के चेहरे पर निरन्तर बनी रहती एक गरिमामय स्मित मुझे एक अभय देती थी। वह साक्षात मातृस्वरूपा ही थी। मैंने अपने साधक जीवन में ऐसी भी स्त्रियां एवं साधिकाएं देखी थी, जो तथाकथित रूप से नारी सुलभ लज्जा ढोते हुए भी घोर कामुक एवं घृणित लगती थीं दूसरी और यह भैरवी थी, जो पूर्णतया नग्न होते हुए भी गरिमामय और मातृवत थीं। मेरा उससे कोई वार्तालाप नहीं होता था, और ऐसा ही लगता था, कि मैं कोई अबोध शिशु हूं, जो बोलना नहीं सीख पाया हो, इसके उपरांत भी 'संवाद' हो ही जाता था।

भैरवी - भाग ४
मेरे संस्कार यद्यपि प्रबल होते थे। वह 'स्त्री' है मन में ऐसा भी भाव आता था, उसके स्पर्शित भोजन को ग्रहण करने में भी संकोच होता था, किन्तु उसके सामने मैं सब कुछ भूल जाता था। मन में मैंने मान लिया था, कि इस स्थिति में पूज्य गुरुदेव ने ही रखा है, अतः उचित-अनुचित का निर्धारण भी वे ही कर लेंगे और मैं सर्वथा द्वन्द्व रहित हो गया।

इन्हीं दिनों के बीच जब एक दिन मैं कहीं से घूम कर लौटा, तो पाया, कि पूज्यपाद गुरुदेव उस भैरवी के समक्ष विद्यमान हैं और उस दिन उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था, जैसे कोई छः-सात माह की बच्ची अपनी माता को पास पाकर दुबक जाती है। मैंने उन्हें प्रणाम किया और एक ओर हट कर बैठ गया।

दोनों में पता नहीं क्या मूक संभाषण हो रहा था, कि सहसा जैसे कोई सम्मोहन टूटा और पूज्यपाद गुरुदेव की गुरु गंभीर वाणी गूंज उठी- "अच्छा अनुगुज्जनी! मैं इसे लेकर जा रहा हूं।" उसने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और मैं पूज्यपाद गुरुदेव के साथ वापस आ गया।

कई दिनों तक मेरे मन में यह रहस्य बना रहा, कि इस प्रकार मुझे उस भैरवी के सान्निध्य में रखने का पूज्यपाद गुरुदेव का क्या अभिप्राय हो सकता है, किन्तु समझ न सका, अंततोगत्वा मैंने एक दिन साहस करके पूछ ही लिया। उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव के मुख मण्डल पर एक स्निग्ध स्मित छा गई।

उन्होनें बताया- वह वास्तव में श्यामा साधना का प्रथम चरण था और यह अनुभव कराना था, कि स्त्री का एक पक्ष मातृरूपेण भी होता है।

मैंने हलके से प्रतिरोधात्मक स्वर में कहा - "किन्तु गुरुदेव! उन पूर्व के दृढ़ नियमों के उपरांत इतनी बन्धनहीनता? मैंने इतने दिन पता नहीं क्या-क्या भक्ष्य-अभक्ष्य खाया होगा, उसका कैसे प्रायश्चित करूं?"

उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव केवल एक सूत्र बोलकर मौन हो गए - "जब तू पालने में पडा रहता, तो क्या अपनी मां से उसकी शुचिता-अशुचिता का प्रश्न पूछता?"

उनके एक ही वाक्य से मेरे मस्तिक्ष के सभी बंद कपाट खुल गए। यह केवल मातृत्व का अनुभव कराना ही नहीं था, अपितु इस बात का भी बोध कराना था, कि अंततोगत्वा मैं वही अशक्त बालक ही हूं। मैंने तत्क्षण इस बात को स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि पिछले कई दिनों में मैं समझ ही गया था, कि पोषण तो वही जगज्जननी ही करती है, भले ही किसी भी रूप में करे। अतः मन में किसी भ्रम अथवा आचार-विचार का दृढ़ धारण रखने से कोई लाभ नहीं।

पूज्यपाद गुरुदेव के इस सूत्र को आधार बनाकर जब मैंने आत्मविवेचन किया, तो मेरे समक्ष साधना जगत के कई रहस्य इस प्रकार खुलते चले गए, जिस प्रकार किसी ग्रन्थ के पन्ने एक हल्के से स्पर्श से ही खुलते चले जाते हैं। इस गहन आत्मविवेचन के पश्चात मेरे समक्ष उनके चरणों में लौट जाने के अतिरिक्त न तो कोई प्रणाम-मुद्रा थी और न ही अश्रु-प्रवाह के अतिरिक्त कोई पूजन सामग्री। ऐसे अर्ध्य निवेदन के पश्चात जब मैंने उनसे निवेदन किया, कि वे कृपा करके इस ज्ञान को सार्वजनिक क्यों नहीं करते, जिससे अनेक साधक अपने जीवन को धन्य कर सकें, तो उत्तर में उनका पुनः संक्षिप्त वचन था- "मैं किसी नूतन विवाद को जन्म नहीं देना चाहता।"

पूज्यपाद गुरुदेव के इस कथन में वेदना छूपी थे, क्योंकि समाज अपनी आघातकारी प्रवृत्ति के सामने उनके ज्ञान का मूल्यांकन करने की धारणा तक नहीं बना पा रहा है, जिसका और कोई परिणाम हो या न हो, किन्तु साधना के अनेक रहस्य, अनेक भावभूमियां लुप्त हो जायेंगी, इसका ही खेद है। जब उनकी सामान्य क्रियायों पर ही आलोचना-प्रत्यालोचना की बाढ़ आती रहती है, तो इस प्रकार की क्रियायों का सार्वजनकीकरण करने पर तो पता नहीं क्या-क्या आरोप लग जायेंगे! महावीर स्वामी की वाणी में कहें, तो सत्य यही है, कि नग्न तो समाज है।"

मुझे एक घटना याद आती है, कि जब वर्ष १९९० में वाराणसी नगर में महाशिवरात्रि पर्व का आयोजन एवं शिविर लगा था, तब वहां के कुछ बुद्धिजीवियों ने कैसा विरोध प्रकट किया था। यज्ञ स्थल को घेर कर प्रदर्शन, गुरुदेव के निवास स्थान पर जाकर अपशब्द कथन एवं धमकियों के बाद भी जब वे साधना शिविर को भंग करने में असफल रहे, तो उन्होनें स्थानीय अखबारों का सहारा लिया, जिसमें अत्यन्त अश्लील भाषा में जो कुछ छापा, उसे मैं यहां वर्णित कर ही नहीं सकता। यह वही नगर है, जिसने युगपुरुष परमहंस स्वामी विशुध्वानन्द जी पर वेश्यागामी होने तक का आरोप लगाया था।

किन्तु यह भी सत्य है, कि समाज जब तक भैरवी साधना या श्यामा साधना जैसी उच्चतम साधनाओं की वास्तविकता नहीं समझेगा, तब तक वह तंत्र को भी नहीं समझ सकेगा, तथा, केवल कुछ धर्मग्रंथों पर प्रवचन सुनकर अपने आपको बहलाता ही रहेगा।

पूज्यपाद गुरुदेव की आज्ञा को ध्यान में रखकर इसी कारणवश मैं भैरवी साधना की पूर्ण एवं प्रामाणिक साधना विधि प्रस्तुत करने में असमर्थ हूं, किन्तु मेरा विश्वास है, कि कुछ साधक ऐसे होंगे ही, जो साधना के मर्म को समझते होंगे तथा व्यक्तिगत रूप से आगे बढकर उन साधनाओं को सुरक्षीत कर सकेंगे, जो हमारे देश की अनमोल थाती हैं।

साधनाएं केवल साधकों के शरीरों के माध्यम से संरक्षित होती है, उन्हें संजो लेने के लिए किसी भी कैसेट या फ्लापी या डिस्क न तो बन सकी है, न बनेगी। आशा है, गंभीर साधक इस बात को विवेचानापूर्वक आत्मसात करेंगे।

- एक शिष्य
-मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका, अप्रैल १९९६

shiv shakti sadhana part1

साधना मंत्र और सफलता भाग ४

हमारे जीवन मैं बहुत से साधना का ज्ञान मिला पर फिर भी असफलता मिली तो हम निराश हो जाते और पर आपने कमी को हम पहचान नहीं सके कमी बस प्रयास मैं थी मंत्र और साधना मैं कमी नहीं थी , आप के पूर्व जन्म के पाप दोस इतने जादा हो सकते है की आप को सफलता तो मिला पर वो सफलता आप के क़र्ज़ रूपी पाप दोस मैं ख़तम करने मैं चला जाता है। जिस से आप को लगता है कुच्छ मिला नहीं एस साधना से ..

जीवन मैं सफल वही हो सका है जिस ने प्रयास किया है। .
गुरु पूजन कर आप गुरु मंत्र जाप करे गायत्री मंत्र चेतना मंत्र जाप के बाद

१/२ घंटे जाप करे रुदाक्ष की माला से kare। . ये साधना आप पारद शिव लिंग पर पूजा कर
जाप करे तो आप की हर मनोकामना सहित अजर अमर भी बन सकते है। .
ये शिव शक्ति का गोपनीय मंत्र जिस के जाप से पाप समाप्त होता ही है साथ मैं मनोकामना भी पुण्य होता है.

दिशा उतर १/२ घंटे जाप करे रुदाक्ष की माला ,आज्ञा चक्र ध्यान कर जाप करे २१ दिन या ४० दिन तक उस के बाद इसी मंत्र से १/२ घंटे तक इसी मंत्र हवन कर लिया जाये तो १००% उस के भाग्य खुल जाते है। .

ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं !

ये साधना गुरु के आज्ञा के अनुसार करना चहिये। . नहीं तो  शक्ति के आ जाने आप आपना ही अहित कर लेगे। 

Goddess Saraswati Ji sadhana will grace full Holi


माँ सरस्वती जी कृपा करेगी होली के दिन....
विद्यार्थी जीवन काल मे माँ सरस्वती जी के साबर मंत्र का साधना करनेसे उत्तम फल का प्राप्ति होता है,इस साधना से साधक को जहा माँ का आशीष मिलता है वही मेधा शक्ति का वृद्धि भी होता है॰एक बात हमेशा याद रखना जरूरी है “मंत्र कभी भी निष्फल नहीं होते है,निष्फलता तो साधक के अविश्वास उसे से मिलता है”॰
होली के रात्रि मे माँ सरस्वती जी के चित्र का पंचोपचार पूजन कर निम्न मंत्र का ११,००० बार जाप करे,मंत्र सिद्ध हो जायेगा॰मंत्र सिद्धि के बाद सुबह सूर्योदय से पूर्व तुलसी के २-३ पत्ते शुद्ध जल मे डालकर उसपर ११ बार मंत्र उच्चारण करके जल मे ३ फूँक लगाये और जल को ग्रहण कर लीजिये साथ ही पत्ते भी चभा लीजिये येसा २१ दिन करना आवश्यक है॰
मंत्र:-
॥ ॐ नम: भगवती सरस्वती परमेश्वरी वाग-वादिनी । मम विद्यां देहि,भगवती हंस-वाहिनी समारूढ़ा । बुद्धिं देहि देहि,प्रज्ञां देहि देहि,विद्यां देहि देहि । परमेश्वरी सरस्वती स्वाहा ॥

इस साधना के बहोत सारे लाभ है,आप जो कुछ भी पढ़ोगे उसे भूल नहीं सकते,चमेली के पुष्प से शुक्रवार के दिन पूजन कर चमेली के तेल का दिया लगाये और ढाई दिन तक दिया जलते रहेना चाहिये साथ ही उस स्थान पर बैठे राहिये परंतु सफ़ेद वस्त्र पर कलश स्थापना भी आवश्यक है,येसा विधान करने पर माँ साधक को वरदान स्वरूप सभी विद्या का ज्ञान प्रदान करती है॰

Guru Paduka Stotram By Bhagawat Pada Adi Sankara

Guru Paduka Stotram By Bhagawat Pada Adi Sankara

जीवन मैं गुरु पादुका पूजन का बहुत ही महत्व है , एस साधना से गुरु साधक व् शिस्य के घर पर आते है जिस शिस्य कि सभी मनोकामना पुण्य हो जाती है ,,

अनंत संसार समुद्र तार नौकयीताभ्याम गुरुभक्तीदाभ्याम
वैराग्य साम्राज्यद पूजनाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 1
कवित्व वाराशी निशाकराभ्याम दौर्भाग्य दावाम्बुद मालीकाभ्याम
दुरी कृता नम्र विपत्तीताभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 2

नता ययोहो श्रीपतीताम समियुः कदाचीदप्याषु दरिद्र्यवर्याहा
मूकाश्च वाचस्पतीताहिताभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 3
नालिक नीकाश पदाह्रीताभ्याम ना ना विमोहादी निवारीकाभ्याम
नमत्ज्ज्नाभिष्ट ततीप्रदाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 4
नृपाली मौली व्रज रत्न कांती सरीत द्विराजत झशकन्यकाभ्याम
नृपत्वादाभ्याम नतलोकपंक्तेहे नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम ||5
पापान्धाकारार्क परम्पराभ्याम त्राप त्रयाहीन्द्र खगेश्वराभ्याम
जाड्याब्धी समशोषण वाडवाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 6
श्मादी षटक प्रदवैभवाभ्याम समाधी दान व्रत दिक्षिताभ्याम
रमाधवाहीन्ग्र स्थिरभक्तीदाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 7
स्वार्चापराणाम अखीलेष्टदाभ्याम स्वाहा सहायाक्ष धुरंधराभ्याम
स्वान्तच्छभाव प्रदपूजनाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 8
कामादिसर्प व्रज ग़ारुडाभ्याम विवेक वैराग्य निधी प्रदाभ्याम
बोधप्रदाभ्याम द्रुत मोक्षदाभ्याम नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम || 9

Using specific short sadhana on Holi

होली पर विशिष्ट लघु प्रयोग :
होली की रात्रि (जिस रात्रि होली में अग्नि लगाई जाती )साधकों और तांत्रिकों के लिए तो महत्वपूर्ण होती ही है परंतु आम व्यक्तियों के लिए भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती ,क्योंकि इस दिन व्यक्ति अपनी बहुत सी या किसी भी समस्या का निदान साधनाओं या छोटे-छोटे प्रयोगों द्वारा कर सकता है | साधनाएँ बहुत लंबी होती हैं ,हर व्यक्ति के पास इतना समय नहीं होता कि ज़्यादा समय साधनाओं में दे सके.हालाँकि इस दिन की गयी 1 माला का प्रभाव लगभग 100 माला के बराबर होता है,इसलिए साधक और तांत्रिक लोग इस मुहूर्त का बहुत बेसब्री से इंतज़ार करते हैं,जिस से कम श्रम में लंबी साधनाएँ भी सिद्ध कर सकें |यहाँ हम कुछ ऐसे ही लघु प्रयोग देने जा रहे हैं ,जिनके द्वारा सामान्य व्यक्ति भी अपने दैनिक जीवन में आने वाली कई समस्याओं का स्माधान खुद कर सकते हैं,बस ज़रूरत है,श्रद्धा और विश्वास से इन लघु प्रयोगों को करने की |
मूल या बेसिक प्रयोग :
होलिका दहन की रात्रि में ,दहन के समय घर का प्रत्येक सदस्य होलिका को शुद्ध घी भिगोकर 2 लौंग ,1 बताशा और एक पान का पत्ता (डंडी सहित) अर्पित करे ,होली की 11 परिक्रमाएँ करें, 1 सूखा नारियल भी अर्पित करें ,परिक्रमा करते समय नये अनाज (जौ या गेहूँ के दाने)भी बाली सहित होलिका अग्नि को समर्पित करते रहें,कुंकुम,गुलाल और प्रसाद आदि अर्पित करें |
यदि आप घर पर भी होलिका दहन करते हैं तो मुख्य होली में से एक जलती लकड़ी घर पर लाकर नवग्रह की लकड़ियों (जो आजकल पूजा की दुकानों पर भी मिल जाती हैं) एवं गाय के गोबर से बने उपलो (गोबर से कहीं- कहीं बल्ग़ुरियाँ भी लोग बनाकर उपलो की जगह जलाते हैं)से घर पर होली प्रज्ज्वलित करना चाहिए |और ऊपर जो प्रयोग किया है ,उसे मुख्य होली पर ना करके घर पर भी कर सकते हैं,घर का प्रत्येक सदस्य शुद्ध घी में भिगोकर 2 लौंग,1 बताशा ,और पान का एक पत्ता ,और एक सूखा नारियल अर्पित करें, और फिर 11 परिक्रमाएँ होली की घर के सभी सदस्य करें |ये मूल प्रयोग है|
प्रयोग 1.ग्रह दोष निवारण के लिए:
यदि आपको कोई ग्रह पीड़ित कर रहा है तो होलिका दहन के अगले दिन होली की थोड़ी सी राख लाकर(ठंडी होने के बाद)अपने शरीर पर पूरी तरह (तेल की तरह)मल लें,और 1 घंटे बाद गरम पानी से स्नान कर लें,आप ग्रह पीड़ा से तो मुक्त होंगे ही,साथ ही यदि आप पर किसी ने अभिचार-प्रयोग कोई किया है ,तो आप उस से भी मुक्त हो जाएँगे |
ऐसा करना संभव ना हो तो होली के बाद किसी भी सर्वार्ट सिद्धि योग जिस दिन पड़ता हो,उस दिन होली की राख को बहते जल या किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दें,आप ग्रह बाधा से मुक्त हो जाएँगे |
प्रयोग 2.शनि दोष समाप्त करने के लिए :
यदि शनि ग्रह के कारण आपको परेशानियाँ आ रही हैं ,या कार्यों में व्यवधान आ रहा है ,तो होली वाले दिन,होलिका दहन के समय काले घोड़े की नाल या शुद्ध लोहे का छल्ला बनवाकर होली की 2 परिक्रमाएँ करने के बाद होलिका अग्नि में डाल दें |दूसरे दिन होली की अग्नि शांत होने उस छल्ले को निकाल कर ले आएँ |उस छल्ले को कच्चे दूध (गाय का हो,तो बेहतर) एवं शुद्ध जल में धोकर शनिवार के दिन सायंकाल या शनि की होरा में दाहिने हाथ की मध्यमा अंगुली में शनि देव जी का मंत्र पढ़ते हुए धारण कर लें|आपकी परेशानियाँ और व्यवधान धीरे- धीरे दूर हो जाएँगे |
प्रयोग 3.आर्थिक समस्या से मुक्ति के लिए :
यदि आप किसी तरह की आर्थिक समस्या से ग्रस्त हैं,तो होली की रात्रि में चाँद निकलने के बाद अपने निवास की छत पर आ जाएँ | चंद्र देव का स्मरण कर शुद्ध घी के दीपक के साथ धूप ,अगरबत्ती आदि अर्पित कर कोई भी सफेद रंग का प्रसाद (दूध या मावे से बनी कोई मिठाई) तथा साबूदाने की खीर अर्पित करें ,और अपने निवास स्थान सुख -शांति के साथ-साथ स्थाई आर्थिक समृद्धि के लिए प्रार्थना करें |बाद में प्रसाद को बच्चों में बाँट सकते हैं |कुछ समय बाद आप स्वयं अनुभव करेंगे कि आपकी आर्थिक समस्याएँ कम होकर लाभ की स्थिति बन रही है ,और उत्तरोत्तर यह आपको ये सुख -समृद्धि के द्वार तक ले जाएगी |इस उपाय को प्रत्येक पूर्णिमा को किया जा सकता है |
प्रयोग 4.आर्थिक समस्या का स्थाई समाधान ;
इस उपाय को अगर होली की रात कर लिया जाए तो इसके प्रभाव से आप कभी भी आर्थिक समस्या में नहीं आएँगे |इसके लिए होली की रात्रि में सबसे पहले अपने घर या व्यावसायिक प्रतिष्ठान में शाम को सूर्यास्त होने के पूर्व दिया-बत्ती अवश्य करें |घर या प्रतिष्ठान की सारी लाइट जला दें| घर के पूजा स्थल के सामने खड़े होकर लक्ष्मी जी का कोई भी मंत्र 11 बार मानसिक रूप से जपें |फिर घर या प्रतिष्ठान की कोई भी कील लाकर ,जिस स्थान पर होली जलनी है ,वहाँ की मिट्टी में दबा दें |इस उपाय से आपके घर/प्रतिष्ठान में किसी भी तरह की नकारात्मक शक्ति का प्रवेश नहीं होगा और आप आर्थिक संकट में भी कभी नहीं आएँगे |
विशेष :- यदि ये करना संभव ना हो तो आप इसे इस तरह भी कर सकते हैं कि होली की रात्रि ,होली जलने के बाद आप बनने वाली थोड़ी गर्म राख घर ले आएँ,फिर घर के मुख्य द्वार के अंदर की तरफ ज़मीन पर कील रख कर उसके ऊपर होली की राख डाल दें और ऊपर से किसी चीज़ से ढक दें |दूसरें दिन कील को उपरोक्त विधि के अनुसार प्रयोग करें और राख को जल में प्रवाहित कर दें |इस से भी आपको उपरोक्तानुसार समुचित लाभ प्राप्त होगा |
प्रयोग 5.बार- बार आर्थिक हानि रोकने के लिए :
होलिका दहन की शाम को अपने मुख्य द्वार की चौखट पर दो मुखी आटे का दीपक बनाकर ,चौखट पर थोड़ा सा गुलाल छिड़क कर ,दीपक जलाकर उस पर रख दें | दीपक जलाते समय मानसिक रूप से अपनी आर्थिक हानि रोकने की प्रार्थना ईश्वर से करें|दीपक ठंडा हो जाने पर उसे जलती होलिका अग्नि में डाल दें |
प्रयोग 6.तंत्र -बाधा निवारण के लिए :
अगर आपको ऐसा लगता है कि किसी व्यक्ति ने आप पर या परिवार के किसी सदस्य पर कोई बड़ा तंत्र -प्रयोग करवाया है ,तो मूल प्रयोग को करने के साथ थोड़ी मिश्री भी होलिका अग्नि में समर्पित करें | अगले दिन होली की राख लाकर ,चाँदी के ताबीज़ में भर कर लाल या पीले धागे में ,गले में धारण करें /करवाएँ |
प्रयोग 7.रुके /फँसे धन की प्राप्ति के लिए :
यदि आपके धन को कोई व्यक्ति वापिस नहीं कर रहा है ,तो जिस दिन होलिका दहन होना है ,उस दिन होली जलने वाले स्थान पर जाकर ,उस स्थान पर अनार की लकड़ी की कलम से उस व्यक्ति का नाम लिख कर ,होलिका माता से अपने धन की वापसी की प्रार्थना करते हुए उसके नाम पर हरा गुलाल इस प्रकार छिड़क दें ,जिस से पूरा नाम गुलाल से ढक जाए,अर्थात नाम दिखाई ना दे | इस उपाय के बाद कुछ ही समय में वो आपके धन को वापिस कर देगा |
प्रयोग 8.आजीविका/नौकरी प्राप्ति के लिए :
होली की रात्रि में काले तिल के 21 दाने दाहिने हाथ में लेकर होलिका दहन के पूर्व 8 परिक्रमा करें,परिक्रमा करते समय निम्न मंत्र का मानसिक जप करते रहें---
मंत्र :--"ॐ फ्राँ फ़्रीं सः |"
जब परिक्रमा पूर्ण हो जाए ,तो काले तिलों को चाँदी के ताबीज़ में भर कर होली की रात्रि को ही गले में धारण कर लेने से नौकरी में आने वाले व्यवधान दूर होते हैं |इंटरव्यू में भी ये पहन कर जाएँ,सफलता मिलेगी |
प्रयोग 9.शत्रु -बाधा निवारण के लिए :
होली की रात्रि में काँसे की थाली में कनेर के 11पुष्प तथा गूगल की 11 गोलियाँ रख कर जलती हुई होली में नीचे दिए मंत्र को पढ़ते हुए जलती होलिका में डाल दें -------
मंत्र :-"ॐ हृीं हुम फट .|"
प्रयोग 10.शत्रुता दूर करने के लिए :
होलिका दहन की दूसरी रात्रि को 12 बजे के बाद अनार की कलम से होली की राख में शत्रु का नाम लिखें और बाएँ हाथ से मिटा दें पुनः उसी स्थान पर एक उर्ध्व मुखी त्रिकोण बनाकर उसके बीच में "हृीं" लिख कर यंत्र बनाएँ.उसके बाद वहाँ से कुछ राख लेकर वापस आ जाएँ |ये राख शत्रु के सिर पर डालते ही उसकी शत्रुता समाप्त हो जाएगी |
प्रयोग 11.धन- प्राप्ति के लिए :
आर्थिक कष्ट दूर करने के लिए होली वाले दिन कमलगट्टा की माला लेकर होली की परिक्रमा करते हुए निम्न श्री यंत्र के मंत्र को 108 बार जप करें---
मंत्र :- "ॐ श्रीं हृीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद: प्रसीद: श्रीं हृीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्ये नमः |"
मंत्र जप पूर्ण होने पर माला पहन कर होली के समीप गॉ-घृत का दीपक जलाकर घर लौट आएँ,फिर एक माला नित्य इस मंत्र की करते रहें |जल्दी ही धन-प्राप्ति के योग बनेंगे |
प्रयोग 12.स्वास्थ्य लाभ के लिए :
होलिका दहन के समय होली की 11 परिक्रमा करते हुए निम्न मंत्र का जप मन ही मन में करना चाहिए ----
मंत्र :---"देहि सौभाग्यम आरोग्यम ,देहि में पर मम सुखम |
रूपम देहि ,जयम देहि ,यशो देहि ,द्विशो जहि ||"
होली के बाद नित्य प्रातः इस मंत्र का कम से कम 11 बार अवश्य जप करें |
प्रयोग 13.तंत्र-बाधा (अभिचार-कर्म) निवारक प्रयोग :
होली की रात्रि में या किसी अन्य सिद्ध मुहूर्त में लकड़ी के बाजौट (चौकी) पर लाल वस्त्र बिछाकर ,उस पर तांबे के पात्र में जल भर कर ,पान का एक पत्ता उसमें डाल कर रख दें |तांबे के पात्र को काले तिल की ढेरी पर स्थापित पर,सरसों के तेल का दीपक जला लें |फिर निम्न मंत्र की 21 माला जप कर तांबे के पात्र में रखे जल को अभिमंत्रित कर ,पूरे घर में पान के पत्ते से छिड़काव करें |
जल की कुछ मात्रा घर का प्रत्येक सदस्य ग्रहण करे तो तंत्र-बाधा शांत होती है |
मंत्र :-"ॐ आं हृीं क्रों ऐन्ग "
काले तिलों को शनिवार के दिन बहते जल में विसर्जित कर दें |
प्रयोग 14.धन-सन्चय करने के लिए :
धन-सन्चय के लिए होली के दिन कौड़ी का पूजन का पूजन कर लाल वस्त्र में बाँध कर किसी अलमारी या संदूक में रख दें | इस दिन जो व्यक्ति कौड़ी अपने पास रखता है,उसे वर्ष भर आर्थिक अनुकूलता बनी रहती है |
जय ...... सदगुरुदेव | by Mukesh Saxena

red fort delhi is the real name of redcoat

लालकिला का का असली नाम लालकोट है----
जैसे ताजमहल का असली नाम तेजोमहालय है और क़ुतुब मीनार का असली नाम विष्णु स्तम्भ है वैसे ही यह बात भी सत्य है|
- अक्सर हमें यह पढाया जाता है कि दिल्ली का लालकिला शाहजहाँ ने बनवाया था| लेकिन यह एक सफ़ेद झूठ है
और इतिहासकारों का कहना है की वास्तव में लालकिला पृथ्वीराज ने बारहवीं शताब्दी में पूरा बनवाया था जिसका नाम “लाल कोट “था जिसे तोमर वंश के शासक ‘अनंग पाल’ ने १०६० में बनवाना शुरू किया था |महाराज अनंगपाल तोमर और कोई नहीं बल्कि महाभारत के अभिमन्यु के वंशज तथा महाराज पृथ्वीराज चौहान के नाना जी थे.
इसका प्रमाण >
तारीखे फिरोजशाही के पृष्ट संख्या 160 (ग्रन्थ ३) में लेखक लिखता है कि सन 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल ( लाल प्रासाद/ महल ) कि ओर बढ़ा और वहां उसने आराम किया.
>अकबरनामा और अग्निपुराण दोनों ही जगह इस बात के वर्णन हैं कि महाराज अनंगपाल ने ही एक भव्य और आलिशान दिल्ली का निर्माण करवाया था.
> शाहजहाँ से 250 वर्ष पहले ही 1398 ईस्वी में तैमूरलंग ने भी पुरानी दिल्ली का उल्लेख किया हुआ है (जो कि शाहजहाँ द्वारा बसाई बताई जाती है).
- लाल किले के एक खास महल मे वराह के मुँह वाले चार नल अभी भी लगे हुए हैं क्या शाहजहाँ सूअर के मुंह वाले नल को लगवाता ? हिन्दू ही वराह को अवतार मान कर पावन मानते है|
- किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है क्योंकि राजपूत राजा गजो (हाथियों) के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे जबकि इस्लाम जीवित प्राणी के मूर्ति का विरोध करता है|
- लालकिला के दीवाने खास मे केसर कुंड नाम से एक कुंड भी बना हुआ है जिसके फर्श पर हिंदुओं मे पूज्य कमल पुष्प अंकित है| साथ ही ध्यान देने योग्य बात यह है कि केसर कुंड एक हिंदू शब्दावली है जो कि हमारे राजाओ द्वारा केसर जल से भरे स्नान कुंड के लिए प्राचीन काल से ही प्रयुक्त होती रही है|
- गुंबद या मीनार का कोई अस्तित्व तक नही है लालकिला के दीवानेखास और दीवानेआम मे| दीवानेखास के ही निकट राज की न्याय तुला अंकित है \ ब्राह्मणों द्वारा उपदेशित राजपूत राजाओ की न्याय तुला चित्र से प्रेरणा लेकर न्याय करना हमारे इतिहास मे प्रसिद्द है|
- दीवाने ख़ास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 ईस्वी के अंबर के भीतरी महल (आमेर/पुराना जयपुर) से मिलती है जो कि राजपूताना शैली मे बना हुई है|
आज भी लाल किले से कुछ ही गज की दूरी पर बने हुए देवालय हैं जिनमे से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकर मंदिर है जो कि शाहजहाँ से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं के बनवाए हुए है|
- लाल किले के मुख्य द्वार के फोटो में बने हुए लाल गोले में देखिये , आपको अधिकतर ऐसी अलमारियां पुरानी शैली के हिन्दू घरो के मुख्य द्वार पर या मंदिरों में मिल जायंगी जिनपर गणेश जी विराजमान होते हैं |
- और फिर शाहजहाँ ने एक भी शिलालेख मे लाल किले का वर्णन तक नही किया है|

Friday, February 14, 2014

You are born, it is not untoward

तुम्हारा जन्म हुआ,यह कोई अनहोनी घटना नहीं है |
इसमे कोई विशेषता भी नहीं है | 
यह तो एक मामूली स्त्री-पुरूष के मिलन की क्रिया है और तुमने जन्म ले लिया इसमे कोई परिवर्तन नहीं आया, परिवर्तन तब आएगा जब तुम किसी सद्गुरू से टकराओ और गुरू तुम्हे उच्च्ता की और ले जाने वाले मार्ग पर अग्रसर कर दे | जैसे बादल हिमालय से टकराये और बरस कर पृ्थ्वी को हरा-भरा कर दे-सद्गुरूदेव परम हंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी महाराज ||

Gurorastakam गुरोरष्टकं

गुरोरष्टकं

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं, यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 1 ॥
कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं, गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 2 ॥
षड़ङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या, कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 3 ॥
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः, सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 4 ॥
क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः, सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 5 ॥
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्, जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 6 ॥
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ, न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 7 ॥
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये, न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 8 ॥

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही, यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही ।
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसञ्ज्ञं, गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ॥ 9 ॥

Lalitha Sahasranamam Full (Stotra & Meaning)


न्यासः


अस्य श्री ललिता सहस्रनामस्तोत्र महा मंत्रस्य

वसिन्यदिवग्देवतर्सायः

अनुस्तुप चंदः

श्रीललित परमेश्वरि देवत

श्रिमद्वाग्भावकुतेटि बीजं

मध्यकुतेटि सक्तिह

सक्तिकुतेटि कीलकं

श्री ललिता महा त्रिपुरसुंदरि प्रसदसिद्धिद्वार

सिन्तितफलवप्त्यर्ते जपे विनियोगः


ध्यानं


सिन्दुररुन विग्रहं त्रिनयनं माणिक्य मौलि स्पुरत

तार नयगा सेकरं स्मित मुखि मापिन वक्षोरुहं,

पनिभयं अलिपूर्ण रत्न चषकं रक्तोत्पलं विभ्रतीं,

सौम्यं रत्न गतस्त रक्त चरणं, ध्यायेत परमंबिकं.


अरुणं करुण तरंगितक्सिं दर्त पसंकुस पुष्प बनकापं

अनिमदिभिरव्र्तं मयुखैरहमित्येव विभावये भवानीं


द्यायेत पद्मसनस्तं विकसित वदनं पद्म पत्रयतक्षिं,

हेमभं पीतवस्त्रं करकलित-लसदेम पद्मं वरंगिं,

सर्वलन्गर युक्तं सततं अभायडं भक्त नम्रं भवानीं.

श्रिविद्यं संतमुतिं सकल सुरनुतं सर्व संपत प्रधत्रिं.


सकुन्कुमविलेपनमलिकसुम्बिकस्तुरिकं

समंदहसितेक्सनं ससरकापपसंकुसं

असेसजनमोहिनिं अरुनमल्यभुसंबरं

जपकुसुमभासुरं जपविधु स्मरेडंबिकं


स्तोत्रं


श्रीमत श्री महाराज्ञि श्री मत सिमसनेश्वरि

चिदग्नि कुंड संबूत देव कार्य समुद्यत

उद्यत भानु सहस्रभ चडुर बहु समन्विध

राघ स्वरूप पसद्य क्रोधकरंकुसोज्वाल

मनो रुपेषु कोदंड पंच तन मात्र सायक

निजरुन प्रभ पूरा मज्जत ब्रह्मांड मंडल


चंपकसोक – पुन्नाग-सौगंधिक-लसत कच

कुरु विनड मनि – श्रेणि-कणत कोटिर मंदित

अष्टमि चंद्र विभ्राज – धलिक स्थल शोभित

मुक चंद्र कलन्कभ म्रिगानभि विसेशक

वादन समर मांगल्य गरिह तोरण चिल्लक

वक्त्र लक्ष्मि –परिवाह-चलन मीनभ लोचन


नव चंपक –पुष्पभ-नासा दंड विराजित

तार कांति तिरस्करि नसभारण भासुर

कडंभ मंजरि क्लुप्त कर्ण पूरा मनोहर

तदंग युगलि भूत तपनोडुप मंडल

पद्म रागा सिल दर्श परिभाविक पोलभु

नव विद्रुम बिम्भ श्री न्याक्करि रत्न च्चद


शुद्ध विद्यन्गुराकर द्विज पंग्ति द्वायोज्जल

कर्पूर वीडि कमोध समकर्श दिगंदर

निज सल्लभ माधुर्य विनिर्भार्दिस्ता कच्चाभि

मंदस्मित प्रभ पूरा मज्जट कामेष मानस

अनकलिध सद्रुष्य चिबुक श्री विराजित

कामेष बद्ध मांगल्य सूत्रा शोबित कंधर


कन्कंगाध केयूर कमनीय बुजन्विध

रत्न ग्रैवेय चिंतक लोल मुक्त फलन्वित

कामेश्वर प्रेम रत्न मनि प्रति पान स्तानि

नभ्याल वल रामलि लता फल कुछ द्वयि

लक्ष्य रोम लता धारत समुन्नेय मध्यम

स्थान भर दलान मध्य पट्टा भंद वलित्रय


अरुनरुन कुसुंब वस्त्र भास्वाट कटि ताटि

रत्न किन्किनिक रम्य रसन धम भूषित

कामेष गनत सौभाग्य मर्द्वोरु द्वायन्वित

मनिख्य मुकुट कर जानू द्वय विराजित

इंद्र कोप परिक्षिप्त स्मरतुनभ जन्गिक

कूडा गुल्प्ह कूर्म प्रष्ट जयिश्नु प्रपदंविध


नाकदि दिति संचान्न नमज्जन तमोगुण

पद द्वय प्रभ जल परक्रुत सरोरुह

सिन्चन मनि मंजीर मंदित श्री पमंबुज

मरलि मंद गमन महा लावण्य सेवदि

सर्वरुन अनवध्यंगि श्र्वभारण भूषित

शिवकमेस्वरंगास्त शिव स्वाधीन वल्लभ


सुम्मेरु मध्य श्रिन्गास्त श्रीमान नगर नायिका

चिंतामणि ग्रिहन्तस्त पंच ब्रह्मसन स्थित

महा पद्म द्वि संस्थ कडंभ वन वासिनि

सुधा सागर मध्यस्थ कामाक्षि कमधयिनि

देवर्षि गण-संगत-स्तुयमनत्म-वैभव

भंडासुर वदोद्युक्त शक्ति सेन समवित


संपत्कारि समरूड सिंधूर व्रिज सेवित

अस्वरूददिशिदस्व कोडि कोडि बिरव्रुत

चक्र राज रथ रूड सर्वायुध परिष्क्रिध

गेय चक्र रथ रूड मंत्रिनि परि सेवित

गिरि चक्र रातरूड दंड नाथ पुरस्क्रुत

ज्वलिमालिक क्सिप्त वंहि प्रकार मध्यक


भंड सैन्य वदोद्युक्त शक्ति विक्रम हर्षित

नित्य परकमतोप निरीक्षण समुत्सुक

बंड पुत्र वदोद्युक्त बाल विक्रम नंदित

मंत्रिन्यंब विरचित विशंगावत दोषित

विशुक प्राण हरण वाराहि वीएर्य नंदित

कामेश्वर मुकलोक कल्पित श्री गनेश्वर


महागानेश निर्भिन्न विग्नयन्त्र प्रहर्शित

बंड सुरेंद्र निर्मुक्त साष्ट्र प्रत्यस्त्र वर्षानि

करंगुलि नखोत्पन्न नारायण दासकृति

महा पसुपतस्त्रग्नि निर्दाग्धसुर सैनिक

कामेश्वरस्त्र निर्दग्ध सबंदासुर सुन्यक

ब्र्ह्मोपेंद्र महेन्द्रदि देव संस्तुत वैभव


हर नेत्रग्नि संदग्ध कामा सन्जेवनौशधि

श्री वाग्भावे कूडैगा स्वरूप मुख पंकज

कंटत काडि पर्यंत मध्य कूडैगा स्वरूपिणि

शक्ती कूडैगा तपनन कद्यतो बागा दारिनि

मूल मंत्रत्मिख मूल कूडा त्रय कलेभर

कुलंरुतैक रसिक कुल संकेत पालिनि


कुलंगन कुलन्तस्त कुलिनि कुल योगिनि

आकुल समयन्तस्त समयचर तट पर

मोलधरैक निलय ब्रह्म ग्रंधि विभेदिनि

मनि पूरंतरुदित विष्णु ग्रंधि विबेधिनि

आज्ञ चकरंतरलस्त रुद्रा ग्रंधि विभेदिनि

सहररंभुजरूड सुधा सरभि वर्षिनि


तदिल्लत समरुच्य षड चक्रोपरि संशित

महा स्सक्त्य कुंडलिनि बिस तंतु तनियासि

भवानि भावन गम्य भावरनी कुदरिगा

भद्र प्रिय भद्र मूर्ति भक्त सौभाग्य दायिनि

भक्ति प्रिय भक्ति गम्य भक्ति वस्य भयपः

संभाव्य सरधरद्य सर्वाणि सर्मधयिनि


संकरि श्रीक्रि साध्वि शरत चंद्र निभानन

सतो धरि संतिमति निरादर निरंजन

निर्लेप निर्मल नित्य निराकर निराकुल

निर्गुण निष्कल संत निष्काम निरुप्पल्लव

नित्य मुक्त निर्विकार निष्प्रपंच निराश्रय


नित्य शुद्ध नित्य भुद्ध निरवद्य निरंतर

निष्कारण निष्कलंक निरुपाधि निरीश्वर

नीरगा राघ मदनि निर्मध माधनसिनि

निश्चिंत निरहंकर निर्मोह मोहनसिनि

निर्ममा ममत हंत्रि निष्पाप पापा नाशिनि

निष्क्रोध क्रोध–सामानि निर लोभ लोभ नसिनि


निस्संसय संसयग्नि निर्भव भाव नसिनि

निर्विकल्प निरभाध निर्भेद भेद नसिनि

निरनस म्रित्यु मदनि निष्क्रिय निष्परिग्रह

निस्तुल नील चिकुर निरपाय निरत्याय

दुर्लभ दुर्गम दुर्ग

दुक हंत्रि सुख प्रद

दुष्ट दूर दुराचार सामानि दोष वर्जित


सर्वंग्न सांद्र करुण समानाधिक वर्जित

सर्व शक्ति मयि सर्व मंगल सद्गति प्रद

सर्वेश्वरि सर्व मयि

सर्व मंत्र स्वरूपिणि


सर्व यन्त्रत्मिक सर्व तंत्र रूप मनोन्मनि

माहेश्वरि महा देवि महा लक्ष्मि मरिद प्रिय

महा रूप महा पूज्य महा पतक नसिनि

महा माय महा सत्व महा शक्ती महा रति


महा भोग महैश्वर्य महा वीर्य महा बाल

महा भुदि महा सिदि महा योगेस्वरेस्वरि

महातंत्र महामंत्र महायंत्र महासन


महा यागा क्रमराध्य महा भैरव पूजित

महेश्वर महाकल्प महा तांडव साक्षिनि

महा कामेष महिषि महा त्रिपुर सुंदरि


चतुस्तात्युपचारद्य चातु सष्टि कल मयि

महा चतुसष्टि कोडि योगिनि गण सेवित

मनु विद्य चंद्र विद्य चंद्र मंडल मध्यगा

चारु रूप चारु हस चारु चंद्र कालधर

चराचर जगन्नाथ चक्र राज निकेतन


पार्वति पद्म नायन पद्म रागा समप्रभ

पंच प्रेतसन शीन पंच ब्रह्म स्वरूपिणि

चिन्मयि परमानंद विज्ञान गण रूपिनि

ध्यान ध्यत्रु ध्येय रूप धर्मध्रम विवर्जित

विश्व रूप जगरिनि स्वपंति तैजसत्मिक


सुप्त प्रांज्ञात्मिक तुर्य सर्ववस्थ विवर्जित

स्रिष्ति कर्त्रि ब्रह्म रूप गोप्त्रि गोविंद रूपिनि

संहारिनि रुद्र रूप तिरोधन करि ईश्वरि

सदाशिवा अनुग्रहाड पंच कृत्य पारायण

भानु मंडल मध्यस्थ भैरवि बागा मालिनि

पद्मासन भगवति पद्मनाभ सहोदरि

उन्मेष निमिशोत्पन्न विपन्न भुवनावलि

सहस्र शीर्ष वादन सहराक्षि सहस्र पात


आब्रह्म कीड जननि वर्णाश्रम विधायिनि

निजंग्न रूप निगम पुन्यपुन्य फल प्राध

श्रुति सीमंत कुल सिंधूरि कृत पडब्ज्ह दूलिगा

सकलागम संदोह शुक्ति संपुट मुक्तिक

पुरशार्त प्राध पूर्ण भोगिनि भुवनेश्वरि

अंबिक अनादि निधान हरि ब्रह्मेंद्र सेवित


नारायनि नाद रूप नम रूप विवर्जित

हरिं करि हरिमति हृदय हेयोपदेय वर्जित

राज राजार्चित राखिनि रम्य राजीव लोचन

रंजनि रमणि रस्य रनाथ किंकिनि मेखल

रामा राकेंदु वादन रति रूप रति प्रिय


रक्षा करि राक्षसग्नि रामा रमण लंपट

काम्य कमकल रूप कडंभ कुसुम प्रिय

कल्याणि जगति कंद करुण रस सागर

कलावति कालालप कांत कादंबरि प्रिय

वरद वाम नायन वारुणि मध विह्वल

विस्वधिक वेद वेद्य विंध्याचल निवासिनि

विधात्रि वेद जननि विष्णु माय विलासिनि


क्षेत्र स्वरूप क्षेत्रेसि क्षेत्र क्षेत्रज्ञ पालिनि

क्षय वरिदि निर्मुक्त क्षेत्र पल समर्चित

विजय विमल वंद्य वंदारु जन वत्सल

वाग वादिनि वाम केसि वह्नि मंडल वासिनि

भक्ति माट कल्प लतिक पशु पस विमोचनि


संहृत शेष पाषंड सदाचार प्रवर्तिक

तपत्र्यग्नि संतप्त समह्लादह्न चंद्रिक

तरुणि तपस आराध्य तनु मध्य तमोपः

चिति तत्पद लक्ष्यर्त चिदेकर स्वरूपिणि

स्वत्मानंद लवि भूत ब्रह्मद्यनंत संतति


परा प्रत्यक चिदि रूप पश्यन्ति पर देवत

मध्यम वैखरि रूप भक्त मानस हंसिख

कामेश्वर प्राण नदि क्रुतज्ञ कामा पूजित

शृंगार रस संपूर्ण जया जलंधर स्थित

ओडयन पीडा निलय बिंदु मंडल वासिनि

रहो योग क्रमराध्य रहस तर्पण तर्पित


सद्य प्रसादिनि विश्व साक्षिनि साक्षि वर्जित

षडंगा देवत युक्त षड्गुण्य परिपूरित

नित्य क्लिन्न निरुपम निर्वनसुख दायिनि

नित्य षोडसिक रूप श्री कंडर्त सरीरिनि

प्रभावति प्रभ रूप प्रसिद्ध परमेश्वरि

मूल प्रकृति अव्यक्त व्यक्त अव्यक्त स्वरूपिणि

व्यापिनि विविधाकर विद्य अविद्य स्वरूपिणि

महा कामेष नायन कुमुदह्लाद कुमुदि

भक्त हर्द तमो बेध भानु माट भानु संतति


शिवदूति शिवराध्य शिव मूर्ति शिवंगारि

शिव प्रिय शिवपार शिष्टेष्ट शिष्ट पूजित

अप्रमेय स्वप्रकाश मनो वाच्म गोचर

चित्सक्ति चेतन रूप जड शक्ति जडत्मिख

गायत्रि व्याहृति संध्य द्विज ब्रिंदा निषेवित


तत्वसन तट त्वां आयी पंच कोसंदर स्थित

निस्सेम महिम नित्य यौअवन मध शालिनि

मध गूर्नित रक्ताक्षि मध पाताल खंडबू


चंदन द्रव दिग्धंगि चंपेय कुसुम प्रिय

कुसल कोमलकर कुरु कुल्ल कुलेश्वरि

कुल कुंदालय कुल मार्ग तट पर सेवित

कुमार गण नडंभ

तुष्टि पुष्टि मति धरिति

शांति स्वस्तिमति कांति नंदिनि विग्न नसिनि


तेजोवति त्रिनयन लोलाक्षि-कमरूपिनि

मालिनि हंसिनि मत मलयाचल वासिनि

सुमुखि नलिनि सुब्रु शोभन सुर नायिका

कल कंटि कांति मति क्षोभिनि सुक्ष्म रूपिनि


वज्रेश्वरि वामदेवि वयोवस्थ विवर्जित

सिदेस्वरि सिध विद्य सिध मत यसविनि

विशुदिचक्र निलय आरक्तवर्नि त्रिलोचन

खद्वान्गादि प्रकरण वादानिक सामविध

पायसान्न प्रिय त्वक्स्त पशु लोक भयंकरि

अम्रुतति महा शक्ती संवृत दकिनीस्वरि


अनहतब्ज निलय स्यमभ वादनद्वाय

दंष्ट्रोज्वाल अक्ष मालदि धर रुधिर संस्तिड

कल रात्र्यदि शक्ति योगा वृधा स्निग्ग्दोव्धन प्रिय


महा वीरेंद्र वरद राकिन्यंभ स्वरूपिणि

मनि पूरब्ज निलय वादन त्रय संयुध

वज्रदिकयुदोपेत दमर्यदिभि राव्रुत

रक्त वर्ण मांस निष्ठ गुदन्न प्रीत मानस


समस्त भक्त सुखद लकिन्यंभ स्वरूपिणि

स्वदिष्टनंबुजगत चतुर वक्त्र मनोहर

सुलयुध संपन्न पीत वर्ण अदि गर्वित


मेधो निष्ठ मधु प्रीत भंडिन्यदि समन्विध

धद्यन्न सक्त ह्रिदय काकिनि रूप दारिनि

मूलद्रंबुजरूड पंच वक्त्र स्थिति संस्थिता

अंकुसति प्रहरण वरडदि निषेवित

मुद्गौ दानसक्त चित्त सकिन्यंभ स्वरूपिणि


आज्ञ चक्रब्ज निलय शुक्ल वर्ण शादनन

मज्ज संस्थ हंसवति मुख्य शक्ति समन्वित

हर्द्रन्नैक रसिक हाकीनि रूप दारिनि

सहस्र दल पद्मस्त सर्व वर्नोपि शोबित

सर्वायुध धर शुक्ल संस्थिता सर्वतोमुखि

सर्वौ धन प्रीत चित्त यकिन्यंभ स्वरूपिणि


स्वाहा स्वद अमति मेधा श्रुति स्म्रिति अनुतम

पुण्य कीर्ति पुण्य लभ्य पुण्य श्रवण कीर्तन

पुलोमजर्चिध बंध मोचिनि बर्भारालक


विमर्शा रूपिनि विद्य वियधदि जगत प्रसु

सर्व व्याधि प्रसमनि सर्व मृत्यु निवारिणि

अग्रगान्य अचिंत्य रूप कलि कल्मष नसिनि

कात्यायिनि कल हंत्रि कमलाक्ष निषेवित

तांबूल पूरित मुखि धदिमि कुसुम प्रभ


म्र्गाक्षि मोहिनि मुख्य म्रिदनि मित्र रूपिनि

नित्य त्रुप्त भक्त निधि नियंत्रि निखिलेस्वरि

मैत्र्यदि वासना लभ्य महा प्रलय साक्षिनि

पर शक्ति पर निष्ठ प्रज्ञन गण रूपिनि


माधवि पान लासा मत मातृक वर्ण रूपिनि

महा कैलास निलय म्रिनल मृदु दोर्ल्लत

महनीय दय मूर्ति महा साम्राज्य शालिनि

आत्म विद्य महा विद्य श्रीविद्य कामा सेवित

श्री षोडसक्षरि विद्य त्रिकूट कामा कोतिक


कटाक्ष किम्करि भूत कमल कोटि सेवित

शिर स्थित चंद्र निभ भालस्त इंद्र धनु प्रभ

ह्रिदयस्त रवि प्राग्य त्रि कोनंतर दीपिक

दक्षयनि दित्य हंत्रि दक्ष यज्ञ विनसिनि

धरण्दोलित दीर्गाक्षि धरहसोज्वलन्मुखि

गुरु मूर्ति गुण निधि गोमात गुहजन्म भू


देवेशि दंड नीतिस्त धहरकास रूपिनि

प्रति पंमुख्य रकंत तिदि मंडल पूजित

कलत्मिक कल नाध काव्य लाभ विमोधिनि

सचामर राम वाणि सव्य दक्षिण सेवित आदिशक्ति

अमेय आत्म परम पवन कृति

अनेक कोटि ब्रमंड जननि दिव्य विग्रह

क्लिं क्री केवला गुह्य कैवल्य पद दायिनि

त्रिपुर त्रिजगाट वंद्य त्रिमूर्ति त्रि दसेस्वरि


त्र्यक्ष्य दिव्य गंधद्य सिंधूर तिल कंचिध

उमा शैलेंद्र तनय गौरी गंधर्व सेवित

विश्व ग्रभ स्वर्ण गर्भ अवराध वगदीस्वरी

ध्यानगाम्य अपरिचेद्य ग्नाध ज्ञान विग्रह

सर्व वेदांत संवेद्य सत्यानंद स्वरूपिणि

लोप मुद्रर्चित लील क्लुप्त ब्रह्मांड मंडल

अडुर्ष्य दृश्य रहित विग्नत्री वेद्य वर्जित


योगिनि योगद योग्य योगानंद युगंधर

इच्च शक्ति-ज्ञान शक्ति-क्रिय शक्ति स्वरूपिणि

सर्वाधार सुप्रतिष्ठ सद सद्रूप दारिनि

अष्ट मूर्ति अज जेत्री लोक यात्र विडह्यिनि

एकाकिनि भूम रूप निर्द्वित द्वित वर्जित

अन्नाद वसुध व्रिद्ध ब्र्ह्मत्म्यक्य स्वरूपिणि


ब्रिहति ब्रह्मनि ब्राह्मि ब्रह्मानंद बलि प्रिय

भाष रूप ब्रिहाट सेन भवभव विवर्जित

सुखराध्य शुभकरी शोभन सुलभ गति

राज राजेश्वरि राज्य दायिनि राज्य वल्लभ

रजत कृप राज पीत निवेसित निजश्रित

राज्य लक्ष्मि कोस नाथ चतुरंग बलेस्वै


साम्राज्य दायिनि सत्य संद सागर मेखल

दीक्षित दैत्य शामनि सर्व लोक वासं करि

सर्वार्थ धात्रि सावित्रि सचिदनंद रूपिनि

देस कल परिस्चिन्न सर्वग सर्व मोहिनि


सरस्वति शस्त्र मयि गुहंब गुह्य रूपिनि

सर्वो पदि विनिर्मुक्त सद शिव पति व्रित

संप्रधएश्वरि साधु ई गुरु मंडल रूपिनि

कुलोतीर्ण भागाराध्य माय मधुमति मही

गानंब गुह्यकराध्य कोमलांगि गुरु प्रिय

स्वतंत्र सर्व तन्त्रेसि दक्षिण मूर्ति रूपिनि


सनकादि समाराध्य शिव ज्ञान प्रदायिनि

चिद कल आनंद कालिक प्रेम रूप प्रियंकरी

नम पारायण प्रीत नंदि विद्य नतेश्वरी

मिथ्य जगत अतिश्तन मुक्तिद मुक्ति रूपिनि

लास्य प्रिय लय क्री लज्ज रंभ अदि वंदित

भाव धव सुधा व्रिष्टि पपरन्य धवनल

दुर्भाग्य तूलवतूल जरद्वान्तर विप्रभ

भाग्यब्दि चंद्रिक भक्त चिट्टा केकि गणगण


रोग पर्वत दंबोल मृत्यु दारु कुदरिक

महेश्वरी महा कलि महा ग्रास महासन

अपर्ण चंडिक चंदा मुन्दासुर निशूधिनि

क्षरक्षरात्मिक सर्व लोकेसि विश्व दारिनि

त्रिवर्गा धात्रि सुभगा त्र्यंभागा त्रिगुणात्मिक

स्वर्गापवर्गाध शुद्ध जपपुश्प निभाक्रिति

ओजोवति द्युतिधर यज्ञ रूप प्रियव्रुध

दुरराध्य दुराधर्ष पातलि कुसुम प्रिय

महति मेरु निलय मंधर कुसुम प्रिय


वीरराध्य विराड रूप विराज विस्वतोमुखि

प्रतिग रूप परकास प्रनाध प्राण रूपिनि

मार्तांड भैरवराध्य मंत्रिनि न्याश्त राज्यदू

त्रिपुरेसि जयत्सेन निस्त्रै गुन्या परपर

सत्य ज्ञानंद रूप सामरस्य पारायण

कपर्धिनि कलमल कमदुख कामा रूपिनि

कल निधि काव्य कल रसज्ञ रस सेवधि


पुष्ट पुरातन पूज्य पुष्कर पुष्करेक्षण

परंज्योति परं धम परमाणु परात पर

पस हस्त पस हंत्रि पर मंत्र विभेदिनि

मूर्त अमूर्त अनित्य त्रिपथ मुनि मानस हंसिक

सत्य व्रित सत्य रूप सर्वन्तर्यमिनि सती

ब्रह्मनि ब्रह्मा जननि बहु रूप बुधर्चित

प्रसवित्रि प्रचंड आज्ञ प्रतिष्ट प्रकट कृति

प्रनेश्वरि प्राण धात्रि पंचास्ट पीत रूपिनि

विशुन्गल विविक्तस्त वीर मत वियत प्रसू


मुकुंदा मुक्ति निलय मूल विग्रह रूपिनि

बावग्न भाव रोकग्नि भाव चक्र प्रवर्तनि

चंदा शर शस्त्र शर मंत्र शर तलोधारी

उदार कीर्ति उद्द्हमा वैभव वर्ण रूपिनि

जन्म मृत्यु जरा तप्त जन विश्रांति दायिनि

सर्वोपनिष दुद गुष्ट शांत्यत्हीत कलत्मिक


गंभीर गगनंतस्त गर्वित गण लोलुप

कल्पना रहित कष्ट आकांत कन्तत विग्रह

कार्य करण निर्मुक्त कामा केलि तरंगित

कणत कनक तदंग लील विग्रह दारिनि

अज्ह क्षय निर्मुक्त गुबद क्सिप्र प्रसादिनि

अंतर मुख समाराध्य बहिर मुख सुदुर्लभ


त्रयी त्रिवर्गा निलय त्रिस्त त्रिपुर मालिनि

निरामय निरालंब स्वात्म राम सुधा श्रुति

संसार पंग निर्मग्न समुद्धरण पंडित

यज्ञ प्रिय यज्ञ कर्त्री याजमान स्वरूपिणि

धर्म धर धनद्यक्ष धनधान्य विवर्दनि


विपर प्रिय विपर रूप विश्व ब्र्हमन कारिणि

विश्व ग्रास विध्रुमभ वैष्णवि विष्णु रूपिनि

योनि योनि निलय कूतस्त कुल रूपिनि

वीर गोष्टि प्रिय वीर नैष कर्मय नाध रूपिनि

विज्ञान कलन कल्य विदग्ध बैन्दवासन

तत्वधिक तत्व मायी तत्व मार्त स्वरूपिणि


सम गण प्रिय सौम्य सद शिव कुटुंबिनि

सव्यप सव्य मर्गास्त सर्व अपद्वि निवारिणि

स्वस्त स्वभाव मदुर धीर धीर समर्चिड

चैत्न्यर्क्य समाराध्य चैतन्य कुसुम प्रिय

सद्दोतित सदा तुष्ट तरुनदित्य पाताल

दक्षिण दक्सिनराध्य धरस्मेर मुखंबुज


कुलिनि केवल अनर्ग्य कैवल्य पद दायिनि

स्तोत्र प्रिय स्तुति मति स्तुति संस्तुत वैभव

मनस्विनि मानवति महेसि मंगल कृति

विश्व मत जगत धात्रि विसलक्षि विरागिनि

प्रगल्भ परमोधर परमोध मनोमायि

व्योम केसि विमनस्त वज्रिनि वामकेश्वरी


पंच यज्ञ प्रिय पंच प्रेत मंचदि सायिनि

पंचमि पंच भूतेसि पंच संख्योपचारिनि

सस्वति सस्वतैस्वर्य सरमद शंभु मोहिनि

धर धरसुत धन्य धर्मिनि धर्म वारधिनि

लोक तीत गुण तीत सर्वातीत समत्मिक

भंदूक कुसुम प्रख्य बाल लील विनोदिनि

सुमंगलि सुख करि सुवेशाद्य सुवासिनि

सुवसिन्यर्चन प्रीत आशोभान शुद्ध मानस


बिंदु तर्पण संतुष्ट पूर्वज त्रिपुरंबिक

दास मुद्र समाराध्य त्र्पुर श्री वसंकरि

ज्ञान मुद्र ज्ञान गम्य ज्ञान ज्ञेय स्वरूपिणि

योनि मुद्र त्रिखंडेसि त्रिगुण अम्बत्रिकोनगा

अनगा अद्बुत चरित्र वंचितर्त प्रदायिनि

अभ्यसतिसय गनत षड्द्वातीत रूपिनि


अव्याज करुण मूर्हि अज्ञान द्वंत दीपिक

आबाल गोपा विदित सर्वान उल्लंग्य शासन

श्री चक्र राज निलय श्री मत त्रिपुर सुंदरि

श्री शिवा शिव शक्तैक्य रूपिनि ललितंबिक

एवं श्रीललित देवय नामनं सहस्रकं जगुह

Tuesday, February 4, 2014

Amazing Jigsaw / Aura of Silence अद्भुत आरा/Aura साधना

अद्भुत आरा/Aura साधना

इस अद्भुत साधना से स्वयं की अथवा किसी की भी Aura देख सकते हैं
आधुनिक वैज्ञानिक तथ्य स्वीकारते है कि जिस प्रकार हम चित्र में  भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध और यीशु के चेहरे के चारों आभा मंडल देखते हैं उसी प्रकार हर व्यक्ति का आभा मंडल होता है हर व्यक्ति  अपने स्वयं का और  अन्य लोगों की आभा को देखने की क्षमता योग, साधना, ध्यान और जैसे विभिन्न तरीकों के माध्यम प्राप्त कर सकता है. वो अपने शरीर के चारों उपस्थित आभा मंडल की वृद्धि भी कर सकते हैं.  हमारा यह आभा मंडल समय, सवास्थ्य के साथ बदलता रहता है .
प्राचीन भारतीय साधु और संत जो अध्यात्मवाद और प्राकृतिक विज्ञान के महान ज्ञाता थे.  वस्तुतः हमारा शरीर  एक नहीं ६ अन्य सूक्ष्म शारीर से मिल कर बना  है . इस प्रकार सात निकायों के संयोजन एक पूर्ण मानव शरीर  बनाता है. लेकिन दुर्भाग्य से हम केवल बाहरी भौतिक शरीर की उपस्थिति को देखने और महसूस करने में सक्षम हैं.
आइये इन शरीर के बारे में संक्षिप्त रूप में जानते हैं.
1. स्थूल  शरीर:  यह एक ठोस रूप है और बाहरी भौतिक शरीर है. यह अन्नमय  कोष या भी  कहा जाता है. सरल शब्दों में यह स्थूल शरीर  जानवरों, पक्षियों, और मनुष्य के पास शरीर है.
2. प्राण  शारीर:  प्राण  जीवन का मतलब है और यह स्थूल  शरीर  से थोरा अधिक महत्वपूर्ण क्यूंकि यह स्थूल  शरीर को ऊर्जा और जीवन प्रदान करता है. इसे प्राणमय   कोष भी  कहा जाता है. यह भौतिक शरीर  और अन्य पांच शरीर के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करता है. एक इस प्राण  शरीर  की मदद के माध्यम से ही अन्य पांच शरीर को देख सकते हैं.
3. काम शरीर: इसे   मनोमय  कोष या भावनाओं, विचारों और बुद्धि का भंडार  कहा जाता है और साथ इसकी मदद से एक व्यक्ति अपने  शरीर जैसा दूसरा बना सकते हैं. इसे  पशु  शरीर  कहा जाता है. इस  के माध्यम से  मानव जीवन में उत्तेजना  , उत्साह का  जीवन में  अनुभव होता है.
4. सुक्ष्म मन शरीर:  यह काम  शरीर  का एक भाग  है इस  के माध्यम से मन और बुद्धि और विकसित किया जा सकता है एक व्यक्ति किसी भी  विषय की जटिलताओं को समझने की क्षमता विकसित कर सकता हैं.
5. उच्च  मन शरीर: यह  दिव्य शरीर का  पहला भाग  है. यह विज्ञानमय  कोष भी कहा जाता है. एक इंसान इस के माध्यम से अपने जीवन आध्यात्मिक तरक्की कर सकते हैं, समग्रता को प्राप्त करने और देवतुल्य हो सकता है . लेकिन अगर इसे नियंत्रित नहीं है तो परिणाम काफी विपरीत हो सकते हैं.इस शरीर में प्रवेश करने के लिए बहुत अनुशासन की जरूरत है व्यक्ति इस शरीर की शक्तियों का दुरूपयोग कर सकता है.
6. बुद्धि शरीर:  इसे निर्वाण  शरीर भी  कहा जाता है. निर्वाण का अर्थ है  मोक्ष का अर्थ है, इसलिए इस की प्राप्ति पर एक व्यक्ति के  स्वयं को स्थूल  शरीर  से मुक्त करने में सक्षम हो जाता है. यह आनंदमय  कोष या दिव्य आनन्द कोष  कहा जाता है. और इस शरीर में प्रवेश करने के बाद व्यक्ति अपनी आत्मा का अनुभव कर सकता है.
7. आत्मा शरीर:  यह अपने आप में एक पूरी तरह से सूक्ष्म शरीर है. इसकी  प्राप्ति पर एक व्यक्ति दिव्यता को उपलब्ध हो जाता है और उसके चेहरे के चारों ओर आभा और भी अधिक उज्ज्वल और अलग हो जाता है, यहाँ तक की आम आदमी भी अनुभव करने में सक्षम हो जाता है.
जब इन  का साक्षात्कार इन सभी शरीरो से गुरु की कृपा से हो जाता है तो उसे सिद्धयाँ स्वयं ही मिल जाती हैं .
                                                                दिव्य आभा/Aura
आत्म शरीर  या आत्मा की चमक कोरोना तरह प्रतीत होता है जैसे सूर्य ग्रहण के दौरान जब सूर्य पूरा धक् जाता है उसके चारों ओर एक diamond रिंग/ एक गोल चमक जैसा दीखता है.
जैसा हमने पहले ही देखा यह आभा न केवल देवी, देवता  और महान संतों के आसपास है यह हर इंसान के आसपास मौजूद है. .आम तौर पर यह सामान्य लोंगों में  बहुत उज्ज्वल है और स्पष्ट नहीं  होई है लेकिन अगर कोई व्यक्ति अपनी स्वयं की अथवा अन्य किसी की Aura को  देखने की इच्छा हो तो वह साधना को पूरा करने के द्वारा किसी भी व्यक्ति के चारों ओर और अपने खुद के चेहरे के चारों ओर आभा देख सकते हैं. यह आभा हिन्दी में आभा मंडल या प्रभा मंडल भी कहा जाता है और भगवान महावीर ने इसे  Leshya कहा है .
भारतीय ऋषि, मुनियों की तरह पश्चिमी वैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्ति की आभा देखकर कई तथ्यों पता लगाया जा सकता है.
1. Aura के माध्यम से व्यक्ति का भूतकाल अत्यंत स्पष्ट/crystal clear जाना जा सकता है. . इस प्रकार व्यक्ति के चरित्र और जीने का ढंग आसानी से जाना जा सकता है.
2. जिस प्रकार  व्यक्ति की आभा को देख कर एक व्यक्ति के अतीत के बारे में पता कर सकते हैं, उसी प्रकार उसके  जीवन के इसी तरह भविष्य की घटनाओं को भी पहले से जाना जा सकता है.
3. एक व्यक्ति की आदतें उसकी aura को बदल कर बदली जा सकती हैं. एक व्यक्ति अपनी का किसी दुसरे की आरा को बदल सकता है जिससे एक निर्धन धनवान, एक मुर्ख विद्वान बन सकता है. या एक महान व्यक्ति बन सकता है.
4. आभा में सात रंग हो सकता है.  Sthul Sharir की  आरा  हरी होती है. Prann Sharir की आरा  गुलाबी होती है.  Kaam Sharir की आरा पीत्वर्निया  होती है. Sukshma Sharir की आरा पीले और हरे रंग का मिश्रण होती है., Uchch Man Sharir की चांदी/silver के  रंग की होती है. Buddhi Sharir की नीली  और Aatma Sharir is सुनहरी /गोल्डेन कोलोर की होती है .
5. एक व्यक्ति की मृत्यु  के छह महीने पहले उसकी आभा धुंधली  और कालापन लिये हुवे हो जाता है.
6. एक चरित्रहीन व्यक्ति की आभा धुंदली और पीलापन लिये हुवे होती है. चालाक और धोखेबाज व्यक्ति की आभा धुएँ के रंग और हल्का पीलापन होता है.
7. अपनी आभा पर नियंत्रण के माध्यम से एक व्यक्ति कई शारीरिक रूप बना सकता है और वह शारीर प्रकाश की गति से यात्रा कर सकता है और भार हीन होता है. इसके  माध्यम से एक व्यक्ति हजारों मील दूर होने वाली घटनाओं को देख सकता  हैं, वह भविष्य में भी देख सकता हैं और इस प्रकार आपदाओं या दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है.
8. आभा व्यक्ति विचार के अनुसार बदलती रहती है हमारे भौतिक शरीर या .Sthul Sharir में परिवर्तन जो पहले से ही आंतरिक शरीर या Sukshma Sharir  पर काफी समय पहले पर उनके प्रभाव दिख जाता है  जिसे किसी भी बड़ा रोग या बीमारी तीन महीनेपहले से ही आभा प्रभावित होता जिससे बीमारी  का पूर्वानुमान किया जा सकता है.
9. इस साधना को करने के बाद गर्भस्त शिशु की आरा देख सकते हैं. उस शिशु की आरा को अधिक तेजविता दे सकते हैं.  वह बालक भविष्य में  एक बुद्धिमान और प्रतिभाशाली व्यक्ति बनने के गुर आ जाते हैं जिससे वह  एक वैज्ञानिक, गणितज्ञ, चिकित्सक, या इंजीनियर अर्थात् किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करता  है वह अद्वितीय होगा.
एक व्यक्ति एक सिध्द और आध्यात्मिक क्षमता इस आरा साधना से विकसित कर सकता है . और इस इया प्रक्रिया द्वारा जन कल्याण लिए हजारों लोगों के आरा  बदला सकता है.
इस साधना को आत्मा साधना/aatma sadhna कहते हैं.
इस साधना में १.आत्म महा यंत्र २. चैतन्य  माला की आवशयकता होती है
इस साधना को प्रातः काल में करना है . अपने सामने यन्त्र को रख कर बिना पलक
झपकाए अथवा बंद किये एकटक आपको यन्त्र पर दृष्टि जमानी है अथवा ये कह सकते है यन्त्र पर त्राटक करना है. फिर आपको यह मंत्र माला से 21 माला पढ़ना है. प्रति दिन आपको २१ माला करनी है.
 
ॐ ऐं ब्रह्माण्ड चाक्शुरतेजसे नमः [  Om Ayeim Brahmaand Chakshurtejase namah].
इस साधना को करते समय अपने मन को नकारात्मक विचारों, भय, संदेह, हिचकिचाहट, चिंताओं और कुंठाओं  से मुक्त रखें इसके बाद ही साधना शुरू करें . इस यंत्र पर आपको पूर्ण ध्यान देन्द्रित करना है और आपके मन में कोई भी चिंता विचार कुछ  भी  न रखें.
15 दिनों के अभ्यास के बाद आप किसी भी व्यक्ति के चेहरे पर देखें. उसकी अन्ह्कों में न देखें. उसके चेरी को सर से शुरू कर के गर्दन तक देखें. इस स्थान पर आरा सबसे अधिक होती है.  फिर उसके सिर के ऊपर  दो से सात इंच देखें आपको  इंद्रधनुष की तरह रंग दिखाई देगा.
 
नियमित रूप से इस यंत्र पर अभ्यास करते रहे और विभिन्न लोगों पर अपनी इस क्षमता की प्रक्टिस करते रहे. जब आप व्यक्ति की आरा देखने में सक्षम हो जाते हैं तो आप उसके भूत और भविष्य भी देख  सकते हैं. यन्त्र को विसर्जित नहीं करना है उसपर आपको अभ्यास करना है
शुरू शुरू में आपको आरा बहुत धुंदली दिखेगी लेकिन समय के साथ प्रक्टिस करने से आपकी क्षमता में धीरे धीरे वृद्धि होती जाएगी. इस साधना से व्यक्ति की और और भी प्रकाश युक्त और स्ट्रोंग हो गतो है. इस साधना से व्यक्ति का आध्यामिक विकास होता है और वह कहीं भी होने वाली घटना को देख सकता है.
[तंत्र मंत्र यन्त्र February 1999 ]