Thursday, May 8, 2014

वास्तव मैं युग पुरुष हैं? Do Men Really era?

अब वक़्त आ गया हैं की मैं एक भारतीये होने के खातिर उन गुर रहस्यों को उज्जागर करूँ जो यह बताती हैं की हम भारतीये कितने महान थें ?और अब क्या हो गये हैं…?
मैं आपके सामने वोह सभी मंत्र तंत्र यन्त्र रख दूंगा जो आपके जीवन को पलट कर के रख देगी ..याकिन मानिये मेरा,,,,और यह सबका श्रेय मैं अपने प्रेयसी डॉ नारायण दत्त श्रीमाली को देता हूँ …तो वास्तव मैं युग पुरुष हैं ,,,,और याद रखे यह ऋषियों की वाणी हैं ,,,,तो आत्मसात कर ले इन्हें
जय गुरुदेव!
क्या आप मंत्र, तंत्र, यन्त्र के नाम से घबराते हैं, क्या आप जानते हैं कि तंत्र हमारे देश की सर्वश्रेष्ठ विधा हैं, जिसका उपयोग जितने भी महापुरुष, ऋषि, आदि हुए हैं, सभी ने ही किया हैं.
चाहे वे श्री राम हो, श्री कृष्ण हो, बुद्ध, शंकराचार्य, गोरखनाथ, हर व्यक्तित्व ही तंत्र का जानकर था….
आइये जानते हैं कुछ खास बातों को….
सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंदजी महाराज (पूज्य सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के शब्दों में, जो हर क्षेत्र के अद्वितीय व्यक्तित्व हैं..
जिनका नाम ही हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ माना जाता हैं…
जानिए हमारी ऋषियों की संस्कृति को.
मंत्र-तंत्र-यन्त्र
विज्ञान
वशिष्ठ ने कात्यायनी से कहा : “यदि तुम्हें जीवन में आनंद प्राप्त करना हैं, सब्भी रोगों से मुक्त होना हैं, चिरयौवनमय बने रहना हैं और सिद्धाश्रम के मार्ग में पूर्णता प्राप्त करनी हैं तो तुम्हें मंत्र-तंत्र और यंत्र का समन्वय करना होगा!” और कात्यायनी ने वशिष्ठ को पति नहीं गुरु रूप में स्वीकार कर ऐसा किया और अपने जीवन को उच्चता पर पहुँचाया!
इसलिए जीवन में मंत्र-तंत्र-यंत्र का परस्पर सम्बन्ध हैं, इनके द्वारा ही जीवन ऊपर की और उठ सकता हैं! मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान का प्रकाशन ही इसलिए किया हैं…. कोई आवश्यकता नहीं थी, मगर आवश्यकता इस बात की थी कि इस समय सारा संसार भौतिक बंधनों में बंधा हुआ हैं, और बन्धनों में बंधने के कारन व्यक्ति अन्दर से छटपटाता रहता हैं, वह चाहता हैं मैं मुक्त हवा में साँस ले सकूँ, मैं कुछ आगे बढ़ सकूँ, मैं जीवन में बहुत कुछ कर सकूँ….. मगर इसके लिए कोई रास्ता नहीं हैं, उसको कोई समझाने वाला नहीं हैं!
ऐसी स्थिति में पत्रिका का प्रकाशन किया गया और इस पत्रिका में मंत्र-तंत्र और यंत्र तीनों का समन्वय किया गया हैं! इसमें उच्चकोटि के मंत्रों का चिंतन दिया गया हैं! यह पत्रिका केवल कागज के कोरे पन्ने नहीं हैं! यदि बाजार से कागजों का एक बण्डल लाया जायें, तो वह सौ रूपये में प्राप्त हो सकता हैं, मगर जब उन कागजों पर उच्चकोटि के मंत्र और साधना विधियां लिख दी जाती हैं, तो वह पुस्तक अमूल्य हो जाती हैं! ज्ञान को मूल्य के तराजू में नहीं तौला जा सकता, ज्ञान को इस बात से भी नहीं देखा जाता हैं कि इस पत्रिका का मूल्य पांच रूपये या पच्चीस रूपये हैं, ज्ञान का मूल्य तो अनन्त होता हैं!
इसलिए हमने इस श्रेष्ठतम पत्रिका का प्रकाशन किया! इसके माध्यम से हम अपने पूर्वजों के ज्ञान को, पूर्वजों के साहित्य को, जो लुप्त होता जा रहा हैं, जो समाप्त होता जा रहा हैं, उसे सुरक्षित कर सकें, क्योंकि कुछ समय और बीत गया, तो हम इन मंत्रों के, तंत्रों के बारे में कुछ जान ही नहीं सकेंगे! उन सबको सुरक्षित रखने के लिए इस पत्रिका का प्रकाशन किया…… इसके पीछे कोई व्यापर की आकांक्षा और इच्छा नहीं हैं, इसके पीछे जीवन का कोई ऐसा चिंतन नहीं हैं कि इसके माध्यम से धनोपार्जन किया जायें, चिंतन तो इस बात के लिए हैं कि हम पूर्वजों की थाती को, पूर्वजों के ज्ञान को सुरक्षित रख सकें!
और पिछले कई वर्षों से इस पत्रिका का प्रकाशन इस बात का प्रमाण हैं कि आज भी समाज में चेतना हैं, जो इस प्रकार का ज्ञान चाहती हैं! अगर नहीं चाहती, तो पत्रिका कभी भी बंद हो चुकी होती! ऐसे व्यक्ति हैं जो इस प्रकार की साधनाओं के लिए लालायित हैं, उनको इस प्रकार की साधनाएं देने के लिए, वे समयानुसार किस प्रकार की साधनाएं करें , उनको मार्गदर्शन देने के लिए ही इस पत्रिका का प्रकाशन किया गया हैं!
और सही कहूँ तो यह पत्रिका नहीं कलयुग की श्रीमदभगवदगीता हैं, जिसका एक-एक पन्ना आने वाले समय के लिए, आने वाली पीढ़ी के लिए धरोहर हैं, उच्चता तक ले जाने की सीढ़ी हैं!
-पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी.
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान.

Friday, May 2, 2014

मिलना और बिछुड़ना दोनों जीवन की मजबूरी है। milana aur bichudna dono jeevan ki majburi hai


Dr. Narayan Dutt Shrimali Ji

मिलना और बिछुड़ना दोनों जीवन की मजबूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।


शाखों से फूलों की बिछुड़न, फूलों से पंखुड़ियों की
आँखों से आँसू की बिछुड़न, होंठों से बाँसुरियों की
तट से नव लहरों की बिछुड़न, पनघट से गागरियों की
सागर से बादल की बिछुड़न, बादल से बीजुरियों की


जंगल जंगल भटकेगा ही जिस मृग पर कस्तूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।


सुबह हुए तो मिले रात-दिन.. माना रोज बिछुड़ते हैं
धरती पर आते हैं पंछी.. चाहे ऊँचा उड़ते हैं
सीधे सादे रस्ते भी तो ..कहीं कहीं पर मुड़ते हैं
अगर हृदय में प्यार रहे तो..टूट टूटकर जुड़ते हैं


हमने देखा है बिछुड़ों को मिलना बहुत जरूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।




 hirendra jay sadgurudev

मैं हूँ उनके साथ I'm with them

नोट: यह कविता एक बार गुरूजी ने शिष्यों को सुनाई थी l 
इसमें साफ बताया गया हैं कि वे किस तरह के लोगों का साथ देते हैं l


मैं हूँ उनके साथ


मैं हूँ उनके साथ जो सीधी रखते अपनी रीढ़ l
मैं हूँ उनके साथ जो सीधी रखते अपनी रीढ़ ll
कभी नहीं जो तज सकते हैं अपना न्यायोचित अधिकार l
कभी नहीं जो सह सकते हैं, शीश नवाकर अत्याचार ll
एक अकेले हो या उनके साथ खड़ी हो भरी भीड़ l
मैं हूँ उनके साथ जो सीधी रखते अपनी रीढ़ ll






निर्भय होकर घोषित करते जो अपने उदगार विचार l
जिनकी जिह्वा पर होता हैं, उनके अंतर का अंगार ll
नहीं जिन्हें चुक कर सकती हैं आतताइयों की शमशीर l
मैं हूँ उनके साथ जो सीधी रखते अपनी रीढ़ ll






नहीं झुका करते जो दुनिया से करने को समझौता l
ऊँचे से ऊँचे सपने को देते रहते जो न्यौता ll
दूर देखती जिनकी पैनी आंख भविष्य का तम चीर l
मैं हूँ उनके साथ जो सीधी रखते अपनी रीढ़ ll






जो अपने कन्धों से पर्वत से अड़ टक्कर लेते हैं l
पथ की बाधाओं को जिनके पांव चुनौती देते हैं ll
जिनको बांध नहीं सकती हैं लोहे की बेडी जंजीर l
मैं हूँ उनके साथ जो सीधी रखते अपनी रीढ़ ll




जो चलते हैं अपने छप्पर के ऊपर लुका धर कर l
हार जीत का सौदा करते जो प्राणों की बाजी पर ll
कूद उदधि में नहीं पलट फिर ताका करते तीर l
मैं हूँ उनके साथ जो सीधी रखते अपनी रीढ़ ll





जिनको यह अवकाश नहीं हैं, देखे कब तारे अनुकूल l
जिनको यह परवाह नहीं हैं कब तक भद्रा कब दिक्शुल ll
जिनके हांथों की चाबुक से चलती हैं उनकी तक़दीर l


मैं हूँ उनके साथ जो सीधी रखते अपनी रीढ़ ll

Nikileshhwaranand Eulogy निखिलेश्वरानंद स्तवन


||| निखिलेश्वरानंद स्तवन |||२३ ||


त्वहं प्रेम्तरूपम परम मधुर श्रेय इति च
न शक्यत्वं ज्ञानं श्रिय प्रिय इति र्वें श्रियमहो |
त्व संसर्ग देह भवत परमोच्च सुख वदें
र्द्वे किन्नं स्वर्गं च सुर वदन प्या तृप्त इति न: ||

हे प्रभु! सिद्धाश्रम के योगियों ने जो आप को "प्रेममय" शब्द से संबोधित किया है, वह वास्तव में ही सत्य है क्योंकि आपकासारा शरीर प्रेममय है, आपने पने जीवन में प्रेम को ही बांटा है और पृथ्वी को ज्यादा प्रसन्न, ज्यादा आनन्द युक्त बनाने काप्रयास किया है | जब हम उच्चकोटि के संन्यासी आपके विशुद्ध और निश्छल प्रेम को भली-भांति नहीं समझ सकते, फिरसामान्य सांसारिक व्यक्ति यदि उस प्रेम को वासना या तुच्छता समझ लें, तो इसमें उनका क्या दोष? क्युकी जो स्वयं जैसाहोता है, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता है |


आप द्वारा प्रेम पाना और आपकी सामीप्यता प्राप्त हो जाना, तो कई-कई जन्मो का सौभाग्य है | वास्तव में ही वे धन्य हैंजिन्होंने आपके मन और शरीर की सामीप्यता प्राप्त की है |


सिद्धाश्रम और देव लोक की अप्सराएं, किन्नरियां, गन्धर्व और स्वयं ऋषि भी आपके शरीर का स्पर्श, सामीप्यता, साहचर्यऔर संसर्ग-सुख प्राप्त करने के लिए अभिलषित रहते हैं, फिर सामान्य सांसारिक व्यक्ति यदि ऐसा चिन्तन रखे, तो इसमेंआश्चर्य क्या?


प्रेम क्या है? यह आपके शरीर से ही पहिचाना जा सकता है | आनन्द क्या है? यह आपको देख कर ही अनुभव किया जा सकताहै | जीवन्तता क्या है? यह आपका स्पर्श करने पर ही अनुभव की जा सकती है | आपका प्रत्येक रोम प्रेममय है, आपके नेत्र,आपकी चितवन, आपकी मुस्कराहट सब कुछ प्रेममय है, ऐसा लगता है कि ये आंखें चकोर की तरह आपको निहारती हे रहें,आपके रूप-रस का पान करती ही रहें, और पूरा जीवन इसी प्रकार से व्यतीत हो जाय |


वास्तव में ही यदि आपको "निखिलेश्वरानंद" न कह कर प्रेममय कहें, आनन्दमय कहें, सत चित् स्वरुप कहें, पूर्णमय कहें"पूर्णमद: पूर्णमिदं" कहें और प्रेम की कला में पारंगत कहें, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि आप स्वयं प्रेम के साक्षात्अवतार हैं | आपके इसी प्रेममय स्वरुप को मैं अत्यन्त आनन्द के साथ प्रणाम करता हूं || २३ ||

Dr. Narayan Dutt Shrimali Ji



har pal nikhil kaho guru bhajan हर पल निखिल गुरु भजन सँगीत

हर पल निखिल गुरु भजन सँगीत 


हर पल निखिल
जीवन का सोभाग्य है इस जन्म मैं सद्गुरु मिले है , अब एसा पल न जाने कब आयेग ? इस जीवन मैं सब कुछ छोड़ कर हम गुरुमय बन जाये ऐसा इस जीवन का सोभाग्य हो , इस सिर्फ होठो से ही नहीं आप का रोम रोम उस निखिल की बंदना करना चाहिए। जब दिल के तार सद्गुरु से जुड़े गे तो निश्चय ही हमरे भाग्य खुल सकेगे और हम उस निखिल से एकाकार बन सकेगे। .

सभी धर्मो का त्याग कर मेरी शरण मैं आ जाओ। ।
प्रेम माय बन जाओ निखिल माय जाओ गुरुमय बन जाओ। .

गुरुवर शरण, गुरुवर शरण, गुरुवर शरण गहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

गुरुवर शरण, गुरुवर शरण, गुरुवर शरण गहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

जिस देश में, जिस भेष में रहो | जिस देश में |
जिस देश में, जिस भेष में रहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

गुरुवर शरण, गुरुवर शरण, गुरुवर शरण गहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

जिस ध्यान में, जिस स्थान में रहो | जिस ध्यान में |
जिस ध्यान में, जिस स्थान में रहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

गुरुवर शरण, गुरुवर शरण, गुरुवर शरण गहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

जिस योग में, जिस भोग में रहो | जिस योग में |
जिस योग में, जिस भोग में रहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

गुरुवर शरण, गुरुवर शरण, गुरुवर शरण गहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |
हर पल निखिल, हर पल निखिल, हर पल निखिल कहो |

divya yug दिव्य युग

















जो मरते है उलझ कर किनारों पे, दुःख उनपर होता है ,
बीच समन्दर में फ़ना होना तो किस्मत की बात है


दिव्य युग
ॐ ब्रम्हा वे दिवौ ह: स: दिवौ ।
वे गुरु वे सदा ह: ।।


इस घोर संक्रमण काल मैं
जब मानव दिग्भ्रमित है
तुम पाथेय बनो ।
जब वे खोखली सभ्यता से दिशाः शून्या हैं
तुम मार्ग दर्शक बनो.…
जब वे आसुरी परवर्तीयों में लिप्त हैं
तुम साधनाताम्क परकाश से सुनय्ता भरो ।
छा जाओ पूरी पृथ्वी पर, और साधना
के द्वारा सह्श्त्रार जाग्रत कर
प्राणमय कोष से
धरा पर सिद्धाश्रम प्रेरित दिव्य युग स्थापित करो ।

यदि निरंतर गुरु सेवा और गुरु मंत्र जप करोगे तो निश्चय ही तुम जीवन में वह सब कुछ पा सकोगे जो कि तुम्हारा अभीष्ट हैं."

changing the thoughts and personality

How can we deal with controlling the mind and changing the thoughts and personality traits? Most people today feel that it's human to think both negatively and positively, everyone has their weaknesses etc, why should we be 'goody- goody' etc. but they do not seem to understand that thinking negatively is firstly harmful to us and then it affects people around us. We may be ordinary human beings, but that does not mean we cannot be perfect in our thinking, in our values and way of living. What distinguishes the normal human from people like Gandhiji, or Florence Nightingale or Einstein or Mother Teresa - they all did not think ordinarily, their thoughts were elevated and pure. Everyone can control their thoughts, if they wish. Thoughts are the most powerful asset human beings have, but it is the least understood. We value science so much today, but we forget that it was the human mind that created that science. Ideas are changed into reality, which means those ideas and thoughts are greater than all the scientific inventions. It is important to first understand what the soul or spirit is. The body is made of 5 elements but what runs the body? Our thoughts, our decision-making power, our personality - are all these things part of the body? They cannot be because they are not physical things. It is impossible for scientists to analyse thoughts, but when those thoughts are used to make actions, then we can see them. It is just like electricity - we cannot see it will our naked eye, but when it changes to another form like light or heat then we can experience it. Similarly, the soul runs the body, but we cannot see with the physical eyes, because it is divine energy, a point of pure light. But it is so powerful that it can control the entire body. This soul has 3 main faculties - the mind (where thoughts are generated), the intellect (the decision -making power) and the personality traits (or sanskaars, as we say in Hindi). All these three things work in collaboration and influence each other. When we human beings first came on earth, we were pure, good, disciplined individuals - we were soul-conscious, meaning the bodily desires and bad vices were not present. But with time, the soul lost its spiritual energy and became weak. Then the vices like ego, anger, lust, attachment, greed entered and took over. You may ask why we have negative thoughts - the intellect has become weak and cannot control the thoughts that enter the mind. Even our sanskaars have become impure, we get angry easily, we say things we do not want to, we do things that are not nice. The environment also affects our thoughts - the books we read, our friends, television, even food. Most people will not agree with this, but the method of making the food, what thoughts did the cook have while cooking, while eating how was our mood etc.etc. EVERYTHING MATTERS! But, do not feel disappointed, there is a remedy. The entire world is going through a lot of suffering and it is because we have lost our spiritual energy. Only God can come and teach us about spirituality and how to become pure beings again. Through meditation we can learn about 1. The Self, enables you to be detached from physical factors and their limitations. 2. Knowing God, enables you to create a deep link of love and draw into yourself all attributes, virtues and powers from the Supreme Source. 3. Understanding the deep law of cause and effect (Karma), motivates you to settle debts of the past and perform elevated actions now. Total surrender to totality, to Supreme is the Ultimate realization. Realization in every deed (karm) can lead you to that total bliss. It is not like a lightening what will happen to you suddenly. First learn to surrender little by little. Learn to surrender to human humanity. First learn it, bring perfection into it, Then you will be able to surrender to that `Param' - which is the source of all Paramanand - Param + Anand. Spirituality does not mean that you have got the license to play according to your mind games. Spirituality is given to you to get connected to higher self And play the game of life According to natural self - real self - not your mind create self – Ego This is Truth.