Saturday, December 31, 2011

Mysterious power of Mantra 1मंत्र शक्ति गूढ़ार्थ १

मंत्र शक्ति गूढ़ार्थ १
“शून्य” एक ऐसी सत्ता है जिसमें यदि पूरा ब्रह्मांड भी विलीन हो जाए तो उसे रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ेगा....पता है क्यों?? क्योकि ये एकमात्र ऐसी आधारभूत शक्ति है जिसके ना होने से पीछे कुछ बचेगा ही नहीं क्योकि अंत के लिए आरम्भ आवश्यक है. इसी तरह हमारे शास्त्रों में वर्णित मंत्रो का महत्व है....वो भी बिलकुल शून्य की तरह है. आप मंत्र को कैसे उपयोग कर रहे हो इससे मंत्र सत्ता को कोई फर्क नहीं पड़ता पर हाँ हमें इस बात से फर्क जरूर पड़ता है की वो मंत्र हमारे लिए कैसी स्थिति उत्पन्न कर रहे है या कर सकते है क्योकि हम जानते है की मंत्र शिव और शक्ति का मिलन है जो प्रतीक है उत्थान का और विध्वंस का भी .....
शिव और शक्ति की तरह मंत्र और सिद्धी भी एक साथ जुड़े हुए हैं....इसिलए यदि सिद्धी चाहिए तो इनसे जुड़े कुछ नियमों का पालन करना ही पड़ेगा क्योकि इनकी शक्ति अतुलनीय होती है. पिछले अंक में हमने जाना था कि मंत्र होते क्या है...इन्हें शक्ति कहाँ से प्राप्त होती है....उनका उच्चारण गोपन होना चाहिए या स्फुट. आज हम देखेंगे कि वेदोक्त और साबर मंत्रो को करने की विधि क्या होती है....और इनको करते समय किन तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है.
किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी भाव-भूमि का होना अति अनिवार्य है...क्योकि भाव से कल्पना जन्म लेती है और कल्पना से सच्चाई. ठीक इसी तरह किसी भी मंत्र को करने से पहले आपके भाव स्पष्ट होने चाहिए. श्मसान में यदि साधना के लिए बैठना है तो खुद मृत्यु बनना पड़ेगा तभी विजय हमारा वरण करेगी. ऐसी ही स्थिति होती है जब हम साबर मंत्रो को सिद्ध करने के लिए साधनारत होते है क्योकि इन मंत्रो को सिद्ध करना तलवार की धार पर चलने के समान है. जितनी सच्चाई इस बात में है कि ये मंत्र बहुत जल्दी सिद्ध होते है उतना ही बड़ा सच ये है कि किंचित मात्र भी यदि कहीं कोई त्रुटि रह गई तो.......तो खेल खत्म.
इसीलिए यदि आप पूरी तरह इनके प्रयोग के लिए सुनिश्चित नहीं हो तो इनका परीक्षण कभी ना करें और यदि कर रहे हो तो आपमें धैर्य होना अति आवश्य है.....तेज़ी आपके लिए हानिकारक हो सकती है. साबर मंत्रो में वाम मार्गी साधना का बहुत महत्व है पर वेदोक्त मंत्रो की तरह इनमें मांस और मदिरा का प्रयोग वर्जित है.....और एक और खास बात जहाँ साबर मंत्र सिद्ध किये जाए वहाँ वेदोक्त मंत्र कभी सिद्ध नहीं करने चाहिए. दोनों के लिए अलग अलग स्थान का चयन करना चाहिय क्योकि वेदोक्त मंत्रो के साथ साबर मंत्र कभी सिद्ध नहीं होते और कभी कभी तो विपरीत उर्जा के घर्षण से परिणाम विपरीत हो सकता है.
इसलिए इन मंत्रो को पुस्तकों से प्राप्त कर सिद्ध नहीं किया जा सकता.....इसके लिए आवश्कता होती है योग्य गुरु की क्योकि साधना का मार्ग कोई आसान मार्ग नहीं है.....इसमें बीच का कुछ नहीं होता ......या तो इस पार या उस पार.

मंत्र शक्ति गूढ़ार्थ
हमारे द्वारा बोले गये हर शब्द की अपनी एक सत्ता होती है क्योकि शब्द ब्रह्म होते है और ब्रह्म अटल होता है. जैसे एक एक वर्ण के सुमेल से एक निश्चित अर्थपूर्ण स्थति जन्म लेती है वैसे ही एक एक वर्ण के शिव और शक्ति के स्वरूप में मिलन से उत्पन होते हैं “ मंत्र “ जिनमें हमारे जीवन को बदलने की क्षमता होती है क्योकि मंत्र मात्र शब्दों की एक श्रंखला को नहीं कहते......इनमें प्राण ऊर्जा होती है क्योकि ये शिव,शक्ति और अणुओं के संयोजन से बनते हैं ,जो की आधार हैं सृजन और संहार का, इसी वजह से इनमें भोग और मोक्ष दोनों देने की क्षमता होती है.
अब प्रश्न आता है की मंत्रो का रूप कैसा होता है? ये आकारात्म्क होते हैं या निराकार? और कार्य को करने की शक्ति इन्हें कहाँ से प्राप्त होती है? तो सदगुरुदेव ने इन् प्रश्नों का उत्तर बहुत ही सरल भाषा में समझाया है की देह मलीनता युक्त होती है इसलिए दिव्यता इसमें वास नहीं कर सकती अब चूँकि मंत्र देव भूमि से संबंधित होते है तो ये आकार रहित होते हैं और इन्हें शक्ति मिलती है हमारे अन्तश्चेतन मन से क्योकि आसन पर बैठते ही साधक साधरण से खास और मनुष्य से देव और अंत में शव से शिव बन जाता है इसलिए जैसे ही साधक अपनी साधना प्रारम्भ करता है तो उसकी अन्तश्चेतना से एकाकार करके मंत्र प्राणमय हो जाता है.
पर इस बात को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए की हर किसी में अन्तश्चेतना एक जैसे जाग्रत नहीं होती. किसी में इसका स्तर कम होता है, किसी में ज्यादा तो किसी में ना के बराबर. तो क्या इसका अर्थ ये हुआ की जिसकी अन्तश्चेतना कम जाग्रत है वो मंत्र को प्राण ऊर्जा दे ही नहीं सकता?......नहीं, ऐसा नहीं है पर इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें मंत्रो की किस्मों और उच्चारण की विधि को समझना होगा. मंत्र आम तोर पर तीन किस्म के होते हैं –
वेदोक्त मंत्र, सर्वविदित मंत्र, और साबर मंत्र........पर इनमें से पहले और तीसरे क्रम को ज्यादा महत्व दिया जाता है. अब क्योकि साबर मंत्र “ मंत्र और तंत्र “ से मिलकर बनते है तो इन्हें सिद्ध करना आसान होता है पर इसके बिलकुल विपरीत वेदोक्त मंत्रो को सिद्ध करने के लिए साधक में धैर्य और विश्वास का होना अति आवश्यक है क्योकि इन मंत्रो का आधार ध्वनि होती है. उच्चारण ध्वनि में लेशमात्र भेदभाव इन्हें अर्थहीन बना देता है. इसीलिए इनमें ध्वनि के महत्व को समझते हुए हमारे ऋषिमुनियों ने ध्वनि के आधार पर इन मंत्रो को दो भागो में बांटा है- “गोपन मंत्र” अर्थात चित युक्त मंत्र और “स्फुट मंत्र” मतलब ध्वनि युक्त मंत्र. चित युक्त मंत्रो में साधक को मंत्र का उच्चारण मन ही मन में करना चाहिए पर ध्यान रखिये इसके लिए आपकी अन्तश्चेतना का पूरी तरह से जाग्रत होना अति आवश्यक है जिससे की आपकी आत्मा आपके मंत्र को सुन पाए. इसके उल्ट स्फुट मंत्रो में मंत्र का उच्चारण ध्वनि के साथ किया जाता है ताकि हम अपनी अंतर आत्मा के साथ मंत्र का सामंजस्य बिठा सकें और वो मंत्र हमें सिद्ध हो सके. इसीलिए ये जरूरी है की मंत्र हमेशा सदगुरुदेव से ही प्राप्त करना चाहिए जिससे की उसको विधिपूर्वक सिद्ध करके लाभ लिया जा सके

Happy new Year 2012

नव वर्ष पर आप सभी गुरुभाई और गुरुबहिनो को हार्दिक मंगलकामनायें....

!! श्री गुरु चरण कमलेभ्यो नमः !!
जय गुरुदेव!

आइये करे गुरु की खोज.....

जो हम ही में, हमारे हृदय में हैं.....

जिन खोजा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ...

आज शायद लोगो के लिए गुरु शब्द का अर्थ सिर्फ एक संत हो गया हैं. मगर गुरु की वास्तविकता तभी ही समझी जा सकती हैं, जब उस गुरु की शिष्यता में आकंठ डूब जाए. सब छोड़ कर गुरु ही याद रहे. मुझे सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी की इस सन्दर्भ में कुछ लाइने याद आती हैं....
जब गुरु गोरखनाथ से पहली बार उसके गुरु ने पूछा कि:
गुरु : "आपका काम क्या हैं?"
गोरखनाथ : "गुरु सेवा"
गुरु : "आपका नाम क्या हैं?"
गोरखनाथ : "शिष्य"

उन्होंने हर वो बात कहीं जो सिर्फ गुरु और शिष्य के रिश्ते पर आधारित होती थी.
मतलब वे गुरु के रंग में ही रंग गए थे, सब कुछ छोड़कर.

यह ही सदगुरुदेव का भी कहना हैं.... : "जो सब कुछ छोड़ सकता हैं, वही ही गुरु को पा सकता हैं."

और जो उसमें डूब जायेगा उसे पता होगा कि गुरु क्या हैं? कैसे हैं? क्या कर रहे हैं?

हकीकत तभी जानी जा सकती हैं जब उनके प्रेम में मीरा बन सकेंगे.

क्यूंकि समंदर की गहराई तो वही ही जान सकता हैं, जो समंदर में डुबकी लगा सकें.
जो गुरु के प्रेम में आकंठ नहीं डूबा वह नहीं जान सकता हैं.

तो सदगुरुदेव हम सभी को श्रेष्ठ बुद्धि दे कि हम सभी उनमें डूबता ही चले जायें.

क्यूंकि यही जिंदगी कि सबसे बड़ी सच्चाई होगी.

नव वर्ष पर आप सभी गुरुभाई और गुरुबहिनो को हार्दिक मंगलकामनायें....

आओ बनाये निखिल्मय, सिद्धाश्रम्मय इस जहाँ को.....Happy new Year 2012

Pupil guru the same way love used to love the way Shiva Markandeya

शिष्य गुरु से उसी प्रकार प्रेम करता है जिस प्रकार मार्कंडेय शिव से प्रेम करते थे | साधना का अर्थ ही है प्रेम ,आपने इष्ट से ,आपने गुरु से और उस प्रेम को व्यक्त करने की क्रिया में काल समय भी बाधक नहीं हो सकता ,ऐसा मार्कंडेय ने सिद्ध करके दिखा दिया |ऐसा ही प्रेम शिष्य का गुरु से हो |

शिष्य और गुरु के बीच में थोड़ी भी दूरी न हो | इतना शिष्य गुरु से एकाकार हो जाए कि कि फिर मुह से गुरु नाम या गुरु मंत्र का उच्चारण करना ही न पड़े | जिस प्रकार राधा के रोम-रोम में हमेशा कृष्ण -कृष्ण उच्चारित होता रहता था ,उसी प्रकार शिष्य के रोम-रोम से गुरु मंत्र उच्चारित होता रहे -सोते ,जागते ,चलते ,फिरते |

शिष्य को स्मरण रहे कि सदगुरुदेव सदा उसकी रक्षा के लिए तत्पर है |कोई क्षण नहीं जब सद्गुरु उसका ख़याल न रखते हो | जिस प्रकार हिरन्यकश्यप के लाख कुचक्रो के बाद भी प्रल्हाद का बाल भी बांका नहीं हुआ ,उसी प्रकार शिष्य के आस्था है तो कोई भी शक्ति उसका अहित नहीं कर सकती

संसार में सबकुछ क्षणभंगुर हैं ,सबकुछ नाशवान है केवल प्रेम ही शाश्वत है जो मरता नहीं जो जलता नहीं जो समाप्त नहीं होता |
जिसने प्रेम नहीं क्या उसका हृदय कमल विकसित हो ही नहीं सकता वह साधना कर ही नहीं सकता क्योंकि प्रेम ही जीवन का आधार है |
पर तुम्हारा प्रेम ,प्रेम नहीं ,वासना है ,क्षुद्रता है ,ओछापन है और फिर प्रेम शरीरगत नहीं आत्मगत होता है|
क्योंकि आत्मगत प्रेम ही प्रेम की पूर्णता ,सर्वोच्चता और श्रेष्ठता दे सकता है और ऐसा प्रेम सिर्फ गुरु से ही हो सकता है |
क्योंकि उसका और तुम्हारा सम्बन्ध शरीरगत नहीं विशुद्ध आत्मगत है |
यही साधना का पहला सोपान है |

गुरु और तुम में यही अंतर है की तुम हर हालत में दुखी होते हो जबकि गुरु को सुख दुःख दोनों ही व्याप्त नहीं होते ,वह दोनों से परे है और तुम्हे भी उस उच्चतम स्थिति पर ले जाकर खड़ा कर सकता है जहा दुःख ,पीडा तुम को प्रभावित कर ही न सके |

आप अपने को धन और वैभव पाकर सुखी मानने लगते है क्योंकि अभी आपने वास्तविक सुख को देखा ही नहीं |इन सुखो के पीछे भागकर आप अंत में दुःख ही पाते है |भोग से दुःख ही पैदा हो सकता है जबकि गुरु तुम्हे उस सुख से परिचित करना चाहता है जी आंतरिक है जो स्थायी है |

तुम सोचते हो की शादी करके सुखी होंगे या धन प्राप्त करके सुखी होंगे |सुख तो उसी क्षण पर संभव है वह धन पर निर्भर नहीं है |वह वास्तविक आनंद तुमने नहीं देखा इसलिए तुम धन को ही सुख मान बैठे हो जबकि उससे केवल दुःख ही प्राप्त होता है |

वास्तविक सुख तुम्हे तभी प्राप्त हो सकता है जब तुम अपने आप को पूर्ण रूप से गुरु में समाहित कर दोगे और वह हो गया तो फिर तुम्हारे जीवन में कोई अभाव रह ही नहीं सकता ,धन तो एक छोटी सी चीज है |पूर्णता तक तुम्हे कोई पहुंचा सकता है तो वह केवल गुरु है |

गुरु के सामने सभी देवी -देवता हाथ बांधे खड़े रहते है वह चाहे तो क्षण मात्र में तुम्हारे सभी कष्टों को दूर कर दे |??तो करता क्यों नहीं ?गुरु तो हर क्षण तैयार है तुममें ही समर्पण की कमी है ,जिस क्षण गुरु को तुमने अपने हृदय में स्थापित कर लिया उस क्षण से दुःख तुम्हारे जीवन में प्रवेश कर ही नहीं सकता |


तुम्हारा गुरुदेव,
नारायण दत्त श्रीमाली

Thursday, December 22, 2011

A Love Song... A Wish... A Prayer..





NIKHIL GURU MANTRA






34 Dedication Adilok visit Loca | समर्पण –34 लोका अधिलोक यात्रा

समर्पण –34 लोका अधिलोक यात्रा –
अब तक किताबों में पड़ा था के इस पृथ्वी के इलावा ब्रह्मांड में और भी लोक है !इंसान बिना देखे कभी यकीन नहीं कर सकता 1996 में मैं जब चंडीगड़ था !पूरा स्म्य साधना में गुजरता था सद्गुरुदेव की विशेष कृपा ही थी उनकी तरफ से बराबर दिशा निर्देश मिल जाते थे !एक दिन उनहो ने एक दिव्य मंत्र दिया और कहा इस मंत्र का जप लाल वस्त्र औड कर करो मैंने निहिचित समय पे मंत्र जप शुरू किया शुरू में शरीर में काफी गर्मी बढ़ गई फिर एक दम से शरीर सुन सा हो गया जैसे समाधि में होता है और पता ही नहीं चला ध्यान कभ ब्रह्मांड को चीरता हुया मेरा शरीर
(सूक्षम शरीर ) एक महल के एक बहुत बड़े दरवाजे के आगे पहुँच गया उस किले नुमा दरवाजे में परवेश करने ही वाला था और व्हा के दो पहरोदारों ने मुझे पकड़ लिया उन के हाथो में दो भाले से थे और वस्त्रो में राजसी लग रहे थे सिर पे लाल रंग अधिकता लिए हुए मुकट से थे जैसे किसी राजा के सैनिक हो और कहा परवेश किए जा रहे हो दोनों ने मुझे पकड़ लिया तभी मैंने सद्गुरु जी को याद किया और सद्गुरु जी उसी वक़्त प्रकट हुए और उन्हे मुझे छोडने को कहा वोह मुझे छोड़ कर एक तरफ हो गए और गुरु जी ने मुझे महल के अंदर परवेश करने का इशारा किया और खुद अधृष्ट हो गए मैंने परवेश किया और देखा बहुत ही भव्य महल था मणियो से प्रकाश निकल कर महल को रोशन कर रहा था और आगे बहुत बड़ा हाल था जिस में एक तरफ बैठने के लिए तख्त से थे और चारो और फूलो के गमले से रखे थे जो अजीब किसम के थे तभी सहमने से कुश लोग आते दिखाई दिये और उनहो ने मेरा स्वागत किया और मुझे एक आसन पे बैठाया और तभी एक राजा जैसा वियाकती आता दिखाई दिया उसने भी मुझे बहुत स्तीकार दिया और वहाँ बहुत सी बाते की और कई विषों पे चर्चा चलती रही और फिर मैंने सहमने बैठे एक ऋषि जैसे वियक्ति से पूछा यह कोण सा लोक है तो उसने बताया तुम इस वक़्त सूर्य लोक की भास्कर नगरी में हो और यह भास्कर नगरी के राजा नेत्र सैन का महल है !और मुझे मुझे यह रहस्य पहली वार अनुभव हुया के गुरु जी इस पृथ्वी लोक के इलावा अन्य लोगो की चिंता भी करते है और अन्य लोगो में भी उनके शिष्य हैं ! जब आँख खुली तो तीन घंटे बीत गए थे !फिर एक दिन नेत्र सैन जी मुझे मिलने आए और काफी चिंतक लग रहे थे !क्यू के निकट भविष्य में सूर्य ग्रहण था जिस का केंद्र भास्कर नगरी था मैंने उन्हे काफी आश्वाश्न दिया सूर्य ग्रहण के वक़्त वहाँ फिर जाना हुया और पहली वार देखा गुरु जी इस ग्रह के इलावा और लोगो में भी साधना शिवर आयोजन करते थे और व्हा के शिवर जहां से बहुत उच कोटी के थे !मुझे सद्गुरु जी की कृपा से वहाँ भाग लेने का अवसर मिला यह बाते भले ही पड़ने में अटपटी लगे लेकिन मैं उस रहस्य से वाकिव हो गया था के मुझे झन भेजने के पीछे सद्गुरु जी का क्या प्रयोजन था उस ग्रह की गरिमा और साधना अनुभव मैंने आज भी सँजो कर रखे है जो साधारण साधक को विस्मिक करने वाले है !मानो तो सभ कुश है नहीं तो कुश भी नहीं सरधा और विश्वश साधक को एक नए रहस्य से जोड़ देते है जिस पे यकीन करना आसान नहीं होता पर सत्य तो सत्य है जिसे कभी झुठलाया नहीं जा सकता !क्र्शम !!


Mein Garbhasth Baalak Ko Chetna Deta Hoon

 Mein Garbhasth Baalak Ko Chetna Deta Hoon:मे गर्वस्थ वालकको चेतना देता हुँ :


Listen to Mein Garbhasth Baalak Ko Chetna Deta Hoon in the original voice of Revered Sadgurudev Dr. Narayan Dutt Shrimali.



1.   Mein Garbhasth Baalak Ko Chetna Deta Hoon  (Part 1):



2.   Mein Garbhasth Baalak Ko Chetna Deta Hoon  (Part 2):