संकट नाशन गणेश स्तोत्र
प्रणम्य शिरसा देवं गौरी पुत्रं विनायकं |भक्तावासं स्मरेन्नित्य-मायुः कामार्थ सिद्धये || 1 ||
प्रथमं वक्रतुंडम च एकदंतं व्दितीयकम |
तृतीयं कृष्ण - पिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम || 2 ||
लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च |
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टकम || 3 ||
नवमं भलाचंद्रम च दशमं तु विनायकं |
एकादशं गणपति व्दादशम तु गजाननं || 4 ||
व्दाद -शैतानी नामानी त्रिसंध्यं यः पठैन्नरः |
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम || 5 ||
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम |
पुत्रार्थी लभते पुत्रान मोक्षार्थी लभते गतिम् || 6 ||
जपेद गणपति-स्तोत्रं षड्भिर्मासै: फलं लभेत |
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः || 7 ||
अष्ठभ्यो ब्राह्मनेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत |
तस्य विद्या भवेत् सर्व गणेशस्य प्रसादतः || 8 ||
| इति श्री नारद पुराने संकट नाशनं गणेश स्तोत्रं सम्पूर्णं |
Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Friday, July 8, 2011
Ganesh destruction crisis ode
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Ganesh destruction crisis ode
Dharma disciple of Guru
शिष्य धर्म
शिष्य वह है जो नित्य गुरु मंत्र का जप उठते, बैठते, सोते जागते करता रहता है।
चाहे कितना ही कठिन एवं असंभव काम क्यो न सोपा जाए, शिष्य का मात्र कर्तव्य बिना किसी ना नुकर के उस काम में लग जाना चाहिए।
गुरु शिष्य की बाधाओं को अपने ऊपर लेते है, अतएव यह शिष्य का भी धर्म है की वह अपने गुरु की चिंताओं एवं परेशानियों को हटाने के लिए प्राणपण से जुटा रहे।
शिष्य का मात्र एक ही लक्ष्य होता है, और वह है, अपने ह्रदय में स्थायी रूप से गुरु को स्थापित करना।
और फिर ऐसा ही सौभाग्यशाली शिष्य आगे चलकर गुरु के ह्रदय में स्थायी रूप से स्थापित हो पाता है।
जब ओठों से गुरु शब्द उच्चारण होते ही गला अवरूद्ध हो जाए और आँखे छलछला उठें तो समझे कि शिष्यता का पहला कदम उठ गया है।
और जब २४ घंटे गुरु का अहसास हो, खाना खाते, उठते, बैठते, हंसते गाते अन्य क्रियाकलाप करते हुए ऐसा लगे कि वे ही है मैं नहीं हूं, तों समझें कि आप शिष्य कहलाने योग्य हुए है।
जो कुछ करते हैं, गुरु करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्ही की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।
गुरु से बढ़कर न शास्त्र है न तपस्या, गुरु से बढ़कर न देवी है, व देव और न ही मंत्र, जप या मोक्ष। एक मात्र गुरुदेव ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं
शिव शासनतः शिव शासनतः शिवन शासनतः, शिव शासनतः
जो इस वाक्य को अपने मन में बिठा लेता है, तो वह अपने आप ही शिष्य शिरोमणि बन कर गुरुदेव का अत्यन्त प्रिय हो जाता है। गुरु जो भी आज्ञा देते है, उसके पीछे कोई-रहस्य अवश्य होता है। अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरु कि आज्ञा का पूर्ण तत्परता से, अविलम्ब पालन करना चाहिए, क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यो आया है, इस युग में क्यो जन्मा है, वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है, इस सबका ज्ञान केवल गुरु ही करा सकता है।
शिष्य को न गुरु-निंदा करनी चाहिए और न ही निंदा सुननी चाहिए। यदि कोई गुरु कि निंदा करता है तो शिष्य को चाहिए कि या तो अपने वाग्बल अथवा सामर्थ्य से उसको परास्त कर दे, अथवा यदि वह ऐसा न कर सके, तो उसे ऐसे लोगों की संगति त्याग देनी चाहिए। गुरु निंदा सुन लेना भी उतना दोषपूर्ण है, जितना गुरु निंदा करना।
गुरु की कृपा से आत्मा में प्रकाश सम्भव है। यही वेदों में भी कहा है, यही समस्त उपनिषदों का सार निचोड़ है। शिष्य वह है, जो गुरु के बताये मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लाभ लेकर अपने जीवन में चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
सदगुरु के लिए सबसे महत्वपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है और जो शिष्य बन गया, वह कभी भी अपने गुरु से दूर नहीं होता। क्या परछाई को आकृति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो सदगुरु कि परछाई की तरह होते है।
जिसमे अपने आप को बलिदान करने की समर्थता है, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खडा कर देने और अपनी पहचान के साथ-साथ गुरु की मर्यादा, सम्मान समाज में स्थापित कर देने की क्षमता हो वही शिष्य है।
गुरु से जुड़ने के बाद शिष्य का धर्म यही होता है, कि वह गुरु द्वारा बताये पथ पर गतिशील हो। जो दिशा निर्देश गुरु ने उसे दिया है, उनका अपने दैनिक जीवन में पालन करें।
यदि कोई मंत्र लें, साधना विधि लें, तो गुरु से ही लें, अथवा गुरुदेव रचित साहित्य से लें, अन्य किसी को भी गुरु के समान नहीं मानना चाहिए।
शिष्य के लिए गुरु ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाए तो उसे छोटे-मोटे अधिकारी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए श्रेष्ठ शिष्य वहीं है, जो अपने मन के तारों को गुरु से ही जोड़ता है।
शिष्य यदि सच्चे ह्रदय से पुकार करे, तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर गुरुदेव तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरुदेव तक पहुंचती ही है, इसमे कभी संदेह नहीं करना चाहिए।
मलिन बुद्धि अथवा गुरु भक्ति से रहित, क्रोध लोभादी से ग्रस्त, नष्ट आचार-विचार वाले व्यक्ति के समक्ष गुरु तंत्र के इन दुर्लभ पवित्र रहस्यों को स्पष्ट नहीं करना चाहिए।
वास्तविकता को केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आम का स्वाद उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना द्वारा विकसित ज्ञान द्वारा ही परम सत्य का साक्षात्कार सम्भव है।
-सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमालीजी
शिष्य वह है जो नित्य गुरु मंत्र का जप उठते, बैठते, सोते जागते करता रहता है।
चाहे कितना ही कठिन एवं असंभव काम क्यो न सोपा जाए, शिष्य का मात्र कर्तव्य बिना किसी ना नुकर के उस काम में लग जाना चाहिए।
गुरु शिष्य की बाधाओं को अपने ऊपर लेते है, अतएव यह शिष्य का भी धर्म है की वह अपने गुरु की चिंताओं एवं परेशानियों को हटाने के लिए प्राणपण से जुटा रहे।
शिष्य का मात्र एक ही लक्ष्य होता है, और वह है, अपने ह्रदय में स्थायी रूप से गुरु को स्थापित करना।
और फिर ऐसा ही सौभाग्यशाली शिष्य आगे चलकर गुरु के ह्रदय में स्थायी रूप से स्थापित हो पाता है।
जब ओठों से गुरु शब्द उच्चारण होते ही गला अवरूद्ध हो जाए और आँखे छलछला उठें तो समझे कि शिष्यता का पहला कदम उठ गया है।
और जब २४ घंटे गुरु का अहसास हो, खाना खाते, उठते, बैठते, हंसते गाते अन्य क्रियाकलाप करते हुए ऐसा लगे कि वे ही है मैं नहीं हूं, तों समझें कि आप शिष्य कहलाने योग्य हुए है।
जो कुछ करते हैं, गुरु करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्ही की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।
गुरु से बढ़कर न शास्त्र है न तपस्या, गुरु से बढ़कर न देवी है, व देव और न ही मंत्र, जप या मोक्ष। एक मात्र गुरुदेव ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं
शिव शासनतः शिव शासनतः शिवन शासनतः, शिव शासनतः
जो इस वाक्य को अपने मन में बिठा लेता है, तो वह अपने आप ही शिष्य शिरोमणि बन कर गुरुदेव का अत्यन्त प्रिय हो जाता है। गुरु जो भी आज्ञा देते है, उसके पीछे कोई-रहस्य अवश्य होता है। अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरु कि आज्ञा का पूर्ण तत्परता से, अविलम्ब पालन करना चाहिए, क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यो आया है, इस युग में क्यो जन्मा है, वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है, इस सबका ज्ञान केवल गुरु ही करा सकता है।
शिष्य को न गुरु-निंदा करनी चाहिए और न ही निंदा सुननी चाहिए। यदि कोई गुरु कि निंदा करता है तो शिष्य को चाहिए कि या तो अपने वाग्बल अथवा सामर्थ्य से उसको परास्त कर दे, अथवा यदि वह ऐसा न कर सके, तो उसे ऐसे लोगों की संगति त्याग देनी चाहिए। गुरु निंदा सुन लेना भी उतना दोषपूर्ण है, जितना गुरु निंदा करना।
गुरु की कृपा से आत्मा में प्रकाश सम्भव है। यही वेदों में भी कहा है, यही समस्त उपनिषदों का सार निचोड़ है। शिष्य वह है, जो गुरु के बताये मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लाभ लेकर अपने जीवन में चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
सदगुरु के लिए सबसे महत्वपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है और जो शिष्य बन गया, वह कभी भी अपने गुरु से दूर नहीं होता। क्या परछाई को आकृति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो सदगुरु कि परछाई की तरह होते है।
जिसमे अपने आप को बलिदान करने की समर्थता है, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खडा कर देने और अपनी पहचान के साथ-साथ गुरु की मर्यादा, सम्मान समाज में स्थापित कर देने की क्षमता हो वही शिष्य है।
गुरु से जुड़ने के बाद शिष्य का धर्म यही होता है, कि वह गुरु द्वारा बताये पथ पर गतिशील हो। जो दिशा निर्देश गुरु ने उसे दिया है, उनका अपने दैनिक जीवन में पालन करें।
यदि कोई मंत्र लें, साधना विधि लें, तो गुरु से ही लें, अथवा गुरुदेव रचित साहित्य से लें, अन्य किसी को भी गुरु के समान नहीं मानना चाहिए।
शिष्य के लिए गुरु ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाए तो उसे छोटे-मोटे अधिकारी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए श्रेष्ठ शिष्य वहीं है, जो अपने मन के तारों को गुरु से ही जोड़ता है।
शिष्य यदि सच्चे ह्रदय से पुकार करे, तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर गुरुदेव तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरुदेव तक पहुंचती ही है, इसमे कभी संदेह नहीं करना चाहिए।
मलिन बुद्धि अथवा गुरु भक्ति से रहित, क्रोध लोभादी से ग्रस्त, नष्ट आचार-विचार वाले व्यक्ति के समक्ष गुरु तंत्र के इन दुर्लभ पवित्र रहस्यों को स्पष्ट नहीं करना चाहिए।
वास्तविकता को केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आम का स्वाद उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना द्वारा विकसित ज्ञान द्वारा ही परम सत्य का साक्षात्कार सम्भव है।
-सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमालीजी
Saturday, July 2, 2011
Is dedicated to you
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त्वदीयं वस्तु गोविन्द
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षो बाद जब निखिलश्वेरानंद के सेवा ,एक निष्ठा एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामी जी प्रभावित हुए तो अक दिन पूछा-निखिल |मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ ,तुम जो कुछ भी चाहो मांग सकते हो ,असंभव मांग भी पूरी करूंगा ,मांगो ?निखिलश्वेरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे ,बोले -"त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " जब 'मेरा ' कहने लायक मेरे पास कुछ है ही नहीं ,तो मैं क्या मांगू ,किसके लिए मांगू ,मेरा मन ,प्राण ,रोम -प्रतिरोम तो आपका है ,आपका ही तो आपको समर्पित है ,मेरा अस्तित्व ही कहाँ है ?| उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सदृश गुरु की आँखे डबडबा गयी और शिष्य को आपने हाथो से उठा कर सीने से चिपका दिया ,एकाकार कर दिया ,पूर्णत्व दे दिया |
शिष्य की व्यक्तिगत कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं होती, जब वह मुक्त गुरु के सामने होता हैं, तब सरल बालक की तरह ही होता हैं, गुरु के सामने तो शिष्य कच्ची मिटटी के लौन्दे की तरह होता हैं, उस समय उसका स्वयं का कोई आकर नहीं होता, ऐसी स्थिति होने पर ही वह सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी हो सकता हैं. इसीलिए शिष्य को चाहिए की वह जब भी गुरु के सामने उपस्थित हो, तब वह सारी उपाधियों और विशेषताओं को परे रखकर उपस्थित हो, ऐसा होने पर ही परस्पर पूर्ण तादात्म्य सम्भव हैं.शिष्य का अर्थ निकटता होता हैं, और वह जितना ही गुरु के निकट रहता हैं, उतना ही प्राप्त कर सकता हैं, आप अपने शरीर से गुरु के चरणों में उपस्थित रह सकते हैं. यदि सम्भव हो तो साल में तिन या चार बार स्वयं उनके चरणों में जाकर बैठे, क्योंकि गुरु परिवार का ही एक अंश होता हैं, परिवार का मुखिया होता हैं, अतः समय-समय पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना, उससे कुछ प्राप्त करना, शिष्य का पहला धर्म हैं, यदि आप गुरु के पास जायेंगे ही नहीं, तो उनसे कुछ प्राप्त ही किस प्रकार से कर सकेंगे? गुरु से बराबर सम्बन्ध बनाये रखना और गुरु के साथ अपने को एकाकार कर लेना ही शिष्यता हैं.
गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि हैं, जब आप शिष्य हैं तो यह आपका धर्म हैं, कि आप गुरु की आज्ञा का पालन करें गुरु की आज्ञा में कोई ना कोई विशेषता अवश्य छिपी रहती हैं. जितनी क्षमता और शक्ति के द्वारा. जितना ही जल्दी सम्भव हो सकें, गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्यता का धर्म मन गया हैं.The Hunger Games
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
त्वदीयं वस्तु गोविन्द
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षो बाद जब निखिलश्वेरानंद के सेवा ,एक निष्ठा एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामी जी प्रभावित हुए तो अक दिन पूछा-निखिल |मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ ,तुम जो कुछ भी चाहो मांग सकते हो ,असंभव मांग भी पूरी करूंगा ,मांगो ?निखिलश्वेरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे ,बोले -"त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " जब 'मेरा ' कहने लायक मेरे पास कुछ है ही नहीं ,तो मैं क्या मांगू ,किसके लिए मांगू ,मेरा मन ,प्राण ,रोम -प्रतिरोम तो आपका है ,आपका ही तो आपको समर्पित है ,मेरा अस्तित्व ही कहाँ है ?| उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सदृश गुरु की आँखे डबडबा गयी और शिष्य को आपने हाथो से उठा कर सीने से चिपका दिया ,एकाकार कर दिया ,पूर्णत्व दे दिया |
शिष्य की व्यक्तिगत कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं होती, जब वह मुक्त गुरु के सामने होता हैं, तब सरल बालक की तरह ही होता हैं, गुरु के सामने तो शिष्य कच्ची मिटटी के लौन्दे की तरह होता हैं, उस समय उसका स्वयं का कोई आकर नहीं होता, ऐसी स्थिति होने पर ही वह सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी हो सकता हैं. इसीलिए शिष्य को चाहिए की वह जब भी गुरु के सामने उपस्थित हो, तब वह सारी उपाधियों और विशेषताओं को परे रखकर उपस्थित हो, ऐसा होने पर ही परस्पर पूर्ण तादात्म्य सम्भव हैं.शिष्य का अर्थ निकटता होता हैं, और वह जितना ही गुरु के निकट रहता हैं, उतना ही प्राप्त कर सकता हैं, आप अपने शरीर से गुरु के चरणों में उपस्थित रह सकते हैं. यदि सम्भव हो तो साल में तिन या चार बार स्वयं उनके चरणों में जाकर बैठे, क्योंकि गुरु परिवार का ही एक अंश होता हैं, परिवार का मुखिया होता हैं, अतः समय-समय पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना, उससे कुछ प्राप्त करना, शिष्य का पहला धर्म हैं, यदि आप गुरु के पास जायेंगे ही नहीं, तो उनसे कुछ प्राप्त ही किस प्रकार से कर सकेंगे? गुरु से बराबर सम्बन्ध बनाये रखना और गुरु के साथ अपने को एकाकार कर लेना ही शिष्यता हैं.
गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि हैं, जब आप शिष्य हैं तो यह आपका धर्म हैं, कि आप गुरु की आज्ञा का पालन करें गुरु की आज्ञा में कोई ना कोई विशेषता अवश्य छिपी रहती हैं. जितनी क्षमता और शक्ति के द्वारा. जितना ही जल्दी सम्भव हो सकें, गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्यता का धर्म मन गया हैं.The Hunger Games
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
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shadhna : In practice the formula for success
shadhna : In practice the formula for success
साधना में सफलता के सूत्र :-
साधक को चाहिए वह आपने पाप कार्य ,गलत कार्य और असामाजिक कार्य यदि किये हो तो गुरु के सामने साफ़ -साफ़ लिखकर प्रायश्चित कर ले |ऐसा करते ही साधक उन दोषों से मुक्त हो जाता है और इसके बाद गुरु आपने तपस्या के बल से उन दोषों को समाप्त कर देता है |
.गुरु पर पूर्ण और प्रगाढ़ आस्था रखे |किसी भी हालत में मन में भ्रम या संशय पैदा न करे |विपरीत परिस्थिति में भी गुरु के प्रति आस्था में किसी प्रकार के न्यूनता न लावे |
गुरु की आज्ञा जीवन में सर्वोच्च आज्ञा मानकर साधक को उसका पालन करना चाहिए |किसी भी प्रकार की ,कोई भी आज्ञा गुरु दे तो उसके बारे में कुछ भी विचार न करते हुए साधक को आज्ञा पालन करना चाहिए चाहे वह उसकी रूचि के अनुकूल हो या प्रतिकूल |
गुरु किसी भी प्रकार की परीक्षा ले तो उस परीक्षा के बारे में तर्क -वितर्क नहीं करे अपितु उसे सहर्ष शिरोधार्य कर परीक्षा में उतीर्ण होने का पूर्ण प्रयत्न करे |
गुरु जिस प्रकार से साधना क्रम बताये उसी प्रकार से साधना संपन्न करे |
आपने मन में पुरुष या नारी होने का अहम् न रखे अपितु आपने आप को साधक माने |पुरुष या नारी का भेद और अहम् समाप्त होने पर ही वह साधक कहलाने में समर्थ हो पाता है |
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
साधना में सफलता के सूत्र :-
साधक को चाहिए वह आपने पाप कार्य ,गलत कार्य और असामाजिक कार्य यदि किये हो तो गुरु के सामने साफ़ -साफ़ लिखकर प्रायश्चित कर ले |ऐसा करते ही साधक उन दोषों से मुक्त हो जाता है और इसके बाद गुरु आपने तपस्या के बल से उन दोषों को समाप्त कर देता है |
.गुरु पर पूर्ण और प्रगाढ़ आस्था रखे |किसी भी हालत में मन में भ्रम या संशय पैदा न करे |विपरीत परिस्थिति में भी गुरु के प्रति आस्था में किसी प्रकार के न्यूनता न लावे |
गुरु की आज्ञा जीवन में सर्वोच्च आज्ञा मानकर साधक को उसका पालन करना चाहिए |किसी भी प्रकार की ,कोई भी आज्ञा गुरु दे तो उसके बारे में कुछ भी विचार न करते हुए साधक को आज्ञा पालन करना चाहिए चाहे वह उसकी रूचि के अनुकूल हो या प्रतिकूल |
गुरु किसी भी प्रकार की परीक्षा ले तो उस परीक्षा के बारे में तर्क -वितर्क नहीं करे अपितु उसे सहर्ष शिरोधार्य कर परीक्षा में उतीर्ण होने का पूर्ण प्रयत्न करे |
गुरु जिस प्रकार से साधना क्रम बताये उसी प्रकार से साधना संपन्न करे |
आपने मन में पुरुष या नारी होने का अहम् न रखे अपितु आपने आप को साधक माने |पुरुष या नारी का भेद और अहम् समाप्त होने पर ही वह साधक कहलाने में समर्थ हो पाता है |
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
Tuesday, June 21, 2011
A hundred years later, the same strength, will power in front of you.
मैं तुम्हे गिडगीडाने वाला नहीं बनाना चाहता, मैं बना ही नहीं सकता। बन भी नहीं सकता, जब मैं खुद बना ही नहीं तो तुम्हे कैसे बनाउंगा। पहले हाथ उठाऊंगा नहीं, और हाथ उसका उठा और मेरे गाल तक पहुंचे उससे पहले छः थप्पड़ मार कर निचे गिरा दूंगा, आज भी इतनी ताक़त क्षमता रखता हूँ, आज से सौ साल बाद भी इतनी ही ताक़त, क्षमता रखूंगा आपके सामने।
सम्राट होते होंगे, मैंने देखा नही सम्राट कैसे होते है, मगर सम्राटों के सिर भी गुरू के चरणों मे झुकते है, उनके मुकुट भी गुरू के चरणों मे पड़ते हैं यदि वह सही अर्थों मे गुरू है, ज्ञान, चेतना युक्त है।
आज से हजारों वर्ष पहले सिंधु नदी के किनारे पहली बार आर्यों ने आंख खोली, हमारी पूर्वजों ने पहली बार अनुभव किया कि ज्ञान भी कुछ चीज़ होती है, पहली बार उन्होने एहसास किया कि जीवन मे कुछ उद्देश्य भी होता है, कुछ लक्ष्य भी होता है, तब उन्होने सबसे पहले गुरू मंत्र रचा, गुरू की ऋचाओँ को आवाहन किया। और भी देवताओं का कर सकते थे, भगवान रुद्र का कर सकते थे, विष्णु का कर सकते थे, उन ऋंषियों के सामने ब्रह्मा थे, इंद्र थे, वरुण थे, यम थे, कुबेर थे, सैकड़ों थे।
मगर सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना कि या संसार मे सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना हुई, वह गुरू मंत्र था।
जो कहूं वह करना ही है आपको। शास्त्रों ने कहा है- जैसे गुरू करे ऐसा आप मत करिए, जो गुरू कहे वह करिए। जो गुरू कहे वह करिए। आपको यह करना है तो करना है।
आप गुरू के बताए मार्ग चलेंगे, गतिशील होंगे, तो अवश्य आपको सफ़लता मिलेगी, गारंटी के साथ मिलेगी। और साधना आप पूर्ण धारण शक्ति के साथ करेंगे तो अवश्य ही पौरुषवान, हिम्मतवान, क्षमतावान बन सकते है। आप अपने जीवन मे उच्च से उच्च साधनाएं, मंत्र और तंत्र का ज्ञान गुरू से प्राप्त कर सके और प्राप्त ही नहीं करें, उसे धारण कर सकें, आत्मसात कर सके ऐसा मैं आपको ह्रदय से आर्शीवाद देता हूं, कल्यान कामना करता हूं
सम्राट होते होंगे, मैंने देखा नही सम्राट कैसे होते है, मगर सम्राटों के सिर भी गुरू के चरणों मे झुकते है, उनके मुकुट भी गुरू के चरणों मे पड़ते हैं यदि वह सही अर्थों मे गुरू है, ज्ञान, चेतना युक्त है।
आज से हजारों वर्ष पहले सिंधु नदी के किनारे पहली बार आर्यों ने आंख खोली, हमारी पूर्वजों ने पहली बार अनुभव किया कि ज्ञान भी कुछ चीज़ होती है, पहली बार उन्होने एहसास किया कि जीवन मे कुछ उद्देश्य भी होता है, कुछ लक्ष्य भी होता है, तब उन्होने सबसे पहले गुरू मंत्र रचा, गुरू की ऋचाओँ को आवाहन किया। और भी देवताओं का कर सकते थे, भगवान रुद्र का कर सकते थे, विष्णु का कर सकते थे, उन ऋंषियों के सामने ब्रह्मा थे, इंद्र थे, वरुण थे, यम थे, कुबेर थे, सैकड़ों थे।
मगर सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना कि या संसार मे सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना हुई, वह गुरू मंत्र था।
जो कहूं वह करना ही है आपको। शास्त्रों ने कहा है- जैसे गुरू करे ऐसा आप मत करिए, जो गुरू कहे वह करिए। जो गुरू कहे वह करिए। आपको यह करना है तो करना है।
आप गुरू के बताए मार्ग चलेंगे, गतिशील होंगे, तो अवश्य आपको सफ़लता मिलेगी, गारंटी के साथ मिलेगी। और साधना आप पूर्ण धारण शक्ति के साथ करेंगे तो अवश्य ही पौरुषवान, हिम्मतवान, क्षमतावान बन सकते है। आप अपने जीवन मे उच्च से उच्च साधनाएं, मंत्र और तंत्र का ज्ञान गुरू से प्राप्त कर सके और प्राप्त ही नहीं करें, उसे धारण कर सकें, आत्मसात कर सके ऐसा मैं आपको ह्रदय से आर्शीवाद देता हूं, कल्यान कामना करता हूं
Saturday, May 14, 2011
Guru Gita
गुरु गीता
गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।
गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।
वह सद्गुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।
[संपादित करें]गुरु
गुरु गीता में ऐसे सभी गुरुओं का कथन है जिनकों 'सूचक गुरु' ,'वाचक गुरु', बोधक गुरु', 'निषिद्ध गुरु', 'विहित गुरु', 'कारणाख्य गुरु', तथा 'परम गुरु' कहा जाता है।
इनमें निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं वही सद्गुरु हैं।
गुरु गीता
न जानन्ति परम तत्त्वं गुरुदीक्षा परान्ग्मुखा:|
भ्रांत पशुसमा हेय्ता: स्वपरिज्ञान वर्जिता ||
अतार्थ गुरु दीक्षा के बिना परम तत्व को नहीं जाना जा सकता और परमतत्व को जाने बिना मनुष्य भ्रांत पशु के सामान होता है |दीक्षा का तात्पर्य है पशुत्व से मानत्व और मानत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने की क्रिया |दीक्षा ही ऐसे प्रक्रिया है ,जिसके माध्यम से गुरु अपना तपस्यांश प्रदान कर शिष्य को देवत्व की ओर बढ़ाते है ,उसके जीवन की समस्त कमियों को समाप्त करते हुए शिष्य को पूर्णत्व देने के लिए तत्पर होते है | इसलिए गुरु के महिमा को कभी नहीं भूलना चाहिए |
गुरुभाव परम तीर्थम अनयेतीर्थ नीरार्थकम |
सर्वेतीर्थमयम देवी श्रीगुरो शेचर्नाम्बुजम||
अतार्थ हे पार्वती |गुरु ही सर्वश्रेष्ट तीर्थ है अन्य तीर्थ निरर्थक है |श्री गुरु के चरण कमल ही सर्व तीर्थमय है |जितने भी तीर्थ है कांची ,काशी ,गया ,अवंतिका आदि वहा कुछ पाने के लिए जाना आयास मात्रे है ,वे निर्जीव है ,निरर्थक है वे आपने उपासक को कोई चेतेन्यता नहीं दे सकते ,इसके अपेक्षा जीवित जाग्रत गुरु के चरणों में बैठकर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है इसलिए गुरु चरणों को तीर्थराज माना गया है जो श्रेय और प्रेय दोनों देने में समर्थ है |
गुरु गीता
हृद्याम्बुजे कर्निक्मध्येसंस्थं सिंहासने गुरुम संस्थितामदिव्येमुर्तिम |
ध्यायेद गुरुम चन्द्रकलाप्रकाषम चित्पुस्ताकाभिश्त्वरम दधानम ||
अतार्थ ह्रदय कमल के मध्ये में विराजमान दिव्य मूर्ति वाले ,चंद्रमा की कलाओं के सामान प्रकाशवान,वेद ज्ञान से युक्त ,शिष्यों को अभीष्ट वरदान देने वाले गुरुदेव का मैं अत्यंत भाव भेरे हृदये से ध्यान करता हूं |गुरु मूर्ति को आपने हृदय में ध्यान करना चाह्हिये इस प्रक्रियानुसार साधक द्वारा हृदय कमल के आसन पर गुरु के स्वरूप को स्थापित करके ,ध्यानावस्था में उनका चिंतन करने से ,विशेषकर उनके चरणों का ध्यान करने से चित्त के एकाग्रता बढती है |
गुरु गीता
नमस्ते नाथ भगवन शिवाय गुरुरूपिने |
विद्यावतारम संसिद्द्ये स्वीकृतानेक विग्रह :||
अतार्थ शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के लिए ज्ञान स्वरूप ,अनेकविध शरीर धारण करने वाले शिव स्वरूप सदगुरु को बारम्बार नमस्कार है |जब शिष्य के अज्ञान विशिप्त के अवस्था आती है तब शिव ही शिष्य को ज्ञान देने के लिए मानव शरीर धारेण कर उसे पूर्णता प्रदान करते है क्योंकि शिष्य जिस धरातल पर खड़ा होता है ,उसकी बराबर अवस्था में आकर ही ज्ञान प्रदान किया जा सकता है ,अत: शिष्य जिस स्थिति में होता है गुरु भी उसी स्थिति में आते है |
गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।
गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।
वह सद्गुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।
[संपादित करें]गुरु
गुरु गीता में ऐसे सभी गुरुओं का कथन है जिनकों 'सूचक गुरु' ,'वाचक गुरु', बोधक गुरु', 'निषिद्ध गुरु', 'विहित गुरु', 'कारणाख्य गुरु', तथा 'परम गुरु' कहा जाता है।
इनमें निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं वही सद्गुरु हैं।
गुरु गीता
न जानन्ति परम तत्त्वं गुरुदीक्षा परान्ग्मुखा:|
भ्रांत पशुसमा हेय्ता: स्वपरिज्ञान वर्जिता ||
अतार्थ गुरु दीक्षा के बिना परम तत्व को नहीं जाना जा सकता और परमतत्व को जाने बिना मनुष्य भ्रांत पशु के सामान होता है |दीक्षा का तात्पर्य है पशुत्व से मानत्व और मानत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने की क्रिया |दीक्षा ही ऐसे प्रक्रिया है ,जिसके माध्यम से गुरु अपना तपस्यांश प्रदान कर शिष्य को देवत्व की ओर बढ़ाते है ,उसके जीवन की समस्त कमियों को समाप्त करते हुए शिष्य को पूर्णत्व देने के लिए तत्पर होते है | इसलिए गुरु के महिमा को कभी नहीं भूलना चाहिए |
गुरुभाव परम तीर्थम अनयेतीर्थ नीरार्थकम |
सर्वेतीर्थमयम देवी श्रीगुरो शेचर्नाम्बुजम||
अतार्थ हे पार्वती |गुरु ही सर्वश्रेष्ट तीर्थ है अन्य तीर्थ निरर्थक है |श्री गुरु के चरण कमल ही सर्व तीर्थमय है |जितने भी तीर्थ है कांची ,काशी ,गया ,अवंतिका आदि वहा कुछ पाने के लिए जाना आयास मात्रे है ,वे निर्जीव है ,निरर्थक है वे आपने उपासक को कोई चेतेन्यता नहीं दे सकते ,इसके अपेक्षा जीवित जाग्रत गुरु के चरणों में बैठकर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है इसलिए गुरु चरणों को तीर्थराज माना गया है जो श्रेय और प्रेय दोनों देने में समर्थ है |
गुरु गीता
हृद्याम्बुजे कर्निक्मध्येसंस्थं सिंहासने गुरुम संस्थितामदिव्येमुर्तिम |
ध्यायेद गुरुम चन्द्रकलाप्रकाषम चित्पुस्ताकाभिश्त्वरम दधानम ||
अतार्थ ह्रदय कमल के मध्ये में विराजमान दिव्य मूर्ति वाले ,चंद्रमा की कलाओं के सामान प्रकाशवान,वेद ज्ञान से युक्त ,शिष्यों को अभीष्ट वरदान देने वाले गुरुदेव का मैं अत्यंत भाव भेरे हृदये से ध्यान करता हूं |गुरु मूर्ति को आपने हृदय में ध्यान करना चाह्हिये इस प्रक्रियानुसार साधक द्वारा हृदय कमल के आसन पर गुरु के स्वरूप को स्थापित करके ,ध्यानावस्था में उनका चिंतन करने से ,विशेषकर उनके चरणों का ध्यान करने से चित्त के एकाग्रता बढती है |
गुरु गीता
नमस्ते नाथ भगवन शिवाय गुरुरूपिने |
विद्यावतारम संसिद्द्ये स्वीकृतानेक विग्रह :||
अतार्थ शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के लिए ज्ञान स्वरूप ,अनेकविध शरीर धारण करने वाले शिव स्वरूप सदगुरु को बारम्बार नमस्कार है |जब शिष्य के अज्ञान विशिप्त के अवस्था आती है तब शिव ही शिष्य को ज्ञान देने के लिए मानव शरीर धारेण कर उसे पूर्णता प्रदान करते है क्योंकि शिष्य जिस धरातल पर खड़ा होता है ,उसकी बराबर अवस्था में आकर ही ज्ञान प्रदान किया जा सकता है ,अत: शिष्य जिस स्थिति में होता है गुरु भी उसी स्थिति में आते है |
Wednesday, April 20, 2011
MAHAKALI Sadhana
श्मशान काली साधना
शवारूढाम्महाभीमां घोर दंष्ट्राम हसंमुखीम,
चतुर्भुजांखड्ग मुण्ड वराभयकरां शिवाम्.
मुण्डमालाधरां देवीं ललज्जिह्वान्दिगम्बराम्.
एवं संचिन्त्येकत्काली श्मशानालयवासिनीम्.
काली के इस ध्यान मंत्र से स्पष्ट हैं, कि काली श्मशान में वास करती हैं, और शव पर आरूढ़ हैं.
काली की अनेकों प्रकार से साधना संभव हैं, परन्तु उस दिन पूज्यपाद सदगुरुदेव जो साधना संपन्न करा रहे थे, वह श्मशान में ही संपन्न हो सकती थी. और साधना के गूढ़तम रहस्यों को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव ने बताया कि यदि श्मशान पद्धति से काली को आत्मस्थ कर उनकी ही भांति शव पर आरूढ़ होकर इस श्मशान साधना को सिद्ध किया जायें, तो ऐसा संभव ही नहीं हैं, कि श्मशान सिद्धि और महाकाली सिद्धि प्राप्त न हो, और जब गुरु स्वयं ही इस साधना को संपन्न करावे तो अनिश्चितता जैसी कोई सम्भावना रह ही नहीं जाती हैं. परन्तु इसके लिए आवश्यक हैं, कि साधक शव पर बैठ कर मंत्र जाप करें. बिना शव पर आसीन हुए इस मंत्र जाप का कोई अर्थ नहीं होता. परन्तु इस प्रकार की श्मशान क्रियाएं सम्पन्न कराना मैं पसंद नहीं करता हूँ, क्योंकि इसके लिए शवों की आवश्यकता पड़ती हैं.
साधक पहले तो अति प्रसन्न हुए कि पूज्य गुरुदेव से एक अत्यंत उच्चा कोटि की महाविद्या साधना प्राप्त होने जा रही हैं, जो प्रथम बार में ही सिद्ध हो जाती हैं, परन्तु उनकी दूसरी बात सुनकर वे पुनः दुखी हो गए. वास्तव में बात सही थी, क्योंकि इस साधना में शवो की आवश्यकता थी, और प्रत्येक साधक के लिए ऐसी व्यवस्था करना सर्वथा असंभव और अनैतिक था. इसीलिए गुरुदेव इस प्रकार की साधना पद्धतियों का उल्लेख तो अवश्य किया करते थे, परन्तु संपन्न कभी नहीं करवाते थे.थोडी देर में साधकों को प्लाई वुड के टुकड़े दिए गए और साधकों को उन पर बैठने का आदेश दिया गया. लकडी पर मानवाकृति अंकित थी. उधर मंच पर पूज्य सदगुरुदेव आसन से तुंरत उठ खड़े हुए और गगनभेदी आवाज में जो उनका मंत्रोच्चारण प्रारम्भ हुआ तो आस पास का पूरा वातावरण एकदम ठक सा रह गया. हवा रूक गयी और चारों ओर घोर निःस्तब्धता छा गयी, बस कुछ सुनाई दे रहा था, तो गुरुदेव का अबाध गति में मंत्रोच्चार. साधक अपना दिल थामे लकडी के टुकडों पर बैठे थे. जो साधक उस समय उपस्थित थे, उन्हें गुरुधाम का वह दृश्य आज भी याद होगा.
थोडी ही देर में आसमान में चील और गिद्ध मंडराने लगे, एक दो नहीं सैकडो-हजारों की संख्या में और वातावरण में भी दुर्गन्ध सी व्याप्त होने लगी, कुछ गिद्ध तो एकदम नीचे तक आ रहे थे, जिससे साधक विचलित भी हो रहे थे. गुरुदेव आधे घंटे तक उसी अजस्त्र वेग से मंत्रोच्चार किये गए, और उसी में कई साधकों को अनेकों अनुभव हुए.वस्तुतः यही वह क्रिया होती हैं, जिसे प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं, और इसी क्रिया द्वारा एक सामान्य से लकडी के टुकड़े को या पत्थर के टुकड़े को या किसी माला यन्त्र को इच्छानुसार कोई भी रूप दिया जा सकता हैं. गुरुदेव जब किसी माला को या यंत्र को किसी साधक को देते हैं, तो वह माला या यंत्र पत्थर के टुकडों की एक लड़ी या तांबे का एक टुकडा भर नहीं होता, अपितु उसमें देवताओं का अंश सुक्ष्म रूप से विराज रहा होता हैं. यही प्राण प्रतिष्ठा क्रिया का महत्त्व हैं. परंतु यह क्रिया मात्र मंत्रोच्चारण तक ही सीमित नहीं होती, अपितु यह तो सदगुरु अपने प्राणों की ऊर्जा के एक अंश को ही किसी वास्तु में उतार देते हैं, जिससे साधक का कल्याण हो सकें. उसी प्राण ऊर्जा को जब किसी जड़ पदार्थ में उतरा जाता हैं, तो उसे प्राणप्रतिष्ठा कहा जाता हैं, और उसी प्राण ऊर्जा को जब किसी चेतन व्यक्ति में उतारा जाता हैं, तो उसे दीक्षा कहा जाता हैं.और प्राण प्रतिष्ठा जब हो जाती हैं, तो वही यंत्र, वही माला एक माला न रहकर एक अत्यंत दिव्य वस्तु बन जाती हैं, जो साधक का निश्चित रूप से कल्याण करने में सहायक होती हैं, क्योंकि फिर वह एक धातु नहीं रह जाती, अपितु देवताओं का निवास स्थान होती हैं. और ऐसी ही कोई दिव्य चैतन्य सामग्री प्राप्त कर जब साधक यंत्र में और देवता में बिना कोई भेद समझते हुए जब मंत्र प्रक्रिया या साधना करता हैं, तो यंत्र में निहित देवांश उपस्थित होकर उसका कल्याण करता हैं. फिर यंत्र की वह ऊर्जा स्वयं ही साधक के अन्तः में स्थित हो जाती हैं. ये यंत्र या मालाएं उस दिव्य ऊर्जा को साधक के शारीर में स्थापित करने का मात्र एक माध्यम भर ही होती हैं.
कुछ साधको का प्रश्न होता हैं, कि प्राण प्रतिष्ठा कैसे संपन्न की जाती हैं, और वे इसकी विधि पूछते हैं. ऐसे कई ग्रन्थ हैं, जिनमें प्राण प्रतिष्ठा की विधि और मंत्र दिए हुए हैं. परंतु प्राण प्रतिष्ठा की क्रिया मात्र मंत्रोच्चारण या कुछ आवश्यक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं होकर उससे भी आगे की क्रिया हैं, जो मात्र गुरु ही संपन्न कर सकते हैं, और केवल वही गुरु जिन्होंने प्राण तत्व का स्पर्श किया हो, जिनकी कुण्डलिनी पूर्ण रूप से जाग्रत हो, जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हो.
उनके दिव्व्य स्पर्श से और संकल्प से ही प्राण प्रतिष्ठा की क्रिया संपन्न हो पति हैं, ऊच्च कोटि के योगियों और गुरुओं के लिए तो मात्र एक बार विचार करना या संकल्प भर लेना ही पर्याप्त होता हैं, शेष कार्य तो स्वतः ही संपन्न हो जाते हैं.
बाद में सदगुरुदेव ने बताया कि आम के उन टुकडों को भी मंत्रों द्वारा प्रतिष्ठा कर शव का रूप दिया जा सकता हैं. उन्होंने बताया कि तुम तो शायद इसे आम का टुकडा ही समझ रहे होंगे, परन्तु इसकी गंध और इसका प्रभाव पूरा एक मुर्दा शव की तरह ही हो गया था, और वे जो हजारों गिद्ध आ गए थे, वह इसी बात का प्रमाण था, कि ये आम के टुकड़े नहीं वरण मृत मानव देह ही हैं. बाद में जब मंत्रो का विपरीत क्रम गुरुदेव ने दोहराया तब सब शांत और पूर्ववत हो गया, चील और गिद्धों का सैलाब जहाँ से उमड़ा था वहीँ वापस लौट गया.
पूज्य गुरुदेव ने सभी का मानस पढ़ लिया, साधक बहुत दुखी और निराश हो गए थे, और यही वह बिंदु होता हैं, जो गुरु से देखा नहीं जाता. सदगुरुदेव ने पुनः कहा कि कोई बात नहीं मैं इसकी व्यवस्था करूँगा और प्रत्येक साधक को यह साधना संपन्न कराऊंगा और निश्चित रूप से कराऊंगा, यह गुरु का वाक्य हैं.
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